गुरुवार, 15 मार्च 2012
युवा कवयित्री कु. सोनम पाठक
जन्म ः 16 अप्रैल 1993
पिता ः श्री राकेश विहारी पाठक
शिक्षा ः बी.ए.द्वितीय वर्ष (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
संपर्क ः क्वार्टर नं032, चैथी बटालियन, पी.ए.सी. काॅलोनी, धूमनगंज, इलाहाबाद-211011 विशेष ः ‘गुफ़्तगू’ द्वारा 30 अक्टूबर 2011को आयोजित कैम्पस काव्य प्रतियोगिता में प्रथम स्थान
अगर तुम न होती
अगर तुम न होती तो मेरी ये दुनिया न होती.....
मेरा ये जहान न होता, मेरी ये पहचान न होती...
तुम्हारी वजह से मैं आज जिन्दा हूं.....
अगर तुम न होती तो मेरी ये दुनिया न होती......
तुमने मेरी अंगुली पकड़कर मुझे चलना है सिखाया.....
इस संसार को मुझे अपनी आंखो से है दिखाया....
हर अच्छे-बुरे का ज्ञान है सिखाया.....
अपनी इच्छाओं का बलिदान देकर मेरा जीवन है सजाया.....
इस जीवन रूपी मझधार से वाकिफ है कराया...
जब रोए हम तुम्हारी भी आंखें नम हो गई....
जब भूख से तड़पें हम तुमने अपना कौर खिलाया.....
अगर तुम न होती तो मेरी ये दुनिया न होती......
जीवन का सारांश बताकर मुझे अपने कत्र्तव्यों पर चलना है सिखाया...
जिसको मैंने बड़ी ही सरलता से स्वीकार है किया॥
तुमने मुझे दुखों के सैलाब से उभरना है सिखाया....
संघर्ष और अवसादों में मुझे खुश रहना है सिखाया.....
जीवन के हर कदम पर मेरा साथ है निभाया.....
हर उतार-चढ़ाव में संभलना है सिखाया...
अगर तुम न होती तो मेरी ये दुनिया न होती......
ज्यों-ज्यों मुस्काता हुआ चांद धरती पर....
अपनी चमकती हुई रोशनी बिखेरता है...
त्यों-त्यों मुझे तुम्हारी याद सताती है....
मानों ऐसा लगता है ममता के बादलों में....
मंडराती कोमलता मेरे हृदय को छू रही हो....
हर पल, हर तरफ, चारो दिशाओं में.....
आकाश में, पाताल में बस तुम्हारी ही तस्वीर नजर आती है.
मुझसे इतनी दूर क्यों चली गई हो....
मैंने ऐसा कौन सा गुनाह कर दिया जिसके कारण...
मेरे अन्तर्मन को दुःख हो रहा है.....
मानों ऐसा लगता है कि कहां तेरी खुशबू का अन्दाज मिल
मैं अपने पूरे जीवन को महका लूं....
तुझे और तेरी खुशबू को ऐसे कौन से पिंजरे में बन्द कर लूं.
जहां तू हर पल मौजूद रहे और मैं तुझे एकटक निहारती रहूं...
तेरी ममता की छांव को अपने अन्तर्मन में आत्मसात कर लूं.
तेरी इतनी दूरियां मुझसे सहीं नहीं जाती....
तेरे बिना मुझे हर विजय में हार का एहसास होता है....
ऐसा लगता है मानो पूरा संसार मुझ पर खिलखिला कर हंस रहा हो.
मेरी जिन्दगी रूक सी जाती है, कदम लड़खड़ाने से लगते हैं.
मुझे ऐसा लगता है मैं ऐसी कौन सी जगह ढूंढूं...
जहां सिर्फ और सिर्फ तेरा निशा हों, तेरा आसमां हूं....
सचमुच मैं ऐसे पाताली अन्धेरे की गुफाओं में....
धुंए के बादलों में, ऐसे बीहड़ो में खो जाना चाहती हूं....
जहां सिर्फ मुझे तेरी ममता की छांव मिले....
और मैं तेरी गोद में सर रखकर हमेशा के लिए सो जाऊ.....।
गुफ्तगू के मार्च 2012 अंक में प्रकाशित
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