सोमवार, 10 जनवरी 2011

हिन्दी पाठ्यक्रम में शामिल हो ग़ज़ल


इलाहाबाद विश्वविद्यालय का विहंगम दृश्य


इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
ग़ज़ल मूलतः फारसी की विधा है। हिंदुस्तान में आने के बाद धीरे-धीरे यह उर्दू भाषा में इस तरह समाहित हुई कि उर्दू की विधा बन गई। आज ग़ज़ल उर्दू की विधा मानी जा रही है, यह सब ग़ज़ल की लोकप्रियता का प्रमाण है। ग़ज़ल की लोकप्रियता यहीं नहीं रुकी, उर्दू में घुलने मिलने के बाद इसने कई दूसरी भाषाओं पर जादू बिखेरा, इनमें प्रमुख रूप से हिन्दी है। आज ग़ज़ल हिन्दी भाषी लोगों के काफी करीब हो चुकी है, हिन्दी भाषी लोगों में इस कदर घुल मिल गई कि तमाम लोग इसे हिन्दी की विधा समझने लगे हैं। हिन्दी के अलावा भारत की अन्य भाषाओं तेलुगु, कन्नड़ बंगाली और मराठी के साथ ही विदेशी भाषा चीनी व फ्रेंच में भी ग़ज़ल खूब कही जा रही है। आज हिन्दुस्तान में ग़ज़ल को उर्दू से ज्यादा हिन्दी भाषा के जानकार लिख और पढ़ रहे हैं। ये और बात है कि कुछ संकीर्ण मानसिकता के लोग इसे उर्दू भाषा की विधा समझते हुए छूत समझते हैं। मगर इसके विपरीत बहुत से साहित्यकार हिन्दी उर्दू को अलग भाषा न मानकर एक साथ मिलजुल कर काम रहे हैं। आज तमाम स्थानों पर कवि सम्मेलन और मुशायरा एक ही साथ एक मंच पर आयोजित किए जा रहे हैं। ऐसे में मंच पर पढ़ने वाला व्यक्ति जब ग़ज़ल पढ़ता है तो यह भेद करना मुश्किल हो जाता है कि मंच पर खड़ा होकर पढ़ने वाला हिन्दी का कवि है या उर्दू का शायर। कहने का मतलब यह है कि ग़ज़ल को हिन्दी भाषियों ने तहेदिल से अपना लिया है। ये लोग इसे अपने से अलग बिल्कुल भी नहीं समझते। ऐसे हालात में यह चर्चा जोर पकड़ने लगी है कि ग़ज़ल को हिन्दी के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। इसके पक्ष में कई तर्क दिए जा रहे हैं, तो विरोध करने वालों की भी कमी नहीं है। विरोध करने वाले कहते हैं कि ग़ज़ल शुद्ध रूप से उर्दू की विधा है, इसलिए इसे हिन्दी के पाठ्यक्रम में क्यों शामिल किया जाए, विरोध करने वाले बहुत से लोग समझते हैं कि उर्दू विदेशी या मुसलमानों की भाषा है। मगर, यह बात सच्चाई से परे है। उर्दू भारत की ही भाषा है और भारत में ही पली बढ़ी है। अंग्रेज़ों ने भारत के लोगों को भाषागत आधार पर भी बांटने का कुचक्र रचा था, जिसमें वे काफी हद तक कामयाब भी रहे। अंग्रेजों ने हिन्दू धर्म की बातें हिन्दी में और मुसलिम धर्म की बातें उर्दू में अनुवाद करवाया। आज़ादी के बाद जहां भारत में राष्ट्र भाषा को लेकर अभी विचार विमर्श चल रहा था, वहीं पाकिस्तान में आनन-फानन में उर्दू को राष्ट्र भाषा घोषित कर दिया गया। इसी का असर था कि भारत में फौरन ही हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दे दिया गया। ग़ज़ल का विरोध कई लोग इस वजह से भी करते हैं कि उन्हें इसके छंद को लेकर परेशानी है। इसका बेहद जटिल छंद समझ में न आने के कारण झल्ला जाते हैं और कहते हैं कि इसका छंद बदला जाना चाहिए। इनका अपना तर्क है कि रटे-रटाए छंद में ही ग़ज़ल कब तक कही जाती रहेगी, अब कुछ नया होना चाहिए। इसी दलील के तहत कई लोग अनाप-शनाप और बिना किसी छंद के ग़ज़ल लिख रहे हैं और इसे नई विधा बता देते हैं। यहां कई चीजें समझने की जरूरत है। पहले तो यह कि ग़ज़ल की अपनी एक पहचान है, और यह पहचान इसके अपने छंद और लय के कारण ही है। ग़ज़ल की लोकप्रियता भी इसके छंद और लय के चलते ही है। ऐसे में यह कहना कि इसके छंद और लय को ही बदल बदला जाए, किसी भी हिसाब से मुनासिब नहीं हो सकता। ठीक उसी तरह जैसे कि कोई व्यक्ति पायजामा को पैंट कहना शुरू कर दे, और दलील दे कि यह नया अंदाज़ है मैं तो इसे पैंट ही कहूंगा। जैसे दोहा का अपना एक निर्धारित छंद है, उसी तरह ग़ज़ल के अपने पैमाने हैं जिसके साथ छेड़छाड़ करके शायरी करना और उसे ग़ज़ल बताना सही नहीं कहा जाएगा। जब ग़ज़ल को हिन्दी पाठ्यक्रम में शामिल करने की बात आती है तो इसके चाहने वाले अपना तर्क देते हैं। इनका कहना है कि विधा की कोई भाषा नहीं होती है। जब ग़ज़ल हिन्दी भाषियों के बीच अपना मुकाम बना चुकी है तो इसे हिन्दी पाठ्यक्रम में शामिल करने में कोई हर्ज नहीं है। गौरतलब है कि भारत के कई विश्वविद्यालयों के हिंदी पाठ्यक्रम में ग़ज़ल को शुमार किया गया है जो छात्र-छात्राओं के बीच काफी लोकप्रिय है। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के विश्वविद्यालय इनमें अग्रणी हैं। अब जरूरत इस बात कि है कि उत्तर प्रदेश और अन्य प्रदेशों के विश्वविद्यालयों सहित इंटरमीडिएट और हाईस्कूल के पाठ्यक्रमों में ग़ज़ल को शामिल किया जाए। इसके लिए साहित्यकारों के बीच रायशुमारी कराई जा सकती है। किसी विधा को भाषा विशेष से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए।

अमर उजाला काम्पैक्ट में 12 सितंबर 2010 को प्रकाशित

चित्र admissiondiary.com से साभार

1 टिप्पणियाँ:

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

very nice post and article

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