रविवार, 26 मई 2019

दोहों की दुनिया पूरी तरह हरी-भरी

                                                   -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
 
 वर्तमान समय काव्य विधाओं ग़ज़ल और दोहा के लिखने-पढ़ने का प्रचलन सबसे अधिक है। शायद इसकी मुख्य वजह दो पंक्ति में एक बड़ी बात को पूरी कर देना ही है। यही वजह है ये दोनों की विधाएं खासी लोकप्रिय हैं। जहां तक दोहा की बात है, तो यह ख़ासकर हिन्दी की प्राचीनतम विधा है। कबीर से लेकर अमीर खुसरो तक, गोपाल दास नीरज लेकर हरेराम समीप तक दोहा लेखना की प्रक्रिया निरंतर जारी है। इस समय हरेराम राम समीप के दो दोहा संग्रह मेरे सामने हैं। हेरराम समीप ग़ज़लों और कहानियों में अपने भाव-बिम्बों, कथ्य और शिल्प के अनूठेपन के लिए प्रतिष्ठित रचनाकार रहे हैं। अपनी कहन के अनूठेपन, भाव-व्यंजना की मौलिकता से भरी ताज़गी और युगीन वैचारिकता के तेवरों का बांकपन उनकी ख़ासियत है, जिन्हें उन्हें ग़ज़लों और कहानियों के लेखन-क्षेत्र में अग्रणी हस्ताक्षर के रूप में प्रतिष्ठित किया है, साथ ही इनके दोहे जिस भोलेपन और ताजगी भरे अनुभवों से समन्वित अभिव्यक्ति को संप्रेषण देते हैं, वह निश्चय ही एक अछूत भावुकता की धरोहर है। हरेराम समीप के पहले दोहा संग्रह ‘जैसे’ में कई कालजयी दोहा संग्रहित हैं। इस पुस्तक में शामिल एक दोहे का बांकपन यूं है- सोच रहा हूं देखकर, जल का तेज़ बहाव/काठ बनी ये ज़िन्दगी, डाले कहां पड़ाव।’ जीवन की ययार्थ को बयां करता इनका ये दोहा भी लाजवाब है- ‘प्रश्नों से बचता रहा, ले सुविधा की आड़/ अब प्रश्नों की टेकरी लो बन गई पहाड़।’ एक और दोहा ज़िन्दगी की हक़ीक़त को रेखांकित करता हुआ- ‘मुझको दिखलाओ नहीं, बार-बार ये पर्स/सबकुछ रुपयों से मिले, मगर मिले ना हर्ष।’ ‘जैसे’ 98 पेज का पेपरबैक संस्करण है, जिसे फ़ोनीम पब्लिशर्स से प्रकाशित किया है।

हरेराम समीप की दूसरी पुस्तक है ‘आखें खोलो पार्थ’। इस दोहा संग्रह में भी मारक दोहों की भरमार है। वे खुद अपने दोहों के बारे में लिखते हैं-‘हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब नयी पीढ़ी को तरह-तरह के नशे देकर उनके सपने छीने जा रहे हैं, उन्हें सुलाया जा रहा है, विवेकहीन बनाया जा रहा है। बेरोेजगारी का दैत्य पहले से उनकी जिन्दगियां छीन रहा है। ऐसे में इस नए कुरूक्षेत्र में नए ‘पार्थ’ को जगाना होगा और नए बदलाव के हेतु संघर्ष करना होगा। संभवतः यही इन दोहों का अभीष्ट भी है।’ इनकी बात बिल्कुल सही है, तभी तो वे अपने दोह में कहते हैं-‘अब तो बतला ज़िन्दगी, क्यों तू बनी अज़ाब/कब तक दफ़नाता रहूं, अपने ज़िन्दा ख़्वाब।’ राजनीतिज्ञों पर कटाक्ष करता इनका एक और शानदार दोहा- ‘पिछले सत्तर साल के, शासन का निष्कर्ष/कचरे घर पर खेलता, नन्हा भारतवर्ष।’ इसी तरह पूरी पुस्तक में एक से बढ़कर एक दोहे प्रकाशित हैं, जो मानवीय संवेदना से लेकर जीवन के अन्य सभी पहलुओं पर कटाक्ष करते हुए सबक देते हैं। ‘आंखें खोलो पार्थ’ 96 पेज का पेपरबैक संस्करण है, जिसकी कीमत 120 रुपये है, इसे बोधि प्रकाशन ने प्रकाशित किया है।

   ग़ज़ल और दोहा सृजन में एक प्रमुख नाम विज्ञान व्रत का है। वर्तमान समय के कवियों में विज्ञान ने अपनी रचनाशीलता और सक्रियता से एक अहम मुकाम बनाया है, ऐसे मकाम आसानी से नहीं बनते। साहित्य सृजन के लिए इन्हें कई सम्मान प्राप्त हो चुके हैं, कई किताबों प्रकाशित हो चुकी हैं। इनके दोहा संग्रह ‘खिड़की भर आकाश’ का वर्ष 2018 में चैथा संस्करण प्रकाशित हुआ है, 2006 में पहला संस्करण आया था। आज के दौर में किसी दोहा संग्रह का चैथा संस्करण प्रकाशित होना ही अपने आपमें बहुत बड़ी बात है। इनका एक शानदार दोहा देखें- ‘राजा देखे महल से, खिड़की भर आकाश/फुटपाथों की ज़िन्दगी, उसको दिखती काश।’ वर्तमान व्यवस्था पर चोट करता एक और दोहा यूं है-‘सिर्फ़ नज़रियें ने किया, ऐसा एक कमाल/मेरे लिये हराम जो, उसके लिए हलाल।’ इस तरह पूरी पुस्तक में उल्लेखनीय दोहों की भरमार है-‘चाहे उनको राज दो, या दे दो बनवास/राम रहेंगे राम ही, यह मेरा विश्वास।’ ‘कभी-कभी सम्मान दो, कभी-कभी अपमान/मेरी पूजा मत करो, मैं हूं इक इंसान।’ ‘हम ऐसे ही ठीक हैं, जैसे भी हैं आज/हमें काम से काम है, नहीं चाहिये ताज।’ इस तरह पूरी किताब दोहों का एक शानदार दस्तावेज है, जिसे संभालकर रखने की आवश्यकता है। 80 पेज के इस सजिल्द पुस्तक को अयन प्रकाशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 180 रुपये है।     
 झज्जर हरियाणा के कवि राजपाल सिंह गुलिया वरिष्ठ रचनाकार हैं। इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनका दोहा संग्रह ‘उठने लगे सवाल’ में कई शानदार दोहे पढ़ने को मिलते हैं। दोहा लेखन में हरियाणा के कई बड़े नाम हैं, जिन्होंने अपनी अभिव्यक्ति से पाठकों को अपनी ओर आकर्षित किया है। जीवन के प्रांरभिक दौर में सैन्य सेवा और वर्तमान में अध्यापन कार्य से जुड़े गुलिया जी में अनुशासित सिपाही और सुयोग्य शिक्षक के गुण का सुंदर समन्वय दिखाई पड़ता है। इस समन्वय की झलक इनके दोहों के कथ्य और शिल्प दोनों स्तर पर देखी जा सकती है। एक दोहा में अपने बचपन के दिनों को याद करते हैं-‘मुझे आज भी याद है, वो नन्हा संसार/बापू जब भी डांटते, मां लेती पुचकार।’ दूसरे को खुश देखकर जलने वालों पर कहते हैं-‘चलन मुझे संसार का, तनिक न आया रास/खुद दूजे को देखकर, होते लोग उदास।’ आज के समय में धर्म की आड़ लेकर राजनीति की जा रही है, राजनीतिज्ञों की चाहत कुर्सी की है, लेकिन वे आड़ राजनीति का ले रहे हैं। इस पर कवि कहता है-‘ साधु संत और मौलवी, लगे चाहने ताज/धर्म कर्म को छोड़कर, करें सियासत आज।’ इस तरह पूरी पुस्तक अच्छे दोहों से भरी पड़ी है। 96 पेज के इस सजिल्द पुस्तक को अयन प्र्रकाशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 200 रुपये है।
                    
 
 उदयपुर, राजस्थान के डाॅ. गोपाल राजगोपाल चिकित्सक हैं। मगर काफी समय से रचनारत हैं। मुख्यतः ग़ज़ल और दोहा लिखते हैं। पिछले दिनों इनका दोहा संग्रह ‘सबै भूमि गोपाल की’ प्रकाशित हुआ है। इनके दोहों में नये तेवर, सामाजिक यर्थाथता और दूर दृष्टि स्पष्ट रूप से जगह-जगह दिखाई देती है। कथ्य के साथ शिल्प को भी बेहद सादगी से मारक बनाने का काम कवि ने अपने दोहों में किया है। कवि अपने दोहों में समय का जो तीखा बोध उपस्थित करा रहा है वह बेहद सराहनीय है। सुबह के साथ नई उम्मीद और उर्जा का वर्णन कवि करता है, पुस्तके पहले ही दोहा में वह कहता है-‘किरणों में है आज कुछ, नई-नवेली बात/शुभ-शुभ होती आपको, देखे से परभात।’ जीवन की सच्चाई को कवि अपने एक दोहे में यूं बयान करता है-‘उम्र गुजारो फ्लैट में, रहो सुखी-आबाद/ना अपनी छत है यहां, ना अपनी बुनियाद।’ एक कटाक्ष ये भी है-‘मान लिया सरकार का, कुछ तो है आकार/लिक्खा देखा कार पर, जब भारत सरकार।’ इनका एक रोमांटिक दोहा भी उल्लेखनीय है-‘महकी रानी रात की, महका हर सिंगार/नाम लिया जब आपका, तब-तब उमड़ा प्यार।’ इस तरह पूरी किताब में एक से बढ़कर एक दोहे शामिल हैं। 116 पेज के इस पेपरबैक संस्करण को बोधि प्रकाशन ने प्रकाशित किया, जिसकी कीमत 120 रुपये है।

अलवर राजस्थान के विनय मिश्र डिग्री काॅलेज में हिन्दी के अध्यापक हैं। इनकी कविता संग्रह और ग़ज़ल प्रकाशित हो चुकी है, इनके अलावा विभिन्न संकलित पुस्तकों में भी इनकी रचनाएं छपी हैं। पिछले दिनों ‘इस पानी में आग’ नाम से इनका दोहा संग्रह प्रकाशित हुआ है। इस पुस्तक के बारे में रामकुमार कृषक के लिखे गए फ्लैप सामग्री से ही इनके दोहों का अंदाज़ा सरलता से लगाया जा सकता है, जिसमें लिखा है-‘ इन दोहों का विनय मिश्र ने जो व्यवस्था दी है, उसकी अपनी प्रासंगिकता है। समय, स्मृति, प्रकृति, आत्म और प्रतिवाद, ये पांचों खंड कवि के अपने मनोलोक को खोलते हैं। पाठकों से महज बौद्धिक आत्मालाप करने  से उसे परहेज है। उनसे वह सिर्फ़ संवेदनात्मक संवाद करता है। यही आज के दोह की मांग है, यही उसकी काव्य संस्कृति। विनय मिश्र ने इस संस्कृति का बखूबी निर्वाह किया है।’ यह बिल्कुल सटीक टिप्पणी है। एक दोहा देखें-‘ जब से मेरे गांव का, मुखिया बना बबूल/कांटों की मरजी बिना, खिला न कोई फूल।’ फिर आगे एक दोहे में राजनैतिक विकास पर टिप्पणी करते हैं-‘ इस विकास की बात से, बदला क्या परिवेश/भूखा नंगा आज भी, बदहाली में देश।’ एक और दोहा यूं है- ‘सब्जबाग दिखला रहे, इसीलिए वे आज/तुम सपने देखा करो, पे पा जाएं ताज।’ इस तरह के मारक और सटीक दोहे पूरी किताब में भरे पड़े हैं। ऐसी रचनाशीलता के लिए विनय मिश्र बधाई के पात्र हैं। 124 पेज वाले इस सजिल्द पुस्तक को बोधि प्रकाशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 200 रुपये है।
                                 ( गुफ़्तगू के दोहा विशेषांक में प्रकाशित)

शनिवार, 18 मई 2019

मौलिकता न होने से कलाएं खत्म हो रही हैं: नीलकांत


           नीलकांत जी से साक्षात्कार लेते प्रभाशंकर शर्मा
    जब कहीं मन नहीं रमा तो निकल पड़े लंबी शब्द यात्रा पर। कभी दर्शन शास्त्र से एमए होने के नाते अपने गांव के काॅलेज में प्रवक्त पद की जिम्मेदारी सम्हाली तो कभी शंकरगढ़ के आदिवासियों के साथ कौशल विकास को बढ़ावा देते हुए उनके सुख-दुख के साक्षी रहे। अपनी इस यात्रा में उन्होंने कभी गृहस्थी व दैनिक जीवन को बाधक नहीं बनने दिया और चलते रहे, विचारों का मंथन करते अपनी शब्द यात्रा पर जो आज भी जारी है। 
यह इंटरव्यू प्रसिद्ध आलोचक नीलकांत का है। जो कि 87 वर्ष की अवस्था में भी साहित्य में सक्रिय योगदान दे रहे हैं। आप भीड़ से अलग अपनी पहचान बनाए रखने का माद्दा रखते हैं। आपकी प्रमुख कृतियों में ‘अमलतास के फूल‘, ‘महापात्र एवं अजगर‘, ‘बूूढ़ा बढ़ई’, ‘बाढ़ बूढ़ा’, ‘एक बीघा खेत’ आदि हैं। गुफ्तगू के उपसंपादक प्रभाशंकर शर्मा और अनिल मानव ने आपसे मुलाकात कर बातचीत की, जो अक्तूबर-दिसंबर:2018 अंक में प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत है उस बातचीत के कुछ ख़ास भाग।
सवाल: सबसे पहले आप अपने बारे में पाठकों को बताइए।
जवाब: मैं किसान परिवार में पैदा हुआ हूं। आज भी किसान मुझको सबसे ज्यादा प्रिय हैं, हालांकि अब तो बहुत तकलीफ़ में हैं। पहले किसानों के हलवाहे तकलीफ़ में होते थे। जमींदारी उन्मूलन के बाद अब इस समय भूमि अधिग्रहण बिल पास हो गया है। सरकार जब चाहे जमीन अधिग्रहण कर सकती है और बेच भी सकती है। निश्चित रूप से अमीरों द्वारा खरीदी गई ज़मीने फार्म हाउस का रूप लेंगी। जो जीटी रोड की मरम्मत हो रही है इसके बहुत ही बातें छुपी हुई हैं। सड़कों का चैड़ीकरण कर बगल की मार्केट को खत्म करना मल्टीनेशनल की छुपी हुई चाल है। अब किसानों का हाल बेहतर नहीं रहा। विदर्भ आदि में किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। बेरोजगारी तेजी बढ़ रही है। बढ़ता हुआ कैपीटलिस्ट सस्ते लेबर की बड़ी सेना व बेरोजगारी को बनाए रखता है। ताकि भूखे लोगों की पल्टन को जो दिया जाए उसी सस्ते दर पर काम करें। यह विदेशों में हो चुका है, विदेशों में अब आटोमेशन हो चुका है यहां यह संभव नहीं है। सड़कों का चैड़ीकरण से हमारा छोटा किसान बाज़ार खत्म हो रहा है और मल्टीनेशनल की बड़ी-बड़ी गाड़ियां बाज़ार पर कब्ज़ा करने को तैयार हैं। मल्टीनेशनल कंपनियों के पुनरागमन का समय आ गया है। 
 भारतवर्ष में जो भी राजनैतिक पार्टियां हैं, वह सभी विदेशियों की मदद में लगी हैं। कामन वेल्थ का जो गठन हुआ है उसमें वे राष्ट्र हैं जहां अंग्रेज़ों ने शासन किया था। उन राष्ट्रों के प्रधानमंत्री कामनवेल्थ के सदस्य हैं। हमारी आज़ादी एक छलावा था, जिसे कांग्रेस जैसी पार्टी को लीज पर दिया गया था। जब ब्रिटिश राष्ट्राध्यक्ष भारत आते हैं तो उनका बीजा नहीं बनता जबकि हमारे यहां का प्रधानमंत्री ब्रिटेन जाता है तो उनका बीजा ज़रूरी होता है। अब आप ही सोचिए इस लिहाज से आज़ाद कौन है ? अभी देश स्वतंत्र नहीं हुआ है तीसरा संग्राम करना होगा।
सवाल: नामवर सिंह के साहित्य प्रतिमानों के प्रति आपका तार्किक विरोध क्यों है ? आपकी नजऱ में हिन्दी की पहली कहानी कौन सी है ?
जवाब: मेरी नज़र में पहली नई किताब ‘गुलेरी’ जी की है, जिन लक्षण कलेवर और पोषक के साथ गुलेरी ने ‘उसने कहा था’ कहानी प्रस्तुत की है, उसके हिसाब से यही पहली नई कहानी है। कहानी और नई कहानी पुस्तक में नामवर सिंह ने ‘उसने कहा था’ कहानी का जिक्र ही नहीं किया है। नामवर सिंह ने निर्मल वर्मा की कहानी ‘परिंदं’ को नई कहानी बताया है। जिसमें कोइ कथा नहीं है। इसे मानव समाज मुक्ति का प्रश्न बताया है।
 किसी भी साहित्य की व्याख्या बिना समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र, इतिहास पढ़े की जाए तो लेखक-संपादक, साहित्य की गहराई में नहीं जा सकता। सिर्फ़ साहित्य पढ़कर साहित्य आपको कहीं नहीं ले जाएगा। आपका अपना दृष्टिकोण होना चाहिए। अपनी प्रतिक्रिया होनी चाहिए। रामविलास में आलोचना का गुण है, जबकि नामवर इस मामले में पिद्दी हैं, उनका अपना कोई दर्शन नहीं है। वे सिर्फ़ मंचों पर ज्यादा प्रकट होते रहते हैं और मीडिया में रहते हैं।
सवाल:  क्या आप यह मानते हैं कि नामवर जी का अपना कोई आलोचना दर्शन नहीं है ?
जवाब: उनका अपना कोई दर्शन नहीं है, इनकी व्याख्या अनुमान और अटकल पर आधारित है। अनुमान भी दर्शनशास्त्र में प्रमाण माना गया है। किन्तु चार्वाक दर्शन कहता कि- प्रत्यक्ष प्रमाण है और चारो वेद रचने वाले लोग भौंड, धूर्त और पिट्ठू लोग हैं। यही लोग लोकाचार में अंध विश्वास फैलाते हैं।
सवाल: इस समय आप आलोचक के रूप में किसे अच्छा मानते हैं?
जवाब: कुछ लोग हैं- इनमें उमाशंकर सिंह परमार बांदा के रहने वाले हैं। लखनऊ के अजीत प्रियदर्शी व देवांश जी लहक पत्रिका के संपादक हैं। देवांश जी ने मुझे ‘उसने कहा था’ कहानी पर लिखने के लिए कहा है। 

सवाल: ‘उसने कहा था’ कहानी को आप हिन्दी की पहली कहानी मानते हैं। चंद्रधर शर्मा गुलेरी की इस कहानी को आप नई कहानी के रूप में कहां तक पाते हैं ?
जवाब: गुलेरी ने मौन और अंतराल का इस कहानी में बहुत अच्छा प्रयोग किया है। किसी चीज़ के बारे में कुछ न कहना और मुख्य कथ्य को छुपा देना और दूसरे कथ्य को मूर्तरूप में, ठोस रूप में प्रस्तुत करना, यह प्रयोग अद्भुत है। कहानी की शुरूआत वहां के डायलाॅग व परिवेश से उभारते हैं। परिवेश मस्तिष्क से पहले होता है। परिवेश सोचने, समझने व चेतना से पहले होता है। भाषा का एक अलग परिवेश है और भाषा में रोचकता है। परिवेश से जुड़कर जो चरित्र मिलता है वह बिल्कुल अलग होता है। पूरी कहानी को गुलेरी जी ने बहुत अच्छी तरह उभारा है। कहानी के अंतिम भाग को लें तो गुलेरी जी ने जो कहानी कौशल दिखाया है वह महत्वपूर्ण है। मरने से पहले स्थितियां बड़ी साफ़ हो जाती हैं और सत्य से साक्षात होता है। गुलेरी जी का यह अस्तित्ववाद प्रभावशाली है।
सवाल: उर्दू ग़ज़ल और हिन्दी ग़ज़ल में आप क्या अंतर देखते हैं ?
जवाब: उर्दू तो मैं थोड़ा जानता हूं पर हिन्दी लिपि में जो ग़ज़ल मिलती है उसे मैं सब पढ़ डालता हूं। उर्दू ग़ज़ल अशआर में लिखी जाती है, जिसका प्रत्येक शेर कहीं भी कोट हो सकता है। इसमें सरलापूर्वक साधारण शब्दों के प्रयोग से अपनी बात कही जा सकती है। कृष्ण बिहारी नूर का शेर है-
चाहे सोने की फ्रेम में जड़ दो, आइना झूठ बोलता ही नहीं।
ज़िन्दगी मौत तेरी मंज़िल है, दूसरा कोई रास्ता हीं नहीं।
सुना है फें्रच भी बहुत मधुर भाषा है, जिसमें व्यंजन, स्वर में खोते-डूबते चले जाते हैं, वैसे ही हमारी उर्दू है। इसमें कितनी सरल भाषा में बड़ी बात कही जा सकती है। उदाहरण देखिए-
मेरे राहबर मुझको गुमराह कर दे
सुना है कि मंज़िल करीब आ गई है।
इसमें कितना दर्शन छुपा है, साधाण शब्दों में।
सवाल: अपनी प्रारंभिक शिक्षा और बचपन की यादों के बारे में कुछ बताएं।
जवाब: मेरी प्रारंभिक शिक्षा जौनपुर के केराकत तहसील के बराई गांव में हुई। मैं घर से स्कूल के लिए निकलता था पर स्कूल जाता नहीं था। दोपहर को कुर्ते में स्याही, दुधिया, लपेटकर खाने के लिए घर आता था ताकि लोग समझें कि स्कूल से आया है। रास्ते मे ंनट, मुसहर, दलित लोग मिल जाते थे। वहां नट बकरियां लेकर आते थे वहीं मेरा समय बीतता था। वहां एक पीपल का पेड़ था, जिसमें एक पंडित जी कच्चा धागा लपेटते व सिंदूर से टीका कर चले जाते थे। एक दिन मेरा दोस्त टनटनियां उस पेड़ से बकरियों के लिए पत्ती तोड़ रहा था तभी पंडित जी वहां आ गए और उन्होंने टनटनियां को बहुत मारा। टनटनियां इसके बाद भागर अपने मामा के पास असम चला गया, जहां उसके मामा फंदी (हाथी पकड़ते) थे। टनटनियां सोने की ताबीज पहनता था। मुझे लगता है कि उस समय नट लोग भी सोना पहनते थे। माक्र्स ने लिखा है कि- भारत में बहुत मात्रा में सोना था, जिसे विदेशी समय-समय पर लूट ले गए।
सवाल: इसी कड़ी में हम जानना चाहेंगे कि स्कूली जीवन में आपके आदर्श या प्रेरणा स्रोत कौन रहे ?
जवाब: मित्रवर ! कोई एक प्रेरणा नहीं था बल्कि लोक जीवन का साहित्य, कहानियां, रामलील, बिरहा, कजरी, कहरवा में मेरा मन बहुत लगता था। यही सब मेरे प्रेरणा स्रोत थे। उसके बाद जब समझ बढ़ी तो तुलसीदास, प्रेमचंद, तोता मैना की कथाएं, जातक कथाएं, रानी सांरगा आदि की कहानियां सुनने योग्य थीं। गुलेरी ने मौन और अंतराल की तकनीकि का प्रयोग शायद इसी सदाबृज की कहानियों से लिया है। हमारे यहां खड़ी बिरहा और प्रीतम जैसे लोक संगीत गायब होते जा रहे हैं। कुल मिलाकर लोक जीवन ही मेरे जीवन का प्रेरणा स्रोत रहा।
सवाल: साहित्य में जो पुरस्कार मिल रहे हैं, उनके चयन का आधार क्या है ?
जवाब: यहां तो कभी-कभी ऐसे लोगों को भी पुरस्कार मिल जाता है, जिनकी किताब ही नहीं जमा होती। दो पन्ने की पाण्डुलिपि दिखाकर बता दिया जाता है कि- किताब लिखी जा रही है और पुरस्कार मिल जाता है। अमिताभ ठाकुर (आईएएस) ग़लत पुरस्कारों पर हाईकोर्ट में मुकदमा लड़ रहे हैं। पुरस्कारों में तो बहुत कमीशनखोरी हो रही है।
सवाल: वर्तमान साहित्य में इलेक्ट्रानिक मीडिया प्रिंट मीडिया पर हावी होता जा रहा है ? इससे पठनीयता पर क्या असर हो रहा है ?
जवाब: अब दोनों अलग-अलग नहीं रह गए हैं। दोनों अन्योन्याश्रित हैं। बहुत सी ख़बरें झूठी और बनावटी आती हैं। आजकल नई कविता के नाम पर छोटी बड़ी लाइनें लिखी जा रही हैं, एक भी कविता जनहित में नहीं लिखी जा रही है। टनों कागज़ नष्ट हो रहा है। मैं तो कह रहा हूं ये सब फर्नेस में ले जाकर झोंक देना चाहिए। कोई एक उपन्यास या कहानी मौलिक नहीं आ रही है बल्कि इलेक्ट्रानिक मीडिया में देखे हएु दृश्य, परिवेश व पोषक को उधार लेकर कहानी उपन्यास लिखे जा रहे हैं। जो आपको मीडिया द्वारा दिया जा रहा है उसी में से चुनना है, इससे मौलिकता की तौहीनी हो रही है। मौलिकता न होने के कारण पठनीयता घट रही है। मौलिकता न होने से कलाएं खत्म हो रही हैं। इलाहाबाद में दसों थियेटर रंगमंच के लिए समर्पित थे, अब वे नहीं चल रहे हैं। डायेक्ट कम्युनिकेशन खत्म करने के लिए इलेक्ट्रानिक मीडिया, मोबाइल के रूप में आ गया है। सीधी वार्ता खत्म हो गई है। इसमें भाव-भंगिमा, आमने-सामने का संवाद जिसमें भौंह, आंख की पुतली, देखते है, तब समझ में आता है कह क्या रहे हैं और उसका मतलब क्या है ? यह सब इलेक्ट्रानिक मीडिया खत्म कर रहा है।
सवाल: ‘गुफ़्तगू’ जैसी लघु पत्रिकाओं के बारे में आपका क्या ख़्याल है ?
जवाब: ‘गुफ़्तगू’ और ‘लहक’ पत्रिका अनवरत चल रही है। वागर्थ सिर्फ़ भवन पर कब्ज़ा बना रहे इसलिए निकाली जा रह है और उसमें लीज पर मिले ज़मीन-मकान पर कब्ज़ा बना हुआ है। गुफ़्तगू एक ऐसा प्रयास है जो हिन्दी और उर्दू को गले मिला रहा है। हिन्दी और उर्दू में नफ़रत पैदा करने वालों के लिए यह आदर्श है। अभावों में यह पत्रिका बड़े कठिन परिश्रम से निकाली जा रही है।
सवाल: उर्दू का बड़ा पोएट आप किसे मानते हैं ?
जवाब: उर्दू में ग़ालिब साहब सबसे बड़े पोएट हैं। मेरी नज़र में शेक्सपीयर व गेटे भी बड़े कवि हैं, पर उर्दू आलोचकों ने उनकी सही व्याख्या और आलोचना नहीं की और हम दावा नहीं कर सकते क्योंकि हम उर्दू जानते नहीं। उर्दू वालों में हमेशा यह विवाद रहा कि मीर बड़े हैं या ग़ालिब। ग़ालिब ने खुद ही लिखा है-
रेख्ता  के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो असद
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था।
उर्दू पहले बोलचाल की भाषा थी। अरबी से जब ग़ालिब उर्दू में आए तो ग़लिब, ग़ालिब हो गए।
सवाल: आप दर्शनशास्त्र के प्रवक्ता रहे। हम जानना चाहेंगे कि क्या आप ईश्वर में विश्वास करते हैं ?
जवाब: जर्मन दार्शनिक फेडरिक निईत्शे का वाक्या है- ‘गाॅड इज डेड दैट आई डिक्लियर’ ईश्वर के मामले में मैं जर्मन दार्शनिक निईत्शे के मत का समर्थन करता हूं। जो हमारे सम्राट हैं उन्हीं को ईश्वर के रूप में कल्पित किया गया है और उन्हीं की वेशभूषा ईश्वर को पहनाई जाती है। यदि ईश्वर है तो हमें भी दिखाइए। मैं इस मामले में चावार्क एंव बुद्ध का समर्थक हूं। बुद्ध कहते हैं कि- ऐसा प्रश्न पूछना चाहिए जो सम्यक हो। यह प्रश्न काल्पनिक है। अव्यवहारिक एवं अव्याकृत प्रश्न ही नहीं पूछना चाहिए।
सवाल: आप अपने जीवन का मार्गदर्शक वाक्य या प्रिय शेर बताएं।
जवाब: फैज के काव्य संग्रह ‘सारे सुखन हमारे’ का एक शेर है-
राहते और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा,
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग।
नीलकांत जी को ‘गुफ़्तगू’ भेंट करते अनिल मानव

गुफ्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2018 अंक में प्रकाशित