गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

स्कूल आॅफ poetry थे बेकल उत्साही



‘गुफ्तगू’ की तरफ से ‘याद-ए-बेकल उत्साही’ का आयोजन
इलाहाबाद। बेकल उत्साही स्कूल आॅफ़ poetry थे, उन्होंने अपनी मेहनत और फन से गीत जैसी विधा को मंच पर स्थापित किया है। उनकी शायरी में गांव, पगडंडी, किसान, खेत, खलिहान आदि का वर्णन जगह-जगह मिलता है। उर्दू को शहर की ज़बान माना जाता है, ऐसे में बेकल की शायरी बेहद ख़ास हो जाती है, उन्होंने उर्दू की शायरी में गांव के जीवन का वर्णन खूबसूरती से किया है। ये बातें प्रो. अली अहमद फ़ातमी ने 25 दिसंबर की शाम साहित्यिक संस्था ‘गुफ्तगू’ की तरफ से बाल भारती स्कूल में आयोजित ‘याद-ए-बेकल उत्साही’ कार्यक्रम के दौरान कही। उन्होंने कहाकि नातिया शायरी में भी बेकल की शायरी एक ख़ास मकाम रखती है, उन्होंने नात में शायरी करके नातिया शायरी को भी मजबूत किया है।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि सुलेमान अज़ीज़ी ने बेकल उत्साही के कई संस्मरण सुनाए, उनके गुजारे दिन को याद किया।
कार्यक्रम का संचालन कर रहे इम्तियाज़ अहमद गा़ज़ी ने ‘गुफ्तगू’ के बेकल उत्साही विशेषांक की रूपरेखा का वर्णन करते हुए कहा कि आज से 11 साल पहले कैलाश गौतम के निर्देशन में वह अंक निकला था, तब मैं और अख़्तर अज़ीज़ बेकल साहब के घर बलरामपुर गए थे। नरेश कुमार महरानी ने गुफ्तगू के बेकल उत्साही विशेषांक में छपे मुनव्वर राना के लेख को पढ़कर सुनाया, कहा कि आज से 30 साल पहले जब भारत के शायर विदेश जाने की कोशिश में लगे रहते थे, तब बेकल उत्साही आधी दुनिया घूम चुके थे। हरवारा मजिस्द के पेशइमाम इक़रामुल हक़ ने बेकल उत्साही की नात को पढ़कर सुनाई। अख़्तर अज़ीज ने कहा कि बेकल उत्साही का जाना उर्दू और हिन्दी शायरी का ऐसा नुकसान है, जिसकी भरपाई करना मुमकिन नहीं है। असरार गांधी ने कहा कि बहुत कम लोग यह जानते हैं कि बेकल साहब कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद बहुत अच्छी अंग्रेजी बोलते थे। डाॅ. पीयूष दीक्षित ने कहा कि एक छोटे से गांव से आने वाले बेकल उत्साही ने शायरी दुनिया की में इतना नाम और काम करके आज के नए लोगों के लिए नजीर पेश किया है, छोटे कस्बे और गंाव के नए कवियों-शायरों को उनसे सीख लेनी चाहिए। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर बुद्धिसेन शर्मा ने कहा कि बेकल साहब उस दौर के शायर हैं, जब मुशायरों की शायरी को बहुत अधिक इज्जत हासिल थी, उन्होंने अपनी शायरी से सभी को प्रभावित किया है, उनका जाना बहुत बड़ा नुकसान है, उनके लिए अब सही मायने में अब काम करने की आवश्यकता है। 
दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया, जिसका संचालन शैलेंद्र जय ने किया।रितंधरा मिश्रा, फरमूद इलाहाबादी, प्रभाशंकर शर्मा, डाॅ. विनय श्रीवास्तव, भोलानाथ कुशवाहा, सागर होशियारपुरी, अजीत शर्मा आकाश, सीमा वर्मा ‘अपराजिता’, शिबली सना, विपिन विक्रम सिंह, शादमा जैदी शाद, शुभम श्रीवास्तव, डाॅ. महेश मनमीत, डाॅ. राम आशीष आदि ने कलाम पेश किया। अंत में प्रभाशंकर शर्मा ने सबके प्रति आभार प्रकट किया।
लोगों को संबोधित करते प्रो. अली अहमद फ़ातमी

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि सुलेमान अज़ीज़ी

कार्यक्रम का संचालन करते इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

लोगों को संबोधित करते डाॅ. पीयूष दीक्षित

लोगों को संबोधित करते असरार गांधी

लोगों को संबोधित करते अख़्तर अज़ीज़

काव्य पाठ करते डाॅ. विनय श्रीवास्तव

नात प्रस्तुत करते एकरामुल हक़

अजीत शर्मा ‘आकाश’-
शायर ही क्यों आदमी भी बेमिसाल था।
दौलत से वो अदब की बहुत मालामाल था।

प्रभाशंकर शर्मा-
जब बसंत की कली खिलेगी भौंरा गुनगुनाएगा
मेरी परिचय मिल जाएगा, मेरा परिचय मिल जाएगा।


रितंधरा मिश्रा-
नारी से ही जन्म सभी का
नारी एक अभिलाषा है
एक शक्ति सी, एक मधुर सी
जीवन रूपी आशा है
शिबली सना-
खुदा सभी को रोजो-जवाल देता है
शजर जो धूप को साये में ढाल देता है।

शादमा ज़ैदी शाद-
हयात हमने गुजारी है इस उसूल के साथ
हमेशा हमने चूमा है कांटों का मुंह भी फूल के साथ।


शाहीन खुश्बू-
दिल इश्क़ में तेरा उनके जल जाए तो अच्छा
शोलों की लपक उन तलक जाए तो अच्छा।


डाॅ. राम आशीष-
आओ एक मधुमास लिखें नई कोंपलें नई कली
नये घोसले,  नई डाली


संतलाल सिंह-
ईंट से ईंट बजाना होगा
कदम से कदम मिलाना होगा।

सीमा aparajita पराजिता- 
तू कलम है अगर तूलिका मैं बनी
तूने जो भी कहा भूमिका मैं बनी
प्रेम के इस अनूठे सफ़र में प्रिये 
कृष्ण है तू मेरा राधिका मैं बनी

रविवार, 18 दिसंबर 2016

दूधानाथ सिंह

 दूधानाथ सिंह

                                                                                 -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
वर्तमान समय में दूधनाथ सिंह न सिर्फ़ इलाहाबाद बल्कि देश के प्रतिष्ठित ख्याति प्राप्त साहित्यकारों में से एक हैं। कहानी, नाटक, आलोचना और कविता लेखन के क्षे़त्र में आप किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। आपका उपन्यास ‘आखि़री कलाम’ काफी चर्चित रहा है, इस उपन्यास पर आपको कई जगहों से पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। तमाम पत्र-पत्रिकाओं के अलावा साहित्यिक कार्यक्रमों के चर्चा-परिचर्चा में आपका जिक्र होता रहता है। टीवी चैनलों, आकाशवाणी और पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं के साथ-साथ साक्षात्कार भी समय-समय पर प्रकाशित-प्रसारित होते रहे हैं। वृद्धा अवस्था में भी आप लेखन के प्रति बेहद सक्रिय हैं। तमाम गोष्ठियों में आपकी उपस्थिति ख़ास मायने रखती है। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान समेत विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से आपको अनेक सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। आपका जन्म 17 अक्तूबर 1936 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के सोबंथा गांव में हुआ। पिता देवनी नंदन सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे, 1942 के आंदोलन में उन्होंने सक्रियता से देश की आज़ादी के लिए भाग लिया था। माता अमृता सिंह गृहणि थी।
प्रारंभिक शिक्षा गांव से हासिल करने के बाद आप वाराणसी चले आए, यहां यूपी कालेज से स्नातक की डिग्री हासिल की, इसके बाद एमए की पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी की, स्नातक तक आपने उर्दू की भी शिक्षा हासिल की है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आपको डॉ. धर्मवीर भारती और प्रो. धीरेंद्र वर्मा से शिक्षा हासिल करने का गौरव प्राप्त है। इलाहाबाद से शिक्षा ग्रहण के बाद 1960 से 1962 तक कोलकाता के एक कालेज में अध्यापन कार्य किया। इसके बाद 1968 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापन कार्य शुरू किया और यहीं से 1996 में सेवानिवृत्त हुए। सेवानिवृत्ति के बाद कई वर्षों तक महात्मा गांधी हिन्दी अंतरराष्टीय विश्वविद्याल वर्धा में भी आपने बतौर विजटिंग प्रोफेसर अध्यापन कार्य किया है। आपके तीन संतानें हैं। दो पुत्र और एक पु़त्री। दोनों बेटे दिल्ली में नौकरी कर रहे हैं, बेटी लखनउ में रहती है।
आपके प्रकाशित उपन्यासों में ‘आखि़री कलाम’, ‘निष्कासन’ और ‘नमो अंधकराम्’ हैं। कई कहानी संग्रह अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। जिनमें ‘सपाट चेहरे वाला आदमी’, ‘सुखांत’, ‘प्रेमकथा का अंत न कोई’,‘माई का शोकगीत’, ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’, ‘तू फू’, ‘कथा समग्र’ आदि प्रमुख हैं। प्रकाशित कविता संग्रह में ‘अगली शताब्दी के नाम’, ‘एक और भी आदमी है’ और ‘युवा खुश्बू’, ‘सुरंग से लौटते हुए’ हैं। आलोचना की पुस्तकों में ‘निरालाः आत्महंता आस्था’, ‘महादेवी’, ‘मुक्तिबोध’ और ‘साहित्य में नई प्रवृत्तियां’ हैं। ‘यमगाथा’ नामक नाटक भी प्रकाशित हुआ है, इनके लिखे नाटकों का समय-समय पर मंचन होता रहा है। अब तक आपको मिले पुरस्कारों में उत्तर प्रदेश संस्थान का ‘भारत-भारती सम्मान’ के अलावा ‘भारतेंदु सम्मान’, ‘शरद जोशी स्मृति सम्मान’, ‘साहित्य भूषण सम्मान’ आदि शामिल हैं।
हिन्दी में ग़ज़ल लेखन के बारे में आपका मानना है कि - हिन्दी में तो ग़ज़ल लिखी नहीं जा सकती क्योंकि हिन्दी के अधिकांश ग़ज़लगो बह्र और क़ाफ़िया-रदीफ़ से परिचित नहीं हैं। इसके अलावा हिन्दी के अधिकांश शब्द संस्कृत से आए हैं, जो ग़ज़ल में फिट नहीं बैठते हैं और खड़खड़ाते हैं। मुहावरेदानी का जिस तरह से प्रयोग होता है वह हिन्दी खड़ी बोली कविता में नहीं होता। जैसे ग़ालिब एक शेर- मत पूछ की क्या हाल है, मेरा तेरे पीछे/ये देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे। इस पूरी ग़ज़ल में ‘आगे और पीछे’ इन दो अल्फ़ाज़ का इस्तेमा हर शेर में ग़ालिब से अलग-अलग अर्थों में किया है। हिन्दी वाले इस मुहारेदानी को नहीं पकड़ सकते और अक्सर ग़ज़ल उनसे नहीं बनती तो उर्दू अल्फ़ाज़ का सहारा लेते हैं।
(published in guftgu-december 2016 edition)

शनिवार, 26 नवंबर 2016

आठ लोगों को मिला शान-ए-इलाहाबाद सम्मान

काव्य प्रतियोगिता में मिर्जापुर के सतंलाल सिंह प्रथम  


गुफ्तगू संस्था का साहित्य समारोह- 2016 का आयोजन 
इलाहाबाद। गुफ्तगू ने पिछले 13 सालों में शानदार कार्यक्रम और पत्रिका का संचालन करके अच्छी मिसाल पेश किया है, इलाहाबाद जैसे शहर में ऐसे आयोजन और प्रकाशन करना काफी पुरानी परंपरा रही है। इस काम के लिए टीम गुफ्तगू बधाई की पात्र है। यह बात हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष उमेश नारायण शर्मा ने कही। साहित्यिक संस्था गुफ्तगू की ओर ‘साहित्य समारोह-2016’ का आयोजन रविवार की शाम किया गया, वे बतौर कार्यक्रम अध्यक्ष लोगों को संबोधित कर रहे थे।
इस दौरान कैम्पस काव्य प्रतियोगित का आयोजन किया गया, जिसमें मिर्जापुर के संतलाल सिंह ने प्रथम स्थान हासिल किया। द्वितीय स्थान फतेहपुर के प्रवेश शिवम और तृतीय स्थान मउ के धीरेंद्र धवन ने हासिल किया। प्रथम पुरस्कार विजेता को 2100, द्वितीय को 1500 और तृतीय स्थान पाने वाले को 1000 रुपये, प्रत्येक को एक-एक हजार रुपये की किताबें और प्रशस्ति पत्र दिया गया। इसके अलावा कानपुर की सुहानी, अर्पणा सिंह, सुल्तानपुर के विपिन विजय, सत्येंद्र श्रीवास्तव, दिल्ली के शंभु अमलवासी, गाजीपुर मनोज कुमार और इंद्र प्रताप और इलाहाबाद सीमा वर्मा को सांत्वना पुरस्कार मिला।
दूसरे सत्र में अलखाक अहमद, मुनेश्वर मिश्र, अनिल तिवारी, गौरव कृष्ण बंसल, डॉ. कृष्णा सिंह, डॉ. रोहित चौबे, रमोला रूल लाल और शिवा कोठारी को ‘शान-ए-इलाहाबाद’  सम्मान प्रदान किया गया। इस दौरान मनमोहन सिंह ‘तन्हा’की पुस्तक ‘तन्हा नहीं रहा तन्हा’ का विमोचन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता उमेश नारायण शर्मा ने किया, मुख्य अतिथि वरिष्ठ शायर एमए क़दीर थे। श्री कदीर ने कहा कि गुफ्तगू संस्था अच्छा कार्य कर रही है, आज ‘शान-ए-इलाहाबाद’ सम्मान और कैम्पस काव्य प्रतियोगिता का आयोजन इसी कड़ी की एक प्रस्तुति है। विशिष्ट अतिथि के रूप में उत्तर मध्य रेलवे के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी विजय कुमार, पूर्व सभासद अखिलेश सिंह, प्रो. जगदीश खत्री और सरदार दलजीत सिंह मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन इम्तियाज अहमद गाजी और डॉ. पीयूष दीक्षित ने संयुक्त रूप से किया। धर्मंद्र श्रीवास्तव, नरेश कुमार महरानी, प्रभाश्ंाकर शर्मा, शिवपूजन सिंह, संजय सागर, विनय श्रीवास्तव, अर्शिया सरफाज, तलब जौनपुरी, सरदार अजीत सिंह, लखबीर सिंह, गुरमीत सिंह, जयकृष्ण राय तुषार, शैलेंद्र जय आदि मौजूद रहे।

कार्यक्रम का संचालन करते इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी


कार्यक्रम को संबोधित करते विजय कुमार


कार्यक्रम को संबोधित करते डॉ. पीयूष दीक्षित




कार्यक्रम के दौराना हिन्दुस्तानी एकेडेमी के सभागार में मौजूद साहित्य प्रेमी


कैम्पस काव्य प्रतियोगिता के दौरान मंच पर मौजूद निर्णायक मंडल: रमोला रूथ लाल, प्रभाशंक शर्मा, डॉ. विनय श्रीवास्तव, धर्मेंद्र श्रीवास्तव, शिबली सना और मनमोहन सिंह तन्हा


अखिलेश सिंह का स्वागत करते प्रभाशंकर शर्मा


सरदार दलजीत सिंह का स्वागत करके डॉ. विनय कुमार श्रीवास्तव


मुनेश्वर मिश्र को ‘शान-ए-इलाहाबाद’सम्मान प्रदान करते एमए क़दीर


अनिल तिवारी को ‘शान-ए-इलाहाबाद’ सम्मान प्रदान करते उत्तर मध्य रेलवे के मुख्य  जनसंपर्क अधिकारी विजय कुमार


गौरव कृष्ण बंसल को ‘शान-ए-इलाहाबाद’ सम्मान प्रदान करते प्रो. जगदीश खत्री


रमोला रूथ लाल को ‘शान-ए-इलाहाबाद’सम्मान प्रदान करते डॉ. पीयूष दीक्षित


डॉ. कृष्णा सिंह को ‘शान-ए-इलाहाबाद’ सम्मान प्रदान करते प्रो. जगदीश खत्री



डॉ. रोहित चौबे को ‘शान-ए-इलाहाबाद’ सम्मान प्रदान करते नरेश कुमार महरानी


shivaa कोठारी को ‘शान-ए-इलाहाबाद सम्मान’ प्रदान करते धर्मेद्र श्रीवास्तव



मनमोहन सिंह तन्हा को सम्मानित करते सरदार दलजीत सिंह


प्रथम पुरस्कार विजेता मिर्जापुर के संतलाल सिंह को पुरस्कार देते एमए क़दीर साथ में खड़े हैं उमेश नारायण शर्मा


तृतीय पुरस्कार विजेता मउ जिले के धीरेंद्र धवन को पुरस्कार प्रदान करते उमेश नारायण शर्मा

अर्पणा सिंह को प्रशस्ति पत्र प्रदान करते उमेश नारायण शर्मा

सुहानी को प्रशस्ति पत्र प्रदान करते उमेश नारायण शर्मा, साथ में खड़े हैं इम्तियाज़ अहमद गा़जी और एमए क़दीर

सीमा वर्मा को प्रशस्ति पत्र प्रदान करते उत्तर मध्य रेलवे के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी विजय कुमार

शनिवार, 12 नवंबर 2016

गुफ्तगू के दिसंबर-2016 अंक में


3. ख़ास ग़ज़लें (अकबर इलाहाबादी, शकेब जलाली, अहमद फ़राज़, दुष्यंत कुमार)
4. संपादकीय (अखिल भारतीय संस्थाओं का सच)
5-6. डाक (आपके ख़त)
ग़ज़लें
7.बशीर बद्र, वसीम बरेलवी, इब्राहीम अश्क, कल्पना रामानी
8.प्राण शर्मा, सागर होशियारपुरी, अजय अज्ञात, भानु कुमार मुंतज़िर
9.नवीन मणि त्रिपाठी, सरिता पंथी, चित्रा भारद्वाज, ऐनुल बरौलवी
10.अनंत आलोक, डॉ. पुरुषोत्तम यक़ीन, सीमा शर्मा ‘सरदह’, कांति शुक्ला
11. मनोज एहसास, असद अली असद, अनिल पठानकोटी, ओम प्रकाश यती
12.अशोक आलोक, एएफ़ नज़र, डॉ. वारिस अंसारी, आसिफ़ अल अतश
13.फ़ैज खलीलाबादी, अमित वागर्थ, सेवाराम गुप्ता ‘प्रत्युष’, हरदीप बिरदी
14. राजकुमार शर्मा, विवेक चतुर्वेदी, ठाकुर दास सिद्ध, वसीम महशर
कविताएं
15-24. कैलाश गौतम, गुलज़ार, प्रो. सोम ठाकुर, यश मालवीय, शैलेंद्र कपिल, गीता कैथल, रामबदन राय, अंजलि मालवीय ‘मौसम’, डॉ. लक्ष्मीकांत शर्मा, अमरनाथ उपाध्याय, दुर्गा प्रसाद मिश्र, श्रुति जायसवाल, रुचि श्रीवास्तव, राघवेंद्र शुक्ल
25-26. तआरुफ़ (डॉ. अनुराधा चंदेल ‘ओस’)
27-29. इंटरव्यू: अजित पुष्कल
30-31.चौपाल: सोशल मीडिया पर चल रहे साहित्य कर्म की वास्तविकता
32-34. विशेष लेख (उमर खय्याम: फ़ारसी का महान शायर)
35-39.कहानी (एक नज़र का वो प्यार: जितेंद्र निर्मोही)
40. लधु कथा (हिन्दी साहित्य 150 रुपये किलो: ममता देवी)
41-43. तब्सेरा (पीपल बिछोह में, स्वाति, मचलते ख़्वाब, शब्द संवाद)
44-46. अदबी ख़बरें
47. गुलशन-ए-इलाहाबाद (दूधनाथ सिंह)
48-51. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी के सौ शेर
52-53. धनंजय कुमार का परिचय
54-55. धनंजय कुमार के इंद्रधनुषी रंग- कंचन शर्मा
56. किताना खामोश था वह मुझसे मिलकर: डॉ. विनय कुमार श्रीवास्तव
57-80. धनंजय कुमार की ग़ज़लें

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

ज़लज़ला, मैं ग़ज़ल कहती रहूंगी, मुखर होते मौन और सीप

-इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
लखनऊ की सुधा आदेश काफी समय से लेखन में सक्रिय हैं। कविता, कहानी, उपान्यास और यात्रा वृत्तांत आदि लिखती रही हैं। अब तक कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हाल ही में ‘ज़लज़ला’ नामक कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ है। 116 पेज वाली इस पुस्तक में कुल सात कहानियां शामिल की गई हैं। सुधा आदेश की इन कहानियों में पारिवारिक मूल्य, रिश्तों में पारदर्शिता, प्यार, अनत्व और संस्कृति का वर्णन किया गया है। लगभग हर कहानी में सामाजिक रिश्ते को बनाए रखते हुए पारिवारिक मार्यादों को निभाने और एक-दूसरे के प्रति ईमानदारी और प्यार से रहने का सबक दिया गया है। एक अच्छा और सुखी परिवार और समाज वही होता है, जहां लोग अपने रिश्तों के प्रति ईमानदारी और प्यार के साथ रहते हैं, तभी परिवार खुशहाल रहता है और समाज तरक्की की तरफ अग्रसर होता है। ‘जलजला’ नामक कहानी में एक ऐसे परिवार का वर्णन किया गया है, जिसमें पति और पत्नी दोनों की नौकरी करते हैं, पति एक बड़ी कंपनी में मैनेजर है तो पत्नी टीवी सीरियल, न्यूज़ एंकरिंग और एड की दुनिया में सक्रिय है। पति तो अपने पारिवारिक रिश्तों के प्रति बेहद गंभीर है, लेकिन पत्नी चकाचौंध की दुनिया में इतनी अधिक मगन है कि उसे पारिवारिक रिश्तों की कोई परवाह नहीं है, अपने पति यहां तक की अपनी बेटी से भी काफी दूर है। यहां तक उसने अपनी बेटी को गोंद में लेकर कभी से खिलाया तक नहीं, पति के लाख समझाने पर भी वह नहीं सुनती। इस दौरान उसके स्तन में कैंसर होने का पता चलता है तो उसके पैरो तले जमीन सिखक जाती है, उसके आसपास उसका कोई अपना नज़र नहीं आता। ऐसे में उसका पति ही उसका सहारा बनता है, उसका इलाज करवाता, दिन-रात उसकी सेवा करता है। तब उसे पारिवारिक मूल्यों, रिश्तों का पता चलता है और फिर वह अपनी जिम्मेदारियों का निवर्हन करने लगती है। इसी तरह अन्य कहानियों में भी पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों का बेहतरीन ढंग से वर्णन किया गया है। मनसा पब्लिकेशन, लखनऊ ने इसे प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 175 रुपये है।
मुंबई की कल्पना रामानी काफी सीनियर साहित्यकार हैं। चार दशकों से अधिक समय से रचनारत हैं, ग़ज़ल के अलावा, गीत, दोहे, कुंडलियां आदि लिखती रही हैं। अब तक दो नवगीत संग्रह प्रकाशित हुए हैं, हाल में इनका ग़ज़ल संग्रह ‘मैं ग़ज़ल कहती रहूंगी’ प्रकाशित हुआ है। आज के समय में ग़ज़ल की लोकप्रियता काव्य विधाओं में सर चढ़कर बोल रही है। भारत समेत आसपास के देशों में ग़ज़लें खूब लिखी-पढ़ी जा रही हैं, न सिर्फ़ हिन्दी-उर्दू में बल्कि तमाम विदेशी भाषाओं में भी। ऐसे माहौल में ग़ज़ल संग्रह का सामने आना बहुत आश्चर्यजनक तो नहीं है, लेकिन कथ्य और छंद के रूप में प्रयोग की जानी कलाकारी और अभिव्यक्ति चर्चा का विषय ज़रूर बनती है, और बनना भी चाहिए, क्योंकि ग़ज़ल की लोकप्रियता ने जहां हर किसी को इसके लेखन की तरफ अग्रसर किया है, वहीं इसके छंद की जटिलता ने लोगों को परेशान भी किया है, जिसकी वजह से तमाम अधकचरी रचनाएं ग़ज़ल के नाम पर सामने आ रही हैं। मगर तल्लसी की बात यह है कि अब तमाम लोग इसके छंद को जानने-समझने के इच्छुक दिख रहे हैं। ऐसे माहौल में कल्पना रामानी की यह किताब एक तरह से लोगों के लिए आइना दिखाती हुई प्रतीत हो रही है। क्योंकि इन्होंने ग़ज़ल की परंपरा और मिज़ाज का समझने के बाद ग़ज़ल सृजन का काम शुरू किया है। यही वजह है कि इनकी ग़ज़लों में आमतौर पर छंद और बह्र की ग़लती नहीं दिखती। जहां तक इनकी ग़ज़ल के विषय वस्तु की बात है, इनकी ग़ज़लों को पढ़ने बाद स्वतः ही स्पष्ट होने लगता है कि इन्होंने अपने जीवन और आसपास के परिदृश्य में जो भी देखा है, उसका वर्णन बड़ी ही इमानदारी और तत्परा के साथ किया है। यही वजह है कि इनकी ग़ज़लों में समाज, देश, धर्म, राजनीति, रिश्ते, पर्व आदि का वर्णन जगह-जगह मिलता है। एक ग़ज़ल का मतला इनकी रचनात्मकता और सोच को दर्शाता है -‘छीन सकता है भला, कोई किसी का क्या नसीब/आज तक वैसा हुआ, जैसा कि जिसका था नसीब।’ पानी का संकट और उसके व्यवसायीकरण ने मुश्किलें पैदी कर दी हैं, जबकि निश्चल होकर पानी का बहना अपने आप में एक छंद का रूप धारण करता है, मगर स्थिति काफी बदल चुकी है। इस परिदृश्य का वर्णन करती हुई कल्पना रामानी कहती है- ‘कल तक कलकल गान सुनाता, बहता पानी/बोतल में हो बंद, छंद अब भूला पानी। जब संदेश दिया पाहुन का कांव-कांव ने/सूने घट की आंखों में, भर आया पानी।’ इसी तरह पूरी पुस्तक में जगह-जगह उल्लेखनीय अशआर से सामना होता है। 104 पेज वाले इस सजिल्द संग्रह को अयन प्रकाशन, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 220 रुपये है। इस प्रकाशन के लिए कल्पना जी बधाई की पात्र हैं।
हाल ही में मनमोहन सिंह ‘तन्हा’ का मुक्तक संग्रह ‘तन्हा नहीं रहा तन्हा’ प्रकाशित हुआ है, वे वर्तमान दौर के ऐसे शायरों में शुमार किए जाते हैं, जो तमाम व्यस्तताओं के बीच शायरी को अपना सबसे बड़ा कर्म समझते हैं। इन्होंने शायरी की शुरूआत की तो यूं ही शेर कहना शुरू नहीं कर दिया, बल्कि पारंपरिक तरीके को अपनाया, शायरी के गुण-दोष और तहजीब को समसझने के लिए बाक़ायदा एक उस्ताद की तलाश की, उस्तादी के तमाम पेचो-खम को निभाया और फिर शेर कहना शुरू किया। जबकि वर्तमान समय के अधिकतर नये लोग शायरी की तहजीब और परंपरा को समझे बिना ही इस मैदान में कूद पड़ रहे हैं, और कुछ भी उल्टे-सीधे शेर कहकर अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा शायर कहने से गुरेज नहीं कर रहे हैं, यही वजह है कि शायरी का मैयार लगातार गिर रहा है, आम आदमी शायरी से दूर भाग रहा है। ऐसे माहौल में ‘तन्हा’ की शायरी और उनका व्यक्तित्व एक मिसाल है, जिसकी हर हाल में कद्र की जानी चाहिए। इनकी शायरी में अपने प्रीतम के लिए स्वच्छ गंगा-जल जैसा तन-मन दिखता है, जो अपने प्रियसी के लिए कुछ भी करने को तैयार है, उसके साथ जीने-मरने की बात भी करता है, मगर दुनिया की हक़ीक़ी रंग को भी दिखाता है। एक जगह प्र्रेम का वर्णन करते हुए कहते हैं-‘ बहुत हसीन मोहब्बत का जाम आता है/कुबूल कीजै वफ़ा का सलाम आता है। अजीब कैफ़ियते दिल है क्या कहें ‘तन्हा’/हमारे लब पे तुम्हारा ही नाम आता है।’ज़िन्दगी के प्रति नज़रिया हमेशा पॉजीटिव होनी चाहिए, क्योंकि ज़िन्दगी जिन्दीदिली का नाम है, लेकिन इसमें तहज़ीब के दायरे को क्रास करने की इज़ाजत कोई भी सभ्य समाज नहीं दे सकता, इसे तन्हा ने अपनी ज़िन्दगी का उसूल बना लिया है तभी तो कहते हैं-‘जीने के ढंग हमको तजुर्बों के मिले हैं /मंज़िल के पते नेक उसूलों से मिले हैं।’ इस तरह कुल मिलाकर मनमोहन सिंह ‘तन्हा’ की ‘तन्हा अब नहीं रहा तन्हा’ नामक यह किताब अदब की दुनिया के लिए खा़स है, जिसका अवलोकन और अध्ययन करने के बाद नई ताज़गी का एहसास होना लाज़िमी है। इस प्रकाशन के लिए तन्हा मुबारकबाद के हक़दार हैं। 96 पेज वाली इस पुस्तक सजिल्द पुस्तक को ‘गुुफ्तगू पब्लिकेशन’ इलाहाबाद ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 125 रुपये है।
भीलवाड़ा, राजस्थान की रेखा लोढ़ा ‘स्मित’ सक्रिय रचनाकार हैं। कई वर्षों से साहित्य सृजन कर रही हैं। तमाम पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं बराबर प्रकाशित होती रही हैं। हाल में इनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हुईं हैं। पहली पुस्तक ग़ज़ल संग्रह ‘मुखर होता मौन’ है। इनके कलाम को पढ़ने के बाद सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ये काव्य जगह की परंपरा और अध्ययन को अपने अंदर पूरी आत्मसात कर चुकी हैं। जीवन के सच्चे और कडुवे अनुभवों को समझा है और तदानुसार आगे बढ़ने का संकल्प लिया है। छात्र जीवन में एक झूठ पकड़े जाने और स्कूल में अध्यापिया से डांट खाने के बाद इन्होंने हमेशा सच्चाई के रास्ते पर चलने का संकल्प लिया और ऐसा ही करके दिखाया। सच्चाई के संकल्प को हमेशा निभाते रहना आज के दौर में बहुत बात है। इनका यह संकल्प और आत्मसात इनकी रचनाओं में जगह-जगह स्पष्ट होता दिखता है। ज़िन्दगी से रुबरु होते हुए दुनियावी दर्द का बयान करती हुई एक जगह खुद कहती हैं-‘बज़्म में लाए थे दिल टूटा हुआ/आज तक जिसका नहीं चर्चा हुआ। उड़ गई अफ़वाह सारे गांव में/राज़ उनसे जो जरा साझा हुआ।’ग़ज़ल का छंद यू तो कठिन है ही, उसमें भी छोटी बह्र में ग़ज़ल कहना और अधिक कठिन, लेकिन कमाल की बात यह है कि रेखा स्मित ने ज़्यादातर छोटी बह्रों में ही ग़ज़ल कहा है भी वो शानदार लबो-लहजा में। एक ग़ज़ल का मतला और शेर देखिए-‘प्यार के सपने सजाए जाएंग/ चांद धरती पर उतारे जाएंगे। हारने से जो कभी डरता नहीं/हाथ में उसके ही तमगे जाएंगे।’
रेखा लोढ़ा ‘स्मित’ की दूसरी पुस्तक है ‘सीप’। कविताओं के इस संग्रह में देश और समाज से जुड़ी सच्चाइयों के साथ जीवन के सुख-दुख का वर्णन बड़ी ही सहजता से किया गया है। गांव की स्त्रियों की जीवनचर्या और उसकी जिम्मेदारी का वर्णन करते हुए एक जगह कहती हैं- ‘ वह उठती है मुंह अंधेरे/करती है चारा पाना/गायों के गले में बंधी/घुघरमाल को हिला उठा देेती है/हौले से/अलसाये दिन को/तिल तिल जलकर/ कंदील की तरह’। अपने सुनहरे एहसास और पल का वर्णन वे अपनी एक कविता में इस तरह करती हैं-‘तुम छोड़ गये थे/जो पल/ तुम्हारे सानिध्य के/उन्हें मैंने तह करके/सिरहाने के नीचे/ रख लिये हैं/जब भी आती है/तुम्हारी याद/उन्हें निकाल कर/महसूस कर लेती हूं’। समय के साथ लोगों के जीवन, सुख-दुख, रहन-सहन, मेल-मिलाप का अंदाज़, सोचने का नज़रिया बदलता है। अच्छे अनुभवों के साथ नेक काम करने की तमन्ना जाग उठती है। हालांकि कभी-कभी परेशानियों के पल में सब कुछ निगेटिव दिखने लगता है, तब प्रायः अव्यवहारिक कदम भी जीवन में उठा लेते हैं, लेकिन हर हाल में सच और सही चीज़ ही व्यवहारिक होता है। इसी तरह के एक अनुभव का जिक्र करते हुए कहती हैं-‘मैं भी वही हूं/तुम भी वहीं हो/और शब्द भी वहीं हैं/फिर उनकी अभिव्यक्ति/क्यों बदल गई है/ तब शब्द भावों से ओतप्रोत/यूं संप्रेषित होते थे/मानो लोहे को/चुम्बक से खींचा हो/ और तुम्हें/सराबोर कर देत थे/प्रेम से/ तुम्हारे चेहरे पर/फैली मुस्कान/तुम्हारी संतुष्टी प्रमाणित करती थी।’ इस तरह पुस्तक में जीवन के जुड़े हुए विभिन्न पहलुओं का वर्णन शानदार ढंग से किया गया है। दोनों पुस्तकें पेपर हैं और 144 पेज की हैं। मुखर होते मौन की कीमत 125 और सीप की कीमत 150 रुपये है। इन्हें बोधि प्रकाशन, जयपुर ने प्रकाशित किया है। इन पुस्तकों के लिए रेखा लोढ़ा ‘स्मित’ बधाई की पात्र हैं।
(published in guftgu: july-sep 2016 edition)

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

लघु पत्रिका चलाना बड़े जीवट का कार्य: डॉ. अदीब


सुधाकर अदीब और प्रभाशंकर शर्मा


उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के निदेशक रहे सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. सुधाकर अदीब का जन्म 17 दिसंबर 1955 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में हुआ था। इनकी प्रमुख कृतियों में ‘अथ मूषक उवाच’, ‘चीटी के पर’, ‘हमारा क्षितिज’, ‘मम अरण्य’, ‘मृण तृष्णा’, ‘देह यात्रा’, ‘अनुभूति व संवेदना’ के अलावा दर्जनभर अन्य किताबें प्रकाशित हैं। साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए आपको अनेक सम्मान प्राप्त हुए हैं। 08 मार्च-2016 को ‘गुफ्तगू’ के महिला विशेषांक के विमोचन के अवसर पर आपका इलाहाबाद आगमन हुआ। इस दौरान पत्रिका के उप संपादक प्रभाशंकर शर्मा और रोहित त्रिपाठी ‘रागेश्वर’ ने आपसे मुलाकात कर बातचीत की, प्रस्तुत है उस बातचीत के संपादित अंश-
सवाल: आपके लेखन की शुरूआत कैसे हुई?
जवाबः जब मैं मुरादाबाद में कक्षा आठ का विद्यार्थी था, उस ज़माने में अतुल टंडन साबह थे, जो अच्छे कहानी लेखक व हमारे बड़े भाई के मित्र थे, उनके साथ उठना बैठना हुआ और वहीं से कहानियों की ओर रूझान हुआ। मुरादाबाद में एक पत्रिका निकलती थी ‘साथी’, उसमें मेरी शुरूआती कहानियां छपी और लिखने-पढ़ने का दौर चलता रहा। परंतु पुस्तक के रूप में जो कहानी संग्रह वे 1990 के बाद आए।
सवाल: शुरूआत कहानियों में जो आपको याद हो उल्लेखनीय उसका जिक्र कीजिए?
जवाब: शुरूआत कहानियों में कोई ख़ास बताने वाली चीज़ नहीं है। जैसे होता कि शुरू में लोग अपनी कल्पनाओं से लिखते हैं, अनुभव कम होते हैं। मैंने बहुत सारी कहानियां लिखी थीं और प्रकाशित हुई थीं जैसे- ‘राह भटका’, ‘’पांच घेरे’ आदि। लेकिन ये कहानियां अब मेरे पास नहीं हैं, मेरे मित्र लोग किताब मांगकर ले गए और गुम हो गई। आज मेरे पास प्रमाण स्वरूप् किसी को देने के लिए नहीं है। बाद में जो कुछ प्रकाशित हुआ वह तो उपलब्ध है ही। बचपन में मैं कविताएं लिखता था स्कूल के दिनों में। अन्त्याक्षरी प्रतियोगिताओं में भी जाता था। यह बात कक्षा सात और आठ की है। शुरूआत कविता लेखन से हुई थी उसके बाद कहानी लेखन शुरू हुआ।
सवाल: हिन्दी संस्थान द्वारा पुस्तक प्रकाशित करने के लिए धनराशि उपलब्ध कराई जाती है, इसे प्राप्त करने का क्या तरीका है? लगभग 90 फीसदी साहित्यकार इस बारे में नहीं जानते?
जवाबः जिन लेखकों की सालाना इनकम पांच लाख तक की है, वे साहित्यकार अपनी पांडुलिपी देकर अप्लाई कर सकते हैं। इसके लिए संस्थान से विज्ञापन निकलता है। समस्त लोगों की प्रतियां विद्वानों के पैनल में रखी जाती है और उन्हें पढ़कर उनका चयन किया जाता है। छपने योग्य प्रतिलिपियां होती हैं उन्हें 50 हजार रुपये तक का प्रकाशन योगदान दिया जाता है। लेकिन यह साधनविहीन रचनाकारों के लिए है। इसके अलावा संस्थान द्वारा एक प्रकाशन और होता है, जिसमें यूजीसी से मान्यता प्राप्त कोर्स हैं उनके अंतर्गत पाठ्यक्रमों से जुड़े विषयों संबंधित पुस्तकें छापता है और उन पुस्तकों की बिक्री आदि करवाता है।
सवाल: पहली केटेगरी में जो आपने बताया कि पुस्तकों का प्रकाशन अनुदान 50 अनुदान रुपये मिलता, क्या इसके अंतर्गत पुस्तकों की कुछ संख्या भी निर्धारित होती है?
जवाब: इसमें बहुत डिटेल और तकनीकि बात पूछेंगे तो हो सकता है हम कुछ बताएं और कुछ मिस हो जाए, अच्छा होगा कि आप इसके विषय में हिन्दी संस्थान की वेबसाइट देख लें। इस समय मैं संस्थान का निदेशक नहीं हूं, इसलिए मैं ऑथेंटिक व्यक्ति नहीं हूं।
सवाल: हिन्दी संस्थान में पुरस्कार प्रदान करने की क्या प्रक्रिया है?
जवाब: इसकी नियमावली हिन्दी संस्थान की वेबसाइट पर आप देख सकते हैं। वैसे विभिन्न 34 विधाओं की पुस्तकों को पुरस्कार दिया जाता है और 60 वर्ष से उपर की कटेगरी के लिए अलग से पुरस्कार की व्यवस्था है। इन पुरस्कारों के लिए विज्ञापन प्रकाशित होता है। इसमें कैटेगरीवार पुस्तकें दो विशेषज्ञों के पास जाती हैं और ये विशेषज्ञ इन पर नंबर देते हैं। कोेई विवाद होने पर पुरस्कार समिति अंतिम निर्णय लेती है।
सवाल: हिन्दी संस्थान के आपका कार्यकाल कैसा रहा?
जवाब:  बहुत अच्छा रहा, मुझे बहुत ही प्रसन्नता है कि मुझे दो बार कार्य का अवसर मिला। एक बार सवा साल लगभग दूसरी बार साढ़े तीन साल। अपने कार्यकाल में मुझसे जो कुछ बन पड़ा मैंने सेवा की।
सवाल: क्या समस्याएं भी आईं कभी?
जवाब: तमाम समस्याओं का निराकरण हुआ है, कर्मचारियों के तमाम हित की बातें हुईं। बहुत से पुरस्कार रुके हुए थे जिसे वर्तमान सरकार ने बहाल किया और पुरस्कार की धनराशि हुई। हिन्दी संस्थान के लाइब्रेरी हाल व बिक्री केंद्र का नवीनीकरण और आधुनिकीकरण कराया गया।
सवाल: वर्तमान समय में कौन ऐसे लेखक हैं जो गद्य लेखन में आपकी नज़र में अच्छा लिख रहे है या आपके पंसदीदा लेखक?
जवाब: उपन्यासकारों में जिन्हें मैं जानता हूं, जिनसे मैं प्रभावित हूं, उनमें कृष्णमूर्ति जी हैं, शिवमूर्ति जी हैं। कथाकारों में दयानंद पांडेय, तेजेंद्र शर्मा, मै़त्रेयी पुष्पा जी हैं, चंद्रकला जी हैं। ये सभी अच्छा लिख रहे हैं, बहुत प्रेरणादायक लिखते हैं। कुछ मेरे समकालीन हैं और कुछ वरिष्ठ हैं।
सवाल: इस समय साहित्य में पठनीयता कम होती जा रही है, इसका क्या कारण है?
जवाब: इसमें दृश्य-श्रव्य माध्यमों का बहुत प्रभाव है। दूसरा यह है कि प्रकाशित पुस्तकों के मूल्य बहुत ज़्यादा हैं और दाम अधिक होने की वजह से पाठकों तक पुस्तकें नहीं पहुंच पाती है। अब इधर प्रकाशकों की समझदारी बढ़ी है, जो पुस्तकें ज्यादा चर्चित होती हैं, जिनकी मांग होती है ऐसी पुस्तकों की पेपर बैक अब पहल से ज्यादा निकलने लगे हैं। इस हद तक तो समस्या हल हुई है, अभी भी इसमें बहुत कुछ होना बाकी है। फिर भी में समझता हूं कि प्रिंटेड सामग्री या जो पुस्तक को पढ़ने का आनंद है वह किसी अन्य माध्यम से कहीं ज्यादा है। मुझे उम्मीद है आने वाले समय में पठनीयता बढ़ेगी और पुस्तकों का महत्व कम नहीं होगा।
सवाल: हमारी पत्रिका ‘गुफ्तगू’ और अन्य लघु पत्रिकाओं के बारे में आपकी क्या राय है?
जवाब: लघु पत्रिकाएं बहुत अच्छा कार्य कर रही हैं और बहुत ही सीमित संसाधनों में अच्छा कर रही हैं। जहां प्रतिबद्धता होती है वहां पर पत्रिकाएं दूर तक चलती हैं। अधूरे मन से जो कार्य होता है उसकी सफलता संदिग्ध होती है। बहुत सारी पत्रिकाएं शुरू होती हैं और कुछ ही समय में काल कलवित हो जाती हैं। लधु पत्रिका चलाने में बहुत सी समस्याएं आती हैं। फिर भी आज के ज़माने में लघु पत्रिका चलाना बहुत बड़े जीवट का कार्य है। मैं समझता हूं ‘गुफ्तगू’ पत्रिका को 12 साल से अधिक हो गए हैं, इसे संयोजक, संचालक और संपादक ये सभी बहुत ही बधाई पात्र हैं।
सवाल:कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण है, क्या यह प्रासंगिकता अब भी हमारे समाज में कायम है?
जवाब: जो भी रचनाकार है उसका प्राथमिक दायित्व सामाजिक सरोकारों से जुड़ा होना होता है। हम चाहे समकालीन विषयों के उपर लिखें या ऐतिहासिक संदर्भों को लें, लेकिन अगर हमारे लेखन में सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव और समाजिक विसंगतियों के प्रति प्रतिरोध का स्वर लेखक या कवि का मूल उद्देश्य होना चाहिए। यही साहित्य का मर्म है। ज़ाहिर सी बाती है साहित्य समाज का दर्पण है और उस दर्पण को दिखाने वाला सहित्यकार ही है। लेखक या कवि की जिम्मेदारी है कि वह सकारात्म सोच के साथ अपने लेखन को आगे बढ़ाए।
सवाल:  इलेक्टानिक मीडिया के आने के से प्रिंट मीडिया या साहित्य का प्रभाव कम हुआ है क्या?
जवाब: साहित्य तो आज भी अच्छा और सतही दोनों लिखा जा रहा है, लेकिन दुखद यह  है कि अच्छा साहित्य इलेक्टानिक मीडिया में स्थान नहीं बना पा रहा है। आजकल जिस प्रकार के सीरियल परोसे जा रहे हैं, यह आम लोगों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है। कुछ चैनल नागिन या चुड़ैल के सीरियल भी दिखाते रहते हैं, यह ठीक नहीं है। कुछ चैनल अच्छा भी दिखाते हैैं। इलेक्टानिक मीडिया में अच्छे साहित्य को स्थान मिलना चाहिए।
प्रभाशंकर शर्मा, सुधाकर अदीब और रोहित त्रिपाठी ‘रागेश्वर’

गुफ्तगू के अप्रैल-जून 2016 अंक में प्रकाशित

शनिवार, 3 सितंबर 2016

गुलशन-ए-इलाहाबाद : अजीत पुष्कल

ajit pushkal

                                                                         
                                                 -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
अजीत पुष्कल जी वर्तमान समय में इलाहाबाद के सबसे अधिक बुजुर्गों में से एक हैं। 81 वर्ष की उम्र में भी बेहद सक्रिय हैं, आज भी साहित्य सृजन करते हुए विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में खूब छप रहे हैं, देश और समाज की भलाई के लिए चिंतित रहते हैं। आपका जन्म 08 मई 1935 को बांदा जिले के पैगंबरपुर गांव में हुआ। पिता देवी प्रसाद श्रीवास्तव गांव में ही खेती बाड़ी करते थे। अजीत पुष्कल ने प्रारंभिक शिक्षा गांव में पूरी करने के बाद आगरा विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ‘प्रेमचंद की शब्दावली’ पर शोध कार्य शुरू किया, लेकिन विभिन्न कारणों से यह शोध पूरा नहीं हो पाया। फिर कुछ इलाहाबाद के जुमना क्रिश्चिय कालेज में अध्यापक कार्य किया, इसके बाद सन 1961 में केपी इंटर कालेज में हिन्दी के अध्यापक के तौर कार्य शुरू किया, जहां से 1995 में सेवानिवृत हुए। कुछ दिन पहले ही आपकी पत्नी का देहांत हो गया। आपके एक पुत्र और एक पुत्री है। बेटा नई दिल्ली के मिनिस्टी आफ लॉ एंड जस्टिस में अधिकारी है। बेटी लखनउ में भारतेंदु नाट्य एकेडेमी कार्यरत है।
साहित्य के क्षेत्र में आप शुरू से ही सक्रिय रहे हैं। कविता, कहानी, लधुकथा, नाटक और एकांकी लिखते रहे हैं। छात्र जीवन से ही केदारनाथ अग्रवाल और नागुर्जन के संपर्क रहे हैं, उनके  साथ बहुत कुछ देखा और समाज के लिए कार्य किया है। प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़कर विभिन्न आंदोलनों के सहभागी रहे हैं, इलाहाबाद इकाई के अध्यक्ष रहने के अलावा 1980 में प्रलेस के उत्तर प्रदेश इकाई के महासचिव रहे हैं। इनके नेतृत्व में कई बार प्रलेस के ऐसे कार्यक्रम हुए हैं, जिनमें सरदार जाफ़री से लेकर मज़रूह सुल्तानपुरी तक आते रहे। आपके लिखे नाटकों का मंचन इलाहाबाद के अलावा लखनउ, नई दिल्ली, भोपाल, शाहजहांपुर, आजमगढ़ आदि जगहों पर समय-समय पर किया जाता रहा है। रेडियो का बहुचर्चित कार्यक्रम ‘हवा महल’ में आपके लिखे 50 से अधिक नाटकों का प्रसारण हो चुका है, अब भी समय-समय पर उन नाटकों का प्रसारण होता है। अब तक आपकी प्रकाशित पुस्तकों में काव्य संग्रह ‘पत्थर के बसंत’, तीन कहानी संग्रह ‘नई इमारत’, ‘नरकुंड की मछली’ और ‘जानवर जंगल और आदमी’ हैं। कई नाटकों ,एकांकी, कविताओं आदि का प्रकाशन धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका आदि पत्रिकाओं में हुआ है। इनके लिखे ‘चेहरे की तलाश’, ‘प्रजा इतिहास रचती है’, ‘भारतेंदु चरित्र’,‘जनविजय’, ‘घोड़ा घास नहीं खाता’ और ‘जल बिन जीयत पियासे’ आदि नाटक बेहद मक़बूल हुए हैं, इनका मंचन देश के अधिकर शहरों में समय-समय पर होता रहा है। ‘भारतेंदु चरित्र’ पर शोधकार्य भी हुआ, एनएसडी में इसका कई बार मंचन किया गया। ‘जनविजय’ नामक नाटक प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ ने किया था। बुंदेलखंड ग्रामांचल पर आपने काफी काम किया है, इसकी पृष्ठभूमि में कई छोटे-छोटे नाटक और एंकाकी आपने लिखा है। इनमें ‘अनुबंधहीन’, ‘नई धरती के लोग’ और ‘किट्टी’ काफी मशहूर हुए हैं। फिल्म ‘नदिया के पार’ के निर्देशक गोविंद मौलिस इनके लिखे नाटक ‘किट्टी’ को पढ़ने के बाद इलाहाबाद आए थे, उन्होंने इस पर फिल्म बनाने की इच्छा जाहिर की और इनक सहमति से ‘किट्टी’ पर फिल्म बनाने के लिए काम शुरू कर दिया। लेकिन बाद में किसी व्यवधान के कारण फिल्म नहीं बन पाई।
अजीत पुष्कल आजकल इलाहाबाद के झूंसी में रहते हैं। पत्नी के देहांत और बच्चों के दूसरे शहरों में नौकरी करने की वजह से आजकल वृद्धावस्था में खुद ही भोजन बनाना पड़ता हैं, इसके बावजूद लेखन में बेहद सक्रिय हैं। आजकल कविता लेखन की ओर अधिक सक्रिय हैं।
( गुफ्तगू के जुलाई-सितंबर 2016 अंक में प्रकाशित)

बुधवार, 17 अगस्त 2016

गुफ्तगू के सितंबर-2016 अंक में



3. ख़ास ग़ज़लें: फ़िराक़ गोरखपुरी, मज़रूह सुल्तानपुरी, शकेब जलाली, आरपी शर्मा ‘महर्षि’
4. संपादकीय: शायरी की मर्यादा और भाषा
5-6. आपके ख़त
ग़ज़लें
7. बेकल उत्साही, जावेद अख़्तर, बशीद बद्र, राहत इंदौरी
8. मुनव्वर राना, वसीम बरेलवी, इब्राहीम अश्क, बुद्धिसेन शर्मा
9.किशन स्वरूप, विजय लक्ष्मी विभा, डॉ. तारा गुप्ता, नीना सहर
10.अनुराधा चंदेल ‘ओस’, इरफ़ान कुरैशी, रेखा लोढ़ा, असद अली असद
11. अक़ील नोमानी, इरशाद आतिफ़, खुर्शीद खैराड़ी, आर्य हरीश कोशलपुरी
12. भारत भूषण जोशी, शिबली सना, शादमा अमान ज़ैदी, फरीद
13. प्रखर मालवीय, प्रज्ञा सिंह परिहार
कविताएं
14.कैलाश गौतम, माहेश्वर तिवारी
15. यश मालवीय, भोलानाथ कुशवाहा
16. कंचन शर्मा, दिनेश कुशभुवनपुरी
17. डॉ. राजरानी शर्मा
18. स्नेहा पांडेय, रुचि श्रीवास्तव, लोकेश श्रीवास्तव
19. सरस दरबारी, ईश्वर शरण शुक्ल
20-21. तआरुफ़: शैलेंद्र कपिल
22-25. इंटरव्यू: डॉ. जगन्नाथ पाठक
26-27. चौपाल:  फिल्मों में लिखने वालों को साहित्य में गंभीरता से नहीं लिया जाता
28-31. विशेष लेख: ग़ज़ल का जादू और उर्दू की नौआबाद बस्तियां - मुनव्वर राना
32. आजकल:  विचारधारा नहीं, प्रलेस अप्रासंगिक- माहेश्वर तिवारी
33-36. कहानी: रिश्ते का समीकरण - अंशुमान खरे
37-39. तब्सेरा: ज़लज़ला, मैं ग़ज़ल कहती रहूंगी, तन्हा नहीं रहा तन्हा, मुखर होते मौन, सीप
40-43. अदबी खबरें
44. गुलशन-ए-इलाहाबाद: अजीत पुष्कल
45-48. मनीष शुक्ला के सौ शेर
49-50. ग़ज़ल व्याकरण भाग-2: डॉ. नईम साहिल
51-52. तंजो-मिजाह: नाचे ताल तलैया में गोपाल मेढक ताक धिना-धिन- शिवशंकर पांडेय
परिशिष्ट: अरुण अर्णण खरे
54. अरुण अर्णण खरे का परिचय
55. सोच और एहसास का आइना: राहत इंदौरी
56-57. इंजीनियरिंग में कमाल और लेखन में लाजवाब: कंचन शर्मा
58. संवेदनशील कवि के रूप में लब्ध प्रतिष्ठित:  कांति शुक्ल
59. अरुण अर्णण खरे एक बहुआयामी व्यक्तिः धनश्याम कैथिल ‘अमृत’
60.समाजपयोगी और संवेदनशील: डॉ. तारा गुप्ता
61-80. अरुण अर्णण खरे की कविताएं