रविवार, 8 जनवरी 2017

गुम हो गया इलाहाबद की सड़कों से लाल हेलमेट


(कैलाश गौतम को उनके जन्मदिन पर याद करते हुए  )
                                                                        -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
कथाकर अमरकांत ने एक इंटरव्यू में कैलाश गौतम के बारे में पूछने पर कहा था कि ‘कैलाश इस समय का एक मात्र हिन्दी कवि है जो मंत्री से लेकर संत्री तक में अपनी कविताओं के लिए समान रूप से लोकप्रिय है’। बिल्कुल सत्य है। कैलाश गौतम की ‘कचहरी’, ’अमवसा क मेला‘, ‘पप्पू की दुलहिन’, ‘रामलाल क फगुआ’, ‘बियाहे क घर’ और ‘गांव गया था गांव से भागा’ समेत अनेक कविताओं को रिक्शे-तांगे वाले तक गाते-सुनते देखे जाते थे। आम जनता में अपनी कविता से इस मशहूर और प्रचलित होना बेहद ही मुश्किल और प्रायः अकेला उदाहरण है। 
मुझे अच्छी तरह से याद है, वे इलाहाबाद स्थित हिन्दुस्तानी एकेडेमी के अध्यक्ष थे (दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री)। 5 दिसंबर 2006 का दिन था। ‘गुफ्तगू’ के सुनील दानिश विशेषांक का विमोचन पद्मश्री शम्सुर्रहमान फ़ारूकी के हाथों हिन्दुस्तानी एकेडेमी के सभागार में ही होना था, कैलाश जी को संचालन करना था। कार्यक्रम शुरू होने से लगभग 30 मिनट पहले मैं उनके चैंबर में उनके साथ बैठा था। मैं उनका बेहद सम्मान करता था, इसलिए उनके सामने ज्यादा कुछ बोलने और पूछने की हिम्मत नहीं थी। चाय पीने बाद वे अचानक बोल पड़े ‘इम्तियाज, तुम्हें पता है मैं बहुत परेशान हो गया था, मुझे लगने लगा था कि हार्ट प्रॉबलम हो गया है, मैंने डाक्टर से चेकअप कराया है, लेकिन पता चला है कि पीलिया(ज्वाइंडिश)है, सतर्कता बरत रहा हूं। मैंने उन्हें एहतियात बरतने को कहा।’ फिर कार्यक्रम शुरू हुआ और शानदार संचालन कैलाश गौतम ने किया। तब मैं कानपुर में नौकरी करता था, अगले ही दिन कानपुर चला गया। दो दिन बाद मैंने उनका हाल-चाल जानने के लिए उनके मोबाइल पर फोन किया। फोन उनके बेटे श्लेष गौतम ने उठाया, रोते हुआ बोला- इम्तियाज़ भाई पापा की तबीयत बहुत ज्यादा खराब है, आईसीयू में हूं। यह सुनते ही मुझे जैसे करंट मार गया हो। मेरी समझ में नहीं आ  रहा था कि क्या करूं। फिर तकरीबन आघे घंटे बाद इलाहाबाद से ही जयकृष्ण राय तुषार का फोन आया, बोले- इम्तियाज़ पूर्वांचल का सूरज हमेशा-हमेशा के लिए डूब गया, कैलाश गौतम जी नहीं रहे।’ फोन काटने के बाद बेहद दुखी मन से वहीं बैठ गया। उस दिन किसी तरह आफिस का काम करने के बाद छुट्टी लेकर इलाहाबाद आ गया, उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुआ। घर आने पर मेरी अम्मी घर के सोफे की तरफ इशारा करती बोलीं, यही जगह है जहां कैलाश गौतम जी ईद वाले दिन आकर बैठे थे, वो भी बहुत दुखी थीं, मेरे पिता जी के देहांत के बाद कैलाश जी मेरे ऐसे अभिभावके के रूप में थे, जिनसे मैं अपने दुख व्यक्त करता था और वे सहारा देते हुए हर तरह से सहयोग करते थे। मुझे नौकरी दिलवाने से लेकर तमाम काम ऐसे हैं जो कैलाश जी वजह से ही मुझे मिले हैं। हर वर्ष ईद के दिन कैलाश जी को मेरे घर आना और साथ में भोजन करना तय था, इसके लिए मुझे उन्हें आमंत्रित करने की आवश्यकता नहीं होती थी।
कानपुर में नौकरी के दौरान मेरी आदत में शामिल था कि सुबह घर पहुंचने के बाद चाय-नाश्ता करके उनसे मिलने उनके घर चला पैदल ही जाता था, उनका घर मेरे घर से मात्र आधा किमी की दूरी पर है। एक बार उनके घर पहुंचा तो बोले, इम्तियाज बेकल उत्साही साहब का फोन आया था उनकी लड़की शादी यही सराय इनायत में तय हो रही है, उन्होंने तुम्हें और मुझे उनके परिवार वालों के बारे में पता लगाने को कहा है, अगले हफ्ते तुम आओ तो साथ में चलते हैं। फिर अगले हफ्ते हम हिन्दुस्तानी एकेडेमी की कार से सराय इनायत स्थित गांव में पहुंचे, वहां पहुंचकर उस परिवार से मिले बातचीत की और वापस आ गए। कार चलाने वाले चालक का नाम राम अचल है। वह चालक जब भी कुछ गड़बड़ या देरी करता कैलाश जी उस पर हंसते हुए कहते -यार तुम अपने नाम में से ‘अ’ शब्द हटा लो।
कैलाश गौतम अपनी पुरानी स्कूटर पर लाल हेलमेट लगाकर चलते थे, कब किस मुहल्ले किस रास्ते में लाल हेलमेट दिख जाए कहा नहीं जा सकता था। तमाम लोगों के काम अपने जिम्मे लिए शहर में घूमते रहते थे। उनके निधन पर अब लाल हेलमेट नहीं दिखता, जिसके देखने के लिए लोग मंुतजिर रहते थे।

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