इलाहाबाद।साहित्यिक पत्रिका ‘गुफ्तगू’ के तत्वावधान में 7 मई को मासिक काव्य गोष्ठी एवं नशिस्त का आयोजन महात्मा गांधी अंतरराष्टीय हिन्दी विश्वविद्यालय के परिसर में किया गया। अध्यक्षता एहतराम इस्लाम ने किया, मुख्य अतिथि के रूप में सागर होशियापुरी व विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र थे। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया।
युवा अजय कुमार की पंक्तियां यूं थीं-
रोजगार दफ्तर में जाकर खड़े हुए थे भइया,
भीड़ बहुत थी पैर दब गया और मार दी गइया।
भत्ता तो अब नहीं मिलेगा और भाग्य भी फूटा,
जांच कराये पता चला कि पैर का पंजा टूटा।
रोजगार दफ्तर में जाकर खड़े हुए थे भइया,
भीड़ बहुत थी पैर दब गया और मार दी गइया।
भत्ता तो अब नहीं मिलेगा और भाग्य भी फूटा,
जांच कराये पता चला कि पैर का पंजा टूटा।
अनुराग अनुभव की कविता यूं थी-
मैं हवा पुरवई, तुम महक सुरमई,
मैं हवा पुरवई, तुम महक सुरमई,
और मिलकर के कर दें समा जादुई
राजीव श्रीवास्तव ‘नसीब’ ने कहा-
मर गए लोग सेरआम गलत, ढल गई जि़न्दगी की शाम गलत।
उठ काम बाकी है बहुत अभी, कर रहा है तू आराम गलत।
मर गए लोग सेरआम गलत, ढल गई जि़न्दगी की शाम गलत।
उठ काम बाकी है बहुत अभी, कर रहा है तू आराम गलत।
इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की ग़ज़ल काफी सराही गई-
तेरे आंसुओं का सिला भी न देगा। ये मोहसिन तुझे हौसला भी न देगा।
बुलंदी पे पहंुचा जो तेरे सहारे, सहारा तो क्या रास्ता भी न देगा।
तेरे आंसुओं का सिला भी न देगा। ये मोहसिन तुझे हौसला भी न देगा।
बुलंदी पे पहंुचा जो तेरे सहारे, सहारा तो क्या रास्ता भी न देगा।
सबा ख़ान ने ग़ज़ल का अलग ही रंग पेश किया-
गुलाब रंग सबा और बहार की बातें।
गुलाब रंग सबा और बहार की बातें।
घुटन बहुत है करो अब करार की बातें।
वीनस केसरी ने कहा-
दिल से दिल के बीच जब नज़दीकियां आने लगीं।
फैसले को खाप की कुछ पगडि़यां आने लगीं।
उम्र फिर गुजरेगी शायद राम की बनवास में,
दिल से दिल के बीच जब नज़दीकियां आने लगीं।
फैसले को खाप की कुछ पगडि़यां आने लगीं।
उम्र फिर गुजरेगी शायद राम की बनवास में,
दासियों के फेर में फिर रानियां आने लगीं।
देवयानी ने कविता प्रस्तुत की
तुम समय को ढूंढ रहे हो, सुनो फिर
समय है जीवन और मृत्यु के बीच का अंतराल।
तुम समय को ढूंढ रहे हो, सुनो फिर
समय है जीवन और मृत्यु के बीच का अंतराल।
विमल वर्मा ने कहा-
मां आटे में गूध कर,पानी के संग प्यार।
मां आटे में गूध कर,पानी के संग प्यार।
सिर्फ़ रोटियां ही नहीं, रचती है संसार।
जयकृष्ण राय ‘तुषार’ ने इलाहाबाद की वसंगति पर गीत पेश किया-
मंच विदूषक, अब
दरबारों के रत्न हुए
मंसबदारी, हासिल
करने के बस यत्न हुए
यही
शहर है जहां
मंच विदूषक, अब
दरबारों के रत्न हुए
मंसबदारी, हासिल
करने के बस यत्न हुए
यही
शहर है जहां
कलम की दुर्दिन सहती थी।
नायाब बलियावी ने तरंनुम में कलाम पेश किया-
क़रीब हो के जो बंजर ज़मीन लगते हैं,
क़रीब हो के जो बंजर ज़मीन लगते हैं,
सितारे दूर ही रहके हसीन लगते हैं।
शाहीन-
सुर्ख लाली लिये शाम ढलने लगी
ओढ़नी सर से नीचे सरकने लगी
ऐसे शरमाई जेैसे खता हो गयी।
सुर्ख लाली लिये शाम ढलने लगी
ओढ़नी सर से नीचे सरकने लगी
ऐसे शरमाई जेैसे खता हो गयी।
प्यार करने को देखो सजा हो गयी।
सागर होशियारपुरी-
घर ही अमादा हो जब खुद लूटने को आबरू,
घर ही अमादा हो जब खुद लूटने को आबरू,
भागकर जाएं कहां घर से घरों की बेटियां।
एहतराम इस्लाम-
नेवले के दांत सांप की गर्दन में धंस गए,
बोला मदारी भीड़ से ताली बजाइए।
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