मंगलवार, 26 जनवरी 2021

सरकारी-प्रशासनिक सेवा और रचनाकर्म

                                                

                                                                                                                                                                                   

रविनन्दन सिंह

                                                                         

   कविता मनुष्य का आदिम राग है। यह एक विशेष भावभूमि की मांग करती है। इसमें बुद्धि के आग्रह के स्थान पर हृदय की मुक्तावस्था की अपेक्षा अधिक होती है। आचार्य शुक्ल के अनुसार ‘कविता ही हृदय को प्रकृत दशा में लाती है और उसे मनुष्यत्व की उच्चभूमि पर ले जाती है।’ शुक्लजी इसे भावयोग की संज्ञा देते हैं और कहते हैं कि ‘भावयोग की सबसे उच्च कक्षा में पहुंचे हुए मनुष्य का जगत के साथ पूर्ण तादात्म्य हो जाता है, उसकी अलग भावसत्ता नहीं रह जाती, उसका हृदय विश्व-हृदय हो जाता है।’ अर्थात कविता मनुष्य को होने से बचाती है और उसके जमीर को ऊपर उठा देती है। ऐसा मन जो बुद्धि के सांसारिक प्रपंचो में उलझा हुआ है, प्रायः काव्य रचना की भावभूमि पर नहीं उतर पाता है। इसीलिए कवि प्रायः मस्तमौला किस्म के लोग होते हैं। उनकी बुद्धि सांसारिक अनुशासन को तोड़ती रहती है। ये अक्सर संसार के प्रति लापरवाह जीव होते हैं। इनकी दुनिया दीवानों और मस्तानों की दुनिया होती है। कबीर इस संबंध में कहते हैं कि-‘हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या। रहैं आजाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या।’ अर्थात जो कवि होगा वह इश्क़ का मस्ताना होगा, होशियारी से दूर होगा, अनाड़ी किस्म का एक आज़ाद ख़्याल व्यक्ति होगा। भगवतीचरण वर्मा भी इसी दीवानेपन की ओर संकेत करते हैं कि-‘हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहां कल वहां चले। मस्ती का आलम साथ चला हम धूल उड़ाते जहां चले।’ कवियों-शायरों के इस दीवानेपन की चर्चा दुनिया की प्रत्येक भाषा-साहित्य में मौजूद है। यूनान का मशहूर दार्शनिक प्लेटो कवियों के बारे में कहता है कि वे सामान्य मनुष्य से अलग अजीब और अनोखे जीव होते हैं जो सामान्य अवस्था में न रहकर अक्सर भावातिरेक में रहते हैं। कवियों की असामान्यता के कारण वह कवियों को नगर-राज्य के बाहर रखना चाहता है। उसके अनुसार कवि की शक्ति अदृश्य प्रेरणा होती है और वह उसी प्रेरणा के वशीभूत होकर लिखते हैं। वह यह भी कहता है कि जो कवि भावानाओं के आवेग में नहीं बहता वह शक्तिहीन होता है। संस्कृत के आचार्य राजशेखर द्वारा की गई कवियों की तीन कोटियों-सारस्वत, अभ्यासिक तथा औपदेशिक-में सारस्वत कवि वही शक्तिशाली कवि होते हैं, जिनकी ओर प्लेटो ने संकेत किया है।

   भावयोग में अर्थात हृदय की मुक्तावस्था में रहने वाला कवि एक सामान्य मनुष्य से भावनाओं के स्तर पर अलग होता है, अलग तरह से सोचता है और उसकी भाषा भी अलग होती है। सरकारी अथवा प्रशासनिक सेवा एक बौद्धिक कर्म है, वहां भावयोग का अवकाश नहीं होता। भावयोग की प्रबलता में सरकारी सेवक कभी कभी अनर्थ कर देता है। एक ऐसे ही अनर्थ की एकाध बानगी यहां प्रस्तुत करना प्रासंगिक होगा। गुरु नानक प्रसिद्ध निर्गुण कवि हैं। ये भी सिकंदर लोदी के राज्यकाल में सरहिंद के सूबेदार बुलार पठान के यहां नौकरी शुरू की थी। किन्तु भावयोग के कारण सरकारी सेवा में मन नहीं लगा और छोड़ दिया। इनके पिता ने व्यवसाय के लिए कुछ धन दिया था, जिसे इन्होंने साधुओं की सेवा में लगा दिया और विरक्त हो गए। इसी तरह हिन्दी सहित्य के भक्तिकाल में सूरदास मदनमोहन नाम के एक प्रसिद्ध भक्त-कवि हुए हैं, जो संतकवि सूरदास से अलग थे, किन्तु भूलवश लोग इन्हें संतकवि सूरदास से जोड़ देते हैं। ये बादशाह अकबर के समय संडीला तहसील के अमीन थे। एक बार तहसील की मालगुजारी के कई लाख रुपये सरकारी खजाने में आए थे। इन्होंने सारा धन साधु-संतों की सेवा में खर्च कर दिया और शाही खजाने में कंकड़-पत्थरों से भरा संदूक भेज दिया और आधी रात को ही भाग गए। संदूक में एक कागज पर ये पंक्तियां लिखकर रख दिया-

                तेरह लाख संडीले आए, सब साधुन मिल गटके।

                सूरदास मदनमोहन अब आधी रात को सटके।

 बाद में बादशाह ने इन्हें क्षमा कर दिया था, किन्तु ये स्वयं विरक्त होकर वृंदावन चले गए। इनके अनेक पद गलती से संतकवि सूरदास के ग्रंथ ‘सूरसागर’ में मिल गए, जिन्हें बड़े प्रयास के बाद अब अलग किया जा सका है। इसी तरह रीतिकाल के प्रसिद्ध रीतिमुक्त कवि घनानंद बादशाह मुहम्मदशाह के दरबार में मीर मुंशी थे। एक बार दरबार में अपनी प्रेमिका सुजान को देखकर भावनाओं में बह गए। जब बादशाह के कहने पर अपना गान सुनाया तो उनकी पीठ बादशाह की ओर थी और मुंह सुजान की ओर था। इस बेअदबी से बादशाह नाराज हो गया और दरबार से निकाल दिया। ये मथुरा चले गए। जब नादिरशाह की सेना ने मथुरा पर आक्रमण किया तब कभी बादशाह का मीर मुंशी रहने के कारण सैनिकों ने इनका हाथ काट दिया। कुछ दिन दर्द सहते हुए इनकी मृत्यु हो गयी। खोजने पर इसी तरह के अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जब भावयोग की दशा में सरकारी सेवकों ने अपना काम खुद बिगाड़ दिया।

  सरकारी कार्य भावना की जगह बौद्धिकता को महत्व देता है। वहां तर्क, बुद्धि और तथ्य की अपेक्षा होती है। वहां कल्पना की उड़ान के लिए कोई जगह नहीं है। वहां यथार्थ और वास्तविकता की दरकार है। सरकारी जगत के बौद्धिक एवं मानसिक अनुशासन में काल्पनिक उड़ान भरने वालों के पर कतर दिए जाते हैं और उसे एक विशेष जीवनशैली में ढाल दिया जाता है। सरकारी सेवा में जाने वाला एक संवेदनशील युवा धीरे-धीरे संवेदनहीनता की तरफ बढ़ने लगता है। समय के साथ धीरे धीरे उसके अंदर का फूल मुरझाने लगता है और उसकी जगह पत्थर अंकुरित होने लगतें है। समय के साथ उसके हृदय में फूल कम कंकड़ पत्थर अधिक एकत्र हो जाते हैं। अब वह जीवन भर इन पत्थरों का बोझ ढोने के लिए अभिशप्त हो जाता है। उसके अंदर धड़कने वाली संवेदना की मशाल धीरे-धीरे बुझती जाती है और उसे इसका पता भी नहीं चलता है। जो अपने प्रति बहुत संवेदनशील और जागरूक होते हैं, वही अपने अंदर होने वाले इस बदलाव को महसूस कर पाते हैं और खुद को बचा पाते हैं। अधिकांश युवा अपने अंदर धीरे-धीरे घटित होने वाले इस बदलाव से बेख़बर ही रहते हैं तथा कोल्हू के बैल की ज़िन्दगी जीने के लिए अभिशप्त हो जाते हैं। उनकी मानसिक संरचना भी इस तरह की हो जाती है कि वो अपनी इस संवेदनहीनता को ही अपनी सफलता मान लेते हैं।

 वस्तुतः इस अनुशासित संवेदनहीनता और कविता के बीच बहुत बड़ा विरोधाभास है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि सरकारी सेवा में कविता के लिए न कोई जगह है और न ही उसका कोई महत्व है। जिस सेवा में अनुशासन का अनुपात जितना अधिक होता है, वहां कविता की संभावना उतनी ही कम होती है। इसी कारण सबसे अनुशासित रहने वाले रक्षा क्षेत्र या सैनिक-सेवा में कविता को पनपने के लिए कोई स्थान नहीं मिल पाता है। यही हाल पुलिस-सेवा का है, यद्यपि वहां अनुपातिक रूप में सेना से कम अनुशासन होता है, इसलिए पुलिस सेवा में कविता के लिए थोड़ा बहुत अवकाश मिल जाता है। अतः पुलिस सेवा में कुछ गिने चुने कवि मिल जाते है। उसमें भी वही सफल हो पाते हैं जो सेवा में रहते हुए अपने ज़मीर को बचा पाते हैं। सरकारी सेवा में रहते हुए जो व्यक्ति अपनी संवेदना को जीवित रख पाने में जितना सफल रहता है, उसमें कविता की संभावना उतनी ही अधिक होती है। साहित्य में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहां सरकारी सेवा में रहते हुए भी लोंगों ने बड़ा काव्य सृजन किया है और रचनाधर्मिता की बड़ी लकीर खींची है। ऐसे उदाहरण हर भाषा के साहित्य में मौजूद हैं। हिन्दी-उर्दू से ऐसे कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत करना प्रासंगिक होगा।

 एक ऐसा ही उदाहरण अमीर खुसरो का है। उन्हें खड़ी बोली हिन्दी और उर्दू का प्रस्थान बिन्दु माना जाता है। अमीर खुसरो ने बलबन से लेकर मुहम्मद तुगलक तक सात सुल्तानों के दरबार में विभिन्न भूमिकाओं में काम किया था। सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने उन्हें मुसहफदार ( पुस्तकालयाध्यक्ष और कुरान की शाही प्रति का रक्षक) नियुक्त किया तथा उनका वेतन 1200 टंका नियत किया था। सुल्तान गियासुद्दीन तुगलक के काल मे जब शाहजादा जूना खां ( बाद में मुहम्मद तुगलक) दक्षिण विजय पर गया तब अमीर खुसरो भी उसके साथ देवगिरि, वारंगल, राजमुंदरी तथा मदुरै की लड़ाइयों में शामिल थे। सुल्तान गियासुद्दीन तुगलक जब लखनौती के अभियान पर बंगाल गया, तब भी अमीर खुसरो उस अभियान में शामिल रहे। वे सुल्तानों की प्रशंसा में खूब कसीदे भी पढ़ा करते थे। किंतु आखिर में खुसरो झूठी कसीदागोई से ऊब गए थे। जबकि वास्तविकता यह है कि अमीर खुसरो सरकारी मुलाजमत से ऊब चुके थे। सरकारी सेवा में समझौता करते-करते उनका मन उचाट हो गया था। उनके अंतर्मन की व्यथा का अनुमान उनके इन शब्दों से लगाया जा सकता है - ‘मुझ जैसा ‘मिस्की’ (दीनहीन), हाजतमंद (दूसरों से अपेक्षा रखने वाला), बे सरो-सामान शख्स खौलती हुई देग के सामान तप रहा है। रात से सुबह तक, सुबह से शाम तक कुंठाओं और पीड़ाओं से घिरा होने के कारण चैन नहीं पाता। स्वार्थ के हाथों यह जिल्लत (तिरस्कार) उठाता हूं कि अपने जैसे एक आदमी के सामने अदब से खड़ा रहना पड़ता है, जब तक कि पाँव से सिर को खून नहीं चढ़ जाता। किसी के पारिश्रमिक से मेरा हाथ तर नहीं होता।‘ (खुसरो शनासी: तरक्की-ए-उर्दू बोर्ड, पृ.-25)। इसके बावजूद सरकारी नौकरी अमीर खुसरो की मजबूरी थी, आजीविका थी तथा आर्थिक सुरक्षा थी। सुल्तानों की सेवा में रहते हुए भी उन्होंने बहुत काव्य सृजन किया। उन्होंने रचनाधर्मिता की इतनी बड़ी लकीर खींची कि वह साहित्य के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो गया। अल्लामा शिबली नुमानी कहते हैं कि -‘आज तक इस दर्जे का जामे-कमालात (उत्कृष्टता वाला) पैदा नहीं हुआ।.....फिरदौसी, सादी, अनवरी, अर्फी, नजीरी बेशुबहा अकलीमी सुखन के बादशाह हैं लेकिन उनकी सीमा एक अकलाम से आगे नहीं बढ़ती। फिरदौसी मसनवी से आगे नहीं बढ़ सकते, सादी कसीदे को हाथ नहीं लगा सकते, अनवरी मसनवी और ग़ज़ल को छू नहीं सकते। हाफ़िज़, उर्फी, नज़ीरी ग़ज़ल के दायरे से बाहर नहीं निकलते। लेकिन अमीर खुसरो की साहित्यिक सत्ता में ग़ज़ल, रुबाई, कसीदा और मसनवी सब कुछ दाखिल है।’ जामी के अनुसार उन्होंने लगभग 99 कृतियों की रचना की है, अमीर राजी यह संख्या 199 बताते हैं। उनका समकालीन इतिहासकार बरनी अपने ‘तारीख-ए-फिरोजशाहीश् नामक ग्रंथ में कहता है कि खुसरो की इतनी रचनाएं हैं कि एक पुस्तकालय बन जाए। इनमें से अभी केवल 45 पुस्तकें ही प्राप्त हो सकीं हैं। वे स्वयं कहते हैं कि जितना उन्होंने फारसी में लिखा है उतना ही हिन्दवी में लिखा। इनमें तुगलकनाम, नुह-सिपहर, हालात-के-कन्हैया, तराना-ए-हिन्दी, मजनू लैला, हस्त बहिश्त आदि महत्वपूर्ण फारसी रचनाओं के साथ हिंदवी में अनेक गीत, गजल, मुकरियां, पहेलियाँ, लोक गीत आदि मौजूद हैं।’

  इसी तरह सरकारी सेवा करते हुए अब्दुर्रहीम खानखाना अथवा रहीमदास ने बहुत काव्य सृजन किया। वे बादशाह अकबर के नवरत्न तथा प्रमुख सेनापति थे। उन्होंने अनेक युद्धों में सेनापति के रूप में वीरता का प्रदर्शन करते हुए मुगल सेना को विजय दिलाया था। गुजरात में मुजफ्फर खां के विद्रोह को दबाकर पुनः गुजरात विजय करने के लिए ही बादशाह अकबर ने उन्हें ‘खानखाना8 की उपाधि प्रदान की थी। बादशाह ने विभिन्न अवधियों के लिए उन्हें गुजरात, जौनपुर, रणथंभौर, मुल्तान आदि सूबों की सूबेदारी भी प्रदान की थी। जितनी धारदार उनकी तलवार थी, उतनी ही धारदार उनकी कलम थी। मुगल दरबार में बड़े प्रशासनिक पदों पर रहते हुए उन्होंने अनेक कृतियों का सृजन किया है, जिसमें दोहे, सोरठा, बरवै, नायिका भेद, मदनाष्टक, रासपंचाध्यायी, नगर शोभा आदि प्रमुख हैं। विशेष रूप से दोहा के क्षेत्र में उन्हें अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई।

  कालांतर में हिंदी साहित्य में शिवप्रसाद ‘सितारेहिंद’ (स्कूल इंस्पेक्टर), राजा लक्ष्मण सिंह (तहसीलदार), राधाचरण गोस्वामी (म्युनिसिपल कमिश्नर), जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ (अबागढ़ स्टेट में कोषाधिकारी), सरदार पूर्णसिंह (ब्रिटिश फारेस्ट इंस्टीट्यूट में केमिस्ट), आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (रेलवे तार-इंस्पेक्टर), लाला सीताराम ‘भूप’ (डिप्टी कलेक्टर), मुंशी प्रेमचंद (स्कूल सब इंस्पेक्टर) बाबू गुलाबराय (छतरपुर राज्य में दीवान, मुख्य न्यायाधीश), पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी (शिक्षा विभाग में विशेष कार्याधिकारी), गिरिजाकुमार माथुर (आकाशवाणी में उप निदेशक आगे उप महानिदेशक), धूमिल (औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान में अनुदेशक, पर्यवेक्षक) आदि अनेक रचनाकार हैं, जो अपने समय में सरकारी दायित्वों का निर्वाह करते हुए साहित्य-सेवा में रत रहे।

  उर्दू साहित्य में जिन रचनाकारों ने विभिन्न विभागों में भिन्न भिन्न पदों पर कार्य किया उनमें सैयद अहमद खान ( ईस्ट इंडिया कम्पनी में लिपिक से उप न्यायाधीश तक), अकबर इलाहाबादी (आरम्भ में रेलवे में नौकरी, फिर मुख्तार, नायब तहसीलदार, मुंसिफ एवं जिला न्यायाधीश), अल्लामा शिबली नुमानी (दीवानी में अमीन), अब्दुल हलीम ‘शरर’ (शिक्षा विभाग, हैदराबाद में डिप्टी कंट्रोलर), मिर्जा मुहम्मद हादी ‘रुसवा’ (रेलवे में ओवरसियर), सफी लखनवी (दीवानी में पेशकार), फ़ैज़ अहमद ‘फै़ज़’ (सेना के सूचना विभाग में पांच वर्ष तक नौकरी), राजेंद्र सिंह बेदी (पोस्ट ऑफिस में फिर आकशवाणी में विभिन्न पदों पर, रेडियो कश्मीर के डायरेक्टर पद से अवकाश) आदि रचनाकार विशेष उल्लेखनीय हैं।

  हिन्दी तथा उर्दू साहित्य में इसके बाद भी अनेक रचनाकारों ने अपनी लेखनी से अपनी पहचान बनायी है। कई तो ज्ञानपीठ सम्मान से भी सम्मानित हुए हैं। ऐसे रचनाकारों की संख्या कम नहीं है किन्तु उनका नाम गिनाने का अवकाश नहीं है। वर्तमान में अनेक रचनाकार सरकारी सेवा में रहते हुए विभिन्न शैलियों में लिख-पढ़ रहे हैं। सरकारी सेवा में रहते हुए साहित्य सृजन करना आसान कार्य नहीं है। यह दूधारी तलवार चलाने जैसा है, जिसमें स्वयं घायल होने का खतरा है। ‘गुफ्तगू पत्रिका’ का यह अंक ऐसे ही रचनाकारों को समर्पित है, जो सरकारी-प्रशासनिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए शायरी में भी बड़ी लकीर खींच रहे हैं। इन्हें सहेजने और प्रकाशित करने का कार्य करके गुफ़्तगू परिवार ने गुरुतर दायित्व का निर्वाह किया है। इसके लिए चयनित रचनाकारों तथा पूरे गुफ़्तगू परिवार को हार्दिक बधाई ज्ञापित करता हूं।

( गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2020 अंक में प्रकाशित )                                                                                                                                                                                                                                                                                                                    


मंगलवार, 19 जनवरी 2021

उर्दू पत्रकारिता के नामवर सहाफी थे हारुन रशीद

                                                     

हारुन रशीद

                                                            - शहाब खान गोड़सरावी                                       

 सहाफ़त की दुनिया के सुप्रसिद्ध पत्रकार हारुन रशीद अलीग का जन्म 31 मई सन. 1942 ई. को मुंबई में हुआ। इनका पैतृक गांव उसिया है। इनके पिता इस्माईल खान मुंबई में टैक्सी ड्राइवर थे, माता हिफाजत बीबी जो नेक घरेलू खातून थी। हारून रशीद का गांव की तुलना में मुंबई में ज्यादा रहना हुआ। हारून रशीद श्अलीगश् के पिता समाजसेवी ईस्माईल खां ने क्षेत्रिय बच्चों की शिक्षा के लिए श्कमसार हॉस्टलश् के रूप में सन.1962 ई० को दिलदारनगर मे श्हाजी लॉजश् का निर्माण कराया। लम्बे ऊंचे कद के गोल मुखड़े में साधारण सा दिखने वाले हारुन रशीद को बचपन से नेक स्वभाव से जाना जाता था। जैनुल आबेदीन के मुताबिक  1960 ई. में हारून रशीद कक्षा चार की पढ़ाई गिरगांव, मुंबई के चैपाटी म्युनिसिपल स्कूल से पूरा करने के बाद पांचवीं की पढ़ाई के लिए मुंबई के अंजुमन इस्लाम बॉयज वींटी. हाईस्कूल में दाखिले के लिए गए तो उस स्कूल के प्रिंसिपल ने उनका दाखिला करना से मना कर दिया, उन्होंने कहा कि आपके पिता इस कॉलेज की फीस नहीं दे पाएंगे। वे रोते हुए वीटी काॅलेज से चरनी रोड के रास्ते घर वापस लौट रहे थे, तभी एक अजनबी की नज़र उन पर पड़ी। उस अजनबी ने बच्चे को रोते हुए देखकर रोने की वजह पूछी, और फिर अपनी कार मंे उन्हे बिठा उस स्कूल के रजिस्टार के दफ्तर पहुंचे, और उनका दाखिला कराया। 

 वीटी कॉलेज से मैट्रीक करने के बाद सन.1964 ई. मे कक्षा-11 वीं के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय मे प्रवेश लिया। वहां से इंटरमीडिएट और ग्रेजुएशन के बाद उर्दू से एम.फिल. की डिग्री हासिल की। हारुन रशीद की समाज सेवा, लेखन के साथ-साथ खेलकूद में खास दिलचस्पी थी। वो अक्सर फ्री समय में क्रिकेट खेलना पसंद करते थे। इंडो-पाक के क्रिकेट मैच में उनकी खासी दिलचस्पी थी। अलीगढ़ पढ़ाई के दरमियान ही हारून रशीद अलीग को सन. 1964-70 ई. तक हर वर्ष बेहतरीन तकरीर के लिए पुरस्कृत किया गया था। पढ़ाई के दरम्यान उनकी शादी अंजुमन इस्लाह मुस्लिम राजपूत कमसारोबार एवं गंगापार कमेटी के संस्थापक खान बहादुर मंसूर अली के परिवार में हाजी मसिहुजम्मा उर्फ जंगा खां की छोटी लड़की रिफत जहां से हुई। पढ़ाई पूरी करने के बाद हारून रशीद रोजी रोटी की तलाश में लग गए। मुंबई में कई छोटी-मोटी प्राइवेट नौकरियां की, लेकिन कहीं मन नहीं लगा, आखिर में उनका लिखने पढ़ने का हुनर काम आया और वो 1965-70 के बीच छोटे बड़े पत्र पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर दिया। उनके मज़ामीन उर्दू टाइम्स, अखबारे-नौ, उर्दू ब्लिट्ज और उर्दू इंक़लाब में छपे, जिन्हें कई संपादको के द्वारा सराहा गया। उर्दू ज़बान-व-अदब पर उन्होंने ऐसी महारत हासिल की थी कि देखते ही देखते उन्हें मुंबई के साथ-साथ हैदराबाद, लखनऊ जैसे बड़े शहरों के उर्दू अख़बार और रसालों मे भी उनके मज़ामीन छपने लगे। उन्होंने अपने मज़ामीन के जरिए एक आज़ाद सहाफी के रूप मे समाज के बीच एक अच्छी पहचान बनाई। इनकी स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए महाराष्ट्र उर्दू-अकादमी द्वारा सन् 1980 ई० में पुरस्कृत हुए। सन् 1977 ई. मे मशहूर शायर हसन कमाल से इनकी पहली मुलाकात हुई और उर्दू बिल्टज मे बतौर सहाफी काम करना शुरू किया और 1979 ई. मे हारून रशीद अलीग साप्ताहिक उर्दू बिल्टज के संपादक बनाए गए। सन् 1995 के बाद उन्होने रोजनामा इन्क़लाब मे ‘खेल की दुनिया’ और ‘आलम-ए-इस्लाम’ व ‘कलम पे वॉर’ नामक बेहतरीन कालम लिखतेे और अपनी कड़ी मेहनत की बदौलत इन्क़लाब के शुरुआती दौर में ही अव्वल दर्जे का उर्दू अख़बार बना दिया। इनकी स्पोर्ट्स कॉलम करंजिया हॉउस मुंबई से ब्लिट्ज, इन्क़लाब के उर्दू, हिंदी, इंग्लिश तीनों अख़बारों में छपती। जिसे देखते हुए करंजिया ग्रुप ऑफ न्यूज पेपर के संस्थापक आरक करंजिया हारुन रशीद से काफी प्रसन्न थे, उन्हें अपने बेटे की तरह मानते थे। जिसकी वजह से पांच वर्षो तक बतौर रोजनामा इन्क़लाब मे संपादक बने रहे।

 हारून रशीद अक्सर कमसार-व-बार इलाके के अंजुमन इस्लाहिया कमेटी के प्रोग्राम में शिरकत कर बतौर निजामत करते। सन् 1993 ई. मे बाबरी मस्जिद केस के दरमियान हिंदू-मुस्लिम भाईचारा को बनाये रखने के लिए वो सामने आए, जिसका नतीजा ये हुआ कि मुंबई ठाकुरद्वार स्थित मकान को दंगे मे जला दिया गया। सैकड़ों किताबों से भरी जिं़दगी की सारी मेहनत-मशकत की कमाई को पूरी लाइब्रेरी जलकर खाक हो गई। उनकी जब तक सांसे चली तब तक कौमी एकता के लिए काम किये और वो भी दिन आया जो अपनी तीन बच्चियों और एक बच्चे को छोड़कर 4 मार्च सन. 2000 ई. को दुनिया को अलविदा कह गये। उनकी मिट्टी उनके कहे के मुताबिक पैतृक गांव उसिया सतहवा मोहल्ला कब्रिस्तान में दफन की गई। गौरतलब हो कि हारुन रशीद की बेटी पत्रकार हुमा हारून जो ‘बीबीसी’ लंदन में बतौर एंकर रह चुकी है।

(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2020 अंक में प्रकाशित) 


सोमवार, 11 जनवरी 2021

गुफ़्तगू पत्रिका से ज्यादा आंदोलन है : पवन कुमार

पवन कुमार

    पवन कुमार का जन्म मैनपुरी में हुआ। आरंभिक पढ़ाई कई शहरों में हुई। पिता जी पुलिस सेवा में थे, तो लगातार तबादलों के दरमियां कभी इस शहर, कभी उस शहर कयाम बदलता रहा। कभी इस कस्बे की आबो-हवा से रब्तगी की, तब तक अगली पोस्टिंग का फरमान आ गया गया। लेकिन इन्होंने तबादलों को इन तब्दीलियों से बहुत कुछ सीखा। लोगों से समन्वय, संवाद, संबंध स्थापित करने में यह काफी सहायक साबित हुआ। साइंस से ग्रेजुएट करने के बाद लॉ किया। पहले ही प्रयास में प्रांतीय सिविल सेवा में चयन हो गया। कुछ साल प्रांतीय सिविल सेवा में बिताने के पश्चात भारतीय प्रशासनिक सेवा में प्रयास किया और वहां भी सिलेक्शन हो गया। वर्तमान में उत्तर प्रदेश संवर्ग में हैं। अनिल मानव से उनसे बातचीत की, प्रस्तुत उसके प्रमुख भाग।

सवाल: वर्तमान समय में ग़ज़ल का क्या भविष्य है ?

जवाब: साहित्य जिन्दा है और हमेशा जिन्दा रहेगा। साहित्य आदमी को सोचने का तरीका देता है। सोचने का एक जरिया है। और इसी साहित्य की एक विधा ग़ज़ल भी है। आप देखेंगे, कि आज से तकरीबन सात-आठ सौ साल पहले अमीर खुसरो से ग़ज़ल शुरू हुई और दुनिया के अलग-अलग भाषाओं और मुल्कों में ग़ज़ल की शायरी हो रही है। इन 700 सालों में जो ग़ज़ल का मेयार है, वो मीर से, ग़ालिब से, शौक से और बाद में जो प्रोग्रेसिव राइटर्स मजाज, साहिर लुधियानवी लुधियानवी, फ़िराक़ गोरखपुरी, बशीर बद्र साहब, कृष्ण बिहारी नूर और इसके बाद भी जो हमारी नयी पौध है, वहां तक इसका पूरा जलवा बरकरार है। और मैं समझता हूं कि आने वाले समय में ग़ज़ल की जो खूबसूरती है, उसकी गेयता के कारण, उसकी छंदबद्धता के कारण, उसकी लयबद्धता के कारण, हमेशा-हमेशा बनी रहेगी।


सवाल: साहित्य में आपका रुझान कब, क्यों और कैसे हुआ?

जवाब: साहित्य की तरफ रुझान बचपन से ही था। हमारे खानदान में हालांकि कोई लेखक तो नहीं था, लेकिन अध्ययन का माहौल था। धार्मिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, वैचारिक पुस्तकें पढ़ने का माहौल था। विशेषतया ननिहाल पक्ष से मुझे इस तरह की किताबों को पढ़ने और बौद्धिक चर्चाओं से जुड़ने का अवसर प्राप्त होता रहा। कॉलेज के दिनों में लेखन की ओर मुड़ा। अख़बारों और पत्रिकाओं में लेख वगैरह प्रकाशित होने शुरू हुए। यह सिलसिला तब तक चलता रहा, जब तक कि मैं नौकरी में नहीं आ गया। नौकरी में आने के बाद लेख वगैरह लिखने कम हो गए। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और साहित्यिक विषयों पर लेखन कार्य फिर भी चलता रहा। बाद में कविताओं की ओर विशेषतया उर्दू शायरी से जुड़ाव हुआ। बरेली की पोस्टिंग के दौरान कई अदीबों और शायरों से मिलना-जुलना हुआ। वसीम बरेलवी, कमलेश भट्ट कमल, अकील नोमानी, वीरेन डंगवाल, सुधीर विद्यार्थी, गोपाल द्विवेदी, बी.आर. विप्लवी जैसे अदीबों से उठना-बैठना होता था। इनकी सोहबत का असर यह हुआ, कि ग़ज़ल की तरफ मेरे कदम बढ़ते गए। बाद में अक़ील नोमानी से ग़ज़ल की बारीकियां सीखीं। मैं बाद में जब बदायूं में जिलाधिकारी के पद पर तैनात हुआ, तो मुंतखब अहमद जिन्हें नूर ककरालवी के नाम से जाना जाता है, उनसे भी बहुत कुछ सीखने का मौका मिला।

सवाल: प्रशासनिक सेवा में रहते हुए, आप अदब के लिए समय कैसे निकालते हैं?

जवाब: हालांकि प्रशासन में रहते हुए अदब के लिए समय निकालना थोड़ा मुश्किल होता है, किंतु एक संवेदनशील आदमी उठते-बैठते, चलते-फिरते जो देखता है, समझता है उस पर विचार करता है। यही विचार जब कागज़ पर उतरते हैं, तो वह शेर, ग़ज़ल, कविता, लेख आदि का रूप इख़्तियार कर लेते हैं। यही मेरे साथ भी होता है। प्रशासन है क्या, इंसानी जज़्बातों को समझने, उनकी फिक्र से जुड़ने का जरिया ही तो है, मैं इसे इसी तरह लेता हूं। इन्हीं का इज्हार ही मेरा लेखन है।

सवाल: साहित्य प्रशासन के लिए किस-प्रकार मददगार साबित हो सकता है ?

जवाब: बड़ा ही महत्वपूर्ण सवाल आपने पूछ है। प्रशासन और साहित्य का रिश्ता बहुत अहम है। दरअस्ल प्रशासक किसी भी ओहदे पे हो पहले तो वो इंसान ही है। इंसानी एहसास और इंसानी तकाज़ों की समझ अगर प्रशासक को हो तो वेलफेयर स्टेट की अवधारणा खुद ही मआनीखेज हो जाती है। ऐसे बहुत से लोग हैं जो साहित्यकार भी रहे और प्रशासन में भी रहे, और दोनों सिम्त उनकी शख़्सियत कमाल रही। मेरा सुझाव यही है कि प्रशासनिक ही क्या अन्य सेवाओं से जुड़े हुए लोग भी अच्छा सृजन कर रहे हैं।

सवाल: वर्तमान समय के सबसे महत्वपूर्ण शायर आप किन्हें मानते हैं?

जवाब: देखिए, इतनी बड़ी लिस्ट है और ग़ज़ल को होते-होते सात सौ साल गुजर गए हैं, तो जाहिर है, कि कभी कोई शेर पसंद आता है, तो कभी शायर पसंद आता है। ग़ज़ल का जो दयार है, दरबार है, यह इतना समृद्ध है, कि किसी एक का नाम लेना तो मुश्किल है, लेकिन फिर भी यदि क्लासिकल शायरों की बात की जाये, तो मीर, ग़ालिब, जा़ैक़, फ़िराक़ आदि वो शायर हैं, जिनको पढ़कर आप समझ सकते हैं, कि हमारी शायरी कितनी समृद्ध है।

सवाल: गुफ़्तगू पत्रिका को तकरीबन आप शुरू से देख रहे हैं, क्या कहना चाहेंगे इसके बारे में ?

जवाब: गुफ़्तगू एक पत्रिका से ज्यादा आंदोलन है। मौजूद वक़्त में जब ज्यादातर मैगजीन्स बन्द हो रही हैं, आर्थिक संकट का सामना कर रही हैं, ऐसे में गुफ़्तगू एक आंदोलन के रूप में बढ़ती चली जा रही है। मेयार को बरकरार रखते हुए मुसलसल छपते रहने की चुनौती का कामयाबी के साथ सामना करने के लिए गुफ़्तगू परिवार मुबारकबाद का मुस्तहक है। ग़ाज़ी साहब और उनकी पूरी टीम को दिली मुबारकबाद!

सवाल: नई पीढ़ी तो कविता या शेर को सोशल मीडिया पर पब्लिश करके वाह-वाही पा लेने को ही कामयाबी मानती है, आप इसे किस रूप में देखते हैं?

जवाब: निश्चित रूप से सोशल मीडिया ने नये लेखकों को एक आसान प्लेटफार्म उपलब्ध कराया है, जहां वे खुलकर अपने आपको और अपनी रचनाओं को प्रस्तुत कर सकते हैं। किसी गॉडफादर की ज़रूरत नहीं। किसी बैकग्राउंड की आवश्यकता नहीं। लेकिन इसका नुकसान भी बहुत हुआ है, जल्दबाजी के चक्कर मे बहुत कुछ अधपका और अधकचरा परोसा जा रहा है। लोग कुछ भी लिखकर पोस्ट कर रहे हैं जो कई बार अदब की बुनियादी चीज़ों से भी बहुत दूर होते हैं। विधाओं की टेक्निक समझे बगैर सिर्फ़ लिखना और पोस्ट कर देना ही उनकी प्राथमिकता हो जाती है। प्रशंसकों के लाइक्स भी मिल जाते हैं। मेरी राय यह है कि सोशल मीडिया के दोनों पक्ष हैं, जिन्हें समझने की ज़रूरत है।

सवाल: आजकल आपका कौन-सा सृजन-कार्य और अध्ययन चल रहा है?

जवाब: मेरा लिखना पढ़ना तो लगातार चलता ही रहता है। आजकल जो लॉकडाउन का पीरियड था, इसमें ऑफिस के अलावा जब टाइम मिलता है, तो आप अपने शौक पूरे करते हैं। बीते दिनों में मैंने बहुत सारी नोबेल अपनी खत्म की हैं। कई ऐसी नई चीजें भी सामने आई हैं, जिन्हें पढ़ने का मौका मिला है। इधर कई नये-नये शायरों की बहुत खूबसूरत-सी किताबें छपी हैं जैसे-महेंद्र कुमार ‘फानी’, अभिषेक शुक्ला आदि ऐसे कई शायर हैं, जो हम तक पहुंचे हैं और हम उसे पढ़ रहे हैं, आनंद उठा रहे हैं और देख रहे हैं कि किस प्रकार की तब्दीलियां शायरी शायरी और साहित्य में आती हैं।

सवाल: शायरी के लिए उस्ताद का होना, कितना जरूरी मानते हैं आप?

जवाब: शायरी एक ऐसा फन है, जो बिना उस्ताद के मुकम्मल होना बड़ा मुश्किल होता है। उस्ताद और शागिर्द की जो उर्दू ग़ज़ल की परंपरा है, ये बहुत ही खूबसूरत चीज़ है। मुझे याद आता है, कि चकबस्त ब्रजनारायण साहब जो बड़े शायर हैं, उन्होंने कहा है-

अदब ताश्लीम का जौहर है जेवर है जवानी का

वही शागिर्द हैं जो खि़दमत-ए-उस्ताद करते हैं।

(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2020 अंक में प्रकाशित )