मंगलवार, 4 अगस्त 2015

हम सूचनाओं से जुड़ रहे हैं, ज्ञान से दूर हो रह हैं: धनंजय कुमार


भारतीय मूल के धनंजय कुमार लंबे समय से अमेरिका में रह रहे हैं। वहां रहते हुए भी उन्होंने अपने अंदर भारतीय संस्कृति और साहित्य की ज्योति को बुझने नहीं दिया। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले में हुआ था। आपकी प्रारंभिक शिक्षा चंदौली के ही एक प्राथमिक विद्यालय से प्रारंभ हुई। आपका मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मिट्टी से जुड़कर रहना चाहिए, जिससे अपनी मिट्टी की खुश्बू सांसों में महसूस होती रहे। धनंजय कुमार का पिछले दिनों भारत आना हुआ। उस दौरान इलाहाबाद के होटल यात्रिक में अजय कुमार ने आपसे मुलाकात की। उस बातचीत का संपादित अंश प्रस्तुत है।
सवाल: अपने प्रारंभिक जीवन के बारे में बताइए ?
जवाब: मेरा जन्म बनारस के पास चंदौली जिले में हुआ था, वह एक गांव हुआ करता था, और अब तो वह जिला बन चुका है। लेकिन दूसरी कक्षा से विश्वविद्यालय तक की शिक्षा मैंने इलाहाबाद में प्राप्त की। उसके बाद मैं अमेरिका चला गया। वहां जाकर मुझे थोड़ी पढ़ाई करनी पड़ी। उसके बाद मैंने वर्ल्ड बैंक में 25 साल नौकरी की। उस दौरान मुझे 50-60 देशों का भ्रमण करने का मौका मिला। जिससे अंदाज़ा हुआ कि विश्व में किस तरह के लोग हैं, स्थिति क्या है, सामाजिक स्थितियां क्या हैं?  परिवेश कैसे हैं? ये सब जानने के बाद मुझे लगा कि अब मेरा वहां का काम पूरा हो चुका है। फिर मैंने अर्ली रिटायरमेंट ले लिया और समाज सेवी जैसे कामों में जुट गया। मैंने योग की शिक्षा ली और कई वर्षों तक योग की शिक्षा देता रहा और अब भी वो सिलसिला जारी है। फिर लिखने पढ़ने का काम शुरू किया। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में जैसे विज्ञान, अध्यात्म। कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं और उम्मीद है कि 2015 तक 5-6 पुस्तकें और प्रकाशित होंगी।
सवाल: वर्ल्ड बैंक में आप किस ओहदे पर थे ?
जवाब: वर्ल्ड बैंक में मैं सीनियर इंडस्टियल इकोनामिस्ट था। इस दंौरान भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में काम करने का मौका मिला, जैसे इन्फ्रास्टृक्चर, एनर्जी, एकोनामिक मैनेजमेंट, इंडस्टियल डेवलपमेंट पॉलिसी आदि।
सवाल: आपका साहित्य में रूझान कैसे हुआ?
जवाब: साहित्य में रूझान तो मेरे परिवार की देन है। मेर पिताजी को कविताएं बहुत पसंद थीं। जब वे क्वीन्स कालेज बनारस में थे तो उनके एक रूममेट थे जो बाद में देश के बड़े कवि हुए हैं। हालांकि मुझे अभी उनका नाम याद नहीं आ रहा है। पिताजी अक्सर उनकी कविताएं पढ़ा-सुनाया करते थे। मेरे चाचाजी जिनके पास मैं इलाहाबाद में रहा, उन्हें कविता से बहुत लगाव था। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर थे। जब मैं अमेरिका जाने लगा तो मैंने उनसे आग्रह किया कि अपनी प्रिय कविताएं आप अपने हाथ से लिखकर दे दें, तो उन्होंने लिखकर दी थी। जब मैं इलाहाबाद में था तो इलाहाबाद विश्वविद्यालय मे ंएक न्यूज़ लेटर छपता था। जिसमें मेरी कविताएं और लेख छपते रहे। फिर वर्ल्ड बैंक में नौकरी शुरू की तो लेखन लगभग छूट गया। फिर तो सिर्फ़ टेक्निकल पेपर और रिसर्च ही करता रहा इकोनामिक के फील्ड में। उसके बाद 90 के दशक में 10-20 सालों में कविता, ग़ज़ल और साहित्य की तरफ रूझना बढ़ा। फिर कवि सम्मेलनों और मुशायरों में जाना भी शुरू हो गया। भारत में भी और अमेरिका में भी।
सवाल: आपने किन-किन विधाओं में लेखन किया और आपकी कितनी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं?
जवाब: मेरी सबसे प्रिय विधा क्षणिका है, दो-तीन पंक्तियों में कोई एक ख़्याल आया जो कि अपने साथ एक ख़ास मतलब लेकर आया। कम से कम शब्दों में अपनी बात कह दी और लोगों को कम शब्दों में कही बात याद भी रहती हैं। मैंने कई बड़ी कविताएं भी लिखी है। एक ग़ज़ल ऐसी भी है जिसमें सौ शेर हैं। ग़ज़लों के अलावा नज़्म भी लिखी है। इसके अलावा मेरी सबसे पहली कविताओं की पुस्तक ‘अधूरी बात’, फिर दूसरी पुस्तक आयी थी ‘बर्फ़ की दीवार’ और एक प्रवासी साहित्य की पुस्तक आई थी ‘देशांतर’, एक कहानी संगह भी है जो ‘कथांतर’ के नाम से प्रकाशित हुआ है। एक पुस्तक जिसमें नज्में और ग़ज़लें हैं अभी प्रकाशित होने की तैयारी में है।
सवाल : इलेक्टानिक मीडिया के दौर में लिखे जा रहे साहित्य की प्रासंगिकता है ?
जवाब: इलेक्टानिक मीडिया में जो साहित्य लिख जा रहा है मैं समझता हूं कि संवाद स्थापित नहीं हो पा रहा है। समाज और साहित्य के बीच ताल-मेल नहीं हो रहा है। लोगों का स्क्रीन की तरफ रूझान अधिक है। मनोरंजन तो बढ़ा है पर संबंधों में दूरियां आयी हैं। पर सबसे अच्छी चीज़ यह है कि सूचनाएं बहुत आसानी से मिल जाती हैं। आप इंटरनेट में गूगल पर जाकर कुछ खोजिए बहुत बड़ी संख्या में आपके सामने जानकारियां खुलकर आएंगीं और पूरी जानकारियों को एक साथ पढ़ना भी असंभव है। वहीं गूगल से मिलने वाली जानकारियों में कितनी जानकारी सही और प्रमाणिक हैं ये अनुमान लगाना कठिन होता है। इस तरह हम सूचनाओं से तो जुड़ रहे हैं पर ज्ञान से दूर होते जा रहे हैं।
सवाल: आज के समय में लिखा जाने वाला साहित्य कितना प्रभावशाली है ? और उसकी सामान्य लोगों तक कितनी पहुंच है ?
जवाब: असल में भारत में जो प्रकाशक हैं, उनका काम करने का तरीका कुछ अलग ही है। अगर कोई बड़ा नामचीन लेखक है तब तो ठीक है लेकिन अगर नही ंतो प्रकाशक उसे उस तरह सहयोग नहीं करता जैसा बड़े देशों में प्रकाशक लेखक को सहयोग करता है। मैं यहां बहुत से प्रकाशकों से मिला हूं। व्यक्तिगत तौर पर तो उनका व्यवहार बहुत अच्छा है पर बतौर प्रकाशक जो व्यवहार होना चाहिए  किसी पुस्तक या लेखक के प्रति वह नहीं है।
सवाल: सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में छपे हुए साहित्य की पठनीयता पर क्या असर पड़ा है?
जवाब: अगर आप किताब लेकर बैठे हैं तो एकाग्रता की ज़रूरत होती है और लोगों को इसका अवसर ही नहीं मिल रहा है। पुस्तक को बैठकर हाथ में लेकर पढ़ना और स्क्रीन पर पढ़ना दोनों में बहुत अंतर होता है। तो मुझे लगता है हम चिंतामुक्त साहित्य से दूर हो रहे हैं। प्राचीन साहित्य से तो दूर हुए ही हैं क्योंकि आधुनिक पीढ़ियां हमेशा नए की तरफ आकर्षित हुई हैं। प्राचीन छोड़ नए को तो अपनाना चाहिए पर नए में क्या अपनाना चाहिए इसका विवेक नहीं बन पा रहा है।
सवाल: अमेरिका में लिखे जा रहे साहित्य और भारतीय साहित्य में कितनी भिन्नता है ?
जवाब: यहां की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्थाएं भिन्न हैं, उनका साहित्य भारत के इतिहास से बहुत छोटा है। दोनों देशों के साहित्यकारों और उनकी सोच में काफी फ़र्क़ है लेकिन वहां किसी भी चीज़ को लोग गहराई से समझने की कोशिश करते हैं भले ही वह तकनीकि दृष्टिकोट हो। ऐसा में समझता हूं कि वहां बातें हवा में नहीं उड़ाई जाती हैं और लोग अब भी पुस्तकें पढ़ते हैं। क्योंकि कम से कम सैकड़ों पुस्तकें बेस्ट सेलर में आती हैं और उन पर रिव्यू छपते हैं। भारत में यदि रिव्यू छपते भी हैं तो वही सतही रिव्यू जैसे पुस्तकें छपी हैं, इसके प्रकाशक ये हैं और ये इस विषय पर हैं। लेकिन लिखे गए साहित्य को पढ़कर उस पर रिव्यू देना और उन पर टिप्पणी करना मैंने बहुत कम देखा है।
सवाल: भारतीय साहित्य पर अमेरिकी लोगों की क्या सोच है ?
जवाब:  अमेरिका में एक वर्ग है जो अध्यात्म और वैश्विक सोच से जुड़ा है, भारतीय संस्कृति और साहित्य में। और मुझे लगता है उस वर्ग में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है।
सवाल: अमेरिका में साहित्यिक आयोजनों की क्या स्थिति है?
जवाब: वहां भी हर शहर और हर कस्बे में लिटरेरी गु्रप हैं जो बुक क्लब्स कहे जाते हैं। वो सब लिखते-पढ़ते रहते हैं और वहां भी प्रयास करते हैं कि कितनी ज्यादा चीज़ें इकट्ठा हो जाएं। बौद्धिकता से लगाव है जो अपनी जगह बढ़ता ही जा रहा है और हो सकता है एक ऐसा समय आये जब लोग वस्तुओं से उबकर वास्तविकता से जुड़ें।
सवाल: मीडिया में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका में स्वागत को जिस तरह से दिखाया गया क्या वैसा माहौल अमेरिका में था?
जवाब: मोदी की विश्व में लोकप्रियता तो है ही इसमें कोई शक नहीं हैं। अच्छा बोलते हैं, लोगों से जुड़ पाते हैं, उनका खुद का एक अंदाज़ है, उनका अपना एक विज़न है जो किसी सामान्य नेता में नहीं होता और जब वो अमेरिका गए थे तो काफी भव्य आयोजन हुए थे। न्यूयार्क में और वाशिंगटन में बड़ी मात्रा में लोगों की भीड़ उमड़ी थी और लोगों को बहुत उम्मीद भी हैं उनसे।
सवाल: भारतीय राजनीति पर अप्रवासी भारतीयों की क्या सोच है ?
जवाब: वहां के लोगों में भारतीय राजनीति के लिए बहुत रुचि है और चिंता भी रहती है। वे चाहते हैं कि भारत आगे बढ़ता जाए और वे जो योगदान कर सकते हैं उसके लिए तैयार रहते हैं, वे बढ़कर आते भी हैं। इंवेस्मेंट में, समाज सेवा और संस्थाओं के साथ काम करना। पर एक दुख का विषय ये रहता है कि यहां से जो समाचार पढ़ने को मिलता है, खून-खराबा, चोरी-डकैती तो उससे कहीं न कहीं खिन्नता आती है कि क्या यही है हमारा समाज ? हम लोगों में क्या नाम कमा रहे हैं।
सवाल: नए लेखकों को क्या संदेश देना चाहेंगे ?
जवाब: हम अक्सर कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण है। आप साहित्यकार हैं, आपका साहित्य सिर्फ़ दर्पण बनकर न रह जाए बल्कि किसी दिशा में मार्गदर्शन करे। गुलजार की कुछ पंक्तियां हैं - ‘आओ हम सब पहन लें आईने, लोग देखेंगे अपना ही चेहरा, सारे हसीन लगेंगे’। कुछ ऐसा सशक्त लिखें कि लोग सोचने पर मजबूर हों। बस दर्पण बनकर न रह जाएं। जबकि समाज का मार्गदर्शन करें कि हम क्या पाने की तलाश में क्या खो रहे हैं। इसमें मूल्यांकन भी होना चाहिए।
गुफ्तगू के मार्च: 2015 में प्रकाशित