tag:blogger.com,1999:blog-19015112790739462042024-03-13T10:29:21.767+05:30गुफ्तगूहिन्दुस्तानी साहित्य की त्रैमासिक पत्रिकाeditor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.comBlogger433125tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-37035555573631282023-06-07T13:00:00.001+05:302023-06-07T13:00:10.902+05:30महरानी की ग़ज़लां में समाज का दर्द<p><span style="color: red; font-size: medium;">पुस्तक ‘मेरी तल्खियां’ के विमोचन अवसर पर बोले छत्तीसगढ़ के पूर्व डीजी</span></p><p><br /></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjg0XQimfWkNLJwqS4n7RKRZiKwyAxbOeYgo26kBMcrep6sG_PtnZW8ub90dVJfgG9D6uzP8QxdcQVB-sF5jal5sYDdZLCRP3_yttZtkmNlUiM78vbdOG8qEDE5rKfXlpmPiX7Vzt1wquZ3jNCX1j4qzKJKnCfSb9q-Qqa06kHB3UqCpDdfFGOMhqZT/s1009/vimochan1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="486" data-original-width="1009" height="193" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjg0XQimfWkNLJwqS4n7RKRZiKwyAxbOeYgo26kBMcrep6sG_PtnZW8ub90dVJfgG9D6uzP8QxdcQVB-sF5jal5sYDdZLCRP3_yttZtkmNlUiM78vbdOG8qEDE5rKfXlpmPiX7Vzt1wquZ3jNCX1j4qzKJKnCfSb9q-Qqa06kHB3UqCpDdfFGOMhqZT/w400-h193/vimochan1.jpg" width="400" /></a></div><br /><span style="color: #3d85c6;">प्रयागराज। नरेश महरानी की ग़ज़लों में समाज का लगभग प्रत्येक पहलू स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, इनकी ग़ज़लों में समाज का दर्द स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उन्होंने समाज की जिन विडंबनाओं और खूबियों को देखो है, उसी को शायरी का विषय बना लिया है। यही वजह कि इनकी ग़ज़लें आज के समय में पूरी तरह से प्रासंगिक होती दिखाई देती हैं। अपनी अति व्यस्त जीवन में से कुछ समय निकालकर इन्होंने अदब को दिया है। जिसका परिणाम है कि इनका ग़ज़ल संग्रह ‘मेरी तल्खिायां’ प्रकाशित होकर समाज के सामने आ गया है। यह बात 04 जून 2023 को ‘गुफ़्तगू’ की ओर सिविल लाइंस स्थित बाल भारती स्कूल में नरेश महरानी के ग़ज़ल संग्रह ‘मेरी तल्खियां’ के विमोचन अवसर पर छत्तीसगढ़ के पूर्व डीजीपी मोहम्मद वजीर अंसारी ने कही। श्री अंसारी ने कहा कि नरेश महरानी जैसे कलमकार आज से समय की जरूरत हैं। ऐसी किताब का समाज में स्वागत किया जाना चाहिए।</span><p></p><p><span style="color: #93c47d;"> सी.एम.पी. डिग्री कॉलेज में हिन्दी की विभागाध्यक्ष डॉ. सरोेज सिंह ने कहा कि नरेश महरानी ने समय का बहुत अच्छा उपयोग करते हुए रचानाकर्म किया है। जिसका परिणाम है कि इनकी पुस्तक प्रकाशित होकर समाज के सामने आ गई है। जो संवेदनशील नहीं होता, वह इंसान नहीं हो सकता। बेहद व्यस्त व्यापारी होने के साथ-साथ इनके अंदर संवेदनशीलता बहुत अधिक है, इसकी वजह यह है कि इनके अंदर एक कवि बैठा हुआ है। नरेश महरानी आज के समय के बेहतरीन और काबिले-कद्र शायर हैं। </span></p><p><span style="color: #8e7cc3;"> डॉ. धनंजय चोपड़ा ने कहा कि आज के समय में जब लोगों का शब्दों से नाता टूट रहा है, ऐसे में किसी रचनाकार की किताब ्रप्रकाश में आती है तो यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। महरानी की ग़ज़लों में जगह-जगह ख़बरनवीसी दिखाई देती है, ऐसा लगता है कि ये अपनी ग़ज़लें के जरिए ख़बरें लिख रहे हैं। इन्होंने अपनी ग़ज़लों के जरिए समाज की अच्छी पड़ताल की है।</span></p><p><span style="color: #b45f06;"> गुफ़्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि ग़ज़लों को छंद की तलवार से काटने की कोशिश नहीं करना चाहिए। ग़ज़ल के लिए छंद ज़रूरी है, लेकिन सिर्फ़ छंद ही ग़ज़ल नहीं हो सकती। नरेश महरानी इसी मानक को परिपूर्ण करते हुए बड़ी बात अपनी ग़ज़लों के कथन में कहते हैं। इन्होंने जिन चीज़ों को समाज में देखा है उसे ही अपनी ग़ज़ल का विषय बनाया है। डॉ. वीरेंद्र तिवारी ने कहा नरेश महरानी की ग़ज़लें अपने कथ्य में पूरी तरह से सफल हैं, आज ऐसी ही ग़ज़लें कहे जाने की आवश्यकता है। नरेश महरानी ने कहा मैंने समाज में जो भी देखा और समझा है, उसे अपनी ग़ज़लों में बांध दिया है। अब पाठक को फैसला करना है कि मेरी ग़ज़लें कैसी हैं।</span></p><p><span style="color: #674ea7;">दूसरे सत्र में मुशायरे का आयोजन किया गया। अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’, अनिल मानव, प्रभाशंकर शर्मा, नीना मोहन श्रीवास्तव, धीरेंद्र सिंह नागा, हकीम रेशादुल इस्लाम, अफसर जमाल, संजय सक्सेना, शिबली सना, कमल किशोर, तलब जौनपुरी, कविता महरानी, नाज़ ख़ान, सुजीत जायसवाल, मसर्रत जहां, राजेंद्र यादव, तस्कीन फ़ात्मा, अजय वर्मा ‘साथी’, राकेश मालवीय आदि ने कलाम पेश किया। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया।</span></p><div><br /></div>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-50953941789098210512023-05-25T12:06:00.001+05:302023-05-25T12:06:53.271+05:30समय की बात करती हैं प्रमोद दुबे की कहानियां<h1 style="text-align: left;"><span style="color: red; font-size: large;">डॉ. समर की ग़ज़लें वास्तविक समय का चित्रण</span></h1><h2 style="text-align: left;"><span style="color: #ffa400;">दो किताबों के विमोचन पर बोले मशहूर न्यूरो सर्जन डॉ प्रकाश खेतान</span></h2><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgY7voTDBEVbBmZqXEmZoDjSFaKfSJm6B50pbP2IH0eob9sgFOX577fX7VW9iV6XuV4zl9cpX4NU8d9ctm3I6XLe7tUB0d14QfkiSTr1XrRcfw9FPSYI5S32pBUOQAUn0xNkLtrDvVMFy7mm-IbV7dC01m2gi26q_I4KhTgM0hRtS2TpniACbRWq66M/s1252/vimochan.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="670" data-original-width="1252" height="214" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgY7voTDBEVbBmZqXEmZoDjSFaKfSJm6B50pbP2IH0eob9sgFOX577fX7VW9iV6XuV4zl9cpX4NU8d9ctm3I6XLe7tUB0d14QfkiSTr1XrRcfw9FPSYI5S32pBUOQAUn0xNkLtrDvVMFy7mm-IbV7dC01m2gi26q_I4KhTgM0hRtS2TpniACbRWq66M/w400-h214/vimochan.JPG" width="400" /></a></div><br /><p><br /></p><p><span style="color: #6aa84f;">प्रयागराज। आज के समय में अपनी रचनाओं के जरिए समाज की विडंबनाओं को उकेरना, ग़लत चीज़ों के खिलाफ़ अपनी रचनाओं के जरिए खड़ा होना बड़ी बात हैं। कहानियों और ग़़ज़लों के जरिए क़लमकार अपनी बात कहता आया है और आगे भी कहता रहेगा। यह चीज़ स्पष्ट रूप से प्रमोद दुबे की कहानी संग्रह ‘घोंसला’ और डॉ. इम्तियाज़ समर के ग़ज़ल संग्रह ‘मोहब्बत का समर’ में दिखाई देती हैं। इन दोनों ही लोगों ने वर्तमान समय की विसंगतियों को समझा, देखा और परखा है, इसी हिसाब से सृजन किया है। यह बात 21 मई 2023 को साहित्यिक संस्था ‘गुफ़्तगू’ की ओर से करेली स्थित अदब घर में अयोजित कार्यक्रम के दौरान मशहूर न्यूरो सर्जन और कवि डॉ. प्रकाश खेतान ने अपने वक्तव्य मेें कही।</span></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgXCHR1tsBwH7qTUy5g7vX3X2R8guoa10GEM8lI_ADVdNAejmumpBBpIUIuWB0P8WA8Z04A1syKavdgthUo_Es1rPakuNVZJ_bI3kfTFw41JUgN5PsT7FLwO4MQbc18POUZ-kOPg-5nG1vevaFDeIc00B8AkiUz9kT1CymxGTebl6At2msRCRHHcSNK/s1076/shriprakash%20mishra.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1076" data-original-width="1001" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgXCHR1tsBwH7qTUy5g7vX3X2R8guoa10GEM8lI_ADVdNAejmumpBBpIUIuWB0P8WA8Z04A1syKavdgthUo_Es1rPakuNVZJ_bI3kfTFw41JUgN5PsT7FLwO4MQbc18POUZ-kOPg-5nG1vevaFDeIc00B8AkiUz9kT1CymxGTebl6At2msRCRHHcSNK/w373-h400/shriprakash%20mishra.JPG" width="373" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="text-align: left;"><span style="color: red;">श्रीप्रकाश मिश्र</span></span></td></tr></tbody></table><br /><p><br /></p><p><span style="color: #2b00fe;">गुफ़्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि प्रमोद दुबे और डॉ. इम्तियाज़ समर 21वीं सदी के उल्लेखनीय रचनाकार हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं से शानदार उपस्थिति दर्ज़ कराई है। डॉ. वीरेंद्र तिवारी ने कहा कि प्रमोद दुबे ने अपनी कहानियों में समाज की विसंगतियों को बहुत ही मार्मिक ढंग से रेखांकित किया। रेलवे में नौकरी करते हुए श्री दुबे ने जो-जो अनुभव किया, उसका बहुत सटीक ढंग से मूल्यांकन और रेखांकन किया है। कहीं-कहीं इनकी कहानियों में प्रेमचंद की कहानियों के पुट भी मिलते हैं।</span></p><div><br /></div><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjLYllVVt2Duudpo3Oh6O4s1jhtngruWeyKVViTSQJW-CoTPNX7dqLSz-Iua9zHmQilIRgKRCgYMWLK_HhZXUlybmVRA6lboMGVJRkpvgpK5-v60tmQJUpAsnlymhfrDAnZvTSNVt7aaPt7V8tzGtmfBtYHf0js_U0fVz6ZJogkbbCLKw7NKXfLfmYa/s1610/dr.%20prakash%20khetan.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1610" data-original-width="1113" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjLYllVVt2Duudpo3Oh6O4s1jhtngruWeyKVViTSQJW-CoTPNX7dqLSz-Iua9zHmQilIRgKRCgYMWLK_HhZXUlybmVRA6lboMGVJRkpvgpK5-v60tmQJUpAsnlymhfrDAnZvTSNVt7aaPt7V8tzGtmfBtYHf0js_U0fVz6ZJogkbbCLKw7NKXfLfmYa/w276-h400/dr.%20prakash%20khetan.JPG" width="276" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="text-align: left;"><span style="color: red;"> डॉ. प्रकाश खेतान</span></span></td></tr></tbody></table><br /><p><span style="color: #134f5c;">अजीत शर्मा ‘आकाश’ ने कहा कि डॉ. इम्तियाज़ समर को ग़ज़ल की बारीकियों और छंद-बह्र की बहुत अच्छी जानकारी हैं। यही वजह है कि इनके कहन में ग़ज़ल का सलीक़ा और परंपरा पूरी तरह से जगह-जगह दिखाई देती है। आज के समय में ऐसी ही ग़ज़लें लिखे जाने की आवश्यकता है।</span></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhQwbG_dTAu1GkNxf0AnaqWkoIfRGEFjkeja5dh_IaVDbWp-ThfIZCx91vb0S3PXffUfqZrvRcBtVmtLHE6hIkmFTfnwAVRaS2TpL7qIXgq6rFIUyrbEZxLzWRneXparvJ5UG-tmfV-6s980P7bqHB73h5HkaqGKgqo3DdrvVhMYTtjIXGYqIfSrp1u/s1600/imtiyaz%20ghazi.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="820" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhQwbG_dTAu1GkNxf0AnaqWkoIfRGEFjkeja5dh_IaVDbWp-ThfIZCx91vb0S3PXffUfqZrvRcBtVmtLHE6hIkmFTfnwAVRaS2TpL7qIXgq6rFIUyrbEZxLzWRneXparvJ5UG-tmfV-6s980P7bqHB73h5HkaqGKgqo3DdrvVhMYTtjIXGYqIfSrp1u/w205-h400/imtiyaz%20ghazi.jpg" width="205" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="text-align: left;"><span style="color: red;">इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी</span></span></td></tr></tbody></table><br /><p><br /></p><p><span style="color: #2b00fe;"> प्रमोद दुबे ने कहा कि आज प्रयागराज आकर यहां की साहित्यिक गतिविधियों को देखकर धन्य हो गया। जिसके लिए यह शहर मशहूर है, वह आज स्पष्ट रूप से दिखाई दिया। डॉ. इम्तियाज़ समर ने कहा कि गुफ़्तगू और प्रयागराज ने साहित्य की परंपरा को बरकरार रखा है, यह हमारे लिए गर्व की बात है। मेरी किताब का यहां विमोचन मुझे गौरवान्वित करता है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार श्रीप्रकाश मिश्र ने कहा कि लिखना आपके प्रगतिशील होने का प्रमाण है, जो व्यक्ति प्रगतिशील होता है, वहीं अपने विचारों कागज पर उकेरता है। प्रमोद दुबे और डॉ. इम्तियाज़ समर की रचनाएं मौलिक, पारदर्शी और समाज को दिशा देने वाली हैं, आज के समय में ऐसे ही लेखन की आवश्यकता है। कार्यक्रम का संचालन अजीत शर्मा ‘आकाश’ ने किया।</span> </p><p><span style="color: #351c75;">दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया। नरेश महरानी, अफसर जमाल, प्रभाशंकर शर्मा, संजय सक्सेना, शिवाजी यादव, अर्चना जायसवाल, मुसर्रत जहां, फ़रमूद इलाहाबादी, विजय लक्ष्मी विभा, किरन प्रभा, असलम निज़ामी, भारत भूषण वार्ष्णेय, आसिफ उस्मानी आदि ने कलाम पेश किया।</span></p><div><br /></div>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-39865978457576280302023-05-16T21:53:00.000+05:302023-05-16T21:53:54.876+05:30स्तरीय काव्य रचनाओं का श्रेष्ठ संग्रह<div style="text-align: center;"><div><div><div><h2 style="color: red;"> - अजीत शर्मा ‘आकाश’</h2><div style="color: red;"> </div><div><span style="color: red;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNzlPriD-86KKEjgGxSuy7ysKMH0gfoyX8KNAxHeBNL98o8pQsGjnP0u5ROBbESY8BU588rhaQsGz8itR5Cp35Nun6IQgzevg5BvR1KsGIea4SkUyc7E8JtYyUmf_LYO4a6TRvVPu13AjX15SF8Q7sERkRPnU9MxpJwjYqT_wimQX-524WnrPdDZmk/s360/hamare%20chahne%20wale%20bahut%20hain.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="360" data-original-width="238" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNzlPriD-86KKEjgGxSuy7ysKMH0gfoyX8KNAxHeBNL98o8pQsGjnP0u5ROBbESY8BU588rhaQsGz8itR5Cp35Nun6IQgzevg5BvR1KsGIea4SkUyc7E8JtYyUmf_LYO4a6TRvVPu13AjX15SF8Q7sERkRPnU9MxpJwjYqT_wimQX-524WnrPdDZmk/w265-h400/hamare%20chahne%20wale%20bahut%20hain.jpg" width="265" /></a></div><br /> </span></div><div><span style="color: #674ea7;">‘हमारे चाहने वाले बहुत हैं’ कवि एवं शायर स्व. पं. बुद्धिसेन शर्मा का काव्य संग्रह है, जिसे उनके परम शिष्य डॉ. कण्व कुमार मिश्र ‘इश्क’ सुल्तानपुरी ने प्रकाशित करवाया। पुस्तक के प्रारंभ में डॉ. कण्व कुमार मिश्र, यश मालवीय, फ़ारूक़ जायसी, ताहिर फ़राज़, इम्तियाज़ अहमद ‘ग़ाज़ी’, डा. वेद प्रकाश शुक्ल ‘संजर’, इबरत मछलीशहरी और मनमोहन सिंह ‘तन्हा’ के महत्वपूर्ण आलेख हैं, जो बुद्धिसेन शर्मा के जीवन परिचय तथा उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर पर्याप्तरूपेण प्रकाश डालते हैं। इस पुस्तक में बुद्धिसेन शर्मा की 61 ग़ज़लें एवं फुटकर शेर, 91 दोहे, तथा 10 गीत सम्मिलित हैं। रचनाएं संख्या में भले ही कम हैं, किन्तु वे गुणवत्तापूर्ण हैं, जो एक सच्चे कवि की कसौटी होती है। समस्त रचनाएँ काव्य व्याकरण तथा ग़ज़ल व्याकरण की कसौटी पर पूर्णरूपेण खरी उतरती हैं। ग़ज़लों की फ़ारसी बह्रें हों अथवा हिन्दी के शास़्त्रीय छन्द हों, दोनों की काव्यशास्त्रीय शर्तों का पूर्ण निर्वाह किया गया है। इसी कारण सम्पूर्ण काव्य में भरपूर रवानी तथा लय एवं यति का सुन्दर सामंजस्य एवं निर्वाह है। एक-एक रचना पढ़ते समय पाठक रचनाकार के साथ तत्काल तादात्म्य स्थापित कर लेता है। संग्रह में कुछ गीत और दोहे भी हैं, लेकिन रचनाकार की विशेष पहचान ग़ज़लों से होती नज़र आती है। उनकी शायरी में सूफ़ियाना रंग झलकता है। रचनाओं की भाषा अत्यन्त सरल, सहज एवं बोधगम्य है। आम बोलचाल की हिन्दुस्तानी भाषा में लिखी गयी रचनाएं पाठक के दिलो-दिमाग़ में उतर जाती हैं। </span></div><div><span style="color: #674ea7;">पुस्तक में सम्मिलित ग़ज़लों के कुछ अंश प्रस्तुत हैं-‘राजनीति के गलियारों में मत जाना/ नागिन अपने बच्चों को खा जाती है।, ‘हमारी जान का बचना है मुश्किल/हमारे चाहने वाले बहुत हैं।’, ‘ये गुरुद्वारे ये गिरजा और ये बुतख़ाने बना डाले/हज़ारों रूप तेरे तेरी दुनिया ने बना डाले।’, ‘रास्ता तो एक ही था, ये किधर से आ गये/ बिछ गयी क्यों इनके नीचे बनके चादर रौशनी।’ पुस्तक में शामिल कुछ गीत इस प्रकार से हैं-‘जिस तट पर प्यास बुझाने में अपमान प्यास का होता हो/उस तट पर प्यास बुझाने से प्यासा मर जाना बेहतर है।’, ‘शस्त्रों से सजी हुई बीसवीं सदी अपने ही लोगों की है/अपनी संगीनें हैं, अपने ही सीने, अपनों का अपनों से अन्धा टकराव/घड़ी-घड़ी मरहम है, घड़ी-घड़ी घाव।’ कहा जा सकता है कि ‘हमारे चाहने वाले बहुत हैं’ काव्य संग्रह में सामाजिक सरोकार, जीवन एवं उसकी विसंगतियां तथा भ्रष्ट राजनीति और उच्छ्रंखल समाज और सामाजिक परिस्थितियों की विडम्बना पर किये गये सटीक व्यंग्य रचनाकार के कृतित्व की वास्तविक पहचान हैं। 144 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 300 रूपये है, जिसके रचनाकार बुद्धिसेन शर्मा हैं, पुस्तक को गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है।</span></div><div style="color: red;"><br /></div></div><h1><span style="color: red;">विविध रंगों से सुशोभित ‘अम्बर छलके’</span></h1><div style="color: #800180;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjYqL4bxdHmzaV31pjV_kRBrBuNyUx_ye9GZv2m1HaVgsdO4EyywiDz02j-e4fXn44vzChTFer1eUmdy-E3A8yoTNc30moHdY3Xf4-tJbG1JJfH2ARTCoW2nr6pmYrIeMlwyojBocokDfs8SqJjqW_8AMDjYLaBuS3YfoZXyyh2f6i58uIbmiDRaz8M/s1983/amber%20chhalke.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1983" data-original-width="1299" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjYqL4bxdHmzaV31pjV_kRBrBuNyUx_ye9GZv2m1HaVgsdO4EyywiDz02j-e4fXn44vzChTFer1eUmdy-E3A8yoTNc30moHdY3Xf4-tJbG1JJfH2ARTCoW2nr6pmYrIeMlwyojBocokDfs8SqJjqW_8AMDjYLaBuS3YfoZXyyh2f6i58uIbmiDRaz8M/w263-h400/amber%20chhalke.jpg" width="263" /></a></div><br /><div style="color: #800180;"><br /></div><div><span style="color: #6aa84f;"> ‘अम्बर छलके’ काव्य संग्रह में डॉ.एस.एन.भारद्वाज ‘अश्क’ की कविता, गीत एवं ग़ज़ल की रचनाएं सम्मिलित हैं। संकलन को आराधन, राष्ट्र, भाव, तरुण, महाव्याधि शोक एवं ग़ज़ल- इन सात तरंगों में विभाजित किया गया है। आराधन-तरंग में आध्यात्मिक भावों की 6 रचनाएं सम्मिलित हैं। राष्ट्र-तरंग में 6 देश प्रेम की रचनाएं हैं। भाव-तरंग में विभिन्न मनोभावों का चित्रण एवं प्रकृति वर्णन है। हास्य-व्यंग्य की कुछ रचनाओं को भी इसमें स्थान प्रदान किया गया है। तरुण-तरंग में कवि के कथनानुसार अल्हड़ उम्र की कुछ कविताएं है। महाव्याधि की शोक-तरंग के अन्तर्गत कोरोना काल से सम्बन्धित 8 रचनाएं पुस्तक में हैं। ‘मैंने ईश्वर देखा है’, ‘आशा के सपने’, ‘सड़क पर ग़रीब’, ‘बस कोरोना को रोना क्यूं’ रचनाओं के माध्यम से कोरोना की विभीषिका को दर्शाते हुए लोगों की मानसिक, शारीरिक, आर्थिक स्थितियों एवं जीवन-संघर्ष को प्रदर्शित करने की चेष्टा की गई है। अंतिम भाग ग़ज़ल-तरंग में रचनाकार की 10 ग़ज़लें सम्मिलित हैं, जिनमें ग़ज़ल के व्याकरण एवं इसकी अन्य शर्तों को पूरा करने का प्रयास किया गया है।</span></div><div><span style="color: #6aa84f;"> पुस्तक में सम्मिलित कविताओं, गीतों एवं ग़ज़लों में विभिन्न मनोभावों एवं विचारों को अभिव्यक्ति प्रदान करने की चेष्टा की गई है। इनका वर्ण्य विषय प्रमुखतः श्रृंगार एवं प्रणय, वर्तमान समाज का चित्रण, जीवन की अनुभूतियां एवं संवेदनाएं, सामाजिक सरोकार, आम आदमी का संकट, जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण आदि है। कथ्य की दृष्टि से रचनाओं में विविधता परिलक्षित होती है। यथा-‘माँ ! मुझको एक रोटी दे दे’ कविता के अन्तर्गत एक बालक की अपनी मज़दूर माँ से एक ख़्वाहिश- भूख से मुझे निजात दिला दे/अपन दुख मां किसे सुनाऊँ/ख़ाली पेट न मैं सो पाऊं/गिरा अभावों की खाई में/उम्मीदों की चोटी दे दे/मां ! मुझको एक रोटी दे दे। रचनाओं की भाषा सहज एवं भावानुकूल है। आम भाषा से लेकर साहित्यिक भाषा तक के शब्दों का प्रयोग इनमें किया गया है। कहीं-कहीं सामान्य बोलचाल के अंग्रेजी शब्दों का भी प्रयोग है। इस काव्य संग्रह की कुछ रचनाओं की झलकें प्रस्तुत हैः- करें विचार एक क्षण, जो उत्सवों में लीन हैं/स्वतंत्र वो भी हों कि जो स्वतंत्रता विहीन हैं (“जो स्वतंत्रता विहीन हैं”)। कोना-कोना खिल जाएगा मुरझाऐ तन-मन का/काश कहीं से फिर आ जाए दौर सुहाना बचपन का (“बचपन”)। थोड़े-से सच्चे हो जाएँ/आओ फिर बच्चे हो जाएँ! (“स्नेह-सूत्र”)। इनके अतिरिक्त “धूप और बारिश”, “शान्त शरद आया”, “भोर का गीत” आदि कविताएं भी सराहनीय हैं। तकनीकी दृष्टिकोण से पुस्तक का मुद्रण, गेट अप, शब्द संयोजन उत्तम कोटि का है तथा आवरण पृष्ठ आकर्षक है, यद्यपि प्रूफ़ आदि तकनीकी दोष भी कहीं-कहीं रह गये हैं। कुल मिलाकर ‘‘अम्बर छलके...’’ डॉ. एस.एन.भारद्वाज ‘अश्क’ का एक अच्छा काव्य-संग्रह है। अमृत प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 136 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 400 रुपये है।</span></div><div style="color: #800180;"><br /></div></div><h1 style="color: #800180;">गांवों की पहचान है मिट्टी की सोंधी महक</h1><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEieovhRCHp3LC8nO3FhQtFAf9sHARkWWLj8zHs5sETL8wa7HjMf4AUuzeqjvsS7PwpkmBbdIANmDBwDBkR_atV7kO2-n_IHsjnqDH2tfw38Y-VP34P-K59H0NIqWmJahtb6cQjcPen4X8HBaD_0-aWxQQBDV59MAcreUWNqtK2o1CC2H-wGh4umQ78t/s1280/sodhi%20mahek....jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="847" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEieovhRCHp3LC8nO3FhQtFAf9sHARkWWLj8zHs5sETL8wa7HjMf4AUuzeqjvsS7PwpkmBbdIANmDBwDBkR_atV7kO2-n_IHsjnqDH2tfw38Y-VP34P-K59H0NIqWmJahtb6cQjcPen4X8HBaD_0-aWxQQBDV59MAcreUWNqtK2o1CC2H-wGh4umQ78t/w265-h400/sodhi%20mahek....jpg" width="265" /></a></div><br /><div style="color: #800180;"><br /></div><div><span style="color: #800180;"> </span><span style="color: #674ea7;"> अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ के ‘सोंधी महक’ काव्य संग्रह में आज के ग्राम्य जीवन एवं ग्रामीण परिवेश की अनेक परिदृश्य प्रस्तुत किये गये हैं। संग्रह में कुल 30 कविताएं सम्मिलित हैं, जिनमें गांव एवं उसके जन-जीवन’ का चित्रण परिलक्षित होता है। कविताओं में गांव के साथ-साथ समाज और देश की चिन्ताओं को भी उजागर करते हुए अनेक सामाजिक एव राजनीतिक विसंगतियों पर प्रहार करने का प्रयास किया गया है। रचनाकार ने वर्तमान ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रण करने की चेष्टा की है। किसानों को कभी सूखा और कभी बाढ़ का क़ह्र झेलना पड़ता है। कर्जों में फंसे, तंगी में जीते, छोटे-छोटे झगड़ों को निपटाने के लिए कचहरी के चक्कर लगाते हुए भोले-भाले ग्रामीण अपना जीवन बिता देते हैं। कृषि कार्य से अब एक सामान्य कृषक के पूरे परिवार की ज़रूरतें को पूरी नहीं हो पाती। इसके अतिरिक्त जनसंख्या विस्फोट, रूढ़िवादिता तथा अंधविश्वासों से भी ग्रामीण जन ग्रसित हैं। गरीबी और अशिक्षा के कारण पुरानी परंपराओं तथा सामाजिक बंधनों ने उन्हें जकड़ रखा है। आज गांव में भी बदलाव आता जा रहा है। अनेक विसंगतियाँ ग्रामीण जनों को भी घेरती सी दृष्टिगत होती हैं। गांववासी विशेषकर युवा, नगरों की चकाचौंध से प्रभावित होते जा रहे हैं। उन्हें गांवों में रहना अब अच्छा नहीं लगता। वह शिक्षा, नौकरी और सुख सुविधाओं का पीछा करते हुए नगर पहुंचना चाहता है। इन सभी समस्याओं को संग्रह की कविताओं में स्थान दिया गया है।</span></div><div><span style="color: #674ea7;"> संग्रह की लगभग सभी कविताओं में बुधिया नामक पात्र एक आम ग्रामीण का प्रतिनिधित्व करता है, जिसको केन्द्रित कर ग्रामीणजन की छटपटाहट एवं उसके भीतर की कसक तथा गांवों की दशा-दुर्दशा को शब्दचित्रों के माध्यम से उजागर किया गया है। कहा जा सकता है कि सभी रचनाएँ ग्राम्य जनों के मनोभावों एवं ग्रामीण परिवेश को व्यक्त करने में काफ़ी हद तक सफल रही हैं। पुस्तक को पढ़ना ग्राम्य जीवन को समझना है। संग्रह की कविताएँ गाँव में बोली जाने वाली सहज एवं सरल भाषा में हैं, जिनमें आम बोलचाल के शब्दों का ही प्रयोग किया गया है। पुस्तक का मुद्रण एवं कवर पृष्ठ आकर्षक है। 128 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 175 रूपये है, जिसे गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है।</span></div><div style="color: #800180;"><br /></div></div><h1><span style="color: #800180;">सृजनात्मक लेखन का सराहनीय प्रयास</span></h1><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhxsP7G69apRKx7DrswOuZozbnZWQS1F3g-f7iIo-m67IYYEqee78LK0GrKn6jKvFV0k1ky99zC-bAAM_9d8lyr2J63XPKWWtbyPnh_0oDaEiqE2nMMggIIyi2PIz9rfPHiboZH__ZINYd9EdDCCt6M_bwlD0t0JYzHLTjVAt5V0aAV3vvpLq0EYNVV/s875/akchhar%20akchhar%20gadhker.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="875" data-original-width="579" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhxsP7G69apRKx7DrswOuZozbnZWQS1F3g-f7iIo-m67IYYEqee78LK0GrKn6jKvFV0k1ky99zC-bAAM_9d8lyr2J63XPKWWtbyPnh_0oDaEiqE2nMMggIIyi2PIz9rfPHiboZH__ZINYd9EdDCCt6M_bwlD0t0JYzHLTjVAt5V0aAV3vvpLq0EYNVV/w265-h400/akchhar%20akchhar%20gadhker.jpg" width="265" /></a></div><br /><div style="color: #2b00fe;"><br /></div><div><span style="color: #a64d79;"> ‘अक्षर-अक्षर गढ़कर’ काव्य संग्रह में कवयित्री शगुफ़्ता रहमान ‘सोना’ की 97 कविताएँ सम्मिलित हैं। इन रचनाओं के माध्यम से जीवन की विसंगतियों एवं विभिन्न परिस्थितियों को पाठकों के समक्ष लाने का प्रयास किया गया है। रचनाओं का वर्ण्य विषय प्रमुख रूप से सामाजिक एवं राजनीति व्यवस्था, समाज के प्रति चिन्तन, मानवता का कल्याण, सामाजिक समरसता आदि है। इसके अतिरिक्त देशभक्ति, नारी शक्ति, प्रकृति का सौन्दर्य के साथ ही प्रेम एवं र्श्रृगार से सम्बन्धित कविताएं भी हैं। रचनाओं में विभिन्न प्रकार के संदेश हैं तथा अंधकार में प्रकाश की आशा रखने के भाव निहित हैं। रचनाओं में अनेक स्थलों पर जीवन के यथार्थ चित्रण की झलक है। कविताओं में मनोभावों एवं अनुभूतियों को शब्द प्रदान किये गये हैं। पुस्तक में जीवन के विविध आयामों को स्पर्श करते हुए विभिन्न मनोभावों एवं विचारों को अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है। पुस्तक की रचनाकार एक शिक्षिका हैं, अतः रचनाओं पर इसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। पुस्तक में कुछ रचनाएँ विद्यालय एवं बच्चों से सम्बन्धित हैं। ‘मेरा देश, ‘सच्चा मानव’, ‘ईद कैसे मनाऊँ, ‘आजा काले बादल, ‘ये दौर है नया-नया, ‘वसन्त ऋतु, ‘नारी, प्रेम तुम्हारा पाकर, ‘अनमोल प्रेम’आदि कुछ कविताओं के शीर्षक हैं। काव्य-संग्रह की कुछ रचनाओं के अंश प्रस्तुत हैं - ‘नफ़रत का बीज-मजहब बड़ा और खुदा का घर छोटा हो गया/इंसान की सोच को यहां अब क्या हो गया।’, ‘मेरा देश कविता में-यह मेरा देश, मेरा देश/तेरा भी वतन, ये तेरा भी वतन/झूम-झूम गाएं हम, सबका है वतन, सबका है वतन’, ‘नारी- हिम्मत की पहचान है नारी/हौसलों का जान है नारी।’</span></div><div><span style="color: #a64d79;">रचनाओं का भावपक्ष एवं कथ्य सराहनीय है, किन्तु शिल्प की दृष्टि से काफ़ी कमज़ोर हैं। कविताओं में प्रायः सपाटबयानी-सी आ गयी है। अधिकतर कविताओं को ग़ज़ल के फ़ॉर्म में लिखने का प्रयास किया गया है। संग्रह को पढ़ते समय रचनाकार में काव्य-व्याकरण सम्बन्धी ज्ञान का अभाव प्रतीत होता है। रचनाकार की यह पहली पुस्तक है। आशा है भविष्य के संग्रहों में और अच्छी रचनाएं सम्मिलित होंगी। 128 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 175 रूपये है, जिसे गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है।</span></div><div style="color: #2b00fe;"><br /></div></div><h1 style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe;">शे’रगोई के समुन्दर में तैराक ही उतरते हैं</span></h1><div style="text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgn0VGfug_SFXvRhUQJVttZKG0n71zod7GO91zGPmAYbEOXT_pTQPxzYhlMPuALhYmUyPpreQ6ZUg2LBoaYulXH5NnDbUG98k323tcjfpI7fvuizzx70z45tSCJ_K9ywzsDHTsDeL0rJeVHakxZO-mBV6xlHs07rolsF3CdfmEBVRuDa7zHYPNdIj9t/s2687/sargoshiyan.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2687" data-original-width="1737" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgn0VGfug_SFXvRhUQJVttZKG0n71zod7GO91zGPmAYbEOXT_pTQPxzYhlMPuALhYmUyPpreQ6ZUg2LBoaYulXH5NnDbUG98k323tcjfpI7fvuizzx70z45tSCJ_K9ywzsDHTsDeL0rJeVHakxZO-mBV6xlHs07rolsF3CdfmEBVRuDa7zHYPNdIj9t/w259-h400/sargoshiyan.jpg" width="259" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /><span style="color: #6aa84f;">ग़ज़लकार पदम ‘प्रतीक’ के ग़ज़ल-संग्रह ‘सरगोशियाँ’ में उनकी 45 ग़ज़लें सम्मिलित हैं। सम्पूर्ण पुस्तक तथा उसकी सभी ग़ज़लें हिन्दी एवं उर्दू, दोनों ही भाषाओं में हैं। ध्यातव्य है, कि ग़ज़ल का एक विशेष अनुशासन एवं व्याकरण है। ग़ज़ल फ़ारसी से होती हुई हिन्दी में आयी है। ग़ज़ल कहने के लायक बनने के लिए बहुत से क़ायदे-क़ानून एवं ऐब-हुनर हैं जिन्हें एक शायर के लिए जानना तथा सीखना अत्यन्त आवश्यक है। इस तथ्य के प्रति सजग रचनाकार अच्छी ग़ज़लें कह रहे हैं। शायर पदम ‘प्रतीक’उन्हीं में से एक हैं। संकलन में कुछ ग़ज़लें रिवायती हैं, कुछ आधुनिक समाज का दर्पण भी हैं। ग़ज़लें अपनी परम्पराओं से जुड़ी हुई हैं, जो इस विधा को निरन्तर आगे बढ़ाये जाते रहने के लिए निहायत ज़रूरी चीज़ है। संग्रह में सम्मिलित ग़ज़लों की भाषा मधुरता और सरसता लिए हुए आम फ़हम भाषा है, जिसे हर कोई आसानी से समझ सकता है। बड़ी ही खूबसूरती और सलीक़े की शायरी है। गजलें रचनाकार के अपने अनुभव से कही गयी हैं, जिनमें जीवन का तत्व एवं तथ्य झलकता है। मन के भावों की सफल प्रस्तुति की गयी प्रतीत होती है। पुस्तक की शायरी आम और खास इंसान के हर एहसास को बयान करती है। संग्रह की ग़ज़लें अच्छे स्तर की हैं तथा उनकी बुनावट ठीक है। सभी ग़ज़लें शिल्प की कसौटी पर खरी उतरती हैं। ग़ज़ल-व्याकरण का पूरी तरह पालन किया गया है। विशेष तौर पर बह्र-विधान का पूर्णतः ध्यान रखा गया है। रचनाकार को उर्दू की अच्छी जानकारी होने के कारण अशुद्ध शब्दों का प्रयोग भी ग़ज़लों में नहीं है। फिर भी ऐबे तनाफ़ुर (अब बहाने पृ.79, उभर रहा पृ. 97 आदि) तथा तक़ाबुले रदीफ़ (पृ.-61,87,97) जैसे दोष भी यत्र-तत्र दिख जाते हैं। पुस्तक में प्रूफ़ रीडिंग सम्बन्घी मामूली दोष (जैसे मज़बूर- पृ.37) भी कहीं-कहीं रह गये हैं। <br /> कथ्य की दृष्टि से ग़ज़लों में श्रृंगार एवं प्रणय, वर्तमान समाज का चित्रण, जीवन की अनुभूतियाँ तथा संवेदनाएं, सामाजिक सरोकार, आम आदमी का संकट, राजनीतिक हालात आदि की झलक भी देखने को मिलती है। अपने एवं ज़माने के दुख-दर्द को भी शायर ने अभिव्यक्ति प्रदान की है। पुस्तक की कुछ ग़ज़लों के उल्लेखनीय अशआर इस प्रकार हैं-‘जो क़ाबू जु़बां पर हमारा रहे तो/मुनासिब है जो ये वही बोलती है।’, ‘हर बुराई से अब करो तौबा/जब भी जागो तभी सवेरा है।’, ‘कतर के पर मुझे आज़ाद करके/वो बस अहसां जताना चाहता है।’ ग़ज़लें सलीक़े से कही गयी हैं, इनमें एक सहजता है। इन्हें पढ़कर लगता है, कि शायर दिल की गहराइयों में उतरकर अपनी बात कह रहा है। ग़ज़लकार का यह शे’र स्वयं उन्हीं पर सटीक बैठता है- शे’रगोई तो वो समुन्दर है, जिसमें तैराक ही उतरते हैं। पदम ‘प्रतीक’निश्चित रूप से शे’रगोई के समुन्दर के कुशल तैराक हैं। कहा जा सकता है कि ग़ज़ल संग्रह अत्यन्त सराहनीय है। अमृत प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 112 पृष्ठों की इस सजिल्द पुस्तक का मूल्य 300 रुपये है। </span></div><div style="text-align: center;"><br /></div><h1 style="text-align: center;"><span style="color: red;"> सृजन के क्षेत्र में सराहनीय प्रयास</span></h1><p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4lgC4Bjx17u-F766XlT_jOBBtaVPwmI_dT2uFjDMQG83b3uzjbPiq4T1cAlRgj7UPutlmOXamuMxJIvKttRM0rvzZu0boWD1Hkime3xtclGb785Rn_oWjZ5MbsJZzP98MCHqm4InWojXRX3eWSQm8-Ys6aC1tbE0LEDTLDMJsrVcimTXCJiJIhfKc/s2263/pyar%20bina.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2263" data-original-width="1463" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4lgC4Bjx17u-F766XlT_jOBBtaVPwmI_dT2uFjDMQG83b3uzjbPiq4T1cAlRgj7UPutlmOXamuMxJIvKttRM0rvzZu0boWD1Hkime3xtclGb785Rn_oWjZ5MbsJZzP98MCHqm4InWojXRX3eWSQm8-Ys6aC1tbE0LEDTLDMJsrVcimTXCJiJIhfKc/w259-h400/pyar%20bina.jpg" width="259" /></a></div><br /><p></p><p><span style="color: #674ea7;"> डॉ. मधुबाला सिन्हा के कविता-संग्रह ‘प्यार बिना’ में उनकी छन्दबद्ध तथा छन्दहीन प्रकार की छन्दबद्ध तथा छन्दहीन प्रकार की 75 कविताएँ सम्मिलित हैं, जिनमें जीवन, विशेषकर नारी-जीवन के विभिन्न रंगों एवं पहलुओं को उजागर करने की चेष्टा की गयी है। अधिकतर कविताओं में कहा गया है कि नारी प्रेम को ही जीती है, क्योंकि दुनिया में प्रेम से परे और कुछ भी नहीं है। प्रेम ही जीवन की वास्तविकता है। अधिकतर रचनाओं में नारी के मूर्त रूप एवं उसके अन्तर्मन का चित्रण परिलक्षित होता है, जिसमें नारी की पीड़ा, उसकी भावना, बेचौनी, तड़प, ख़ुशी, दुःख, प्यार आदि विभिन्न रंग समाहित हैं। उसकी संवेदना, चेतना, भाव-संघर्ष, जीवन-संघर्ष और द्वन्द्व से रचनाएं सीधे जुड़ी हैं। इसके अतिरिक्त जीवन की विभिन्न विसंगतियों एवं विडम्बनाओं को भी रचनाओं का आधार बनाया गया है। कुछ रचनाओं में वर्तमान समय के सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहलुओं को भी उजागर करने की चेष्टा की गयी है। साथ ही, प्रकृति-चित्रण एवं प्रेम तथा श्रृंगार विषयक रचनाएँ भी हैं। कविता-संग्रह में मन की भावनाओं के कई रूप हैं, जिन्हें अभिव्यक्ति प्रदान करने का प्रयास किया गया है। कविताओं के माध्यम से जीवन में व्याप्त संत्रास, घुटन, वेदनाओं एवं अनुभूतियों को शब्द प्रदान किये गये हैं। रचनाओं में जीवन के अन्य अनेक रंग भी परिलक्षित होते हैं। इन कविताओं के माध्यम से कवयित्री ने सृजनात्मकता को उजागर करने का प्रयास किया है। यह कहने का प्रयास किया गया है कि ज़िन्दगी के तमाम धागे प्यार बिना अनसुलझे ही रहते हैं। हालाँकि पुस्तक के शीर्षक ‘प्यार बिना‘ नामक कोई कविता संग्रह मे नहीं है। संकलन की रचनाओं में कवयित्री के मनोभावों की अभिव्यक्ति परिलक्षित होती हैं। कविताओं में विषम परिस्थितियों में भी जीवन का सन्देश प्रदान करने का प्रयास किया गया है। कुछ कविताओं के उल्लेखनीय अंश प्रस्तुत हैं- पनपते रिश्ते- दबी राख के नीचे से/चमक उठते हैं दबे रिश्ते/सुधरने की आस में फिर से जी उठते हैं। सोचती हूं- आज पूछ ही डालूँ मैं भी प्रश्न/जो जाने कब से/समंदर की गहराइयों में/छटपटा रहे हैं। इनके अतिरिक्त उठता धुआँ, जीवन की रेल, मैं आती हूं, मेरा जीवन, मज़दूर, सच्चा धर्म, नदी का दर्द आदि रचनाएँ भी सराहनीय हैं। शिल्प की दृष्टि से संकलन की छन्दबद्ध कविताएँ कमज़ोर प्रतीत होती हैं। छन्द विधान एवं छन्दानुशासन का अभाव परिलक्षित होता है, जिसके कारण प्रवाह एवं लयबद्धता बाधित होती है। कविताओं को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि रचनाकार को काव्य व्याकरण एवं छन्द शास्त्र की सम्यक् जानकारी नहीं है। पुस्तक में संग्रहीत कविताओं के कथ्य को दृष्टिगत रखते हुए कहा जा सकता है कि रचनाकार के लेखन में सरलता और सहजता है, लेकिन भाषागत एवं व्याकरणिक अशुद्धियां यत्र-तत्र दृष्टिगत होती हैं। इसके अतिरिक्त महत्वकांक्षा, अठ्ठाहास, झंझावत, ख़्याल, भर्मित, संसय जैसे अशुद्ध वर्तनीयुक्त शब्दों का प्रयोग किया गया है, जिसे साहित्यिक लेखन की दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता है। साहित्यिक सृजन हेतु काव्य व्याकरण एवं भाषा व्याकरण का सम्यक् ज्ञान रचनाकार को निश्चित रूप से होना चाहिए। कह सकते हैं कि सृजन के क्षेत्र में यह एक सार्थक एवं सराहनीय प्रयास है, जो रचनाकार की सृजनात्मकता का द्योतक है। जिज्ञासा प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद द्वारा प्रकाशित 114 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 200 रूपये है।</span></p><p><br /></p><div style="text-align: left;"><span style="color: #38761d; font-family: arial;">(अक्तूबर-दिसंबर 2022 अंक में प्रकाशित )</span></div><div><br /></div>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-66503064416705822632023-05-06T20:55:00.002+05:302023-05-06T20:55:39.175+05:30 गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2023 अंक में<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgiGEKoz9daAyCWIshuVOZauZ2yPbRFT-NsLeQrqHJLUBsOyO2MHe7W6t9vrBfrwveMQ-Li-OjXwgCuvF1QYb4fHHqtieTHtSIsqOChYih9c2Z9q7MqnRuoEoCgmosPkAhPlnwu6p6pYrQHVBHx4v8OB0LPZXxfpG0pQDn-BXSKLHlNpGFr-qfYbMXR/s1280/jan-march2023.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="845" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgiGEKoz9daAyCWIshuVOZauZ2yPbRFT-NsLeQrqHJLUBsOyO2MHe7W6t9vrBfrwveMQ-Li-OjXwgCuvF1QYb4fHHqtieTHtSIsqOChYih9c2Z9q7MqnRuoEoCgmosPkAhPlnwu6p6pYrQHVBHx4v8OB0LPZXxfpG0pQDn-BXSKLHlNpGFr-qfYbMXR/w264-h400/jan-march2023.jpg" width="264" /></a></div><br /><p><br /></p><p><span style="color: #ffa400;">4. संपादकीय</span><span style="color: red;">: </span><span style="color: #6aa84f;">दो प्रशासनिक अधिकारियों की शायरी</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">5. पवन कुमार का परिचय</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">6-7. प्रशासन और साहित्य का रिश्ता बहुत अहम - पवन कुमार</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">8-9. एक संजीद शायर पवन कुमार - शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">10-11. अहसासों की आवाज़ है पवन की शायरी - शीन काफ़ निज़ाम</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">12. बारहागे ग़ज़ल का एक खिदमतगार- अक़ील नोमानी</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">13-14. इम्कानात की राहों के रौशन चिराग़ हैं पवन कुमार - डॉ. राकेश तूफ़ान</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">15-18. नई पीढ़ी का अलबेेला शायर पवन कुमार - डॉ. फुरकान अहमद सरधनवी</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">19-21.साहित्य के पटल पर जगमगाता सितारा - अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">22-61. पवन कुमार की ग़ज़लें</span></p><p><span style="color: #674ea7;">62. अनुराग मिश्र ‘ग़ैर’ का परिचय</span></p><p><span style="color: #674ea7;">63-64. अफ़सरी लबादा उतारकर अमरोहा के गली-कूचों के नशिस्तों में होता हूं शामिल- अनुराग ग़ैर</span></p><p><span style="color: #674ea7;">65. किधर है राजधानी ढूढ़ते हैं - यश मालवीय</span></p><p><span style="color: #674ea7;">66-67. रोमांश के सफल ग़ज़लकार अनुराग ग़ैर- अखिलेश मयंक</span></p><p><span style="color: #674ea7;">68-69. ग़ैर की ग़ज़लों में अपनापन- इश्क़ सुल्तानपुरी</span></p><p><span style="color: #674ea7;">70-71. ग़ैर की ग़ज़लों में जीवन के अनेक रंग- डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’</span></p><p><span style="color: #674ea7;">72-73. नई उम्मीदें जगाता एक शायर- अतिया नूर</span></p><p><span style="color: #674ea7;">74-75. समाज के सभी पहलुओं पर रेखांकित शायरी-शगुफ़्ता रहमान ‘सोना’</span></p><p><span style="color: #674ea7;">76-78. शानदार कृतित्व के रचनाकार हैं ग़ैर- नीना मोहन श्रीवास्तव</span></p><p><span style="color: #674ea7;">79. प्रेम, रति, हास और मनुहार का समावेश- साजिद अली सतरंगी</span></p><p><span style="color: #674ea7;">80-111. अनुराग मिश्र ‘ग़ैर’ की ग़ज़लें</span></p><p><span style="color: red;">112-118. तब्सेरा:</span> <span style="color: #8e7cc3;">हमारे चाहने वाले बहुत हैं, अंबर छलके, संोंधी महक, अक्षर-अक्षर गढ़कर, सरगोशियां, प्यार बिना, मेरी तल्खियां</span></p><p><span style="color: #ffa400;">119-121. उर्दू अदब:</span> <span style="color: #93c47d;">ग़ज़ल पारा, नियामतउल्लाह अंसारी-शख़्सियत और कारनामे, सवांही नॉॅवेल, काविश-ए-तलअत, </span></p><p><span style="color: red;">122-123. गुलशन-ए-इलाहाबाद:</span> <span style="color: #76a5af;">सादिक़ हुसैन सिद्दीक़ी</span></p><p><span style="color: #ffa400;">124-125. ग़ाज़ीपुर के वीरः</span> <span style="color: #76a5af;">स्वामी सहजानंद सरस्वती</span></p><p><span style="color: #e06666;">126-130. अदबी ख़बरें</span></p><p><span style="color: #20124d;">131-132. अमर राग की कविताएं</span></p><p><br /></p>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-47462357903411640702023-04-28T21:21:00.003+05:302023-04-28T21:21:38.625+05:30ऐतिहासिक दस्तावेज है ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ <table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjttyHXAMK9p12JkqTgMvskqSaZGpo6xQ2iARz_pPWmOzgiVDyz1anBpb6kwlRQUaTp0_6P2zAvdb-3NKp-VXxro-lJiydlTPWZdnAa5ixRs91XiLCO7RQz_MJdG6yL3yWuX81DrCUZ5TQl_hfGCRRE3CX3_zKAaGYDcWl90rqwoEKbMyJj3GNHPcqq/s1344/vimochan-21wi%20sadi%20ke%20allahabadi.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="634" data-original-width="1344" height="189" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjttyHXAMK9p12JkqTgMvskqSaZGpo6xQ2iARz_pPWmOzgiVDyz1anBpb6kwlRQUaTp0_6P2zAvdb-3NKp-VXxro-lJiydlTPWZdnAa5ixRs91XiLCO7RQz_MJdG6yL3yWuX81DrCUZ5TQl_hfGCRRE3CX3_zKAaGYDcWl90rqwoEKbMyJj3GNHPcqq/w400-h189/vimochan-21wi%20sadi%20ke%20allahabadi.JPG" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: #800180;">‘21वीं सदी के इलाहाहाबादी’ का विमोचन करते अतिथि ।</span></td></tr></tbody></table><br /><div><span style="color: #351c75;"><br /></span></div><span style="color: #351c75;">प्रयागराज। इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की किताब ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ में इलाहाबाद की महत्वपूर्ण विभूतियों की पूरी जानकारी दी गई है। यह इतिहास में दर्ज़ की जानी वाली किताब है, इस तरह के काम का विशेष महत्व है। हालांकि अभी कई अन्य लोगों इसमें शामिल किए जाने की आवश्यकता है, जिसे इम्तियाज़ ग़ाज़ी ने खुद भाग-2 और तीन में पूरा करने की बात कही है। यह बात 05 मार्च को गुफ़्तगू की ओर से मोतीलाल नेहरु मेडिकल कॉलेज के डॉ. प्रीतमदास प्रेक्षागृह में आयोजित कार्यक्रम के दौरान सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति पंकज मित्थल ने कही। इस मौके पर इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की पुस्तक ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’, नरेश कुमार महरानी की पुस्तक ‘मेरी तल्ख्यिां’ और शगुफ़्ता रहमान ‘सोना’ की पुस्तक ‘अक्षर-अक्षर गढ़कर’ का विमोचन किया गया। साथ ही ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ में शामिल सभी लोगों को सम्मानित किया गया। </span> <table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><img border="0" data-original-height="1281" data-original-width="1514" height="339" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpOR4joSBU74705s4kvVck0ZnWpqVNFf8LMgInvO5qO5fDb7NkGqnccJHxrwQoczIXjHUghMuSjHGxuvWI9gQoGWRK0Pjv0cdyef3BXFRX6H4Da5oA4MmgdGJh1iaH4cxhPAYevTPIYhINE_BEc63Jtg27_Qo_n_hUtp5c0PthJJsE_9fNnCYol5z_/w400-h339/justice%20pankaj%20mittal.JPG" style="margin-left: auto; margin-right: auto;" width="400" /></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: red;">कार्यक्रम के दौरान लोगों को संबांेधित करते सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति पंकज मित्थल।<br /></span></td></tr></tbody></table><div style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpOR4joSBU74705s4kvVck0ZnWpqVNFf8LMgInvO5qO5fDb7NkGqnccJHxrwQoczIXjHUghMuSjHGxuvWI9gQoGWRK0Pjv0cdyef3BXFRX6H4Da5oA4MmgdGJh1iaH4cxhPAYevTPIYhINE_BEc63Jtg27_Qo_n_hUtp5c0PthJJsE_9fNnCYol5z_/s1514/justice%20pankaj%20mittal.JPG" imageanchor="1"><span style="color: #0b5394;"></span></a></div> <div><span style="color: #0b5394;"> मुख्य अतिथि माननीय पंकज मित्थल ने कहा कि गुफ़्तगू और इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ऐसा कार्य कर रहे हैं, जिसके लिए इलाहाबाद पहचाना जाता है। यह बहुत उल्लेखनीय कार्य है, इसकी हर स्तर पर सराहना की जानी चाहिए। कार्यक्रम का संचालन मशहूर गीतकार यश मालवीय ने किया। राज्य उपभोक्ता विवाद परितोष आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति अशोक कुमार ने कहा कि ‘21वीं सदी के इलाहाबादी’ एक बेहद की महत्वपूर्ण किताब है, ऐसे कार्य से हम इतिहास को सहेजते हैं, इम्तियाज़ ग़ाज़ी ने इसे करके दिखा दिया है। </span> <table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh3vWMAhtpHGZuyUH48HPZfxyZRw4LiQh3EGr_GxeSlM8Jl4bjRmvmKxy6d5CPpSgxi3vlM0MOsMaz_sDRgakAcWZP0PtnU5lV8bpo3sFn-Ny0Zx6e19Mt4HypUINwN1jvunM2gK7fb6qKKqCtUldmF2Js6VSmP4cXPqSOjYDFcwA8JcqzEse5OuCr2/s1268/narebdra%20singh%20gaur.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><span style="color: #0b5394;"><img border="0" data-original-height="844" data-original-width="1268" height="266" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh3vWMAhtpHGZuyUH48HPZfxyZRw4LiQh3EGr_GxeSlM8Jl4bjRmvmKxy6d5CPpSgxi3vlM0MOsMaz_sDRgakAcWZP0PtnU5lV8bpo3sFn-Ny0Zx6e19Mt4HypUINwN1jvunM2gK7fb6qKKqCtUldmF2Js6VSmP4cXPqSOjYDFcwA8JcqzEse5OuCr2/w400-h266/narebdra%20singh%20gaur.JPG" width="400" /></span></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: #0b5394;">‘21वीं सदी के इलाहाहाबादी सम्मान’ प्राप्त करते पूर्व मंत्री डॉ. नरेंद्र सिंह गौर।</span></td></tr></tbody></table><br /> <table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJtm-dJyfcXtDdvWmctyFeyEShJccMiVgMmuna6zsSMUkSFKxvo77yWROL6RYq-3KGZcJ1WDHys11m4uHJl6LmSTP_jRjojw5WvEwNBTeN0D8Wj171T0vuwCTf_gqEEnljMN9eDi047ktIBR_6SfY7xdjrfXmIULn_7_Ay-8k6L3neRxKn9-w_URFe/s1132/anugrah%20narayan%20singh.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><span style="color: #073763;"><img border="0" data-original-height="754" data-original-width="1132" height="266" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJtm-dJyfcXtDdvWmctyFeyEShJccMiVgMmuna6zsSMUkSFKxvo77yWROL6RYq-3KGZcJ1WDHys11m4uHJl6LmSTP_jRjojw5WvEwNBTeN0D8Wj171T0vuwCTf_gqEEnljMN9eDi047ktIBR_6SfY7xdjrfXmIULn_7_Ay-8k6L3neRxKn9-w_URFe/w400-h266/anugrah%20narayan%20singh.JPG" width="400" /></span></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: #073763;">‘21वीं सदी के इलाहाहाबादी सम्मान’ प्राप्त करते पूर्व विधायक अनुग्रह नारायण सिंह।</span></td></tr></tbody></table><br /> <table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhbiXLAr_9HhyNz2bt80LeKe8IK2FJnz3tI67WsPz2cyPnPHWCs3GhHYingPkE5T0qiZEXUh0ZfTKiUMJLmF3JccPDGTq9Z97tQQg4jXvwxRdR2YJyEEbVwdhvkLq9fLXJ8BCyS31BsLnRhAs-e4SsYZVB7ZPYFdBcVVPysfs60x-sTYxvcbybbtT5w/s1177/RAj%20Baweja.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><span style="color: #134f5c;"><img border="0" data-original-height="784" data-original-width="1177" height="266" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhbiXLAr_9HhyNz2bt80LeKe8IK2FJnz3tI67WsPz2cyPnPHWCs3GhHYingPkE5T0qiZEXUh0ZfTKiUMJLmF3JccPDGTq9Z97tQQg4jXvwxRdR2YJyEEbVwdhvkLq9fLXJ8BCyS31BsLnRhAs-e4SsYZVB7ZPYFdBcVVPysfs60x-sTYxvcbybbtT5w/w400-h266/RAj%20Baweja.JPG" width="400" /></span></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: #134f5c;">‘21वीं सदी के इलाहाहाबादी सम्मान’ प्राप्त करतीं पद्मश्री राज बवेजा।</span></td></tr></tbody></table><br /> <div> <table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjC-3aVM6aNpjks5BlsAruiBk44XvTaPPE--7g8B7itZo6c-E5eNAYEo8aUUdcbQ2uqf1GzH4nVLnqNHa7Pabh57OMZPIvSQ9RoP6VXBpvrjo9h1wWqrH2hvjFya1GCIcAMvEsDY52Ykd2QTSU_Y8eal9V1Gr9q7gVQGoljUDqL2HcJ3yx98B0WNjgL/s1268/laalji%20shukla.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><span style="color: #0b5394;"><img border="0" data-original-height="844" data-original-width="1268" height="266" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjC-3aVM6aNpjks5BlsAruiBk44XvTaPPE--7g8B7itZo6c-E5eNAYEo8aUUdcbQ2uqf1GzH4nVLnqNHa7Pabh57OMZPIvSQ9RoP6VXBpvrjo9h1wWqrH2hvjFya1GCIcAMvEsDY52Ykd2QTSU_Y8eal9V1Gr9q7gVQGoljUDqL2HcJ3yx98B0WNjgL/w400-h266/laalji%20shukla.JPG" width="400" /></span></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: #0b5394;">‘21वीं सदी के इलाहाहाबादी सम्मान’ प्राप्त करते लालजी शुक्ला।</span></td></tr></tbody></table><br /><br /><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj0aYgZ1g65nPvJIvBu4nphNM0uS6caTMVzUkTi3a49-gIMvF9ekT-XZfo9qEvUfSv8fg4aJeeU3Kpap73sV0wn4w6G7PEYgtQfhtu5bL6Fa4WAUicEsrwfxq72Aq-fZgjp8gko9revgEumzD9OL_K0GCcwHFJ0JQG3Wl3uTueaAWi3p6drkaAd4msR/s1132/yash%20malviya.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="754" data-original-width="1132" height="266" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj0aYgZ1g65nPvJIvBu4nphNM0uS6caTMVzUkTi3a49-gIMvF9ekT-XZfo9qEvUfSv8fg4aJeeU3Kpap73sV0wn4w6G7PEYgtQfhtu5bL6Fa4WAUicEsrwfxq72Aq-fZgjp8gko9revgEumzD9OL_K0GCcwHFJ0JQG3Wl3uTueaAWi3p6drkaAd4msR/w400-h266/yash%20malviya.JPG" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">‘21वीं सदी के इलाहाहाबादी सम्मान’ प्राप्त करते यश मालवीय।</td></tr></tbody></table><br /><div><br /></div><span style="color: #134f5c;">इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि इलाहाबाद में महत्वपूर्ण कार्य करने वाले लोगों के बारे में अपनी अगली पीढ़ी को बताने के लिए यह किताब लिखी गई है। आमतौर साहित्यकारों के बारे में तो कुछ न कुछ लिख ही दिया जाता है, लेकिन दूसरे क्षेत्रों में काम करने वालों के बारे में प्रायः नहीं लिखा जाता है, इसलिए भी इस किताब का लिखना बहुत जरूरी था।</span><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgjK0zwIXb_xWggscWAptO_xbwB-KgmuQ9OQ-JNruFPOgrjzfc9H4aWyOliq4gPbcryP-crnr4CGWW0bDMQJHYCSmC6VNrHWaHv5h2h5EwH75TCX_-RSeR5r6GV2_54yXWdRQ96sbLYx8EH3ub4-lBt2ORv5I5EBgUqZ9Z9uPmf7gnHzX2TksAvAYMa/s1177/sp%20singh.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="784" data-original-width="1177" height="266" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgjK0zwIXb_xWggscWAptO_xbwB-KgmuQ9OQ-JNruFPOgrjzfc9H4aWyOliq4gPbcryP-crnr4CGWW0bDMQJHYCSmC6VNrHWaHv5h2h5EwH75TCX_-RSeR5r6GV2_54yXWdRQ96sbLYx8EH3ub4-lBt2ORv5I5EBgUqZ9Z9uPmf7gnHzX2TksAvAYMa/w400-h266/sp%20singh.JPG" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">‘21वीं सदी के इलाहाहाबादी सम्मान’ प्राप्त करते डॉ. एस.पी. सिंह।</td></tr></tbody></table><br /><p><br /></p><p> <span style="color: #274e13;">अघ्यक्षता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार के. विक्रमराव ने कहा कि यह बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है। ऐसी किताबों से दूसरें लोगों को भी प्रेरणा लेनी चाहिए। आमतौर पर पत्रकारों के बारे में नहीं लिखा जाता, लेकिन इम्तियाज ग़ाज़ी ने इसमें पत्रकारों को भी शामिल करके एक बड़ा और अनोखा कार्य किया है। गुफ़्तगू के सचिव नरेश महरानी के सबके प्रति धन्यावद ज्ञापन किया। </span><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgKj1qs1liT-uOscf7aEScxu1g3ZPiTT95rM5tbhf5-cMQIWarKgBqd1TsmJgrVfDGkrMNXH3Iv0YTJZ8ml4UOxZ62VQbY2gqbrOgoRpPISdD8hUTk5YfHhNwEjQET0vFMoZxpSqL4p8q4s5gd5_kI3OQxE2DBE4koVvkHERQO6Sg9uWOjFA_Hd9_bc/s1132/vidup,%20anugrah,%20narendra%20gaur.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="754" data-original-width="1132" height="266" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgKj1qs1liT-uOscf7aEScxu1g3ZPiTT95rM5tbhf5-cMQIWarKgBqd1TsmJgrVfDGkrMNXH3Iv0YTJZ8ml4UOxZ62VQbY2gqbrOgoRpPISdD8hUTk5YfHhNwEjQET0vFMoZxpSqL4p8q4s5gd5_kI3OQxE2DBE4koVvkHERQO6Sg9uWOjFA_Hd9_bc/w400-h266/vidup,%20anugrah,%20narendra%20gaur.JPG" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">कार्यक्रम के दौरान एक साथ बैठे हुए चिदुप अग्रहरि, अनुग्रह नारायण सिंह और डॉ. नरेंद्र सिंह गौर।</td></tr></tbody></table><br /></p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhn7oQ_h8lVJP36zwV1goh1Um5RbXoyV02q66fsaOE4gn-E9jet2MlP3XXuWrZDok_q6mTCNZX0LHXBUOSDDZO6K5QzHtAG2UGJi0XLrpJlcGBMLzi0mU_DM-n3iZxsrXv1R7EHfUk9eTgSHM-wZ0re0cBiYIRtawshNkRcRAan53EtjVb_p6anTDPt/s1083/abhinn%20shyam%20gupta.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="808" data-original-width="1083" height="299" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhn7oQ_h8lVJP36zwV1goh1Um5RbXoyV02q66fsaOE4gn-E9jet2MlP3XXuWrZDok_q6mTCNZX0LHXBUOSDDZO6K5QzHtAG2UGJi0XLrpJlcGBMLzi0mU_DM-n3iZxsrXv1R7EHfUk9eTgSHM-wZ0re0cBiYIRtawshNkRcRAan53EtjVb_p6anTDPt/w400-h299/abhinn%20shyam%20gupta.JPG" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">‘21वीं सदी के इलाहाहाबादी सम्मान’ प्राप्त करते इंटरनेशनल बैडमिंटन खिलाड़ी अभिन्न श्याम गुप्ता।</td></tr></tbody></table><br /></div></div>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-45658705901347731592023-02-14T19:51:00.000+05:302023-02-14T19:51:08.148+05:30शिक्षण-स्वास्थ्य केंद्रों के संस्थापक राजेश्वर सिंह<p> </p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjGLyLJHtZYOcXIIE_lw7f-CwAyxFcscypjdHPlg0YoQIaBDblsxVmxLmi9XpI_hAKG9Ta2yIes8LpD-4CA6asPktsZbnNiqTTy7zvllXkPAwVwrNmBsVlZonS_auhkFuPEA3vY-L7KYXpjTs5TO_n7GY4nkTb6NZj6VzSF_Rb5xwTVDCKd5EeUM1J3/s1600/rajeshwar%20singh.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1314" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjGLyLJHtZYOcXIIE_lw7f-CwAyxFcscypjdHPlg0YoQIaBDblsxVmxLmi9XpI_hAKG9Ta2yIes8LpD-4CA6asPktsZbnNiqTTy7zvllXkPAwVwrNmBsVlZonS_auhkFuPEA3vY-L7KYXpjTs5TO_n7GY4nkTb6NZj6VzSF_Rb5xwTVDCKd5EeUM1J3/w329-h400/rajeshwar%20singh.jpg" width="329" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="text-align: left;"><span style="color: #6aa84f;">राजेश्वर प्रसाद सिंह</span></span></td></tr></tbody></table><br /><p> </p><p> <span style="color: red;"> - अमरनाथ तिवारी ‘अमर’</span></p><p> <span style="color: #3d85c6;">सुदर्शन काया, काया पर भारतीय परिधान श्वेत धोती-कुर्ता, हंसमुख-मिलनसार और आडंबरहीन स्वभाव, सहज-सरल चेहरे पर तेज, आंखों में चमक, वाणी में ओज, सामने वाले को अकस्मात व बरबस ही अपनी ओर आकृष्ट कर देने वाले चुम्बकीय व्यक्तित्व के धनी स्मृतिशेष राजेश्वर प्रसाद सिंह (बाबूजी) का जन्म 1923 में सैदपुर के रामपुर गांव निवासी जमीदार बाबू सरजू प्रसाद सिंह के घर हुआ था। उनकी प्राथमिक शिक्षा गांव में ही हुई। राजकीय सिटी इंटर कॉलेज, ग़ाज़ीपुर से हाईस्कूल, उदय प्रताप कॉलेज, वाराणसी से 1964 में इंटरमीडिएट करने के बाद स्नातक व विधि स्नातक की शिक्षा इलाहाबाद से प्राप्त की।</span></p><p><span style="color: #3d85c6;">ग़ाज़ीपुर जिले में दर्जनभर शिक्षण सहित विभिन्न संस्थानों के संस्थापक बाबू राजेश्वर प्रसाद सिंह आत्मबल के धनी थे। बाल्यावस्था में ही अनाथ हो जाने के बावजूद उनका आत्म विश्वास नहीं डिगा। पहला शिक्षण संस्थान स्नातकोत्तर महाविद्यालय, ग़ाज़ीपुर की स्थापना के लिए इन्होंने अथक एवं अनवरत प्रयास किया। इस महाविद्यालय को बढ़िया स्वरूप् प्रदान करने के लिए इन्होंने अपना जी-जान लगा दिया। इसके लिए तिनका-तिनका जोड़ा और पाई-पाई जुटाई। आज इस महाविद्यालय में लगभग इस महाविद्यालय में लगभग दस हजार विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं।</span></p><p><span style="color: #3d85c6;">ग़ाज़ीपुर के बहुमुखी विकास हेतु वे आजीवन प्रयत्नशील रहे। शिक्षा, स्वास्थ्य, खेेल सहित अन्य क्षेत्रों में भी जनपद के विकास के लिए उनके योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। इनके द्वारा स्थापित संस्थाओं की विविधता ही उनकी बहुमुखी सोच और सपनों के शिलालेख हैं। स्नातकोत्तर महाविद्यालय, तकनीकी शिक्षा एवं शोध संस्थान, आदर्श इंटर कॉलेज, राजर्षि बाल विद्या निकेतन उनके शिक्षा प्रेम के विशाल शिलालेख हैं। होमियापैथी कॉलेज एवं अस्पताल गरीब आदमी के स्वास्थ्य के प्रति उनकी चिंता का तो नेहरु स्टेडियम उनकी खेल रुचि का परिचायक है। डिवाइन हार्ट फाउंडेशन ह्दय रोग के इलाज के लिए उनका एक ठोस प्रयास है तो विकास निगम जनपद के बहुमुखी विकास की सोच की गाथा है। कवींद्र रवींद्र गं्रथालय और राही शोध एवं सृजन संस्थान साहित्य और साहित्यकारो के प्रति उनके सम्मान-भाव का प्रतीक है। ग़ाज़ीपुर गृह निर्माण समिति</span></p><p><span style="color: #3d85c6;">के माध्यम से ग़ाज़ीपुर नगर में सैकड़ों लोगों को आवास हेतु ज़मीन और संसाधन उपलब्ध कराना और कुष्ठ आश्रम उनके सेवाभावी मन का परिचायक है। भारत सरकार के सहयोग से स्थापित कृषि विज्ञान केंद्र किसानों के प्रति उनके सहयोग-भाव का द्योतक है। एफएम रेडियो स्टेशन की स्थापना संचार माध्यम से लोगों को जोड़ने के लिए उनकी उत्सुकता को दर्शाता है। राजेश्वर प्रसाद सिंह का 02 अप्रैल 2019 को निधन हो गया। </span></p><p><br /></p><p><span style="color: #0c343d;">(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2022 अंक में प्रकाशित)</span></p><p><br /></p>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-71749711307688732412023-01-29T15:10:00.000+05:302023-01-29T15:10:17.728+05:30आखिर क्या है ‘नावक’ और उसका तीर <p> </p><p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqsb-MgJgE4AXGbsgTSKnB9PdlLW8hiK_AMXHTXAnLPORtDIyJjb90ZA6YlEYqUsq2VeCXb1eN0jvc5avZltItedsLf2InS9sodiwwxjgOAwTJuU-H3q2csQimcwIqimWcLn3LjjtVelbcvrG896aFjcuDp3KebpiWFpGW3F0PeRHpcksrGnV557Ot/s451/ajit%20wadnerker.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="446" data-original-width="451" height="316" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqsb-MgJgE4AXGbsgTSKnB9PdlLW8hiK_AMXHTXAnLPORtDIyJjb90ZA6YlEYqUsq2VeCXb1eN0jvc5avZltItedsLf2InS9sodiwwxjgOAwTJuU-H3q2csQimcwIqimWcLn3LjjtVelbcvrG896aFjcuDp3KebpiWFpGW3F0PeRHpcksrGnV557Ot/s320/ajit%20wadnerker.jpg" width="320" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="text-align: left;"><span style="color: #ffa400; font-size: x-small;">अजित वडनेरकर</span></span></td></tr></tbody></table><br /> <span style="color: red; font-size: large;">- अजित वडनेरकर</span></p><p><span style="color: #3d85c6;"> आज की हिन्दी में चाहे ‘नावक’ शब्द का प्रयोग नहीं होता, पर पाठ्यपुस्तकों वाली हिन्दी के ज़रिये इस शब्द से वास्ता ज़रूर पड़ता है। महाकवि बिहारी के सात सौ दोहों के संग्रह ‘सतसई’ का परिचय जिस “सतसैया के दोहरे, ज्यों ‘नावक’ के तीर, देखन में छोटे लगै, घाव करे गंभीर” दोहे में आता है, दरअसल हर किसी का ‘नावक’ शब्द से पहली बार साबका तभी पड़ता है। दिक्कत यह है कि सहजता से उपलब्ध हिन्दी सन्दर्भ ‘नावक’ का अर्थ बताने में लड़खड़ाते नज़र आते हैं। ‘हिन्दी शब्दसागर’ भी जब ‘नावक’ का अर्थ ‘एक छोटा तीर’ बताता है तब सामान्य शब्दकौतुकी की जिज्ञासा का समाधान कैसे हो? गौरतलब है कि ‘नावक’ शब्द की आधारोक्ति में ही ‘ज्यों ‘नावक’ के तीर’ यानी जिस तरह ‘नावक’ के तीर होते हैं”...स्पष्ट किया गया है तब भी कोशकारों ने ‘नावक’ का अर्थ ‘छोटा तीर’ बता कर ही काम चला लिया जबकि अंग्रेजी, फ़ारसी, हिन्दुस्तानी कोशों में इसका अर्थ छोटे तीर के साथ साथ नली, नाली भी दिया हुआ है। दोहे से ही स्पष्ट है कि ‘नावक’ एक तरह का उपकरण है जिससे छोटे तीर चलाए जाते होंगे। अनजानेपन का आलम यह कि उच्चस्तरीय परीक्षाओं में ‘नावक’ के सम्बन्ध में आधिकारिक तौर पर कल्पना की उड़ान भरी जाती है। राज्य लोकसेवा आयोग की अभ्यास पुस्तिका (2008) में देखिए क्या दर्ज़ है- ‘नावक’ यानी एक प्रकार के पुराने समय का तीर निर्माता जिसके तीर देखने में बहुत छोटे परन्तु बहुत तीखे होते थे। इसी तरह उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड की परीक्षा में ‘नावक’ का अर्थ बहेलिया बताया गया। आश्चर्य क्या जब अनेक विद्वान-लेखक इसे ‘नाविक’ लिखते-बोलते हैं और ‘नाविक’ की पैरवी भी करते हैं। अब भला नाविक चप्पू चलाएगा या तीर? </span></p><p><span style="color: #3d85c6;">हिन्दी के विद्वानों में “नावक और तीर” को लेकर कई तरह की भ्रान्तियाँ हैं मसलन- 1. नावक का अर्थ कहीं नाविक यानी माँझी है और कहीं तीर। 2. तीर का अभिप्राय भी बाण न होकर नाविक, नाव, नदी के सन्दर्भ में तट यानी तीर से जोड़ा जाता है। 3. शायरी में नावक का प्रयोग बतौर बाण हुआ है, इसलिए यही इसका अर्थ मान लिया गया। 4. नावक अगर छोटा-धनुष था तब बिहारी के अलावा अन्य किसी ने इस शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया। 5. भारतीय नदियों के नाविक छोटे-छोटे धनुष रखते थे अतः नावक का अर्थ नाविक ही है। </span></p><p><span style="color: #3d85c6;">‘नावक’ का प्रयोग सही, व्युत्पत्ति भ्रामक: आमतौर पर बन्दूक में एक नली होती है। ‘दुनाली’ शब्द सामने आते ही हमारे सामने ऐसी बन्दूक की छवि आती है जिसके साथ दो नलियां जुड़ी होती हैं। इसी तरह ‘नावक’ को भी समझा जा सकता है। ‘नावक’ दरअसल फ़ारसी के ज़रिये हिन्दी में आया है। फ़ारसी में ‘नावः’ शब्द का अर्थ होता है पनाला, परनाला। संस्कृत में प्रणाली या प्रणालिका जैसे शब्द हैं और इनका फ़ारसी रूप हुआ परनाला, पनाला। ‘नावः’ या ‘नाव’ में सामान्य नाली, नहर या प्रणाली का भाव भी है। गौर करें नली जहां चारों और से बन्द लम्बी मगर पोली प्रणाली है वहीं नाली अर्धवृत्ताकार, खुली प्रणाली है। ‘नाव’ का प्रणाली वाला अर्थ और स्पष्ट होता है नाबदान से जिसका अर्थ भी दूषित पानी बहाने वाली नाली ही है। यह मूलरूप से ‘नावदान’ है। भारत-ईरानी परिवार की भाषाओँ में ‘व’ का रूपान्तर अक्सर ‘ब’ में होता है (जैसे वन से बन) उसी के तहत ‘नावदान’ का उच्चार ‘नाबदान’ हो गया। मद्दाह के कोश में नाव यानी नाली, नावः यानी छत से पानी गिराने वाला पाइप, नाबदान यानी दूषित जल का परनाला जैसे अर्थ दिए हैं। कुल मिलाकर हमें प्रणाली वाला अर्थ ग्रहण करते हुए ‘नावक’ का नलीदार भाव समझने में समस्या नहीं होनी चाहिए। मूलतः फ़ारसी में ‘नावक’ एक ऐसे अर्धस्वचालित धनुष को कहा जाता है जिसमें सीधे कमान में तीर फंसाकर नहीं छोड़ा जाता बल्कि कमान खींचने के बाद तीर को एक नाली में से गुज़ारा जाता है। तीर को लीवर या ट्रिगर के ज़रिये कमान से मुक्त किया जता है। ‘नावक’ में जो मुख्य भाव है वह तीर नहीं बल्कि उसका आशय खांचा, सिलवट, शिकन, दर्रा, घाट, नहर, पाइप, नाड़ी, प्रणाली, प्रवाहिका आदि से है। एक ऐसा रास्ता जिससे सहज प्रवाह और गति मिले। जिससे कोई वस्तु गुज़र सके। यह प्रणाली ही गुज़रने वाली चीज़ को दिशा प्रदान करती है, लक्ष्य की ओर ठेलती है। संस्कृत में नाव का अर्थ नौका है फ़ारसी में ‘नाव’, ‘नावः’ दोनों शब्द हैं। दरअसल नाव जहां नौका है वहीं ‘नावः’ का अर्थ नाली भी है। फ़ारसी नावः (नावह) का एक रूप ‘नावक’ हुआ। भारत में ‘नावक’ इस्लामी दौर में ही आया।</span></p><p><br /></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjvs3LObB2De5z0cMAQTKufDgbehkRqa2TvRXruyUNPhTB9w-8DljBPMi6nbwWc7TZDs4MAH2K-O7Wc9BYHVjCnC7vcK9G6N-7LZh0t-7EkeqaTSNOA8NrRYJ5JKjASnP71ycnLMaYgoT5gmVtsIOcLHjLD9TJEO68FcfQn9D-3-UgQ_ZR1IAWzPjEU/s1024/Hindi-Vyakaran-1024x614.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="614" data-original-width="1024" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjvs3LObB2De5z0cMAQTKufDgbehkRqa2TvRXruyUNPhTB9w-8DljBPMi6nbwWc7TZDs4MAH2K-O7Wc9BYHVjCnC7vcK9G6N-7LZh0t-7EkeqaTSNOA8NrRYJ5JKjASnP71ycnLMaYgoT5gmVtsIOcLHjLD9TJEO68FcfQn9D-3-UgQ_ZR1IAWzPjEU/w400-h240/Hindi-Vyakaran-1024x614.png" width="400" /></a></div><br /> <p></p><p><span style="color: #2b00fe;">हिन्दी कोशों में पूरा सन्दर्भ नहीं: साहित्य-सुधियों में दशकों से जो ग़लतफ़हमी है वह नावक ‘के’ तीर की वजह से है। यह जो ‘के’ सम्बन्ध-कारक है इससे पता चलता है कि ‘नावक’ अपने आप में तीर नहीं है बल्कि ‘नावक’ वाला तीर है या ‘नावक’ का तीर है। स्पष्ट है कि ‘नावक’ अपने आप में तीर नहीं है बल्कि एक उपकरण है और बात उससे चलाए जाने वाले तीर की हो रही है। तो विद्वानों को भी यह सम्बन्धकारक ‘के’ खटका अवश्य किन्तु बजाय ‘नावक’ पर शोध करने के उन्होंने पण्डिताऊ ढंग से इसे ‘नाविक’ माना और तीर को किनारा। </span></p><p><span style="color: #2b00fe;">नाविक नहीं है ‘नावक’ : हिन्दी कोश परम्परा में व्युत्पत्ति के नज़रिए से शोध की प्रवृति कम और अद्यतन के नाम पर पूर्ववर्तियों के कामों को जस का तस या थोड़ा बहुत फेरफार करते रहने की प्रवृत्ति ज्यादा रही है। या तो रामायण में ‘र’ वर्ण की आवृत्ति जैसे विषयों पर शोध होते हैं अन्यथा बैठे-बैठाए की गवेषणा और पाण्डित्य ही हिन्दी वालों का मूल स्वभाव है। इसी तरह कोश देखने की वृत्ति भी हिन्दी वालों में विरल है। अधिकांश लोग अगल-बगल के लोगों से अपनी वर्तनी सम्बन्धी जिज्ञासाएं शान्त कर लेते हैं, बजाय कोश देखने के। वर्तनी के सम्बन्ध में लोग लिखित सन्दर्भों की तुलना में सुनी-सुनाई पर ज्यादा निर्भर हैं। अब लेखक तो लेखक है, कोई कीर्तनिया नहीं। सब कुछ उच्चार के आधार पर बरतना है तब सारे शब्दकोश जला दिए जाएँ। कुछ विद्वान कहते हैं कि, ‘नावक’ और नाविक दोनों ही पद चलते हैं। हमने छोटे तीर-कमान वाले ‘नावक’ की वर्तनी ‘नाविक’ किसी भी स्तरीय कोश में नहीं देखी। खास बात यह कि हिन्दी के लगभग सभी महत्वपूर्ण और प्रचलित कोशो में बतौर छोटा तीर ‘नावक’ ही दर्ज़ है। कहीं भी ‘नावक’ का पर्याय अथवा वर्तनी नाविक नहीं है। अलबत्ता हमें नाविकों के तीर-कमान रखने की बात पर कोई ऐतराज नहीं है। और तो और हमारी लोक बोलियों में तो नाविक का उच्चार भी ‘नावक’ हो जाता है- “उदधि उतरने जावत जेहु, ‘नावक’ शरन सो लेवत तेहु”। अब हुआ यह कि हिन्दी कोशों ने ‘नावक’ प्रविष्टि के तहत ‘नावक’ का एक अर्थ नाविक भी दे दिया। स्पष्ट है कि यह जो ‘नावक’ है वह नाविक का अपभ्रंश है और आमतौर पर नाविक का मैथिल या कहीं कहीं अवधी-भोजपुरी उच्चार है। हमारे विद्वानों ने ‘नावक’ और नाविक को पर्याय समझ कर बरतना शुरू कर दिया।... और क्या प्रमाण चाहिए ‘नाविक’ को ख़ारिज़ करने का ?</span></p><p><span style="color: #0b5394;">देखन में छोटे लगे: अनेक विद्वान “देखन में छोटे लगे” से भाव ग्रहण करते हुए ऐसे लघु धनुष-बाण की कल्पना करते हैं जिसकी ज़रूरत ‘शिप्रा’ जैसे नालों के नाविकों को नहीं थी बल्कि जिनकी नौकाएं गंगा-यमुना जैसी विशाल नदियों में तैरती थीं उनके पास होते थे छोटे-छोटे धनुष-बाण। नाविक के पक्ष में वे तर्क देते हैं कि ‘नावक’ अगर नाविक नहीं है तो मध्यकालीन हिन्दी साहित्य में सिवाय बिहारी के ‘नावक’ का ज़िक़्र किसी अन्य ने क्यों नहीं किया? यह मान्यता भी निर्मूल है। इसकी कई मिसालें आगे आएंगी पर इससे पहले सवाल उठाना चाहेंगे कि क्या ज़रूरी है जो बात आपके यहां प्रचलित हो, उसी का उल्लेख साहित्य में होता है!! हमारे यहां ख़ूबसूरती के सन्दर्भ में कोहकाफ़ की परियों का ज़िक़्र होता रहा तो क्या कोहकाफ़ हिन्दुस्तान में है? प्रसंगवश एशिया-यूरोप के बीच काकेशस उपत्यका ही फ़ारसी में कोहकाफ़ कहलाती है। हमारे यहां कारूं के ख़ज़ाने का इस क़दर ज़िक़्र होता है कि इसका मुहावरे की तरह सटीक प्रयोग होने लगा। तो क्या कारूं और उसका ख़ज़ाना यहां था? ज़ाहिर है ये तमाम बातें अरबी, तुर्की, फ़ारसी, मंगोल लोगों से लम्बे संपर्क के दौरान ही हमारी भाषा-संस्कृति में दाख़िल हुईं। </span></p><p><span style="color: #a64d79;">अकेले बिहारी नहीं, और भी हैं: जहां तक नावक के आम इस्तेमाल का प्रश्न है, ‘आम’ था या नहीं इस पचड़े में हम नहीं पड़ेंगे मगर बिहारी, कुलपति, ब्रजवासी दास या चरणदास जैसे मध्यकालीन कवियों से लेकर उन्नीसवीं सदी में ‘ग़ालिब’ और ‘मोमिन’ ने इसे बरता- “नावक-अंदाज़ जिधर दीदए-जानां होंगे। नीम बिस्मिल कई होंगे, कई बेजाँ होंगे”। फिर बीसवीं सदी ‘फ़ैज़’ की शायरी में यह नज़र आता है- “न गंवाओ ‘नावक’-ए-नीमकश, दिल-ए-रेज़ा रेज़ा गंवा दिया जो बचे हैं संग समेट लो, तन-ए-दाग़-दाग़ लुटा दिया”। इक्कीसवीं सदी में डॉ शैलेष ज़ैदी तक की कविताई में इसका इस्तेमाल हआ- “शाखे-शजर पे बैठा हूं मैं इक यतीम सा, सैयाद है निशानए-नावक लिए खड़ा”। ज़रा सोचिए, ‘आम’ का सवाल कितना ‘ख़ास’ रह जाता है? फिर भी बताते चलें कि ‘नावक’ का उल्लेख करने वाले बिहारी अकेले न थे बल्कि तत्कालीन समाज इस नए किस्म के फौजी अस्त्र से परिचित था तभी यह साहित्य में भी दर्ज़ हुआ। सत्रहवीं सदी में आचार्य कुलपति मिश्र ने ‘रस-रहस्य’ में लिखा-“नावक तीर लौं प्राण हरै पलकैं बिछरैं हिय व्याकुल साजै” ब्रजवासी दास की उक्ति “बय बालक चालक दृगनि, सुन्दरि सुछिम सरीर, मनौं मदन गुन पै धरौ, इह नावक कौ तीर” को देख लें। इसी तरह संत कवि चरणदास कहते हैं- “सदगुरु सबदी लागिया नावक का सा तीर, कसकत है निकसत नहीं, होत प्रेम की पीर”। यही नहीं बिहारी दास ने भी एकाधिक जगह ‘नावक’ का उल्लेख किया है- “नावक सर में लाय कै तिलक तरुनि इति नाकि” आदि। </span></p><p><span style="color: #6aa84f;">‘नावक’ मूलतः नली थी, तीर नहीं: ‘नावक’ मूलतः नली है न कि तीर, इस बारे में किसी सन्देह की गुंजाइश ही नहीं है। फ़ारसी के नाव और नावः (अवेस्ता में नवाज़ा, फ़ारसी का एक रूप नाविया भी) बुनियादी तौर पर एक ही हैं मगर एक वाहन है और दूसरा वाहिका/प्रवाहिका। नाव पेड़ को काट कर, कुरेद कर बनाई जाती है और प्रकृति द्वारा कुरेदी गई सिलवटों, दरारों से होकर नदियां बहती हैं। संस्कृत में नाव, नौ के लिए आधार शब्द ‘नु’ है जिसमें नौका, पोत जैसे भाव हैं पर वे बाद में स्थापित हुए। ‘नु’ में निहित पहला अर्थ ध्वनि है। आह्लाद की। गिरते प्रपात की, बहते पानी की ध्वनि मनुष्य के लिए कितनी सुखद रही होगी। इसीलिए नाद का अर्थ आवाज़ हुआ। बाद में प्रवाही-जल ने अपना रास्ता बनाया। यूं नद और नदी शब्द प्रचलित हुए। इसी तरह बाँस की खोखल को नद् की तर्ज़ पर नड़् संज्ञा मिली होगी। एक मिसाल देखें। संस्कृत में नड् का अर्थ है खोखल, बाँस, बांसुरी, नली। नड का रूपविकास है नद् जिसका अर्थ है विशाल जल प्रवाह। जाहिर है धरती में बने खोखले, पोले स्थान में ही पानी जमा होता है। जिस दरार या खांचे से होकर पानी सतत प्रवाही रहे उसे नद् या नदी कहते हैं जो नड् से सम्बद्ध है। इसका एक रूप नळ या नल होता है जिसमें नाली या नाड़ी का भाव है। ‘नू’ का अर्थ एक विशेष अस्त्र भी है। </span></p><p><br /></p><p><span style="color: #8e7cc3;">नाल, बांस, पुंपली: प्रायः सभी शब्द कोशों में ‘नावक’ का अर्थ अनिवार्य रूप से नली बताया गया है। तीर से हट कर इसकी जितनी भी अर्थछटाएं हैं वे नली, नाली से जुड़ती हैं क्योंकि व्युत्पत्तिमूलक अर्थ ही नल, नाली, प्रवाहिका, वितरिका, नहर, बांस, पुंपली, पोंगली आदि है। “ए डिक्शनरी ऑफ पर्शियन अरेबिक एंड इंग्लिश डिक्शनरी” में देखिए जॉन रिचर्ड्सन ‘नावक’ के बारे में क्या कहते हैं- 1. बांस से बना एक तीर जिसकी दांतेदार नोक तेजी से सीधे निशाने पर लगती है और जिसका उपयोग प्रायः तीतर-बटेर के शिकार के लिए किया जाता था। 2.एक ऐसी नली जिसके ज़रिये तीर छोड़ा जाता था. 3.एक बांस या बाँस सरीखी ऐसी कोई भी चीज़ जो सामान्यतः या कृत्रिम रूप से नालीदार या खोखली बनाई गई हो. 4.किसी अनाज पीसने की चक्की तक जाने वाली प्रवाहिका 5.कोई भी नहर, कैनाल. 6.मनुष्य की पीठ गर्दन से कमर तक बनी लम्बी गहरी धारी.) आदि। </span></p><p><span style="color: #8e7cc3;"><br /></span></p><p><span style="color: #8e7cc3;">नली में बारूद से तीर का प्रक्षेपण: जॉन रिचर्ड्सन समेत डेविड निकोल, डंकन फोर्ब्स, जॉन प्लाट्स आदि के कोशों में भी ‘नावक’ शब्द की विवेचना में उसे नाल बताया गया है। गौरतलब है कि जिस तरह वामन शिवराम आप्टे का संस्कृत-अंग्रेजी कोश, संस्कृत-हिन्दी कोश मूलतः मोनियर विलियम्स के काम पर आधारित है उसी तरह हिन्दी शब्दसागर समेत हिन्दी कोशों में अंग्रेजों द्वारा बनाए हिन्दुस्तानी, उर्दू, फ़ारसी कोशों से बहुत कुछ लिया है। हिन्दी शब्दसागर शब्दकोश परियोजना 1928 में पूरी हो गई थी। इसमें ‘नावक’ को “एक छोटा तीर” बता कर काम चला लिया गया। इसके सम्पादक मण्डल के एक सदस्य रामचन्द्र वर्मा नें दशकों बाद इस ग़लती को दुरुस्त किया। 1965 के आसपास उन्होंने अपनी पुस्तक ‘शब्दार्थ-दर्शन’ में स्पष्ट किया कि ‘नावक’ का अर्थ तीर ही समझा जाता है पर ‘नावक’ साधारण तीर नहीं है बल्कि एक विशेष प्रकार का छोटा तीर या उसका फल होता है जो लोहे की नली में रखकर बारूद की सहायता से चलाया जाता था”। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने ‘केशवदास’ में ‘नावक’ का अर्थ दिया है बाँस की छोटी पुपली। ध्यान रहे पुपली, पींपनी अथवा पीपी का अर्थ लोकबोलियों में नली होता है।</span></p><p><span style="color: #6aa84f;">क्रॉसबो जैसी चीज़: ‘नावक’ के नालधनुष या क्रॉसबो जैसा चीज़ रही होगी। अनेक ऐतिहासिक संदर्भ बताते हैं कि क्रॉसबो जैसी तकनीक यूरोप और एशिया की धरती पर अनेक स्थानों पर प्रचलित थी और इसका प्राचीन इतिहास है। अरब, फ़ारस और चीन का भारत से इतना गहरा नाता रहा है कि यह माना नहीं जा सकता कि ‘नावक’ कभी भारत आया न हो। यह पूरी तरह स्पष्ट है कि ‘नावक’ दरअसल नालधनुष था। ये हम अपने मन से नहीं कह रहे हैं बल्कि जॉन प्लॉट्स, रामचंद्र वर्मा समेत अनेक विद्वान लेखक-कोशकार कह रहे हैं और ‘नावक’ का हवाला क्रॉसबो जैसे उपकरण से दे रहे हैं जो नलीदार होता है और कमान के ज़ोर से तीर को नली से होकर गुज़ारा जाता है। </span></p><p><span style="color: #6aa84f;"><br /></span></p><p><span style="color: #6aa84f;">काफूर की दक्षिण विजय में ‘नावक’’: ‘नावक’ के आम इस्तेमाल की बात पर फिर लौटते हैं। ऊपर अनेक मिसालें दी गई हैं कि किस तरह साहित्य में ‘नावक’ शब्द दर्ज़ हुआ है। कहीं प्रक्षेपास्त्र के तौर पर तो कहीं प्रक्षेपण-यन्त्र के तौर पर। हां, ‘नावक’ को बतौर मांझी या नाखुदा कहीं दर्ज़ नहीं किया गया। ये अलग बात है कि भोजपुरी, मैथिली या अवधी में अनेक स्थानों पर नाविक को ‘नावक’ की तरह बरता जाता है। उसकी भी चर्चा ऊपर हो चुकी है। ‘नावक’ का इस्तेमाल आम था या नहीं इसे तूल देने की बजाय गौर किया जाना चाहिए कि मध्यकाल में समाज ‘नावक’ से परिचित था। यूं ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में भी ‘नावक’ का उल्लेख दर्ज़ है। मुग़ल फ़ौज़ें जिन जिन हथियारों और प्रणालियों का इस्तेमाल करती थीं, उनमें ‘नावक’ का उल्लेख है। मुग़ल फौजो में ‘नावक’ का प्रयोग होता था इसके ऐतिहासिक प्रमाण हैं। मुगलों से भी पहले सल्तनत काल में अलाउद्दीन खलजी के सिपहसालार मलिक काफूर ने दक्षिण अभियानों के दौरान ‘नावक’ का जमकर इस्तेमाल किया था, ऐसा द स्केर्क्राे प्रेस, लंदन से प्रकाशित इक्तिदार अहमद खान की “हिस्टॉरिकल डिक्शनरी ऑफ़ मीडिवल इंडिया” समेत अनेक सन्दर्भों में भी ज़िक़्र मिलता है। </span></p><p><span style="color: #0b5394;"><br /></span></p><p><span style="color: #0b5394;">वैतस्तिक और नालास्त्र: ‘नावक’ तुर्की से लेकर फ़ारस तक और फिर चीन के कुछ हिस्सों में प्रचलित रहा। यही नहीं, नावः या नाव (नली) के ज़रिये चलाए जाने वाले धनुषाकार अस्त्र की श्रेणी में ही क्रॉसबो भी आता है। फ़ारसी में इसे ही ‘नावक’ कहते थे। इसका आविष्कार चीन में बताया जाता है जहाँ इसे ‘थुंग’ कहते हैं। गौरतलब है। साइंस एंड सिविलाइजेशन इन चाइना में जोसेफ़ नीधम ने इसी थुंग की तुलना फ़ारसी ‘नावक’ और अरबी शैली के नालधनुष ‘मजरा’ से की है। तमाम सन्दर्भ भरे पड़े हैं जो इसे पूरब का और चीन का आविष्कार बताते हैं। यहां तक कि प्राचीन भारत में भी नालधनुष जैसा अस्त्र था, इसकी गवाही मिलती है। अमरकोश मं नालिका नाम के एक अस्त्र का भी उल्लेख है जिसकी व्याख्या बतौर नालास्त्र की गई है। वैदिक सन्दर्भों में बालिश्त भर आकार के तीर को वैतस्तिक कहा गया है। महाभारत के द्रोणपर्व में “शरैर्वैतस्तिकै राजन् विव्याधासन्नवेधिभिः” में इसका उल्लेख है। संस्कृत विद्वान डॉ.विक्रमजीत के मुताबिक यहाँ श्वितस्तिश् शब्द ‘द्वादशाङ्गुल प्रमाण’ यानी एक बालिश्त माप का वाचक है। वितस्ति से इक प्रत्यय करके वैतस्तिक बनेगा। यहां वैतस्तिक शब्द शर (बाण) का विशेषण है सो वैतस्तिक शर का अर्थ हो गया- बारह अंगुल के तीर। वितस्ता से भी वैतस्तिक शब्द तो बन सकता है पर यहाँ वितस्ता से कोई लेना-देना नहीं। इस तरह श्लोक का अर्थ हो जाएगा - हे राजन् ! निकटवर्ती (शत्रु) को बींधने वाले वैतस्तिक बाणों से (उसने उसको) बींध दिया।” प्रसंगवश पाली भाषा में धनुक का तात्पर्य छोटे धनुष से है। भदन्त आनन्द कौसल्यायन के पाली-हिन्दी कोश में दर्ज़ है। शैलेष ज़ैदी ने तुलसी काव्य की अरबी-फ़ारसी शब्दावली में भी इसी आशय का उल्लेख किया है कि भारतीय लोग ‘नावक’ से काफी पहले से परिचित थे। उन्होंने तो यहां तक अनुमान लगाया है कि फ़ारसी ‘नावक’ शब्द दरअसल हिन्दी की ज़मीन से ही बना होगा। उनके इस अनुमान का प्रमाण मुझे नहीं मिला। इसी तरह ‘नावक’ को संस्कृत ‘नखक’ का रूपान्तर भी बताया जाता है मगर इसकी भी पुष्टि नहीं होती। संस्कृत सन्दर्भों में इसे नाखून की आकृति में आगे की ओर से मुड़ा हुआ चाकू बताया गया है। ध्वनिसाम्य के अलावा नखक के ‘नावक’ बनने का और कोई आधार नहीं है। </span></p><p><br /></p><p><span style="color: #8e7cc3;">क़ौस-अल-नावकिया: गौरतलब है कि करीब 224 ई. से 651 ई. के दौर में फ़ारस के सासानी वंश के दौर में अल-नावकिया नाम का एक समूह भी था जिसे यह नाम ‘नावक’ की वजह से मिला। यह भी उल्लेख है कि ‘नावक’ के ज़रिये दुश्मनों पर जलते हुए तीर भी बरसाए जाते थे। यही नहीं इसी दौर में ‘नावक’ का उल्लेख “क़ौस-अल-नावकिया” भी मिलता है। ध्यान रहे अरबी में क़ौस यानी धनुष। अरबी-फ़ारसी का ‘इया’ प्रत्यय सम्बन्धसूचक है। सो नावकिया का अर्थ हुआ ‘नावक’ वाला। इस तरह क़ौस-अल-नावक़िया का अर्थ हुआ नालधनुष या नलीदार धनुष। कहने वाले कह सकते हैं क़ौस-अल-नावकिया का अर्थ छोटे (तीर) वाला धनुष भी हो सकता है! हमारा कहना है ऐसा सोचना भूल होगी। धनुष में बाण समाहित है। धनुष से तीर ही चलाया जाएगा। यहाँ आशय तीर नहीं प्रणाली से है। मिसाल के तौर पर रायफल, बन्दूक, रिवॉल्वर, मशीनगन सबका रिश्ता गोली से है पर इनके अलग अलग नाम गोली के आकार में बदलाव की वजह से नहीं बल्कि तकनीक के बदलाव की वजह से है। स्पष्ट है कि ‘नावक’ एक प्रणाली पहले है, तीर बाद में है।</span></p><p><span style="color: #8e7cc3;"><br /></span></p><p><span style="color: #8e7cc3;">और आखिर में...बंदूक से निकली बंदूक: अस्त्रों के नामकरण का एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कभी उसे प्रक्षेपित करने वाले उपकरण का नाम मिला तो कभी प्रक्षेपित होने वाले पदार्थ का। जैसे ‘नावक’ का मूलार्थ है “वह नली जिससे तीर छोड़ा जाए” पर ‘नावक’ का अर्थ तीर भी हुआ, हालाँकि नली की पहचान भी बनी रही। इसके उलट हाल बंदूक का है जो अरबी शब्द है और दरअसल वह गोली है। बंदूक की नली से भी बंदूक ही निकलती है और बंदूक ही लगती है। बंदूक शब्द ध्यान में आते ही लंबी नली नज़र आती है मगर बंदूक के नामकरण में नली का नहीं बल्कि गोली का योगदान है। श्बंदूकश् मूल रूप से अरबी भाषा का शब्द भी नहीं है, यह ग्रीक के ‘पोंटिकोन’ से बना। पोंटिकोन का ही अरबी रूप श्अल-बोंदिगसश् हुआ। इसका अगला रूप ‘फुंदुक’ और फिर ‘बुंदूक’ हुआ। बाद में जब राईफल का आविष्कार हुआ तो उसकी गोली यानी कारतूस को बंदूक कहा जाने लगा। बाद में मुख्य हथियार का नाम ही बंदूक लोकप्रिय हो गया। इसके विपरीत बेहद छोटे आकार के जेबी हथियार के तौर पर बनाई गई पिस्तौल की पहचान नली की बजाय उसका हत्था और ट्रिगर होती है, मगर पिस्तौल के नामकरण में नली का योगदान है। पिस्तौल शब्द का मूल पूर्वी यूरोपीय माना जाता है। रूसी भाषा में एक शब्द है पिश्चौल चंेबींस जिसका अर्थ होता है लंबी पतली नली। बंदूक और पिस्तौर की मिसालों से साबित होता है कि ‘नावक’ के साथ भी वैसा ही हुआ। ‘नावक’ मूलतः उपकरण है। कालान्तर में तीर को भी उपकरण का ही नाम मिल गया और उसे भी ‘नावक’ कहा जाने लगा। </span></p><p><span style="color: #8e7cc3;"><br /></span></p><p><span style="color: #8e7cc3;">अपनी बात: शब्दों के जन्मसूत्र तलाशना मेरा शौक़ है, कोई अकादमिक विवशता नहीं। प्रामाणिकता के साथ किया जा रहा शब्दविलास है। इसे भाषा वैज्ञानिक, साहित्यिक या सर्जनात्मक कर्म माना जाए ऐसी भी महत्वाकांक्षा नहीं। भाग्यवान हूं कि इसके बावजूद हिन्दी के शीर्षस्थ विद्वानों की सराहना मिल रही है। बहुत वर्षों से साध है कि बोलचाल की हिन्दी का अपना एक ऐसा व्युत्पत्ति कोश ज़रूर होना चाहिए जिसमें आमफ़हम शब्दों के जन्मसूत्र तो हों ही साथ ही वे तमाम शब्द भी अपनी मूल पहचान के साथ इसमें हों जो अलग अलग कालखण्ड में विदेशी भाषाओं से हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं में समा गए। इसी मक़सद को लेकर मैने ‘शब्दों का सफ़र’ परियोजना पर काम शुरू किया। हिन्दी शब्द-सम्पदा के जन्मसूत्रों की तलाश और उनकी विवेचना का काम बीते दस वर्षों से चल रहा है। राजकमल प्रकाशन से शब्दों का सफ़र के दो पड़ाव आ चुके हैं। तीसरा आने वाला है। इस काम को दस पड़ावों में समेटने का मन है।</span></p><p><span style="color: #6aa84f;">(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2022 अंक में प्रकाशित)</span></p><div><br /></div>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-67950797637628145452023-01-20T21:57:00.000+05:302023-01-20T21:57:09.080+05:30 प्रेरणादायक व्यक्तित्व पद्मश्री डॉ. राज बवेजा<p> </p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiMcI-kCzH5H7l_0V5RJKed0NWakX45f9gCC01OJPgDzse_6Ps_hGcUr5754b2fV2ooZTYSWVYOnekOCp4GPbB1FRgIRChBt-h4RasLVLonZCMwht26FbBVu6Ebrx27BGScD25b76aVqYzJA47RYycsmrfwzCkxtD6Q3udV-KXhF6vPF7CF9buKZxWB/s264/DR.%20Raj%20Baweja...jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="264" data-original-width="174" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiMcI-kCzH5H7l_0V5RJKed0NWakX45f9gCC01OJPgDzse_6Ps_hGcUr5754b2fV2ooZTYSWVYOnekOCp4GPbB1FRgIRChBt-h4RasLVLonZCMwht26FbBVu6Ebrx27BGScD25b76aVqYzJA47RYycsmrfwzCkxtD6Q3udV-KXhF6vPF7CF9buKZxWB/w264-h400/DR.%20Raj%20Baweja...jpg" width="264" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: #6aa84f;">पद्मश्री डॉ. राज बवेजा</span></td></tr></tbody></table><br /><p><br /></p><p> <span style="color: red;">-इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी</span></p><p> </p><p> <span style="color: #674ea7;">पद्मश्री डॉ. राजकुमारी बवेजा राष्ट्रीय स्तर की ख्याति प्राप्त स्त्री-रोग विशेषज्ञ हैं। इन्होंने अपनी क़ाबलियत, सक्रियता और मानव सेवा के जरिए समाज में एक अलग मकाम बनाया है, जिसकी वजह से पूरे देश में इनका नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। लगभग 90 वर्ष की आयु में आज भी अपने चिकित्सीय सेवा का निर्वहन बड़ी तन्मयता से करती हैं। जार्जटाउन स्थित अपने निवास पर आज भी शाम के वक़्त मरीजों को देखती हैं। इनका कार्य दूसरे चिकित्सकों के लिए प्रेरणास्रोत है।</span></p><p><span style="color: #674ea7;">डॉ. राज बवेजा का जन्म 19 नवंबर 1934 को संतनगर, लाहौर में हुआ था। पिता स्वर्गीय श्री प्रभुदयाल बवेजा लाहौर में ही सरकारी नौकरी करते थे। देश के विभाजन के समय माहौल खराब होने पर पिता ने राज बवेजा को उनके मामू के यहां दिल्ली छोड़ दिया, ताकि बिना किसी खतरे के उनकी परवरिश हो सके। उन दिनों इस बात का डर था कि लड़कियों को उपद्रवी उठा ले जाएंगे। फिर देश का बंटवारा हो जाने पर पिता रोहतक आ गए और राज बवेजा को भी उनके पिता रोहतक कैम्प में ले गए। वहां शरणार्थियों के लिए पूड़ी-सब्जी आती थी, सब लोग मिलकर खाते थे। राज बवेजा की नानी और दादाजी का इसी दौरान अमृतसर में निधन हो गया। </span></p><p><span style="color: #674ea7;"> कुछ दिनों बाद ही लखनऊ में पिता श्री प्रभुदयाल बवेजा को सरकारी नौकरी मिल गई। राज बवेजा की एक छोटी बहन और एक भाई थे। तीनों लोग लखनऊ में ही पढ़ाई करने लगे। किसी ने राज बवेजा को बताया कि होम साइंस पढ़ने से डाक्टर बना जा सकता है। इसी वजह से लालबाग लखनऊ में कक्षा नौ में होम साइंस विषय में दाखिला ले लिया। इसी दौरान पिता प्रभुदयाल बवेजा का दक्षिण भारत के विजयवाड़ा में तबादला हो गया। मां ने इनकी पढ़ाई में कोई कसर नहीं छोड़ी, हर तरह से सहयोग करके पढ़ाई कराई। राज बवेजा ने कक्षा 11 में साइंस विषय से लखनऊ में ही दाखिला लिया। वर्ष 1952-53 में आपका पी.एम.टी. में चयन हो गया। इसी समय में बी.एस-सी में भी दाखिला ले लिया था। पीएमटी में चयन और दाखिला के बाद बी.एस-सी का नामांकन बड़ी मुश्किल से रद्द कराया गया, क्योंकि फीस वापस लेनी थी। लेकिन एक अंजान लड़के के सहयोग से फीस की वापसी हुई। पिता के बिजयवाड़ा में होने की वजह से उनके पिता के दोस्त ने राज बवेजा का पूरा मार्गदर्शन किया। आपने किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज लखनऊ से एम.बी.बी.एस. और एम.एस. किया था। इसके बाद इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से गाइनाकोलॉजी में पी.एच-डी. किया। इसके बाद आप इलाहाबाद के मोती लाल नेहरु मेडिकल कॉलेज में पहले ऑफिसर, फिर प्रोफेसर और इसके बाद महिला एवं प्रसूति विभाग की विभागाध्यक्ष हो गईं। जहां आपने वर्ष 1992 तक कार्य किया। 1998-99 में आप मोती लाल नेहरु मेडिकल कॉलेज की निदेशक थीं। आपने कॉमन वेल्थ स्कॉलरशिप के माध्यम से बांझपन और गर्भावस्था हानि (भ्स्। इवकपमें) में इम्यूनोलॉजी पहलू पर ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय और जॉन राडक्लिफ अस्पताल में भी काम किया है। 1984-85 में आपने डब्ल्यू.एच.ओ. जिनेवा में अस्थायी सलाहकार डब्ल्यू.एच.ओ. जिनेवा के प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों के लिए आवश्यक प्रसूति और स्त्री रोग संबंधी शल्य प्रक्रिया तैयार की थी।</span></p><p><span style="color: #674ea7;"> विश्व स्वास्थ्य संगठन और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च का ह्यूमन रिप्रोडक्शन रिसर्च सेंटर स्थापित करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। कई सामाजिक संगठनों से जुड़ी हैं और आज भी जरूरतमंदों की सेवा में अपना योगदान दे रही हैं। उनके सेवा कार्यों की वजह से ही भारत सरकार ने उन्हें पदमश्री से वर्ष 1983 में नवाजा। जीवन के प्रति सकारात्मकता और संयमित जीवन उन्हें 90 वर्ष की उम्र में भी ऊर्जावान बनाए हुए हैं। खुद ड्राइविंग करने और मरीजों का आपरेशन करने में उनके हाथ नहीं कांपते। डॉ. बवेजा कहती हैं कि जब तक आप न चाहें उम्र आप पर प्रभाव नहीं डाल सकती। उन्हें आज भी सेवा में वही सुख मिलता है, जो सुख उन्हें पहली बार एप्रिन पहनने पर मिला था।</span></p><p><span style="color: #38761d;">(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2022 अंक में प्रकाशित )</span></p><p><br /></p>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-59916967690771559992023-01-18T15:23:00.000+05:302023-01-18T15:23:33.030+05:30जीवन की अभिव्यक्तियों के चित्रण की कविताएं<p> <span style="color: red;"> - अजीत शर्मा ‘आकाश</span>’</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBUV30fa2IX0S75EkXF3_oAm0qExx8hkjyH1-_F8sevSdngeu4X8TtCzAtHQurUMo5NkLWXEgKBqmG5P5m8Da4hMID8zoQ24Qk3y5lBNcvWDVJbjbu1dC0Er6OxdEdPDKveVuKWTD3YNdUpu3XnwvLcJyXEHMkq_BpBCUAWPZGoLfW5WxSfBw6ubUr/s2530/THOKAR%20SE%20THARO%20NAHI.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2530" data-original-width="1648" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBUV30fa2IX0S75EkXF3_oAm0qExx8hkjyH1-_F8sevSdngeu4X8TtCzAtHQurUMo5NkLWXEgKBqmG5P5m8Da4hMID8zoQ24Qk3y5lBNcvWDVJbjbu1dC0Er6OxdEdPDKveVuKWTD3YNdUpu3XnwvLcJyXEHMkq_BpBCUAWPZGoLfW5WxSfBw6ubUr/w260-h400/THOKAR%20SE%20THARO%20NAHI.jpg" width="260" /></a></div><br /><p><br /></p><p> <span style="color: #674ea7;"> ‘ठोकर से ठहरो नहीं’ कवयित्री अर्चना सबूरी की 90 कविताओं एवं क्षणिकाओं का संग्रह है। कहा गया है कि कविताएं मन के भावों को व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम हैं। इस काव्य संग्रह की रचनाओं के माध्यम से जीवन की विसंगतियों एवं जटिल परिस्थितियों को पाठकों के समक्ष लाने का प्रयास किया गया है। कविता-लेखन के संबंध में पुस्तक के आत्मकथ्य के अंतर्गत कवयित्री का कहना है कि ज़ि़न्दगी किसी की भी आसान नहीं है, सब की ज़िन्दगी में अपने-अपने तरीके के कष्ट हैं, दुःख हैं। संग्रह की अधिकतर रचनाएं कवयित्री के इसी दार्शनिक विचार से ओतप्रोत प्रतीत होती हैं। रचनाओं में अनेक स्थलों पर जीवन के यथार्थ चित्रण की झलक परिलक्षित होती है। कविताओं में संत्रास, घुटन, वेदनाओं एवं अनुभूतियों को शब्द प्रदान किये गये हैं। अधिकतर कविताएं समय और व्यक्ति के बीच के द्वंद्व को पाठक के समक्ष लेकर आती हैं तथा संवाद और संघर्ष करती प्रतीत होती हैं। सामाजिक सरोकारों के ताने-बाने में रचा-बसा कथ्य सराहनीय है। रचनाओं में यत्र-तत्र जीवन के अन्य अनेक रंग भी सामने आते हैं। संग्रह में ‘सपनों में सही’, ‘मीठी यादें’, ‘निभाती हूं’, ‘मत आया करो’ जैसी श्रृंगार एवं प्रेम विषयक कुछ रचनाओं एवं क्षणिकाओं को भी स्थान दिया गया है। ये कविताएं प्रेम के विभिन्न पक्षों, संबंधों, विसंगतियों, सुखद अनुभूतियों और प्रेम की वयक्त-अव्यक्त अभिव्यक्तियों को चित्रित करती हैं तथा संयोग एवं वियोग के भाव उत्पन्न करती हैं। काव्य संग्रह में कवयित्री के सराहनीय सृजन की झलक परिलक्षित होती है। कुछ स्थानों पर वर्तनीगत, व्याकरणिक एवं प्रूफ़ संबंधी अशुद्धियां भी हैं, जिन्हें दूर किया जा सकता था। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि नई कविता लेखन-क्षेत्र में ‘ठोकर से ठहरो नहीं’ कवयित्री अर्चना सबूरी का एक सराहनीय प्रयास है। 96 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 150 रूपये है, जिसे गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है।</span></p><p><span style="color: red; font-size: large;"> </span></p><p><span style="color: red; font-size: large;">हिन्दी के छन्द विधान की जानकारी की पुस्तक</span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhoWdQGWyQU2uRiz7mwxNP1RN-cE-8VowgW3OVZoWn1yLSbZ8xHbZdlzVQzzcDZqet0xWHPw5Q85zARxpDcFiDiMtqiN24PDX_GOcz3NY3oZs-xPxt1RY8ejtMrDN1q0rJSwbiMOqGTB0QNg0atgUcrLmoZuhjm-5wB3sZhIqqHF14pcM9_cwfpX98w/s2181/anternaad.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2181" data-original-width="1436" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhoWdQGWyQU2uRiz7mwxNP1RN-cE-8VowgW3OVZoWn1yLSbZ8xHbZdlzVQzzcDZqet0xWHPw5Q85zARxpDcFiDiMtqiN24PDX_GOcz3NY3oZs-xPxt1RY8ejtMrDN1q0rJSwbiMOqGTB0QNg0atgUcrLmoZuhjm-5wB3sZhIqqHF14pcM9_cwfpX98w/w264-h400/anternaad.jpg" width="264" /></a></div><br /><p><br /></p><p><span style="color: #741b47;"> हिन्दी साहित्य के रीतिकालीन आचार्य कवियों ने आत्म-प्रदर्शन के अंतर्गत अपनी बहुज्ञता प्रदर्शित करने के लिए या काव्य प्रेमियों को ज्ञान देने के लिए लक्षण ग्रन्थों की रचना की थी। इन लक्षण ग्रन्थों में काव्यांगों का लक्षण देकर उसका स्वरचित उदाहरण देने की परम्परा थी। सम्भवतः उसी परंपरा के अंतर्गत अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने अपनी ‘अंतर्नाद’ पुस्तक में हिन्दी साहित्य के प्रचलित एवं अप्रचलित विभिन्न मात्रिक एवं वर्णिक छन्दों के शिल्प विधान के अन्तर्गत उनकी मात्राओं, विभिन्न गणों एवं मापनी की जानकारी का उल्लेख करते हुए उनके स्वरचित उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। पुस्तक दो खण्डों में विभाजित की गयी है। खण्ड एक में 21 मात्रिक छन्दों एवं खण्ड दो में 21 वर्णिक छन्दों का परिचय एवं उनके उदाहरण हैं। प्रचलित मात्रिक छन्दों के अंतर्गत दोहा, सोरठा, चौपाई, रोला, कुण्डलिया, आल्हा जैसे शास्त्रीय छन्दों का उल्लेख है, तो अनेक अप्रचलित छन्द भी सम्मिलित हैं। इसी प्रकार वर्णिक छन्दों के अन्तर्गत भी सवैया एवं घनाक्षरी जैसे प्रचलित एवं अन्य अनेक अप्रचलित छन्दों का उल्लेख स्वरचित उदाहरण देकर किया गया है। पुस्तक में वर्णित कुछ मात्रिक छन्द तो उर्दू ग़ज़लों की अति प्रचलित बह्रों की भांति हैं, जिन्हें हिन्दी छन्दों का नाम दिया गया है। यथा- बिहारी, दिगपाल, शुद्ध गीता, विधाता आदि छंद। रचनाकार ने रचनाओं की भाषा को सहज रखने का प्रयास किया है, जिसके लिए हिन्दी खड़ी बोली के साथ-साथ आसपास के क्षेत्र की बोली में प्रयुक्त शब्दों का प्रयोग किया गया है। हालांकि कहीं-कहीं कठिन एवं संस्कृतनिष्ठ शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। पाठकों की सुगमता के लिए रचनाओं के अन्त में कुछ कठिन शब्दों के अर्थ भी दिए गए हैं। पुस्तक के अन्तर्गत कहीं-कहीं अशुद्धियां भी परिलक्षित होती हैं, यथा- कुछ रचनाएं शिल्प की दृष्टि से दोषयुक्त हैं, जिसके कारण लयभंग की स्थिति आ जाती है। सोरठा छन्द के कुछ उदाहरणों में मात्राओं की गणना ठीक होते हुए भी इसी प्रकार का लय भंग दोष है। रचनाओं में जप्त, भृष्ट, खतम, नीती, खयालें जैसे अशुद्ध शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए था। कुल मिलाकर पुस्तक का लेखन श्रमसाध्य कहा जाएगा। साहित्य के गहन एवं गंभीर अध्येताओं के लिए यह पुस्तक पठनीय है। अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ की 128 पृष्ठों की इस पुस्तक को नवकिरण प्रकाशन, बस्ती (उ0प्र0) द्वारा प्रकाशित किया गया है, जिसका मूल्य 180 रुपए है।</span></p><p><span style="color: red; font-size: large;"> पठनीय एवं सराहनीय काव्य-संग्रह</span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh1SU94pD6lM6MK_tF9xgOeHY3kCLbO0BGsyxSjt1F4Ld_Z_HSAm9cT2w7QuhRbPNA9qve7gMbl-5dQ9VOm1TQPUHw3AxTLR13VRykq-m9Wv7bOp1QdT6uXVL7V1sCUo39ydcDLhVU2xW44iQWZZPyKUCYE3TdkcPo5ZQ5rznTC0Py5M3PDsBJ0ayho/s2232/aaina-e-hayat.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2232" data-original-width="1464" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh1SU94pD6lM6MK_tF9xgOeHY3kCLbO0BGsyxSjt1F4Ld_Z_HSAm9cT2w7QuhRbPNA9qve7gMbl-5dQ9VOm1TQPUHw3AxTLR13VRykq-m9Wv7bOp1QdT6uXVL7V1sCUo39ydcDLhVU2xW44iQWZZPyKUCYE3TdkcPo5ZQ5rznTC0Py5M3PDsBJ0ayho/w263-h400/aaina-e-hayat.jpg" width="263" /></a></div><br /><p><br /></p><p><span style="color: #2b00fe;"> ’आईना-ए-हयात’ अतिया नूर के 80 गीतों और नज़्मों का संग्रह है। बेहतरीन कलाम और सशक्त शैली इस संग्रह की मुख्य विशेषता है। हिंदी और उर्दू में एकता स्थापित करके आम बोलचाल की भाषा में ये अपनी बात कहती हैं। भाषा, शिल्प और सलीक़े की बात कहने में इन्हें पूरी महारत हासिल है। रचनाकार का अपना अनुभव, अपनी सोच एवं भावाभिव्यक्ति उत्तम कोटि की है। ’आईना-ए-हयात’ का काव्य सृजन रचनाकार की रचनाधर्मिता एवं सृजनात्मकता को उजागर करता है। कई रचनाएं बहुत अच्छी बन पड़ी हैं। शिल्प विधान की दृष्टि से भी कविताएं आकर्षित करती हैं तथा काव्य व्याकरण की कसौटी पर सभी रचनाएं पूर्णतः खरी उतरती हैं। कथ्य की दृष्टि से भी सभी रचनाएं श्रेष्ठ एवं सराहनीय हैं। ‘उर्दू की कहानी’ कविता के माध्यम से संक्षेप में उर्दू भाषा का पूरा इतिहास बता दिया गया है। ‘तख़्त पे क़ातिल बिठाया जाएगा’ कविता में तुच्छ राजनीति पर प्रहार करने का प्रयास किया गया है। ’ऐ मेरी माँ’, ’जहाँ सर झुका दो’ या ’ये कौन लोग है’ सभी रचनाएं बेहतरीन है। अतिया नूर की लेखनी में परिपक्वता एवं काव्य की व्यापक समझ है। शिल्प विधान की दृष्टि से भी कविताएं आकर्षित करती हैं। संग्रह में सम्मिलित’झीनी-झीनी बिनी चदरिया’ गीत दार्शनिकता का पुट लिए हुए हैः- झूठे सारे बंधन हैं और झूठे रिश्ते नाते हैं/मैं हूँ तेरी, तू है मेरा ,सब किस्सों की बातें हैं/चार दिनों का खेल-तमाशा, चार दिनों का मेला है/आते वक़्त अकेला था तू, जाते वक़्त अकेला है/पल दो पल है यहां ठहरना दुनिया जैसे ढाबा जी/मन में हो गर मैल तो फिर क्या जाना काशी-काबा जी। पुस्तक में कहीं-कहीं प्रूफ़ सम्बन्धी त्रुटियां हैं। इसके अतिरिक्त एक रचना को मात्र एक पृष्ठ में समेट देने के लिए पुस्तक के मुद्रण में अलग-अलग फ़ॉण्टृस साइज़ का प्रयोग प्रकाशक ने किया है, पढ़ने के दौरान पाठक को कुछ असुविधा-सी होती है। कुल मिलाकर ’आईना-ए-हयात’ एक अतिया नूर का पठनीय एवं अत्यन्त सराहनीय काव्य-संग्रह है। रवीना प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 90 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 200 रूपये है।</span></p><p></p><p><br /></p><p><span style="color: red; font-size: large;"> मनोभावों को अभिव्यक्त करतीं कविताएं </span> </p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWStd-Wyv8PQELoFgHySP9FNSgJR2T2OaCxN8PC0ktZTr2WaxaCOd2rkLIBbl585ojLr1xN3krydN_00ccL-fqw6NhrN3JfPiKe74PliJxVhmicwlA66XpWJ2fNM7hiknQrh3mqrDqoVv-9hHEbcfdQqpai9ITaglxJ23XPfnwnq6fzVCne8RrtXgg/s2359/pahli%20boond.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2359" data-original-width="1552" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWStd-Wyv8PQELoFgHySP9FNSgJR2T2OaCxN8PC0ktZTr2WaxaCOd2rkLIBbl585ojLr1xN3krydN_00ccL-fqw6NhrN3JfPiKe74PliJxVhmicwlA66XpWJ2fNM7hiknQrh3mqrDqoVv-9hHEbcfdQqpai9ITaglxJ23XPfnwnq6fzVCne8RrtXgg/w264-h400/pahli%20boond.jpg" width="264" /></a></div><br /> <p></p><p><span style="color: #0b5394;">डॉ. मधुबाला सिन्हा के कविता-संग्रह ‘पहली बून्द’ में उनकी 64 कविताएं संग्रहीत हैं। इन कविताओं में कवयित्री द्वारा वर्तमान सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहलुओं को उभारने की चेष्टा की गयी है। कविताएं समय और व्यक्ति के द्वंद्व को उकेरती हुई संवाद और संघर्ष करती सी प्रतीत होती हैं। अधिकतर रचनाएं आदमी की आशा, निराशा, चुनौतियां, संवेदनाएं, उसका अलगाव जैसी अभिव्यक्तियों को पाठक तक पहुंचाती है। जीवन की विसंगतियां, मानव मन की गुत्थियां, अंतर्मन की पीड़ाएं, नारी-मन की व्यथा एवं आज के सरोकार आदि का चित्रण भी संकलन की कविताओं में किया गया है। कविताओं में जीवन की विषमता एवं विवशता, निराशाएं तथा कुण्ठाएं, समाज की पुरानी रूढ़ियों एवं परम्पराओं के प्रति क्षोभ एवं आक्रोश परिलक्षित होता है। साथ ही, प्रकृति-चित्रण एवं प्रेम तथा श्रृंगार विषयक रचनाएं भी हैं। कविता-संग्रह में मन की भावनाओं के कई रूप हैं, जिन्हें अभिव्यक्ति प्रदान करने का प्रयास किया गया है। कथ्य की दृष्टि से रचनाओं में विविधता परिलक्षित होती है। </span></p><p><span style="color: #0b5394;"> कविता-संग्रह में ‘रेशमी लड़की’, ‘रिश्ता’, ‘स्वप्न’ जैसी स्त्री-विमर्श की रचनाएं भी सम्मिलित हैं। कवयित्री का मानना है कि ‘कविता चाहे वह देश की हो, दर्द की हो या फिर छटपटाते-तड़पते दिलों की हो, वह नारी की ही आवाज़ है। नारी वर्ग के प्रति समाज की पूर्वपोषित परम्पराओं से विद्रोह की भावना इन रचनाओं में स्पष्ट रूप से इंगित होती है तथा नारी-मन की व्यथा को उजागर करने में रचनाकार को सफलता मिली है। शिल्प की दृष्टि से संकलन की कविताएँ अतुकान्त एवं छन्दहीन हैं। लेखन में सरल एवं सहज शब्दों का प्रयोग किया गया है। शब्दों में कृत्रिमता एवं आडम्बर नहीं झलकता है। यद्यपि, अनेक रचनाओं में व्याकरणिक एवं वर्तनीगत त्रुटियां परिलक्षित होती हैं। ध्यातव्य है कि साहित्यिक सृजन हेतु काव्य व्याकरण एवं भाषा व्याकरण का सम्यक् ज्ञान भी रचनाकार के लिए अत्यावश्यक होता है। संकलन के शीर्षक में प्रयुक्त ‘बून्द’ शब्द ही वर्तनीगत रूप से त्रुटिपूर्ण है। इस पर दृष्टि जाते ही लेखक एवं प्रकाशक का भाषा एवं वर्तनी ज्ञान पाठक के समक्ष स्वयमेव उजागर हो जाता है। फिर भी, महिला लेखन के क्षेत्र में कवयित्री का यह प्रयास स्वागत योग्य है तथा रचनाशीलता सराहनीय है। 64 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 100 रूपये है, जिसका प्रकाशन नवारम्भ, पटना ने किया है।</span></p><p><span style="color: #6aa84f;">(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2022 अंक में प्रकाशित)</span></p><div><br /></div>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-91042717742748764862022-12-27T19:28:00.000+05:302022-12-27T19:28:34.269+05:30 बुद्धिसेन ने शब्दों को नगीने की तरह पिरोया: प्रो. फ़ातमी<p><span style="color: red; font-size: large;">‘बुद्धिसेन शर्मा जन्मोत्सव-2022’ में जुटे कई महत्वपूर्ण साहित्यकार</span></p><p><span style="color: red; font-size: large;">कई पुस्तकों को हुआ विमोचन, तीन लोगों को किया गया सम्मानित</span></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtcJHm6sqXho4_g8A9GK-251hYrPH5gjNAZ8etKo4Ss1JoTwyPMwCwOGcftPrk6P27szda3nMHCslLEI6nii3Xo0MwPUwnbPjty_DeGzluOlBp4B3ZgX-nk4JHa7xklQILX3BM1Et7D2cEwkRTikxZDEGih7evO_q97g46L6n7CYsC7-VrDrpTn3wc/s1335/vimochan-hamare%20chahne%20wale%20bahut%20hain.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="410" data-original-width="1335" height="195" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtcJHm6sqXho4_g8A9GK-251hYrPH5gjNAZ8etKo4Ss1JoTwyPMwCwOGcftPrk6P27szda3nMHCslLEI6nii3Xo0MwPUwnbPjty_DeGzluOlBp4B3ZgX-nk4JHa7xklQILX3BM1Et7D2cEwkRTikxZDEGih7evO_q97g46L6n7CYsC7-VrDrpTn3wc/w640-h195/vimochan-hamare%20chahne%20wale%20bahut%20hain.JPG" width="640" /></a></div><br /><span style="color: #351c75;"><br /></span><p></p><p><span style="color: #351c75;">प्रयागराज। बुद्धिसेन की गजल सुनना पूरे काल खंड को सुनना होता है। उनकी पुस्तक ‘हमारे चाहने वाले बहुत हैं’ उनके व्यक्तित्व को बताती रहेगी। यह उद्गार मशहूर गीतकार यश मालवीय ने उत्तर मध्य सांस्कृतिक केंद्र के प्रेक्षागृह में दिया। गुफ़्तगू संस्था के तत्वावधान में दिवंगत शायर बुद्धिसेन शर्मा का जन्मोत्सव उनके जन्म दिवस पर 26 दिसंबर को मनाया गया। इस अवसर पर बुद्धिसेन शर्मा की पुस्तक ‘हमारे चाहने वाले बहुत हैं’, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ के काव्य संग्रह ‘सोंधी महक’ और गुफ़्तगू के नये अंक का विमोचन भी किया गया। वरिष्ठ शायर डॉ. असलम इलाहाबादी, वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र और शायरा अना इलाहाबादी को ‘बुद्धिसेन शर्मा सम्मान’ से नवाजा गया।</span></p><p><span style="color: #351c75;"> कार्यक्रम में गीतकार यश मालवीय ने कहा कि बुद्धिसेन शर्मा गंगा जमुना तहजीब के जिंदा मिशाल थे। उनकी गजलों को सुनना ऐसा लगता है कि पूरा एक काल खंड को सुन रहे हैं। वो इलाहाबाद के इतिहास पुरूष रहे हैं। शर्मा जी गजल में ही रहते जीते थे। इश्क सुल्तानपुरी ने गुरु शिष्य परंपरा में नया आयाम दिया, यह आयोजन कराकर वह बुद्धिसेन शर्मा के श्रवण कुमार बन गए। दरअसल लेखक की असल जिंदगी उसकी मौत के बाद ही शुरू होती है। इम्तियाज अहमद गाजी ने बुद्धिसेन शर्मा की किताब का प्रकाशन करके उन्हें फिर से जीवंत कर दिया। अब इश्क़ सुल्तानपुरी और इम्तियाज अहमद गाज़ी पंडित जी की दो आंखे हैं। अपने अध्यक्षीय संबोधन में अली अहमद फातमी ने कहा कि हम बुद्धिसेन शर्मा को मीर तकी के समकक्ष मान सकते हैं। सादगी से शेर कहना उनकी शख़्सियत की निशानी है। जिंदगी का जो फलशफ़ा उन्हेंने सीखा वह उनकी शायरी में दिखता है। वो सादगी के साथ सामने के शब्द उठाते हैं। उन शब्दों को शायरी में नगीने की तरह पिरोते थे। सर से पांव तक शायर थे खुद ही उर्दू ग़ज़ल थे। उनकी शायरी में गजब की सादगी एक फकीरी थी।</span></p><p><span style="color: #351c75;"> मशहूर शायर अजीत शर्मा ने अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ की पुस्तक ‘सोंधी महक’ के बारे में कहा कि इनकी 28 कविताओं में गांव के ज़न जीवन को उकेरा गया है। गांव की तमाम विसंगतियों एवं आडम्बरों पर करारा प्रहार किया। वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र ने कहा कि बुद्धिसेन शर्मा के जन्मोत्सव का आयोजन कराने और उनकी रचनाओं को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने को ऐतिहासिक पहल बताया। उन्होंने कहा कि गुफ़्तगू परिवार से जुड़ने के बाद बुद्धिसेन शर्मा जी से ज्यादा जुड़ाव हुआ। उनकी गज़ल ही उनके व्यक्तित्व का बयान करती है। हमारे चाहने वाले बहुत हैं इसकी एक बानगी है। सोंधी महक गांव के जीवन से जुड़ी हुई कविता संग्रह है। </span></p><p><span style="color: #351c75;">मुख्य अतिथि पूर्व पुलिस महानिरीक्षक बद्री प्रसाद सिंह ने इश्क सुल्तानपुरी के प्रयास की सराहना की। उन्होंने गुफ़्तगू के 20 साल के सफर को मील का पत्थर बताया। इंस्पेक्टर के०के० मिश्र ‘इश्क’ सुल्तानपुरी ने उपस्थित सभी लोगों का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि बुद्धिसेन शर्मा हमारे आत्मिक गुरु थे। उनकी सींख और यादों की सँजोने का सही तरीका उनकी नवीन रचनाओं का संग्रह कर उसका प्रकाशन रहा है। मेरे साथ रहते हुए उन्होंने वो सारे गुर हमें सिखाते रहे जिनका उन्हें इल्म था। सीएमपी डिग्री कॉलेज की अध्यापिका मालवीय, डॉं. सरोज सिंह ने भी बुद्धिसेन शर्मा और अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ की पुस्तक पर विचार व्यक्त किया। संचालन शैलेंद्र जय ने किया। </span></p><p><span style="color: #351c75;">दूसरे सत्र में अखिल भारतीय मुशायरे का आयोजन हुआ। जिसमें देशभर के शायरों ने कलाम पेश किया।ं इनमें वाराणसी के शंकर बनारसी, वेद प्रकाश शुक्ल ‘संजर’, जौनपुर से इबरत जौनपुरी, औरैया से अयाज अहमद अयाज, मशहूर व्यंग्यकार फरमूद इलाहाबादी, तलब जौनपुरी, अशोक श्रीवास्तव, अजीत शर्मा, विभा लक्ष्मी विभा, नरेश कुमार महारानी, अनिल मानव, इश्क सुल्तानपुरी, शिवपूजन सिंह, क्षमा द्विवेदी, शाहिद सफर, विवेक सत्यांशु, असद गाजीपुरी आदि शामिल रहे।</span></p><div><br /></div>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-72953085684906535682022-12-22T18:03:00.000+05:302022-12-22T18:03:23.018+05:30 गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2022 अंक में <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWlehCzMKi5zL2FFUFSUTrypaJTp8XV8z45j7dFOlFnqsB-ln4_bxD7_s7h0Ymt9zZl-9-M5E2KMT7lLYr3pX8M9ta8uBJXOZiadP3grktMho-trre12SPcacM7p9t8bllHco7zqjO88L3pPQpvfuL5uufU2FL__VbC9WmhSbDaPbNZ_lAhoY6SduA/s1280/oct-dec2022.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="842" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWlehCzMKi5zL2FFUFSUTrypaJTp8XV8z45j7dFOlFnqsB-ln4_bxD7_s7h0Ymt9zZl-9-M5E2KMT7lLYr3pX8M9ta8uBJXOZiadP3grktMho-trre12SPcacM7p9t8bllHco7zqjO88L3pPQpvfuL5uufU2FL__VbC9WmhSbDaPbNZ_lAhoY6SduA/w264-h400/oct-dec2022.jpg" width="264" /></a></div><br /><p></p><p>4.संपादकीय- विश्वस्तरीय कवि और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं</p><p>5-9. <span style="color: #800180;">तहज़ीब के मरकज़ हैं इलाहाबाद के दायरे - अली अहमद फ़ातमी</span></p><p>10-15. <span style="color: #0b5394;">आखि़र क्या है ‘नावक’ और उसका तीर- अजित वडनेरकर</span></p><p>16-24.<span style="color: red;">ग़ज़लें</span>:<span style="color: #2b00fe;"> (अशोक कुमार ‘नीरद’, विजय लक्ष्मी विभा, मनीष शुक्ल, सरफ़राज़ अशहर, अजीत शर्मा ‘आकाश’, बहर बनारसी, संजीव प्रभाकर, अरविन्द असर, अतिया नूर, विनोद कुमार उपाध्याय ‘हर्षित’, गीता विश्वकर्मा ‘नेह’, डॉ. शबाना रफ़ीक़, सूफ़िया ज़ैदी, विवेक चतुर्वेदी, शहाबुद्दीन कन्नौजी, डॉ. फ़ौज़िया नसीम ‘शाद’, मधुकर वनमाली)</span></p><p>25-29.<span style="color: red;"> कविताए</span> <span style="color: #a64d79;">(अमर राग, यश मालवीय, अरुण आदित्य, यशपाल सिंह, डॉ. वारिस अंसारी, चंद्र नारायण ‘राजन’, केदारनाथ सविता, जया मोहन )</span></p><p>30-34. <span style="color: red;">इंटरव्यू</span> <span style="color: #2b00fe;">डॉ. एन. अय्यूब हुसैन (निदेशक- आंध्र प्रदेश उर्दू अकादमी)</span></p><p>35-37. <span style="color: red;">चौपाल:</span> <span style="color: #45818e;">अच्छी शायरी के लिए नौजवानों को क्या करना चाहिए ?</span></p><p>38-43. <span style="color: red;">तब्सेरा</span><span style="color: #134f5c;"> (आधुनिक भारत के ग़ज़लकार, बारानामा, रहगुजर, पत्थर के आंसू, सुरबाला, वाह रे पवन पूत)</span></p><p>44-45. <span style="color: red;">उर्दू अदब</span> <span style="color: #3d85c6;">(सहरा में शाम, निकाह)</span></p><p><span style="color: #674ea7;">46. गुलशन-ए-इलाहाबाद: डॉ. राज बवेजा</span></p><p><span style="color: #674ea7;">47. ग़ाज़ीपुर के वीर: राजेश्वर सिंह</span></p><p><span style="color: #674ea7;">48-51. अदबी ख़बरें</span></p><p><br /></p><p><span style="color: red;">52-84. परिशिष्ट-1: नरेश कुमार महरानी</span></p><p><span style="color: #351c75;">52. नरेश कुमार महरानी का परिचय</span></p><p><span style="color: #351c75;">53-54. नए प्रतीकों और नए तरीकों का इस्तेमाल - इश्क़ सुल्तानपुरी</span></p><p><span style="color: #351c75;">55. महरानी की ग़ज़लें: भोले मन की बातें - मासूम रज़ा राशदी</span></p><p><span style="color: #351c75;">56-57. रोम-रोम में भरी सृजनात्मकता - रचना सक्सेना</span></p><p><span style="color: #351c75;">57-84. नरेश कुमार महरानी की ग़ज़लें</span></p><p><br /></p><p><span style="color: red;">85-113. परिशिष्ट-2: रामशंकर वर्मा</span></p><p><span style="color: #38761d;">85. रामशंकर वर्मा का परिचय</span></p><p><span style="color: #38761d;">86. अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता - डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’</span></p><p><span style="color: #38761d;">87-88. कलात्मक ढंग से कविता रचने वाले कवि- शैलेंद्र जय</span></p><p><span style="color: #38761d;">89-91. अंतरमन की बेचैनी और द्वंद्व - नीना मोहन श्रीवास्तव</span></p><p><span style="color: #38761d;">92-113. रामशंकर वर्मा की कविताएं</span></p><p><br /></p><p><span style="color: red;">114-144. परिशिष्ट-3: डॉ. सरला सिंह ‘स्निग्धा’</span></p><p><span style="color: #a64d79;">114. डॉ. सरला सिंह ‘स्निग्धा’ का परिचय</span></p><p><span style="color: #a64d79;">115-116. असमानता पर प्रहार करती कविताएं - शगुफ़्ता रहमान ‘सोना’</span></p><p><span style="color: #a64d79;">117-118. भाषायी आडंबर से दूर जीवन की रचना - प्रिया श्रीवास्तव ‘दिव्यम्’</span></p><p><span style="color: #a64d79;">119-120. मानवीय अनुभव और उसके सूक्ष्तम निहितार्थ - सरफ़राज आसी</span></p><p><span style="color: #a64d79;">121-144. डॉ. सरला सिंह ‘स्निग्धा’ की कविताएं</span></p><p><br /></p>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-7598248634941766272022-11-26T20:12:00.000+05:302022-11-26T20:12:32.118+05:30फूल अब गुफ़्तगू भी करने लगे<h2 style="text-align: center;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><div class="separator" style="clear: both;"><div class="separator" style="clear: both;"><div class="separator" style="clear: both; color: #990000;"> - डॉ. वारिस अंसारी </div><div class="separator" style="clear: both; color: #990000;"> फतेहपुर</div><div class="separator" style="clear: both; color: #990000;"> मो. 9935005032</div><div class="separator" style="clear: both; color: #990000;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjSZJ16NYYCAdyvo4mn9AKSkIZ5seZl7Y5ykbwnsELkMKZj8XU5YscIyD-6tY0P58QxG-inQx15lkYr8nomF6288pIxtJ5x7Sp_wrRTP9fRbU-FCNZGjTzFJ42gTZFFCdODzKaXgIuHzsGwOoWCyjJuuBOfR6aGMIoVZHzc-IAr1WGjPqnFJr1Ebp3y/s958/phool%20mukhatib%20hain.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="958" data-original-width="625" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjSZJ16NYYCAdyvo4mn9AKSkIZ5seZl7Y5ykbwnsELkMKZj8XU5YscIyD-6tY0P58QxG-inQx15lkYr8nomF6288pIxtJ5x7Sp_wrRTP9fRbU-FCNZGjTzFJ42gTZFFCdODzKaXgIuHzsGwOoWCyjJuuBOfR6aGMIoVZHzc-IAr1WGjPqnFJr1Ebp3y/w261-h400/phool%20mukhatib%20hain.jpg" width="261" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; color: #990000;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both;"><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #2b00fe; font-size: small;">ज़हे-नसीब आज मेरे हाथ में एक मशहूर सहाफी, गुफ्तगू जैसी अज़ीम पत्रिका के संस्थापक और मुनफरिद लब-ओ-लहजे के खूबसूरत शाइर इम्तियाज़ अहमद गाज़ी की ताज़ा तरीन किताब ‘फूल मुखातिब हैं’ मौजूद है। सवाल इस बात का है कि कोई किसी से क्यों मुखातिब होगा ? इसके दो तीन जवाब हो सकते हैं। एक तो ये कि मुख़ातिब होने वाले शख़्स का कोई काम हो, दूसरा रस्मी तौर पर भी लोग मुख़ातिब हो जाते हैं। तीसरी सबसे अहम वजह ये कि हम जिससे मुख़ातिब हैं, वह एक बा-सलाहियत और नेक इंसान है, वह लोगों की कद्र करना जानता है। यही सारी बातें इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी के साथ भी लागू होती है कि वह बा-सलाहियत शख़्स के साथ-साथ नेक दिल इंसान भी हैं। आप कमाल की शायरी करते हैं। इस किताब में तीन सौ अशआर हैं, जिसमें कहीं फूल गाज़ी से बात कर रहे हैं और कहीं गाज़ी साहब फूलों से गुफ्तगू करते नज़र आ रहे हैं। एक शे’र देखते चलें- </span></div><div class="separator" style="clear: both;"><span style="color: #2b00fe; font-size: small;"> उनको देखा तो ये हुआ मुमकिन,</span></div><div class="separator" style="clear: both;"><span style="color: #2b00fe; font-size: small;"> फूल अब गुफ्तगू भी करने लगे।</span></div><div class="separator" style="clear: both;"><span style="color: #2b00fe; font-size: small;"> ऐसे बहुत से अशआर हैं जो कि काबिले-तारीफ हैं। आपने आसानी से और नए रंग में अशआर पेश कहं हैं। खुद गाज़ी साहब की ज़ुबानी ‘मैने चाय की चुस्कियों के साथ ऐसे अशआर कहे हैं’ इस तरह इतने खूबसूरत की शे’र की तखलीक अपने आप में किसी मोजेजा से कम नहीं। आपकी शायरी में संजीदगी है। अमन और भाईचारे का संदेश है। मोहब्बत का खूबसूरत पैगाम है और यही एक सच्चे शाइर का मकसद होता है। खूबसूरत कवर के साथ इस किताब में 80 पेज हैं। गुफ्तगू पब्लिकेशन प्रयागराज से प्रकाशित इस किताब की कीमत 150 रुपए है। उम्मीद करता हूं कि गाज़ी साहब की ये किताब अदब में आला मुकाम हासिल करेगी ।</span></div><div class="separator" style="clear: both;"><span style="color: #2b00fe; font-size: small;"><br /></span></div></div><div class="separator" style="clear: both; color: #990000;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; color: #990000;">सच्चाई का अक्स गई हैं ख्वाबों का जज़ीरह</div><div class="separator" style="clear: both; color: #990000;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgdrcY81_3iahdfhuDCALMDiRAKKslSQVavXnitqUhpmEqtQG1VDRF0V4TF7gRanF0lBfpszfOb-24egfqzqrM6IKA6bqDQWwi8HoCDDuSDwevz9qoT6qhI5A8DitYf0SfMRMI10k9Sd7qqI95Mvl8D9xySh6RvT1qE9F73QFHdBh-EEPXxBDa0NYwB/s3284/khwabon%20ka%20ek%20zazira.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3284" data-original-width="2177" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgdrcY81_3iahdfhuDCALMDiRAKKslSQVavXnitqUhpmEqtQG1VDRF0V4TF7gRanF0lBfpszfOb-24egfqzqrM6IKA6bqDQWwi8HoCDDuSDwevz9qoT6qhI5A8DitYf0SfMRMI10k9Sd7qqI95Mvl8D9xySh6RvT1qE9F73QFHdBh-EEPXxBDa0NYwB/w265-h400/khwabon%20ka%20ek%20zazira.jpg" width="265" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; color: #990000;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both;"><span style="color: #990000;"> </span><span style="color: #134f5c; font-size: small;">ख्व़ाबों का जज़ीरह सरफराज अशहर का शेरी-मजमूआ है, जिसमें 56 गजलें हैं। मजमूआ में गज़लें भले ही कम लग रही हों लेकिन जितनी गज़लें हैं एक से बढ़ कर एक हैं। सारी गज़लें हालात की अक्कासी करती नज़र आ रही हैं। सरफराज़ अशहर ने वही ख़्यालात पेश किए हैं जो कि एक सच्चा अदीब पेश करता है। इनकी गजलों को पढ़ कर अंदाज़ा होता है कि शायरी सिर्फ इनका शौक़़ नहीं बल्कि इन्हें लोगों के दर्द का एहसास भी है। समाजी हालात को बा-ग़ौर देखने के साथ-साथ आदिल के इंसाफ पर भी पैनी नज़र रखते हैं। मुफलिसों का कर्ब इन्होंने करीब से देखा है। यही सब वजूहात हैं कि जाम ओ साकी, लब ओ रुखसार तक नहीं गया। इन्होंने अपनी शायरी में सच् की आवाज़ बुलंद की है। ज़ालिम और गुमराह लोगों को आइना दिखाने का काम किया है जो काबिले-तहसीन है। अशहर साहब बहुत ही सादगी से अपनी बात कहने का हुनर जानते हैं। इनकी शायरी की एक बड़ी खूबी ये है कि पाठक आसानी से पढ़ता चला जाता है और बोझिल होने का एहसास भी नहीं करता। इनकी शायरी में बला की सादगी है और पुरानी बातों को भी नए स्लूब में ढाल देते हैं। जिससे कारी सोचने पर मजबूर हो जाता है। इनकी शायरी झूट और बनावट से पाक है। अगर इनका मश्के सुखन यूं ही जारी रहा तो आने वाले कल के लिए इनकी शायरी अदब में एक मुनफरिद पहचान की हासमिल होगी। इस मजमूआ में 140 पेज हैं। खूबसूरत जिल्द के साथ किताब की कीमत सिर्फ 250 रुपए है। इस किताब की किताबत रूशान प्रिंटर्स देहली से हुई है और एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है। उम्मीद करता हूं ख्वाबों का एक जजीरह अवाम व अदब में एक बुलंद मुकाम तक मकबूल होगा।</span></div><div style="color: #990000;"><br /></div><div style="color: #990000;"><br /></div></div><div class="separator" style="clear: both; color: #990000;">अवाम का एहसास है एहसास-ए-मुजाहिद</div><div class="separator" style="clear: both; color: #990000;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh_M7svBvPZ1HjxstRFY-vWuM5sBxzLaBO0c4nfJTdcnkYPoLviLrQrL3WQfBBfnZ_xZTH_RH4j-31BdQDEFE6Q7rzjui8wGdcxQPLBIrH67CJeWXsiECa0mJotrkb2vaow9-GM8X1aEtW0gsjNwqFxebSu40FIPDe5qCkHp3vzMBVOiVOBx6x1Zv0C/s3098/ehsase%20muzahid.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3098" data-original-width="2058" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh_M7svBvPZ1HjxstRFY-vWuM5sBxzLaBO0c4nfJTdcnkYPoLviLrQrL3WQfBBfnZ_xZTH_RH4j-31BdQDEFE6Q7rzjui8wGdcxQPLBIrH67CJeWXsiECa0mJotrkb2vaow9-GM8X1aEtW0gsjNwqFxebSu40FIPDe5qCkHp3vzMBVOiVOBx6x1Zv0C/w266-h400/ehsase%20muzahid.jpg" width="266" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; color: #990000;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; color: #990000;"> </div><div class="separator" style="clear: both;"><span style="color: #a64d79; font-size: small;">मुजाहिद हुसैन चौधरी अदब का वह नुमाया नाम है, जिसे किसी तआरूफ की ज़़रूरत नहीं। कहीं वह अपने पेशे (वकालत) के लिए पहचाने जाते हैं तो कहीं समाजी कारकुन और लोगों के मददगार के रूप में जाने पहचाने जाते हैं। आपकी अदबी पहचान तो बिल्कुल ही मुनफरिद है। आपका शेरी-मजमूआ ‘एहसास-ए-मुजाहिद’ बहुत ही खूबसूरत और नायाब है। मैंने पढ़ना शुरू किया तो मुझे पता ही नहीं चला कि कब मैंने पूरी किताब खत्म कर ली। कहने का मतलब कि शायरी में जिस तरह की रवानी है, सादा अल्फाज़ हैं, उम्दा खयालात हैं पढ़ने में एक अलग किस्म का मज़ा देते हैं। आपकी शायरी इश्क़, मोहब्बत, हालात की अक़्क़ासी सब कुछ बहुत दिलकश अंदाज़ में देखने को मिलता है। एक ख़ास बात और कि आपके यहां वतन-परस्ती का जज़्बा भी खूब है। एक मतला मुलाहेज़ा करते चलें- </span></div><div class="separator" style="clear: both;"><span style="color: #a64d79; font-size: small;"> शहीदाने वतन की ज़िंदगी किस्मत से मिलती है, </span></div><div class="separator" style="clear: both;"><span style="color: #a64d79; font-size: small;"> वतन पर जां लुटाने की घड़ी किस्मत से मिलती है।</span></div><div class="separator" style="clear: both;"><span style="color: #a64d79; font-size: small;"> आपकी शायरी पढ़ कर अंदाज़ा होता है कि आपने शायरी को कहीं भी मजरूह नहीं होने दिया और निहायत खूबसूरती के साथ अशआर कहे हैं। लोगों के दर्द को अपना दर्द समझा और फिर उस एहसास को लोगों तक पहुंचाया जो आसान काम नहीं है। आपकी शायरी एहसासत का ज़खीरा है जो कि दुनिया ए अदब में मील का पत्थर साबित होगी। इस किताब की कंपोजिंग हर्फ कंपोजिंग सेंटर दिल्ली ने की है और प्रकाशन सलमान आफसेट प्रेस मौज पुर दिल्ली से हुआ है। 128 पेज की इस किताब की कीमत 90 रुपए है। इस खूबसूरत मजमूआ के लिए मैं मुजाहिद हुसैन चौधरी साहब को अमीक दिल से मुबारकबाद पेश करता हूं और दुआ करता हूं कि ये किताब अदबी घराने में खूब मक़बूल हो।</span></div><div class="separator" style="clear: both;"><span style="color: #a64d79; font-size: small;"><br /></span></div><div style="color: #990000;"><br /></div></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="color: #990000;">ज्ञान का भंडार है पिकनिक</span></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiDHIdBJHYwvbkx8sViYH_1JCwWJcrd7fvRKvc82GbTi-wZUwpnpqt_Fa6XGFzzCStd6o9xwW2Im05SefpmMuKOUT6xjhA_QWZdASqfupcd6QRYTp5b9ZmgFJCNVGwohIkmBQkaynF4TcCHitHIsHxOR0GS10CTmCUEdb5Idx4ZUCU1ov9bjaE2MHZr/s3173/picnik.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3173" data-original-width="2117" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiDHIdBJHYwvbkx8sViYH_1JCwWJcrd7fvRKvc82GbTi-wZUwpnpqt_Fa6XGFzzCStd6o9xwW2Im05SefpmMuKOUT6xjhA_QWZdASqfupcd6QRYTp5b9ZmgFJCNVGwohIkmBQkaynF4TcCHitHIsHxOR0GS10CTmCUEdb5Idx4ZUCU1ov9bjaE2MHZr/w268-h400/picnik.jpg" width="268" /></a></div><br /><span style="color: #800180; font-size: small;"><br /></span></h2><h2 style="text-align: center;"><span style="color: #800180; font-size: small;">पिकनिक शब्द का अर्थ यूं तो सैर सपाटा या किसी मनोरम जगह का भ्रमण करना है लेकिन मोहतरमा शाह ताज खान ने पिकनिक के माध्यम से बहुत कह दिया। बेहद आसान ज़बान में सरल शब्दों का प्रयोग करके लिखी गई वाकई पिकनिक की तरह ही लग रही है। पढ़ना शुरू कर दो तो ऐसा लगता है पढ़ते ही चले जाओ। ऐसे-ऐसे उदाहरण दे कर बात की गई है कि बच्चे भी आसानी से समझ सकते है जिससे बच्चों में ज्ञान का भंडार भी बढ़ेगा और उन्हें आनंद भी आएगा। अक्सर कुछ चीजें होती हैं जो पढ़ने में काम लेकिन सुनने और देखने पर ज्यादा समझमें आती हैं। लेकिन इस किताब का यही कमाल है कि जब आप इस किताब को पढ़ेंगे तो महसूस करेंगे कि हम वही दृश्य, वही चीजे़ं देख रहे हैं जो इस किताब में मौजूद हैं। जैसे पहली कहानी ही ले लीजिए जिसका शीर्षक ही पिकनिक है। इस कहानी में हाथी को मास्टर साहब के किरदार में दिखाया गया है जबकि शेर चीता, बंदर आदि जानवरों के बच्चों को विद्यार्थी के रूप में। मास्टर साहब के साथ जानवरों के ये बच्चे पिकनिक पर जाते हैं। जहां इंसानों को पिंजरे में कैद किया गया है। सचमुच ये कहानी इंसान को झकझोर देने वाली है। </span></h2><h2 style="text-align: center;"><span style="color: #800180; font-size: small;"></span></h2><h2 style="text-align: center;"><span style="color: #800180; font-size: small;"> इस किताब में अठारह कहानियां हैं जो कि एक से बढ़ कर एक हैं। नाखूून, नींद, ज़बान संभाल के जैसी कहानियों को पढ़ कर बहुत कुछ सीखा जा सकता है। और बच्चों के लिए तो ये किताब बेहद कारामद है जिससे उनका दिमाग भी तेज होगा। किताब के पीछे कवर पेज पर मतीन अचल पुरी की एक बहुत ही शानदार तौशीही नज़्म भी है। खूबसूरत कवर, उम्दा किस्म का कागज़ और शानदार प्रिंटिंग वाली इस किताब पिकनिक में 112 पेज हैं। यह किताब का दूसरा एडिशन है, जिसे शाह ताज खान आफसेट भिविंडी, महाराष्ट्र से कंपोज कराकर समर पब्लिकेशन मालेगांव महाराष्ट्र से प्रकाशित किया गया है। कवर पेज की डिजाइन क्षितिजा वाहुवाल पूना से हुई है। इस किताब की कीमत मात्र 120 रुपए है। </span></h2><div style="text-align: center;"><br /></div><h2 style="text-align: center;"><span style="color: red; font-size: large;"><br /></span></h2><h2 style="text-align: center;"><span style="color: red; font-size: large;"> अवाम का दर्द है ‘देखो तो </span><span style="color: red; font-size: x-large;">जरा</span><span style="color: red; font-size: x-large;">’</span></h2><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2TnvJwjz1JEAbBhp7y1L1jDfvxZN_bSSiogqOFOV_knBJv14ZV4C3g2NfcteQsdamePhIPi0SU-r5Y1x7b0b2jSBgvdxW_-YGV8y0uwJJiuaj5aF3kyYX1qPYp0B-hdU-dt6GR339F2Lr46VW01WI4sT9SieFZ-BZIeb4Oqpsv6OcLyYxcE03Jqse/s3301/dekho%20to%20zara.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3301" data-original-width="2180" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2TnvJwjz1JEAbBhp7y1L1jDfvxZN_bSSiogqOFOV_knBJv14ZV4C3g2NfcteQsdamePhIPi0SU-r5Y1x7b0b2jSBgvdxW_-YGV8y0uwJJiuaj5aF3kyYX1qPYp0B-hdU-dt6GR339F2Lr46VW01WI4sT9SieFZ-BZIeb4Oqpsv6OcLyYxcE03Jqse/w264-h400/dekho%20to%20zara.jpg" width="264" /></a></div><br /><p><span style="color: #134f5c;"><b>ज़रा देखो तो अशफाक ब्रदर के नसरी नज्मों का संग्रह है। जो कि अपने अंदर अवाम की आवाज़, अवाम का दर्द समेटे हुए है। एक दौर था जब उसातज़ह (गुरुजन) लोग इस तरह की नस्री नज़्म/कविता को शायरी के पैराए से अलग मानते थे। मज़ाक की निगाह से देखते थे लेकिन धीरे-धीरे वक़्त बदला, लोग बदले और बीसवीं सदी के करीब यह विधा भी कविता में शामिल हो गई। आज इस तरह की कविताओं का चलन बन गया है। कहा जाए तो यह दौर ही आधुनिक कविताओं का दौर है। आधुनिक कविताएं पढ़ने में तो आसान लगती हैं लेकिन इनकी रचना करना उतना ही मुश्किल है। हालांकि बहर, औजान, रदीफ ,क़ाफिया में कै़द शायरों ने कभी आज़ाद नज़्म की जानिब तवज्जह नहीं दी, मगर कुछ अदबी दानिशवरों ने इस तरफ पूरा ध्यान दिया और यहां तक कह दिया कि शेर वज्न और बह्र का मोहताज नहीं बल्कि जो वाक्य नस्र (गद्य) में होते हुए भी एक भाव पैदा करे वह भी शेर है। </b></span></p><p><span style="color: #134f5c;"><b> ऐसे ही सिफत के मालिक अशफाक ब्रदर हैं, जो कि नई नज्मों के एक बाकमाल शायर की हैसियत रखते हैं और अदब में भी उनका एक अलग मुकाम है। अशफाक ने अपने अदबी सफर की शुरुआत 1980 के बाद अफसानों से किया। उनके अफसानों में भी शायरी की झलक मिलती है। अशफाक ब्रदर की किताब ‘जरा देखो तो’ नसरी नज्मों का मजमुआ है। जिसमें अवाम का दर्द है, लोगों के दिल की बात है। उन्होंने जो देखा और महसूस किया वही अपनी नज्मों में ढाल दिया। उनकी एक छोटी सी नज़्म की बानगी देखें जो इंसान को सोचने पर मजबूर कर देती है- ‘पल पल कर/जवां होते अहसासात/ आज/क्या मांग रहे हैं ?/ तालीम या दो वक्त की रोटी/या फिर दोनो/मगर इसमें/अहम तरीन कौन?/रोटी या तालीम।’ ऐसी ढेरों नज्में मौजूद हैं । </b></span></p><p><span style="color: #134f5c;"><b>बेहद मकबूल किताब जरा देखो तो खूबसूरत जिल्द के साथ 166 पेज की इस किताब की कीमत सिर्फ 200 रुपए है। जो कि अब्दुल बाकी कासमी कम्प्यूटर से कंपोज हुई और इंप्रेशन प्रिंट हाउस लाटूस रोड लखनऊ से प्रकाशित हुई है। इस खूबसूरत संग्रह के लिए अशफाक ब्रदर को खूब खूब मुबारकबाद। उम्मीद कि अदब में ये किताब मील का पत्थर साबित होगी।</b></span></p><p><br /></p><p><span style="color: #38761d;">( गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2022 अंक में प्रकाशित )</span></p><div><br /></div>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-3516870697745770162022-11-18T21:41:00.002+05:302022-11-18T21:48:26.982+05:30साहित्यकार की कल्पना में होती है वास्तविकता: एडीजी<p><span style="color: red; font-size: large;"> अमेरिका की डॉ. निशा समेत देशभर के साहित्यकारों का हुआ सम्मान</span></p><p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVwNWpkEgQEmK_B_UVSLDehtVdJCtbA0T7pGCDW7Ec5_zEdjTkZpyg_FeI_zpoXPPfEEkt7AzIP2AuROFShEOhgfG5T-kT-AhXi1mrsEcwIcVKkDjamSvyz4_1g2e1s7m3ELCihkFJTZrowVCTStz5la7WU47lpM0NW2fok0vHcng6ljRfsv_HJLdj/s1357/ADG-3.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1088" data-original-width="1357" height="321" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVwNWpkEgQEmK_B_UVSLDehtVdJCtbA0T7pGCDW7Ec5_zEdjTkZpyg_FeI_zpoXPPfEEkt7AzIP2AuROFShEOhgfG5T-kT-AhXi1mrsEcwIcVKkDjamSvyz4_1g2e1s7m3ELCihkFJTZrowVCTStz5la7WU47lpM0NW2fok0vHcng6ljRfsv_HJLdj/w400-h321/ADG-3.JPG" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="text-align: left;"><span style="color: #990000;">अपर पुलिस महानिदेशक प्रेम प्रकाश</span></span></td></tr></tbody></table><br /><span style="color: #3d85c6;"><br /></span></p><p><span style="color: #3d85c6;">प्रयागराज। देशभर से आए साहित्यकारों और पत्रकारों को सम्मानित करके गुफ़्तगू ने एक बेहद महत्वपूर्ण कार्य किया है। वेैसे भी प्रया्रगराज अकबर इलाहाबादी, बच्चन, पंत, निराला जैसे साहित्यकारों का शहर रहा है। ऐसे शहर में गुफ़्तगू की तरफ से कराया जा रहा आयोजन बेहद महत्वपूर्ण है। साहित्यकारों का काम होता है कि वे अपनी रचनाओं के माध्यम सेे देश और समाज में एकता और खुशहाली पैदा करने का संदेश दें। इसमें साहित्यकार सफल भी रहते हैं, उनकी कल्पना में भी समाज का सही चित्रण किसी न किसी में होता ही है। यह बात 13 november 2022 को हिन्दुस्तानी एकेडेमी में गुफ़्तगू की ओर से आयोजित ‘गुफ़्तगू साहित्य समारोह-2022’ के दौरान मुख्य अतिथि अपर पुलिस महानिदेशक प्रेम प्रकाश ने कही। उन्होंने कहा कि आज सम्मान समारोह में दूर-दूर से आए हुए लोगों को देखकर लगता है कि प्रयागराज और गुफ़्तगू का यह कार्यक्रम वास्तविक में भी संगम ही है और यह सब संगमनगरी में हो रहा है। इस आयोजन से एक साहित्यक परिदृश्य सामने आ रहा है। साहित्य समाज और देश की बेहतरी के लिए ही रचा जाता है।</span></p><p><span style="color: #351c75;">गुफ़्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि हमारी संस्था प्रत्येक वर्ष अच्छे रचनाकारों और पत्रकारों का सम्मान करती है। आज के दौर में जो लोग अच्छा लेखन कर रहे हैं, उनका सम्मान किया जाना चाहिए, इसी सोच के तहत गुफ़्तगे टीम कार्य करती रही है, बीस वर्ष से यह सिलसिला जारी है। आगे भी लोगों के सहयोग से इस तरह के साहित्यिक आयोजन होते रहेंगे।</span></p><p><span style="color: #a64d79;">कार्यक्रम के दौरान कुवैत की लेखिका नाज़नीज अली नाज़ की पुस्तक ‘खलिश’, आईएएस राम नगीना मौर्या की पुस्तक ‘आगे से फटा जूता’ और गुफ़्तगू के नए अंक विमोचन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे डॉ. वीरेंद्र तिवारी ने कहा कि आज का आयोजन सही मायने में साहित्यकारों के सम्मान का कार्यक्रम है। गुफ़्तगू द्वारा प्रत्येक वर्ष देशभर के लोगों का सम्मान किया जा रहा है, यह एक बहुत नेक और शानदार आयोजन बन गया है।</span></p><p><span style="color: #0b5394;">डॉ. हसीन जीलानी ने कहा कि आज जहां एक तरफ साहित्यकारों का सम्मान हुआ वहीं दूसरी ओर नाज़नीज अली नाज़ की किताब ‘खलीस’ के हिन्दी और उर्दू संस्करणों का विमोचन किया गया। ‘खलिश’ एक बहुत शानदारी कहानी संग्रह है, जिसमें लेखिका ने समाज की स्थितियों का सटीक और बेहतरीन वर्णन किया है। नाज़नीन अली नाज़ ने कहा कि मेरी किताब को प्रयागराज जैसे साहित्यिक शहर में विमोचन होना, मेरे लिए बड़े गर्व की बात है, इसके लिए मैं गुफ़्तगू संस्था का आभारी हूं। कार्यक्रम का संचालन शैलेंद्र जय ने किया।</span></p><p><span style="color: #38761d;">दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया। नरेश महारानी, अनिल मानव, प्रभाशंकर शर्मा, अशोक श्रीवास्तव कुमुद, नीना मोहन श्रीवास्तव, राजेश राज, अफसर जमाल, रचना सक्सेना, शिबली सना, दयाशंकर प्रसाद, अतीक़ नूर, सेलाल इलाहाबादी, देवी प्रसाद पांडेय, धीरेंद्र सिंह नागा, राधा शुक्ला, शाहीन खुश्बू, असद ग़ाज़ीपुरी आदि ने कलाम पेश किया।</span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgSNhN1_wv6lkiYKC_F-gl6aTwYxEBWcn1SBKGQoXub3mVA7t95_6gvNinF0Iz4VV3SPNKXfgGVKtsR1n-yUhyjy4nCf4MtVOxH-OSb8uMhSYbmsymUezbGbLXQ77oxqOgp7cYwTvDoEJ2aXRfgcLm1HRmZRzfRjYhSovocKwn7GtwsuUcDRSGaF6mI/s1358/samman-group.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="770" data-original-width="1358" height="226" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgSNhN1_wv6lkiYKC_F-gl6aTwYxEBWcn1SBKGQoXub3mVA7t95_6gvNinF0Iz4VV3SPNKXfgGVKtsR1n-yUhyjy4nCf4MtVOxH-OSb8uMhSYbmsymUezbGbLXQ77oxqOgp7cYwTvDoEJ2aXRfgcLm1HRmZRzfRjYhSovocKwn7GtwsuUcDRSGaF6mI/w400-h226/samman-group.JPG" width="400" /></a></div><br /><p><br /></p><p><span style="color: #45818e;">अकबर इलाहाबादी सम्मान</span></p><p><span style="color: #45818e;">तलब जौनपुरी</span></p><p><span style="color: red;">कुलदीप नैयर सम्मान</span> </p><p>स्नेह मधुर (वरिष्ठ पत्रकार), सुशील कुमार तिवारी (सहारा समय), पंकज चौधरी (न्यूज 24), गिरीश पांडेय (लोकमित्र) </p><p><span style="color: red;">सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान </span></p><p>डॉ. निशा पंड्या (अमेरिका), डॉ. तस्नीमा परवीन (रांची), अनिला सिंह (जम्मू कश्मीर), शगुफ्ता रहमान (काशीपुर), निधि चौधरी (किशनगंज, बिहार), सुनीता सिंह (लखनऊ) </p><p><span style="color: red;">कैलाश गौतम सम्मान </span></p><p>राम नगीना मौर्या (लखनऊ), श्याम नारायण श्रीवास्तव (रायगढ़), मोहम्मद क़मर सलीम (मुंबई), चौधरी मुजाहिद हुसैन (अमरोहा), चंद्र प्रकाश पांडेय (प्रयागराज)</p><p> <span style="color: red;">इब्राहीम अश्क सम्मान </span></p><p>डॉ. प्रकाश खेतान (प्रयागराज) सुशील खरे वैभव (पन्ना, मध्य प्रदेश), डॉ. अशफ़ाक़ अहमद (गोरखपुर) </p><p><span style="color: red;">धीरज सम्मान </span></p><p>डॉ. नीलिमा तिग्गा (अजमेर), स्नेहा पांडेय (बस्ती), प्रदीप बहराइची (बहराइच), सीमा वर्णिका (कानपुूर), नरेश महरानी (प्रयागराज) </p><p><span style="color: red;">सीमा अपराजिता सम्मान </span></p><p>सरिता कटियार (लखनउ), ममता देवी (कानपुर),, स्वराक्षी स्वरा (कटिहार),, शहाना बेगम (प्रयागराज), डॉ. निशा मौर्या (प्रयागराज)</p><div><br /></div>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-37219189231665155362022-11-08T17:55:00.000+05:302022-11-08T17:55:33.054+05:30 नई पीढ़ी के प्रेरणा-स्रोत डॉ. विवेकी राय<p> <table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_D_XLPAoy24YIefIXKxXRuxbxCdmg_QwNUnAPTa7hqoVywC3i93WvOTcau_4NxGnvPtmDH82_Az6fnu1RTEUJTKPRKjT06NEnkk1T47fsFXuTyJyp0Z7v4ZFPE9yg8RqTnqmBXXqBQhrqrF_nf5t5U_RhtDEVP0_CrDATMgrkAcgX_DhLFIToPWYa/s365/dr.%20viveki%20rai.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="365" data-original-width="281" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_D_XLPAoy24YIefIXKxXRuxbxCdmg_QwNUnAPTa7hqoVywC3i93WvOTcau_4NxGnvPtmDH82_Az6fnu1RTEUJTKPRKjT06NEnkk1T47fsFXuTyJyp0Z7v4ZFPE9yg8RqTnqmBXXqBQhrqrF_nf5t5U_RhtDEVP0_CrDATMgrkAcgX_DhLFIToPWYa/w308-h400/dr.%20viveki%20rai.jpg" width="308" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: #800180;">डॉ. विवेकी राय</span></td></tr></tbody></table><br /> </p><p><br /></p><p> <span style="color: red;">- अमरनाथ तिवारी ‘अमर’</span></p><p> </p><p> <span style="color: #2b00fe;"> डॉ. विवेकी राय का जन्म 19 नवंबर 1924 को हुआ था। इनके पिताजी का नाम शिवपाल राय और माताजी का नाम जविता देवी था। उनका पैतृक गांव सोनवानी, ग़ाज़ीपुर है। 1940 में मिडिल और 1941 उर्दू से मीडिल करने के बाद 1942 में गांव लोवर प्राइमरी स्कूल में शिक्षक हो गए थे। इसके आगे की शिक्षा इन्होंने व्यक्तिगत विद्यार्थी के रूप में की। 1964 में एम.ए. और काशी विद्यापीठ वाराणसी से वर्ष 1970 में पी-एच.डी. की। इनके लेखन का प्रारंभ वर्ष 1945 में वाराणसी से प्रकाशित दैनिक ‘आज’ में उनकी छपी कहानी से माना जाता है। इसके बाद इस समाचार-पत्र में उनकी कविता, कहानी और लेख निरंतर छपते रहे। इनका एक चर्चित साप्ताहिक स्तंभ ‘मनबोध मास्टर की डायरी’ वर्ष 1957 से 1970 तक इस अख़बार में छपा। जो बहुत लोकप्रिया हुआ। इसमें ललित निबंध, रेखाचित्र और रिपोर्ताज छपे। वर्ष 1964 में डॉ. विवेकी राय का स्नातकोत्तर महाविद्यालय ग़ाज़ीपुर में अध्यापन करने लगे। इससे पहले लगभग 13 वर्षों तक अपने गांव के निकट खरडीहा के सर्वोदय इंटर कॉलेज में भी इन्होंने अध्यापन किया था। ग़ाज़ीपुर आने के बाद वे हिन्दी की चर्चित स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में लिखने-छपने लगे। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, नवनीत, कादंबिनी, कल्पना, ज्ञनोदय आदि पत्रिकाओं में निरंतर छपने लगे। उत्तर प्रदेश सरकार ने इन्हें वर्ष 1974 में पुनगर्ठित हिन्दी समिति का सदस्य मनोनीत किया। बिहार सरकार ने 1978 में भोजपुरी एकेडेमी का सदस्य मनोनीत किया। 1971 में इन्हें आकाशवाणी इलाहाबाद के कार्यक्रम परामर्श दात्री समित का सदस्य बनाया गया। 1977 से कई वर्षों तक ये अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन की प्रवर समिति के सदस्य रहे। 1983 में वे इस संस्था के अध्यक्ष चुने गए। 1980 में डॉ. विवेकी राय स्नातकोत्तर महाविद्यालय ग़ाज़ीपुर के हिन्दी विभाग से अवकाश ग्रहण किए।</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">डॉ. विवेकी राय की लगभग 70 पुस्तकें प्रकाशित हैं। ये पुस्तकें विभिन्न प्रकाशनों में छपी हैं। इनकी कहानियों और उपन्यासों का अनुवाद उर्दू, पंजाबी, मराठी, उड़िया आदि भाषाओं में भी हुआ है। इनका प्रारंभिक जीवन साधन विहीन गांव में अध्यापन और किसानी करते हुए बीता। बाद में पूर्वांचल के अति पिछड़े शहर ग़ाज़ीपुरी आए। अपनी अनवरत और एकनिष्ठ साधन के बल पर इन्होंने विविधि विधाओं में रचनाएं की। इन्होंने हिन्दी के साथ भोजपुरी साहित्य को भी समृद्ध किया। भोजपुरी में भी हिन्दी 10 पुस्तकें हैं। डॉ. विवेकी राय को विभिन्न राज्य सरकारों और साहित्यिक संस्थाओं ने सम्मानित किया है। प्रमुख पुरस्कार और सम्मान ये हैं- 1987 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा सोनामाटी पर प्रेमचंद पुरस्कार, 1994 में साहित्य भूषण सम्मान, 2006 में महात्मा गांधी सम्मान, वर्ष 2006 में यश भारती सम्मान, 2002 में केंद्रीय हिन्दी संस्थान आगरा द्वारा राहुल सांकृतयायन सम्मान, मध्य प्रदेश शासन द्वारा वर्ष 1996-97 का शरद जोशी सम्मान, वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय जौनपुर द्वारा वर्ष 2000 में पूर्वांचल रत्न सम्मान, साहित्य चेतना समाज ग़ाज़ीपुर द्वारा 2003 में ग़ाज़ीपुर गौरव सम्मान प्राप्त हुआ है। डॉ. विवेकी राय पर विभिन्न विधाओं पर देश-विदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के माध्यम से 100 से अधिक लोगों ने शोघ किया है। इनके उपर दर्जनभर से अधिक शोध की पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इनका देहावसान नवंबर 2016 में हुआ। डॉ. विवेकी राय का व्यक्तित्व एंवं कृतित्व आने वाली पीढ़ियों को सदैव प्रेरित करता रहेगा।</span></p><p><br /></p><p><span style="color: #a64d79;">( गुफ़्तगू के लुलाई-सितंबर 2022 अंक में प्रकशित ) </span></p><div><br /></div>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-35231742330143008792022-10-27T20:48:00.000+05:302022-10-27T20:48:16.397+05:30 बादल चटर्जी का नाम ही काफी है<p> <table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjX3yv3aaM-COaepYStwzB4Pzqez8NTfRbg2BY7pNBpRyIdy2SwOIh8Obk8m4DMR2xKurJzBXKhmvU5v2pztv_BpgZZ8DPY0adJr7xwyJwsXIoJh-0h6VFx2dolkJ42w0dfIkSa75B4O0ma5F7La0MNdA99vLoUhm23UtxKlcMQgdPlr_lrPsVdrSYN/s393/Badal%20Chaterjee.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="393" data-original-width="303" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjX3yv3aaM-COaepYStwzB4Pzqez8NTfRbg2BY7pNBpRyIdy2SwOIh8Obk8m4DMR2xKurJzBXKhmvU5v2pztv_BpgZZ8DPY0adJr7xwyJwsXIoJh-0h6VFx2dolkJ42w0dfIkSa75B4O0ma5F7La0MNdA99vLoUhm23UtxKlcMQgdPlr_lrPsVdrSYN/w309-h400/Badal%20Chaterjee.jpg" width="309" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: #134f5c;">बादल चटर्जी</span></td></tr></tbody></table><br /></p><p> </p><p> <span style="color: red;"> -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी</span></p><p> </p><p><span style="color: #800180;"> प्रयागराज में तैनात रहने वाले ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों का जब जिक्र होता है, तो महमूद भट्ट और बादल चटर्जी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। इनका जन्म 03 फरवरी 1955 को हुआ। इनके प्रपिताहम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ब्रम्होबान्धव उपाध्याय, जो कवि गुरू रबिन्द्र नाथ ठाकुर के शान्ति निकेतन के प्रबन्धक रहे हैं और बंगाल पार्टीशन के विरोध में आन्दोलन किए थे। इनके पिता न्यायाधीश स्व. तारा नाथ चटर्जी अंग्रेजों के समय इलाहाबाद विश्वविद्यलय के ‘डन मेडल’ से सम्मानित किए गए थे। बादल चटर्जी की पत्नी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी़ विषय से स्नातकोत्तर हैं और इलाहाबाद में विभिन्न सामाजिक संस्थाओं से जुड़ने के साथ-साथ एक अच्छी गायिका भी हैं। </span></p><p><span style="color: #800180;"> बादल चटर्जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए, एमए एवं एलएलबी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने के साथ-साथ मेरिट लिस्ट में भी स्थान प्राप्त किया था। विश्वविद्यालय की पढ़ाई के बाद वे यूको बैंक की सिविल लाइन्स शाखा में प्रोबेशनरी अधिकारी के पद पर चयनित हुए थे, तभी इनका चयन आईएएस परीक्षा में हो गया। इन्हे इण्डियन डिफेन्स एकाउन्ट सर्विस 1982 बैच आवंटित हुआ था। प्रशासनिक कार्य में रुचि के कारण ये पीसीएस सेवा में सम्मिलित होकर आईएएस अधिकारी बने। बादल चटर्जी अपने समय के स्कूल क्रिकेट कैप्टन रहे है और हॉकी के कलर होल्डर वाइस कैप्टन थे। वे हॉकी के क्लास वन अम्पायर भी रहे हैं।</span></p><p><span style="color: #800180;">1997 से 1999 तक बादल चटर्जी इलाहाबाद में अपर जिलाधिकारी, नागरिक आपूर्ति रहे हैं। इस दौरान इन्होंने कई महत्वपूर्ण कार्य किए हैं। जिनमें-डीज़ल रेकेट का भंडाफोड़ महत्वपूर्ण है। मामा भांजा तथा गद्दोपुर में डीज़ल टेंकर में केरोसीन की मिलावट करके एक टैंकर को दो टैंकर किया जाता था। नमक की कमी की अफवाह को तत्काल नियंत्रित किया जो अन्य जनपदों में कई दिनो तक चलता रहा। गैस सिलेन्डर की होम डिलीवरी सुनिश्चित कराया तथा उसके व्यावसायिक उपयोग पर अंकुश लगाया।</span></p><p><span style="color: #800180;"> वर्ष 1999 से 2000 तक ये इलाहाबाद में अपर जिलाधिकारी, नगर रहे हैं। तब इनके कार्यों की चर्चा बहुत अधिक थी। इन्होंने लेबर एक्ट के अन्तर्गत दुकानों की बन्दी का समय और साप्ताहिक अवकाश सुनिश्चित कराया, जिससे श्रमिकों को राहत मिली और दुकान मालिकों को भी आनंद व मनोरंजन का समय मिला। इलाहाबाद विश्वविद्यालय का शिक्षण सत्र जो पिछड़ गया था, तत्कालीन कुलपति प्रो. खेत्रपाल को सहयोग प्रदान कर सत्र नियमित कराया। इलाहाबाद छात्रसंघ के चुनाव को विश्वविद्यालय परिसर में ही सीमित कराया। लाउडस्पीकर, जो ध्वनि प्रदूषण का माध्यम था, पर पूर्ण अंकुश लगाया। टेक्स्ट बुक्स एक्ट के अन्तर्गत सरकारी बेसिक स्कूल की किताबों की डुप्लीकेट प्रति बनाकर बेचने के धन्धे को रोका और दोषी व्यक्तियों के विरूद्ध कार्यवाही की गई। दीपावली के पहले मउआइमा में छापा मारकर तीन ट्रक अवैध आतिशबाजी व पटाका नष्ट कराया, जिसके कारण इलाहाबाद में तेज बजने वाले पटाकों पर अंकुश लगा। पहली बार पटाकों को बजार से हटाकर क्षेत्रवार विभिन्न स्कूलों के मैदानों में स्थापित करा कर बिकवाया। इस कार्रवाई के दस साल बाद मउआइमा में पुनः अवैध तरीके से आतिशबाजी बनाने में भीषण लग जाने के कारण कई व्यक्ति झुलस कर मर गये। पायनीयर अखबार में लिखा गया था कि यदि बादल चटर्जी ने जो निरोधात्मक कार्रवाई दस साल पहले किया था, उसे उनके बाद के अधिकारीगण अगर करते, तो ऐसी घटना नहीं घट पाती।</span></p><p><span style="color: #800180;"> बादल चटर्जी वर्ष 2002 से 2003 तक इलाहाबाद नगर निगम के नगर आयुक्त थे। इस दौरान इन्होंने नगर निगम में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोका व कूड़ा उठाने वाली गाड़ी से सम्बन्धित डीज़ल रैकेट का भंडाफोड़ कर फैली अनियमितता को समाप्त किया। अंग्रजों के समय के पुराने नालों को ढंूढ निकाला जिसे लोगों ने ढक कर उनके ऊपर मकान बना लिया था। नाला सफाई मई, जून के महीने में कराया, जिससे शहर में पानी बरस जाने के बाद बाढ़ की स्थिति नहीं आयी। ैजवतउ ॅंजमत क्तंपद व सीवर को अलग करने की कार्यवाही प्रारम्भ किया। इलाहाबाद के पार्कों, विशेष रूप से नगर निगम कार्यालय के पार्क के सौन्दर्यीकरण का कार्य कराया। आज नगर निगम कार्यालय के पार्क का जो सुन्दर स्वरूप है, उन्ही की देन है। अतिक्रमण का सामान जो लोगों ने जुर्माना देकर नहीं लिया, उसका नीलामी करके उस पैसे से नगर निगम कार्यालय के पार्क को घेरवा दिया, जो आज भी विराजमान है। </span></p><p><span style="color: #800180;">जुलाई 2004 से नवंबर 2004 तक आप उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग में सचिव के पद पर कार्यरत रहे हैं। इस दौरान इन्होंने वहां व्याप्त भ्रष्टाचार को रोका तथा अध्यक्ष व सदस्यों के विरुद्ध विजिलेन्स की जांच स्थापित कराया। इसके बाद उत्तर प्रदेश के अलग-अलग शहरों में तैनाती रही।</span></p><p><span style="color: #800180;"> फरवरी 2014 में इनकी नियुक्ति इलाहाबाद मंडल केे कमिश्नर के पद पर हुई। तब इन्होंने चंद्रशेखर आजाद पार्क (अल्फ्रेड पार्क) का सौर्न्दयीकरण, पार्क में टहलने वालों के लिए टॉयलेट, सीविल लाइन्स की सड़कों का चौड़ीकरण और सौर्न्दयीकरण को स्वीकृति प्रदान किया। इन्हीं के देखरेख में फ्लाई ओवर्स का रोड मैप बनाया गया, जो बाद में बजट की स्वीकृति के बाद बना तथा और भी जहां-जहां फ्लाई ओवर्स का चिन्हीकरण किया गया, जो अब बन रहा है। खुसरो बाग में एक फ्लाई ओवर के कारण जाम की स्थिति उत्पन्न होती थी इसलिये दूसरे फ्लाई ओवर की योजना बनाई गई। शहर में पुलिस विभाग को सहयोग प्रदान करके खम्भों में कैमरा लगा कर अपराध पर अंकुश लगाया। गंगा नदी पर लाल बहादुर शास्त्री ब्रिज व फाफामऊ के ब्रिज का टोल टैक्स समाप्त कराया। स्वरूप रानी मेडिकल कॉलेज में एम. आर. आई. व सीटी स्केन नहीं था, जिसे स्थापित कराया। मण्डल में काफी डाक्टर लोग प्राइमरी हेल्थ सेन्टर व कम्युनिटी हेल्थ सेन्टर में नहीं जाते थे जिसके कारण बीमार गरीब व्यक्ति को चिकित्सा सुविधा तथा दवाई नहीं मिल पाती थी। ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा बिलकुल चरमरा गयी थी। इस लचर व्यवस्था को ठीक करने के लिए मोबाईल सर्विलान्स के माध्यम से इन डाक्टरों का लोकेशन लिया गया, जिससे डाक्टर ग्रामीण अंचल में निरंतर पहुंच कर चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने लगे। स्वरूप रानी अस्पताल में जहां उनकों मुफ्त में दवाई व चिकित्सा सुविधा मिलनी चाहिए, वहीं कतिपय डाक्टर दलाल के साथ गठजोड़ कर मरीजों को प्राईवेट नर्सिंग होम में ले जाने की व्यवस्था करते थे, जहां उनका आर्थिक शोषण होता था। इनके द्वारा छापा मरवाकर 16 प्राईवेट एम्बूलेन्स को मेडिकल कॉलेज के परिसर से हटाकर जब्त कराया गया, जिससे ऐसा माहौल बना कि गरीब व स्थानीय लोगों की चिकित्सा सरलता के साथ उपलब्ध होने लगी। </span></p><p><span style="color: #800180;"> सेवानिवृत्ति के बाद भी फरवरी 2015 में बादल चटर्जी समाज को बेहतर बनाने के लिए सक्रिय हैं। उस समय लोक सेवा आयोग में भ्रष्टाचार चरम सीमा पर था। उन्होने छात्रों के साथ मिलकर हाईकोर्ट में दायर पीआईएल का समर्थन करके तथाकथित भ्रष्ट उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष को हाईकोर्ट के आदेश से हटवाकर, प्रतियोगी छात्रों को न्याय दिलाने में एक अभूतपूर्व प्रयास किया। </span></p><p><span style="color: #38761d;">(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2022 अंक में प्रकाशित )</span></p><p><br /></p>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-54437824310933507272022-10-21T20:50:00.002+05:302022-10-21T20:50:54.767+05:30अकीदत और मोहब्बत के शाइर आरिफ नूरानी<p><span style="color: red; font-size: x-large;"> </span><span style="color: red;">- डॉ. वारिस अंसारी </span></p><p><span style="color: red;"> फतेहपुर </span></p><p><span style="color: red;"> मो. 9935005032 </span></p><p><span style="color: #674ea7;"> नअत कहना आसान काम नहीं है। कहा गया है नअत कहना तलवार की धार पर चलने जैसा है। बताता चलूं कि जो अशआर नबी की शान में कहे जाते हैं नअत कहलाते हैं, लेकिन नअत कहने में इस बात का ख़्याल रखा जाता है कि नबी की शान में कमी भी न आने पाए, और खुदा की वहदानियत भी बाकी रहे। आइए बात करते हैं नअत के एक नायाब शाइर मो. आरिफ नूरानी का, जिनका नातिया मजमूआ ‘अकीदत के फूल’ बहुत ही खूबसूरत मजमूआ है। आरिफ का नअत कहने का अंदाज़ बहुत ही सादा है और आसान लफजों को भी बखूबी बरतना जानते हैं, जिससे कारी को पढ़ने में काफी आसानी होती है। आरिफ के अशआर में अकीदत और मोहब्बत के रंग बिखरे हुए हैं, जिससे ईमान में ताज़गी पैदा होती है। इन्होंने मोतारन्नुम बह्र का इस्तेमाल किया है। अहसासात और जज़्बात में रहकर इन्होंने होश नहीं खोया और आगाज़ में ही खुदा की हम्द करते हुए लिखते हैं- ‘तेरी तमसील मुमकिन हो कैसे तेरी अजमत बईद अज़ बयां है/तेरी कुदरत का अंदाज़ा मौला इब्ने आदम के बस में कहां है’ उनके अशआर से पता चलता है की सरवरे कायनात की मोहब्बत उनकी रग-रग में मौजूद है। उनकी जिंदगी का हर लम्हा यादे रसूल और ज़िक्रे इलाही में गर्काब है। वह नअतगोई को इबादत और जरिया ए निजात तसव्वुर करते हैं । एक जगह कहते है-‘खुदा तेरे आरिफ की ये आरज़ू है कि ताउम्र/वह नअते अहमद सुनाए अकीदत और मोहब्बत में डूबा।’ आरिफ साहब का ये पहला नातिया मजमूआ है। जिसमे 176 पेज हैं। किताब को आरिफ नूरानी ने उबैद उल्लाह अत्तारी नूरखान पुर भदोही से कम्पोज करा कर बज्मे अहले कलम भदोही से प्रकाशित किया है। किताब की कीमत 100 रुपए है ।</span></p><p><br /></p><p><span style="color: red; font-size: large;"> अज़्मे-बिलाल है गुलदस्ता-ए-अकीदत</span></p><p><span style="color: red; font-size: large;"></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="color: red; font-size: large;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhRhWhzbKbeKPqIWQe6qRbZ9Wf1YMCnMdAxjE75yzwPvz0Z9x5Lbp65HOOO5bvk4C5uvPRHmD5axr_KrMdiEvYmHu8k826zgB2rGITHnlfITRB1Q6uRLx4ndsWH72cHNKgsqBBZBuadJqNNQCTupHE20A6DvJIkT_wiYGbmO6ha99mS3Moz2UE7_Fk2/s1280/azme%20belal.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="859" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhRhWhzbKbeKPqIWQe6qRbZ9Wf1YMCnMdAxjE75yzwPvz0Z9x5Lbp65HOOO5bvk4C5uvPRHmD5axr_KrMdiEvYmHu8k826zgB2rGITHnlfITRB1Q6uRLx4ndsWH72cHNKgsqBBZBuadJqNNQCTupHE20A6DvJIkT_wiYGbmO6ha99mS3Moz2UE7_Fk2/w269-h400/azme%20belal.jpg" width="269" /></a></span></div><span style="color: red; font-size: large;"><br /> </span><p></p><p><span style="color: #6aa84f;">नअत के बहुत ही मोहतरम शाइर हाजी मोइनउद्दीन आसिम का नातिया मजमूआ है ‘अज़्मे बिलाल’ है। इस किताब के पढ़ने से ईमान में जान आ गई। दिल इश्के नबी में डूब गया और क़ारी का दिल इश्के नबी ने क्यों न डूबे जब आसिम साहब ने नबी की मोहब्बत में गर्काब हो कर अशआर कहे हों। देखें-‘कौन कहता है उसे ख्वाहिशे जन्नत होगी/ जिसकी आंखों में मेरे आका की सूरत होगी।’ ‘अब तो आसिम की आका खबर लीजिए/ये तो अपने से भी बेखबर हो गया।’ आसिम के अशआर में मिठास है, रूह की गिज़ा है, कठिन लफ्ज़ों से भी परहेज़ किया है, पढ़ने में सलासत है। यही सब खूबियां उनको मोहतरम बनाती हैं। वह नअत सिर्फ़ शायरी के इल्म की वजह से नहीं बल्कि इश्के नबी में बेदार रहने के लिए कहते हैं और वह नअतगोई को इबादत का दर्जा देते हैं। आसिम साहब की सबसे बड़ी खूबी ये है कि इनके अशआर सहल और आम फहम ज़बान में होते हैं और लफ्ज़ों का इस्तेमाल मजमून के मुताबिक करते हैं। वह इश्क नबी में गोताज़न हो कर कहते हैं-‘इश्के़-रसूले-पाक मताए-रसूल है /वह जी गया जो आपकी उल्फत में मर गया’, ‘हूरें हैं उसके वास्ते जन्नत में बेकरार/ निस्बत जिसे जहां में गुलामे नबी से है।’ मौजूदा हालात पर भी उनकी गहरी नज़र है। उम्मते मुसलमां के अंदर जो बद-एखलाकी, हकीकत से चश्म पोशी, बेअमली और शरीयत से मुखालिफत जैसी बुराइयां पैदा हैं, उन्हें सोच कर वह काफी फिक्र मंद नज़र आते हैं। कुल मिलाकर ‘अज़्मे बिलाल’ एक कामयाब नातिया मजमूआ है, जिसमें 216 पेज हैं और हदिया 100 रुपए है। जो कि इमामा साबरी कटरा बाज़ार भदोही से कम्पोज हो कर बज़्मे अहले कलम भदोही से शाया हुई है। दुआ है अल्लाह उनके इस नायाब तोहफा को कुबूल फरमाए।</span></p><p></p><p><br /></p><p><span style="color: red; font-size: large;">’अज़ीम मुजाहिद-ए-आज़ादी शेख़ भिकारी अंसारी’</span></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjfp3XENZv54w59KPmAG7wO9IJ1-ZkHC3JQAEoapsU9aWflzrg8EyZfBA2IS20hattnXXp34ezueItb0p23aqD9TvmdHcu0r_RsYJHy-9nXV8C2cEuSMPe02FvC75mEb6TQCCqftzyzbfghWZU38iZatQ8IWWFIL5VoLgi6G4IDmyaCwD7aVlKDrIbD/s3377/shekh%20bhikhari.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3377" data-original-width="2221" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjfp3XENZv54w59KPmAG7wO9IJ1-ZkHC3JQAEoapsU9aWflzrg8EyZfBA2IS20hattnXXp34ezueItb0p23aqD9TvmdHcu0r_RsYJHy-9nXV8C2cEuSMPe02FvC75mEb6TQCCqftzyzbfghWZU38iZatQ8IWWFIL5VoLgi6G4IDmyaCwD7aVlKDrIbD/w263-h400/shekh%20bhikhari.jpg" width="263" /></a></div><br /><span style="color: red; font-size: large;"><br /></span><p></p><p><span style="color: #134f5c;"><span style="font-size: large;"> </span>भारत की आज़ादी में यूं तो हर कौमों मिल्लत ने लोगों बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। बहुत लोगों को हम जानते हैं और उन्हें याद भी करते हैं, लेकिन कुछ ऐसे आज़ादी के दीवाने भी हुए हैं जो गुमनामी का शिकार हो गए, हम उन्हें भूल गए। ऐसे ही एक अज़ीम मुजाहिद ए आज़ादी शहीद शेख़ बुखारी उर्फ भिकारी अंसारी हुए हैं, जिन्हें टीपू सुल्तान का सानी कहा जाता था। एम. डब्ल्यू. अंसारी ने की एक ऐसी किताब का संपादन किया है, जिसमें अलग-अलग लेखकों ने शेख बुखारी पर मज़ामीन लिखा है। किताब का नाम ‘शहीद शैख़ बुखारी उर्फ भिकारी अंसारी और आज़ादी की पहली लड़ाई 1957 रखा’ इस किताब में लग भग ’28’ लोगों ने शेख़ भिखारी अंसारी की ज़िंदगी पर बड़े दिलचस्प अंदाज़ में मज़ामीन लिखा है, जो कि स्कालर्स के लिए भी एक कार आमद किताब है।</span></p><p><span style="color: #134f5c;"> एम. डब्ल्यू. अंसारी लिखते है कि शेख़ भिकारी अंसारी एक दानिशवर, बहादुर, मनसूबाबन्दी में ऐसे माहिर थे कि फिरंगी उनके नाम से कांपते थे। इसका बेहतर अंदाज़ अंग्रेज़ो की फ़ौजी अदालत के एक तबसरे से होता है जो ’7’ जनवरी ’1857’ को शेख़ भिकारी और उनके साथियों को सज़ाये मौत सुनाते वक़्त लिखा गया। जिसका तर्जुमा था ‘कि शेख़ भिकारी बागियों में सबसे ज़्यादा मशहूर ख़तरनाक और इंक़लाबी हैं’ं बहरहाल शेख़ भिकारी की ज़िन्दगी और आज़ादी के लिए उनकी बहादुरी को दर्शाती हुई ये एक कारआमद किताब है जिसे पढ़कर सीने में वतन परस्ती का जज़्बा पैदा होता है। खूबसूरत जिल्द के साथ ’200’ रुपये की इस किताब में ’128’ पेज है जिसे न्यूज़, प्रिंटर्स सेंटर दरियागंज नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इस खूबसूरत अदबी तारीखी तोहफे के लिए एम. डब्ल्यू. अंसारी और उनकी पूरी टीम को मुबारकबाद पेश करता हूं।</span></p><p><span style="color: red; font-size: large;"></span></p><p><br /></p><p><span style="color: red; font-size: large;">सफीर-ए-अदब आसिया तलअत</span></p><p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlMx5fxZLDz-2ax647XKsyYNGMg3eI6-p1IK_qosrLz0KpyuxCOzLHmXMvzjReb7hCeg-V4sVvfD8hwphUYqSUDaksNG8g9y6ZKJ66MzAGt1-fhDaSkc4cff5Piw9Kz7G_7sn7h7ozUb08oVIOg8aWT8ISeXmR5ZUvE6Fba6eHdE57J_au5LCL3NLr/s3245/mohd.%20asdullah%20khan.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3245" data-original-width="2103" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlMx5fxZLDz-2ax647XKsyYNGMg3eI6-p1IK_qosrLz0KpyuxCOzLHmXMvzjReb7hCeg-V4sVvfD8hwphUYqSUDaksNG8g9y6ZKJ66MzAGt1-fhDaSkc4cff5Piw9Kz7G_7sn7h7ozUb08oVIOg8aWT8ISeXmR5ZUvE6Fba6eHdE57J_au5LCL3NLr/w259-h400/mohd.%20asdullah%20khan.jpg" width="259" /></a></div><br /><p></p><p><span style="color: #e69138;">किसी भी तखलीककार पर लोगों से अलग-अलग राय मुतात्तिब करना कोई आसान काम नहीं। ये बड़ी मेहनत और हौसले का काम है। ‘सफीर-ए-इंशाइया मोहम्मद असद उल्लाह’ एक मारूफ इंशाइया निगार हैं, पूरी अदबी दुनिया में अपनी सलाहियतों का लोहा मनवा रहे हैं। आसिया तलअत ने उन पर अपनी और दीगर तखलीक कारों की राय जमा करके बड़ा ही अजीम काम अंजाम दिया है। इस किताब को उन्होंने पांच हिस्सों में तकसीम किया है। पहले बाब (हिस्से) में मतीन अचलपुरी की तौशीही नज़्म भी शामिल है, जिसे उन्होंने मोहम्मद असद उल्लाह की शान में उनके हर्फ (अक्षर) के नाम से तखलीक की है जो कि काबिले तारीफ है। इस किताब के मुकदमे में ही आसिया तलअत ने असद साहब की जिंदगी और उनकी पूरी अदबी खिदमात का जिक्र किया है। आप सिर्फ मुकदमा पढ़कर ही आसिया तलअत की सलाहियतों का अंदाजा कर सकते हैं। उन्होंने बहुत ही खुश बयानी और सादह जबान में ही अपना इजहार ए ख्याल पेश किया है, जिसे कारी बआसानी पढ़ता चला जाता है और वह अपने आप को बोझिल भी नहीं महसूस करता। इसी पूरी किताब में उम्दा कागज का इस्तेमाल किया गया है, जिल्द के साथ इस किताब में 432 पेज हैं जिसकी कीमत 256 रुपए है, साहिल साहिल कंप्यूटर नागपुर से कंपोज कराकर इस किताब को दरभंगा हिंदी उर्दू प्रेस कामती ने प्रकाशित किया है। अहले अदब हज़रात एक बार इस किताब का मुताला ज़रूर करें उम्मीद करता हूं कि अदबी दुनिया में आने वाले कल तक भी इस किताब की अपनी एक अलग शिनाख्त होगी।</span></p><p><span style="font-size: large;"> </span></p><p><span style="font-size: large;"> <span style="color: red;">इंशाइया का तारीखी मजमुआ</span></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi5g89EKKwFB2AzuXnK8eI71mQ9KE7nNJd67aYTUdNJLE2vPcTT98091pGEfvOGmXE5_qfv5WEIrrB3DEBDE7RSg9jP8u_HqrHC88L9xlYcz5tzaD2OOihu0Epcm30KLs8VVqx2QXK39Ff09U8_cDAtjlM8QOSyCok52n1rrqz2AooC7gbNWP6S8VZM/s3381/inshaye-ek.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3381" data-original-width="2180" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi5g89EKKwFB2AzuXnK8eI71mQ9KE7nNJd67aYTUdNJLE2vPcTT98091pGEfvOGmXE5_qfv5WEIrrB3DEBDE7RSg9jP8u_HqrHC88L9xlYcz5tzaD2OOihu0Epcm30KLs8VVqx2QXK39Ff09U8_cDAtjlM8QOSyCok52n1rrqz2AooC7gbNWP6S8VZM/w258-h400/inshaye-ek.jpg" width="258" /></a></div><br /> </div><br /><p><br /></p><p> <span style="color: #3d85c6;">इंशाइया नस्र (गद्य) की वह सिन्फ (विधा) है, जो लगती तो मजमून की तरह है लेकिन होती मजमून से अलग है। ‘इंशाइया एक ख़्वाबे परेशां’ में लेखक आजादाना तौर पर बिना किसी नतीजे पर पहुंचकर अपनी तहरीर को खत्म कर देता है और नतीजा पाठकों पर छोड़ देता है। ‘इनशाइया एक ख्वाब ए परेशां’ ऐसा ही मजमुआ है जिसके मुसन्निफ जनाब मोहम्मद असद उल्लाह साहब हैं जिसमें मौसूफ ने तहकीक और को मौजू बनाकर ही दिलकश अंदाज में यह मजमुआ मुरत्तिब किया है। अदब से लगाव रखने वालों के लिए ये किताब बहुत ही काम की है। मुसन्निफ़ ने निहायत ही आसान लफ़्ज़ों में इस्तेमाल किया है जिससे पाठक रवानी के साथ पढ़ता चला जाता है और दिल ही दिल में मज़े का तसव्वुर करता है। आपने इस किताब में इंशाइया की तारीफ व तारीख का बहुत खूबसूरत अंदाज़ में ज़िक्र किया है। मैंने अभी पूरी किताब का मुताअला तो नही किया लेकिन जितना पढ़ा उससे अंदाज़ा हो जाता है कि जनाब असद उल्लाह साहब ने इस किताब के लिए बड़ी मेहनत ओ मशक्कत की है। रातों की नींदें कुर्बान की हैं तब कहीं जा कर इतनी कारामद किताब मंजरे आम पर आई है। इस किताब से अदीबों के अलावा तालिबे इल्म भी भरपूर फायदा उठा सकते हैं। साहिल कंप्यूटर्स हैदरी रोड मोमिन पूरा भागलपुर महाराष्ट्र से प्रकाशित इस किताब की कीमत 141रुपए है। खूबसूरत सरे वर्क के अलावा इस किताब में 224 पेज हैं । अदब से वाबस्ता हजरात इस किताब को एक बार ज़रूर पढ़ें ।</span></p><p> </p><p>(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2022 अंक में प्रकाशित )</p>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-4414393169162128972022-09-26T15:19:00.001+05:302022-09-26T15:19:06.788+05:30 गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2022 अंक में<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjuauXe2kcM8n75uft5rDvHI809fMKMVBxlJXGqDepemZlWf5h7_HzwDAouiDSf7ulPwH_ru6kdDUP8mrbxzFd1PnDVvax_vdHCMxavSnhg_oeV6aXEM0y8ki5FcMTeLpdQsTtE9zNdpHEvQC6XQ879Sr0kNQUW5mgMMFdSlnd0ksBr0yzTXStDyXLV/s1280/july-sep%202022.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="842" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjuauXe2kcM8n75uft5rDvHI809fMKMVBxlJXGqDepemZlWf5h7_HzwDAouiDSf7ulPwH_ru6kdDUP8mrbxzFd1PnDVvax_vdHCMxavSnhg_oeV6aXEM0y8ki5FcMTeLpdQsTtE9zNdpHEvQC6XQ879Sr0kNQUW5mgMMFdSlnd0ksBr0yzTXStDyXLV/w264-h400/july-sep%202022.jpg" width="264" /></a></div><br /><p><br /></p><p><span style="color: #800180;">4. संपादकीय: भड़ैती में एक्सपर्ट हो चुके हैं मंचीय कवि</span></p><p><span style="color: #800180;">5-9. 1857 की बग़ावत में उर्दू अख़बारात का किरदार - डॉ. आमिर हमजा</span></p><p><span style="color: #800180;">10-11. निराला के बहाने हो रही कविता की दुर्गति - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी</span> </p><p><span style="color: red;">12-24. ग़ज़लें</span>:<span style="color: #0c343d;">(डॉ. बशीर बद्र, मुनव्वर राना, देवी नागरानी, विश्वास लखनवी, पवन कुमार, डॉ. तारिक़ क़मर, विज्ञान व्रत, मासूम रज़ा राशदी, डॉ. राकेश तूफ़ान, अरविंन्द असर, डॉ. नसीमा निशा, बहर बनारसी, सरफ़राज़ अशहर, विवके चतुर्वेदी, ए.एफ. नज़र, पदम प्रतीक, चाधैरी मुजाहिद, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’, डॉ. कविता नंदन, अरविंद अवस्थी, राज जौनपुरी, राकेश नामित, अतिया नूर, शगुफ्ता रहमान ‘सोना’, मधुकर वनमाली, डॉ. रामावतार सागर )</span></p><p><span style="color: red;">25-31. कविताएं</span>: <span style="color: #3d85c6;">( यश मालवीय, डॉ. प्रकाश खेतान, जितेंद्र कुमार दुबे, ज्योति किरण, नीना मोहन श्रीवास्तव, रचना सक्सेना, पूजा सिंह, केदारनाथ सविता, मंजुला शरण )</span></p><p><span style="color: red;">32-35. इंटरव्यू</span><span style="color: #38761d;">: वेबसाइट पर उर्दू अकादमी की सारी जानकारियां - चौधरी कैफुल वरा</span></p><p><span style="color: red;">36-38. चौपाल: </span> <span style="color: #674ea7;">गुफ़्तगू के सफ़र को किस नज़र से देखते हैं</span></p><p><span style="color: red;">39-41. तब्सेरा:</span><span style="color: #073763;"> ( ठोकर से ठहरो नहीं, अंतर्नाद, आईना-ए-हयात, पहली बंूद)</span></p><p><span style="color: red;">42-45. उर्दू अदब:</span> <span style="color: #741b47;">( फूल मुख़ातिब हैं, ख़्वाबों का जज़़ीरह, एहसास-ए-मुजाहिद, पिकनिक, देखो तो ज़रा )</span></p><p><span style="color: red;">46-47. गुलशन-ए-इलाहाबाद</span>: <span style="color: #38761d;">बादल चटर्जी का बस नाम ही काफी है</span></p><p><span style="color: red;">48. ग़ाज़ीपुर के वीर</span>:<span style="color: #0b5394;"> डॉ. विवेकी राय</span></p><p><span style="color: #660000;">49- 53. अदबी ख़बरे</span></p><p><span style="color: red;">परिशिष्ट-1: शमा फ़िरोज़</span></p><p><span style="color: #20124d;">54. शमा फ़िरोज़ का परिचय</span></p><p><span style="color: #20124d;">55-56. सीधे दिल पर असर करने वाली शायरी- सरफ़राज़ आसी</span></p><p><span style="color: #20124d;">57-58. प्रेम की विविध अनुभूतियों का शानदार वर्णन - डॉ. शैलेष गुप्त वीर</span></p><p><span style="color: #20124d;">59-60. विविध विषयों को रेखांकित करती ग़ज़लें - रचना सक्सेना</span></p><p><span style="color: #20124d;">61-84. शमा फ़िरोज़ के कलाम</span></p><p><br /></p><p><span style="color: red;">परिशिष्ट-2: अर्चना जायसवाल ‘सरताज’</span></p><p><span style="color: #351c75;">85. अर्चना जायसवाल ‘सरताज’ का परिचय</span></p><p><span style="color: #351c75;">86-87. बहुतेरी विधाओं की कवयित्री अर्चना सरताज- सीपी सुमन युसुफपुरी</span></p><p><span style="color: #351c75;">88-89. विभिन्न रंग और खुश्बू के पुष्प् - अनिल मानव</span></p><p><span style="color: #351c75;">92-114. अर्चना जायसवाल ‘सरताज’ की रचनाएं</span></p><p><span style="color: red;">परिशिष्ट-3: जगदीश कौर</span></p><p><span style="color: #a64d79;">115. जगदीश कौर का परिचय</span></p><p><span style="color: #a64d79;">116-117. समाज को बेहतर करने की छटपटाहट- डॉ. मधुबाला सिन्हा</span></p><p><span style="color: #a64d79;">118- पाठक के दिल को प्रभावित करती कविताएं - शैलेंद्र जय</span></p><p><span style="color: #a64d79;">119-120. देश और समाज को समर्पित कविताएं - शगुफ्ता रहमान</span></p><p><span style="color: #a64d79;">121-144. जगदीश कौर की कविताएं</span></p><div><br /></div>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-91030052505889577672022-09-23T18:13:00.000+05:302022-09-23T18:13:55.494+05:30अम्न और भाईचारे के फूलों का गुलदस्ता<p style="text-align: center;"><br /></p><p style="text-align: center;"><span style="color: red; font-size: large;"> </span><span style="color: red;">-अजीत शर्मा ‘आकाश’</span></p><p style="text-align: center;"><span style="color: red; font-size: large;"></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="color: red; font-size: large;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1TpYY_RLpast8fLK-hAzzdGqk9dsWWCvF5zxgMBKMIO_cJjZteOptiMypyNJ_GLH-bCgNDlUnqO7TWmAiQ5DTN2-LCvaHyMvpGbmw4o4PPWIF4ftMKX48FlffIxJZYIc90k2tnvtU062rqoJtxy2YL8WyncUyDt_L0YwKIxEIWIITGSj-ni5wv3k_/s880/phool%20mukhatib%20hain-hindi%20-%20Copy.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="880" data-original-width="574" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi1TpYY_RLpast8fLK-hAzzdGqk9dsWWCvF5zxgMBKMIO_cJjZteOptiMypyNJ_GLH-bCgNDlUnqO7TWmAiQ5DTN2-LCvaHyMvpGbmw4o4PPWIF4ftMKX48FlffIxJZYIc90k2tnvtU062rqoJtxy2YL8WyncUyDt_L0YwKIxEIWIITGSj-ni5wv3k_/w261-h400/phool%20mukhatib%20hain-hindi%20-%20Copy.jpg" width="261" /></a></span></div><span style="color: red; font-size: large;"><br /> </span><p></p><p style="text-align: center;"><span style="color: red; font-size: large;"> </span><span style="color: #2b00fe;"><span style="font-size: large;"> </span>पत्रकार, साहित्यकार एवं शायर इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की पुस्तक ‘फूल मुख़ातिब हैं’ में उन्होंने फूल विषय पर 300 शे’र कहे है। अधिकतर शे’र प्रेम एवं श्रृंगार विषय पर केंद्रित हैं, जिनके माध्यम से अपने महबूब की तारीफ़, मान-मनुहार एवं इश्क़ का इज़हार किया गया है। शायरों एवं कवियों के लिए फूल प्रारम्भ से ही प्रेम के प्रतीक रहे हैं। अपने महबूब की तारीफ़ करनी हो, या अपनी मुहब्बत का इज़हार करना हो तो इनसे अच्छा माध्यम कोई नहीं है। “फूल नाज़ुक है मानता हूं मैं/ तेरे लब से मगर ज़रा कम है।“, “फूल ख़ुद को हसीन कहते थे/ तुमको देखा तो भरम टूट गया।“, “पास जब भी तुम इनके होते हो/ फूल दिलकश हसीन लगते हैं।“ इसके अतिरिक्त फूल के बहाने इन शेरों में प्रेम, मुहब्बत, भाईचारे, पारस्परिक सौहार्द और विश्व बंधुत्व का संदेश देने का प्रयास किया है। जिस प्रकार जीवन के अनेक रंग होते हैं, उसी प्रकार फूल भी अनगिनत रंगों के होते हैं। ये सबके लिए ख़ुश्बू लुटाते हैं, जिनसे संसार महकता है। शायर की तमन्ना है कि फूलों की ख़ुश्बू निरंतर फैलती रहे। फूल हमें ख़ुशबू का एहसास कराते रहें और जीना सिखाते रहें। मोहब्बत का पैग़ाम इस तरह दिया गया हैः- “दुश्मनों को भी फूल भेजो तुम/ एक दिन दुश्मनी भुला देंगे।“</span></p><p style="text-align: center;"></p><p style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe;"> फूल सदैव सकारात्मकता के प्रतीक होते हैं। ये फूल हर किसी को जीने का हौसला देते हैं। ये हमें ज़िन्दगी की हक़ीक़त से रूबरू कराते हैं, मानो कह रहे हों कि ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत हैः-“फूल देखो और फिर बोलो/ कितनी प्यारी ये ज़िंदगानी है।“ देखा जाए तो फूल हमें जीवन-संघर्ष की प्रेरणा भी देते हैं। आंधी, तूफ़ान, बरसात, गर्मी, सर्दी सब झेलते हुए हर हाल में मुस्कुराते और खिलखिलाते रहकर फूल एक अनमोल सन्देश देते हैं। फूल हमारे साथ कभी मुस्कुराते हैं कभी खिलखिलाते हैं, तो कभी उदास होते हैं। हमारे हंसने पर फूल हंसते हैं, हम दुखी होते हैं, तो फूल भी उदास होते हैं, ऐसा शायर का मानना हैः-“फूल फिर है उदास ऐ ग़ाज़ी/आज तुम फिर से मुस्कुरा देना।“ दार्शनिक अन्दाज़ में कहे गये कुछ शे’र अपने अंदर गूढ़ अर्थ समेटे हुए हैं। पुस्तक में अलग-अलग अन्दाज़ के अशआर हैं, जिनके बहुआयामी अर्थ निकलते हैं-“फूलों के संसार में तरह-तरह के रंग/कुछ में तेरा रंग है, कुछ में मेरा रंग।“ आज निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए लोग कुछ भी कर डालते हैं तथा दूसरों की भावनाओं एवं उनके हित-अनहित से इन्हें कोई लेना देना नहीं होता। इसी पीड़ा को इस शे’र में अभिव्यक्ति दी गयी हैः-“फूल की ज़िन्दगी के लिए/ मुझको कांटा बनाया गया।“ यह पुस्तक एक प्रकार से अम्न और भाईचारे के फूलों का गुलदस्ता है। शे’र कहने का शायर का अन्दाज़ लुभावना है। सादा ज़बान, आम लहज़े एवं आमफ़हम भाषा में बात कही गयी है। कठिन एवं बोझिल शब्दों से बचा गया है। गुड मार्निंग, प्रोफ़ाइल, प्रॉमिस, वेलेंटाइन, आई लव यू, ब्रेकअप, लबबैक जैसी भाषा एवं शब्दों का प्रयोग कर शायरी को एक नया एवं आधुनिक अन्दाज़ देने का प्रयास किया गया है। कुल मिलाकर फूल को प्रतीक मानकर, फूल लफ़्ज़ एवं विषय पर सकारात्मक सोच के 300 शेरों की ‘फूल मुख़ातिब हैं’ पुस्तक पठनीय एवं सराहनीय है। 80 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 130/ -रूपये है, जिसे गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है।</span></p><p style="text-align: center;"><span style="color: red; font-size: large;">श्रेष्ठ गीतों का संकलन</span></p><p style="text-align: center;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjru89hwd-jh9TNg3xI5MzrN_6_sB1Al9Z_C4DyF2UN8jBYV7tQx1hRyM_E9ZMvMS8MoJmlzpQILnMzUmRsTcN2mdQFdGFNnPJx368rufejFhnHHCeruTIljmtJJxr6YD3L5N9rvI8e7fsD8g6GEOZTyCDoD_fXqMaHMqhH0nsTq-bYiHdtR5Jm_mHU/s2276/mai%20bhi%20suraj%20hota.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2276" data-original-width="1457" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjru89hwd-jh9TNg3xI5MzrN_6_sB1Al9Z_C4DyF2UN8jBYV7tQx1hRyM_E9ZMvMS8MoJmlzpQILnMzUmRsTcN2mdQFdGFNnPJx368rufejFhnHHCeruTIljmtJJxr6YD3L5N9rvI8e7fsD8g6GEOZTyCDoD_fXqMaHMqhH0nsTq-bYiHdtR5Jm_mHU/w256-h400/mai%20bhi%20suraj%20hota.jpg" width="256" /></a></div><br /><span style="color: red; font-size: large;"><br /></span><p></p><p style="text-align: center;"><span style="color: red; font-size: large;"> </span>छंद विहीन नयी कविता के इस दौर में अधिकतर रचनाकार स्वयं को कवि कहलाने के लिए कुछ पंक्तियों को जोड़-तोड़कर एक रचना कर डालते हैं, जिसे वह कविता का नाम दे देते हैं। इससे कविता की छन्दबद्धता में एक प्रकार का प्रदूषण-सा फैलता हुआ दृष्टिगोचर होता है। इस प्रकार की रचनाओं में लयात्मकता एवं गेयता के लिए कोई स्थान नहीं होता है। इसका सीधा-सा कारण है कि इस प्रकार के रचनाकार छन्दानुशासन से नितान्त अनभिज्ञ होते हैं तथा छन्दानुशासन सीखना ही नहीं चाहते। ऐसे में छंदबद्ध लयात्मक गीतों के संग्रह से रूबरू होना एक सुकून सा प्रदान करता है। ‘मैं भी सूरज होता’ कवि अशोक कुमार स्नेही के 20 गीतों एवं मुक्तकों की लघु पुस्तक है। इस पुस्तक में उनके कुछ विशिष्ट गीत एवं मुक्तक संकलित किये गये हैं। गीतों में छन्दबद्धता, लयात्मकता एवं गेयता की ओर पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है तथा तुकान्तता का भलीभाँति निर्वाह किया गया है। सभी रचनाएँ भाव प्रवण हैं। गीतों की भाषा में समरसता परिलक्षित होती है। शब्द चयन भी सराहनीय है, जिसके अन्तर्गत सामान्य बोलचाल के शब्दों से लेकर साहित्यिक एवं परिमार्जित एवं संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग भी किया गया है। पुस्तक में संकलित अधिकतर गीत संयोग एवं वियोग श्रृंगार रस प्रधान हैं तथा हृदय को आह्लादित करते हैं। कुछ रचनाओं में सामाजिक विसंगतियों का चित्रण भी किया गया है।</p><p style="text-align: center;"></p><p style="text-align: center;"> पुस्तक के शीर्षक गीत ‘मैं भी सूरज होता’ में कवि कहता हैः- अब तक जितना चला डगर मैं, मेरे साथ चला अँधियारा/ जाने इस सूरज को मेरी क्यों कोई परवाह नहीं है। ‘मेरा दीप रात भर रोया’ शीर्षक रचना में आज के समाज में फैली हुई आर्थिक असमानता एवं विषमता का यथार्थ चित्रण किया गया हैः- उनके आँगन फसल ज्योति की/ मेरे द्वार अँधेरा बोया/ उनके दीपक हँसे रात भर/ मेरा दीप रात भर रोया। ‘ओ अशरीरी मेघ’ कालिदास के मेघदूतम् से अनुप्रेरित एक भाव प्रवण एवं सुन्दर गीत-रचना है। ‘तुम नहीं जब’ गीत में वियोग श्रृंगार का अच्छा चित्रण किया गया है। ‘देश के वास्ते’ एक देशभक्ति पूर्ण रचना है। मुक्तक रचनाएँ भी अच्छी बन पड़ी हैं। आँसुओं के घरौंदे गिराये गये/ बेगुनाहों पे फिर जुल्म ढाये गये/ हार रानी का लेकर के कागा उड़ा/ नौकरानी को कोड़े लगाये गये। इस मुक्तक में आज के आम आदमी की दशा-दुर्दशा का यथार्थ चित्रण करने का प्रयास किया गया है। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य रचनाओं के उल्लेखनीय अंश इस प्रकार हैं रू- आओ कुछ फूल चुने ऐसे/ शूल जिन्हे सपने मे देख डरे (आओ कुछ बात करे)। ऐसे सम्बन्घ हम जिये/ शब्दों के अर्थ खो गये (बासी सकल्पो का गीत)। पुस्तक में प्रूफ़ सम्बन्धी एवं वर्तनीगत अशुद्धियों को दूर नहीं किया गया है। इसके बावजूद छन्दबद्ध रचनाओं के प्रेमी पाठकों के लिए यह संग्रह पठनीय एवं सराहनीय है। 52 पृष्ठों के इस गीत संग्रह का मूल्य 100 रूपये है, जिसे अलका प्रकाशन, ममफोर्डगंज, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है।</p><div style="text-align: center;"><br /></div><p style="text-align: center;"><span style="color: red; font-size: large;">मनोभावों को अभिव्यक्ति करती कविताएं</span></p><p style="text-align: center;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimXc-PjxDAXfsME70TQ-jgbAOYNr9IZ8pA3y7CKwKVdFEacZj6IJgYTTXVGo-npQueTKzXpRYaorCzr-8meVpcIWW6K3AI9epc3OWrA2CKSyCXmxyyYTIyB3Gp2-Z0ivqlR1vnJ_UIF_m_-ribhIhUgU2W93XUQn61NwD3g8L6HOVl8aeXq9Ihhs7T/s1280/dahleez.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="847" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimXc-PjxDAXfsME70TQ-jgbAOYNr9IZ8pA3y7CKwKVdFEacZj6IJgYTTXVGo-npQueTKzXpRYaorCzr-8meVpcIWW6K3AI9epc3OWrA2CKSyCXmxyyYTIyB3Gp2-Z0ivqlR1vnJ_UIF_m_-ribhIhUgU2W93XUQn61NwD3g8L6HOVl8aeXq9Ihhs7T/w265-h400/dahleez.jpg" width="265" /></a></div><br /><span style="color: #0b5394;"><br /></span><p></p><p style="text-align: center;"><span style="color: #0b5394;"> ‘गुफ़्तगू प्रकाशन’ की पुस्तक ‘दहलीज़’ कवयित्री डॉ. मधुबाला सिन्हा की 58 कविताओं का संग्रह है। कहा गया है कि कविताएं मन के समस्त भावों को व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम हैं। इन्हीं मनोभावों को कवयित्री ने अपने काव्य-संग्रह में अभिव्यक्त करने की चेष्टा की है। अपने कविता-लेखन के संबंध में कवयित्री का कथन है कि वह छंदमुक्त एवं नई कविताओं की रचना करती रही हैं, किन्तु इस काव्य-संग्रह में उन्होंने गीत लिखने का प्रयास किया है। काव्य सृजन की कोई विधा हो, उसमें अनुशासन अत्यावश्यक है। गीत एक छन्दबद्ध कविता होती है, जिसका एक शिल्प विधान हैं और उसका पालन किया जाना अनिवार्य होता है, तभी वह रचना गीत कहलाती है। कवयित्री के इस संग्रह की रचनाएं गीत के शिल्प की कसौटी पर पूरी तरह खरी नहीं उतरती हैं। पुस्तक में संग्रहीत कविताओं के कथ्य को दृष्टिगत रखते हुए कहा जा सकता है कि लेखन में सरलता और सहजता है, लेकिन कवयित्री का भाषा और अभिव्यक्ति पर अधिकार प्रतीत नहीं होता है। संग्रह की कविताएं सामान्य स्तर की हैं। वर्ण्य विषय की दृष्टि से संग्रह की रचनाओं में श्रृंगार एवं प्रणय, वर्तमान समाज का चित्रण, जीवन की अनुभूतियां तथा संवेदनाएं, जीवन का यथार्थ, सामाजिक सरोकार, स्त्री की हृदयगत कोमल भावनाएं, आम आदमी की व्यथा आदि पहलुओं को स्पर्श करते हुए अपने एवं ज़माने के दुख-दर्द को भी रचनाओं में अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है। कविताओं में जीवन में व्याप्त संत्रास, घुटन, वेदनाओं एवं अनुभूतियों को शब्द प्रदान किये गये हैं। रचनाओं में यत्र-तत्र जीवन के अन्य अनेक रंग भी सामने आते हैं। संग्रह की अधिकतर रचनाएं संयोग एवं वियोग श्रृंगार विषयक हैं। इस प्रकार की कविताएं प्रेम के विभिन्न पक्षों, संबंधों, विसंगतियों, अनुभूतियों तथा व्यक्त और अव्यक्त प्रेम की अभिव्यक्तियों का चित्रण करती प्रतीत होती हैं। </span></p><p style="text-align: center;"></p><p style="text-align: center;"><span style="color: #0b5394;"> पुस्तक की कुछ कविताओं के उल्लेखनीय अंश इस प्रकार हैः- जब भी दो पल मिले प्रिये तुम/पास मेरे यूं ही चले आना (‘जब भी दो पल मिले’)। चपल चांदनी चंचल चितवन/छिटक रही आकाश है/धवल नवल जग की शीतलता/प्रकाश का आभास है (‘चपल चांदनी चंचल चितवन’)। चलो दिया से दिया जलाएं/जहां बिखरा हो राग-द्वेष/प्यार का कोई फूल खिलाएं (‘चलो दिया से दिया जलाएं’)। एक दिवस मिलने आऊंगी/अपने द्वार खड़े तुम मिलना (‘एक दिवस मिलने आऊंगी’)। बिखर गए संगी और साथी/बिछड़ गया है प्यार/बहुत अब रोता है मन (‘बहुत अब रोता है मन’)। अपने मनोभावों को कविताओं के रूप में अभिव्यक्त करने की कवयित्री ने अपनी ओर से भरपूर चेष्टा की है। संग्रह के सृजन का प्रयास सराहनीय कहा जा सकता है। गीत-लेखन का कवयित्री का यह प्रयास निश्चित रूप से सफल कहा जाता, यदि छन्दशास्त्र की ओर विशेष ध्यान दिया गया होता। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कविता लेखन के क्षेत्र में यह एक सार्थक एवं सराहनीय लेखन है, जो सृजनात्मकता का द्योतक है। पुस्तक का मुद्रण एवं तकनीकी पक्ष सराहनीय है। 96 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 150 रूपये है, जिसे गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज ने प्रकाशित किया है।</span></p><div style="text-align: center;"><br /></div><p style="text-align: center;"><span style="color: red; font-size: large;">कोरोना काल की अनुभूतियों की अनूठी कहानियां</span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqflHuPCNOhZDbCkfoLE44zZLITguu_Q8nsDZfMTODEtMgRE89u5ffH_EsAGc0tQx4_ES3iQyr_TwsC3EeC1cVXtLShRi46Ci6Vs1VgG5PylBvGYWQSJEGFwbpLP1XoyAuffioJH74t9dmCHIAUsh3MnkUR0tQXAxwss7eTHjX4yrrL5GY5ii62j_n/s2167/dhanuk%20ke%20rang.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2167" data-original-width="1381" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqflHuPCNOhZDbCkfoLE44zZLITguu_Q8nsDZfMTODEtMgRE89u5ffH_EsAGc0tQx4_ES3iQyr_TwsC3EeC1cVXtLShRi46Ci6Vs1VgG5PylBvGYWQSJEGFwbpLP1XoyAuffioJH74t9dmCHIAUsh3MnkUR0tQXAxwss7eTHjX4yrrL5GY5ii62j_n/w255-h400/dhanuk%20ke%20rang.jpg" width="255" /></a></div><br /><p style="text-align: center;"><br /></p><p style="text-align: center;"> <span style="color: #741b47;">डॉ. अमिता दुबे ने कहानियां, उपन्यास, काव्य, बाल साहित्य, समीक्षा एवं समालोचना आदि साहित्य की अनेक विधाओं में अपना उल्लेखनीय रचनात्मक योगदान किया है, जिसके फलस्वरूप अनेक संस्थाओं द्वारा इन्हें पुरस्कृत एवं सम्मानित किया गया है। ‘धनुक के रंग’ इनका कहानी संग्रह है, जिसमें संकलित कहानियों को कोविड-19 महामारी की विभीषिका के भयावह पक्ष को केंद्र में रखकर लिखा गया है। कोरोना काल के दौरान समाज के लोगों की मानसिक, शारीरिक, आर्थिक स्थितियों एवं जीवन-संघर्ष का मनोवैज्ञानिक चित्रण करने की सफल चेष्टा की गयी है। कथावस्तु, कथोपकथन, पात्र, देशकाल-वातावरण जैसे कहानी के तत्वों के आधार पर संग्रह की कहानियां खरी उतरती हैं। कहानियों की विषयवस्तु समसायिक है। सभी कहानियों की भाषा एवं शैली सधी हुई, सरल, सहज एवं बोधगम्य है तथा इनका उद्देश्य समाज को एक अच्छा सन्देश प्रदान करना है। सहज एवं स्पष्ट संवाद, घटनाओं का सजीव चित्रण तथा पाठकों के मन में रोचकता बनाये रखना इन कहानियों में मुख्य रूप से परिलक्षित होता है। संग्रह में कहानीकार ने अपनी पैनी तथा सूक्ष्म दृष्टि से परिस्थितियों का गहन अवलोकन करते हुए एवं समाधान की दिशा बताते हुए अपनी रचनात्मकता को उच्च आयाम दिए हैं। कहानियों की कथावस्तु के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं को सामने लाने का प्रयास किया गया है। प्रत्येक साहित्यिक रचना अपने समय का दस्तावेज़ होती है। ‘धनुक के रंग’ कहानी संग्रह भी कोरोना काल के एक महत्वपूर्ण दस्तावेज की भांति प्रतीत होता है। अपनी इच्छाओं के अनुरूप कुछ वर्ष जीने की आकांक्षा करती हुई “अब तो लौट आओ” अवनि की कहानी है, जो अपने घर-परिवार को त्यागकर जीवन के कुछ अनुत्तरित प्रश्नों को लेकर आश्रम में चली जाती है। कहानी में दर्शाया गया है कि जिंदगी में बहुत सारे सवालों के जवाब हमें मिलते ही नहीं। “मन न भए दस बीस” प्रेमविवाह के उपरांत उत्पन्न पारिवारिक, सामाजिक स्थितियों-परिस्थितियों एवं अंतर्द्वंद्व का चित्रण करती है। कोरोना काल के समय अनेक बार ऐसी भी परिस्थितियां सम्मुख आयीं, जब संकट की घड़ी में लोगों के असली चेहरे देखने को मिले। संक्रमण काल में कहीं स्वार्थ-लोलुपता दिखी, तो कहीं लोगों ने एक-दूसरे की बढ़-चढ़ कर मदद भी की। ‘धनुक के रंग’ कहानी संग्रह में धनुक अर्थात् इन्द्रधनुष के सात रंगों की भांति जीवन के रंगों को प्रस्तुत करने की चेष्टा की गई है। धनुक के सभी फीके रंग मिट जाएं और चटक रंग अपनी आभा बिखेरें, इन कहानियों माध्यम से यही सन्देश प्रदान करने की चेष्टा की गई है। इस संकलन की कहानियों में लेखिका का सामाजिक सरोकार स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। 120 पृष्ठों के इस कहानी संग्रह को नमन प्रकाशन, लखनऊ ने प्रकाशित किया है, जिसका मूल्य मूल्य 150 रुपये है।</span></p><div style="text-align: center;"><br /></div><p style="text-align: center;"> <span style="color: red; font-size: large;">शब्दों की हथौड़ियों से विसंगतियों पर करारी चोट</span></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiaybHjGQl8zVkiLNrvIt8JLsTHb8MSYmOeITZV5LAhgdG0ukscUdjAdHp4p_3442YRoOBVjvYIKYB8yxPKSKvrXwNfZmF1YvtSpYhhCXT5yehkxJlClrO4MEWmLC0-GyeezDqpC5THEWcnB3z6yhTmPm3adPKgsBL0oGhuRuOvQiFU1V0gZEwzDE_O/s3561/hathudiyon%20ki%20chhot.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3561" data-original-width="2194" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiaybHjGQl8zVkiLNrvIt8JLsTHb8MSYmOeITZV5LAhgdG0ukscUdjAdHp4p_3442YRoOBVjvYIKYB8yxPKSKvrXwNfZmF1YvtSpYhhCXT5yehkxJlClrO4MEWmLC0-GyeezDqpC5THEWcnB3z6yhTmPm3adPKgsBL0oGhuRuOvQiFU1V0gZEwzDE_O/w246-h400/hathudiyon%20ki%20chhot.jpg" width="246" /></a></div> <span style="color: #351c75;">पुस्तक ‘हथौड़ियों की चोट’ कवि केदारनाथ ‘सविता‘ की कविताओं का संग्रह है। इन कविताओं में सामाजिक, पारिवारिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक आदि जीवन के सभी पहलुओं को स्पर्श किया गया है, जिसके अन्तर्गत जीवन की अनुभूति, मानव संवेदना, प्रकृति-चित्रण, आज के युग की विडम्बनाएँ आदि सम्मिलित हैं। कविताओं में आज के जीवन में व्याप्त संत्रास, घुटन, वेदनाओं एवं अनुभूतियों को चुटीले एवं मारक शब्द प्रदान किए गए हैं। पुस्तक की मुख्य विधा हास्य-व्यंग्य है, जिसके माध्यम से सामाजिक एवं राजनीतिक विसंगतियों पर प्रहार किया गया है। वर्तमान दौर में आम आदमी जीवन की जटिल समस्याओं, विद्रूपताओं एवं अनेक विसंगतियों से जूझ रहा है तथा जीने के लिए भरपूर संघर्ष कर रहा है। राजनेता अपने-अपने स्वार्थों में लिप्त हैं। महंगाई चरम पर है और दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही है। अनेक कठिनाइयाँ मनुष्य की प्रगति की राह रोके खड़ी हैं। ऐसी विषम परिस्थितियों पर रचनाकार ने शब्दों की हथौड़ियों की गहरी चोट कर समाज को जाग्रत करने की चेष्टा की है। विसंगतियों का यथार्थ चित्रण, आज के राजनेताओं की नीयत, आम आदमी की व्यथा-कथा, वर्तमान दौर की विडम्बनाएँ, सामाजिक विसंगतियाँ, आज के समय का सच, आपसी सद्भाव और भाईचारा, ज़िन्दगी, आशावाद आदि पुस्तक की रचनाओं के वर्ण्य-विषय हैं, जिनमें पाठक को विविधता परिलक्षित होती है। कविताओं में वर्तमान परिवेश की अनेक अनुभूतियों को रोचक ढंग से सामान्य बोलचाल की भाषा में समाहित करने की चेष्टा की गयी है। संग्रह में सम्मिलित कुछ कविताएँ इस प्रकार हैं- महंगाई ने/ रोटी का आकार/ जितना छोटा कर दिया है/ आदमी ने उसे/ उतने ही बड़े तराजू में/ ईमान के साथ/ तौल दिया है (रोटी)। आज के दौर के राजनेताओं पर करारा कटाक्ष इस प्रकार किया गया हैः- आम का बाग है/ मेरा देश/ लूट लो/ जितना लूट सको/ तोड़ लो सारे फल/ कच्चे हों या पक्के/ तुम नेता हो/ इस देश के (मेरा देश)। तपती सड़क पर फ़्लैट में पंखा/ पंखे के नीचे अफसर/ अफसर के नीचे कुर्सी/ कुर्सी के नीचे/ जनता की मातमपुरसी/ सब क्रमबद्ध ही तो है (क्रमबद्ध)। इनके अतिरिक्त ‘हम आज़ाद हैं’, ‘जीने के लिए’ ‘नमक’ ‘जीवन’ आदि अन्य रचनाएँ भी सराहनीय हैं। पुस्तक का तकनीकी पक्ष आकर्षक है। समसामयिक विषयों पर हास्य-व्यंग्य शैली में लिखी गयी तथा आम पाठक को जल्दी समझ में आने वाली छोटी-छोटी चुटीली एवं मारक कविताएं समेटे हुए हथौड़ियों की चोट कवि केदारनाथ ‘सविता’ का पठनीय एवं सराहनीय कविता संग्रह है। 120 पृष्ठों की इस सजिल्द पुस्तक का मूल्य 350 रुपये है, जिसे हिन्दी श्री पब्लिकेशन, संत रविदास नगर, उ0प्र0 ने प्रकाशित किया है।</span><p></p><p><span style="color: #4c1130;">( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2022 अंक में प्रकाशित )</span></p>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-57204022275401783462022-09-10T19:59:00.004+05:302022-09-10T19:59:59.610+05:30यूपी एसटीएफ के संस्थापक सदस्य राजेश पांडेय<p> </p><p><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhQaaCEctWZePFQBW9IXU1sVv7-il4y4ixxnoJD-2r167xFWDmFmzneSktTEeFghclpMQCJEvVA7j6MLQxujX252yHfH2Yqvc4zw4Bl1qRgTLx2tTtdSDrbAHvR6YnkV5D0YVlLzv3dmeg-_yV8Ti_WFmuWxUzIZPsJovQtZd2BmeNXJxXgzeiifxBw/s642/Rajesh%20pandey.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="642" data-original-width="640" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhQaaCEctWZePFQBW9IXU1sVv7-il4y4ixxnoJD-2r167xFWDmFmzneSktTEeFghclpMQCJEvVA7j6MLQxujX252yHfH2Yqvc4zw4Bl1qRgTLx2tTtdSDrbAHvR6YnkV5D0YVlLzv3dmeg-_yV8Ti_WFmuWxUzIZPsJovQtZd2BmeNXJxXgzeiifxBw/w399-h400/Rajesh%20pandey.jpg" width="399" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: #800180;">राजेश पांडेय</span></td></tr></tbody></table><br /> </p><p> <span style="color: red;">-इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी</span></p><p> <span style="color: #0b5394;"> प्रयागराज निवासी आईपीएस राजेश पांडेय यूपी एसटीएफ और एटीएस के संस्थापक सदस्य हैं। तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने जब श्रीप्रकाश शुक्ला को पकड़ने के लिए एसटीएफ की स्थापना किया था, तब बनी इस टीम में राजेश पांडेय भी शामिल थे। मुख्यमंत्री की अपेक्षाओं पर खरे उतरते हुए राजेश पांडेय की अगुवाई में यूपी एसटीएफ की टीम ने ग़ाज़ियाबाद में श्रीप्रकाश शुक्ला को एनकाउंटर किया था। 15 जून 1961 को जन्मे राजेश पांडेय के पिता स्वर्गीय श्री सीपी पांडेय इलाहाबाद हाईकोर्ट में डिप्टी रजिस्टार थे। राजेश जी ने इलाहाबाद जीआईसी से हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण किया था। 1980 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बीएससी और 1982 में इसी यूनिवर्सिटी से वनस्पति विज्ञान से एएससी किया। इसके बाद इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से ही यूजीसी नेट और जेआरएफ किया। वर्ष 2003 में एसपीएस में चयनित होकर पुलिस सेवा से जुड़ गए। इनकी पहली नियुक्ति सोनभद्र जिले में डिप्टी एसपी के पद पर हुई, इसके बाद इसी पद पर जौनपुर, आज़मगढ़ और लखनऊ में कार्यरत रहे।</span></p><p><span style="color: #0b5394;"> 17 मई 1998 को एसटीएफ की स्थापना के साथ ही इन्हें इसी डिपार्टमेंट में भेज दिया गया। 08 जनवरी 2000 को इसी विभाग में एडीशनल एसपी बना दिए गए। 10 मार्च 2000 से 23 जुलाई 2002 तक लखनऊ के एसपी सिटी रहे, 03 नवंबर 2002 से 15 फरवरी 2003 तक एसपी सिटी ग़ाज़ियाबाद और 26 सितंबर 2003 से 12 फरवरी 2005 तक बाराबंकी और 02 जून 2007 से 10 दिसंबर 2007 तक मेरठ के एसपी सिटी रहे। 05 जुलाई 2005 को अयोध्या और 07 मार्च 2006 को वाराणसी में हुई आतंकी घटनाओं के बाद आपको इन घटनाओं की जांच की जिम्मेदारी दी गई थी, जिसका आपने सफलता पूर्वक निर्वहन किया। दिसंबर 2012 में आप आईपीएस हो गए, जिसके बाद आपकी पहली नियुक्ति रायबेरली एसपी के रूप में हुई, जहां 08 जून 2014 तक कार्यरत रहे। इसके बाद एसएसपी सहारनपुर, एसपी गोंडा, एसएसपी लखनऊ, एसएसपी अलीगढ़ और एसएसपी मेरठ के रूप मे कार्य किया, फिर आपको डीआईजी बरेली बनाया गया। 01 जनवरी 2021 को प्रोन्नत कर आप आईजी हो गए। 30 जून 2021 को सेवानिवृत्त हुए। सेवानिवृत्ति के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने आपको यूपी एक्सप्रेस-वे इंडस्टीयल डेवलेपमेंट अथॉरिटी का नोडल अधिकारी बना दिया है, जहंा वर्तमान में कार्यरत हैं।</span></p><p><span style="color: #0b5394;"> आपको अब तक विभिन्न एवार्ड्स से नवाजा जा चुका है। जिनमें 1999, 2000. 2007 और 2006 में इंडियन पुलिस सेवा मेडल, 2005 में राष्टपति के हाथों मेडल, 2008 में यूनाइटेड नेशन मेडल, 2018 में डीजीपी के हाथों सिल्वर कॉमेंडेशन डिस्क, 2020 में डीजीपी के हाथों गोल्ड कॉमेंडेशन डिस्क, और 2021 में डीजीपी के हाथों प्लेटिनम कॉमेंडेशन डिस्क सम्मान शामिल है। साहित्यिक संस्था गुफ़्तगू द्वारा इन्हें वर्ष 2022 को ‘शान-ए-इलाहाबाद सम्मान’ प्रदान किया गया है। </span></p><p><br /></p><p><span style="color: #7f6000;">(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2022 अंक में प्रकाशित )</span></p><p><br /></p>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-14862359415402671952022-08-30T21:36:00.002+05:302022-08-30T21:38:19.529+05:30मानवतावाद में यक़ीन रखते थे फ़िराक़ गोरखपुूरी: बादल चटर्जी<p><span style="color: red; font-size: medium;">‘फ़िराक़ गोरखपुरी जन्मोत्सव’ पर ‘आधुनिक भारत के ग़ज़लकार’ का विमोचन </span></p><p><span style="color: red; font-size: medium;">देशभर से जुटे शायरों ने पेश किया कलाम, मिला फ़ि़राक़ गोरखपुरी सम्मान</span></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhfn8icrDNz4X53tSXWfttrB7nefR3mcSCCrcEJf2Mu-PBnHOt0I6BIKtx-mXSHXLVH--2daSWdPmJnPJOvR5w5nlOFkNRCh0xatHwM954JkwbZXIKvn5lig3C-nvkjwJg3Yw8i5f8uWdXdk8zMjuxe-OCyGS0okrn0MezAnmXf2GinprwfVchHbWbd/s1732/vimochan.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="798" data-original-width="1732" height="184" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhfn8icrDNz4X53tSXWfttrB7nefR3mcSCCrcEJf2Mu-PBnHOt0I6BIKtx-mXSHXLVH--2daSWdPmJnPJOvR5w5nlOFkNRCh0xatHwM954JkwbZXIKvn5lig3C-nvkjwJg3Yw8i5f8uWdXdk8zMjuxe-OCyGS0okrn0MezAnmXf2GinprwfVchHbWbd/w400-h184/vimochan.JPG" width="400" /></a></div><br /><span style="color: red; font-size: large;"><br /></span><p></p><p><span style="color: #800180;">प्रयागराज। फ़िराक़ गोरखपुरी मानवतावाद में यक़ीन करने वाले शायर थे। उन्होंने अपनी शायरी में हर वर्ग, हर धर्म और हर समाज की अच्छी बातें का वर्णन किया है। यहां तक द्वितीय विश्व को रेखांकित करते हुए ‘आधी रात’ नामक नज़्म लिखा है, जो उस दौर में बहुत ही मशहूर हुई थी। वे स्वतंत्र विचार वाले शायर थे, जहां कहीं भी अच्छी चीज़़े दिखती थी, उसे अपना लेते थे। गुफ़्तगू की ओर से कार्यक्रम आयोजित करके उनको याद करना बहुत ज़रूरी कदम है। ऐसे शायर की शायरी और जिन्दगी पर बात होती रहनी चाहिए। यह बात 28 august को गुफ़्तगू की ओर से हिन्दुस्तानी एकेडेमी में आयोजित ‘फ़िराक़ गोरखपुरी जन्मोत्सव’ के दौरान पूर्व कमिश्नर बादल चटर्जी ने कही। कार्यक्रम के दौरान इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की संपादित पुस्तक ‘आधुनिक भारत के ग़ज़लकार’ का विमोचन किया। इस किताब में शामिल सभी 110 शायरों को ‘फ़िराक़ गोरखपुरी सम्मान’ प्रदान किया गया।</span></p><p><span style="color: #800180;"> अध्यक्षता कर रहे अली अहमद फ़ातमी ने कहा कि 1972 से 1982 मेरा फ़िराक़ साहब से साथ साबका रहा है। उनको, जानने, समझने और पढ़ने का खूब अवसर मिला है। वे बहुत दूरन्दाज शायर थे। उनकी शायरी में इंसानियत, मोहब्बत, देशभक्ति और समाज को बेहतर बनाने का जज़्बा दिखाई देता है। जिस ज़माने में फ़िराक़ साहब शायरी के मैदार में आए थे, उस समय फ़ैज़, जिगर मुरादाबादी, साहिर लुधियावनी और अली सरदार जाफरी जैसे शायर थे। मगर, इनके बीच भी फ़िराक़ ने अपनी अलग पहचान बनाई। गुफ़्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि हमलोग प्रत्येक वर्ष एक शायर का जन्मदिवस मानते हैं। इससे पहले कैफी आज़मी, निराला, महादेवी, अकबर इलाहाबादी और साहिर लुधियानवी का जन्म दिवस मनाया था। इस वर्ष हमलोग फ़िराक़ साहब को याद कर रहे हैं। वाराणसी के सहायक डाक अधीक्षक मासूम रज़ा राशदी ने कहा कि फ़िराक़ साहब का चयन सिविल सर्विस में हो गया था, लेकिन उन्हें यह नौकरी पसंद नहीं आयी, उन्हें पढ़ना और पढ़ाना ही पसंद थी, इसलिए इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अध्यापक बनकर आ गए। डॉ. हसीन जिलानी ने फ़िराक़ गोरखपुरी द्वारा लिखे गए लेख पर शोध-पत्र पढ़ा। संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया। गुफ़्तगू के सचिव नरेश महरानी ने धन्यवाद ज्ञापन किया।</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया। अनिल मानव, रेशादुल इस्लाम, अफसर जमाल, अर्चना जायसवाल, शैलेंद्र जय, डॉ. इश्क़ सुल्तानपुरी, राज जौनपुरी, नीना मोहन श्रीवास्तव, शिवाजी यादव, डॉ. पंकज कर्ण, धर्मेंद सिंह धरम, चांदनी समर, इकबाल आज़र, डा. इम्तियाज़ समर,,अर्शी बस्तवी, विजय लक्ष्मी विभा, संजय सागर, अनीता सिंन्हा, फरमूद इलाहाबादी, शाहिद सफ़र, निशा सिम्मी, सेलाल इलाहाबादी, अतिया नूर, मधुकर वनमाली, ए.आर. साहिल, रश्मि रौशन, सगीर अहमद सिद्दीक़ी, वीणा खरे, सुशील वैभव,्र खरे, वर्तिका अग्रवाल, सरफ़राज अशरह, असद ग़ाज़ीपुरी, अज़हर रसूल, केदारनाथ सविता, कामिनी भारद्वाज, तलत सरोहा, सय्यदा तबस्सुम, नरेंद्र भूषण, रमेश चंद्र श्रीवास्तव आदि ने कलाम पेश किया। </span></p><p> </p><p><br /></p><p><br /></p><p> </p>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-58449139526204035172022-08-20T20:31:00.002+05:302022-08-20T20:31:44.014+05:30 प्रेम का शानदार वर्णन करती हैं मधुबाला: अज़ीज़ुर्रहमान<p><span style="color: red; font-size: large;">डॉ. मधुबाला सिन्हा की पुस्तक ‘दहलीज’ का विमोचन </span></p><p><span style="color: red; font-size: large;">मुशायरे में पहले स्थान पर फ़रमूद, दूसरे पर शरत और असलम रहे</span></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhm8ySG1CjKmAA6LUrYcu4DLDzCDu6DkfJ5tBLxMEXzbCrJoUPccUzsDNGUKFAbaqqioSzXdxEbth82k3M_vu6Xb5XFs8Hk5Sbnb1MyAWG3WXMtNqDBzVAaDMKCTlQE-VLlKKdeGW911WXD2Ln5oZ2_1t8cYFa_KHKUC-CpCJmCOieLfB0fkbYTS2Iy/s1014/vimochan.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="516" data-original-width="1014" height="204" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhm8ySG1CjKmAA6LUrYcu4DLDzCDu6DkfJ5tBLxMEXzbCrJoUPccUzsDNGUKFAbaqqioSzXdxEbth82k3M_vu6Xb5XFs8Hk5Sbnb1MyAWG3WXMtNqDBzVAaDMKCTlQE-VLlKKdeGW911WXD2Ln5oZ2_1t8cYFa_KHKUC-CpCJmCOieLfB0fkbYTS2Iy/w400-h204/vimochan.jpg" width="400" /></a></div><br /><span style="color: red; font-size: large;"><br /></span><p></p><p><span style="color: #0b5394;">प्रयागराज। काव्य का सृजन करना अपने-आप में बहुत ही मेहनत और दूरदर्शिता का काम है। कवि समाज, देश और प्रेम का वर्णन अपने अनुभवों से करता है। डॉ. मधुबाला सिन्हा की कविताएं इस परिदृश्य में बेहद ख़ास और महत्वपूर्ण हैं। इन्होंने अपने नज़रिए को बेहतर तरीके से वर्णित किया है। आज ऐसी ही कविताओं की ज़रूरत है। यह बात गुफ़्तगू की ओर से 14 अगस्त को करैली स्थित अदब घर में डॉ. मधुबाला सिन्हा की पुस्तक ‘दहलीज़’ के विमोचन के अवसर पर मुख्य अतिथि पूर्व जिलाजज अज़ीज़ुर्रहमान ने कही। </span></p><p><span style="color: #0b5394;">गुफ़्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि कविता का सृजन हर दौर में ख़ास रहा है, डॉ. मधुबाला सिन्हा की कविताएं इसी मायने में बेहद ख़ास हैं। इन्होंने प्रेम का वर्णन बहुत ही मार्मिक ढंग से किया है। इनका प्रेम अलौलिक रूप में इनकी कविताओं में दिखाई देता है। डॉ. मधुबाला सिन्हा ने कहा कि मेरी यह किताब आपके सामने हैं, मैंने एक अर्से के बाद गीत लिखना शुरू किया है, अब आपको मेरी गीतों के बारे में राय व्यक्त करने का पूरा अधिकार है। प्रभाशंकर शर्मा ने कहा कि डॉ. मधुबाला की कवितओं में बहुत गहराई है, जिसकी वजह से बेहद पढ़नीय हो जाती हैं। इनके सृजन में समाज और देश के साथ-साथ प्रेम का वर्णन बहुत ही शानदार तरीके दिखता है। इनका प्रेम मनुष्यों से होकर अलौलिक होता हुआ दिखाई देता है। पुस्तक में शामिल ‘काशी’ कविता सबसे अलग और शानदार है।</span></p><p><span style="color: #0b5394;"> कार्यक्रम का संचालन कर रहे शैलेंद्र जय ने कहा कि डॉ. मधुबाला को पढ़ने के बाद स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि इन्होंने छंदमुक्त कविताओं को गीत बनाने का प्रयास किया है। कथन के मुताबिक कविताएं बेहद मार्मिक और उल्लेखनीय हैं। इनके अंदर एक बहुत संवेदनशील स्त्री बैठी है, जो हर पहलु को बेहतर ढंग से उल्लेखित करते हुए वर्णित करती है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे डॉ. वीरेंद्र तिवारी ने कहा डॉ. मधुबाला सिन्हा ने मात्र दो वर्ष पहले ही गीत लिखना शुरू किया है, जबकि एक अर्से से वे छंदमुक्त कविताएं लिखती आ रही हैं। इसलिए इस पुस्तक को मात्र दो वर्ष की कवयित्री के सृजन के रूप में देखा जाना चाहिए। इसके बावजूद इनकी कवतिाओं का बिंब बहुत मार्मिक और उल्लेखनीय है।</span></p><p><span style="color: #20124d;">दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया। अतिथियों के मूल्याकंन के आधार पर इस प्रथम स्थान फ़रमूद इलाहाबादी को, द्वितीय स्थान पर शरत चंद्र श्रीवास्तव और असलम निजामी रहे। तीसरे स्थान पर वाक़िफ़ अंसारी और अनिल मानव थे। रेशादुल इस्लाम, अफ़सर जमाल, प्रकाश सिंह अर्श, अजीत शर्मा ‘आकाश’ वाक़िफ़ अंसारी, डॉ नईम साहिल, सेलाल इलाहाबादी, शुएब इलाहाबादी, शाहिद सफ़र, सत्य प्रकाश श्रीवास्तव आदि शायरों ने कलाम पेश किया</span> </p><div><br /></div>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-85160625083892817292022-08-12T20:33:00.000+05:302022-08-12T20:33:43.655+05:30पहले एक उपन्यास नया कानून बनवा देता था: नासिरा शर्मा<p> </p><p><br /></p><p> <table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjbzxoMN9euNpfKWwhDDJeQJSQwDVFNxiePcLvotKDt-JEirXvf1nWyPaM2goTj6BouSpC0IsUb3pHb0P0kSArZ7CqrP2mPBFLOzLuyq3gWH-EISGXOWjPbT1uYNWcKfXs4lVPMJykcnYo_S1earmKPPWpw0kN_R5yHlHGj5LboLWMvMr3gDwFzZcx5/s1130/nasira%20sharma-ganesh%20shanker%20srivastava.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="552" data-original-width="1130" height="195" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjbzxoMN9euNpfKWwhDDJeQJSQwDVFNxiePcLvotKDt-JEirXvf1nWyPaM2goTj6BouSpC0IsUb3pHb0P0kSArZ7CqrP2mPBFLOzLuyq3gWH-EISGXOWjPbT1uYNWcKfXs4lVPMJykcnYo_S1earmKPPWpw0kN_R5yHlHGj5LboLWMvMr3gDwFzZcx5/w400-h195/nasira%20sharma-ganesh%20shanker%20srivastava.jpg" width="400" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: #3d85c6;">नासिरा शर्मा से बात करते डॉ. गणेश शंकर श्रीवास्तव</span></td></tr></tbody></table><br /> </p><p><span style="color: #741b47;"> नासिरा शर्मा हिन्दी कथा जगत की जानी-मानी लेखिका हैं। अपने विविध किरदारों के चलते वे एशिया की राइटर मानी जाती हैं। यह कहना भी समीचीन होगा कि वे एक ग्लोबल लेखिका हैं, जिनके लेखन को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समान रूप से स्वीकार्यता मिली है। उनका जन्म 22 अगस्त 1948 को इलाहाबाद में एक संपन्न मुस्लिम परिवार में हुआ। प्रगतिशील विचारों के धनी उनके पिता प्रोफेसर जामीन अली उर्दू के प्रोफेसर थे। माता नाज़मीन बेगम सफल गृहणी रहीं। नासिरा जी के भाई-बहन भी साहित्य और लेखन से जुड़े रहे हैं। नासिरा जी का विवाह डॉ. रामचन्द्र शर्मा जी से हुआ जो कि भूगोल विषय में अध्यापन कार्य कर रहे थे। चर्चित उपन्यास ’पारिजात’ के लिए नासिरा जी को वर्ष 2016 का साहित्य अकेडमी अवार्ड भी मिला है। पत्थर गली’, संगसार, इब्ने मरियम, शामी कागज, सबीना के चालीस चोर, खुदा की वापसी, इंसानी नस्ल, शीर्ष कहानियां और दूसरा ताज महल आदि उनके प्रकाशित कहानी संग्रह हैं। शाल्मली, ठीकरे की मंगनी, जिंदा मुहावरे, सात नदियां एक समुंदर, अक्षयवट, कुईयांजान, पारिजात, शब्द पखेरू आदि उनके चर्चित उपन्यास हैं। उन्होंने संपादन एवं अनुवाद कार्य भी किया है, साथ ही बच्चों के लिए भी बहुत कुछ लिखा-पढ़ा है। युवा साहित्यकार </span><span style="color: red;">डॉ. गणेश शंकर श्रीवास्तव और प्रियंका प्रिया</span><span style="color: #741b47;"> ने उनसे बातचीत की।</span> </p><p><span style="color: red;">सवाल: आपने ढेर सारी कहानियां और उपन्यास लिखे हैं। उपन्यास एवं कहानी के आपसी संबंधों के बारे में आप क्या समझ्ाती हैं ?</span></p><p><span style="color: #0b5394;">जवाब: कहानी एक जज़्बा है, एक शिद्दत है जिसे आप उठाते हैं। चाहे वह लंबी कहानी हो या लघु कहानी, आप का जज़्बा उसमें निकल आता है। लेकिन उपन्यास में आपको पूरी बस्ती पूरा मोहल्ला बसाना पड़ता है। उसमें कभी अपना शहर तो कभी विदेश भी उपस्थित रहता है। इसलिए उपन्यास में बहुत धैर्य और समय की ज़रूरत है। उपन्यास में हर किरदार के तर्क और तथ्य को इस प्रकार साधना होता है कि उपन्यास की प्रामाणिकता और विश्वास बना रहे और पाठक को उपन्यास में आए चरित्र प्रभावित कर सकें और सच्चे लगें। इसलिए उपन्यासकारों का एक मुकाम भी होता है।</span></p><p><span style="color: red;">सवाल: साहित्य और पत्रकारिता का गहरा अंतर्संबंध रहा है, किंतु आजकल पत्रकारिता में साहित्य हाशिए पर चला गया है, इस पर आपके क्या विचार हैं ?</span></p><p><span style="color: #0b5394;">जवाब: देखिए एडिटर क्या प्रकाशित करना चाहता है क्या नहीं यह सब एडिटर के मिज़ाज़ पर निर्भर करता है। पहले साहित्यकार और पत्रकारों मैं बैलेंस था। अब पत्रकारों ने साहित्यकारों से एक दूरी बना ली है और स्वयं को रिपोर्टिंग तक सीमित कर लिया है। अब पत्रकारों को साहित्य की दुनिया की इतनी जानकारी नहीं होती या शायद उनकी साहित्यकारों में दिलचस्पी नहीं होती। एक और महत्वपूर्ण बात मैं कहना चाहती हूं कि जो पत्रकारिता की ज़रूरत होती है वह कहानी की नहीं होती है। हर घटना पर आप कहानी नहीं लिख सकते और हर घटना सूचना नहीं हो सकती। यह सबसे बड़ा फ़र्क़ है। जिनके पास यह समझ्ा है और जो इन दोनों की सीमाएं जानते हैं, वे एक साथ पत्रकार और साहित्यकार दोनों हो जाते हैं।</span></p><p><span style="color: red;">सवाल: आपकी राय में क्या आज भी समाज और राजनीति के परिष्करण में साहित्य की सक्रिय भूमिका है ?</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">जवाब: फिलहाल साहित्य कुछ बदल तो पा नहीं रहा, यहां तक कि किसी देश की व्यवस्था तो बदल नहीं पा रहा। पहले एक उपन्यास नया कानून बनवा देता था। कहा जाता है कि मिस्र के एक राष्ट्रपति थे उनकी पूरी सोच एक नोबेल से बदली। इंग्लैंड के एक उपन्यास का प्रभाव रहा कि बच्चों के पक्ष में एक पूरा कानून बना। कमी लेखकों में नहीं है, मुझ्ो लगता है कि लेखकों की राय कोई लेना नहीं चाह रहा। ऐसा माहौल 1947 के बाद धीरे-धीरे बनता चला गया। दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि पाठक अपनी जिम्मेदारी को नहीं समझ्ाते हैं। पाठक लेखक के विचार को आगे नहीं ले जाते। लेकिन एक तीसरा बहुत दिलचस्प दृश्य दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है कि पाठक कम होते जा रहे हैं, लेखक बढ़ते जा रहे हैं। आजकल लेखक की चाहे एक ही किताब हो, लेकिन उसकी इतनी ज्यादा प्रायोजित चर्चा होती है कि अच्छे लेखक ठगे से रह जाते हैं। मीडिया और सोशल मीडिया की वजह से आईं तब्दीलियां आज का परिदृश्य तय कर रही हैं। इनकी वजह से सतही चीज़ों का बहुत ज्यादा शोर हो गया है। क्योंकि साहित्य बहुत धीरे-धीरे असर करता है, पत्रकारिता फौरन असर करती है। एक ख़बर मेरा किरदार बना भी सकती है और बिगाड़ भी सकती है क्योंकि मैं ख़बर को लेकर रिएक्शनरी भी तो हो सकती हूं। पत्रकारिता रोज घटने वाली घटनाओं के प्रति एक्टिव बनाती है, जबकि साहित्य चरित्र का निर्माण करता है, आपको अच्छे-बुरे की समझ्ा देता है। साहित्य आपका परिचय उस समाज से भी करवाता है जिस तक आप पहुंच नहीं पाते।</span></p><p><span style="color: red;">सवाल: मैं यह मानता हूं और यक़ीनन और भी कई लोग जो यह मानते होंगे कि नासिरा शर्मा की न सिर्फ़ शक्ल-औ-सूरत अंतरराष्ट्रीय है बल्कि वे अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं या मुद्दों की लेखिका भी हैं। स्वयं की इस छवि को आप किस प्रकार देखती हैं ?</span></p><p><span style="color: #38761d;">जवाब: मैं इस छवि से खुश हूं। मेरी इस सोच को लोगों ने बहुत पसंद किया है। मेरे बुद्धिजीवी पाठकों ने मुझ्ो बहुत सम्मान दिया है। मैं आपको बताऊं एक वक़्त तक मेरे लेखन को लेकर चंद लोगों की नकारात्मक बातें मुझ्ो झ्ोलनी पड़ी, जिससे मैं अपसेट भी होती थी, लेकिन मैंने इन सब से भी प्रेरणा ली। ऐसे कमअक्ल लोग अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर कलम उठाने को जासूसी समझ्ाते थे। उनकी समस्या थी कि वे संबंधों को संकीर्ण नज़र से देखते थे। उनकी बातों से थोड़ी देर के लिए मन कसैला ज़रूर होता था फिर लगता था कि मेरा जुड़ाव किन्हीं और ऊंचाइयों से है। लेकिन मुझ्ो खुशी है कि जिन लोगों ने मुझ्ो पसंद कियाए भरपूर किया। मुझ्ो किसी से शिकायत नहीं है।</span></p><p><span style="color: red;">सवाल: पारिजात के लिए आपको साहित्य अकेडमी अवॉर्ड मिला, कुछ लोग मानते हैं कि यह अवार्ड आपको देर से मिलाए इस बारे में आपका क्या कहना है ?</span></p><p><span style="color: #3d85c6;">जवाब: हां, कुछ लोग मानते हैं कि शाल्मली के लिए ही मुझ्ो साहित्य अकादेमी अवार्ड मिल जाना चाहिए था। लेकिन कोई बात नहीं। उस वक़्त राइटर और भी बहुत अच्छे-अच्छे थे, शायद इसीलिए उन्हें पहले दिया गया। मैं यह तो नहीं कहूंगी कि मुझ्ो यह देर से मिला लेकिन जब मिला तो भी मेरी ज़िंदगी में क्या फर्क पड़ा, मेरे सामने दो सवाल हैं कि अगर अभी भी ना मिलता तो, और जब मिला तो किसी ने कम से कम यह तो नहीं कहा कि यह बैकडोर एंट्री है या खुशामद का नतीज़ा है। मुझ्ो इस बात का शुक्र है कि मुझ्ो अवॉर्ड उस वक़्त मिला जब लोगों ने यह शिद्दत से महसूस किया कि अब नासिरा शर्मा को साहित्य अकेडमी अवॉर्ड मिल जाना चाहिए।</span></p><p><span style="color: red;">सवाल: आपकी दृष्टि में óी विमर्श क्या है ?</span></p><p><span style="color: #3d85c6;">जवाब: óी एक ज़िंदगी है। उसे एक आंदोलन की तरह लोग इस्तेमाल करते हैं। लेकिन मुझ्ो óी विमर्श के खाते में डाला जाए, ऐसा मेरे समझ्ा के परे है। óी विमर्श नाम तो अभी दे दिया गया है, लेकिन साहित्यकार तो पहले से ही बिना किसी óी विमर्श आंदोलन के óियों के शोषित चरित्र को बड़ी खूबसूरती से उठाते रहे हैं। दुनिया में जितने बड़े लेखक हैं, उन्होंने जो एक से एक शानदार óियों के किरदार दिए हैं, उसमें महिला लेखिकाएं भी शामिल हैं। औरतों की तादात कम ज़रूर थी लेकिन शानदार थी। देखिए जब किसी चीज़ को आंदोलन का रूप दे दिया जाता है तो सब कुछ होने के बावजूद भी वह वक़्त के साथ ख़त्म हो जाता है। óी विमर्श एक ख़ास अंदाज़ से शुरू हुआ। उससे पहले भी न जाने कितने किरदारों में óियों के सरोकार बिना किसी óी विमर्श के भरे पड़े हैं। मुझ्ो लगता है óी विमर्श सामाजिक दृष्टि से ज़रूरी है। कहानियों में कला को बर्बाद नहीं करना चाहिए वह किसी नारे की मोहताज़ नहीं होनी चाहिए। ऐसी स्थिति में कहानी का पूरा का पूरा ढांचा चरमरा जाता है। अतः हमें देखना पड़ेगा कि उस óी विमर्श में लेख और बातचीत के जरिए किस तरह से जागरूकता लाएं। मैं यह नहीं कहती कि ‘कला कला के लिए’ हो, लेकिन किरदार ऐसा होना चाहिए जो लेखक की सोच से प्रभावित होकर उसकी मर्जी से ना चलेए बल्कि खुद वह लेखक को यह बताएं कि वह किरदार किस ग्राफ का है। मैं मानती हूं कि लेखक को किसी भी तरह के विमर्श को अपनी कहानियों में प्रस्तुत नहीं करना चाहिए। ऐसे विमर्श उसे लेखों वक्तव्यों और समाज सेवा में प्रस्तुत करना चाहिए। हां, जो आंदोलनकारी हैं वह कहानीकार की कहानियों का इस्तेमाल अपने आंदोलन में कर सकते हैं।</span></p><p><br /></p><p><span style="color: red;">सवाल: क्या óी की बुनियादी और जज़्बाती ज़रूरतों को पूरा करने के लिए आज का साहित्य कारगर है ?</span> </p><p><span style="color: #38761d;">जवाब: कारगर इस तरह से है कि हर कोई कलम लेकर अपनी बात कह रहा है। यह एक अच्छा शगुन है। औरतों ने बोलना सीखा है और लिख रही हैं। यह बहुत अच्छी बात है कि औरतों को जुबान मिल गई है और उसको लोग सुनते हैं।</span></p><p><span style="color: red;">सवाल: आपकी दृष्टि में क्या आज ऐसा साहित्य रचा जा रहा है जो पुरुषों को झ्ाकझ्ाोर कर óियों के प्रति अच्छे बर्ताव के लिए प्रेरित करे ?</span></p><p><span style="color: #674ea7;">जवाब: साम्यवाद के असर से मर्द-समाज में सामाजिक चेतना आनी शुरू हुई। हमारे यहां जब 1947 के बाद जमीदारी खत्म हुई, बड़े स्तर पर शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ तो मर्दो को भी एक नज़रिया मिला। देखिए सवाल उठता है कि समाज यूं ही नहीं खुलता गया होगा। इतिहास में जाकर हमें देखना होगा कि मर्द कहां तक हमारे समाज को कंट्रीब्यूटर कर रहे हैं और यह सिलसिला कहां से शुरू होता है। हम देखते हैं कि मुस्लिम समाज के सर सैयद अहमद खान ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की नींव रखी। इस संस्थान ने मुस्लिमों के विश्वास को बढ़ाया। यह यूनिवर्सिटी हिंदू-मुस्लिमों का खेमा नहीं था। यहां से सबसे पहले एम.ए. करने वाले छात्र प्रसिद्ध इतिहासकार ईश्वरी प्रसाद थे। उस यूनिवर्सिटी में भाई बहनों ने साथ-साथ पढ़ना शुरू किया। इस बात को समझ्ािए कि उस समय óी विमर्श नहीं था, बल्कि समाज ने करवट बदली। राजा राममोहन राय के सती प्रथा के खिलाफ किए गए प्रयासों को कैसे भुलाया जा सकता है। यह तो संकुचित सोच है कि óी विमर्श आज का मुहावरा है। औरत जो कुछ लिख रही है उससे ज़रूर संकुचित मर्दों की चेतना में बदलाव आया होगा। वैसे तो असमानता और एक दूसरे के शोषण का सिलसिला बहुत पुराना है और इस शोषण के खिलाफ मर्द के विरोध का सिलसिला भी बहुत पुराना है।</span></p><p><span style="color: red;">सवाल: आपको अपना सबसे प्रिय उपन्यास कौन सा लगता है ?</span> </p><p><span style="color: #38761d;">जवाब: जब मैं एक उपन्यास लिख रही हूं तो वह मुझ्ो प्यारा लगता है। उसका किरदार मुझ्ो अवसाद और परेशानी में भी डालता है, लेकिन जब वह मार्केट से होते हुए पाठकों के हाथों में पहुंच जाता है तो वह मेरा नहीं रहता। मेरा संबंध तो उससे बना रहता है लेकिन मेरी शिद्दत दूसरे उपन्यास में चली जाती है।</span></p><p><span style="color: red;">सवाल: आपने बच्चों के लिए भी लिखा है, बाल साहित्य लिखते समय क्या सावधानियां रखनी होती हैं ? क्या लेखन शैली में किसी विशेष तकनीक का इस्तेमाल अपेक्षित होता है ?</span> </p><p><span style="color: #3d85c6;">जवाब: मेरे लेखन को विधाओं में आप बांट दें, यह आपकी मर्जी, लेकिन एक लेखक के दिल में जो भी आया वो उसने लिखा। कुछ लोग बड़े और बच्चे दोनों के लिए अलग-अलग तरह से लिखते हैं। मैं कोई खास सचेत होकर नहीं लिखती कि मैं किसके लिए लिख रही हूं। आपके अंदर का रस कोई भी रंग पकड़ सकता है। मैं बड़ों के लिए लिखूं या बच्चों के लिए, मनोविज्ञान को सामने रखकर नहीं लिखती बल्कि ज़िंदगी को सामने रखती हूं कि ज़िंदगी कैसे इंसान को मोड़ती है।</span></p><p><span style="color: red;">सवाल: हिंदी और उर्दू के आपसी संबंधों को आप किस प्रकार देखती हैं ?</span></p><p><span style="color: #3d85c6;">जवाब: हिंदी-उर्दू एक ही मां से पैदा हुई दो बहनें हैं। हिंदुस्तान की बेटियां हैं। स्क्रिप्ट का फर्क ज़रूर है। उर्दू की पैदाइश तो यहीं से हुई। उसकी हिस्ट्री चाहे जहां से पकड़ लो। उर्दू की स्क्रिप्ट अरबी और फारसी के करीब हो गई। हिंदी का झ्ाुकाव संस्कृत की तरफ हो गया। मजे की बात है कि संस्कृत और फारसी को कुछ लोग जुड़वा बहनें कहते हैं। कुछ लोगों ने इस पर काम भी किया है। अभी मैंने अपने एक लेख में लिखा है कि हिंदी और उर्दू के बहुत से शब्द दरअसल फारसी के शब्द हैं। जिसे दोनों भाषाओं ने अपना लिया हैए क्योंकि भाषा किसी की मोहताज नहीं रहेगी और न किसी सीमा में रहेगी। उसकी ग्रोथ तो बराबर होती रहती है। नामवर सिंह ने एक लेख लिखा था ‘बासी भात में खुदा का साझ्ाा’ जिसके कारण उन्हें प्रगतिशीलों की आलोचना भी झ्ोलनी पड़ी। भाषाओं के साथ कैसी नफ़रत, उर्दू केवल मुसलमानों की जुबान नहीं है।</span></p><p><span style="color: red;">सवाल: राजभाषा की दृष्टि से आप हिंदी की स्थिति को कैसा पाती हैं ?</span></p><p><span style="color: #674ea7;">जवाब: किसी भी देश का एक झ्ांडा और एक भाषा तो होनी ही चाहिए। जब हम अखंडता की बात करते हैं और सारे प्रांतों की बोलियों और भाषाओं के लोगों को एकजुट करना चाहेंगे तो यह प्रश्न उठेगा कि हिंदी ही क्यों, दूसरी भारतीय भाषाएं भी तो लिटरेचर की वजह से काफी रिच हैं। यह भी एक सवाल हो सकता है कि सिर्फ़ हिन्दी क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषा को ही आगे क्यों बढ़ाया जा रहा है। ऐसे सवाल वक़्त के साथ बढ़ रहे हैं, क्योंकि यह तो तय है कि उर्दू-हिंदी मिश्रित भाषा यानी ‘हिंदुस्तानी’, जिसमें अब दूसरी भाषाओं के शब्द भी आने लगे हैं। एक कनेकिं्टग भाषा तो है ही। अतः हिंदी को अलग रखते हुए उर्दू को अन्य भारतीय भाषाओं में शामिल कर लीजिए और ‘हिंदुस्तानी’ भाषा जो मिली जुली भाषा है, उसे राष्ट्रीय भाषा मान लीजिए। उसमें एकता भी है, अखंडता भी है, सहकारिता भी है और एक दूसरे को साथ लेकर चलने की भावना भी है। इस तरह हिंदी और उर्दू के प्रति लोगों की परस्पर नफ़रत भी खत्म हो जाएगी।</span></p><p><span style="color: red;">सवाल: आपने अंतरधर्मीय विवाह किया है। क्या इस विवाह से सामाजिक रूप से आपको कोई विरोध झ्ोलना पड़ा ? या जीवन में किसी नकारात्मक प्रभाव का सामना करना पड़ा ?</span></p><p><span style="color: #0b5394;">जवाब: शादी को लेकर तो ऐसा कोई विरोध नहीं हुआ जिसे दुर्घटना का नाम दिया जाए। यह बात अलग है कि लोगों ने हिन्दू-मुसलमान का नाम देकर हम दोनों को प्रोफेशनली नुकसान पहुंचाने की कोशिश ज़रूर की थी। लेकिन यह भी सच है कि ढ़ेरों लोग कहते रहे इतना खूबसूरत नाम है कि मेरे जहन में जम गया। </span></p><p><span style="color: red;">सवाल: नासिरा शर्मा आज के समाज में किन चुनौतियों को गंभीर मानती हैं ?</span></p><p><span style="color: #6fa8dc;">जवाब: सबसे गंभीर बात है कि परस्पर नफ़रत बहुत बढ़ रही है। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ़ हिंदू-मुसलमान तक सीमित है। यह मुसलमानों में कई वर्गों में है, हिंदुओं में जाति-पाति के रूप में मौजूद है। दलित अभी तक इंसान के रूप में स्वीकारा नहीं गया है। दूसरी तकलीफ़ यह होती है कि हमारे पास इतना कुछ है लेकिन हम कॉमन आदमी की परेशानियां दूर नहीं कर पा रहे हैं। क्योंकि आजादी के 70 सालों से ज्यादा वक़्त गुजरने के बाद भी कॉमन आदमी को साफ़ पानीए छोटा सा घर, छोटी सी जॉब तक नहीं मिल रही है। मैं जिन देशों में गई हूं वहां फकीर और फुटपाथों में सोते हुए लोग नहीं दिखते, और सबसे बड़ी बात खेतिह, देश में किसानों के हाल मुझ्ो बेचैन करते हैं।</span></p><p><span style="color: red;">सवाल: आजकल आप के अध्ययन कक्ष में क्या चल रहा है ?</span></p><p><span style="color: #6aa84f;">जवाब: कुछ नया तो मैंने शुरू नहीं किया है। अभी हाल ही में मेरे ‘शब्द पखेरू’ और ‘दूसरी जन्नत’ लघु उपन्यास आए हैं। इधर 6 खंडों में मेरे अनुवाद की एक किताबें आई थीं।</span> </p><p><span style="color: red;">सवाल: आपके अनुसार नए युवा कहानीकार और उपन्यासकार जो अच्छा लिख रहे हैं ?</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">जवाब: कुछ युवा लेखक बहुत खूबसूरत लिख रहे हैं। उनकी कुछ कहानियों को हिंदी की बेहतरीन कहानियों के साथ रखा जा सकता है, क्योंकि जो लेखक संजीदगी से अपने लेखन को लेता है और जमीन से चीजों को उठाता है उसमें बनावटीपन नहीं होता। वह सीधे आपके दिल पर असर करता है।</span></p><p><span style="color: red;">सवाल: नए रचनाकारों को आप क्या संदेश देना चाहेंगी ?</span></p><p><span style="color: #3d85c6;">जवाब: मुझ्ो लगता है कि नई आने वाली कलम को आलोचना की परवाह नहीं होनी चाहिए और ना ही सस्ती शोहरत पर यक़ीन करना चाहिए। उसका ख़जाना उसके पाठक होते हैं जो उसे सही पहचान देते हैं। कुछ किताबों को जबरदस्ती बेस्टसेलर कहा गया लेकिन वे राइटर अब नज़र नहीं आते।</span></p><p><br /></p><p><span style="color: #741b47;">( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2019 अंक में प्रकाशित )</span></p><div><br /></div>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-41662010814887154682022-08-10T21:01:00.000+05:302022-08-10T21:01:37.366+05:30गांधीजी के निजी स्वयंसेवक थे श्रीकृष्ण राय हृदयेश<p> </p><p> <table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgLq0MQS7_btjS0WRGDiSY92Z0cAklXFtLsTlB51NFfUHeUQtUjDMRjocgM4E1b-bCjRg0Enbyr0s9XBV4LVwdlFO78UbmVMCvq6esQhE74vr5Jc6Rn0sH652WWizAcIx4ReMuIJHs57O3iP3mc1Rhf0bylbh7W5Gk1VyV7qyOokvhMxWonm-pBexsV/s1135/shrikrishana%20rai%20hridayesh.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1135" data-original-width="838" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgLq0MQS7_btjS0WRGDiSY92Z0cAklXFtLsTlB51NFfUHeUQtUjDMRjocgM4E1b-bCjRg0Enbyr0s9XBV4LVwdlFO78UbmVMCvq6esQhE74vr5Jc6Rn0sH652WWizAcIx4ReMuIJHs57O3iP3mc1Rhf0bylbh7W5Gk1VyV7qyOokvhMxWonm-pBexsV/w295-h400/shrikrishana%20rai%20hridayesh.jpg" width="295" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: #990000;">श्रीकृष्ण राय हृदयेश</span></td></tr></tbody></table><br /> </p><p> <span style="color: red;">- अमरनाथ तिवारी ‘अमर’</span></p><p> <span style="color: #0b5394;">श्रीकृष्ण राय हृदयेश का जन्म ग़ाज़ीपुर जनपद के कठउत गांव में सन 1909 में हुआ। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी हृदयेश जी साहित्य सृजन, पत्रकारिता, स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन, सहकारिता आंदोलन सहित साहित्यिक, सामाजिक गतिविधियों में आजीवन सक्रिय रहे। ग़ाज़ीपुर में एक स्वस्थ साहित्यिक वातावरण के सृजन, कवि सम्मेलनों और साहित्यिक गोष्ठियों के निरंतर आयोजन एवं नवोदित रचनाकारों को प्रेरित और प्रोत्साहित करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।</span></p><p><span style="color: #0b5394;"> गंाधीवादी विचारधारा और राष्टीय चेतना से ओत-प्रोत हृदयेश जी गांधी जी के ग़ाज़ीपुर आगमन पर उनके निजी स्वयंसेवक के रूप में कार्य किए थे और अपने विद्यार्थी जीवन में ही स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेकर जेल यात्रा किया। हिंदी के साथ संस्कृत, अंग्रेज़ी, भोजपुरी एंव बंग्ला भाषा के जानकार हृदयेश जी टाइम्स ऑफ इंडिया, नेशनल हेराल्ड सहित देश के कई पत्रों में लेखन करते रहे। उस समय के लोकप्रिय हिंदी दैनिक ‘आज’ के वे काफी अवधि तक ग़ाज़ीपुर के प्रतिनिधि रहे। सन 1949 में उन्होंने ग़ाज़ीपुर से ‘लोकसेवक नायक’ साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया था।</span></p><p><span style="color: #0b5394;">हदेयष जी का रचना संसार भी विस्तृत है। उनका पहला काव्य संग्रह ‘युवक से’ 1935 में प्रकाशित हुआ। इस काव्य संग्रह से मानवीयता और राष्टीयता का जो उनका स्वर उभरा वह हिमांशु (1940) से लेकर पथदीप (1950) तक बना रहा। इसके बाद तीन दशकों तक उनका सामाजिक, राजनैतिक और पत्रकारिता वाला व्यक्तित्व प्रभावी रहा। सन 1980 में प्रकाशित ‘सत्यासत्य’ महाकाव्य उनकी साहित्यिक यात्रा में मील का पत्थर साबित हुआ। इसके बाद उनकी लगभग दो दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हुईं। अश्वघोष के बुद्धचरितम पर आधारित भवानुवाद ‘महाप्रकाश’ प्रबंध काव्य है। ‘नवदीप’ महाकाव्य एवं ‘लहर-लहर लहराए गंगा’ खंडकाव्य है। इन्होंने गिरिराज शाह की अंग्रेज़ी भाषा में लिखी पुस्तक ‘वैली ऑफ फ्लवार्स’ का काव्य अनुवाद ’फूलों की घाटी’ नाम से किया। गंगा मुझे पुकारे (1989) एवं मेघदूत (1990) में भी काव्यनुवाद है। इसके बाद उनकी ग़ज़लों का संग्रह ‘बदगुमानी का मौसम’ नाम से आया। ‘सत्यासत्य’ के बाद उनका सर्वाधिक चर्चित महाकाव्य ‘शंखपुष’(1996) है। वेदकालीन राज्य व्यवस्था की पृष्ठभूमि पर केंद्रित इस महाकाव्य का सृजन अत्यंत गंभीर है। इसमें महेंद्र, रुद्र, अग्नि, सरस्वती आदि को पात्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है। भोजपुरी भाषा में ‘हृदेयश सतसई’ अप्रतिम पुस्तक है। हृदयेश जी लगभग दो दर्जन अप्रकाशित पुस्तकों में प्रमुख हैं- ग़ाज़ीपुर का इतिहास, दोहों का संग्रह, संजय बतीसी, कसौरी (ललित निबंध)।</span></p><p><span style="color: #0b5394;"> श्रीकृष्ण राय हृदयेश का पार्थिव शरीर 13 जून 1999 को पंचतत्व में विलीन हो गया। ग़ाज़ीपुर की साहित्यिक, राजनैतिक एवं सामाजिक परिवेश में उनके योगदान का स्मरण सदैव किया जाएगा।</span></p><p><span style="color: #7f6000;">( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2022 अंक में प्रकाशित )</span></p><p><br /></p><p><br /></p><div><br /></div>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-75999692281916716812022-07-27T18:32:00.005+05:302022-07-27T18:32:52.315+05:30 विभा की शायरी में पूरे समाज का चित्रण: शिवम शर्मा<p><span style="color: red; font-size: large;">गुफ़्तगू के ‘विजय लक्ष्मी विभा विशेषांक’ का विमोचन</span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1AQwW4U9x7MftW7IjKnq6vt-tQ3HF6Jl-3RCg2mthD8nAeKXRGp-iiBX_M9acRVcctBg0aljdXVJtT4YNvuMMCEsKIB9ynfXPG1rSs8ndjjnJ1w5pJEoRhrct4uhgNzWbzaOZhnuNGARNux87RBkfCp3Cfi-G2nDoPIcFwCZiudIbDMYy20wkZQJJ/s600/vimochan.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="368" data-original-width="600" height="245" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1AQwW4U9x7MftW7IjKnq6vt-tQ3HF6Jl-3RCg2mthD8nAeKXRGp-iiBX_M9acRVcctBg0aljdXVJtT4YNvuMMCEsKIB9ynfXPG1rSs8ndjjnJ1w5pJEoRhrct4uhgNzWbzaOZhnuNGARNux87RBkfCp3Cfi-G2nDoPIcFwCZiudIbDMYy20wkZQJJ/w400-h245/vimochan.jpg" width="400" /></a></div><br /><p><br /></p><p><span style="color: #0b5394;">प्रयागराज। विजय लक्ष्मी विभा प्रयागराज की वरिष्ठ शायरा हैं, जिन्होंने लगभग हर विधा में लेखनी की है। इनकी शायरी में वास्तविक समाज का चित्रण है। गुफ़्तगू ने इनके उपर विशेषांक निकालकार बहुत ही सराहनीय कार्य किया है। आज के दौर में गुफ़्तगू ऐसी पत्रिका है जो सच्चे मायने में गंगा-जमुनी तहज़ीब को कायम रखने में ख़ास भूमिका अदा रही है। इस समय प्रयागराज और पूरे देश को ऐसी पत्रिका की जरूरत है। यह बात उत्तर मध्य रेलवे के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी डॉ. शिवम शर्मा ने 24 जुलाई को गुफ़्तगू की ओर से करैली स्थित अदब घर में आयोजित कार्यक्रम के दौरान कही। मुख्य अतिथि डॉ. शर्मा ने कहा कि यह गुफ़्तगू का यह अंक बहुत ही ख़ास है। इस दौरान गुफ्तगू के विजय लक्ष्मी विभा विशेषां का विमोचन किया गया।</span></p><p><span style="color: #0b5394;">गु्फ़्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि विजय लक्ष्मी विभा देश की उन चुनिंदा महिलाओं में से हैं, जो ग़ज़ल के सही पैरामीटर पर ग़ज़लें लिखती हैं। वर्ना आज के समय में ग़ज़ल लेखन के नाम पर इसके मूल स्वरूप से ही खिलवाड़ किया जा रहा है। प्रभाशंकर शर्मा ने कहा कि विभा जी को शायरी विरासत में मिली है। इनके पिता भी कवि थे, जिनकी तीन दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित हुई थी। गुफ़्तगू के इसी अंक में विभा जी की प्रकाशित कहानी में कई नए बिम्ब और परिदृश्य दिखाए देते हैं, उनकी रचनाशीलता का बेहतरीन वर्णन इन्होंने अपनी कहानी में किया है। </span></p><p><span style="color: #0b5394;">नरेश महरानी ने कहा कि विजय लक्ष्मी विभा हमारे दौर की बहुत ही ख़ास कलमकार हैं, इन्होंने कई बिम्बों को अपनी रचनाओं में बेहतरीन ढंग से उल्लेखित किया है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे तलब जौनपुरी ने कहा कि विजय लक्ष्मी विभा की शायरी बहुत ही अलग और ख़ास है। समाज की वास्तविक हालात का वर्णन इनकी शायरी में मिलते हैं। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया। मुशायरे के दौरान अतिथियों और कुछ श्रोताओं द्वारा दिए गए अंक के आधार पर पहले स्थान असलम निज़ामी, दूसरे स्थान पर संयुक्त रूप से फ़रमूद इलाहाबादी और अजीत शर्मा ‘आकाश’, तीसरे स्थान पर शरत चंद्र श्रीवास्तव और चौथे स्थान पर शाहिद इलाहाबादी रहे। इनको विशेष सम्मान पत्र प्रदान किया गया।</span></p><p><span style="color: #0b5394;"> दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया। जिसमें शिवाजी यादव, अर्चन जायसवाल, शैलेंद्र जय, रेशादुल इस्लाम, फरमूद इलाहाबादी, अजीत शर्मा आकाश, नाज़ खान, शाहीन खुश्बू, सम्पदा मिश्रा, असलम निज़ामी, सेलाल इलाहाबादी, रुखसार अहमद आदि ने कलाम पेश किया।</span></p><div><br /></div>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1901511279073946204.post-33651372317463665632022-07-20T08:30:00.004+05:302022-07-20T08:30:43.416+05:30 गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2022 अंक में<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEivs6PcbK7J8yDHZDTgRwVMFYkEs8day7bc0Gs1I63X21lO60hbWkAUrWaZAAcuvHLwMwI4NFDuwFs_vzln7OjBQiE6zkaaxnR_vRFd1bY5hBKnBfKy3ftU6qwyuKwrmvLEFvI9nORi0GMsfeiMgXZv9Jme20oPoavysffUx4VXWAVmhx05kyhCPb_a/s1280/cover1-june22.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="865" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEivs6PcbK7J8yDHZDTgRwVMFYkEs8day7bc0Gs1I63X21lO60hbWkAUrWaZAAcuvHLwMwI4NFDuwFs_vzln7OjBQiE6zkaaxnR_vRFd1bY5hBKnBfKy3ftU6qwyuKwrmvLEFvI9nORi0GMsfeiMgXZv9Jme20oPoavysffUx4VXWAVmhx05kyhCPb_a/w270-h400/cover1-june22.jpg" width="270" /></a></div><br /><span style="color: #0b5394;"><br /></span><p></p><p><span style="color: #0b5394;">4. संपादकीय: साहित्य को समर्पित विजय लक्ष्मी विभा</span></p><p><span style="color: #0b5394;">5-12. आत्मकथ्य: विजय लक्ष्मी विभा</span></p><p><span style="color: #0b5394;">13-15. मां की साहित्य यात्रा का साक्षी मैं- अनमोल खरे</span></p><p><span style="color: #0b5394;">16-18. काव्य शिरोमणि विजय लक्ष्मी विभा - जगदीश किंजल्क</span></p><p><span style="color: #0b5394;">19-22. गीत के अस्तित्व की पहचान - डॉ. हुकुमपाल सिंह विकल</span></p><p><span style="color: #0b5394;">23-24. विभा जी के गीत स्वयं बोलते एवं बतियाते- मयंक श्रीवास्तव</span></p><p><span style="color: #0b5394;">25-27. विभाजी का छायावादी वाम चिंतन - राघवेंद्र तिवारी</span></p><p><span style="color: #0b5394;">28-30. जग में मेरे होने पर- दिवाकर वर्मा</span></p><p><span style="color: #0b5394;">31-32. विभा जी साहित्य में महादेवी सी - श्याम बिहारी सक्सेना</span></p><p><span style="color: #0b5394;">33-36. जागतिक दार्शनिक सरस गीतों की प्रत्यंचा- डॉ. दया दीक्षित</span></p><p><span style="color: #0b5394;">37-38. कवि स्वयं का नहीं सम्पूर्ण सृष्टि का होता है - प्रियदर्शी खैरा</span></p><p><span style="color: #0b5394;">39-42. अखियां पानी-पानी में दर्शन का स्वरूप - नलिनी शर्मा</span></p><p><span style="color: #0b5394;">43-44. अदब के गुुलशन में ताज़ा हवा के झोंके - मनमोहन सिंह तन्हा</span></p><p><span style="color: #0b5394;">45-46. मन को छूती लेखनी की धार - नीना मोहन श्रीवास्तव</span></p><p><span style="color: #0b5394;">47-48. विभा की ग़ज़लों के कई रंग - अर्चना जायसवाल ‘सरताज’</span></p><p><span style="color: #0b5394;">49-53. कहानी: अपनी-अपनी भूल - विजय लक्ष्मी विभा</span></p><p><span style="color: #0b5394;">54-60. विजय लक्ष्मी विभा के पद</span></p><p><span style="color: #0b5394;">61-77. विजय लक्ष्मी विभा की कविताएं</span></p><p><span style="color: #0b5394;">78-95. विजय लक्ष्मी विभा की ग़ज़लें</span></p><p><span style="color: #0b5394;">96-99. विजय लक्ष्मी विभा का परिचय</span></p><p><span style="color: #38761d;">100-103. इंटरव्यू: केशरीनाथ त्रिपाठी</span></p><p><span style="color: #38761d;">104-105 . गुलशन-ए-इलाहाबाद: राजेश पांडेय</span></p><p><span style="color: #38761d;">106. ग़ाज़ीपुर के वीर- 18 </span></p><p><span style="color: #38761d;">107-111. तब्सेरा</span></p><p><span style="color: #38761d;">112-114. उर्दू अदब</span></p><p><span style="color: #38761d;">115-119. अदबी ख़बरें</span></p><div><br /></div>editor : guftguhttp://www.blogger.com/profile/05292812872036055367noreply@blogger.com0