गुरुवार, 26 मार्च 2020

नेताजी के साथ ही विमान में मारे गए कैप्टन गनी !


                                         - शहाब ख़ान गोड़सरावी

                                                     
कैप्टन अब्दुल गनी खां 
 कहा जाता है कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु जापान में एक प्लेन क्रेस में हुई थी, उसी विमान में उनके साथ सवार रहे कैप्टन अब्दुल गनी की भी मौत हो गई थी। कैप्टन गनी नेताजी के ख़ास लोगों में से एक थे, जो हर वक़्त उनके साथ रहते थे। जिस तरह से नेताजी की मौत पर तरह-तरह की बातें सामने आती रहती हैं, उसी तरह कैप्टन गनी की मौत के कारण भी सवाल खड़े होते रहे हैं। वर्ष 2010 में कैप्टन अब्दुल गनी खां के बड़े बेटे अब्दुल कादिर खां ने बताया था कि उनकी बूढ़ी आंखें आजतक अपने पिता के आने की इंतजार में हैं, लेकिन आजतक उनका कोई संदेश नहीं आया, उनकी मौत के विषय में कोई अधिकारिक सूचना आज तक नहीं है। 
 अब्दुल गनी का जन्म उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में स्थित मिर्चा गांव में सन 1904 को सूबेदार सुल्तान खां के घर हुआ था। उनकी माता अजमत बीबी घरेलू नेक खातून थीं। गनी खां को पढने का बहुत शौक था, उन्होंने ग्रेजुएशन कर लिया था, उनका कद-काठी काफी लंबी-चैड़ी थी। विक्टोरिया क्रॉस विजेता हुमैल खान बारावी की सिफारिश पर अंग्रेजों ने सीधे उन्हें कमांडिग आफिसर के पद पर तैनात कर दिया। सिकंदराबाद से ट्रेनिंग पूरी होने के बाद पहली पोस्टिंग पंजाब में हुई। मेहनत और ईमानदारी के बल पर बहुत जल्द कैप्टन के पद पर आसीन हो गये। उस वक़्त आज़ादी की लडाई जोर पकड रही थी। उसी वक़्त सुभाष चंद्र बोस इंडियन नेशनल आर्मी का गठन कर रहे थे उनका नारा था ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा’। नेताजी उस वक्त गांव-गांव जाकर जवानों को सेना में भर्ती के लिए प्रेरित कर रहे थे। 
 सन 1941 में ग़ाज़ीपुर में फारवर्ड ब्लाक की स्थापना हुई, जिसके लिए नेता जी कलकत्ता से ग़ाज़ीपुर आये और उसी वक्त गनी खां भी छुट्टी पर घर आये हुए थे। जहां इनकी मुलाकात नेता जी से हुई। नेताजी के व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुए की ब्रिटिश सेना की नौकरी को छोड़कर कमसारोबार के कई साथियों के साथ नेता जी के साथ हो लिए। अपनी कार्यशैली के आधार पर वे नेताजी के बहुत करीबी साथियों में शुमार हो गए। अपनी फ़ौज़ की ताक़त बढ़ाने के लिए जापान और फिर आदमपुर मलाया पहुंचे। इसके बाद जब वे दुबारा टोक्यो के लिए ताइपे हवाई अड्डे से रवाना हुए तो उनके साथी पायलट हबीबुर्रहमान के साथ जहाज में कैप्टन अब्दुल गनी खां, डॉ. अब्दुल रसीद भी सवार थे, वहीं प्लेन क्रेस हो गया था। इतिहासकारों के मुताबिक 18 अगस्त 1945 को सुभाष चंद्र बोस का विमान जापान स्थित ताइपे हवाई अड्डे पर ईंधन लेने के लिए उतरा, आगे की सफर टोक्यों के लिए उड़ान भरते समय क्रेश हो गया। 
 इस जाबाज की मौत की सूचना के बाद तत्कालीन सरकार न तो अब्दुल गनी खां का ही पता लगा पाई और न ही आजतक उन्हें शहीद का दर्जा दिया गया। फिलहाल कैप्टन गनी से जुड़ी ठोस रेकॉर्ड प्राप्ति के लिए सोसाइटी फार हिस्टोरिकल एंड कल्चरल स्टडीज, सुभाष भवन, वाराणसी की संस्था पिछले 31 वर्षों से नेताजी पर शोध कार्य कर पुस्तकें प्रकाशित करती आ रही है। कैप्टन अब्दुल गनी खां को भी इस शोध का हिस्सा बना रही है। ‘समसामयिक हिंदी जनरल नॉलेज’ नामक पुस्तक में इस बात का जिक्र किया गया है कि जिस विमान के क्रेस होने से सुभाषचंद्र बोस की मौत हुई थी, उसी में गनी खां भी मौजूद थे। कैप्टन गनी के पोते वर्तमान मिर्चा गांव के वर्तमान ग्राम प्रधान जावेद खान के मुताबिक आठ साल पहले तक अब्दुल गनी खां की विधवा फातमा बीबी को 145 रूपये का पेंशन मिलता रहा, जो उनकी मौत के बाद बन्द हो चुकी है। उनका कहना है कि कैप्टन के नाम पर इलाके में शिक्षण संस्थान और अस्पताल खोले जाने चाहिए।
  (गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2020 अंक में प्रकाशित )

सोमवार, 16 मार्च 2020

नातिया शायरी की तरक्की में हिन्दू शायरों का भी बड़ा योगदान: गौहर

                                                           

डाॅ. शमीम गौहर से बातचीत करते अख़्तर अज़ीज़ और इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी 

डाॅ. शमीम गौहर का बचपन से नात के प्रति प्रेम रहा है। बचपन से ही नात लिखना शुरू कर दिया था। आपकी सबसे पहली किताब ‘नात के शोअरा मुतद्मीन’ है, जिसमें नात के शोअरा के बारे में पूरी जानकारी दी गई है। दूसरी किताब का नाम ‘उर्दू अदब में नातिया शायरी’, जो बहुत मक़बूल हुई, इसका दूसरा एडीशन पाकिस्तान में प्रकाशित हुआ। डाॅ. गौहर ने ‘नात’ पर ही शोध कार्य किया है। इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, अख़्तर अज़ीज़ और दीक्षा केसरवानी ने उसने विस्तृत बात की। पेश है उसका संपादित भाग।
सवाल: नातिया शायरी क्या है? इसकी शुरूआत कब और कैसे हुई ?
जवाब: जबसे हजरत आदम दुनिया में तशरीफ़ लाए, तभी से नातिया शायरी की शुरूआत हो गई थी। एक ज़माना रसूल्लाह सल्ल. का आया, असली रूप में जो इस्लाम मज़हब क़ायम हुआ वह रसूल्लाह सल्ल. के दुनिया में आने के बाद ही हुआ। इससे पहले अरब में शायरी हो रही थी, जमाने जाहिली में भी खूब शायरी होती थी, हर घर में शायरी होती थी। यहां तक कि मोतनब्बी ने अपनी शायरी के दम पर ही नबुवत का दावा कर दिया था। जब अल्लाह के रसूल तशरीफ़ लाए, और शायराना के तौर से जब हस्सान बिन साबिर ने जब क़सीदा पढ़ा, उनकी शायरी से पूरे अरब में तहलका मच गया कि क्या इतनी खूबसूरत शायरी भी हो सकती है नात की शक्ल में। सैकड़ों साल बाद जब हिन्दुस्तान में नातिया शायरी की शुरूआत हुई तो हमारे उर्दू के शायरों ने नातिया अदब की जो तबाआज़माई की, दुनिया के किसी अन्य ज़बान में ऐसी शायरी नहीं हुई है।
सवाल: इस्लाम मज़हब में नातिया शायरी की क्या अहमियत है ?
जवाब: नातिया शायरी इतना आदाब, तहज़ीब और रवायात में बंधी हुई कि इससे हमें इस्लाम का पता चल जाता है, इश्क़ रसूल का पता चलता है, तारीख़े-इस्लाम का पता चलता है, सहाबा इकराम की फ़ज़ीलत का पता चल जाता है। हमारे नातगो शायरों ने अपनी शायरी में इसका इज़हार किया है कि अल्लाह के रसूल मेराज पर तशरीफ़ ले गए तो उसका क्या मर्तबा है। रसूल करीम की एक-एक ज़िन्दगी के लम्हे को हमारे शोअरा ने नात में पिरोने की कोशिश की। सिर्फ़ नातिया शायरी का अगर आप अध्ययन करें तो हम अपनी दीनी इस्लाह कर सकते हैं, नातिया शायरी हमारी रहबरी करती है, नातिया शायरी हमें तारीक़ियों से रोशनी में ले जाती है।
सवाल: नातिया शायरी आम तौर पर मदरसों-खानकाहों की ही ज़ीनत बनी रही, ऐसा क्यों ?
जवाब: अब वो वक़्त नहीं रहा। अब आम लोगों के बीच भी नातिया शायरी मक़बूल हो रही है। जहां-जहां मज़हबी काम हो रहे हैं, वहां तो नातिया शायरी हो रही है। हालांकि बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ता कि तमाम बड़़े-बड़े शायरों ने नात के एक शेर भी नहीं कहे हैं। बशीर बद्र, आदिल मंसूरी, निदा फ़ाज़ली, हसन नईम वगैरह लोगों ने एक भी नात नहीं कहे। यह बहुत अफ़सोस की बात है।
सवाल: बहुत से ग़ैर मुस्लिम शायरों ने बाक़यादा नातिया शायरी की है? इस बारे में आपका क्या सोचना है। 
जवाब: 1938 के बाद तरक्की पसंद की जब तहरीक चली, तो उसमें नए अदब को पेश करने की कोशिश की गई। इसके साथ-साथ मज़हब की तौहीन इस तरह से की गई कि ‘अवारा सज्दे’ के नाम से किताब तक छप गई। मौलवियों पर तनकीद करना, मज़हब पर तनकीद करना। अगर किसी बुड्ढे मौलवी ने अगर किसी नौजवान लड़की से शादी कर लिया तो उसकी तनकीद की गई, जब उसने शादी कर लिया तो क्या आप उसकी देखभाल करेंगे, आप उसकी ज़रूरतें पूरी करें। इसमें गैर शरई मसला क्या है। ऐसे माहौल में हिंदू शायर नातिया शायरी कर रहे थे। लल्लू राम कौसरी, किश्वर शाह समेत तमाम हिन्दू शायरों के नातिया मजमुए तक छपे हैं। जितने भी उर्दू जानने वाले हिन्दू शायर हैं, उन्होंने नातिया कलाम ज़रूर कहे हैं। नातिया शायरी की तरक्की में हिन्दू शायरों का बहुत बड़ा योगदान है। हिंदू शायरों की नातिया शायरी पर अब तक दो थिसिस भी आ चुकी हैं।
सवाल: भारत में नातिया शायरी करने वाले बड़े शायर कौन-कौन हुए हैं ?
जवाब: शोहराए मुतकद्मीन ने तो कोई नातिया शायरी की नहीं। वली दकनी, सिराज औरंगाबादी, मरी तक़ी मीर, आतिश, सौदा, नासिख़, ज़ौक़, ग़ालिब ने नात के प्रति कभी रूझान नहीं पैदा किया। सिर्फ़ जब इनका कोई ग़ज़ल या नज़्म का मजमुआ छपता था, तब तबर्रुक के तौर पर शुरू में एक नात शामिल कर लेते थे। लेेकिन सिन्फ़ नात इनका कभी मौजू नहीं रहा। सौदा ने 32 अश्आर का एक नात लिखा है, शोहराए मुतकद्मीन में सिर्फ़ सौदा ने नात कहा है। नातिया शायरी को उरूज़ तक पहुंचाने में आला हज़रत फ़ाजिले बरेलवी इमाम अहमद रज़ा का बहुत बड़ा योगदान है। उनकी नातिया शायरी से किसी अन्य शायर का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। उनका योगदान सबसे ज़्यादा है।
सवाल: अरब और दूसरे देशों में नातिया शायरी के क्या हालात हैं ?
जवाब: जब अरब से शायरी फारस पहुंची तो वहां से लोगों ने इतना जोरदार स्वागत किया कि थोड़े ही वक़्फे के बाद ईरान और फारस से बड़े-बड़े शोअरा पैदा हुए। वहीं से हाफ़िज़ सेराजी, हजरत शेख शादी, हक़ानी जैसे बड़े-बड़े शायर पैदा हुए। 
सवाल: इलाहाबाद में किन शायरों के मजमुए छपे हैं?
जवाब: इस पर डाॅ. असलम इलाहाबादी ने थिसिस लिखा है, जिसमें पूरा डिटेल हैं। मेरी जानकारी में सरवर इलाहाबादी, राज इलाहाबादी, शम्स इलाहाबादी, अज़ीज़ इलाहाबादी, इक़बाल दानिश, तुफ़ैल अहमद मदनी, अतीक़ इलाहाबाद, मौलाना मुजाहिद हुसैन, अख़्तर अज़ीज़ आदि के अलावा मेरे मजममुए आए हैं।   
( गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2019 अंक में प्रकाशित )


बुधवार, 11 मार्च 2020

आखि़र कब तक ?, भास्कर राव इंजीनियर, खेत के पांव और लफ़्ज़ों का लहू



                                                                              - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

रामकृष्ण विनायक सहस्रबुद्धे एक सक्रिय रचनाकार हैं। रेलवे में नौकरी करते थे, वहां से सेवानिवृत्त होने के बाद उनके लेखन में और तेज़ी आयी है। खुद एक साहित्यिक पत्रिका ‘माध्यम’ का संपादन भी कर रहे हैं। अब तक लगभग आधा दर्जन पुस्तकें आपकी प्रकाशित हो चुकी हैं। हाल में इनकी नई पुस्तक ‘आखि़र तक तक ?’ प्रकाशित हुई है। इस काव्य संग्रह में छोटी-छोटी कविताओं को एकत्रित किया गया है। देश, समाज, त्योहार, प्राकृतिक सौंदर्य, प्रेम आदि का वर्णन अलग-अलग कविताओं में किया गया है। पुस्तक की भूमिका में अरुण कुमार श्रीवास्तव ‘अर्णव’ कहते हैं-‘कवि के शब्दों में मौन एक साधना है और शब्द माध्यम है, सुनता रहा घड़ियों की टिकटिक, टूट जाते हैं रक्त संबंध, क्योंकि राजनीति साध्य नहीं है, लड़नी है लड़ाई अंधेरों के खिलाफ़ लेखनी के उद्घोष को नये आयामा देता है। प्रणय और श्रृंगार को भी कवि मन एक नये रूप में परिभाषित करते हुए स्वतः कह  उठता है रहती मन में, अंतस्थल में, फिर सच है हार गया मैं, वह कैसे आती नारी मन की दुविधा का शानदार विश्लेषण करता हुआ सृजन है।’ इनकी कविताओं में कुछ अलग आयाम भी दिखते हैं, जैसे एक कविता में कहते हैं-‘टूट जाते हैं रक्त संबंध/पर नहीं टूटते मित्रता के बंधन/अहसास कराते अपने पन का/दिल में रहते, दिल में बसते/जीवन का ये सच है/ मानो या न मानो/ हिसाब नहीं करते लेने देन का/ विश्वास का, आशाओं का/ मन निर्मल, सहज सरल है।’ इसी तरह के अलग किस्म बिंब और प्रतीक इनकी कविताओं में कहीं-कहीं पढ़ने को मिल जाते हैं। कुल मिलाकर यह एक सार्थक काव्य संग्रह है। 112 पेज के इस पेपर बैक संस्करण को प्रेरणा प्रकाशन, नाशिक ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 175 रुपये है।
अरुण अर्णव खरे एक वरिष्ठ रचनाकार हैं। कई विधाओं में लिखते हैं, खेल पर लिखने की विशेष रूप से अभिरुचि रही है, तमाम पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। अब तक आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हाल में आपकी कहानी संग्रह ‘भास्कर राव इंजीनियर’ प्रकाशित हुई है। इस किताब में कुल 14 कहानियां संग्रहित की गई हैं। कहानियों की ख़ासियत यह है कि लेेखक ने जो महसूस किया, देखा, समझा है उसी को कथा का बिंब और उससे जुड़े हुए लोगों को कथा का पात्र बनाया है। यही वजह है कि कहानियों को पढ़ते समय कथा का परिदृश्य चलचित्र की तरह सामने चलते हुए दिखाई देते हैं। पुस्तक की पहली कहानी ‘दूसरा राज महर्षि’ बाल मन की मानसिकता और दुविधा को बड़ी खूबी से चित्रित करती है, वहीं शीर्षक कहानी ‘भास्कर राव इंजीनियर’ एक भले और नेकदिल इंसान की कहानी जो अपने कैरियर की कीमत पर लोगों की भलाई करता है। इसी तरह सभी कहानियों में के परिदृश्य रोचक और तार्किक हैं। इस पुस्तक के लिए अरुण अर्णव खरे बधाई के पात्र हैं। 100 पेज की इस पुस्तक के इस पेपर बैक संस्करण को लोकोदय प्रकाशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 130 रुपये है।  

उत्तर प्रदेश के अंबेडकर नगर जिले के रहने वाले अनुराग मिश्र ‘ग़ैर’ उत्तर प्रदेश सरकार में आबकारी आयुक्त हैं, वर्तमान समय में हापुड़ जिले में कार्यरत हैं। ग़ज़ल, कविता, व्यंग्य, एकांकी आदि लिखते हैं, अब तक कई पुस्तकें आपकी प्रकाशित हो चुकी हैं। ग़ज़ल पर आपकी ख़ास पकड़ है, पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रायः इनकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। पिछले दिनों ‘खेत के पांव’ नाम से इनका एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ है। इनकी ग़ज़लों के बारे में डाॅ. कुंअर बेचैन की इस टिप्पणी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है- ‘सचमुच आज का हर इंसान जो आदमी की हैसियत से अपनी ज़िन्दगी जी रहा है, वह अपनी समस्याओं के बोझ से पूरी तरह दबा हुआ है, जो उसकी आशाएं और आकांक्षाएं हैं, उसके स्वप्न हैं, उन्हें वो अपने सीमित साधनों में पूरा नहीं कर पा रहा है। लेकिन कविता का काम निराश व्यक्ति के मन में भी किसी आशा की किरण को जगाने का काम है। यही सकारात्मक सोच व्यक्ति की जिजिविषा को जीवित रख पाता है। अनुराग मिश्र ‘ग़ैर’ जी को इस बात का ध्यान है, इसी कारण उनके मन से अचानक यह सकारात्मक शेर निकल आता है- ‘वो घर फिर से हुआ आबाद शायद/ दिया दहलीज पर जलने लगा है।’ इस कथन से भी आगे हैं अनुराग की  ग़ज़लें, जिनमें तरह-तरह के नई उपमाएं और परिदृश्य देखने को मिलती हैं। कहते हैं-‘बज़्म में मुस्कुराओगे, लेकिन/ दिल में तुम इंतिक़ाम रखोगे। चांद तारों को तोड़ने का सनम/आप कितना इन्आम रखोगे।’ एक और ग़ज़ल के दो अशआर देखिए-‘है तग़ाफुल उनके ही किरदार में/ वो हमीं से बेख़बर होने लगे। ओस टपकी थी फ़लक से बस ज़रा/ फूल सारे तरबतर होने लगे।’ इस तरह के तमाम शानदार शेर पूरी किताब में जगह’-जगह मौजूद हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद सहज ही कहा जा सकता है कि ‘खेत के पांव’ एक शानदार ग़ज़ल संग्रह है, जिसके लिए शायर बधाई का पात्र है। 192 पेज के इस सजिल्द पुस्तक को गगन स्वर बुक्स पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 250 रुपये है।



दरभंगा, बिहार के रहने वाले सलमान अब्दुस समद एक युवा कलमकार हैं, वर्तमान समय में दिल्ली में रहते हैं। लेखन को लेकर काफ़ी सक्रिय और उत्साहित हैं। आलोचना और उपन्यास लेखन में तल्लीन इस युवा रचनाकार ने धीरे-धीरे अपनी एक अलग सी पहचान बना ली है। ‘लाडली मीडिया एवार्ड-2012’ और यूपी उर्दू एकेडेमी से आपको एवार्ड मिल चुके हैं। ‘लफ़्ज़ों का लहू’ नाम इनका उपन्यास प्रकाशित हुआ है, जो चर्चा में भी है। इसमें देश के वर्तमान माहौल और पीत पत्रिकारिता की घुटन का शानदार ढंग से वर्णन किया गया है। मशहूर लेखिका नासिरा शर्मा इनकी इस किताब के बारे में कहती हैं-‘नए उभरते लेखन सलमान अब्दुस समद का उपन्यास ‘लफ्ज़ों’ का लहू’ उर्दू और हिन्दी में नज़रों से गुज़रा। उपन्यास से गुज़रते हुए जगह-जगह इस बात का एहसास हुआ कि युवा लेखक और पत्रकार अपने देश में फैली हुई फ़िज़ा में अजीब घुटन महसूस कर रहा है जो पीत-पत्रकारिता से भी उपजी है और भौतिकता की तरफ भागते इंसान काी बदहवास और बेहिसी से भी। इस उपन्यास नई पीढ़ी का दर्द है और ऐसी छटपटाहट का ब्यान है जो हर संवेदनशील नागरिक के दिल की बात है।’ इस वर्णन से उपन्यास के बारे में सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है। 124 पेज के इस सजिल्द संस्करण को स्वराज प्रकाशन प्रकाशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 295 रुपये है।
(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2019 अंक में प्रकाशित)

सोमवार, 2 मार्च 2020

गुफ़्तगू के रक्षक विशेषांक ( मार्च-2020 अंक) में


3. संपादकीय ( जो करते हैं हमारी सुरक्षा )
4. आपके पत्र
5-6. फौज और पुलिस में ग़ाज़ीपुर की ख़ास भूमिका: मो. वज़ीर अंसारी
7-9. कहानी ( मीना खां क्यों रोया)- जैनुल आबेदीन ख़ान
10-13. इंटरव्यू ( मुनव्वर राना से अनिल मानव )
14-20. ग़ज़लें ( नज़र कानपुरी, अनिल अनवर, गौतम राजऋषि, अखिलेश श्रीवास्तव ‘चमन’, फ़ैयाज़ फ़ारूक़ी, विजेंद्र शर्मा, मो. इबरार ख़ान वारसी )
21-24. कविताएं ( अज़ीज़ जौहरी, जमादार धीरज, रणजीत यादव ‘क्षितिज’, दीपक दीक्षित )
25-27. चौपाल: रक्षक विशेषांक को किस रूप में देखते हैं ?
28-30 तब्सेरा ( रहनुमाए हज व उमरा, बंद मुट्ठियों में क़ैद धूप, चाबी वाला भूत, दृष्किोण, एक टुकड़ा धूप )
37-38. पत्रिका समीक्षा ( हिन्दी पाठकों को नात समझाता विशेेष अंक) - अजीत शर्मा ‘आकाश’
39. इन दिनों: चर्चा में हैं ये पुस्तकें
40. उर्दू अदब ( असली एजेंडा दिखाने की कामयाब कोशिश)- अली अहमद फ़ातमी
41. गुलशन-ए-इलाहाबाद: लालजी शुक्ला
42-43. ग़ाज़ीपुर के वीर-9: ( कैप्टन अब्दुल गनी)- मोहम्मद शहाब खा़न गोड़सरवी
44-51. अदबी ख़बरें
52. गौरव ( साहिबा और हसीना की कामयाबी बनी मिसाल ) मंसूर आलम ख़ान मनियावी
53. खि़राज़-ए-अक़ीदत ( अजमल सुल्तानपुरी) - वंदना शर्मा
54-80. परिशिष्ट: डाॅ. राकेश मिश्र ‘तूफ़ान’
54. डाॅ. राकेश मिश्र ‘तूफ़ान’ का परिचय
55-56. सख़्त ड्यूटी से निकले कोमल अशआर- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
57-58. सलीक़े से ग़ज़ल कहने का हुनर - डाॅ. नीलिमा मिश्रा
59-60. शायरी में आधुनिक जीवन की छटपटाहट- प्रिया श्रीवास्तव
61-80. डाॅ. राकेश मिश्र ‘तूफ़ान’ की ग़ज़लें
81-110. परिशिष्ट -2: केके मिश्र ‘इश्क़ सुल्तानपुरी’
81. इश्क़ सुल्तानुपरी का परिचय
82. ऐसे दीवानों को ग़ज़ल बनाती है अपना दीवाना - मुनव्वर राना
83-85. इश्क़ की शायरी का हुस्न - डाॅ. हसीन जिलानी
86-87. कर्म और मर्म दोनों में सशक्त - ममता देवी
88-104. इश्क़ सुल्तानपुरी की ग़ज़लें
105-110. इश्क़ सुल्तानपुरी की कविताएं
111-122. कवि और कविता ( डाॅ. बशीर बद्र, यश मालवीय, पवन कुमार, पंकज के. सिंह राहिब, मासूम रज़ा राशदी, विजय प्रताप सिंह )
123. गुफ़्तगू पब्लिकेशन की प्रमुख पुस्तकें
124. ‘फूल ही फूल’ से संकलित अशआर