रविवार, 25 अप्रैल 2021

हर घटना में व्यंग्य तलाश लेते थे फ़ज़्ले हसनैन

    

इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी 

   जाने-माने उर्दू अदीब, व्यंग्यकार और पत्रकार फ़़ज़्ले हसनैन का 24 अप्रैल को इंतिकाल हो गया, इसी के साथ एक ऐसे अध्याय का अंत हो गया, जिसकी पूर्ति कोई नहीं कर सकता। वे वे अकेले ऐसे व्यक्ति थे जो हर छोटी-बड़ी घटना को व्यंग्य का रूप देने एक्सपर्ट थे। मुझे याद है, तकरीबन 17-18 साल पहले की बात है, मालिकाना झगड़े में उन दिनों ‘अमृत प्रभात’ के कर्मचारियों को तनख़्वाह कई महीने से नहीं मिल रहा था। ‘अमृत प्रभात’ के दफ़्तर में मैं कार्यकारी संपादक मुनेश्वर मिश्र जी के केबिन बैठा हुआ। उसी दिन कर्मचारियों को 200-200 रुपये दिए गए थे। अचानक फ़ज्ले हसनैन केबिन में दाखिल हुए, मुनेश्वर जी से मुख़ातिब होकर बोले-‘मिश्रा जी आज 200 रुपये मिल गए हैं, सोच रहा हूं कि इतनी बड़ी रकम कैसे लेकर जाउंगा, कहीं रास्ते में कोई छीन न ले। आप संपादक हैं, पुलिस से बात करके सुरक्षा के इंतज़ाम करा दीजिए।’ इसके बाद केबिन में बैठे सभी लोग जोर-जोर से हंसने लगे। यह उनके व्यंग्य का नमूना भर है। ऐसी बहुत से वाक़यात हैं।

 फ़ज़्ले हसनैन का जन्म 07 दिसंबर 1946 को प्रयागराज के लालगोपालगंज स्थित रावां नामक गांव में हुआ था। इंटरमीडिएट तक की परीक्षा लालगोपालगंज में ही उत्तीर्ण करने के बाद 1973 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से उर्दू विषय में स्नातकोत्तर किया था। प्र्रयागराज से प्रकाशित नार्दन इंडिया पत्रिका से पत्रकारिता की शुरूआत की थी, फिर अमृत प्रभात और स्वतंत्र भारत में भी सेवाएं दीं। व्यक्तिगत लेखन की शुरूआत हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी भाषाओं में 1974 में किया था। ग़ालिब पर लिखी इनकी पुस्तक ‘ग़ालिब एक नज़र में’ को इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने अपने पाठ्यक्रम में शामिल किया था। आपकी कहानियां, नाटक और व्यंग्य देश-विदेश की पत्रिकाओं और अख़बारों छपते रहे हैं। 1982 में इनका पहला व्यंग्य संग्रह ‘रुसवा सरे बाज़ार’ प्रकाशित हुआ था, इस पुस्तक पर उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी ने उन्हें पुरस्कृत किया था। इनके तीन नाटक संग्रह ‘रोशनी और धूप’, ‘रेत के महल’, ‘रात ढलती रही’ छपे हैं। वर्ष 2001 में व्यंग्य रचना संग्रह ‘दू-ब-दू’ प्रकाशित हुआ। प्रयागराज के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों का परिचय कराती आपकी एक पुस्तक ‘हुआ जिनसे शहर का नाम रौशन’ वर्ष 2004 में छपी थी, इस पुस्तक के तीन संस्करण प्रकाशित हुए हैं। इन्होंने कौमी उर्दू कौसिंल बराय फरोग उर्दू नई दिल्ली के अनुरोध पर मशहूर उपन्यासकार चाल्र्स डिकेंस के उपन्यास ‘डेविड कापर फील्ड’ का उर्दू में अनुवाद किया था। 


फ़ज़्ले हसनैन


 वरिष्ठ पत्रकार एसएस खान उनके बारे में लिखते हैं- ‘ फ़ज़्ले हसनैन उर्दू अदब में महारथ के साथ अंग्रेजी और हिंदी में भी वह बराबर का दखल रखते थे। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी व्यंग रचनाएं आज भी लोगों के जेह्न पर नक्श हैं। उनके साथ अमृत प्रभात में काम करते हुए बहुत कुछ सीखने का मौका मिला। उनके लिखने और बोलने का अंदाज़ बिल्कुल जुदा था। रोजमर्रा की जिं़दगी में होने वाली बातों, छोटी बड़ी घटनाओं को जिस सहज तरीके से शब्दों में पीरोते वह अनायास ही एक श्रेष्ठ व्यंग्य रचना का शक्ल अख़्तियार कर लेता. आचार-व्यवहार सियासत-शिक्षा हो या फिर रीति रिवाज व धरम-करम. इन सब विषयों पर कटाक्ष करती उनकी कलम हर किसी को अपना मुरीद बना लेती। उनकी इसी काबिलियत व फनकारी को देखते हुए मैंने इलाहाबाद में अमर उजाला और दैनिक जागरण में कार्यकाल के दौरान उनकी सैकड़ों व्यंग्य रचना सिलसिलेवार तरीके से प्रकाशित की। उसी दौरान इलाहाबाद के 10 चोटी के साहित्यकारों के साहित्य लेखन और उनके जीवन के अनछुए पहलुओं पर भी उन्होंने कलम चलाई. उनका यह लेख न सिर्फ़ इलाहाबाद में बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय हुआ, यह लेख दैनिक जागरण के विशेष फीचर पेज पर प्रत्येक बुधवार को ‘हुआ जिससे शहर का नाम रोशन’ कालम के अंतर्गत प्रकाशित होता था। बाद में यही लेख किताब की शक्ल में इसी नाम से प्रकाशित हुआ।’



शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

खड़ी बोली के साथ लोकभाषा में भी महारत

प्रो. सोम ठाकुर


                                            - प्रो. सोम ठाकुर
                                               
   गीत काव्य के पुरोधा महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की पांचवीं पीढ़ी के गीत-कवि जमादार धीरज की काव्य कृति भावांजलि पर दृष्टिपात करने से पूर्व हमें गीत काव्य की पूर्व पीढ़ियों पर विचार करना होगा। गीत काव्य शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग लोचन प्रसाद पांडेय ने ‘कविता कुसुम माला’ की भूमिका में किया और पाठकों से निवेदन के अंतर्गत लिखा, कि काव्य के तीन प्रकार हैं-
 गीत कवि जमादार धीरज की काव्यकृति भावांजलि के आरंभ में कवि ने का मूल स्रोत पीड़ा की ओर संकेत करते हुए कहा है- 
                     गीत सृजन वह प्रसव तीर पीर है
                     जिसको मां झेला करती है
                     बन जाती है मुस्कान मधुर जब
                     शिशु से वह खेला करती है।
                     दर्द भरे भावों से जुड़कर
                     शब्द सार्थक हो जाते हैं
                     बिना जुड़े कवि की पीड़ा से
                     गीत निरर्थक हो जाते हैं।
परम्परा के अनुसार धीरज ने सर्वप्रथम वाणी वन्दना की है -
                     वात्सल्यमयी जननी जग की
                     हे ! वीणा वादिन नमन चरन
                      उठ जाते तेरा वरद हम
                      सब शोक नशावन पाप हरन। 
                      स्वीकार करो सविनय वंदन
                      मां धीरज की तेरे अभय सरन
                      वात्सलयमयी जननी जग की
                      हे! वीणावादिनी नम चरण।

जमादार धीरज


 संसार में मनुष्य निष्कलंक संस्कार लेकर जन्म लेता है, किन्तु जगत में आकर वह यहां के मायाजाल में विकृतियों से घिर जाता है। इस भाववता को कवि ने निम्न पंक्तियों में व्यक्त किया है -

                      ढ़ूढ़ता सुख रहा दुख के संसार में

                      हर कदम आंसुओं से भिगोता रहा

                      एक पीड़ा-कसक-दर्द, तड़पन चुभन

                      झेलता मैं सिसकता ही रोता रहा

                      धोर के तम का पड़ा सोच का आवरण

                      अर्थ उन्माद ने ऐसा पागल किया

                      बस मुखौटे बदलता रहा रात दिन

                      छल कपट द्वेष पाखंड में ही जिया

                      देने वाले ने दी थी धवल ज़िन्दगी

                      बीज मैं वासनाओं के बोता रहा।

नारी कविता की मूल प्रेरणा स्रोत होती है। प्रिया के अभवा सृजन अकर्मण्यता की ओर अग्रसर होता है -

                       बासठ बरस संग बिताये पलों को

                       बताओ भला भूल पायेगें कैसे

                       तुम्हारे बिना लेखनी आज गुम सुम

                       भला गीत के भाव आयेंगे कैसे।

                       तुम्ही शब्द हो, छन्द हो, गीत हो तुम

                       तुम्ही गीत बनकर हो अधरों पे आई

                       तुम्ही गीत उद्गम, तुम्हीं प्रेरणा हो

                       प्रथम गीत सुनकर तुम्हीं मुस्कुराई

                       सदा प्यार में थी लपेटी शिकायत

                       तुम्हें गीत रचकर सुनायेंगे कैसे।

जमादार धीरज ने ऋतु प्रसंगों को बड़े कौशल से आत्मसात किया है, जो निम्न पंक्तियों से दृष्टव्य है -

                        फागुन में बहकी बहार बहे मस्त-मस्त

                        जन-जन के मन में उमंग आज होली में

                        बौराई बगिया में गंध उठे मदमाती

                        झूम-झूम गाये विहंग आज होली में

                        पीली चुनरिया में सर सैया शरमाये

                        गदराये गेहूं के संग आज होली में

                        मौसम वासंती है, जीव जन्तु मस्त हुए

                        जंगल में नाचे कुरंग आज होली में

उपर्युक्त पंक्तियों में कवि ने फगुनाहट को पूर्ण सशक्त ढंग से शब्दायित किया है। नारी अस्तित्व और उसके सशक्तीकरण पर कवि ने बल दिया है -

                         सदियों से चलता चला आ रहा है

                         नारी के श्रम का यही सिलसिला है

                         कहते हैं देवी जनम दायिनी पर

                          विरासत में उसको कहो क्या मिला है?

पारिवारिक परिवेश पर हिन्दी में बहुत कम लिखा गया है। डाॅ. कुंवर बेचैन और डाॅ. सरिता शर्मा ने इस दिशा में अच्छे गीत लिखे हैं। जमादार धीरज ने बहन को श्रद्धांजलि देते हुए भलीभांति संवेदना को निम्न पंक्तियों में व्यक्त किया है-

                           क्यों मौन हुई कुछ बोली तो

                           मन कहता है तुमसे बात करूं

                           तुम बसी हुई तो वादों में

                           मैं क्या भुलूं? क्या याद करूं?

सर्वहारा वर्ग के प्रति कवि ने सकारात्मक ढंग से अपने गीत व्यक्त किये हैं, जिसमें लेबर वेलफेयर की सुगंध का अनुभव किया जा सकता है -

                           दो संस्कृतियों की सहमति से

                           जब समुद्र मंथन होता है

                           अमृत-विष के बंटवारे में

                           ठगा हुआ-सा श्रम रोता है

समाज के साथ सायुज्य के दायित्व पर जमादार धीरज ने बल दिया है -

                           साथ जो न ज़माने के ढल जाएगा

                           ज़िन्दगी को ज़माना ही छल जाएगा

                           वक़्त पहचानिए जो रुकेगा नहीं

                           अपना चेहरा छुपाये निकल जाएगा।

                           नाम सबका न इतिहास बनता यहां

                           काल कितनों को बैठा निगल जाएगा

                           आह को मैं सवारूं इसी चाह से

                           गीत में दर्द अपना बदल जाएगा।

उपर्युक्त पंक्तियों में पाठकों को नागरी ग़ज़ल की सुगंध अवश्य मिलेगी। हिन्दी में ऐसे कवि बहुत कम हैं, जिनको खड़ी बोली के साथ-साथ लोकभाषा में भी महारत हासिल हो। जमादार धीरज ने अवधी में अनेक रस-सिक्त गीतों की रचना की है। कवि ने गीत-ग़ज़ल और दोहों में भी अपनी रचनाशीलता का परिचय दिया है। जमादार धीरज ने जीवन, समाज, राजनीति आदि सभी पाश्र्वों का सफलतापूर्वक स्पर्श किया है।

( गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2020 अंक में प्रकाशित)

रविवार, 11 अप्रैल 2021

डाॅ. विधु खरे ने रंगमंच को ही बना लिया कैरियर

                                    

डॉ. विधु खरे दास

                                                 

                                                                              - ऋतंधरा मिश्रा

    डॉ. विधु खरे दास का जन्म बहराइच में हुआ। इनके पिता इलाहाबाद के माध्यमिक शिक्षा परिषद में डिप्टी सेक्रेटरी थे। विधू खरे की रुचि रंगमंच की गतिविधियों में रही, प्रारंभिक पढ़ाई द्वारिका प्रसाद गल्र्स इंटर कॉलेज से इंटरमीडिएट, ईसीसी से ग्रेजुएशन और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से मास्टर्स किया। छात्र जीवन से ही मंच की गतिविधियों से जुड़ गईं। साइंस की स्टूडेंट होने के कारण इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के जुलॉजी डिपार्टमेंट मंे अनिता गोपेश, स्वर्गीय पी के के साथ जुड़ गईं। पीके मंडल और अनिल रंजन भौमिक के साथ बहुत सारे नुक्कड़ नाटकों मे काम किया। बहुत से गांवों में गईं, लखनऊ मे भी खूब काम किया। नेहरु युवा केंद्र के लिए भी नुक्कड़ किया। 

​ये सब करते-करते डॉ. विधु खरे दास का मन इसी में रमने लगा। स्पार्टाकस नाटक में अभिनय करने के बाद परिपक्वता आने लगीं। हालांकि यह काम घर वालों को बिल्कुल पसंद नहीं आ रहा था। एमएससी पूरा हो जाने पर बीएड करने के लिए अवध यूनिवर्सिटी प्रतापगढ़ चली गईं। प्रतापगढ़ में बीएड करने के साथ वहां भी खूब थिएटर किया। खुद ही लिखतीं थी खुद की नाटक करती थी, खुद ही डायरेक्ट भी करती थी। उस समय मोहन राकेश कृत ‘अण्डे के छिलके’ किया जो पहला बड़ा डायरेक्ट नाटक था। बीएड पूरा करने के दौरान ही नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का फॉर्म आया था, कथाकार मार्कंडेय जी और दूधनाथ की प्रेरणा से एनएसडी के लिए अप्लाई किया, जहां इनका चयन हो गया। एनएसडी के बाद फेलोशिप मिल गई तो मुंबई चली गईं। मुंबई में टेलीविजन, फिल्म इंडस्ट्री में काम भी किया, लेकिन ज्यादातर समय रंगमंच को दिया। अपना प्रोडक्शन किया जो खुद का लिखा हुआ था नाम था ‘अन्तर्बहियात्रा’ ये महिला  पात्रो  पर आधारित नाटक था। भारतीय व पश्चिम के विभिन्न नाटको की महिला पात्रों को एकत्रित करके एक स्क्रिप्ट बनायी थी। फिर मुंबई से वापस आ गईं, एन एस डी के टाई विंग के साथ मिलकर एक्टर टीचर की तरह एक साल काम किया। फिर दिल्ली और पूरे देश मे घूम-घूम कर कार्यशालाएं की। एनएसडी के एक्सटेंशन डिपार्टमेंट के साथ जुड़ गईं। विभिन्न निर्देशकों जैसे अनुराधा कपूर, कीर्ति जैन, फैजल अलकाजी, विपिन शर्मा अमिता उत्गाता आदि के साथ काम किया। 

​प्रतिवर्ष इलाहाबाद आकर सचिन तिवारी के मार्गदर्शन में कैंपस थिएटर के अंतर्गत एक नाटक करती रहीं। सीतापुर, चित्रकूट, आजमगढ़ आदि जगहो में भी कार्यशालाएं आयोजित की। भारतेंदु नाट्य अकादमी में वही रहकर कुछ समय तक अध्यापन कार्य किया। छात्रों के साथ प्रोडक्शन किया। रंगमंच में काम करने के लिए मंत्रालय से जूनियर व सीनियर फेलोशिप भी मिली। प्रो. देवेन्द्र राज अंकुर के मार्गदर्शन में रंगमंच मे ही पीएचडी भी कर लिया। सन 2011 से महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के ड्रामा विभाग में अध्यापन का कार्य किया।

डॉ. विधु खरे का कहना है कि आज समाज में स्त्री व पूरुष सभी को बराबर का दर्जा दिया जाता है, किंतु यह पूर्ण सच्चाई नहीं है। वास्तव मे रंगमंच मे महिलाएं अब भी गिनी-चुनी ही हैं। खासतौर पर अभिनेत्री बहुत ही कम है, क्योकि परिवार व समाज दोनों साथ नही देता।  जबकि रंगमंच समाज का ही हिस्सा है । रंगमंच संदेश देने का कार्य नहीं करता वरन  रंगमंच स्वयं एक संदेश है। आप मंच पर क्या दिखा रहे है यह अवश्य महत्वपूर्ण है। हमें  रंगमंच पर गरिमा सौंदर्य तथा अनुभूति का एक विश्वसनीय स्तर बनाये रखना चाहिएं। रंगमंच पैसा कमाने का माध्यम नहीं है। ये एक बहुत ही पारिश्रमिक कला स्वरूप है। रंगमंच मे आनें वाले कलाकारो को सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए इसमे नही आना चाहिये। डाॅ. विधु वर्तमान समय में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2021 अंक में प्रकाशित)


गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

मूछ नृत्य के लिए हर आम-खा़स में चर्चित हैं ’दुकान जी’

    

 राजेंद्र कुमार तिवारी उर्फ़ ‘दुकान जी’

                                                                   -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

 राजेंद्र कुमार तिवारी उर्फ़ ‘दुकान जी’ किसी परिचय के मोहताज़ नहीं है। ख़ासकर प्रयागराज का बच्चा-बच्चा इन्हें पहचानता और जानता है। इन्होंने अपने कार्य और सक्रियता से अपनी बेहद अलग पहचान बनाई है। कार्य की वजह से ही 1995 में गिनिज बुक ऑफ वल्र्ड रिकार्ड और लिमका बुक आॅफ वल्र्ड रिकार्ड में अपना नाम दज़ करा चुके हैं। इनका जन्म एक मई 1963 को प्रयागराज के दारागंज मुहल्ले में हुआ। चार बहन और तीन भाइयों में आप सबसे छोटे हैं। पिता स्वर्गीय नंद कुमार तिवारी भारतीय सेना में कार्यरत थे। दुकान जी ने इंटरमीडिएट की पढ़ाई राधा रमण इंटर काॅलेज प्रयागराज से पूरी की थी। इनके पिता की एक दुकान भी थी, जिसका नाम ‘निराला पुस्तक भंडार’ था। इसी दुकान में बैठकर बचपन से कार्टून आदि बनाते रहते थे, दुकान में ही बैठकर काम करने की वजह से इनका नाम ‘दुकान जी’ पड़ गया। मूंछ के नृत्य के लिए ही ये बेहद मशहूर हुए हैं, इसी कार्य के लिए इन्हें सारे सम्मान आदि मिले हैं। मूंछ पर मोमबत्तियां जलाकर बिना शरीर के हिलाए मूंछ नृत्य करते हैं, इस काम में दिक्कत आने पर इन्होंने अपने मुंह के सभी दांत उखड़वा दिए थे। ये प्रयागराज के नगर निगम और सिविल डिफेंस प्रयागराज के ब्रांड अम्बेसडर भी हैं।

 लखनउ महोत्सव, सैफई महोत्सव, ताज महोत्सव, इलाहाबाद त्रिवेणी महोत्सव, झांसी महोत्सव, उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, गोवा, कन्या कुमारी समते देशभर के अनेक स्थनों पर मूंछ का नृत्य दिखा चुके हैं। डिस्कवरी चैनल से लेकर नेशनल ज्योग्राफी चैनल समेत टेलीविजन के विभिन्न चैनलों से इनके कार्यक्रम प्रसारित हो चुके हैं। रामोजी फिल्मी सिटी हैदराबाद में कार्यक्रम पेश करने के लिए गए थे, कार्यक्रम पसंद आने पर फिल्मी सिटी के मालिक ने इन्हें अपने यहां रहने का प्रस्ताव दिया था, वहां तकरीबन दो साल तक रहने के बाद फिर इलाहाबाद लौट आए, इनका मन वहां नहीं लगा। गिनिज बुक आॅफ वल्र्ड रिकार्ड और लिमका बुक आॅफ वल्र्ड रिकार्ड के अलावा इंडिया बुक आॅफ रिकार्ड, मालवल्स बुक आॅफ इंडिया में इनका नाम दर्ज़ हो चुका है। जिला निरोधक समिति द्वारा ‘गोल्ड मेडल’, इंटरनेशनल डायरेक्टरी द्वारा ‘हाल आॅफ फेम’, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा ‘गंगा सेवा सम्मान’, वल्र्ड इनाइरोमेंट सर्टिफिकेट, स्वच्छ भारत मिशन सर्टिफिकेट समेत देशभर से कुल 44 सम्मान इनको अब तक मिल चुके हैं।

 रहस्य, ग्लोबल बाबा, इशा के इस्वा, धरती पुत्र, चाहत, भाग हिन्दू भाग, पानी, तियां, व्यस्था, रंगबाज दारोगा, रोड टू संगम, प्यार करेंगे पल-पल, मकानिक मोमिया, सच भइल सपनवा हमार और दरिया आदि फिल्मों में काम कर चुके हैं। कालूडीह, प्रतिज्ञा, जेलर की डायरी, तिरा चरित्र आदि टीवी सीरियलों में भी अभिनय किया है। मशहूर टीवी सीरियल प्रतिज्ञा के शुरू के दो एपिशोड इन्हीं से आरंभ हुए थे। अब तक इनके 170 एलबम बन चुके हैं। तकरीबन दो दर्जन रंगमंच के नाटकों में अभियन कर चुके हैं। रक्षामंत्री राजनाथ सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव, पूर्व राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री, पूर्व राज्यपाल मोतीलाल बोरा समेत तमाम राजनेताओं ने इनके मूंछ पर लगी मोमबत्ती जलाकर कार्यक्रम का शुभारंभ किया है। 

 उनकी भेषभूशा वीरप्पन से काफी मिलती है। जिसकी वजह से एक बार ये हरियाणा में बस से यात्रा करते समय पुलिस की गिरफ्त में आ गए। सूचना मिलने पर बस को पुलिस ने रुकवाया, फिर सुरक्षा घेरे में सभी यात्रियों को बस से बाहर निकालकर उन्हें पकड़ लिया। इनके स्पष्टीकरण देने पर पुलिस ने इलाहाबाद के एसएसपी को फोन करके इनके बारे में जानकारी मांगी। स्पष्टीकरण मिल जाने पर इन्हें छोड़ा गया। इन्होंने अपने दारागंज स्थित निवास स्थान को एक छोटा सा म्यूजियम का रूप दे रखा है। इनका दावा है कि इसमें तमाम अन्य वस्तुओं के अलावा दुनिया की सबसे छोटी गीता और सबसे छोटा कुरआन इनके म्यूजियम में एकत्र है। इनका कहना है कि अतिक्रमण की जद में इनका निवास स्थान आ गया है, जल्द ही इसे तोड़ा जाना है। म्युजियम की वस्तुओं को कही और स्थानांतरित करने के लिए तमाम नेताओं और अधिकारियों से गुहार लगा चुके हैं, लेकिन अभी तक कोरा आश्वासन हीं मिला है।

( गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च  2021 अंक में प्रकाशित )