शनिवार, 31 अगस्त 2019

कुछ मिरी मिट्टी में बगावत भी बहुत थी

                               
वीना श्रीवास्तव
                     - वीना श्रीवास्तव 
 साहित्य, संगीत और कला, ये साधनाएं सरहदें नहीं जानती जैसे हवा, बादल, नदियां, सूरज और चांद-तारे सरहद में नहीं बंधें हैं, वैसे ही कलमकारों, रचनाकारों को किसी सरहद में कै़द नहीं किया जा सकता। वो सबके होते हैं। परवीन शाकिर भी पाकिस्तान की ऐसी ही कमाल की शायरा थीं, जिन्होंने अदब की दुनिया में अपनी क़ाबिलियत का लोहा मनवाया। उनका जन्म 24 नवंबर 1952 में कराची में हुआ था। पढ़ने में तेज परवीन ने कराची यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी अदब में एम. ए. करने के बाद पीएचडी भी की। अपने स्कूल के समय से ही उन्हें लिखने का शौक़ था। वो कहती भी थीं कि जब मैं छोटी थी तो लफ़्ज मुझे बहुत फेसिनेट करते थे। मैं उनकी आवाज़, उनका जायक़ा और उनकी खुशबू महसूस कर सकती थी, लेकिन ये महसूसने का सिलसिला बस पढ़ने तक ही महदूद रहा। वो खुद लिख सकती हैं ये एहसास उनकी एक उस्ताद ने कराया। कॉलेज में एक तक़रीर होनी थी और उनकी उस्ताद इरफाना अज़ीज़ ने उनसे लिखने के लिए कहा और उन्होंने जो नज़्म लिखी वो बेहद पसंद की गई। बस, यहीं से शुरू हो गया शायरी का सफ़र जिसने उन्हें बेहतरीन शायरी की बुलंदियों पर बैठा दिया। उनका अंदाजे बयान कुछ अलग ही था। कॉलेज की तक़रीर के लिए लिखी गई नज़्म के चंद शेर-
                    अब भला छोड़के घर क्या करते
                    शाम के वक़्त सफ़र क्या करते
                    तेरी मसरूफियतें जानते हैं
                    अपने आने की ख़बर क्या करते
 परवीन जी बेहद संवेदनशील, भावुक, कामयाब और खूबसूरत शायरा थीं। उनका पहला संग्रह ‘खुशबू’ 1976 में छपा और रातों रात वह मशहूर हो गईं। उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। उनकी बयानीं का अंदाज ही मुख़्तलिफ था। मैंने भी अपने कॉलेज के दिनों में उन्हे पढ़ा और ये ग़ज़ल तो उस समय के कॉलेज छात्र-छात्राओं की पसंदीदा ग़ज़ल हुआ करती थी। उसके बाद तो इसी मिसरे पर कई शायर - शायरात ने भी ग़ज़लें कहीं। मैंने भी कुछ कहने की कोशिश की थी। हम छात्राओं के बीच शायरी की एक मिसाल थीं, हमारा क्रेज थीं-                           पूरा दुख और आधा चांद हिज्र की शब और ऐसा चांद।
          इतने घने बादल के पीछे कितना तन्हा होगा चांद।
          मेरी करवट पर जाग उठे नींद का कितना कच्चा चांद
         सहारा-सहारा भटक रहा है अपने इश्क़ में सच्चा चांद
         रात के शायद एक बजे हैं सोता होगा मेरा चांद
उनकी नज़्म ‘चांद’ भी बहुत पसंद की गई, जिसमें बहुत सरल अल्फाज और सादा ढंग से इतनी गहरी और हम सबके जीवन की भीड़ में भी अकेले होने की बात को इतनी खूबसूरती से बयां किया गया-
                      एक से मुसाफिर हैं
                      एक-सा मुक़द्दर है
                      मैं ज़मीं पर तन्हा
                      और वो आसमानों में
स्त्री होकर खुद स्त्री अपने मन के साथ पूरी नारी जाति के मन को, उसके जीवन, संघर्ष, इश्क़, तड़प, दुख- तकलीफ़ों को बखूबी समझ सकती है। परवीन जी ने भी नारी मन की पग -पग पर मचलने वाली भावनाओं के साथ उसकी सिसकती रूह को भी बखूबी उकेरा है। बेटियों को ख़ासकर अपने पिता से काफी लगाव होता है। परवीन जी को भी अपने पिता से गहरा लगाव था। उनके वालिद का नाम शाकिर हुसैन था। उनका अपने पिता से लगाव का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने नाम के साथ हमेशा शाकिर लगाया। पहले वो ‘बीना’ नाम से लिखा करती थीं। मुझे इस बात से बहुत खुशी और रोमांच होता था कि वीना न सही बीना ही सही मेरे नाम से मिलते-जुलते नाम से उन्होंने लिखा। यूं  लगा कि इतने खूबसूरत कलाम लिखने वाली शायरा का नाम चाहे थोड़ा-सा ही सही मेरे नाम से मिलता है। 
 कहते हैं न कि ईश्वर सबको सब कुछ नहीं देता और देता है तो क़दम-क़दम पर एहसास कराता रहता है कि जिससे कहीं टीस और ख़ालीपन शोर मचाता रहे। परवीन जी की भी जिं़दगी उस कटोरे की तरह थी, जिसे ईश्वर ने उन्हें थमाया तो लेकिन एक सुराख करके जिससे धीरे- धीरे पानी रिस गया और उनका कटोरा ख़ाली रह गया। उनकी शादी डॉ. निसार अली से हुई मगर कामयाब नहीं रही और फिर तलाक़ हो गया। शादी टूटने के साथ वो खुद भी टूट गईं और उनकी शायरी में उनके मन की टूटन, एक तन्हा पत्नी का दर्द झलकता है। बहारें तो आती-जाती रहती हैं मगर शाख़ से जो पत्ता टूट जाता है वो दोबारा उस शाख़ पर नहीं लगता। महबूब को बेपनाह चाहने वाली इस कदर टूटी कि पत्ते की तरह उससे जुदा हो गई- 
                       चेहरा मेरा था निगाहें उसकी
                       ख़ामोशी में भी वो बातें उसकी
                       मेरे चेहरे पर ग़ज़ल लिखती गई
                       शेर कहती हुई बातें उसकी
और टूटे पत्ते का दर्द-
                       बिछड़ा है जो इक बार मिलते नहीं देखा।
                       इस ज़ख़्म को हमने सिलते नहीं देखा ।
                       इस बार जिसे चाट गई धूप की ख्वाहिश
                       फिर उस शाख़ पर फूल खिलते नहीं देखा
और उन्होंने यह भी कहा- 
                      कैसे कह दूं कि मुझे छोड़ दिया है उसने
                      बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की
 उनकी शादी शुदा जिन्दगी को देखें तो एक बात सच नजर आती है कि हर दौर में ऐसे शौहर रहे हैं जिन्हें अपनी बीवी की कामयाबी और खुद से ज्यादा उसकी शोहरत हजम नहीं हुई और फिर उनके बीच जो दीवार खड़ी हुई वो कभी गिर नहीं सकी चाहे दोनों ने एक-दूसरे का सिसकता जीवन सुना हो। यही स्थिति परवीन जी के शौहर के सामने भी आई जब परवीन जी की शोहरत से वो परेशान हो गए। उनका बेटा भी दोनों के बीच का पुल नहीं बन सका। परवीन जी की बुलंदी उनसे कई गुना आगे थी। इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1982 में पाकिस्तान की प्रशासनिक सेवा में से एक सेंट्रल सुपीरियर सर्विसेज की परीक्षा दी तो एक सवाल उन्हीं पर था और इस परीक्षा में दूसरे स्थान पर रहीं। उनके पहले संग्रह ‘खुशबू; के लिए 1976 में ‘अदमीजी; अवार्ड से नवाजा गया। तब उनकी उम्र केवल 24 बरस की थी। उसके बाद उनके कई संग्रह- सद बर्ग, खुद कलमी, इनकार, कफ-ए-आइना, गोशा-ए-चश्म, खुली आंखों का सपना, रहमतों की बारिश, माह-ए-तमाम आदि आए। उन्हें पाकिस्तान का जाना-माना सम्मान ‘प्राइम ऑफ परफॉर्मेंस’ भी दिया गया। उनका अदबी सफ़र बहुत शानदार रहा। इस बात का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चैबीस साल की उम्र में ही उनको अदमीजी सम्मान मिल गया और तीस बरस की होने तक वो पाकिस्तान की पहचान बन चुकी थीं और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी शोहरत पहुंच चुकी थी। कम उम्र में नौकरी और शोहरत ने भी उन्हें सरल रखा। उनकी रचनाएं नारी जीवन के इर्द-गिर्द ही घूमीं। उनकी शायरी के केंद्र में नारी ही रही। उन्होंने प्रेम के साथ धोखा, बेवफाई, जुदाई के दर्द को भी बखूबी उकेरा। उनको दुनिया भर में नारी मन की पीड़ा और एक पत्नी का दर्द क्या होता है जब वो पति होकर भी पति नहीं रहता और पत्नी ये सच जानते हुए भी पत्नी बन जीवन जीती रहती है। कुछ मुख्तलिफ शेर-

                      जान! 
                      मुझे अफसोस है
                      तुमसे मिलने शायद इस हफ्ते भी न आ सकूँगा
                      बड़ी अहम मजबूरी है
                      जान! 
                      तुम्हारी मजबूरी को 
                      अब तो मैं भी समझने लगी हूँ
                      शायद इस हफ्ते भी 
                     तुम्हारे चीफ की बीवी तन्हा होगी
इसलिए वो हर लम्हे को खुलकर जीने और सहेजने की बात करती हैं-
                      लड़की! 
                      ये लम्हे बादल हैं
                      गुजर गए तो हाथ कभी नहीं आएँगे
                      उनके लम्स को पीती जा
                      क़तरा-क़तरा भीगती जा
                      भीगती जा तू, जब तक इनमें नमी है
                      और तेरे अंदर की मिट्टी प्यासी है
                     मुझसे पूंछ कि बारिश को वापस आने का रास्ता
                     न कभी याद हुआ
                     बाल सुखाने के मौसम अनपढ़ होते हैं
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                    कुछ तो तिरे मौसम ही मुझे कम रास आए
                    कुछ मिरी मिट्टी में बगावत भी बहुत थी
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                   लड़कियों के दुख अजीब होते हैं सुख उससे अजीब
                   हंस रही हैं और काजल भीगता है साथ-साथ
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                   वो तो खुशबू है हवाओं में बिखर जाएगा
                   मसअला फूल का है फूल किधर जाएगा
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                   क्या करे मेरी मसीहाई भी करने वाला
                   ज़ख़्म ही ये मुझे लगता नहीं भरने वाला
 इतनी शोहरत और कम उम्र में बुलंदियों पर पहुंचने वाली परवीन शाकिर खुदा के पास भी बहुतकम उम्र में चली गईं। इस खूबसूरत और बेहतरीन शायरा ने न केवल पाकिस्तान के अदबी गुलशन को महकाया बल्कि भारत की अदबी फिजा को भी खुशबू से लबरेज कर दिया। उनका इंतकाल एक कार दुर्घटना में 26 दिसंबर 1994 को हो गया। इस रोज खूब बारिश हो रही थी। ऐसा महसूस हो रहा था कि बादल भी उनकी मौत पर अश्कबार हो रहे हैं। मगर वो कहीं नहीं गईं। अपने कलाम, गजलों और नज्मों के साथ वो हमेशा हमारे दिलों में बसी रहेंगी। 
( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2019 अंक में प्रकाशित )

शुक्रवार, 16 अगस्त 2019

दोहा विशेषांक: साहित्य क्षितिज में खिला चांद


                                              - शिवाशंकर पांडेय
                                           
 साहित्य में प्रयोग का सकारात्मक और पुरजोर असर देखना हो तो ‘गुफ़्तगू’ का दोहा विशेषांक देखना मुफीद होगा। सीमित संसाधन के बीच निकलने वाली हिन्दुस्तान साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका गुफ़्तगू ने अपनी लगातार प्रयोगधर्मिता के चलते ही बहुत कम समय में पाठकों के बीच अपनी विशिष्ट पहचान बना ली है। कैलाश गौतम, बेकल उत्साही विशेषांक, महिला विशेषांक, ग़ज़ल विशेषांक, ग़ज़ल व्याकरण विशेषांक आदि इसके खास उदाहरण हैं। बहरहाल, प्रयोग विधा को आगे बढ़ाते हुए गुफ्तगू का मार्च 2019 का ताजा अंक दोहा विशेषांक पर केंद्रित है। दोहा जैसे विषय पर विशेषांक निकालना और उसे समृद्धिवान बना देना काबिल-ए-तारीफ तो हो ही जाता है। इस अंक में परिशिष्ट के रूप में रामचंद्र राजा और राम लखन चैरसिया को शामिल किया गया है। इस अंक में कबीरदास, गोवामी तुलसीदास, रहीम, रसखान, अमीर खुसरो, बिहारी हैं तो दूसरी तरफ बाबा नागार्जुन निदा फाजली, बेकल उत्साही, गोपालदास नीरज, कैलाश गौतम, बुद्धिसेन शर्मा, बुद्धिनाथ मिश्र, यश मालवीय, अशोक अंजुम, हस्ती मल हस्ती, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी से लेकर पुष्पलता शर्मा, अंजलि सिफर, पीयूष मिश्र, देवी नागरानी, अमन चांदपुरी, विकास भारद्वाज, सोनिया वर्मा जैसे नये नवेले किन्तु काबिल रचनाकार तक के दोहों को पाठकों से परिचित कराया गया है। इसमें तो कई ऐसे रचनाकार हैं जो एकदम नये तो हैं पर सशक्त हस्ताक्षर के रूप में उभर के सामने आये हैं। कहा जा सकता है कि नये-पुराने रचनाकारों का बेहतर प्लेटफार्म भी बन गयी है। हरे राम समीप का साक्षात्कार, शिल्प ज्ञान में डाॅ. बिपिन पाण्डेय और गुलशन-ए- इलाहाबाद में नीलकान्त के अलावा तब्सेरा, चैपाल जैसे स्तम्भ अपनी अलग छवि छोड़ते हैं। सालेहा सिद्दीकी का लेख उर्दू शायरी में दोहे का चलन, डाॅ. विभा माधवी का आलेख, दोहाः प्राचीन काल से आधुनिक काल तक, पवन कुमार का लेख हिन्दी और अन्य भाषाओं में दोहा की स्वीकार्यता, प्रिया श्रीवास्तव ‘दिव्यम’् की दोहे के जरिए मानवता की बात, डाॅ. अनुराधा चंदेल ‘ओस’ की कवि रामचन्द्र राजाः बसू संगम तीर, शिवाशंकर पांडेय, भोला नाथ कुशवाहा की रोशनी डालती टिप्पणी भी गुफ़्तगू को पठनीय और संग्रहणीय दोनों की कैटेगरी में ला देते हैं। 136 पेज के इस विशेषांक की कीमत मात्र 30 रुपये है।
( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2019 अंक में प्रकाशित )