मंगलवार, 21 जून 2011

पत्रकारिता की जीवंत प्रतिमूर्ति हैं वी एस दत्ता

यदि आपके घर पर आपके किसी सम्बन्धी का शव अंतिम संस्कार के लिए पड़ा हो और आपको अपनी दैनिक जिम्मेदारियों का निर्वहन भी करना हो तो आप किस काम को प्राथमिकता देंगे. अधिकतर लोग पहले अपने सम्बन्धी के अंतिम संस्कार को ही प्राथमिकता देंगे. बहुत कम लोग होंगे जो पहले अपनी नियमित दैनिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद अंतिन सस्कार के बारे में सोचेंगे. ऐसे ही बिरले लोगों में शामिल हैं नार्दन इंडिया पत्रिका के कार्यकारी संपादक श्री वी एस दत्ता. जिनके जीवन का आदर्श सूत्र है ड्यूटी इज ड्यूटी. बात 7 जनवरी 1997 की है जब श्री दत्ता की बड़ी बहन का निधन उनके एल्गिन रोड स्थित आवास पर हो गया. एक तरफ सगी बहन की मौत का गहरा दुःख, उनके पार्थिव शरीर के अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी तो दूसरी तरफ एनआईपी और यूनाईटेड भारत में नियमित छपने वाले लेख लिखे का दायित्व. ऐसी विषम हालात में भी श्री दत्ता ने पहले अपने नियमित लेख लिखे उसके बाद बहन के पार्थिव शारीर के क्रिया-क्रम की जिम्मेदारी में जुटे.
अपने कर्त्तव्य के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना से ओत-प्रोत श्री वी एस दत्ता ने अपना पत्रकारिता सफर 1962 में इलाहाबाद से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक लीडर से शुरू किया था. गुफ्तगू से एक खास मुलाकात में श्री दत्ता ने बताया कि लीडर के तत्कालीन संपादक श्री सी वाई चिंतामणि नियम-कानून के प्रति अत्यंत कठोर लेकिन दिल के और बेहद विनम्र व सरल स्वभाव के मूर्धन्य पत्रकार थे जिनके कठोर अनुशासन में रहकर उन्हें पत्रकारिता के गुर सिखने का अवसर मिला। इसी अनुशासन और कर्तब्य के प्रति समर्पण की सीख ने उन्हें न तो अपने कर्तब्यों से मुंह मोड़ने दिया और न ही अपनी कलम से कभी समझौता किया। जहाँ आम आदमी की सोच खत्म हो जाती है पत्रकार वहीँ से सोचना शुरू करता है. पत्रकारिता की यह कसौटी श्री दत्ता पर अच्छरतः लागू होती है और उनकी दृष्टि उनके लिखे हुए कालम/सम्पादकीय व अन्य लेख में दिखाई देती है. चाहे वह 1964 में देश के प्रथम प्रधानमन्त्री पंडित जवाहर जवाहर लाल नेहरु के निधन का वक्त रहा हो या 1984 में श्रीमती इंदिरा गाँधी कि हत्या के बाद उपजी हिंसा का मामला. श्रीमती गाँधी की हत्या के बाद उपजी हिंसा पर सवाल उठाते श्री दत्ता के अग्रलेख कम्युनिटी को सजा नहीं का हवाला बीबीसी लन्दन ने अपने समाचारों में कई बार किया था. अपने अग्रलेख में श्री दत्ता ने सिखों के प्रति की गई सामूहिक हिंसा पर बेबाक टिप्पणी करते हुए लिखा था कि किसी एक के अपराध के लिए उसकी पूरी कौम को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता और न ही सजा दी जा सकती है. 1992 में विवादित ढांचा ढहाए जाने के समय उनका अग्रलेख सेकुलरिज्म इन टिपर्स इतिहास का एक दस्तावेज़ है जो आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करेगा.
पंजाब के गुरदासपुर ( वर्त्तमान में पाकिस्तान) के एक प्रतिष्ठित परिवार में जन्मे वयोवृद्ध पत्रकार श्री दत्ता का मानना है कि क्राइसेस से दिमाग शार्प होता है. उनकी यही सोच उनके कालम और सम्पादकीय में साफ़ दिखाई देती है. यही वजह है कि अपने पत्रकारिता जीवन की एक लंबी पारी खेलने के बावजूद श्री दत्ता आज भी युवाओं से कहीं ज्यादा चुस्त-दुरुस्त और कर्मशील हैं. अपनी दैनिक दिनचर्या की चर्चा करते हुए श्री दत्ता ने बताया कि प्रातः 4 बजे उठकर वह अपने पत्रकारिता के कार्य में संलग्न हो जाते हैं और अखबारों ( यूनाइटेड भारत और एनआईपी) के लिए आवश्यक सम्पादकीय/कालम लिखने का उनका यही समय होता है. 5:30बजे सुबह टहलने व नित्य कर्म के बाद फिर से अपने इसी काम लग जाते हैं. 12से 4बजे तक यूनाइटेड भारत के कार्यालय में बैठते हैं और शाम 5से 8बजे तक एनआईपी में बैठकर सहायकों को निर्देश देते हैं और अन्य कार्य निपटाते हैं. वे उन विरले पत्रकारों में से हैं जिन्हें अपनी सेवाकाल के पहले सप्ताह से ही अखबार में कालम लिखने का निर्देश अपने संपादक से मिला. वाकया 1962का है लीडर में ट्रेनीज की परीक्षा में उन्होंने सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया. तत्पश्चात तत्कालीन संपादक सी वाई चिंतामणि ने उन्हें साप्ताहिक कालम लिखने का निर्देश दिया. लीडर में उनका कालम वन्स ए वीक बहुत ही लोकप्रिय हुआ था जिसे वे वे फरेर के छदम नाम से लिखते थे.श्री दत्ता के एनआईपी का कालम विंडो ऑन इलाहाबाद जिसे वो रोवर के नाम से लिख रहे हैं और यूनाइटेड भारत में राही के नाम से लिखे रहे है, काफी लोकप्रिय हैं. ये दो दोनों ही कालम दैनिक समसामयिक घटनाओं का आईना होते हैं. उनकी शुरूआती दौर की पत्रकारिता और आज की पत्रकारिता के सम्बन्ध में पूछे गए एक सवाल पर उन्होंने कहा कि ६० के दशक में पत्रकारिता का उद्देश्य सेवाभाव था. वरिष्ठ और अनुभवी पत्रकार अपने कनिष्टों लोगों को पत्रकारिता के सारे गुर सिखा कर गौरवान्वित महसूस करते थे. समाचारपत्र का कार्यालय ही पत्रकार का स्कूल होता था जहाँ अनुभव और अनुशासन की घुट्टी उन्ही पिलाई जाती थी. श्री दत्ता का कहना है कि आज संचार माध्यमों का तेज़ी से विकास हुआ है और नई-नई तकनीकों ने काम को आसान बना दिया है.इसमें कंप्यूटर और लैपटॉप महवपूर्ण है.उनका माना है कि इन सब सुविधावों और व्यवस्थाओं के बीच आज कि पत्रकारिता में त्याग समर्पण और सेवाभाव का अभाव चिंता का विषय है.लखनऊ और दिल्ली जैसे महानगरों की पत्रकारिता करने से सम्बंधित एक सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति कमलाकांत वर्मा ने एक बार बातचीत के दौरान उनसे इलाहाबाद छोड़कर कहीं अन्य न जाने का वचन लिया था और उन्हें दिए वचन के निर्वहन करते हुए इलाहाबाद में ही आजीवन पत्रकारिता करने को दृढ़ संकल्पित हैं. हिंदी और अंग्रेजी पर सामान अधिकार रखने वाले श्री दत्ता जहाँ सामाजिक और राजनैतिक घटनाओं पर पैनी नज़र रखते हैं वहीँ सांस्कृतिक गतिविधियों और संगीत में भी उनकी गहरी रुची है. बेगम अख्तर पर लिखा उनका विशेष लेख और कई टेली फिल्मों में किये उनके कार्य इस बात की पुष्टि करते हैं.
विजय शंकर पांडे
मोबाइल नम्बर: 9305771175





मंगलवार, 14 जून 2011

वारिस पट्टवी का इफ्हाम काबिलेतारीफ


इफ्हाम डॉ. वारिस पट्टवी का ताजातरीन शेरी मजमुआ है. इस किताब में हम्द, नात, मन्क़बत वगैरह शामिल हैं. डॉ. पट्टवी के पीर साहब का नाम हजरत शेख इफ्हामउल्लाह शाह है, इसीलिए उन्होंने अपनी किताब का नाम इफ्हाम है. दौरा हाजरा के एक मशहूर व मारूफ सूफी हजरत मखदूम इफ्हामउल्लाह शाह दीदारी, सफ़वी,चिश्ती भी हैं. आपका आबाई वतन नरौली शरीफ जिला फतेहपुर, उत्तर प्रदेश है.जहाँ खानकाहे दीदारिया चिश्तिया से तिश्नागाने खल्क सैराब हो रहो है और हर मज़हब व मिल्लत के लोग फैज्याब हो रहे हैं. डॉ वारिस शेर कहा-
मैं तेरे डर की गुलामी का ताज पहने हूँ,
ज़माना मुझको शाहंशाह कहा फिरता है.
किताब की शुरुआत हम्दपाक से की गई है-
एनायत खुदा की है कुदरत खुदा की है
हर इक सिम्त ज़ाहिर है हिकमत खुदा की है

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मुफलिस को धनवान बनाया है तूने
मंगतो को सुलतान बनाया है तूने.
नाते नबी कहने का शरफ देकर मुझको,
मेरी बड़ी पहचान बनाया है तूने.
मस्त रहे जो इश्के-नबी में हर-हर पल,
मुझको वह मस्तान बनाया है तूने.
फिर नातेपाक में वारिस साहब फरमाते हैं-
ईमान हकीकी का,वफ़ा,प्यार का चेहरा.
कुरआन का कुरआन है सरकार का चेहरा.
फिर उनको ज़माने मैं कहीं लुत्फ़ न आया,
जो देख लिए आका के दरबार का चेहरा.
मिल जाए उसे दौलते दारैन जहाँ में,
जो ख्वाब में ही देख ले सरकार का चेहरा.

इस तरह यह किताब कई मायने में काफी महत्वपूर्ण है. १४४ पेज वाली इस किताब को गुफ्तगू पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है. किताब के पेपर बैक संस्करण की कीमत १२० रुपये और सजिल्द संस्करण की कीमत १५० रूपये है.