शनिवार, 21 जुलाई 2012

आर्ट और तिज़ारत का रिश्ता बहुत नाज़ुक होता है-निदा फ़ाज़ली

बाॅलीवुड से लेकर साहित्य तक में निदा फ़ाज़ली का नाम बहुत इज़्ज़त के साथ लिया जाता है। एक तरफ जहां उनके गीतों ने बाॅलीवुड में धूम मचाया मचाया तो दूसरी ओर उनकी शायरी और दोहों की वजह से उन्हें आधुनिक कबीर कहा जाता है। 12 सितंबर 1938 को जन्मे श्री फ़ाज़ली का पूरा नाम मुक्तिदा हसन निदा फ़ाज़ली है। ग़ज़ल, दोहा और नज़्म लिखने में इन्हें महारत हासिल है। सुर,आप तो ऐसे न थे,सरफरोश,तमन्ना,इस रात की सुबह नहीं,रजिया सुल्ताना सहित कई फिल्मों के लिए आपने गीत लिखे हैं। जबकि टीवी सीरियल सैलाब, नीम का पेड़,जाने क्या बात हुई, और ज्योति के लिए टाइटल सांग भी आपने ही लिखा है। लफ्ज़ों के फूल, मोरनाच,आंख और ख़्वाब के दरम्यां,सफ़र में धूप तो होगी एवं खोया हुआ कुछ नामक किताबें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। साहित्य अकादमी, स्टार स्क्रीन एवार्ड और बालीवुड मूवी एवार्ड से आपको नवाजा जा चुका है। गुफ्तगू की संपादक नाजि़या ग़ाज़ी ने उनसे कई मुद्दों पर बात की-
सवाल: आज देश में हर तरफ भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आवाज़ तेज़ होती जा रही है। इस आवाज़ को और मुखर करने में साहित्य जगत की समुचित भागीदारी किस प्रकार से हो सकती है।
जवाब: आज देश में या देश से बाहर जो हो रहा है उससे हर समझदार ज़ेह्न जुड़ा हुआ है, यह ज़रूरी भी लेकिन इस ज़रूरत की अभिव्यक्ति के तरीके, साहित्य से अलग हैं और पत्रकारिता के अलग हैं। पत्रकार ख़बर लिखता है, उसके लेखन की भाषा दो और दो चार जैसी होती है। और साहित्य की शब्दावली में दो और दो पांच होते हैं और कभी सात हो जाते हैं। देखे हुए को दिखाने और देखे हुए में अनदेखे को दर्शाने में अंतर है। और दोनों की भाषाओं का यही अंतर एक को दूसरे से अलग करता है। ख़बर छपने के बाद दूसरे दिन बासी हो जाती है, जबकि ग़ालिब, फि़राक़, यगाना की ग़ज़लें जितनी कल जवान थीं आज भी उतनी ही जवान हैं। साहित्य की भागीदारी समय के उतार-चढ़ाव से शुरू हो रही है और हमेशा रहेगी। ग़ज़ल के प्रथम शायर वली दकनी ने औरंग़जेब के युग में कहा था-
मुफलिसी सब बहार खोती है
मर्द और एतिबार खोती है।
एक शेर में मर्द के एक शब्द में उस युग के धर्मन्द्व के कितने आयाम छुपे हुए हैं, इसकी सूचना कोई शब्दकोश नहीं दे सकता। इसकी पहचान के लिए पत्रकारिता और साहित्य के अंतर की पहचान ज़रूरी है। मर्द मज़बूर भी है और सरमद की तरह से हाकिम भी है बादशाह की तरह से बेखौफ़ भी है उस इमाम की तरह से जिसने औरंग़जेब को सीख दी थी।
सवाल: वर्तमान में पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाने वाले कवि और मंचीय कवियों में कहीं कोई तालमेल नहीं दिख रहा है, क्यों ?
जवाब: आपके प्रश्न से डाॅ. धर्मवीर भारती जी का एक वाक्य याद आ रहा है। हुआ यूं, एक रात मैं अपने घर में टीवी पर कोई कवि सम्मेलन सुन रहा था, सुनते-सुनते मैंने भारती जी को फोन कर दिया। मैंने उनसे उसी मंचीय चुटकुलेबाजी का जिक्र किया जो आपकी भी शिकायत है। भारती जी ने मेरी बात सुनी और सवाल का सीधा जवाब देने के बजाए मुझसे ही सवाल पूछ लिया, ये बताओ धर्मयुग के लिए अपनी कविताएं कब भेज रहे हो। उनकी नज़र में चुटकेलेबाजी का कोई महत्व नहीं था, मंच पर उस समय काका हाथरसी और नीरज का दरबार सजा हुआ था। लेकिन आज अंधायुग और ठंडा लोहा के कवि भारती जी हर जगह हैं और दरबार मंच के साथ ही रुख़सत हो गया। उर्दू में अनवर मिजऱ्ापुरी मुशायरों की छतें उड़ाते थे और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ मुश्किल से सुने जाते थे। आज फ़ैज़ हर जगह हैं और उनके साथ के मुशायरों के शायर कहीं नहीं हैं।
सवाल: क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि वर्तमना में साहित्य में गैर जिम्मेदार लोग ज़रूरत से अधिक आ गए हैं?
जवाब: इतिहास के हर युग में ऐसा ही होता रहा है, हर युग में कई-कई नाम होते हैं, लेकिन हर युग हमेशा किसी एक युग पुरुष के नाम से जाना जाता है। ज़ौक, मोमिन, आशुफ्ता का दौर मिजऱ्ा ग़ालिब से मंसूब है और बहुत से नामों की भीड़ और निराला अलग से नज़र आते हैं। समय की छलनी धान फटककर चावल को और भूसे को अलग कर देती है।
सवाल:  एक आलोचक और एक शायर की भूमिका में क्या फ़कऱ् है ?
जवाब:  आलोचक और रचनाकार का रिश्ता है तो ज़रूरी, लेकिन  ये रिश्ता इतिहास के लंबे रास्ते में उतार-चढ़ाव से गुजरा है। कभी इस रिश्ते ने कबीर और नज़ीर को सिरे से कवि मानने से इंकार किया, कभी अपनी पसंद के ग़ैर ज़रूरी नामों को प्यार दिया, लेकिन न प्यार से बात बनी न इंकार से, जब भी बात बनी रचनाकार के व्यक्तिगत किरदार से ही बात बनी। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कबीर को गले से लगाया और प्रगतिशील आलोचना ने नीरज को अपनाया। आज आलोचना के दोनों शिकार हमारी अदबी विरासत की निशानियां हैं।
सवाल:  फिल्मी गीतों में संगीत के शोर-शराबे के बीच कथ्य और शिल्प नदारद होते जा रहे हैं, इस गिरावट के क्या कारण हैं ?
जबाव:  आर्ट और तिज़ारज का रिश्ता बहुत नाज़ुक होता है, ज़रा सी भूल चूक से इसका संतुलन बिगड़ जाता है। यही बात फिल्मों ने गीत और संगीत के बदलते स्तरों के बारे में कही जा सकती थी, ज़ुबानो-बयान की कमज़ोरी और ताक़त दोनों लिखने वाले के क़लम में होती है। जब साहिर के हाथ में होता है तो ‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों’ लिखा जाता है और शैलेन्द्र के हाथों में होती है तो वह लिखता है ‘जो लोग जानते हैं, इंसान को बस पहचानते हैं’ और हाथ बदलते हैं तो शब्द भी अपना रूप बदलते हैं। इश्क़ कमीना और चलती है खंडाला जैसे बताते हैं कि क़लम और किनके हाथों में है। शब्दों की तरह सुर भी छोटे-बड़े हाथों की तरह छोटे-बड़े होते हैं। उर्दू-हिन्दी पहले के  संगीतकारों को आती थी। आज संगीतकार इन भाषाओं से दूर हैं, इसलिए शब्दों का अनादर करने के लिए मज़बूर हैं।
सवाल: मंचों पर हुल्लड़बाजी, चुटकुलेबाजी और फुहड़पन ही बचा है, बड़े कवि शायर इस स्थिति का विरोध क्यों नहीं करते ?
जवाब: विरोध करने में जो समय खर्च होगा, वह बेकार जाएगा, इसलिए यही अच्छा होगा कि मीर की नसीहत मानकर -
ग़ैरते यूसुफ़ है ये वक़्ते अज़ीज़
मीर इसको रायगां खोता है क्या।
इसे अपनी रचनात्मकता के लिए इस्तेमाल किया जाए। कुसूर स्टेज का नहीं है। स्टेेेज पर निराला, फि़राक़, फ़ै़ज़ आदि सभी आते थे, लेकिन जो लिखते थे वहीं सुनाते थे। श्रोता और रचनाकार के बीच तालमेल था। सुनने वाला कवि को उसके नाम से नहीं काम से जानता था। सुनाने वाला भी अपने मकाम को पहचानता था, अब न तो वह सुनने वाले हैं न वे सुनाने वाले हैं। इसलिए अब स्टेज से जो पेश किया जाता है उसमें शब्दों की महक नहीं होती, धंधे की चमक होती है। अब आज मुशायरा-कवि सम्मेलन तफरीह या तमाशा बन गये हैं। ग़ालिब और फि़राक़ की ग़ज़ल को सुनने के लिए श्रोताओं में जिस तहज़ीब की ज़रूरत है, वह आज के श्रोताओं में नहीं है।
सवाल:  आपने लेखन की प्रेरणा कहां से ग्रहण की और अपना उस्ताद किसे मानते हैं ?
जवाब:  मेरी उस्ताद पुस्तक है। मेरी प्रेरणा, मेरे जिये हुए रात-दिन हैं। मैंने जि़न्दगी को पढ़कर जि़न्दगी को लिखा है और जो भी सीखा है वह इसी से सीखा है।
सवाल: नई पीढ़ी साहित्य को अधिक तवज्जो नहीं दे रही, इलेक्टृानिक मीडिया ने प्रिन्ट मीडिया का महत्व घटा दिया है। इस बात से आप कहां तक सहमत हैं ?
जवाब: प्रिन्ट मीडिया की ज़रूरत कभी कम नहीं होगी। लिखे हुए शब्द से ही बोला हुआ शब्द चित्रित किया जाता है।
सवाल: नये रचनाकारों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे ?
जवाब: पढ़ो ज़्यादा, लिखो कम। पढ़ने को ज़मीनों की तरह भाषाओं की सरहदों में कैद नहीं करो। हर भाषा का अपना दायरा होता है, देश की भाषायें हो या विदेश की, हर भाषा का साहित्य हमारी विरासत का हिस्सा है।
दीवारें उठाना तो हर युग की सियासत है,
ये दुनिया जहां तक है, इंसां की विरासत है।
गुफ्तगू के जून 2012 अंक में प्रकाशित

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