बाएं से: मनमोहन सिंह तन्हा, अमिताभ और इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी |
29 जून 1966 को स्वर्गीय रामेश्वर दयाल अग्रवाल के घर जन्मे अमिताभ वर्तमान समय में प्रयागराज रेल मंडल के मंडल रेल प्रबंधक (डीआरएम) हैं। इन्होंने मैकेनिल इंजीनियरिंग में स्नातक और इंजीनियरिंग आॅफ प्रोडक्शन एवं मशीन-एक्वीपमेंट में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल किया है। आप आईआरएसएमई के 1987 बैच के अफसर हैं, सेलेक्शन के बाद रेलवे में विभिन्न पदों पर काम करते हुए 18 अप्रैल 2018 से प्रयागराज के मंडल रेल प्रबंधक के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। ‘रेलकर्मी विशेषांक’ के लिए उनका इंटरव्यू लेने इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी और मनमोहन सिंह तन्हा 01 जून 2020 को उनके दफ्तर पहुंचे। मौजूद हालात में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए उनसे बातचीत की गई। प्रस्तुत है उस बातचीत के संपादित अंश।
सवाल: रेलकर्मियों के लेखन को किस रूप में देखते हैं ?
जवाब: रेलकर्मी बहुत ही मुश्किल हालात में 24 घंटे लगकर काम करते हैं, बहुत मेहनत और लगन से अपनी ड्यूटी का निर्वहन करते हैं। लेकिन किसी प्रकार की साहित्यिक प्रतिभा से उनका मानसिक विकास होता है, इससे उन्हें अपने नियमित काम करने में भी सहायता मिलती है। लेखन वही लोग करते हैं जो समाज और देश को लेकर संवेदनशील होते हैं, उनके अंदर अच्छी भावनाओं होती है। इससे मन का भी विकास होता है, ऐसे लोग बेहतर कर्मचारी भी होते हैं। रेलवे की तरफ से विभिन्न आयोजन होते रहते हैं, जिनमें रेलकर्मियों और उनके बच्चों को प्रोत्साहित करने का काम किया जाता है। कला और साहित्य के क्षेत्र में करने वाली विभिन्न प्रतिभाओं को पुरस्कृत किया जाता है।
सवाल: गुफ़्तगू के रेल कर्मी विशेषांक को किस प्रकार से देखते हैं ?
जवाब: यह बहुत अच्छा प्रयास है। रेलकर्मियों का जो साहित्यिक रूझान है उन्हें प्रोत्साहित करने का यह अच्छा प्रयास है, जो भी साहित्य के पाठक हैं, उनको पढ़कर अच्छा लगेगा। रेलेकर्मियों के लिए अच्छी बात हैं कि उनके लेखन को प्रकाशित करके तमाम पाठकों तक पहुंचाया जा रहा है, यह बहुत अच्छी बात है। रेलकर्मियों की रचना को किसी पत्रिका में स्थान मिलना भी बहुत महत्वूपर्ण है।
सवाल: सोशल मीडिया ने साहित्य सृजन और मानसिक विकास पर कितना प्रभाव डाला है ?
जवाब: सोशल मीडिया पर अधिकांश मैसेज फारवर्डेड होते हैं, मूल मैसेज बहुत कम होते हैं। अगर 1000 मैसेज आते हैं तो इनमें 10 ही मूल मैसेज होते हैं। सोशल मीडिया में उलझने का काम ज़्यादा होता है, मानसिक विकास की जगह मानसिक उलझन ज़्यादा होती है, मानसिक विकास की संभावना काफी कम हो जाती है। जब आप सोशल मीडिया पर लगातार चीज़ों को देखते और पढ़ते रहते हैं तो अंदर की प्रतिभा निकलकर आने की संभावना बहुत कम हो जाती है। सोशल मीडिया का प्रयोग लोग बहुत ही सावधानी से करें, जितनी आवश्यकता है उतनी ही करें, केवल कामभर का करें। हर प्रकार की ख़बरें हैं यहां, अगर बुरा देखेंगे, बुरा पढ़ेंगे, निगेटिव चीजों के बीच रहेंगे तो आपके अंदर निगेटिव चीज़ें ही आएंगी। इसलिए बहुत सावधानी की आवश्यकता है। अच्छी चीजों को देखेंगे, पढ़ेंगे तो अच्छा काम करेंगे।
सवाल: प्रयागराज साहित्य का गढ़ रहा है, डीआरएम के रूप में आपने इसे किस प्रकार महसूस किया है ?
जवाब: मैं प्रयागराज में ही पैदा हुआ, यहीं पला, बढ़ा हूं। मेरी माता जी 2018 में गुजर गई थीं। यहीं डीपी गल्र्स इंटर काॅलेज में हिन्दी की प्राध्यापिका थीं। वो साहित्य से बहुत जुड़ी हुई थीं, महादेवी वर्मा समेत तमाम लोगों का आना-जाना था मेरे यहां। इस वजह से साहित्य के बड़े-बड़े लोगों से मिलना हुआ। निश्चित रूप से प्रयागराज साहित्य का बहुत बड़ा गढ़ है, यहां की हवा साहित्य लेखन में सहायक है। यहां साहित्य का बहुत अच्छा माहौल है।
सवाल: वर्तमान समय में समाज पर साहित्य लेखन का असर पड़ता है ?
जवाब: निश्चित रूप से असर पड़ता है। समाज पर लेखन का असर बहुत पड़ता है। जिस चीज़ को आप लिखेंगे उसे अधिक से अधिक लोग पढ़ेगे। जैसे सोशल मीडिया पर अच्छी चीज़ों को पढेंगे, अच्छी चीज़ों का चयन करेंगे पढ़ने के लिए तो बहुत अच्छा प्रभाव पड़ेगा। ज़रूरी है कि अच्छे लेखन को सोशल मीडिया और अख़बारों-पत्रिकाओं में सही जगह मिले। रचनाओं को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाया जाए। हर कोई लिखने में सक्षम भले ही न हो लेकिन उसे पढ़कर लेखक की भावनाओं को कुछ हद तक समझकर उससे प्रभावित भी हो सकता है। ज़रूरी है कि अधिक से अधिक अच्छा लेखन हो।
सवाल: सोशल मीडिया की वजह से अख़बार, पत्रिका और किताबें पढ़ने की प्रवृत्ति कम हो रही है। इसका समाज पर क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा ?
जवाब: समय बदल रहा है। पहले मोटी-मोटी किताबें होती थीं, लंबे-लंबे लेख होते थे, बड़ी-बड़ी कहानियां होती थी, उपन्यास होेते थे। लेकिन यह शार्ट और स्वीट का समय है। आज की तारीख में अगर कोई हमारे काम पर फिल्म बनाकर भेजता है, काम को दिखाने का प्रयास करता है तो मैं कहता हूं की छोटे-छोटे पार्ट में ही भेंजे। अगर वो आठ या दस मिनट का होता है तो मैं कहता हूं कि उसे दो-दो मिनट का बनाकर भेजंे। आज की तारीख में इतना कुछ बाज़ार में है कि कोई एक ही चीज़ पर अधिक समय नहीं दे सकता है। आप बहुत लंबा समय नहीं निकाल सकते, पूरे उपन्यास को खतम करना बहुत मुश्किल है, लेकिन अगर वह लधुकथा के रूप में हो तो उसे ज़्यादा लोग पढ़ते हैं। रचनाकारों को भी ख़्याल रखना पड़ेगा। ऐसा नहीं है कि उपन्यासों पढ़ने वालों की संख्या बहुत कम हो जाएगी, अभी भी बहुत लोग हैं जो समय निकालेंगे। लेकिन जो युवा वर्ग है और जो एक्टिव लोग हैं, वो बड़े-बड़े लेख और उपन्यास नहीं पढ़ पाते। जो बुजुर्ग हैं, रिटायर हो गए हैं, उपन्यास पढ़ रहे हैं तो अच्छी बात है। लेकिन वो कमांडिंग जोन में नहीं हैं। जो सक्रिय लोग हैं उनके लिए बड़े उपन्यास पढ़ना संभव नहीं हैं। स्पोर्ट्स में भी देखिए 20-20 मैच का प्रचलन ज्यादा बढ़ा है, क्योंकि पूरा दिन एक मैच देखने पर देना बहुत ही मुश्किल है। शार्ट फिल्में भी बहुत अधिक संख्या मंें बनने लगीं है, जिन्हें खूब देखा जा रहा है।
सवाल: कोरोना काॅल में रेलवे आमलोगों की किस प्रकार मदद कर रहा है ? क्या यह मदद पर्याप्त है ?
जवाब: कोराना संक्रमण वैश्विक महामारी है, इस महामारी में सरकारें, संस्थाएं और व्यक्तिगत तौर पर मदद करने वाले लोग चाहे जितनी मदद कर लें उतना कम है, इसमें कमी रहेगी। हमेशा ही कुछ न कुछ कमी रहेगी। ऐसे माहौल में हम सबको काम भी करना है और बहुत संभालकर काम करना है। यह समय सभी लोगों के लिए चैलेंज है, क्योंकि सबको काम भी करना है और अपने आपको बचाकर काम करना है। यह सभी को ध्यान में रखना है। रेलवे ने बहुत काम किया है, बहुत सी श्रमिक स्पेशल गाड़ियां, माल गाडियां आदि चलाई हैं। पूरा विभाग लगा हुआ है लोगों की मदद के लिए।
( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2020 अंक मेें प्रकाशित )
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें