बुधवार, 27 जुलाई 2022

विभा की शायरी में पूरे समाज का चित्रण: शिवम शर्मा

गुफ़्तगू के ‘विजय लक्ष्मी विभा विशेषांक’ का विमोचन



प्रयागराज। विजय लक्ष्मी विभा प्रयागराज की वरिष्ठ शायरा हैं, जिन्होंने लगभग हर विधा में लेखनी की है। इनकी शायरी में वास्तविक समाज का चित्रण है। गुफ़्तगू ने इनके उपर विशेषांक निकालकार बहुत ही सराहनीय कार्य किया है। आज के दौर में गुफ़्तगू ऐसी पत्रिका है जो सच्चे मायने में गंगा-जमुनी तहज़ीब को कायम रखने में ख़ास भूमिका अदा रही है। इस समय प्रयागराज और पूरे देश को ऐसी पत्रिका की जरूरत है। यह बात उत्तर मध्य रेलवे के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी डॉ. शिवम शर्मा ने 24 जुलाई को गुफ़्तगू की ओर से करैली स्थित अदब घर में आयोजित कार्यक्रम के दौरान कही। मुख्य अतिथि डॉ. शर्मा ने कहा कि यह गुफ़्तगू का यह अंक बहुत ही ख़ास है। इस दौरान गुफ्तगू के विजय लक्ष्मी विभा विशेषां का विमोचन किया गया।

गु्फ़्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि विजय लक्ष्मी विभा देश की उन चुनिंदा महिलाओं में से हैं, जो ग़ज़ल के सही पैरामीटर पर ग़ज़लें लिखती हैं। वर्ना आज के समय में ग़ज़ल लेखन के नाम पर इसके मूल स्वरूप से ही खिलवाड़ किया जा रहा है। प्रभाशंकर शर्मा ने कहा कि विभा जी को शायरी विरासत में मिली है। इनके पिता भी कवि थे, जिनकी तीन दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित हुई थी। गुफ़्तगू के इसी अंक में विभा जी की प्रकाशित कहानी में कई नए बिम्ब और परिदृश्य दिखाए देते हैं, उनकी रचनाशीलता का बेहतरीन वर्णन इन्होंने अपनी कहानी में किया है। 

नरेश महरानी ने कहा कि विजय लक्ष्मी विभा हमारे दौर की बहुत ही ख़ास कलमकार हैं, इन्होंने कई बिम्बों को अपनी रचनाओं में बेहतरीन ढंग से उल्लेखित किया है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे तलब जौनपुरी ने कहा कि विजय लक्ष्मी विभा की शायरी बहुत ही अलग और ख़ास है। समाज की वास्तविक हालात का वर्णन इनकी शायरी में मिलते हैं। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया। मुशायरे के दौरान अतिथियों और कुछ श्रोताओं द्वारा दिए गए अंक के आधार पर पहले स्थान असलम निज़ामी, दूसरे स्थान पर संयुक्त रूप से फ़रमूद इलाहाबादी और अजीत शर्मा ‘आकाश’, तीसरे स्थान पर शरत चंद्र श्रीवास्तव    और चौथे स्थान पर शाहिद इलाहाबादी रहे। इनको विशेष सम्मान पत्र प्रदान किया गया।

 दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया। जिसमें शिवाजी यादव, अर्चन जायसवाल,  शैलेंद्र जय, रेशादुल इस्लाम, फरमूद इलाहाबादी, अजीत शर्मा आकाश, नाज़ खान, शाहीन खुश्बू, सम्पदा मिश्रा, असलम निज़ामी, सेलाल इलाहाबादी, रुखसार अहमद आदि ने कलाम पेश किया।


बुधवार, 20 जुलाई 2022

गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2022 अंक में



4. संपादकीय: साहित्य को समर्पित विजय लक्ष्मी विभा

5-12. आत्मकथ्य: विजय लक्ष्मी विभा

13-15. मां की साहित्य यात्रा का साक्षी मैं- अनमोल खरे

16-18. काव्य शिरोमणि विजय लक्ष्मी विभा - जगदीश किंजल्क

19-22. गीत के अस्तित्व की पहचान - डॉ. हुकुमपाल सिंह विकल

23-24. विभा जी के गीत स्वयं बोलते एवं बतियाते- मयंक श्रीवास्तव

25-27. विभाजी का छायावादी वाम चिंतन - राघवेंद्र तिवारी

28-30. जग में मेरे होने पर- दिवाकर वर्मा

31-32. विभा जी साहित्य में महादेवी सी - श्याम बिहारी सक्सेना

33-36. जागतिक दार्शनिक सरस गीतों की प्रत्यंचा- डॉ. दया दीक्षित

37-38. कवि स्वयं का नहीं सम्पूर्ण सृष्टि का होता है - प्रियदर्शी खैरा

39-42. अखियां पानी-पानी में दर्शन का स्वरूप  -  नलिनी शर्मा

43-44. अदब के गुुलशन में ताज़ा हवा के झोंके - मनमोहन सिंह तन्हा

45-46.  मन को छूती लेखनी की धार - नीना मोहन श्रीवास्तव

47-48. विभा की ग़ज़लों के कई रंग - अर्चना जायसवाल ‘सरताज’

49-53. कहानी: अपनी-अपनी भूल - विजय लक्ष्मी विभा

54-60. विजय लक्ष्मी विभा के पद

61-77. विजय लक्ष्मी विभा की कविताएं

78-95. विजय लक्ष्मी विभा की ग़ज़लें

96-99. विजय लक्ष्मी विभा का परिचय

100-103. इंटरव्यू: केशरीनाथ त्रिपाठी

104-105 . गुलशन-ए-इलाहाबाद: राजेश पांडेय

106. ग़ाज़ीपुर के वीर- 18 

107-111. तब्सेरा

112-114.  उर्दू अदब

115-119.  अदबी ख़बरें


रविवार, 10 जुलाई 2022

मुग़ल खानदान की शायरा जे़बुन्निसा मख़्फ़ी

                                                                       

- ’डॉ. राकेश तूफ़ान’ 


                                  दर सुख़न पिन्हा शुदम मानिन्द बू दर-बर्गेग़ुल,

                                 हर कि दीदन मैल दारद दर सुख़न बीनद मरा।

(जैसे ख़ुशबू फूल की पंखुड़ियों में छुपी है, वैसे ही मैं अपनी कविता में व्याप्त हूं। जो मुझसे मिलने का इच्छुक हो, मेरे काव्य में मुझे पा ले)

 ज़ेबुन्निसा की उपरोक्त पंक्तियां इतिहास के पन्नों में उनके खो जाने का स्वयं ही अहसास कराती हैं। उनकी ग़ज़लों में मुहब्बत के रूहानी अहसासात की हर जगह हिफ़ाज़त हुई है, लेकिन अदीबों और इतिहासविदों ने इस प्रतिभाशाली शहज़ादी पर उतना नहीं लिखा है, जितने की वो हक़दार है। उनके अशआर की कशिश ने मुझे उन पर क़लम उठाने को मजबूर किया। ज़ेबुन्निसा अंतिम सशक्त मुग़ल बादशाह औरंग़जेब की सबसे बड़ी पुत्री थीं। बादशाह की पहली बेग़म दिलरास बानो को उनकी मां होने का गौरव प्राप्त है। शहज़ादी की पैदाइश बादशाह शाहजहां के शासनकाल में 1631 में दक्कन में हुई, लेकिन परवरिश हुई आगरा और दिल्ली में। तारीख़ में शहज़ादी को एक फ़ारसी कवयित्री और सूफ़ी के तौर पे याद किया जाता है। 

 वास्तव में ज़ेबुन्निसा, जिन्हें इतिहासकारों के बीच ‘ज़ेबिन्दा बेग़म’ के नाम से भी जाना जाता है, सत्रहवीं शताब्दी की सबसे प्रतिभाशाली महिलाओं में से एक थीं। वे फ़ारसी, अरबी और उर्दू जैसी ज़बानों में तो प्रवीण थीं ही, स्थापत्य एवं ख़ुशकत (श्रुतिलेख) में भी उनकी गहरी रुचि थी। इस दृष्टि से वे बहुआयामी शख़्सियत की मालकिन थीं। ज़ेबुन्निसा ने फ़ारसी विद्वान मोहम्मद सईद अशरफ़ मंज़धारानी से समय का विज्ञान भी सीखा था। शहज़ादी ने दर्शन, गणित, खगोल विज्ञान तथा साहित्य की अन्य विधाओं में भी महारत हासिल की। ज़ेबुन्निसा की लाइब्रेरी बादशाह अकबर के संग्रह की भांति थी, जिसमें क़ुरआन से लेकर हिन्दू व जैन ग्रंथों सहित यूनानी पौराणिक कथाएं, बाइबिल का तर्जुमा तथा मुग़लों का समकालीन लेखन शामिल था।


जे़बुन्निसा मख़्फ़ी


 व्युत्पत्ति की दृष्टि से फ़ारसी में ‘ज़ेबुन्निसा’ का अर्थ है-‘सबसे ज़्यादा ख़ूबसूरत स्त्री या नारी जगत का आभूषण’। शहज़ादी सचमुच अपने इस नाम को चरितार्थ करते हुए दिखाई देती हैं। चौदह साल की उम्र से ही उन्होंने कविताएं लिखना आरम्भ कर दिया था। उस्ताद बयाज़ साहब ने सदैव उन्हें सृजनात्मक लेखन के लिए प्रेरित किया। जब औरंग़जेब बादशाह बना तब ज़ेबुन्निसा इक्कीस वर्ष की हो चुकी थीं। बादशाह शहज़ादी की प्रतिभा एवं योग्यता से इतना अधिक प्रभावित था कि वह मुग़ल साम्रज्य के नीतिगत मुद्दों और सियासत पर उससे विमर्श करता था तथा उसके दृष्टिकोण को पर्याप्त महत्व देता था। मुग़लों में आमतौर से शहज़ादियों के निकाह की परंपरा नहीं थी, क्योंकि बादशाह की पुत्री के अनुरूप योग्य वर के रूप में किसी को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता था। अतः शहज़ादी आजीवन अविवाहित रहीं। हालांकि एक हिन्दू राजकुमार छत्रसाल से प्रणय के विषय में जानकारी मिलती है। यह भी कहा जाता है कि शहज़ादी एक अफ़ग़ान सिपाही को अपना दिल दे बैठीं, लेकिन बादशाह ने उसे मौत के घाट उतार दिया।

जेबुन्निसा मख़्फी की हस्तलिखित शायरी

औरंग़जेब पर रुढ़िवादी होने का आरोप लगाया जाता है, क्योंकि साहित्य, कला, संगीत आदि उसकी पसंद में शामिल नहीं थे। यही कारण था कि ज़ेबुन्निसा ने छुप- छुपाकर ही सृजनात्मक लेखन संबंधी कार्य किया। शहज़ादी ‘मख्फ़ी’ उपनाम से कविताएं लिखती थी, जिसका मानी ही  ‘गुप्त या छिपा हुआ’ है। मिसाल के तौर पर उनकी कविताओं के अंग्रेज़ी और हिंदी तर्जुमे के इस हिस्से से ये बात स्पष्ट भी होती है-

‘व्ी डंाीपिए पज पे जीम चंजी व िसवअम ंदक ंसवदम लवन उनेज हव.....’ या फिर-

           देवी अपने पुष्प-गीत को विस्मृत कर देगी,

           अगर वह मुझे उद्यान में विचरण करते देख ले।

           अगर ब्राह्मण मेरा दीदार कर ले,

           तो वह देव-मूर्ति को विस्मृत कर देगा।

           मैं अपने शब्दों में ही छुपी हूं,

           जैसे फूल की पंखुड़ियों में ख़ुशबू।

 मख्फ़ी उस ज़माने के अब्दुल क़ादिर बेदिल, कलीम कसानी, सायेब तबरीज़ी और ग़नी कश्मीरी जैसे अदीबों के बीच जलवाफ़रोश चराग़ के मानिन्द थीं। उनकी ग़ज़लों पर हमें हफ़ीज़ शिराजी का पर्याप्त प्रभाव दिखायी पड़ता है। दीवान-ए-मख्फ़ी उनके 5,000 अशआर का अद्भुत संकलन है। इसमें ज़्यादातर कविताएं ग़ज़लों के रूप में हैं, जिनमें मानव और ईश्वर के प्रति प्रेम की ज़बरदस्त अभिव्यक्ति हुई है। यह बात दीग़र है कि उनकी रचनाएं देवनागरी लिपि में प्रकाशित नहीं हुई हैं। उनकी रचनाएं पुस्तक के आकार में 1929 में दिल्ली से तथा 2001 में तेहरान से प्रकाशित हुईं। इसकी पांडुलिपियां नेशनल लाइब्रेरी पेरिस, ब्रिटिश संग्रहालय, ट्यूबिंगेन विश्वविद्यालय (जर्मनी) तथा मोटा पुस्तकालय (भारत) में आज भी सुरक्षित हैं। उनकी रचनाओं में आम तौर से अरबी और फ़ारसी की रवायत से आई हुई कविता के दर्शन होते हैं। मोनिस-उल-रोह, ज़ेबुलमोंशा और ज़ेब-उल-तफ़्सीर जैसी उनकी मशहूर रचनाओं में ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ रंग दिखायी पड़ते हैं। 

 ज़ेबुन्निसा की ख़ुशकत (श्रुतिलेख/ब्ंससपहतंचील) तथा स्थापत्य कला में भी गहरी अभिरुचि थी। शहज़ादी ने 1646 में लाहौर के मुल्तान रोड पर ‘चौबुर्ज़ी’ के रूप में एक शानदार और मनमोहक बाग़ की नींव रखी। यह इमारत नीले और हरे टाइल्स के ज़रिए ख़ूबसूरत जड़ावट का अद्भुत नमूना पेश करती है। इसके प्रवेश द्वार पर एक केंद्रीय गुम्बद के साथ चार मीनारें हैं, जिसकी दीवारों पर अरबी में क़ुरआन की आयतों को बड़ी ख़ूबसूरती से उकेरा गया है। मेहराब के ऊपर फ़ारसी में इसे ‘स्वर्ग उपवन’ तथा शहज़ादी को ‘युग की नारी’ के रूप में उद्धृत किया गया है। 

 ज़ेबुन्निसा ने 1701 में पुरानी दिल्ली के शाहजहांनाबाद इलाक़े में इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कह दिया। दिल्ली के काबुली दरवाज़े के बाहरी इलाक़े में ‘तीस हज़ार शजर के बाग़’ के नाम से शहज़ादी का मक़बरा तामीर हुआ। लेकिन दिल्ली में रेलवे लाइन बिछाये जाने के दौरान इसे सिकंदरा स्थित अकबर के मक़बरे के पास स्थानांतरित कर दिया गया। मखफ़ी की क़लम हमेशा के लिए ख़ामोश हो चुकी है, मगर ये खोयी हुई शहज़ादी अपने अशआर, अपनी कविताओं में आज भी ज़िंदा है। बक़ौल अख़्तर----

         मेरा हर शेर है अख़्तर मेरी ज़िन्दा तस्वीर,

         देखने वालों ने हर लफ़्ज़ में देखा है मुझे।


( गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2022 अंक में प्रकाशित )