बुधवार, 7 मार्च 2012
अराजक स्वरूप है मुक्तछंद की कविताः माहेश्वर
22 जुलाई 1939 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में जन्में प्रसिद्ध गीतकार माहेश्वर तिवारी मंचो से लेकर पत्र-पत्रिकाओं तक के माध्यम से साहित्य प्रेमियेां में मक़बूल है. इनका जन्म जमींदार परिवार में हुआ, जहां कला के प्रति रूचियां तो थी, लेकिन लिखने की परंपरा नहीं थी. लेखन का संस्कार स्व. रामदेव सिंह ‘कलाधर’ से मिला. अब तक आपके चार संग्रह ‘हरसिंगार कोई तो हो’, ‘सच की कोई शर्त नहीं’, ‘नदी का अकेलापन’ और ‘फूल आये है कनेरों’ से प्रकाशित हो चुके हैं. उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, काव्य सौरभ कानपुर और विप्रा कला संस्था द्वारा सम्मानित किया जा चुका है. ‘गुफ़्तगू’ के उप-संपादक डा0 शैलेष गुप्त ‘वीर ने इनसे बात की।
सवाल- इधर देखा जा रहा है कि बहुत से रचनाकार नवगीत लिख रहे हैं, किन्तु छन्द अनुशासन को तोड़कर और धड़ल्ले से छप भी रहे हैं?
जवाब- ऐसा है कि गीत की पहली शर्त है कि वह गाया जा सकें और गेयता के लिये वार्षिक या मात्रिक छन्द उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि लय महत्वपूर्ण है. यदि आपकी लय नहीं टूटती है तो छन्द को तोड़ सकते हैं. ‘निराला’ ने भी यह काम किया है. उन्होंने घनाक्षरी छन्द को तोड़ा और उसमें गीत लिखे. गिरिजा कुमार माथुर ने सवैया जैसे छन्द का उपयोग किया तो जब आप नया साहित्य लिख रहे हैं, नयी बात कह रहे हैं तो आपका कथ्य कहीं से बाधित नहीं होना चाहिये. बात यह है कि यदि कथ्य आपका बाधित होता है तो छन्द को लचीला बनाना पड़ेगा. हां, यह अवश्य है कि छन्द को इस तरह मत तोडि़ये कि वह पद्य के बजाय गद्य हो जाये.
सवाल-मल्टीमीडिया और इण्टरनेट के युग में साहित्य ने भी अपना चोला बदल लिया है, कैसा महसूस करते है आप?
जवाब- आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं. दरअसल यह है कि मीडिया में जो बाज़ार घुसा है वो बाज़ार साहित्य में भी दखल दे रहा है. साहित्य को उसके प्रतिपक्ष में खड़ा होना चाहिये थे, वह कोशिश तो कर रहा है किन्तु जिस व्यापक स्तर पर कोशिश होनी चाहिये, उस तरह से नहीं हो रही. अब कई लोग गीतों के नाम पर कूड़ा-करकट परोस रहे हैं और तमाम तरह से उनका प्रचार-प्रसार भी हो रहा है. प्रचार साहित्य का उद्देश्य कभी भी नहीं रहा है, उसका उद्देश्य तो मनुष्य के संस्कारों को संवर्धित करने का रहा है.
सवाल-कई रचनाकार ‘नयी कविता’ के नाम पर गद्य लिख रहे हैं. यदि उनकी पंक्तियों को जोड़कर लिख दिया जाय तो उसमें कविता कहीं बचती ही नहीं है. ‘नयी कविता’ के नाम पर बहुत कुछ कूड़ा-करकट छप रहा है. इन सबके बीच आप अपने आपको कितना सहज पाते हैं?
जवाब-मैं आपकी बात से बिल्कुल सहमत हूं. दरअसल संवेदना महत्वपूर्ण है. आपकी रचना में यदि संवेदना नहीं है और वैचारिकता ऊपर से लादी गयी है तो वह गद्य का ही हिस्सा बनेगी, कविता का नहीं. वैचारिकता को भी आपकी संवेदना में घुलकर आना चाहिये.....और हम लोग भी इसका विरोध करते हैं कि कविता को अखबार मत बनाइये. कविता संक्षिप्त होती है और संकेतों से बात करती है. गद्य में आप ऐसा नहीं करते हैं तो अगर आपकी कविता गद्य में परिवर्तित होती है तो ठीक बात नहीं है. छन्द को तोड़ने की जो बात कही गयी, उससे कहीं न कहीं अराजकता भी फैली है और इस अराजकता में हर तरह का कूड़ा-करकट शामिल होता गया. जैसे नदी बंधे हुये तटों के बीच चलती है तो उसकी एक मर्यादा होती है, उसकी अपनी एक गति होती है और जब वह तटों से बाहर फैलने लगती है तो उसमें वह संयम नहीं रह जाता है और वह अराजक हो जाता है. एक बार अशोक बाजपेई ने कहा था कि मुक्त छंद की कविता, कविता का प्रजातांत्रिक स्वरुप है तो मेरा कहना है कि वह प्रजातांत्रिक स्वरुप नहीं अराजक स्वरुप है क्योंकि प्रजातंत्र का भी एक अनुशासन होता है.
सवाल-फि़ल्मों में म्यूजिक ने गीतों के शिल्प, भाव, कथ्य सबको काफी हद तक लील लिया है. उल्टे-पुल्टे शब्दों का प्रयोग और अश्लीलता के बढ़ते तांडव के बीच इन गीतों को गीत कहना कितना उचित है?
जवाब-ऐसा है कि नवगीत ने अपने लिये जो एक नया नाम स्वीकार किया उसके पीछे यही एक दबाव था कि फि़ल्म में लिखने वाला भी अपने को गीतकार कहता है और साहित्य में लिखने वाला भी. तो इसीको लेकर गीत विरोधी थे, वे हमला करते थे और यह मानते थे कि फि़ल्मों में जो गीत लिखे जाते हैं वे धुनों के आधार पर लिखे जाते हैं, वहां कविता नहीं है, जबकि फि़ल्मों में भी कुछ बहुत अच्छे गीत लिखे गये हैं जैसे कि फि़ल्म ‘परिचय’ काा एक गीत है-‘बीती न बिताई रैना, बिरहा की जाई रैना...’ या ‘ले के चलूं तुझे नीले गगन के तले, जहां प्यार ही प्यार पले’ इन गीतों में कविता है, किन्तु अब होने यह लगा है कि संगीत प्रमुख हो गया है और उसमें भी फ्यूजन वाला. वहां शोर अधिक है. साहिर लुधियानवी, मज़रुह सुल्तानपुरी और शैलेन्द्र आदि ने बहुत अच्छे गीत लिखे हैं किन्तु अब बाज़ार हावी है और यह सही है कि अबके गीतकार गीत के नाम पर कुछ ख़ास नहीं लिख रहे हैं. म्यूजि़क के लिये लिखे गये गीतों में सिर्फ़ ट्यून्स ही होंगे, कविता नहीं.
सवाल-आपके पसंदीदा दो रचनाकार कौन से है?
जवाब-ये तो बड़ा ख़तरे वाला काम है लेकिन मेरे प्रिय रचनाकारों में, जिन्हें मैं मानता रहा हूं उनमें कबीरदास जी और ‘निराला’ जी प्रमुख है. इनके अतिरिक्त भवानी प्रसाद मिश्र भी मेरे प्रिय रचनाकारों में हैं. हां, एक बात अवश्य है कि मैं इन सब से प्रभावित नहीं रहा हूं, किन्तु ये मेरे प्रिय रचनाकार है.
सवाल-नये रचनाकारों को शिकायत है कि वरिष्ठ रचनाकार उन्हें कोई भाव हीं नहीं देते?
जवाब-वरिष्ठ रचनाकार अगर भाव नहीं देते तो माहेश्वर तिवारी आज कहीं नहीं होते. सिर्फ़ यह है कि आप नया लिख रहे हैं तो एक अनुशासन आपके लिये भी आवश्यक है कि आप ज़बरदस्ती मनवाने की कोशिश मत करें. अगर आपकी रचना में कहीं कुछ है तो वरिष्ठ रचनाकार निश्चित रूप से आपको निकोगनाइज्ड करेंगें. इस दृष्टि से मैं उमाकांत मालवीय जी की प्रशंसा करूंगा. भवानी प्रसाद मिश्र भी यह काम करते थे. एक बार एक कवि सम्मेलन मे ंपहली बार भारत भूषण जी से मेरा परिचय हुआ. हम दोनों को मिलाने वाले थे हमारे मित्र कथाकार शत्रुघ्न लाल. उन्होंने भारत भाई से कहा कि भारत भाई, ये माहेश्वर ‘शलभ’ हैं, अच्छे गीत लिख रहे हैं और इन्हें आपका आर्शीवाद चाहिये तो उन्होंने कहा था कि ‘सूरज को कभी किसी के सहारे की ज़रुरत नहीं होनी चाहिये.’ तो कभी-कभी वरिष्ठ रचनाकार इस तरह से भी प्रोत्साहित करते हैं।
सवाल-लेकिन वरिष्ठ रचनाकार प्रोत्साहन के अपने दायित्व से जी चुराते नज़र आते हैं, ऐसा क्यों?
जवाब-अगर वो जी चुराते हैं, तो अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं करते हैं, पहली बात तो मैं यह कहूंगा क्योंकि घर के बड़े का काम है जो घर का बच्चा है उसे संवारना, उसका पाल-पोषण करना, जितना कुछ हो सकता है अपनी तरफ़ से उसे देना. अगर यह नहीं दे रहे हैं....कभी-कभी यह भी होता है कि हमार बाज़ार न मारा जाये (ज़ोरदार ठहाका), मतलब इसको अगर हमने दुकान का लाइसेंस दे दिया तो हमारी दुकान को ख़तरा न हो, कभी-कभी यह भी एक भाव होता है और कभी-कभी छोटे होने के कारण नया रचनाकार उपेक्षा का पात्र बन जाता है; किन्तु वरिष्ठ रचाकारों को ऐसा करना नहीं चाहिये, यह उनका दायित्व है.
सवाल-आपने साहित्यिक बदलाव का एक लम्बा दौर देखा है. वर्तमान सन्दर्भो में साहित्य को अपनी अभिव्यक्ति किस प्रकार से करनी चाहिये?
जवाब-सबसे बड़ी चीज़ यह है कि आप अभिव्यक्ति का क्या करना चाहते हैं. आप अपने समय से जुडि़ये. वर्तमान से ही शाश्वत साहित्य निकलता है. हर रचनाकार ने अपने वर्तमान को ही गाने की कोशिश की है और उसकी जटिलताओं को व्यक्त करने की कोशिश की है. आप अपने समय से जुडि़ये तो भीतर से भी जुडि़ये और बाहर से भी; और इन दोनों के द्वन्द से जो बात पैदा होती है, उसकी अभिव्यक्ति देने की कोशिश कीजिये, सबसे बड़ी बात यह हैं।
सवाल-वर्तमान पीढ़ी के रचनाकारों के लिये आपका संदेश क्या है?
जवाब-वर्तमान पीढ़ी के रचनाकार जितना अधिक से अधिक, अच्छे से अच्छा साहित्य पढ़ सके, उसे पढ़ने की कोशिश करें क्योंकि अध्यवसाय से रचना में निखार और रचनाकार में गम्भीरता आती हैं.
गुफ्तगू के मार्च-2012 अंक में प्रकाशित
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