मंगलवार, 26 अगस्त 2014

इलाहाबाद विशेषांक के लिए बोर्ड का गठन

बायें से: अनुराग अनुभव, असलम इलाहाबादी, अजामिल व्यास, प्रो. अली अहमद फ़ातमी, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, डा. सालेहा जर्रीन और डा. शाहनवाज़ आलम

इलाहाबाद। ग्यारह वर्ष से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्रिका ’गुफ्तग’ का ‘इलाहाबाद विशेषांक’ प्रकाशित किया जाएगा। यह निणर्य 24 अगस्त को प्रो. अली अहमद फ़ातमी के लूकरगंज स्थित आवास पर हुई बैठक में लिया गया। इस अंक के लिए अलग से बोर्ड का गठन किया गया है। जिसके अनुसार अतिथि संपादक प्रो. अली अहमद फ़ातमी और डा. असलम इलाहाबादी होंगे। प्रो.सय्यद अक़ील रिज़वी, प्रो. राजेंद्र कुमार और एसएमए काज़मी संरक्षक और इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी अध्यक्ष होंगे। जबकि अजामिल व्यास, मुनेश्वर मिश्र, डॉ. सालेहा जर्रीन, डा. शाहनवाज़ आलम, शिवपूजन सिंह और नरेश कुमार ‘महरानी’ सलाहकार होंगे। बैठक में निर्णय लिया गया कि ‘इलाहाबाद का साहित्यिक एवं सांस्कृति इतिहास’, ‘इलाहाबाद की सूफी परंपरा’, ‘इलाहाबाद और उर्दू शायरी’, ‘इलाहाबाद और हिन्दी कविता’, ‘इलाहाबाद और रंगमंच की परंपरा’, ‘इलाहाबाद की हिन्दी व उर्दू की पत्रकारिता’,‘प्रगतिशील लेखक संघ और इलाहाबाद’,‘ इलाहाबाद की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाएं’, इलाहाबाद में हिन्दी कहानी की परंपरा, निराला और इलाहाबाद, फ़िराक़ और इलाहाबाद, प्रेमचंद और इलाहाबाद, स्वतंत्रता आंदोलन और इलाहाबाद विषय पर आलेख के साथ अकबर इलाहाबादी, हैरत इलाहाबादी, नूह नारवी,वहीद इलाहाबादी आदि पर सामग्री प्रकाशित की जाएगी। इस अंक के लेखक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी, प्रो. सैयद अक़ील रिज़वी, एसएमए काज़मी, एन.आए. फारूक़ी, ललित जोशी, डॉ.असलम इलाहाबादी, प्रो.अली अहमद फ़ातमी, अजित पुष्कल, अजामिल व्यास, मुनेश्वर मिश्र, लईक रिज़वी, अनिता गोपेश, हरिशचंद्र पांडेय, डॉ. सालेहा जर्रीन, डॉ.ताहिरा परवीन, फखरुल करीम और डॉ. शाहनवाज़ आलम आदि होंगे।


सोमवार, 25 अगस्त 2014

पद्मश्री शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ; ( गुलशन-ए-इलाहाबाद )



   
   
                                                                               -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
उर्दू अदब में शम्सुरर्हमान फ़ारूक़ी का नाम एक चमकते सितारे की तरह से है। आज की तारीख़ में उन्होंने अपनी मेहनत और क़ाबलियत से जो मुकाम हासिल कर लिया है, वह किसी मील के पत्थर से कम नहीं है। पद्मश्री से लेकर पाकिस्तान सरकार के ‘निशान-ए-इम्तियाज़’ तक के एवार्ड इनके हिस्से में अब तक आ चुके हैं। 30 सितंबर 1935 को प्रतापगढ़ में पैदा होने वाले श्री फ़ारूक़ी छह बहन और सात भाइयों में पांचवें नंबर पर है, आप से बड़ी चार बहने हैं, भाइयों में आप सबसे बड़े हैं। पिता मोहम्मद खलीकुर्रहमान फ़ारूक़ी डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल थे। प्रतापगढ़ में प्रारंभिक शिक्षा हासिल करने के बाद आप पढ़ाई के लिए इलाहाबाद आ गये। 1955 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से अंग्रेज़ी में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की। अपने बैच में प्रथम स्थान हासिल किया, लेकिन लेक्चरशिप नहीं मिला। हताश नहीं हुए और सतीश चंद्र डिग्री कालेज बलिया में और इसके बाद शिब्ली नेशनल कालेज आजमगढ़ में अंग्रेजी के प्रवक्ता के रूप में अध्यापन कार्य करने लगे। 1958 में भारतीय प्रशासनिक सेवा (एलाइड) के लिए आप चयनित हो गए। भारतीय डाक सेवा में कार्य करते हुए आपने विभिन्न राज्यों में अपनी सेवाएं दीं, 1994 में रिटायर हुए। रिटायर होने के बाद आपके साहित्य लेखन में और तेजी आई। अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी ने 2002 में और मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी हैदराबाद ने 2007 में आपको डी.लिट की मानद उपाधियों से विभूषित किया।
1991 से 2004 तक यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसलवानिया, फ़िलाडेल्फ़िया (यूएसए) में मानद प्रोफेसर रहे, 1997 से 1999 तक ‘खान अब्दुल गफ्फार खां प्रोफेसर’ के पद पर कार्यरत रहे। नेशनल कौंसिल फ़ार प्रमोशन ऑफ़ उर्दू (नई दिल्ली) के वाइस चेयरमैन के रूप में उर्दू की तरक्की के लिए किया गया काम आपकी महत्वपूर्ण सेवाओं में से है। उर्दू की सेवा के लिए अब तक अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, रूस, हालैंड, न्यूजीलैंड, थाईलैंड, बेल्जियम, कनाडा, तुर्की, पश्चिमी यूरोप,सउदी अरब और कतर आदि देशों का दौरा कर चुके हैं। अमेरिका, कनाडा और इंग्लैंड के कई विश्वविद्यालयों में कई बार लेक्चर दे चुके हैं। उर्दू अदब के स्तंभ शायरों में से एक मीर तक़ी मीर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर श्री फ़ारूक़ी ने चार खंडों में ‘शेर-शोर अंगेज़’ नामक किताब लिखकर तहलका मचा दिया। इस किताब पर 1996 में ‘सस्वती सम्मान’ प्रदान किया, सम्मान के रूप में मिला पांच लाख रुपये उस समय का सबसे बड़ी इनामी राशि वाला सम्मान था। 1996 में ही आपने ‘शबखून‘ नामक मासिक पत्रिका निकाली, जो दुनिया-ए-उर्दू अदब में चर्चा का विषय हुआ करती थी, दुनिया के जिस भी देश में उर्दू साहित्य में रुचि रखने वाले लोग हैं, वहां यह पत्रिका जाती थी, लोग बड़े चाव से पढ़ते थे। किसी लेखक-शायर का इस पत्रिका में प्रकाशित होना अपने आप में बड़ी बात थी। मगर सेहत ख़राब होने की वजह से सितंबर 2005 में इसका प्रकाशन बंद कर दिया। दिल का आपरेशन होने के कारण सेहत गिरती जा रही है, अल्लाह इन्हें सेहतयाब करे। इनकी किताब ‘उर्दू का इब्तिदाई ज़माना’ उर्दू और हिन्दी के अलावा अंग्रेज़ी में भी प्रकाशित हुआ है। अंग्रेज़ी में इसे आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने प्रकाशित किया है। शायरी में चार किताबें छप चुकी हैं, जिनके नाम ‘गंजे-सोख्ता’, सब्ज अंदर सब्ज’,‘चार सिम्त का दरिया’ और ‘आसमां मेहराब’ हैं। गद्य की किताबों में ‘लफ्जी मआनी’,‘फ़ारूक़़ी के तब्सेरे’,‘शेर ग़ैर शेर और नस्र’,‘अफ़साने की हिमायत में’,‘तफ़हीमे-ग़ालिब’,‘दास्ताने अमीर हमज़ा का अध्ययन’ और ‘तन्क़ीदे अफ़कार’ आदि हैं। अंग्रेज़ी किताबों में ‘द सीक्रेट मिरर’,‘अर्ली उर्दू लिटेरेरी कल्चर एंड हिस्टी’,‘हाउ टु रीड इक़बाल‘ हिन्दी में ‘अकबर इलाहाबादी पर एक और नज़र’ वगैरह विशेष उल्लेखनीय हैं। हाल ही में अंग्रेजी में प्रकाशित उनका नाविल ‘कई चांद थे सरे आसमां’ का हिन्दी अनुदित संस्करण काफी चर्चा में है। ‘उर्दू की नई किताब’ और ‘इंतिख़ाबे-नस्रे’ समेत कई किताबों का संपादन भी किया है। श्री फ़ारूक़ी ने कुछ किताबों का अंग्रेज़ी से उर्दू अनुवाद भी किया है, जिनमें अरस्तू की पुस्तक ‘पाएटिक्स’ का उर्दू अनुवाद ‘शेरियत’ है। ‘शेर शोर अंग़ेज नामक पुस्तक चार खंडों वाली किताब में मीर तक़ी मीर के एक-एक शेर की व्याख्या और उसके विशलेषण में उसी विषय के कवियों के अश्आर की मिसालें दे-देकर ऐसा लिखा है की उर्दू अदब में तहलका सा मच गया, बड़े-बड़े आलिम चौंक पड़े। आपकी आगामी पुस्तकों में ‘एसेज़ इन उर्दू क्रिटिसिज्म एंड थ्योरी’ के अलावा ग़ालिब और मुसहफ़ी की ज़िदगी पर आधारित कहानियां हैं। उर्दू में ऐसे शब्दों और मुहावरों को शामिल करते हुए एक शब्दकोश की पुस्तक प्रकाशित करवाने जा रहे हैं, जो आम शब्दकोश में मिलना लगभग असंभव है। श्री फ़ारूक़ी का पता-29सी, हेस्टिंग रोड, इलाहाबाद, मोबाइल नंबरः9415340662 है।
गुफ्तगू के मार्च-14 अंक में प्रकाशित

रविवार, 3 अगस्त 2014

!!! समाज में कहां खड़ा है साहित्यकार !!!


- नाजिया गाजी
सज्जाद ज़हीर ने जब प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद डाली और लोगों को अपने उद्देश्य से रुबरु कराया, तब पूरे में देश एक लहर सी उत्पन्न हो गई। साहित्यकारों के अलावा आमलोगों को भी लगने लगा कि देश के साहित्यकार अब वास्तविक रूप में समाज की भलाई के लिए काम करेंगे, और ऐसा हुआ भी। साहित्यकारों ने समाज की बेहतरी के लिए अनेकानेक काम किए, सिर्फ़ लेखन से ही नहीं बल्कि ज़मीनी स्तर पर समाज के बीच आकर बात रखी गईं, लोगों का काफी सहयोग मिला। तब ये आम धारण थी कि साहित्यकार हमेशा देश-समाज हित में कार्य करते हैं, इसी के लिए जीते-मरते हैं। अपने लेखन के माध्यम से साहित्यकार जिन बुराइयों को रेखांकित करता, खुद भी कोसों उनसे दूर रहता है, शायद यही उसकी असली पहचान भी है। मगर आज इसके ठीक वितरीत हो रहा है। यही वजह है कि प्रायः समाज में साहित्यकार और उसकी लेखनी को पूण रूप से स्वीकार नहीं किया जाता। लगभग यह धारणा बन चुकी है कि अधिकतर साहित्यकार लोगों को बेवकूफ़ बनाने का कार्य करते हैं, जिन बुराइयों को अपनी लेखनी में उजागर करते हैं, वास्तवित रूप में उनके अंदर वहीं बुराई दिखती हैं। ऐसे में लोगों के बीच लेखन किस तरह प्रभावी होगा, लोग क्यों साहित्यकार और उनकी लेखन का खुले दिल से सम्मान करेंगे।
हालत यह है कि तमाम बड़े साहित्यकार अपनी रचनाओं-पुस्तकों के प्रकाशन, संस्थाओं से पुरस्कार और विरोधियों को खारिज करने में लगे रहते हैं। इसके लिए अच्छे लेखन और अच्छे कार्य करने की रणनीति नहीं बनाई जाती। बल्कि किसी भी माध्यम से, कोई भी जरिया अपनाकर अपने को हाईलाइट करने की साजिश रची जाती है। अधिकतर लोग अपने और बेगाने ग्रुप के साहित्यकार हो चुके हैं। दिल्ली में तो कई बड़े साहित्यकार ऐसे भी हैं, जो साहित्य सेवा के नाम सारी सुविधाएं पा रहे हैं, मगर हिन्दी या उर्दू की विकास के लिए काम करने के बजाए, खुद अपनी स्थिति को और मजबूत बनाने का कार्य करते हैं। इसकी जानकारी अधिकतर लोगों को है, लेकिन कोई बोलने को तैयार नहीं है। जब बात साहित्यकार और उसके हित रक्षा की आती है तो ढोंग दिखाना शुरू कर देते हैं। डंका बजाकर यह बताने की कोशिश करते हैं कि हम समाज की बेहतरी के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं, इसलिए उनके हित का काम होना चाहिए। कुल मिलाकर अधिकतर साहित्यकारों का दोहरा चरित्र लोगों के सामने आ चुका है, यही वजह है कि आज आम आदमी साहित्य से दूर जा रहा है, कुछ लोग साहित्य अगर पढ़ते भी हैं तो मनोरंजन की दृष्टि से। गंभीर मामला या गंभीर समस्या को लेकर कोई साहित्य और साहित्यकार के मार्गदर्शन या लेखन को सुनने-पढ़ने को तैयार नहीं है। धीरे-धीरे अधिकतर साहित्यकारों ने समाज में अपनी ऐसी इमेज बना ली है कि लोग या तो मजाक उड़ाते हैं या सिरे से खारिज कर देते हैं। पिछले लोकसभा का चुनाव इस परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण उदाहरण भी है। वामपंथी संगठन की साहित्यिक संगठनों ने ऐडी-चोटी का जोर दिया, लेकिन न तो पश्चिम बंगाल में कम्युनिष्ट पार्टियों को जीत दिला सके और न ही भाजपा की जीत को रोक सके। जबकि ये संगठन भाजपा के खिलाफ पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ मैदान में आए थे। परिणाम से पहले तो कई बड़े साहित्यकारों ने यह दावा कर दिया था कि नरेंद्र मोदी की जीत हुई तो वे डूब मरेंगे, किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। परिणाम के बाद उनका सुर बदल गया। क्या यही है साहित्य और साहित्यकारों का प्रभाव? समाज के लोगों ने इनकी बातों को तवज्जो नहीं दी। आज की यह स्थिति साहित्य और साहित्यकारों के लिए बेहद महत्वपूर्ण हो गई है। अधिकतर साहित्यकार दूसरों की बुराई गिनाने में जुटा है, और जब उसकी बुराई कोई गिना देता है तो अपने में सुधार लाने के बजाए उखड़ जाता है। बुराई गिनाने वालों के खिलाफ कार्य करने में जुट जाता है। जो लोग खुद अपना आंकलन इमानदारी से नहीं कर पाते, वे कैसे साहित्यकार हैं और क्यों समाज उनकी बातों को सुनना-पढ़ना चाहेगा। इस संदर्भ में प्रगतिशील लेखक मंच की कार्यशैली भी बेहद उल्लेखनीय है, इसके तमाम बड़े पदाधिकारी अप्रगतिशील कार्यों में जुटे हैं, इनके उपर कोई टिप्पणी कर देता है तो उसमें सुधार की बजाए उन लोगों का विरोध शुरू कर दिया जाता है। पिछले दिनों शुक्रवार के एक अंक में छपे लेख का प्रलेस के लोगों ने खूब विरोध किया। इसमें छपी बातों पर गौर करके दुरुस्त करने की बजाए यह मांग की गई कि ये बातें बाहर क्यों उठाई जा रही हैं, कार्यकारिणी में क्यों नहीं। जैसे ये लोग किसी राजनैतिक दल के हैं, बाहर आवाज जाने पर वोट बैंक कम हो जाएगा। इस बात पर विचार नहीं किया गया कि जो चीज़े ग़लत हो रही हैं उसको कैसे ठीक किया जाए। इससे सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि साहित्यिक संगठनों की स्थिति क्या है ? सिर्फ़ कुएं की मेढ़क की तरह अपने को सबसे अधिक ज्ञाता और चालाक समझते हैं। मगर सच्चाई यह है कि इसी मानसिकता के कारण आज साहित्य आम लोगों से दूर हो गया है। यह गंभीर विषय है, इस पर ग़ौर किए जाने की आवश्यकता है।

गुफ्तगू का संपादकीय