रविवार, 23 फ़रवरी 2020

दीनी तालीम की रोशनी फैलाते मौलाना मुजाहिद हुसैन

                                                 
                                                                          - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
 मौलाना मुजाहिद हुसैन
 दीनी तालीम को देश के कोने-कोने में सही रूप में पहुंचाने का काम एक अर्से से करने के साथ नातिया शायरी  करने वाले मौलाना मोहम्मद मुजाहिद हुसैन रज़वी मिस्बाही आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। आज जब भी किसी दीनी जलसे या हज करने जाने के संबंधित कोई काम हो तो इलाहाबाद में सबसे पहले आपका का ही नाम जेह्न में आता है। आप राष्ट्रीय स्तर के धार्मिक वक़्ता हैं। वर्तमान समय में करैली में रहने वाले मौलाना मुजाहिद का जन्म 17 मार्च 1961 को झारखंड राज्य के गढ़वा जिलें हुआ। आपके वालिद मौलवी अहमद अली गांव में ही कारोबार और काश्तकारी करते थे, मां हाफ़िज़ा खातून एक कुशल गृहणि थी, अब ये दोनों हयात में नहीं हैं, लेकिन आपकी परविश की वजह से मौलाना मुजाहिद खुद के साथ दूसरों को भी अच्छी तरीके से जीवनयापन की शिक्षा दे रहे हैं। आपके माता-पिता ने हज भी किया था। तीन भाई-बहनों में से आपके एक बड़े भाई हैं और आपसे छोटी एक बहन है।
 प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव में ही करने के बाद आपने मदरसा अलजामतुल अशरफ़िया मुबारकपुर, आज़मगढ़ से ‘फाजिले दर्शे-निज़ामी’ की शिक्षा हासिल की। इसके बाद पटना यूनिवर्सिटी से अरबी विषय से स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की। इसके बाद इलाहाबाद के मिर्ज़ा ग़ालिब रोड पर स्थित दारुल उलूम गरीब नवाज़ में आप सहायक अध्यापक हो गए। 1986 से इस संस्थान में आप शिक्षण कार्य को अंज़ाम दे रहे हैं। आज आपके पढ़ाए हुए शार्गिद पूरे देश में जगह-जगह शिक्षण कार्य कर रहे हैं। देशभर के अलावा अमेरिका, अफ्रीका और श्रीलंका में भी आपके शार्गिद दीनी शिक्षा देने का कार्य कर रहे हैं। आप ‘रजा-ए-मुस्तफ़ा-खिदमते हुज्जाज कमेटी’ के संरक्षक हैं। इस कमेटी के माध्यम से आप हज यात्रियों की सभी प्रक्रिया को पूरी करवाते हैं। हज यात्रा का फार्म भरने, ट्रेनिंग देने से लेकर हज से संबंधित सारी चीज़ें हज पर जाने वाले लोगों को समझाने में आपकी भूमिका सरे-फेहरिस्त होती है। इसके अलावा आप ‘तंजीम इस्लाहे मुआशरा’ के अध्यक्ष भी हैं। इस तंज़ीम के ज़रिए हर वर्ष दीनी तालीम पर आधारित तीन रोज़ा जलसा होता है। तीनों ही दिन अलग-अलग तयशुदा विषय पर अलग-अगल वक़्ताओं की तक़रीर होती है। जलसों में तक़रीर के लिए आप देशभर में बुलाए जाते हैं। उत्तर प्रदेश के अलावा पंजाब, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि राज्यों में आप तक़रीर करने के लिए जाते रहते हैं। अब तक आप की दो किताबें प्रकाशित हुई हैं। पहली किताब का नाम ‘रहनुमाए हज व उमरा’ है, यह किताब उर्दू के साथ-साथ हिन्दी में भी छपी है। दूसरी किताब का नाम ‘वसीला-ए-नेज़ात’ है, यह किताब नातिया शायरी का मजमुआ है, 190 पेज की इस किताब में 150 से ज़्यादा नात हैं।



(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2019 अंक में प्रकाशित )

सोमवार, 17 फ़रवरी 2020

पांचवीं सदी में ही शुरू हुुआ दोहा का सृजन


 गुफ़्तगू की ओर ‘दोहा दिवस’ का किया गया आयोजन 
दोहा पाठ करने वालों को प्रदान किया गया सहभागिता प्रमाण पत्र

प्रयागराज। प्राचीन समय में कबीरदास ने अपने दोहों के माध्यम से समाज की कुरुतियों पर करारा प्रहार किया, उनके दोहे पढ़कर लोग व्याकुल हो जाते थे, कई बार दोहों की वजह से समाज में सुधार भी हुए। साथ ही उस समय के शासकों को उनके दोहों से परेशानी होती थी, जिसकी वजह से कबीर को प्रताड़ित भी किया करते थे। आज के समय में हमारे हिन्दी साहित्य की प्राचीन विधा है, जिसे पाठ्यक्रम में भी पढ़ाया जाता है। यह बात प्रभाशंकर शर्मा ने गुफ़्तगू की ओर से 16 फरवरी को करैली स्थित अदब घर आयोजित दोहा दिवस समारोह में बतौर मुख्य वक्ता कही। उन्होंने कहा कि पांचवीं सदी में दोहा सृजन की शुरूआत हुई है, इसका वर्तमान छंद 13-11 मात्राओं का है, लेकिन प्राचीन काल में 12-14 और 14-16 के शिल्प में भी दोहे कहे जाते थे। प्रयाग के कवि मलूकदास का दोहा ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम/दास मलूका कह गए, सबके दाता राम’ पूरी दुनिया में बहुत ही प्रचलित है। उर्दू शायर निदा फ़ाज़ली के दोहे भी खूब पढ़े, सुने जाते हैं, उनका यह दोहा बेहद प्रासंगिक है- बच्चा मस्जिद देखकर बोला आलीशान/अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान’। कवि बिहारी, रहीम आदि भी दोहा के बड़े कवि हुए हैं। 
कार्यक्रम की रूपरेख प्रस्तुत करते इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

 गुफ़्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि दोहा अब हिन्दी में ही नहीं बल्कि उर्दू में भी खूब लिखा, पढ़ा जा रहा है, पाकिस्तान के भी तमाम बड़े शायर दोहा लिख रहे हैं। पिछले वर्ष आज ही के दिन गुफ़्तगू के ‘दोहा विशेषांक’ का विमोचन किया गया था, तब यह निर्णय लिया गया था कि अब प्रत्येक वर्ष हम दोहा दिवस का आयोजन करेंगे और दोहा को वर्तमान समय में अधिक प्रासंगिक बनाने के लिए काम करते रहेंगे। साहित्यकार रविनदंन से कहा कि दोहा एक लिबास है, कविता कहने के लिए लिबास की आवश्यकता होती है। दोहा के लिबास में कही गई कविता बेहद मारक होती है। पांचवीं सदी से सन 1000 तक अपभ्रंश का समय रहा है। दोहे की पहली पुस्तक सातवीं सदी में ‘बौद्ध व दोहागान’ है, जिसमें 84 सिद्ध कवियों के दोहे शामिल हैं। दोहे का पहला एकल संग्रह ‘स्ररवनाचार’ नाम से कवि देवसने की प्रकाशित हुई थी। दोहे का दूसरा एकल संग्रह ‘रामसिंह का पाहुड दोहा’ सन 970 में प्रकाशित हुआ था। श्री रविनंदन ने कहा कि अकबर ने तुलसीदास को अपने नौ रत्नों में शामिल करने के लिए त्योता भेजा, तो उसके जवाब ने तुलसीदास ने एक दोहा भेजा दिया, लिखा- ‘हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखौ दरबार/तुलसी अब क्या होवेंगे, नर के मन सबदार।’
दोहा पाठ करतीं डाॅ. नीलिमा मिश्रा

 मुख्य अतिथि समाजसेवी तारिक सईद अज्जु ने कहा कि इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी और उनकी टीम ने दोहा पर कार्यक्रम की शुरूआत करके एक महत्वपूर्ण काम किया है, इससे नई पीढ़ी को दोहों की जानकारी हो रही है। ऐसे काम की सराहना की जानी चाहिए। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि जमादार धीरज ने और संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया। ओम प्रकाश ‘अंजाना’, असद ग़ाज़ीपुरी, अनिल मानव, डाॅ. नीलिमा मिश्रा, अब्दुल सुब्हान, डाॅ. अशोक अग्रहरि प्रतापगढ़ी, जय प्रकाश शर्मा ‘प्रकाशन’, जुनैद कबीर, कुमार अनुपम, ए.आर. साहिल, जमादार धीरज, संजय सक्सेना आदि ने दोहा पाठ किया। दोहा पाठ करने वाले सभी कवियों को गुफ़्तगू की ओर से ‘सहभागिता प्रमाण पत्र’ प्रदान किया गया। हकीम रेशादुल इस्लाम, अफ़सर जमाल, सेलाल इलाहाबादी आदि मौजूद रहे। अंत में फ़रमूद इलाहाबादी ने सबके प्रति आभार व्यक्त किया।

     
कार्यक्रम में मौजूद लोग
                                     

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2020

उस्मान: ठुकरा दिया पाक में जनरल बनने का ऑफर

                                                                                - शहाब खान गोड़सरावी
     
ब्रिगेडियर उस्मान बहादुर
 15 जुलाई 1912 को जन्मे ब्रिगेडियर उस्मान बहादुर ब्रिटिश भारत के सैन्य उच्च अधिकारी थे। इनके पूर्वज अफगानिस्तान के सिराज के रहने वाले थे। ब्रिगेडियर उस्मान के परिवार से कांग्रेस के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. मुख्तार अंसारी के घर से काफी गहरा संबंध था। क्योंकि ब्रिगेडियर उस्मान के पिता पुलिस ऑफिसर मोहम्मद फारूख खुनमबीर की शादी ग़ाज़ीपुर के युसुफपुर अन्सारी परिवार में जन्मी अब्दुल कबीर अंसारी की बेटी जमीलुन बीबी से हुई थी। जिससे ब्रिगेडियर उस्मान की परिवार का ग़ाज़ीपुर से काफी गहरा लगाव रहा। ब्रिगेडियर उस्मान की तीन बड़ी बहने एवं दो भाई थे। उस्मान की प्रारंभिक शिक्षा बनारस स्थित हरीश चन्द्रा हाईस्कूल से हुई। आजाद भारत के पराक्रमी सिपहसलारों की फेहरिस्त में सबसे पहला नाम आता है ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान का। इन्हें  पाकिस्तान के पितामह कहे जाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना और राजनेता लियाकत अली ने मुस्लिम होने का वास्ता दे कर पाक फौज में जनरल बनाने का न्यौता दिया था, लेकिन मोहम्मद उस्मान ने ठुकरा दिया। नौशेरा का शेर, नाम से पुकारे जाने वाले ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान, पहले अघोषित भारत-पाक युद्ध (1947-48) में शहीद होने वाले पहले उच्च सैन्य अधिकारी भी थे। 
 ब्रिगेडियर उस्मान महज 12 साल की उम्र में अपने एक मित्र को बचाने के लिए कुएं में कूद पड़े थे और उसे बचा भी लिया था। थोड़ा बड़े होने पर सेना में जाने का मन बनाया और उन्हें सन 1932 में ब्रिटेन की रायल मिलिटरी एकेडमी, सैंडहस्ट में चुन लिए गए। जिनका प्रशिक्षण ब्रिटेन में हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध में अपने नेतृत्व के लिए प्रशंसा पाने वाले ब्रिगेडियर उस्मान को 10वीं बलूच रेजीमेंट में 19 मार्च 1935 को पोस्टिंग मिली। इधर भारत-पाक का बंटवारा हो रहा था। बंटवारे के बाद बलूच रेजीमेंट पाकिस्तानी सेना के हिस्से चली गयी। तब उस्मान डोगरा रेजीमेंट में आ गये। बंटवारे के बाद (1947-48) दोनों देशों में अघोषित लड़ाई चल रही थी। पाकिस्तान भारत में घुसपैठ करा रहा था। कश्मीर घाटी और जम्मू तक अशांत था। उस्मान पैराशूट ब्रिगेड की कमान संभाल रहे थे। उनकी झनगड़ में तैनाती थी। झनगड़ का पाक के लिए सामरिक महत्व था। 25 दिसंबर, 1947 को पाकिस्तानी सेना ने झनगड़ को कब्जे में ले लिया। उस समय लेफ्टिनेंट जनरल के. एम. करिअप्पा वेस्टर्न आर्मी कमांडर का नेतृत्व कर रहे थे। उन्होंने जम्मू को अपनी कमान का हेडक्वार्टर बनाया। लक्ष्य था - झनगड़ और पुंछ पर कब्जा करना और मार्च, 1948 में ब्रिगेडियर उस्मान की वीरता, नेतृत्व व पराक्रम से झनगड़ भारत के कब्जे में आ गया। तब पाक की सेना के हजारों जवान मारे गए थे और इतने ही घायल हुए थे, जबकि भारत के 102 घायल हुए थे और 36 जवान शहीद हुए थे। पाकिस्तानी सेना झनगड़ के छिन जाने और अपने सैनिकों के मारे जाने से परेशान थी। उसने घोषणा कर दी कि जो भी उस्मान का सिर कलम कर लायेगा, उसे 50 हजार रुपये दिए जाएंगे। 
 पाकिस्तानी सेना के आंखों का किरकिरी बने ब्रिगेडियर उस्मान 3 जुलाई, 1948 की शाम तकरीबन पौने छ बजे होंगे उस्मान जैसे ही अपने टेंट से बाहर निकले। तभी उन पर सुरंगी ग्रेनाईट के साथ 25 पाउंड का गोला अचानक पाक सेना ने घाट लगाकर दाग दिया। उनके अंतिम शब्द थे- ‘हम तो जा रहे हैं, पर जमीन के एक भी टुकड़े पर दुश्मन का कब्जा न होने पाये।’ पहले अघोषित भारत-पाक युद्ध (1947-48) में शहीद होने वाले वे पहले उच्च सैन्य अधिकारी थे। राजकीय सम्मान के साथ उन्हें जामिया मिलिया इसलामिया कब्रगाह, नयी दिल्ली में दफनाया गया। अंतिम यात्रा में गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन, प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, केंद्रीय मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद और शेख अब्दुल्ला भी थे। मरणोपरांत उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। उस्मान अलग ही मिट्टी के बने थे। वो सेना में रहते हुए भी एल्कोहलीक पेय से हमेशा दूर रहे। इसके अलावा वह अपने वेतन का पूरा हिस्सा नौशेरा के गरीब बच्चों की पढ़ाई एवं जरूरतमंदों पर अक्सर खर्च किया करते थे।
(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2019 अंक में प्रकाशित)

शनिवार, 8 फ़रवरी 2020

‘वसीला-ए-निजात’, ‘कलम काग़ज़ पे सजदे करते हैं’, ‘बतख़ मियां अंसारी’ और ‘ हमनशीं’


                                                                   - अख़्तर अज़ीज़
                                                  


 यूं तो शायरी रह दौर में होती रही, मगर हम्दिया और नातिया शायरी की सिन्फ़ मुश्किल रही है। नात कहना मुश्किलतरीन सिन्फ़ है। शायर को बहुत ही सजग रहना पड़ता है। मौलाना मुजाहिद हुसैन रज़वी  उर्फ़ ‘हसन’ इलाहाबादी का नातिया मजमुए-ए-कलाम ‘वसीला-ए-निजात’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। किताब के शुरू में फ़ाजिल-ए-बरैलवी रह. की एक रूबाई ‘ईमान ये कहता है मेरी जान है’ बतौर तबर्रुक शामिल किया गया है। ‘अपनी बात’ में शायर ने अपने और अपनी नातिया शायरी के बारे में कुछ दिलचस्प बातें लिखी हैं। उनमें सिर्फ़ एक वाक़ेया मुख़्तसरन अर्ज़ करता हूं। ‘1986 में पासबान-ए-मिल्लत हज़रत मौलाना मुश्ताक़ अहमद निज़ामी के बुलावे पर डाॅ. हसन रज़ा खान, मुहाहिद हुसैन दारुल उलूम गरीब नवाज इलाहाबाद बहैसियत मुदर्रिस तशरीफ़ ले आए। यहां उलेमा के अलावा शोअरा से भी हज़रत के मरासिम बढ़ने लगे, हां मेरे (अख़्तर अज़ीज़) वालिद मरहूम अज़ीज़ इलाहाबादी के तअल्लुकात और और मरासिम हुजूर के से अलजामियतुल अशरफ़िया मुबाकरपुर से ही थे और मुजाहिद के बारे में जिक्र करते करते हुए मुझसे अक्सर बताते कि (मेरे हज़रत यानी हुजूर हाफ़िज़-ए-मिल्लत रह. ने मौलाना मुजाहिद साहब को पढ़ाया है ) इलाहाबाद में इक़बाल दानिश से हज़रत की मुलाकात हुई। इक़बाल दानिश को उस वक़्त तक मुजाहिद साहब की शेरी सलाहियत का अंदाज़ा नहीं था, किसी ने इक़बाल दानिश से जिक्र किया कि मुजाहिद साहब भी नातिया अशआर कहते हैं। इक़बाल दानिश ने फ़रमाइश की कि कुछ सुनाइए, मुजाहिद साहब ने नात सुनाए। शेर सुनने के बाद इक़बाल दानिश को यक़ीन न आया, और कहा कि ये क्या मज़ाक है, ये अशआर आपके हैं ? इसमें तो बीस साल का तजरुबा बोल रहा है। और अगर ये अशआर आपने ही कही है तो मेरे दिए गए मिसरे पर अभी नात कहकर सुनाइए। ज़ाहिर है ये चैलेंज था और मौलाना मुजाहिद ने कुबूल करते हुए नात कहकर सुना दिया। जब इक़बाल दानिश ने सुना तो वाह-वाह कह उठे, और कहा- हज़रत आप तो आलिम-ए-दीन हैं। सरकार के फ़ज़ाएल से आपका दिल और जे़ह्न रौशन है, बेशक आप नातिया शायरी करते हैं। ‘वसीला-ए-निजात’ निजात का एक शेर देखें-‘ ज़िक्र छिड़ा उनकी अज़मत का लो महफ़िल पर छाया रंग/रंग नबी की मिदहत का है सब रंगों में चोखा है।’ इस मतले में शब़्द ‘चोखा’ का क्या खूबसूरत इस्तेमाल हुआ है। एक और शेर देखें- ‘ऐ काश सर-ए-हश्र भी मिल जाए ये मौक़ा/लहराउं वहां मिदहत-ए-आक़ा का पताका।’ इस नात का क़ाफ़िया है- खुदा, दुआ वगैरह और रदीफ़ ‘का’, पताका वो क़ाफ़िया का इस्तेमाल हुआ है- जिसमें रदीफ़ शामिल है, जिसे उर्दू शायरी में मामूल का क़ाफ़िया कहा जाएगा या कहते हैं। वसीला-ए-निजात में ढेर सारे अशआर मिसाल में पेश किये जा सकते हैं। और दो अशआर देखिए- ‘अच्छा हुआ हुजूर मेरे पास आए गए / था, मरहम शदीद सवाल ओ जवाब का।’ ‘एक पल में वो मकां से लामकां आए गए / कोई अंदाज़ा करे सरकार की रफ़्तार का।’ इस तरह के अशआर किताब में भरे पडे हैं। किताब में एक हम्द, एक मुनाजात और ‘एक आरजू’ के उनवान से शायर ने अपनी तमन्ना पेश किया है, जिसके बाद किताब में 114 नात हैं। 192 पेज के इस सजिल्द पुस्तक को एजुकेशन पब्लिशिंग हाउस दिल्ली ने प्रकाशित जिसकी कीमत 500 रुपये है।
 ज़ेरे नज़र मजमुआ ‘क़लम काग़ज़ पे सजदे कर रहा है’। अनवार कमाल ‘अनवर फिरोज़बादी’ की नातों और मनाक़िब का खूबसूरत शायरी का मुजमुआ कलाम है। जिसमें 61 नात हैं और सात मनक़बतें हज़रत अली करमअल्लाह वजहुल करीम की शान-ए-अक़दस में, और बाक़ी मनक़बतें हज़रत इमाम हुसैन रजि. की शान-ए-मुक़द्दस में और तमाम शोहदा-ए-करबला रिज़वान उल्लाह तआला अलैहिम अजमईन की बारगाह-ए-कुद्स में हैं। अनवर फ़िरोज़ाबादी का मजमुआ ‘क़लम काग़ज़ पे सजदे कर रहा है’ पढ़ने से यह अंदाज़ा लगता है कि शायरी पर अनवर साहब की गिरफ़्त मज़बूत है, क्योंकि इतनी रवानी से ढले-ढलाए मिसरे किसी अच्छे शायर की निशानदेही करते हैं। इनकी नातों और मनक़बत (मनाक़िब) में अक़ीदत की फ़रावानी तो है ही, रवानी और वाक़ेयाती अशआर भी बेशुमार हैं। मुझे इनकी नातों के कुछ अशआर बहुत पसंद आए, आप भी मुलाहिज़ा फ़रमाएं। ‘नाम है जिसका मदीना नगर खुश्बू का /है इसी अर्ज़-ए-मुक़द्दस पे तो घर खुश्बू का’, ‘जो शह्र-ए-तैबा में गुज़रे वो ज़िन्दगी अच्छी/ दयार-ए-सरवर-ए-आलम की मौत भी अच्छी’, इतना क़रीब दूसरा कोई नबी नहीं/सरकार मेरे जितने खुदा के करीब है’। इस तरह के नातिया अशआर जा बजा मिलते हैं। यही बात मनक़बत में भी देखने को मिलती है। हज़रत अली की पैदाईश के बाद का वाक़या देखें- ’जब आए नबी खोल दीं अपनी आंखें/पता था ये उनको नबी आ गए हैं’। एक शेर और देखें, जिसमें मुश्किलकुशाई का जिक्र है- ‘छुटकारा चाहते हो अगर मुश्किलात से/लिखवाओ तुम मकान पे मौला अली का नाम’। इसी तरह के अशआर मजमुए में मिलते हैं। हज़रत इमाम हुसैन की शान में भी बेशुमार अशआर हैं। और तमाम शोहदाए कर्बला की तौसीफ़ करते हुए शायर कहता है- ‘ग़म-ए-हुसैन में जब आंख रोने लगती है/खुदा के फ़ज़ल की बारिश भी होने लगती है’। कुल मिलाकर अनवर फ़िरोज़ाबादी का कामयाब नातिया और मनक़बत का यह मजमुआ है। 

  

किताब का नाम ‘बतख़ मियां असांरी’ कुछ अजीब सा मगर पढ़ने पर आंखें दंग रह गई। इतनी हिम्मत, जुरअत और बहादुरी वाली शख़्सियत कम ही देखने को मिलती है। इस किताब के लेखक सय्यद नसीर अहमद है, और तेलगु से उर्दू में अनुवाद अबुल फै़ज़ान ने किया है। किताबचा मोहन दास करमचंद गांधी जी की ज़िन्दगी से ताल्लुक रखता है। जिसके पढ़ने से ये अंदाज़ा साफ़ लगाया जा सकता है कि गांधी जी और उनके साथियों ने मुल्क को आज़ाद कराने के लिए कैसे-कैसे जोखि़म उठाए हैं। बतख मियां अंसारी 1867 में पैदा हुए और 1957 में इंतेकाल कर गए। 15 अप्रैल 1917 को गांधी जी मुजफ्फरपुर, मोतिहार पहुंचे थे। गांव वालों ने गांधी जी का बहुत ही ज़ोरदार इस्तक़बाल किया, इस्तक़बाल करने वाले गांव के लोग ज़्यादातर नील की काश्तकारी करते थे और इन कारखानों के मालिक अंग्रेज़ हुआ करते थे। अग्रेज़ मालिक तरह-तरह के तरी़कों से कारखानों में काम करने वाले लोगों को परेशान किया करते और ज़बरदस्ती टैक्स लगाया करते थे। हालात से लड़ने, राजकुमार शुक्ला और पीर मोहम्मद मोनिस अंसारी की अपीलों को ध्यान में रखते हुए गांधी जी मोतिहारी पहुंचे थे। चूंकि गांव वाले बिना डर के अपनी परेशानी गांधी जी को जी भर के सुनाया। जुल्म और ज़बरदस्ती टैक्स वसूली की बात बताई। ये सब देखकर अंग्रेज़ों को फ़िक्र सताने लगी और उनको किसी अनहोनी के होने का डर सताने लगा। इसी के तहत इरविन नामक अंग्रेज ने गांधी जी को मारने का प्लान बनाया, और ये तय किया कि गांधी जी को दावत पर बुलाया जाए और खाने-पीने की किसी चीज़ में ज़ह्र दे दिया जाए। इस ख़तरनाक काम को करने के लिए अपने बावरची बतख मियां अंसारी का चयन किया, और ये हुक्म दिया गया कि दूध में ज़ह्र डालकर तुम्हें गांधी जी को पिलाना है। ये सुनते ही बतख़ मियां अंसारी के होश उड़ गए, उनको हिचकिचाता देखकर इरविन ने लालच देना शुरू किया कि तुमको ज़मीन की शक्ल में इनाम दिया जाएगा, तुम्हारी तनख़्वाह बढ़ा दी जाएगी और भी बहुत चीजें दी जाएंगी। बतख़ मियां इतना सहम गए कि कुछ न बोलेाा, ख़ामोश खड़े रहे, मगर अंदर-अंदर उनका ज़मीर उनको काट रहा था। गांधी जी और उनके साथियों को दावत पर बुलाया गया, गांधी जी बाबू राजेंद्र प्रसाद और कुछ लोगों के साथ इरविन के यहां पहुंच गए। बस यहीं पर बतख़ मियां अंसारी की हिम्मत की दाद देनी पड़ती है। बतख़ मियां ने तमाम साज़िशों से नक़ाब हटाते हुए गांधी जी को बता दिया कि दूध में ज़ह्र पड़ा हुआ है। इस तरह इरविन की साज़िश नाकाम हो गई और गांधी जी की जान बच गई। इस वाक़ेये से इरविन के गुस्से की इंतिहा ने रही, बतख़ मियां को गिरफ्तार कराया, उन पर जुल्म कराए, उनका घर ज़ब्त कराया, नौकरी से निकाल दिया और यहां तक किया कि उन्हें बाल बच्चों समेत उन्हीं के गांव सिसवा असग़री से बेदखल कर दिया। मगर बतख़ मियां सब कुछ झेलने के बाद भी अंदर से गांधी जी की जान बचाकर खुश रहे, कुछ दिनों तक चम्पारन के लोगोें के साथ रहे और अचानक कहीं चले गए। फिर 1950 में भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद जी चम्पारन में एक जलसे में तक़रीर कर रहे थेा, बहुत ज़्यादा भीड़ थी, उसी भीड़ में एक बूढ़ा शख़्स बाबू राजेंद्र प्रसाद जी के पास लगातार पहुंचने की कोशिश किये जा रहा था, मगर पुलिस उन्हें बार-बार पीछे कर देती। अचानक राजेंद्र प्रसाद जी की नज़र पड़ी और पुलिस को हुक्म दिया कि उनको यहां ले आओ, करीब आने पर मालूम हुआ कि वह बतख़ मियां अंसारी थे। बतख़ मियां को राजेंद्र जी ने गले से लगाया और अपने बगल में बिठाया। फिर तक़रीर में सारा वाक़या दोहराया कि बतख़ मियां अंसारी ने कितनी हिम्मत दिखा के गांधी जी की मेरी तमाम लोगों की जान बचायी। ये वाक़या सुनकर मजमा सन्न रह गया। अगर राजेंद्र प्रसाद जी ये बात भरे मजमे में इसे ने बताते तो शायद यह वाक़या किसी का पता ही नहीं चलता। चूंकि बतख़ मियां ने राजेंद्र प्रसाद जी को अपने और उनके बच्चों पर हुए जुल्म की दास्तान सुना चुके थे, जिसे सुनकर राजेंद्र प्रसाद जी पर काफी असर हुआ और सहम गए। जिसके बाद उन्होंने ज़राअती ज़मीन एलाह करने के लिए वहां के कलेक्टर को हुक्म दिया। बतख़ मियां अंसारी काफी खुश थे कि उनके दिन फिर जाएंगे, मगर वह सात साल दफ्तरों के चक्कर काटते रहे और कोई नतीज़ा नहीं निकला, आखि़रकार वह दुनिया स ेचल बसे। 28 पेज के इस किताबचे में बहुत ही मालूमाती जानकारी है, जिसे आज़ाद हाउस पब्लिकेशन, आंध्र प्रदेश ने छापा है, जिसकी कीमत 25 रुपये है।

ज़ेरे नज़र मजमुआ ‘हमनशीं’ नौजवान शायर आसिफ़ अलअतश की ग़ज़लों का सरमाया है। आसिफ़ माशा अल्लाह अभी पच्चीस-छब्बीस साल के नौजवान शायर है और इस उम्र में शेरी मजमुआ मंज़रेआम पर लाने की सोचना, सबके बस की बात नहीं। मैं आसिफ़ अलअतश को मुबारकबाद पेश करता हूं । आसिफ़ की तहीरर से मालूम होता है कि ये एक शरीफ़ और दीनदार घराने से तअल्लुक रखते हैं। किताब में वालदैन के नाम इन्तेसाब करना मांग की दुआओं का ज़िक्र करना, नाना जान की नज़्र करना, ये तमाम बातें इस बात का सुबूत पेश रकती हैं। शुरूआत में जनाब फ़ैज़ुल हसन ने दुआओ से नवाज़ा (मुदीर) ने दुआओं से नवाज़ा, फ़िरोज़ हैदर (शोअब-ए-उर्दू, मारिस काॅलेज नागपुर) ने हौसला अफ़जाई कलमात से बेहतरीन राय दी, शिबली सना (इलाहाबाद) ने हौसला बढ़ाया। इसके अलावा अर्ज़-ए-इाल में आसिफ़ ने अपने सिलसिल में भी मुख़्तसर मगर जामे बयान किया। आसिफ़ ने खूब शेर कहे, और कहीं-कहीं मुतास्सिर भी करते हैं, मगर फ़िरोज हैदरी साहब के एक जुमले से इत्तेफ़ाक़ करना पड़ता है कि कहीं-कहीं कमसिनी की छाप नज़र आती है। मिसाल के तौर पर नात का मतला और एक शेर, मतला- ‘या रसूल अल्लाह दुनिया चल रही है आप से/मेरी शोहरत की भी शम्मा जल रही है आप से।’ बेहतरीन मतला है, मगर लफ़्ज़े शम्अ ग़लत नज़्म हेा गया है। इस तरह बह्र में आ जाएगा। ‘शम्अ की शोहरत हमारी, जल रही है आपसे’। वही बात शेर में भी हो गई है- ‘आपके तलवों का सदक़ा है सुबह की रौशनी’ यूं सही हो जाएगा- ‘आपके तलवों का सदक़ा सवेरे की किरन।’ बहरहाल, इस तरह किसी से भी हो सकती है। इनकी ग़ज़लों के कुछ अशआर ने बहुत मुतास्सिर किया, आप भी मुलाहिज़ा करें। ‘मुझको अपने भाई से मिलना है आसिफ़/उसने इतना कहकर खंज़र तोड़ दिया।’, ‘वफ़ादारी, मुरव्वत और चाहत/ वो पल्लू में सभी बांधे हुए हैं।’, ‘ इस अहल-ए-इश्क़ हैं हमसे न उलझो/शिुफ़ा मिलती है हमको ज़ह्र खाकर’, ‘हवा और धूप बोसे लेे रही थी/ वो जब बैठे थे आंगन में नहाकर’, ‘एक दो लोग ही सच्चाई पे चलने वाले/झूठ के सामने लश्कर की तरह होते हैं’। बेशक, आसिफ़ अलअतश बस यू हीं अपने मंज़िल की ओर बढ़ते रहिए, कामयाबी एक दिन क़दम चूमेगी। बस एक मशविरा, खूब मंजाई करके कागज़ पर अशआर लाइए, हालांकि अभी इस तरह की चूक हो जाना फ़ितरी है, हम सब लोग इसी मंज़िल से गुज़र चुके हैं। हां, एक बात तय है एक दिन ज़रूर शिनाख़्त कायम करेंगे। 120 पेज की इस किताब को उर्दू फाउंडेशन मुंबई ने शाया किया है, जिसकी कीमत 120 रुपये है।

( गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2019 अंक में प्रकाशित )