गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

स्कूल आॅफ poetry थे बेकल उत्साही



‘गुफ्तगू’ की तरफ से ‘याद-ए-बेकल उत्साही’ का आयोजन
इलाहाबाद। बेकल उत्साही स्कूल आॅफ़ poetry थे, उन्होंने अपनी मेहनत और फन से गीत जैसी विधा को मंच पर स्थापित किया है। उनकी शायरी में गांव, पगडंडी, किसान, खेत, खलिहान आदि का वर्णन जगह-जगह मिलता है। उर्दू को शहर की ज़बान माना जाता है, ऐसे में बेकल की शायरी बेहद ख़ास हो जाती है, उन्होंने उर्दू की शायरी में गांव के जीवन का वर्णन खूबसूरती से किया है। ये बातें प्रो. अली अहमद फ़ातमी ने 25 दिसंबर की शाम साहित्यिक संस्था ‘गुफ्तगू’ की तरफ से बाल भारती स्कूल में आयोजित ‘याद-ए-बेकल उत्साही’ कार्यक्रम के दौरान कही। उन्होंने कहाकि नातिया शायरी में भी बेकल की शायरी एक ख़ास मकाम रखती है, उन्होंने नात में शायरी करके नातिया शायरी को भी मजबूत किया है।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि सुलेमान अज़ीज़ी ने बेकल उत्साही के कई संस्मरण सुनाए, उनके गुजारे दिन को याद किया।
कार्यक्रम का संचालन कर रहे इम्तियाज़ अहमद गा़ज़ी ने ‘गुफ्तगू’ के बेकल उत्साही विशेषांक की रूपरेखा का वर्णन करते हुए कहा कि आज से 11 साल पहले कैलाश गौतम के निर्देशन में वह अंक निकला था, तब मैं और अख़्तर अज़ीज़ बेकल साहब के घर बलरामपुर गए थे। नरेश कुमार महरानी ने गुफ्तगू के बेकल उत्साही विशेषांक में छपे मुनव्वर राना के लेख को पढ़कर सुनाया, कहा कि आज से 30 साल पहले जब भारत के शायर विदेश जाने की कोशिश में लगे रहते थे, तब बेकल उत्साही आधी दुनिया घूम चुके थे। हरवारा मजिस्द के पेशइमाम इक़रामुल हक़ ने बेकल उत्साही की नात को पढ़कर सुनाई। अख़्तर अज़ीज ने कहा कि बेकल उत्साही का जाना उर्दू और हिन्दी शायरी का ऐसा नुकसान है, जिसकी भरपाई करना मुमकिन नहीं है। असरार गांधी ने कहा कि बहुत कम लोग यह जानते हैं कि बेकल साहब कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद बहुत अच्छी अंग्रेजी बोलते थे। डाॅ. पीयूष दीक्षित ने कहा कि एक छोटे से गांव से आने वाले बेकल उत्साही ने शायरी दुनिया की में इतना नाम और काम करके आज के नए लोगों के लिए नजीर पेश किया है, छोटे कस्बे और गंाव के नए कवियों-शायरों को उनसे सीख लेनी चाहिए। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर बुद्धिसेन शर्मा ने कहा कि बेकल साहब उस दौर के शायर हैं, जब मुशायरों की शायरी को बहुत अधिक इज्जत हासिल थी, उन्होंने अपनी शायरी से सभी को प्रभावित किया है, उनका जाना बहुत बड़ा नुकसान है, उनके लिए अब सही मायने में अब काम करने की आवश्यकता है। 
दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया, जिसका संचालन शैलेंद्र जय ने किया।रितंधरा मिश्रा, फरमूद इलाहाबादी, प्रभाशंकर शर्मा, डाॅ. विनय श्रीवास्तव, भोलानाथ कुशवाहा, सागर होशियारपुरी, अजीत शर्मा आकाश, सीमा वर्मा ‘अपराजिता’, शिबली सना, विपिन विक्रम सिंह, शादमा जैदी शाद, शुभम श्रीवास्तव, डाॅ. महेश मनमीत, डाॅ. राम आशीष आदि ने कलाम पेश किया। अंत में प्रभाशंकर शर्मा ने सबके प्रति आभार प्रकट किया।
लोगों को संबोधित करते प्रो. अली अहमद फ़ातमी

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि सुलेमान अज़ीज़ी

कार्यक्रम का संचालन करते इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

लोगों को संबोधित करते डाॅ. पीयूष दीक्षित

लोगों को संबोधित करते असरार गांधी

लोगों को संबोधित करते अख़्तर अज़ीज़

काव्य पाठ करते डाॅ. विनय श्रीवास्तव

नात प्रस्तुत करते एकरामुल हक़

अजीत शर्मा ‘आकाश’-
शायर ही क्यों आदमी भी बेमिसाल था।
दौलत से वो अदब की बहुत मालामाल था।

प्रभाशंकर शर्मा-
जब बसंत की कली खिलेगी भौंरा गुनगुनाएगा
मेरी परिचय मिल जाएगा, मेरा परिचय मिल जाएगा।


रितंधरा मिश्रा-
नारी से ही जन्म सभी का
नारी एक अभिलाषा है
एक शक्ति सी, एक मधुर सी
जीवन रूपी आशा है
शिबली सना-
खुदा सभी को रोजो-जवाल देता है
शजर जो धूप को साये में ढाल देता है।

शादमा ज़ैदी शाद-
हयात हमने गुजारी है इस उसूल के साथ
हमेशा हमने चूमा है कांटों का मुंह भी फूल के साथ।


शाहीन खुश्बू-
दिल इश्क़ में तेरा उनके जल जाए तो अच्छा
शोलों की लपक उन तलक जाए तो अच्छा।


डाॅ. राम आशीष-
आओ एक मधुमास लिखें नई कोंपलें नई कली
नये घोसले,  नई डाली


संतलाल सिंह-
ईंट से ईंट बजाना होगा
कदम से कदम मिलाना होगा।

सीमा aparajita पराजिता- 
तू कलम है अगर तूलिका मैं बनी
तूने जो भी कहा भूमिका मैं बनी
प्रेम के इस अनूठे सफ़र में प्रिये 
कृष्ण है तू मेरा राधिका मैं बनी

रविवार, 18 दिसंबर 2016

दूधानाथ सिंह

 दूधानाथ सिंह

                                                                                 -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
वर्तमान समय में दूधनाथ सिंह न सिर्फ़ इलाहाबाद बल्कि देश के प्रतिष्ठित ख्याति प्राप्त साहित्यकारों में से एक हैं। कहानी, नाटक, आलोचना और कविता लेखन के क्षे़त्र में आप किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। आपका उपन्यास ‘आखि़री कलाम’ काफी चर्चित रहा है, इस उपन्यास पर आपको कई जगहों से पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। तमाम पत्र-पत्रिकाओं के अलावा साहित्यिक कार्यक्रमों के चर्चा-परिचर्चा में आपका जिक्र होता रहता है। टीवी चैनलों, आकाशवाणी और पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं के साथ-साथ साक्षात्कार भी समय-समय पर प्रकाशित-प्रसारित होते रहे हैं। वृद्धा अवस्था में भी आप लेखन के प्रति बेहद सक्रिय हैं। तमाम गोष्ठियों में आपकी उपस्थिति ख़ास मायने रखती है। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान समेत विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से आपको अनेक सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। आपका जन्म 17 अक्तूबर 1936 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के सोबंथा गांव में हुआ। पिता देवनी नंदन सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे, 1942 के आंदोलन में उन्होंने सक्रियता से देश की आज़ादी के लिए भाग लिया था। माता अमृता सिंह गृहणि थी।
प्रारंभिक शिक्षा गांव से हासिल करने के बाद आप वाराणसी चले आए, यहां यूपी कालेज से स्नातक की डिग्री हासिल की, इसके बाद एमए की पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी की, स्नातक तक आपने उर्दू की भी शिक्षा हासिल की है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आपको डॉ. धर्मवीर भारती और प्रो. धीरेंद्र वर्मा से शिक्षा हासिल करने का गौरव प्राप्त है। इलाहाबाद से शिक्षा ग्रहण के बाद 1960 से 1962 तक कोलकाता के एक कालेज में अध्यापन कार्य किया। इसके बाद 1968 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापन कार्य शुरू किया और यहीं से 1996 में सेवानिवृत्त हुए। सेवानिवृत्ति के बाद कई वर्षों तक महात्मा गांधी हिन्दी अंतरराष्टीय विश्वविद्याल वर्धा में भी आपने बतौर विजटिंग प्रोफेसर अध्यापन कार्य किया है। आपके तीन संतानें हैं। दो पुत्र और एक पु़त्री। दोनों बेटे दिल्ली में नौकरी कर रहे हैं, बेटी लखनउ में रहती है।
आपके प्रकाशित उपन्यासों में ‘आखि़री कलाम’, ‘निष्कासन’ और ‘नमो अंधकराम्’ हैं। कई कहानी संग्रह अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। जिनमें ‘सपाट चेहरे वाला आदमी’, ‘सुखांत’, ‘प्रेमकथा का अंत न कोई’,‘माई का शोकगीत’, ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’, ‘तू फू’, ‘कथा समग्र’ आदि प्रमुख हैं। प्रकाशित कविता संग्रह में ‘अगली शताब्दी के नाम’, ‘एक और भी आदमी है’ और ‘युवा खुश्बू’, ‘सुरंग से लौटते हुए’ हैं। आलोचना की पुस्तकों में ‘निरालाः आत्महंता आस्था’, ‘महादेवी’, ‘मुक्तिबोध’ और ‘साहित्य में नई प्रवृत्तियां’ हैं। ‘यमगाथा’ नामक नाटक भी प्रकाशित हुआ है, इनके लिखे नाटकों का समय-समय पर मंचन होता रहा है। अब तक आपको मिले पुरस्कारों में उत्तर प्रदेश संस्थान का ‘भारत-भारती सम्मान’ के अलावा ‘भारतेंदु सम्मान’, ‘शरद जोशी स्मृति सम्मान’, ‘साहित्य भूषण सम्मान’ आदि शामिल हैं।
हिन्दी में ग़ज़ल लेखन के बारे में आपका मानना है कि - हिन्दी में तो ग़ज़ल लिखी नहीं जा सकती क्योंकि हिन्दी के अधिकांश ग़ज़लगो बह्र और क़ाफ़िया-रदीफ़ से परिचित नहीं हैं। इसके अलावा हिन्दी के अधिकांश शब्द संस्कृत से आए हैं, जो ग़ज़ल में फिट नहीं बैठते हैं और खड़खड़ाते हैं। मुहावरेदानी का जिस तरह से प्रयोग होता है वह हिन्दी खड़ी बोली कविता में नहीं होता। जैसे ग़ालिब एक शेर- मत पूछ की क्या हाल है, मेरा तेरे पीछे/ये देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे। इस पूरी ग़ज़ल में ‘आगे और पीछे’ इन दो अल्फ़ाज़ का इस्तेमा हर शेर में ग़ालिब से अलग-अलग अर्थों में किया है। हिन्दी वाले इस मुहारेदानी को नहीं पकड़ सकते और अक्सर ग़ज़ल उनसे नहीं बनती तो उर्दू अल्फ़ाज़ का सहारा लेते हैं।
(published in guftgu-december 2016 edition)