बुधवार, 24 मार्च 2021

भोजपुरी के अमर गीतकार थे भोलानाथ गहमरी

                                         

 

भोलानाथ गहमरी

                                                                      - शहाब खान गोड़सरावी

      

 कवि सम्मेलनों के मंच पर भोजपुरी कविता को देश के दूर-दराज़़ तक के इलाकों में ले जाने श्रेय जिन कवियों को जाता है, उनमें एक प्रमुख नाम भोलानाथ गहमरी का है। मंच पर जब वे अपनी सुरीली आवाज़ में गीत पढ़ने लगते तो श्रोता झूम उठते। ख़ासकर 80 और 90 के दशक में मंच पर उनकी उपस्थिति मुख्य आकर्षण की वजह होती थी। हालांकि उन्होंने भोजपुरी फिल्मों के लिए भी कई गीत लिखे हैं, लेकिन उनकी मंच की प्रस्तुति सब पर भारी पड़ती है। भोलानाथ गहमरी का जन्म 17 दिसंबर 1923 को एशिया के सबसे बड़े गांव गहमर के भीखम राव पट्टी मुहल्ले में रामचंद्र लाल वर्मा जी के घर हुआ था। पिता कानूनगों व प्रथम श्रेणी के न्यायिक अधिकारी थे। इनकी माता भागमनी देवी घरेलू स्त्री थी। भोलानाथ ने कक्षा छह तक की पढ़ाई बर्मा में की थी। उसके बाद पहले गहमर और फिर ग़ाज़ीपुर से इंटरमीडिएट की शिक्षा पूरी की। फिर इलाहाबाद के बिजली विभाग के इलेक्ट्रिक सप्लाई यूनिट प्राइवेट लिमिटेड में नौकरी मिल गई। नौकरी के दौरान वे इलाहाबाद के ही हीवेट रोड रहते थे। इलाहाबाद के एक कवि सम्मेलन में गोपालदास नीरज ने उन्हें पहली बार भोजपुरी गीत पढ़ने के लिए प्रेरित किया। उनकी प्रस्तुति ने लोगों का दिल जीत लिया, यहीं से उनके कवि सम्मेलनों की यात्रा शुरू हुई थी। सेवानिवृत्ति के बाद ग़ाज़ीपुर शहर के आमघाट में पारसनाथ वकील के यहां किराए पर रहने लगे थे।

 भोलानाथ की शादी एक सम्पन्न परिवार विहार के इटाढ़ी समीप ग्राम इंदौर में शिव कुमारी से हुआ था। उनकी कुल छह संतान थी, जिनमें एक बेटी का निधन हो गया है। बेटी ज्योत्सना श्रीवास्तव वकील हैं। चार बेटे डाॅ. अरुण कुमार, पदम श्रीवास्तव, सुमंत श्रीवास्तव और हेमंत कुमार श्रीवास्तव हैं। भोलानाथ के पहला काव्य संग्रह 1959 में ‘मौलश्री’ नाम से छपा था। नाटक ‘लंबे हाथ’ 1967 में और ‘लोहे की दीवार’ 1972 में प्रकाशित हुआ। सन् 1969 में भोजपुरी के उनका पहला गीत-संग्रह ‘बयार पुरवइया’ प्रकाशित हुआ, जिसकी भूमिका आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखी थी। दूसरा भोजपुरी गीत-संग्रह ‘अंजुरी भर मोती’ 1980 में प्रकाशित हुई। इस किताब की भूमिका फ़िराक़ गोरखपुरी ने भोजपुरी में लिखा था। भोजपुरी में तीसरी पुस्तक ‘लोक रागिनी’ 1995 में छपी थी। उनके द्वारा भोजपुरी फिल्मों में लिखी गीत ‘सजना के अंगना’, ‘बबुआ हमार’, ‘बैरी भइल कंगना हमार’, ‘बहिना तोहरे खातिर’ काफी प्रचलित रहे। उत्तर प्रदेश सरकार के चलचित्र विभाग के फिल्म ‘विवेक’ और ‘सबेरा’ के गीत और संवाद भी उन्होंने लिखा। इसके लिए उन्हें भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी व उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल बी. सत्यनारायण रेड्डी ने पुरस्कृत किया था। 

उनके भोजपुरी गीत - ‘लोग रागिनी में रहि-रहि नाचे मन मोर हो’, ‘जिनिगिया से भोर भइले बलमू’ आदि बहुत मशहूर हैं। अपने कलम से भोजपुरी को जो उन्होंने जो अनमोल योगदान दिया है, उसकी मिसाल नहीं। भोजपुरी के सुप्रसिद्ध लोक गायक मुहम्मद खलील, झनकार बलिया ने जिं़दगी भर भोलानाथ गहमरी के गीत गाए। भोलानाथ गहमरी आकाशवाणी में स्वर-परीक्षक और सलाहकार की भूमिका लंबे अरसे तक निभाते रहे। वो अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के पहला अधिवेशन 1975-77 में कला मंत्री, छठवा-सातवां 1981-83 में महामंत्री, बारहवा-तेरवाह 1993-95 में उपाध्यक्ष और चैदहवां में अध्यक्ष रहे। उनके नेतृत्व में पंद्रहवा अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन गाजीपुर में हुआ। 

गौरतलब हो कि भोजपुरी अखिल साहित्य से कई बरस पहले गहमरी जी के नेतृत्व में गहमर में भोजपुरी अधिवेशन हुआ था। साथ ही अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन विलासपुर में आयोजित आठवां अधिवेशन में उनके द्वारा लिखा भोजपुरी चित्रण नाटक का निर्देशन काफी प्रचलित हुआ था। भोजपुरी के दीर्घकालीन विशिष्ट सेवा के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से उन्हें राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार और भोजपुरी अकादमी पटना द्वारा उनकी गीत संग्रह ‘अजुरी भर मोती’ पर विशिष्ट भोजपुरी पुरस्कार विहार एवं हिंदी साहित्य सम्मेलन-प्रयाग द्वारा मानद उपाधि से सम्मानित किया गया था। सन 2019 में भोलानाथ स्मृति में गाजीपुर जुलेलाल-लालदरवाजा स्थित मार्ग का नाम उनके नाम पर रखा गया है। भोलानाथ स्मृति में प्रत्येक वर्ष हरि नारायण हरीश के नेतृत्व में भोलानाथ गहमरी कवि सम्मेलन का विशेष आयोजन भी किया जाता है। भोलानाथ गहमरी को आंत में कैंसर हो गया था, जिसकी वजह से 8 दिसंबर 2000 ई० को गाजीपुर में उनका देहावसान हो गया।

(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2021 अंक में प्रकाशित)

मंगलवार, 16 मार्च 2021

धीरज से पहली मुलकात को मैं भरत-मिलाप कहता हूं: गोपीकृष्ण

गोपी कृष्ण श्रीवास्तव का जन्म जनपद प्रतापगढ़ के ग्राम मधुपुर के सुशिक्षित एवं प्रतिष्ठित कायस्थ परिवार में 24 नवंबर 1930 को हुआ। आपकी शिक्षा-दीक्षा प्रताप बहादुर इंटरमीडिएट कॉलेज प्रतापगढ़ सिटी में हुई। आप कुछ दिनों तक पुलिस मुख्यालय में कार्यालय अधीक्षक के पद पर कार्यरत रहे। तत्पश्चात माध्यमिक शिक्षा परिषद में सेवा करते हुए नवंबर 1990 में सेवानिवृत्त हो गए। वर्तमान में आप राजरूपपुर प्रयागराज में रहते हुए साहित्य साधना में निमग्न हैं। 15 अगस्त 1990 में अपने ‘राष्ट्रीय साहित्य संगम’ नाम की संस्था की स्थापना की। जिसकी गणना आज प्रयाग की पुरानी साहित्यिक संस्थाओं में होती है। इसके माध्यम से आप निरंतर कार्यक्रम कराते हैं। आप गीत, ग़ज़ल, छंद, मुक्तक, दोहे आदि विधाओं में लेखन करते हैं। देश प्रेम और राष्ट्र भक्ति पूर्ण रचनाएं आपने अधिक की। स्मृति शेष जमादार धीरज  आपके अभिन्न मित्र थे। जो आपकी संस्था के उपाध्यक्ष भी रहे। धीरज जी का जाना इन्हें गहरे शोक में उतार गया। जमादार धीरज के बारे में नज़दीक से जानने के लिए अनिल मानव ने आपसे बातचीत की। प्रस्तुत है उस बातचीत के संपादित भाग -

गोपीकृष्ण श्रीवास्तव से वार्ता करते अनिल मानव


सवाल:  जमादार धीरज से आप की पहली मुलाकात कब और कैसे हुई ?
जवाब:  जब वो गांव से यहां आए थे, वो वायुयान विभाग मनौरी, इलाहाबाद में राजपत्रित अधिकारी थे। रिटायर होने के बाद उन्होंने राजरूपपुर में मकान बना लिया और यहीं रहने लगे। उन्होंने भी हमारे बारे में सुन रखा था और मैं भी उनके बारे में। हम और वो दोनों लोग एक-दूसरे से मिलने के इच्छुक थे। लेकिन घर नहीं पता था। एक बार एक कवि सम्मेलन हुआ। वहां पर धीरज जी भी गए और मैं भी गया था। वहीं पर हम दोनों लोगों की पहली मुलाकात हुई। जिसे मैं ‘भरत-मिलाप’ कहता हूं। हमारी एक संस्था थी ‘राष्ट्रीय साहित्य संगम’। जिसकी स्थापना मैंने 15 अगस्त 1990 में किया था।  जिसमें 20-25 लोग थे, जिसका मैंने पंजीकरण कराया। इस संस्था का मैं अध्यक्ष था और धीरज जी को उपाध्यक्ष बना लिया।  अभी 6 मार्च 2020 को हमारी किताब का विमोचन पं. केसरीनाथ त्रिपाठी जी ने किया है। मैंने धीरज जी से पहले भी कई बार कहा था, कि आप अध्यक्ष बन जाइए, लेकिन वह बार-बार इनकार कर देते थे। और कहते थे, कि नहीं आप ही अध्यक्ष रहिए, मगर उस विमोचन के दिन हमें खुद मंच पर बोलने का मौका मिला। तब हमने कहा, कि अभी तक तो धीरज जी आप इंकार कर रहे थे, लेकिन आज सबके सामने में आपको अध्यक्ष मान रहा हूं। मैं संस्था में रहूंगा, अलग नहीं होऊंगा, मगर मुझे जिस पद पर रखेंगे मैं उसे खुले मन से स्वीकार कर लूंगा।
सवाल: राष्ट्रीय साहित्य संगम में जमादार धीरज की क्या भूमिका थी ? वह किस प्रकार से सहयोग करते थे ? 
जवाब: मैं राष्ट्रीय साहित्य संगम का अध्यक्ष केवल कहने के लिए था। जमादार धीरज जो कहते थे, वही मैं करता था। अब इससे बड़ी भूमिका और क्या होगी ? मैंने हमेशा उन्हीं को अध्यक्ष माना और अंतिम में 6 मार्च को सबके सामने घोषित भी कर दिया। राष्ट्रीय साहित्य संगम की जो भी कार्य योजनाएं बनती थीं, बैठक होती थी, उसमें प्रमुख रूप से धीरज जी की ही भूमिका रहती थी। धीरज जी संस्था के लिए बहुत से काम किए हैं उनका अतुलनीय योगदान है।

अनिल मानव, गोपीकृष्ण श्रीवास्तव और इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी


सवाल: इधर बहुत दिनों से राष्ट्रीय साहित्य संगम का कोई आयोजन नहीं हुआ है। इसकी क्या वजह हैं।
जवाब: ऐसा नहीं है। अभी 2 महीने पहले हमने इलाहाबाद सहित बाहर के बहुत से कवियों को इकट्ठा किया था। एक बड़ा कार्यक्रम चला था। लगभग चार-पांच घंटे का। इस तरह अभी हमने दो बार बड़ा कार्यक्रम कराया है।
सवाल: जमादार धीरज को आप कवि के रूप में कहां पाते हैं? 
जवाब: धीरज जी को मैं एक बड़ा कवि मानता हूं। उन्होंने देश और समाज के बारे में बहुत कुछ लिखा है। ‘दर्द हमारे गीत हो गए’ उनकी मशहूर कविता है। साहित्य को उन्होंने हमेशा साधना के रूप में रखा है। धीरज जी ने बहुत उम्दा और मार्मिक गीत लिखे हैं, जिसकी वजह से वह हमेशा अमर रहेंगे। मैं उन्हें अपने से भी श्रेष्ठ कभी मानता हूं। 

सवाल: इनके गीतों में भोजपुरी और अवधी शब्दों की भरमार है। इसको आप किस रूप में देखते हैं ?
जवाब: उनके गीतों और कविताओं में भोजपुरी और अवधी के शब्द बहुतायत देखने को मिलते हैं। अवधी की अपेक्षा भोजपुरी के शब्द कम इस्तेमाल करते थे। कवि को जिस मिट्टी से अधिक प्रेम और लगाव होता है, उसके काव्य में वहां की बोलियां और शब्द अनायास ही आ जाते हैं। ये नैसर्गिक होते हैं। इसके लिए कवि पूर्णतः स्वतंत्र होता है। यही उसकी विशिष्टता होती है। जो उसके काव्य को औरों से अलग बनाते हैं। उसे अलग पहचान दिलाते हैं। हम सदैव इसके पक्ष में हैं। कवि का अपना मन और लेखनी होती है, इस पर उसका निजी अधिकार होता है।

अनिल मानव, गोपीकृष्ण श्रीवास्तव, मधुबाला गौतम और इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

 सवाल: जमादार धीरज जिस स्तर के कवि थे, देश के पटल पर क्या उनको वह स्थान मिल पाया ?

जवाब: धीरज जी की रचनाएं बहुत दमदार हैं। इलाहाबाद में ज्यादातर लोग उन्हें जानते हैं। वह लगभग हर कवि गोष्ठियों में पहुंचा करते थे और उनका एक वरिष्ठ कवि के रूप में अलग सम्मान रहता था। लेकिन जो पहचान और स्थान उन्हें वृहद क्षेत्र में मिलना चाहिए था, शायद उतना नहीं मिल पाया है। पूरे देश में सब को पहचान मिल पाना बेहद कठिन होता है।

सवाल: जमादार धीरज की पुस्तक ‘युग प्रवर्तक डॉक्टर आंबेडकर’ को आप किस रूप में देखते हैं ? 

जवाब: इस किताब को लिखने से पहले धीरज जी ने इस पर मुझसे चर्चा की थी। इस किताब पर स्पेशल एक गोष्ठी भी हुई। मैं इसे एक उत्कृष्ट किताब मानता हूं। अम्बेडकर जी के जीवन से संबंधित तमाम स्याह और सफेद पक्ष इस किताब के जरिए उन्होंने उजागर किया है। उनके जीवन संघर्षों को बहुत अच्छे तरीके से धीरज जी ने रचा है जो काबिले-तारीफ है।

(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2020 अंक में प्रकाशित)


सोमवार, 8 मार्च 2021

लाॅकडाउन के 55 दिन और तन्हाइयां

                                                                                - डाॅ. हसीन जीलानी

                                         


इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी जो बुनियादी तौर पर तो सहाफ़ी हैं ‘गुफ़्तगू’ के ज़रिए उनकी पहचान शह्र और बैरून-ए-शह्र में एक अदीब व शायर की भी बन गयी है। उनके काम करने की लगन ने उनके चाहने वालों का दायरा काफी वसी कर दिया है। कुछ लोग इम्तियाज़ ग़ाज़ी की सरगर्मी पर अपनी हैरानी का इज़हार करते हैं और कहते हैं भाई आप अतने सारे काम कैसे कर लेते हैं। ऐसे मौक़े पर मुझे अल्लामा इक़बाल का मार्का-आरा नज़्म ‘खिज्रे-राह’ का एक शेर याद आता है -

                  क्या तअज्जुब है मेरी सरहान वर्दी पर तुझे

                  ये तगायू-ए-दमादम ज़िन्दगी की है दलील।

‘लाॅकडाउन के 55’ दिन इम्तियाज़ ग़ाज़ी की ताज़ा-तरीन किताब है। दुनिया में फैले वबा करोना की वजह से दुनिया के बेशतर मुमालिक में ज़िन्दगी जैसे ठहर सी गयी। हिन्दुस्तान में 25 मार्च 2020 को पूरे मुल्क में लाॅकडाउन नाक़िद कर दिया गया। इसके बावजूद बहुत से दानिश्वरों, अदीबों और शायरों ने इस पुर-आशोब दौर में भी पढ़ने लिखने का काम जारी व तारी रखा। इन्हीं में से एक नाम इम्तिया अहमद ग़ाज़ी का भी है। लाॅकडाउन के दरमियान इम्तियाज़ ग़ाज़ी ने कारनामों का तज्जिया करने के लिए आॅनलाइन नशिस्तों का एहतिमाम किया, जिसमें लोगों ने अपने अपने ख़्यालात बड़ी बेबाक़ी से ज़ाहिर किए। इम्तियाज़ ग़ाज़ी ने इन्हीं ख़्यालात को तहरीरी शक्ल देकर बाक़ायदा किताब शायरा कर दी है। किताब में इम्तियाज़ ग़ाज़ी का सहाफ़ती रंग ग़ालिब है। दौर-ए-हाजिर के मारुफ़ शायर मुनव्वर राना ने दुरुस्त लिखा है कि-‘39 शायरों पर परिचर्चा तो एक मामूली काम है लेकिन ये एक बुनियाद है। गुफ़्तगू एक बुनियाद रख रहा है। यह अदब की एक बहुत बुलंद इमारत, साहित्य की आलीशान इमारत की बुनियाद है। लाॅकडाउन के ज़माने में एक अच्छा और एक सच्चा काम कर लेना बड़ी बात है।’

गुफ़्तगू पब्लिकेशन की जानिब से शाया इस किताब का कवर दिलकश है। तारीख़ी हैसियत की हामिल इस किताब की कीमत सिर्फ़ 300 रुपये है। 280 सफ्हात़ पर मुश्तमिल ये किताब हिन्दी और उर्दू दोनों ज़बानों में दस्तयाब है।

 


 ‘तन्हाइयां’ तबस्सुम नाज़ का तीसरा शेरी मजमुआ है जो कि हम्द, नात, मन्क़बत, ग़ज़ल, गीत और नज़्मों पर मुश्तमिल है। इससे क़ब्ल सन् 2008 ई. में ‘बूए-ग़ज़ल’ और सन 2015 ई. में ‘मुस्कुराहट’ नाम के मजमुए भी शाया होकर मंज़र-ए-आम पर आ चुके हैं। तबस्सुम नाज़ ब-यक वक़्त कई सलाहियतों की मालिक हैं। एक इंसान में ब-यक वक़्त कई सलाहियतों का होना कभी-कभी अच्छा होता है तो कभी-कभी मुश्किलें भी पैदा करता है। तबस्सुम नाज़ शेरी मजमुओं के साथ-साथ अफ़्सानवी मजमुआ ‘अंदाज़-ए-बयां कुछ और’ की भी मुसन्निफ़ हैं।

 तन्हाइयां में मुतालिआ से ये बात शिद्दत से महससू होती है कि तबस्सुम नाज़ के दिल में जज़्बात का एक समुंदर ठाठें मार रहा है जो कभी अफ़्साना निगारी की शक्ल में ज़ाहिर होता है तो कभी शायरी का रूप अख़्तियार कर लेता है, लेकिन इसमें बहने वाले बेशुमार कीमती  गुहर उज़्लत पसन्दी के सबब धागे में सलीके से नहीं पिरोये जा सके हैं। ख़्वाजा हैदर अली आतिश का बहुत मशहूर शेर है- 

              बन्दिश-ए-अज्फ़ाज़ जड़ने से नगों के कम नहीं

              शायरी भी काम है आतिश मुरस्सा साज़ का।

यानी फ़नकार के लिए लफ़्ज़ों को सलीके़मन्दी से शेरी पैक़र में ढालने के फन से वाक़िफ़ होना ज़रूरी होता है। जैसा तबस्सुम नाज़ साहिबा ने खुद फ़रमाया है कि परवीन शाकिर उनकी आइडियल शायरा हैं। अगर वाक़ई वह उन्हें अपना आइडियल समझती हैं तो परवीन शाकिर की शायरी के उन अहसन पहलुओं पर भी ग़ौर करना चाहिए जो उनको उर्दू शायरी का माह-ए-तमाम बनाते हैं। तबस्सुम नाज़ के चंद उम्दा शेर मुलाहिजा कीजिए -

                चलने दो हवा-ए-उल्फ़त फिर दुनिया बदलेगी चेहरा,

                उम्मीद जगी है पत्थर दिल इंसान पिघलने वाला है।

                सूरज के डूबने पे जला देते हैं चिराग़,

                सच्चाई को फ़रेब से झुटला रहे हैं हम।

150 पेजा पर मुश्तमिल इस किताब की क़ीमत सिर्फ़ 300 रुपये है, जो इरम पब्लिशिंग हाउस, पटना से शाया हुई है। किताब का कवर दिलकश है। उम्मीद है ‘तन्हाइयां’ को अदबी हल्क़े में क़द्र की निगाहों से देखा जाएगा।

(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2020 अंक में प्रकाशित)


सोमवार, 1 मार्च 2021

गंगा-जमुनी तहजीब की बेहतरीन मिसाल है गुफ़्तगू: डाॅ. मालवीय



गुफ़्तगू के शहनाज़ फ़ातमी/शगुफ़्ता रहमान अंक का हुआ विमोचन

प्रयागराज। देश के मौजूदा हालात में भाषाई एकता की सबसे अधिक आवश्यकता है, ताकि भाषा के आधार पर लोग एक दूसरे को जाने समझें और उस पर काम करें। ऐसे ही काम को अंजाम दे रही है गुफ़्तगू पत्रिका। इसके हर अंक में उर्दू ंके साथ हिन्दी साहित्य भी भरपूर मात्रा में प्रकाशित हो रही है। यही वजह है दोनों ही भाषाओं के लोगों में यह पत्रिका समान रूप से लोकप्रिय है। मौजूद अंक में जहां डाॅ. बशीर बद्र और मुनव्वर राना जैसे लोगों की ग़ज़लें छपी हैं तो दूसरी ओर प्रो. सोम ठाकुर और यश मालवीय की भी कविताएं हैं। यह बात 28 फरवरी को गुफ़्तगू की ओर से करैली स्थित अदब घर में आयोजित विमोचन समारोह में बतौर मुख्य अतिथि मशहूर उर्दू अदीब डाॅ. अजय मालवीय ने कही।

 इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि गुफ़्तगू के मौजूद अंक में शम्सुरर्हमान फ़ारूक़ी का एक महत्वपूर्ण लेख ‘क्लासिकी ग़ज़ल की शेरीआत’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है, सभी ग़ज़ल लिखने वालों को यह लेख अवश्य पढ़ना चाहिए। इसी तरह इस ंअंक में डाॅ. बशीर बद्र, वसीम बरेलवी, मंज़र भोपाली, मुनव्वर राना जैसे नामचीन लोगों की भी ग़ज़लें नए लोगों के साथ छपी है। हमारी हमेशा से कोशिश रही है कि नामचीन लोगों के साथ नए लोगों को भी स्थान दिया जाए।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे प्रो. सुरेश चंद्र द्विवेदी ने कहा कि आज के दौर में जब बड़ी-बड़ी साहित्यिक पत्रिकाएं बंद हो रही हैं, गुफ़्तगू का प्रकाशन जारी है और इसमें निरंतर निखार आ रहा है। गुफ़्तगू जैसी पत्रिका एक तरह से साहित्यिक नगरी प्रयागराज की पहचान बन गई है। यह पत्रिका पूरे देश के साथ कुछ दूसरों मुल्कों में भी पढ़ी जा रही है। विशिष्टि अतिथि संजय सक्सेना ने कहा कि आज के दौर में साहित्यिक पत्रिका निकलना बहुत बड़ा और कठिन काम है, लेकिन इम्तियाज़ ग़ाज़ी यह काम बेहतरीन तरीके से कर रहे हैं। कार्यक्रम का संचालन फ़रमूद इलाहाबादी ने किया।

दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया। डाॅ. नीलिमा मिश्रा, शैलेंद्र जय, अफसर जमाल, श्रीराम तिवारी, शिवाजी यादव, असद ग़ाज़ीपुरी, राम कैलाश प्रयागवासी, प्रभाशंकर शर्मा, पूजा कुमारी रूही, प्रभाकर केसरी, राकेश मालवीय, जीशान चमन, प्रकाश सिंह अश्क, सुजाता सिंह, आसिफ उस्मानी आदि ने कलाम पेश किया।