प्रेमशंकर गुप्त की स्मृति में संगोष्ठी एवं मुशायरे का आयोजन
इलाहाबाद।खुद साहित्यकार न होते हुए भी प्रेमशंकर गुप्त ने साहित्य के लिए अतुलनीय कार्य किया है। उनके द्वारा किये गये आयोजनों के कारण ही बहुत से साहित्यकार साहित्य की दुनिया में उभरकर सामने आये। यह बात प्रख्यात शायर प्रो. वसीम बरेलवी ने साहित्यि पत्रिका ‘गुफ्तगू’ द्वारा आयोजित संगोष्ठी एवं मुशायरे में कही। 13 अप्रैल को इलाहाबाद स्थित महात्मा गंाधी अंतरराष्टीय हिन्दी विश्वविद्यालय के सभागार में कार्यक्रम का आयोजन किया, जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ शायर बुद्धिसेन शर्मा ने की जबकि मुख्य अतिथि के रूप में प्रो. वसीम बरेलवी मौजूद रहे। संचालन इम्तियाज अहमद गाजी ने किया। रविनंदन सिंह, प्रदीप कुमार, अशोक कुमार और दिलीप कुमार विशिष्ट अतिथि के रूप में मौजूद थे।रविनंदन सिंह ने कहा कि न्यायमूर्ति गुप्त जीवनभर साहित्य की भलाई के लिए कार्य करते रहे। इटावा में उन्होंने इटावा साहित्य निधि की स्थापना की, जहां वे प्रत्येक वर्ष अखिल भारतीय आयोजन कराते रहे हैं, उनके कार्यों को कभी भुलाया नहीं जा सकता।इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति पंकज मित्थल, प्रो. अली अहमद फ़ातमी,एमए क़दीर और और सीनियर एडवोकेट केबी सिंह ने भी विचार व्यक्त किया। बुद्धिसेन शर्मा ने न्यायमूर्ति गुप्त के साथ बिताये गये समय का बखान करते हुए उन्हें साहित्य का महान सेवक बताया।दूसरे चरण में मुशायरे का आयोजन किया। इस मौके पर गुफ्तगू पत्रिका की संपादक नाजि़या ग़ाज़ी, फरीदा बेगम, सबा शोएब,मिस्बा मकसूद, अदीबा मकसूद, हमना शोएब, रमेश नाचीज,अजीत शर्मा ‘आकाश’,भानु प्रकाश पाठक, शुभ्रांशु पांडेय, विमल वर्मा, तलब जौनपुरी, देवयानी, शाहीन, सुचित कपूर,रितंधरा मिश्रा, धनंजय यादव, अवधेश यादव आदि मौजूद रहे.
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विचार व्यक्त करते प्रो. वसीम बरेलवी |
विचार व्यक्त करते न्यायमूर्ति पंकज मित्थल |
विचार व्यक्त करते प्रो. अली अहमद फ़ातमी |
विचार व्यक्त करते एम.ए. क़दीर |
विचार व्यक्त करते रविनंदन सिंह |
विचार व्यक्त करते प्रदीप कुमार |
कार्यक्रम का संचालन करते इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी |
अनुराग अनुभव ने तरंनुम में कलाम पेश किया-
मेरी पलकों तक आये हैं लहर बनकर मेरे आंसू
मेरी पलकों तक आये हैं लहर बनकर मेरे आंसू
तुम्हारी याद से लड़ते मिले अक्सर मेरे आंसू।
अजय कुमार की पंक्तियां खूब सराही गईं-
अनाजों की बोरी है सड़ती जहां पर
अनाजों की बोरी है सड़ती जहां पर
व बिकता कफन है वहीं हिन्द है जी
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वीनस केसरी ने कहा-
एक गुलाब ने खिलने की गुस्ताखी की,
एक गुलाब ने खिलने की गुस्ताखी की,
सौ-सौ दावेदार हुए हैं बस्ती में।
नरेश कुमार ‘महरानी’ ने दोहा पेश किया-
गाड़ी दौड़त जल दिखत सड़कें दौड़े नाव
गाड़ी दौड़त जल दिखत सड़कें दौड़े नाव
अन्ना जी अनशन करें साथी फेकत दाव।
शायरा सबा ख़ान के अच्छी ग़ज़ल पेश की-
बहुत सी उंगलियां उठ जाती हैं किरदारे हव्वा पर,
बहुत सी उंगलियां उठ जाती हैं किरदारे हव्वा पर,
कभी गलती से गर दिल का कहा हम मान लेते हैं।
फरमूद इलाहाबादी ने अपने मजाहिया शेर से गुदगुदाया-
जीना हराम कर दिया खंासी जुकाम ने,
जीना हराम कर दिया खंासी जुकाम ने,
आती है एक सांस में दो छींक आजकल।
सौरभ पांडेय का कलाम सराहा गया-
शोर भरी ख्वाहिश की बस्ती, की चीखों से क्या घबराना
कहां बदलती दुनिया कोई उठना गिरना फिर जुट जाना।
शोर भरी ख्वाहिश की बस्ती, की चीखों से क्या घबराना
कहां बदलती दुनिया कोई उठना गिरना फिर जुट जाना।
शादमा जैदी शाद ने कहा-
हर मंजर खून से सना है यहां
हर मंजर खून से सना है यहां
कोई आस्तीन में भी छुपा है यहां
सागर होशियारपुरी ने कहा-
होली में और ईद में मिलते हैं हम गले,
होली में और ईद में मिलते हैं हम गले,
लगता है प्यारा-प्यारा से सागर मिलन हमें।
बुद्धिसेन शर्मा का दोहा काबिले गौर था-
मछली कीचड़ में फंसी सोचे या अल्लाह
आखिर कैसे पी गये दरिया को मल्लाह।
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