मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

गुफ़्तगू की वर्ष 2019 की गतिविधियां

इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की पुस्तक ‘एहसास-ए-ग़ज़ल’ का विमोचन

06 जनवरी: कैफ़ी आज़मी जन्म शताब्दी समारोह- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी द्वारा संपादित और कैफ़ी आज़मी को समर्पित पुस्तक ‘एहसास-ए-ग़ज़ल’ का विमोचन
              
कैफ़ी आज़मी सम्मान समारोह का ग्रुप फोटो
 इन 12 लोगों को कैफ़ी आज़मी सम्मान: नज़र कानपुरी (लखनऊ), हसनैन मस्तफ़ाबादी (इलाहाबाद), खुर्शीद भारती (मिर्ज़ापुर), रमोला रूथ लाल (इलाहाबाद), डाॅ. इम्तियाज़ समर (कुशीनगर), डाॅ. क़मर आब्दी (इलाहाबाद), डाॅ. नीलिमा मिश्रा (इलाहाबाद), इश्क़ सुल्तानपुरी(अमेठी), डाॅ. सादिक़ देवबंदी (देवबंद), सुमन ढींगरा दुग्गल (इलाहाबाद), प्रिया श्रीवास्तव ‘दिव्यम्’(जालौन) और मन्नत मिश्रा (लखनऊ)
गुफ़्तगू के दोहा विशेषांक का विमोचन
17 फरवरी: गुफ़्तगू द्वारा दोहा दिवस समारोह का आयोजन, इस दौरान फिल्म पटकथा लेखक संजय मासूम द्वारा ‘गुफ़्तगू’ के दोहा विशेषांक का विमोचन और कवियों द्वारा दोहा पाठ
ऋतंधरा मिश्रा की पुस्तक ‘आखि़र मैं हूं कौन’ का विमोचन
09 मार्च: ऋतंधरा मिश्रा की पुस्तक ‘आखिर मैं हूं कौन’, रचना सक्सेना की पुस्तक ‘किसकी रचना’ और कुमारी निधि चैधरी की पुस्तक ‘प्रेम विरह में आलोकित’ का विमोचन
गुफ़्तगू के महिला ग़ज़ल विशेषांक का विमोचन
09 जून: ‘गुफ़्तगू साहित्य समारोह-2019’ का आयोजन, गुफ़्तगू के महिला ग़ज़ल विशेषांक का विमोचन और विभिन्न सम्मान
 सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान का ग्रुप फोटो
सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान: इफ़्फ़त ज़हरा रिज़वी (सऊदी अरब), पूजा बहार (नेपाल), सुमय्या राणा ग़ज़ल (लखनऊ), नमिता राकेश (फरीदाबाद), अंजु सिंह गेसू (मेरठ), वीना श्रीवास्तव(रांची), नजमा नाहिद अंसारी (रांची), उर्वशी अग्रवाल उर्वी (नई दिल्ली), स्वधा रवींद्र उत्कर्षिता (लखनऊ), सुमन ढींगरा दुग्गल(प्रयागराज) और शिबली सना (प्रयागराज)
बेकल उत्साही सम्मान: नय्यर आक़िल (प्रयागराज, मरणोपरांत) अरुण आदित्य (अलीगढ़), कैप्टन जैनुल आबेदीन ख़ान (पुणे), फरहत अली खान (अलीगढ़), उबैदुर्रहमान सिद्दीक़ी (गाजीपुर) रचना सक्सेना (प्रयागराज), अख़्तर अज़ीज़ (प्रयागराज) और डाॅ. राम लखन चैरसिया (प्रयागराज) 
सीमा अपराजिता सम्मान: शकीला सहर (पुणे), पारो चैधरी (ग़ाज़ियाबाद), कुमारी निधि चैधरी (किशनगंज, बिहार), मधुबाला (प्रयागराज) और अदिति मिश्रा (प्रयागराज)
16 जून: साहित्यकार नंदल हितैषी के निधन पर श्रद्धांजलि कार्यक्रम का आयोजन                              
29 सितंबर: गुफ़्तगू के ‘प्रयागराज महिला विशेषांक’ का विमोचन और ‘शान-ए-इलाहाबाद’ सम्मान समारोह, इन्हें मिला ‘शान-ए-इलाहाबाद सम्मान’- कमरुल हसन सिद्दीक़ी, यश मालवीय, डाॅ. राम मिलन, डाॅ. रंजना त्रिपाठी, सरदार किशन सिंह, अनिल कुमार गुप्ता और राजू जायसवाल उर्फ मरकरी
04 नवंबर: पंकज सिंह राहिब के दोहा संग्रह ‘कौन किसे समझाय’ का विमोचन

24 नवंबर को ग़ाज़ीपुर के रकसहां गांव में हुए कार्यक्रम का चित्र 
24 नवंबर: ग़ाज़ीपुर के रकसहां गांव में ‘नातिया शायरी विशेषांक’ का विमोचन और सम्मान।
इन्हें मिला सम्मान: सूफ़ी शाह शम्सुद्दीन एवार्ड: मौलाना रियाज़ हुसैन ख़ान शम्सी, मौलाना फ़ारूक़ ख़ान  ख़ामोश ग़ाज़ीपुरी एवार्ड: अहक़र ग़ाज़ीपुरी, मिथिलेश गहमरी, डाॅ. मुख़्तार अंसारी एवार्ड: मोहम्मद शमशाद ख़ान, डाॅ. आरिफ़ नसीम, गोपाल राम गहमरी एवार्ड: कुमार शैलेंद्र राही मासूम रज़ा एवार्ड: मक़बूल वाजिद, सुहैल ख़ान हारुन रशीद एवार्ड: मोेहम्मद ऐनुद्दीन, इंद्रासन यादव, अभिषेक कुमार श्रीवास्तव, मोहम्मद शौक़त ख़ान
30 अक्तूबर: डाॅ. राम लखन  चौरसिया की पुस्तक ‘मेरा माला’ पर परिचर्चा और काव्य पाठ
01 दिसंबर: गुफ़्तगू के नातिया शायरी विशेषांक का विमोचन और काव्य पाठ




बुधवार, 11 दिसंबर 2019

नात पर पहली बार हिन्दी में विशेषांक: नीलिमा

गुफ़्तगू के नातिया शायरी विशेषांक का विमोचन और मुशायरा

प्रयागराज। हिन्दी में नातिया शायरी पर विशेषांक निकालकर ‘गुफ़्तगू’ पत्रिका ने इतिहास रच दिया है। अब तक नात पर हिन्दी में कोई विशेषांक प्रकाशित नहीं हुआ। यह एक बहुत ही बेहतरीन काम है। अल्लाह की हिदायत के मुताबिक दुनिया में इस्लाम मज़हब लाने वाले पैगंबर हजरत मोहम्मद सल्ल. की तारीफ़ में शायरी करना ही नातिया शायरी कहलाती है, इसकी शुरूआत अरब से हुई, इस विधा पर विशेषांक निकालना एक बड़ा काम है। यह बात 01 दिसंबर को ‘गुफ़्तगू’ की ओर से करैली स्थित अदब घर में आयोजित ‘नातिया शायरी विशेषांक’ के विमोचन समारोह के दौरान मुख्य अतिथि डाॅ. नीलिमा मिश्रा ने कही। उन्होंने कहा कि इस प्रकार अन्य विधाओं पर भी विशेषांक निकलने चाहिए, हम्द पर भी विशेष अंक आना चाहिए। उम्मीद है टीम गुफ़्तगू यह काम भी करेगी।
 गुफ़्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि यह दौर विशेषांक का है, अब सामान्य अंक को लोग न तो सहेजकर रखते हैं और न ही खरीदना चाहते हैं। लोग विशेष अंक या विशेष चीज़ ही चाहते हैं। ऐसे माहौल में टीम गुफ़्तगू ने निर्णय लिया है कि भिन्न-भिन्न विषयों पर विशेषांक निकाले जाएं। ग़ज़ल विशेषांक, महिला विशेषांक, महिला ग़ज़ल विशेषांक, इलाहाबाद विशेषांक, इलाहाबाद महिला विशेषांक, दोहा विशेषांक के बाद इस कड़ी का हिस्सा है नातिया शायरी विशेषांक। इसमें जहां विभिन्न लोगों के नात प्रकाशित किए गए हैं, वहीं नात पर कई शोध परख लेख भी शामिल किए गए हैं। शायर वाक़िफ़ अंसारी ने कहा कि गुफ़्तगू का यह अंक बेहद ख़ास है, इसमें देशभर के लोगों के नात तो शामिल किए गए ही हैं, अमेरिका तक के शायरों के नात भी शामिल हैं। इस परिदृश्य में देखा जाए तो यह अंक मील का पत्थर साबित हुआ है। हकीम रेशादुल इस्लाम ने कहा कि यह अंक कई मायने में नायाब है, इस तरह के काम की ही साहित्य में काउंटिंग होती है। हिन्दी में नात पर ख़ास अंक निकालना बेहद दूरदर्शिता का परिचायक हैं, ऐसे कामों की जितनी तारीफ़ की जाए, कम है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे जमादार धीरज ने कहा कि गुफ़्तगू पत्रिका अब प्रयागराज की पहचान बन गई है, भिन्न-भिन्न विषयों पर विशेषांक निकालकर टीम गुफ़्तगू बहुत बड़ा काम कर रही है। ऐसे काम की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। कार्यक्रम का संचालन शैलेंद्र जय ने किया।
 दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गयां। जिसमें शिवाजी यादव, प्रभाशंकर शर्मा, मनमोहन सिंह ‘तन्हा’, अफ़सर जमाल, मुजाहिद लालटेन, सेलाल इलाहाबादी, असद ग़ाज़ीपुरी, फ़रमूद इलाहाबादी, दयाशंकर प्रसाद, डाॅ. नीलिमा मिश्रा, जमादार धीरज, शाहिद इलाहाबादी आदि ने कलाम पेश किया। अंत में इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने सबके प्रति आभार व्यक्त किया।
     

मंगलवार, 3 दिसंबर 2019

अपनी ज़मीन को याद करना बड़ी बात: अफ़ज़ाल

अलग-अलग क्षेत्रों में 13 हस्तियां हुईं सम्मानित

गुफ़्तगू की ओर से रकसहां में हुआ सम्मान समारोह
ग़ाज़ीपुर। ग़ाज़ीपुर की धरती अपने आप में उर्जावान है, यहां बड़े अदीबों, क्रांतिकारियों और दानिशवरों ने जन्म लिया हैं। ऐसे माहौल में इलाहाबाद में रहने के बावजूद इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने अपनी सरज़मीन को याद किया और यहां से जुड़े हुए बड़े लोगों के नाम पर यहीं के लोगों को सम्मानति किया। अपनी ज़मीन को इस तरह से याद करना बड़ी बात है। यह बात सांसद अफ़ज़ाल अंसारी ने ‘गुफ्तगू’ की ओर से 24 नवंबर को ग़ाज़ीपुर जिले के रकसहां के दारूल उलूम तेग़िया शम्सुल उलूम में आयोजित सम्मान समारोह और विमोचन समारोह में बतौर मुख्य अतिथि कही। इस मौके पर गुफ़्तगू के नातिया शायरी विशेषांक का विमोचन भी किया गया। अपने संबोधन में श्री अंसारी ने कहा कि जो लोग ऐतिहासिक काम करते हैं, उन्हें ही एवार्ड दिया जाता है। यह कार्यक्रम आयोजित करके टीम गुफ्तगू ने साबित किया है अच्छे काम को हमेशा सराहना मिलती है। रकसहां के इस आयोजन ने एक इतिहास रच दिया है, ऐसे कार्यक्रमों की आवश्यकता है।
सांसद अफ़ज़ाल अंसारी

 गुफ़्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि इलाहाबाद में कार्यक्रम आयोजित करते हुए हमेशा मन यह बात बनी रहती कि अपने गांव में आयोजन करूं, बड़ी मशक्कत के बाद यह आयोजन कर पाया, लेकिन कुछ लोगों के सहयोग से यह आयोजन बेहद कामयाब रहा। क्षेत्र में बड़े काम करने वालों को सम्मानित करने का यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। कार्यक्रम की अध्यक्षता करे छत्तीसगढ़ राज्य के सेवानिवृत्त डीजी मोहम्मद वज़ीर अंसारी ने कहा कि इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने अथक परिश्रम करके यह कार्यक्रम किया है, जो बेहद कामयाब रहा। जिले ख़ास लोगों केा सम्मान मिलना चाहिए।
मोहम्मद वज़ीर अंसारी
मौलाना रियाज़ हुसैन ख़ान शम्सी ने कहा कि गुफ्तगू का यह कार्यक्रम अपने आपमें बेहद ख़ास है, इम्तियाज़ ग़ाज़ी ने अपने जिले और यहां के लोगों को याद करके बहुत अच्छा काम किया है। एसकेबीएम इंटर काॅलेज के प्रबंधक गुलाम मज़हर, रकसहां के ग्राम प्रधान मोहम्मद अली हसन ख़ान, उसिया के ग्राम प्रधान मोहम्मद युसूफ़ ख़ान, मासूम रज़ा राशदी, सरवत महमूद ख़ान, शकील खान, पूर्व मंत्री ओमप्रकाश सिंह के प्रतिनिधि मन्नू सिंह,  केके मिश्र ‘इश्क’ सुल्तानपुरी, फ़रमूद इलाहाबादी, अशोक कुशवाहा, अफ़सर जमाल आदि ने भी विचार व्यक्त किया। संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया। 

इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया, जिसमें नायाब बलियावी, सेलाल इलाहाबादी, मुजाहिद लालटेन, असद ग़ाज़ीपुरी, अनिल मानव, शिवाजी यादव, मधुर नज्मी आदि ने कलाम पेश किया। इस मौके पर मोहम्मद अज़हर अंसारी, डाॅ.वसीम रज़ा, शाहनवाज अंसारी कल्लू, मोहम्मद आज़म ख़ान, औरंगज़ेब अंसारी, अब्दुल मतीन ख़ान आदि मौजूद रहे।

इन्हें मिला सम्मान 
सूफ़ी शाह शम्सुद्दीन एवार्ड: मौलाना रियाज़ हुसैन ख़ान शम्सी, मौलाना फ़ारूक़ ख़ान,                            ख़ामोश ग़ाज़ीपुरी एवार्ड: अहक़र ग़ाज़ीपुरी, मिथिलेश गहमरी,
डाॅ. मुख़्तार अंसारी एवार्ड: मोहम्मद शमशाद ख़ान, डाॅ. आरिफ़ नसीम,
गोपाल राम गहमरी एवार्ड: कुमार शैलेंद्र,
राही मासूम रज़ा एवार्ड: मक़बूल वाजिद, सुहैल ख़ान,
हारुन रशीद एवार्ड: मोेहम्मद ऐनुद्दीन, इंद्रासन यादव, अभिषेक कुमार श्रीवास्तव, मोहम्मद शौक़त ख़ान


बुधवार, 20 नवंबर 2019

गुफ़्तगू के (नातिया शायरी विशेषांक) अक्तूबर-दिसंबर 2019 अंक में


3.संपादकीय (इबादत को सहेजने की कोशिश)
4.आपके ख़त
5-9. धरती के वासियों की मुक्ति में प्रीत है ! - प्रो. अली अहमद फ़ातमी
10-13 नातगोई की इब्तिदा - डाॅ. ज़फ़रउल्लाह अंसारी
14.दुनिया की हर ज़बान में लिखी-पढ़ी जाती है नात- नूर ककरौलवी
15-16.किसे कहते हैं नातिया शायरी - अनिसा सुलेमानी
17-18. 1987 से रकसहां में हो रहा है नातिया मुशायरा-नदीमुद्दीन शम्सी मिसबाही
19-20. ग़ाज़ीपुर के ख़ास व्यक्तित्व श्यामल दत्त- मोहम्मद वज़ीर अंसारी
21-22. नातगोई और उसका फ़न - हकीम रेशादुल इस्लाम
23-25. ख़ास नात ( इमाम अहमद रज़ा बरेवली, राज़ इलाहाबादी, बेकल उत्साही, अज़ीज़ इलाहाबादी, तुफ़ैल अहमद मदनी, अशफ़ाक़ अहमद वारसी)
26-41. नात (सैयद औलोद रसूल कुदसी, मौलाना रियाज़ हुसैन ख़ान, डाॅ. असलम इलाहाबादी, अलमास शबी, मोहम्मद मुजाहिद हुसैन रज़वी, नूर ककरालवी, सैयद ख़ादिमे रसूल ऐनी, सागर होशियारपुरी, अख़्तर अज़ीज़, हसनैन मुस्तफ़ाबादी, क़ादिर हनफ़ी, फ़ौजिया अख़्तर ‘रिदा’, शिवशरण बंधु, माणिक विश्वकर्मा ‘नवरंग’, फ़रमूद इलाहाबादी, डाॅ. नीलिमा मिश्रा, शकील ग़ाज़ीपुरी, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, डाॅ. वारिस अंसारी, अतिया नूर,  मिथिलेश गहमरी, सुनील दानिश, हसरत देवबंदी, वाक़िफ़ अंसारी, डाॅ. हसीन जिलानी, डाॅ.  सय्यद क़मर आब्दी, ईशान अहमद, सिबतैन परवाना, हसन जौनपुरी, असद ग़ाज़ीपुरी, सलाह ग़ाज़ीपुरी, ज़ीशान बरकाती )
42-43. इंटरव्यू: डाॅ. शमीम ग़ौहर
44-46. तब्सेरा (आखि़र कब तक, भास्कर राव इंजीनियर, खेत के पांव, लफ़्ज़ों का लहू)- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
47-50. उर्दू अदब (वसीला-ए-निज़ात, क़लम कागज़ पे सज्दे कर रहा है, बतख़ मियां अंसारी, हमनशीं)- अख़्तर अज़ीज़
51. गुलशन-ए-इलाहाबाद: मौलाना मुजाहिद हुसैन - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
52-53. ग़ाज़ीपुर के वीर( ब्रिगेडियर उस्मान ने ठुकरा दिया पाक में जनरल बनने का आॅफ़र) शहाब ख़ान गोड़सरावी
54-59. अदबी ख़बरें
60-61 खि़राज़-ए-अक़ीदत: मोहम्मद शब्बीर ख़ान हमेशा जिन्दा रहेंगे- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
62-84. परिशिष्ट-1, इक़बाल आज़र
62. इक़बाल आज़र का परिचय
63. नातगोई और इक़बाल आज़र - डाॅ. वारिस अंसारी
64-65 बातचीत: इक़बाल आज़र से डाॅ. नीलिमा मिश्रा की बातचीत
66-84. इक़बाल आज़र के नात
85  परिशिष्ट-2, इक़बाल दानिश
85. इक़बाल दानिश का परिचय
86. कलाम-ए-दानिश: एक जायज़ा- मुफ़्ती शफ़ीक अहमद
87. इक़बाल दानिश और उनकी नातगोई- डाॅ. हसीन जिलानी
88-89. बातचीत: इक़बाल दानिश से हकीम रेशादुल इस्लाम की बातचीत
90-105. इक़बाल दानिश के नातिया कलाम
106-114. कवि और कविता (डाॅ. राकेश मिश्र ‘तूफ़ान’, मासूम रज़ा राशदी, कृष्ण कुमार यादव, शिवकुमार राय, विजय प्रताप सिंह)
115-120. एवार्ड परिचय (मौलाना रियाज़ हुसैन ख़ान, मौलान मोहम्मद फ़ारूक़ ख़ान, अहक़र ग़ाज़ीपुरी, मिथिलेश गहमरी, शमशाद हुसैन ख़ान, डाॅ. आरिफ़ नसीम, मक़बूल वाजिद, सुहैल ख़ान, कुमार शैलेंद्र, इंद्रासन यादव, मोहम्मद ऐनुद्दीन, अभिषेक कुमार श्रीवास्वत, मोहम्मद शौक़त ख़ान)

मंगलवार, 12 नवंबर 2019

दोहों की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं पंकज

 ‘कौन किसे समझाय’ के विमोचन अवसर पर बोले इब्राहीम अश्क



प्रयागराज। पंकज सिंह राहिब के दोहे इबादत की तरह है, उन्होंने दोहा सृजन में अपने आपको डुबा दिया है। इनके दोहों को पढ़ने के बाद यह स्पष्ट रूप कहा जा सकता है कि इन्होंने अपने आपको दोहों में डुबा दिया है। ये दोहों की परंपरा को शानदार तरीके से आगे बढ़ा रहे हैं। यह बात फिल्म गीतकार और मशहूर शायर इब्राहीम अश्क ने 04 नवंबर की शाम गुफ़्तगू की ओर से बाल भारती स्कूल में बतौर मुख्य अतिथि ‘कौन किस समझाय’ का विमोचन करते हुए कही। 
 कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए गीतकार यश मालवीय ने कहा कि पंकज राहिब के दोहे पढ़़ते हुए लगा कि वे दोहों को ओढ़ते और बिछाते हैं, इनके दोहों से गुजरत हुए लगा कि वास्तविक रूप में दोहे ऐसे ही लिखना चाहिए। श्री यश ने कहा कि इन दोहों को पढ़ने के बाद मैं भी और अधिक दोहा लिखने के लिए प्रेरित हुआ। रविनंदन सिंह ने कहा कि साहित्य बहुत समय लेता है, जब खूब अध्ययन करके सृजन किया जाता है तो लेखनी उभरकर सामने आती है। पंकज राहिब के दोहों को पढ़ते समय यह महसूस हुआ कि इन्होंने साहित्य का गहरा अध्ययन किया है। गुफ़्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद गा़़ज़ी ने कहा कि पंकज के दोहे आज के समय के लिए मिसाल है, दोहा लिखने वालों को इनके दोहों से प्रेरणा मिलेगी। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया।
  इस मौके पर संजय मिश्र ‘शौक़’ रेशादुल इस्लाम, अनिल मानव, राम लखन चैरसिया,  अफसर जमाल, डाॅ. नीलिमा मिश्रा, नीना मोहन श्रीवास्तव, शिवशंरण बंधु, नरेश महरानी,  कविता उपाध्याय, आसिफ उस्मानी, संपदा मिश्रा, शिबली सना, शिवाजी यादव, ललिता नारायणी पाठक, परवेज अख़्तर, महक जौनपुरी, रितंधर मिश्रा, सुमन दुग्गल, डाॅ. वीरेंद्र कुमारी तिवारी, असद ़गाजीपुरी, रचना सक्सेना, रेनू मिश्रा, सरिता श्रीवास्तव, रमोला रूथ लाल, राजेंद्र यादव, परवेज अख्तर, असरार नियाज़ी, अभिषेक केसरवानी, डाॅ. संतोष कुमार मिश्र, अशरफ़ अली बेग, वीरेंद्र कुमार तिवारी, मुजाहिद लालटेन, राजेंद्र प्रसाद श्रीवास्तव, केशव सक्सेना, असल ग़ाज़ीपुरी, सेलाल इलाहाबादी, संजय सक्सेना, उमेश श्रीवास्तव, लखन लाल चैधरी, राकेश जायसवाल पीयूष मिश्र आदि मौजूद रहे।

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2019

डाॅ. बुद्धिनाथ मिश्र के सम्मान में काव्य गोष्ठी संपन्न


प्रयागराज। साहित्यिक संस्था गुफ़्तगू के तत्वावधान में 10 अक्तूबर शाम प्रीतमनगर स्थित सभासद निवास पर देहरादून के मशहूर गीतकार डाॅ. बुद्धिनाथ मिश्र के सम्मान में काव्य गोष्ठी का अयोजन किया। जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ कवि जमादार धीरज ने किया, मुख्य अतिथि डाॅ. बुद्धिनाथ मिश्र थे, संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया। इस मौके पर प्रीता वाजपेयी और रोशनी पाठक को डाॅ. बुद्धिानथ मिश्र के हाथों ‘गुफ़्तगू’ में कविता प्रकाशित होने पर प्रशस्ति पत्र प्रदान किया गया। गुफ़्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी की ग़ज़ल खूब सराही गई, उन्होंने पढ़ा- ‘शायरों में शुमार है ग़ाज़ी/ मेरे दिल का खुमार है ग़ाज़ी, उसको देखो तो ऐसा लगता है/ वक़्त के आर-पार है ग़ाज़ी।’ डाॅ. बुद्धिना मिश्र की गीत पर लोग झूम उठे- मैंने जीवन भर बैराग जिया है यह भी सच है/लेकिन तुमसे प्यार किया है यह भी सच है।’
इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

 डाॅ. नीलिमा मिश्रा की ग़ज़ल शानदार रही-‘उसने हमको जा एक नज़र देखा/हमको लोगों ने बेख़बर देखा। मयक़दा हम भला कहां जाने/ मयक़दा हम भला कहां जातेे, उसकी आंखों में डूबकर देखा।’  देहरादून की कवयित्री संस्कृति मिश्रा ने कहा- ‘ 66 साल के बाद भी, आज हम हैं गुलाम/ बेटा पिता को डैड कहता है, माताजी की माम।’ प्रीता वाजपेयी ने तरंनुम में ग़ज़ल पेश कर महफिल में जोश पैदा कर दिया- ‘जब-जब तुमने दर्द दिया एक गीत लिखा मैंने/अश्कों की लड़ियों से फिर संगीत मिला मैंने।’ फतेहपुर के शायर शिवशरण बंधु की ग़ज़ल यूं थी- ‘वो सूरज, चांद धरती ओढ़ लेता है/सफ़र में धूप लगती है तो रस्ता ओढ़ लेता है।’ रितंधरा मिश्रा की पंक्तियां यूं थीं- ‘उसने हमको जो एक नज़र देखा/ हमको लोगों ने बेख़बर देखा।’ डाॅ. वीरेंद्र कुमार तिवारी की कविता शानदार रही-‘मां ने एहसान कभी जताया है क्या/ कितने दुख सहे कभी बताया क्या।’ फतेेहपुर से आए कवि राजेंद्र यादव ने कहा-‘ मैं ईश्वर हूं, बोल रहा हूं/वाणी ही बंधन है मेरा/ तेरी वाणी तोल रहा है। जमादार धीरज का गीत सराहनीय रहा- ‘जगी आंसुओं में जो संवेदनायें/ मैं गीतों में उनको सजाता रहूंगा।’ फ़रमूद इलाहाबादी, डाॅ. वीरेंद्र कुमार तिवारी, डाॅ. राम लखन चैरसिया , रचना सक्सेना और संजय सक्सेना ने भी कविताएं प्रस्तुत की। अंत में इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने सबके प्रति आभार प्रकट किया।

मनमोहन सिंह तन्हा

डाॅ. नीलिमा मिश्रा

प्रीता वाजपेयी
संस्कृति मिश्रा

रचना सक्सेना



सोमवार, 30 सितंबर 2019

बदरुद्दीन: खेल में ही गवा दी अपनी जान

               
बदरुद्दीन खान
 - मुहम्मद शहाबुद्दीन खान
                                         
   20 जनवरी 1955 को दिलदारनगर की गांधी मेमोरियल इंटर कॉलेज की हॉकी टीम और जमानिया हिन्दू इंटर कॉलेज की टीम के बीच टूर्नामेंट का फाइनल मुकाबला मुस्लिम राजपूत इंटर कॉलेज (वर्तमान मे एसकेबीएम इंटर कॉलेज) पर हो रहा था। इलाकेे लोगों की जबरदस्त भीड़ थी, यह मुकाबला सिर्फ़ एक टूर्नामेंट का फाइनल भर नहीं था, बल्कि प्रतिष्ठा से भी जुड़ा था। मुकाबला दिन के तकरीबन 2: 30 बजे शुरू हुआ, हाॅफ टाइम तक दोनों टीमों की तरफ से कोई गोल नहीं किया जा सका। हाॅफ टाइम के बाद जैसे ही खेल शुरु हुआ, बदरुद्दीन की हॉकी स्टीक से गेंद आ टकराई, और वो गेंद को हवा के माफिक दौड़ाते हुए विरोधी टीम के गोलपोस्ट के अंदर पहुंचा देते हैं। विजयी गोल करके वापस लौटते समय विरोधी टीम के बैक पर खड़ा एक ऊचे लम्बे काले चट्टे कद का खिलाडी उनके सिर पर पीछे से हॉकी स्टीक से वार कर देता है, जिससे बदरुद्दीन बेहोश होकर उसी मैदान में गिर पड़ते हैं। मैदान में अफरा-तफरी का माहौल पैदा हो जाता है तब तक विरोधी टीम के खिलाडी मौके का फायदा उठा वहां से खिसक पडते हैं। बदरुद्दीन के गांव के सहपाठी हॉकी खिलाड़ी सेराजुद्दीन जोर से चिल्ला उठते हैं, उसके बाद फौरन उनको वहां से उठा कर दिलदारनगर के डॉ. श्याम नारायण चतुर्वेदी के पास ले जाया जाता है। उन्होंने एक इन्जेक्शन लगाया, जिससे इंजेक्शन लगते ही बदरुद्दीन उठ कर बैठ जाते हैं और एक नजर सबको देखने के फिर वापस बेहोश हो जाते हैं। फिर उन्हें कॉलेज टीम द्वारा ट्रेन से ‘बीएचयू’ बनारस स्थित किंग एडवर्ड हॉस्पिटल (वर्तमान शिव प्रसाद हॉस्पिटल) कबीर चैरा में ले जाया जाता है। जहां पर उनके बेहोशी की हालात में चोट लगने के तीन दिन बाद 23 जनवरी 1955 ई० की दोपहर इंतकाल हो जाता है। 
 उनके शव को मुगलसराय-जमानिया-मार्ग से सफेद कार में रखकर दिलदारनगर गांव स्थित जामा मस्जिद के पास लाया जाता है। लोगों के दीदार के बाद मुस्लिम राजपूत इंटर कॉलेज के ग्राउंड पर लाया गया। जहां मुस्लिम राजपूत के पहले मैनेजर हाजी शमसुद्दीन खान दिलदारनगरी और बदरुद्दीन खान की मौजूदगी में उसी कॉलेज ग्राउंड में तकरीबन रात की 8 बजे उस खेल ग्राउंड की चारो तरफ उनके शव का चक्कर लगा ‘एनएसएस’ कॉलेज की टीम द्वारा ‘मिल्लिट्री गार्ड ऑफ ऑनर्स’ के साथ हजारों के भीड़ की मौजूदगी में दफनाया गया। हॉकी खेल दुनिया के इस खिलाड़ी को उसी मैदान में दफनाया गया, जहां उसे चोट लगी थी। उनकी मौत के बाद उनके कब्र पर मजार शरीफ का निर्माण कार्य मुस्लिम राजपूत इंटर कॉलेज के तत्कालीन मैनेजर मोहम्मद शमसुद्दीन खान और सदर अंजुमन डिप्टी मु० सईद खान एवं कॉलेज इन्तेजामिया कमेटी द्वारा कराई गई। इसके अलावा उनकी याद में कॉलेज में बदरुद्दीन मेमोरियल लाइब्रेरी हॉल की बुनियाद 21 दिसंबर 1957 ई० में रखी गई। उनके नाम पर उनके पैतृक गांव गोड़सरा में बदरुद्दीन मेमोरियल स्पोर्ट्स क्लब ‘बीएमसी’ के नेतृत्व में आज भी सभी प्रकार खेल के आयोजन होते हैं। उनके साथी खिलाड़ीयों के मुताबिक हॉकी खेल के साथ फुटबॉल, एथलेटिक्स में भी वे एक बेहतरीन खिलाड़ी थे।
 बदरुद्दीन खान का जन्म 2 जुलाई 1933 ई० को उत्तर प्रदेश के जिला गाजीपुर के गोड़सरा गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम मुहम्मद मोलवी मोहिउद्दीन उर्फ मोहा खान ‘तहसीलदार’ तथा माता का नाम रहमत बीबी था। अततः संस्था बदरुद्दीन मेमोरियल सोशल वेल्फेयर क्लब, गोड़सरा के नेतृत्व में मेरे द्वारा 23 मार्च 2019 को शहीद की स्मृति में मांग पत्र देकर गांव स्थित खेल मैदान पर शहीद बदरुद्दीन मेमोरियल स्टेडियम बनवाने की मांग की गई। मुझे उनपर गर्व है कि मैं उनका पोता हूं।
(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2019 अंक में प्रकाशित)

गुरुवार, 12 सितंबर 2019

गुफ़्तगू के प्रयागराज महिला विशेषांक (जुलाई-सितंबर: 2019) में



3. संपादकीय: महिलाओं की सक्रियता बेहद ख़ास
4. पाठकों के पत्र
5-7. कहानी: उमस- ममता कालिया
8-13. कहानी: सच क्या था ? - अलका प्रमोद
14-17. महादेवी जी: सतत सक्रिय एवं क्रियाशील उत्सव भंगिमा - यश मालवीय
18-20. स्त्री अपने अस्तित्व, अस्मिता को समझे - ममता श्रीवास्तव
21-24. ग़ज़लें: डाॅ. नीलिमा मिश्रा, सुमन ढींगरा दुग्गल, प्रीता वाजपेयी, अना इलाहाबादी, महक जौनपुरी, डाॅ. रंजीता समृद्धि, गीता सिंह, शिबली सना
25-38. कविताएं: रमोला रूथ लाल, कविता उपाध्याय, देवयानी, उर्वशी उपाध्याय प्रेरणा, रचना सक्सेना, शाम्भवी, सरिता भारतीय, सम्पदा मिश्रा, मधुर शंखधर स्वतंत्र, रोशनी पाठक, अदिति मिश्रा, अपर्णा सिंह, दीक्षा केसरवानी, वंदना शुक्ला, श्रद्धा सिन्हा, शिवानी मिश्रा, रुचि गुप्ता, नेहा सिंह, दीक्षा श्रीवास्तव ‘चाहत’, सिदरह फ़ातिमा, डाॅ. नीरजा मेहता कमलिनी, अलका प्रमोद, गीता  टंडन,   
39-43. इंटरव्यू: प्रो. अनिता गोपेश
44-46 चौपाल: इलाहाबाद को महिला लेखन कितना समृद्ध
47-49. तब्सेरा: झरते पलाश, होर्डिं का चित्र, महिला ग़ज़ल विशेषांक
50-51. उर्दू अदब: ऐ ज़िन्दगी तुझे सलाम, हसरतें, कल और आएंगे- अख़्तर अज़ीज़
52-53. गुलशन-ए-इलाहाबाद: डाॅ. रंजना त्रिपाठी
54-55.ग़ाज़ीपुर के वीर: बद्रुद्दीन: खेल में ही गंवा दी अपनी जान: मोहम्मद शहाब खान
56-60. अदबी ख़बरें
परिशिष्ट -1: ललिता पाठक ‘नारायणी’
61. ललिता पाठक नारायणी का परिचय
62-63. ललिता नारायणी: संजीदा रचनाकार - अना इलाहाबादी
64-65. मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत रचना- अदिति मिश्रा
66-84. ललिता पाठक नारायणी की कविताएं
परिशिष्ट-2: अतिया नूर
85. अतिया नूर का परिचय
86-87. अतिया की ग़ज़लों में बड़ी रवानी - अख़्तर अज़ीज़
88. अतिया नूर एक बेहतरीन ग़ज़लकारा  - प्रमोद कुमार कुश ‘तनहा’
89-108. अतिया नूर की ग़ज़लें, कविताएं
109-116. कवि और कविता: पंकज के़. सिंह, डाॅ. राकेश कुमार मिश्र ‘तूफ़ान’,  विजय प्रताप सिंह,  शिव कुमार राय




शनिवार, 31 अगस्त 2019

कुछ मिरी मिट्टी में बगावत भी बहुत थी

                               
वीना श्रीवास्तव
                     - वीना श्रीवास्तव 
 साहित्य, संगीत और कला, ये साधनाएं सरहदें नहीं जानती जैसे हवा, बादल, नदियां, सूरज और चांद-तारे सरहद में नहीं बंधें हैं, वैसे ही कलमकारों, रचनाकारों को किसी सरहद में कै़द नहीं किया जा सकता। वो सबके होते हैं। परवीन शाकिर भी पाकिस्तान की ऐसी ही कमाल की शायरा थीं, जिन्होंने अदब की दुनिया में अपनी क़ाबिलियत का लोहा मनवाया। उनका जन्म 24 नवंबर 1952 में कराची में हुआ था। पढ़ने में तेज परवीन ने कराची यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी अदब में एम. ए. करने के बाद पीएचडी भी की। अपने स्कूल के समय से ही उन्हें लिखने का शौक़ था। वो कहती भी थीं कि जब मैं छोटी थी तो लफ़्ज मुझे बहुत फेसिनेट करते थे। मैं उनकी आवाज़, उनका जायक़ा और उनकी खुशबू महसूस कर सकती थी, लेकिन ये महसूसने का सिलसिला बस पढ़ने तक ही महदूद रहा। वो खुद लिख सकती हैं ये एहसास उनकी एक उस्ताद ने कराया। कॉलेज में एक तक़रीर होनी थी और उनकी उस्ताद इरफाना अज़ीज़ ने उनसे लिखने के लिए कहा और उन्होंने जो नज़्म लिखी वो बेहद पसंद की गई। बस, यहीं से शुरू हो गया शायरी का सफ़र जिसने उन्हें बेहतरीन शायरी की बुलंदियों पर बैठा दिया। उनका अंदाजे बयान कुछ अलग ही था। कॉलेज की तक़रीर के लिए लिखी गई नज़्म के चंद शेर-
                    अब भला छोड़के घर क्या करते
                    शाम के वक़्त सफ़र क्या करते
                    तेरी मसरूफियतें जानते हैं
                    अपने आने की ख़बर क्या करते
 परवीन जी बेहद संवेदनशील, भावुक, कामयाब और खूबसूरत शायरा थीं। उनका पहला संग्रह ‘खुशबू’ 1976 में छपा और रातों रात वह मशहूर हो गईं। उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। उनकी बयानीं का अंदाज ही मुख़्तलिफ था। मैंने भी अपने कॉलेज के दिनों में उन्हे पढ़ा और ये ग़ज़ल तो उस समय के कॉलेज छात्र-छात्राओं की पसंदीदा ग़ज़ल हुआ करती थी। उसके बाद तो इसी मिसरे पर कई शायर - शायरात ने भी ग़ज़लें कहीं। मैंने भी कुछ कहने की कोशिश की थी। हम छात्राओं के बीच शायरी की एक मिसाल थीं, हमारा क्रेज थीं-                           पूरा दुख और आधा चांद हिज्र की शब और ऐसा चांद।
          इतने घने बादल के पीछे कितना तन्हा होगा चांद।
          मेरी करवट पर जाग उठे नींद का कितना कच्चा चांद
         सहारा-सहारा भटक रहा है अपने इश्क़ में सच्चा चांद
         रात के शायद एक बजे हैं सोता होगा मेरा चांद
उनकी नज़्म ‘चांद’ भी बहुत पसंद की गई, जिसमें बहुत सरल अल्फाज और सादा ढंग से इतनी गहरी और हम सबके जीवन की भीड़ में भी अकेले होने की बात को इतनी खूबसूरती से बयां किया गया-
                      एक से मुसाफिर हैं
                      एक-सा मुक़द्दर है
                      मैं ज़मीं पर तन्हा
                      और वो आसमानों में
स्त्री होकर खुद स्त्री अपने मन के साथ पूरी नारी जाति के मन को, उसके जीवन, संघर्ष, इश्क़, तड़प, दुख- तकलीफ़ों को बखूबी समझ सकती है। परवीन जी ने भी नारी मन की पग -पग पर मचलने वाली भावनाओं के साथ उसकी सिसकती रूह को भी बखूबी उकेरा है। बेटियों को ख़ासकर अपने पिता से काफी लगाव होता है। परवीन जी को भी अपने पिता से गहरा लगाव था। उनके वालिद का नाम शाकिर हुसैन था। उनका अपने पिता से लगाव का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने नाम के साथ हमेशा शाकिर लगाया। पहले वो ‘बीना’ नाम से लिखा करती थीं। मुझे इस बात से बहुत खुशी और रोमांच होता था कि वीना न सही बीना ही सही मेरे नाम से मिलते-जुलते नाम से उन्होंने लिखा। यूं  लगा कि इतने खूबसूरत कलाम लिखने वाली शायरा का नाम चाहे थोड़ा-सा ही सही मेरे नाम से मिलता है। 
 कहते हैं न कि ईश्वर सबको सब कुछ नहीं देता और देता है तो क़दम-क़दम पर एहसास कराता रहता है कि जिससे कहीं टीस और ख़ालीपन शोर मचाता रहे। परवीन जी की भी जिं़दगी उस कटोरे की तरह थी, जिसे ईश्वर ने उन्हें थमाया तो लेकिन एक सुराख करके जिससे धीरे- धीरे पानी रिस गया और उनका कटोरा ख़ाली रह गया। उनकी शादी डॉ. निसार अली से हुई मगर कामयाब नहीं रही और फिर तलाक़ हो गया। शादी टूटने के साथ वो खुद भी टूट गईं और उनकी शायरी में उनके मन की टूटन, एक तन्हा पत्नी का दर्द झलकता है। बहारें तो आती-जाती रहती हैं मगर शाख़ से जो पत्ता टूट जाता है वो दोबारा उस शाख़ पर नहीं लगता। महबूब को बेपनाह चाहने वाली इस कदर टूटी कि पत्ते की तरह उससे जुदा हो गई- 
                       चेहरा मेरा था निगाहें उसकी
                       ख़ामोशी में भी वो बातें उसकी
                       मेरे चेहरे पर ग़ज़ल लिखती गई
                       शेर कहती हुई बातें उसकी
और टूटे पत्ते का दर्द-
                       बिछड़ा है जो इक बार मिलते नहीं देखा।
                       इस ज़ख़्म को हमने सिलते नहीं देखा ।
                       इस बार जिसे चाट गई धूप की ख्वाहिश
                       फिर उस शाख़ पर फूल खिलते नहीं देखा
और उन्होंने यह भी कहा- 
                      कैसे कह दूं कि मुझे छोड़ दिया है उसने
                      बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की
 उनकी शादी शुदा जिन्दगी को देखें तो एक बात सच नजर आती है कि हर दौर में ऐसे शौहर रहे हैं जिन्हें अपनी बीवी की कामयाबी और खुद से ज्यादा उसकी शोहरत हजम नहीं हुई और फिर उनके बीच जो दीवार खड़ी हुई वो कभी गिर नहीं सकी चाहे दोनों ने एक-दूसरे का सिसकता जीवन सुना हो। यही स्थिति परवीन जी के शौहर के सामने भी आई जब परवीन जी की शोहरत से वो परेशान हो गए। उनका बेटा भी दोनों के बीच का पुल नहीं बन सका। परवीन जी की बुलंदी उनसे कई गुना आगे थी। इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1982 में पाकिस्तान की प्रशासनिक सेवा में से एक सेंट्रल सुपीरियर सर्विसेज की परीक्षा दी तो एक सवाल उन्हीं पर था और इस परीक्षा में दूसरे स्थान पर रहीं। उनके पहले संग्रह ‘खुशबू; के लिए 1976 में ‘अदमीजी; अवार्ड से नवाजा गया। तब उनकी उम्र केवल 24 बरस की थी। उसके बाद उनके कई संग्रह- सद बर्ग, खुद कलमी, इनकार, कफ-ए-आइना, गोशा-ए-चश्म, खुली आंखों का सपना, रहमतों की बारिश, माह-ए-तमाम आदि आए। उन्हें पाकिस्तान का जाना-माना सम्मान ‘प्राइम ऑफ परफॉर्मेंस’ भी दिया गया। उनका अदबी सफ़र बहुत शानदार रहा। इस बात का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चैबीस साल की उम्र में ही उनको अदमीजी सम्मान मिल गया और तीस बरस की होने तक वो पाकिस्तान की पहचान बन चुकी थीं और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी शोहरत पहुंच चुकी थी। कम उम्र में नौकरी और शोहरत ने भी उन्हें सरल रखा। उनकी रचनाएं नारी जीवन के इर्द-गिर्द ही घूमीं। उनकी शायरी के केंद्र में नारी ही रही। उन्होंने प्रेम के साथ धोखा, बेवफाई, जुदाई के दर्द को भी बखूबी उकेरा। उनको दुनिया भर में नारी मन की पीड़ा और एक पत्नी का दर्द क्या होता है जब वो पति होकर भी पति नहीं रहता और पत्नी ये सच जानते हुए भी पत्नी बन जीवन जीती रहती है। कुछ मुख्तलिफ शेर-

                      जान! 
                      मुझे अफसोस है
                      तुमसे मिलने शायद इस हफ्ते भी न आ सकूँगा
                      बड़ी अहम मजबूरी है
                      जान! 
                      तुम्हारी मजबूरी को 
                      अब तो मैं भी समझने लगी हूँ
                      शायद इस हफ्ते भी 
                     तुम्हारे चीफ की बीवी तन्हा होगी
इसलिए वो हर लम्हे को खुलकर जीने और सहेजने की बात करती हैं-
                      लड़की! 
                      ये लम्हे बादल हैं
                      गुजर गए तो हाथ कभी नहीं आएँगे
                      उनके लम्स को पीती जा
                      क़तरा-क़तरा भीगती जा
                      भीगती जा तू, जब तक इनमें नमी है
                      और तेरे अंदर की मिट्टी प्यासी है
                     मुझसे पूंछ कि बारिश को वापस आने का रास्ता
                     न कभी याद हुआ
                     बाल सुखाने के मौसम अनपढ़ होते हैं
                      ------------
                    कुछ तो तिरे मौसम ही मुझे कम रास आए
                    कुछ मिरी मिट्टी में बगावत भी बहुत थी
                       -----------
                   लड़कियों के दुख अजीब होते हैं सुख उससे अजीब
                   हंस रही हैं और काजल भीगता है साथ-साथ
                         ------------
                   वो तो खुशबू है हवाओं में बिखर जाएगा
                   मसअला फूल का है फूल किधर जाएगा
                      ------------
                   क्या करे मेरी मसीहाई भी करने वाला
                   ज़ख़्म ही ये मुझे लगता नहीं भरने वाला
 इतनी शोहरत और कम उम्र में बुलंदियों पर पहुंचने वाली परवीन शाकिर खुदा के पास भी बहुतकम उम्र में चली गईं। इस खूबसूरत और बेहतरीन शायरा ने न केवल पाकिस्तान के अदबी गुलशन को महकाया बल्कि भारत की अदबी फिजा को भी खुशबू से लबरेज कर दिया। उनका इंतकाल एक कार दुर्घटना में 26 दिसंबर 1994 को हो गया। इस रोज खूब बारिश हो रही थी। ऐसा महसूस हो रहा था कि बादल भी उनकी मौत पर अश्कबार हो रहे हैं। मगर वो कहीं नहीं गईं। अपने कलाम, गजलों और नज्मों के साथ वो हमेशा हमारे दिलों में बसी रहेंगी। 
( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2019 अंक में प्रकाशित )

शुक्रवार, 16 अगस्त 2019

दोहा विशेषांक: साहित्य क्षितिज में खिला चांद


                                              - शिवाशंकर पांडेय
                                           
 साहित्य में प्रयोग का सकारात्मक और पुरजोर असर देखना हो तो ‘गुफ़्तगू’ का दोहा विशेषांक देखना मुफीद होगा। सीमित संसाधन के बीच निकलने वाली हिन्दुस्तान साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका गुफ़्तगू ने अपनी लगातार प्रयोगधर्मिता के चलते ही बहुत कम समय में पाठकों के बीच अपनी विशिष्ट पहचान बना ली है। कैलाश गौतम, बेकल उत्साही विशेषांक, महिला विशेषांक, ग़ज़ल विशेषांक, ग़ज़ल व्याकरण विशेषांक आदि इसके खास उदाहरण हैं। बहरहाल, प्रयोग विधा को आगे बढ़ाते हुए गुफ्तगू का मार्च 2019 का ताजा अंक दोहा विशेषांक पर केंद्रित है। दोहा जैसे विषय पर विशेषांक निकालना और उसे समृद्धिवान बना देना काबिल-ए-तारीफ तो हो ही जाता है। इस अंक में परिशिष्ट के रूप में रामचंद्र राजा और राम लखन चैरसिया को शामिल किया गया है। इस अंक में कबीरदास, गोवामी तुलसीदास, रहीम, रसखान, अमीर खुसरो, बिहारी हैं तो दूसरी तरफ बाबा नागार्जुन निदा फाजली, बेकल उत्साही, गोपालदास नीरज, कैलाश गौतम, बुद्धिसेन शर्मा, बुद्धिनाथ मिश्र, यश मालवीय, अशोक अंजुम, हस्ती मल हस्ती, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी से लेकर पुष्पलता शर्मा, अंजलि सिफर, पीयूष मिश्र, देवी नागरानी, अमन चांदपुरी, विकास भारद्वाज, सोनिया वर्मा जैसे नये नवेले किन्तु काबिल रचनाकार तक के दोहों को पाठकों से परिचित कराया गया है। इसमें तो कई ऐसे रचनाकार हैं जो एकदम नये तो हैं पर सशक्त हस्ताक्षर के रूप में उभर के सामने आये हैं। कहा जा सकता है कि नये-पुराने रचनाकारों का बेहतर प्लेटफार्म भी बन गयी है। हरे राम समीप का साक्षात्कार, शिल्प ज्ञान में डाॅ. बिपिन पाण्डेय और गुलशन-ए- इलाहाबाद में नीलकान्त के अलावा तब्सेरा, चैपाल जैसे स्तम्भ अपनी अलग छवि छोड़ते हैं। सालेहा सिद्दीकी का लेख उर्दू शायरी में दोहे का चलन, डाॅ. विभा माधवी का आलेख, दोहाः प्राचीन काल से आधुनिक काल तक, पवन कुमार का लेख हिन्दी और अन्य भाषाओं में दोहा की स्वीकार्यता, प्रिया श्रीवास्तव ‘दिव्यम’् की दोहे के जरिए मानवता की बात, डाॅ. अनुराधा चंदेल ‘ओस’ की कवि रामचन्द्र राजाः बसू संगम तीर, शिवाशंकर पांडेय, भोला नाथ कुशवाहा की रोशनी डालती टिप्पणी भी गुफ़्तगू को पठनीय और संग्रहणीय दोनों की कैटेगरी में ला देते हैं। 136 पेज के इस विशेषांक की कीमत मात्र 30 रुपये है।
( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2019 अंक में प्रकाशित )

मंगलवार, 30 जुलाई 2019

समाज के लिए समर्पित हैं डाॅ. कृष्णा मुखर्जी

डाॅ. कृष्णा मुखर्जी


                                                         - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
 20 सितंबर 1941 को कोलकाता में जन्मी डाॅ. कृष्णा मुखर्जी चिकित्सा और समाज सेवा में किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं, वे प्रयागराज के सोहबतिया बाग मुहल्ले में रहती हैं। उन्होंने अपनी चिकित्सीय सेवा से एक अलग मुकाम बनाया है। आपने आगरा से एमबीबीएस, लंदन से एम.एस., यूएसए से एफएसीएस. और वियना से एमएसएच किया। लंदन में एसोसिएट मेम्बर आॅफ रायल कालेज रही हैं। सन 2000 से वर्तमान समय तक कमला नेहरु मेमोरियल अस्पताल में चिकित्सा अधीक्षक और चीफ कन्सल्टेंट हैं। 1968 से 2000 तक मोती लाल नेहरु मेडिकल काॅलेज, इलाहाबाद में स्त्री रोग एवं प्रसूति विभाग की विभागाध्यक्ष और प्रधानाचार्य रही हैं। आज भी आपको पढ़ाने की विशेष रुचि है, इसीलिए एमबीबीएस, एमएस और डीएनबी के छात्र-छात्राओं को पढ़ाती हैं। बांझ औरतों के इलाज के तहत इन विट्रोर्फार्टलाइजेशन/आईवीएफ और लोप्रोस्कोपिक सर्जरी एवं कैंसर सर्जरी के लिए आप एक दक्ष शल्यक हैं और कई शोध कार्य किया है। इनके काम को देश-विदेश की गोष्ठियों में और अंतरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय जर्नलों में प्रस्तुत किया गया है। 
 आप 1991 से 1993 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय और फ़ैज़ाबाद विश्वविद्यालय में सदस्य एकेडमिक काउंसिल, 1991 से 1994 तक आनरेरी कन्सटेंट फैमिली प्लानिंग एसी आॅफ इंडिया और डिविजनल अस्पताल उत्तर भारत रेलवे इलाहाबाद मंडल रही हैं। इंडियन काॅलेज आॅफ आब्सेट्रेटिक व गाइनकोलाॅजी, नेशनल एसोसिएशन आॅफ वालेंट्री स्टरिलाइजेशन एवं फैमिली वेलफेयर गवर्निंग काउंसिल सदस्य रही हैं। 1996 से 1997 तक एसोसिएशन आॅफ आॅन्कोलोजिकल आॅफ इंडिया की उपाघ्यक्ष रहीं हैं। फेडरेशन आॅफ आब्सट्रेटिक व गाइनोकोजिकल सोसाइटी की अध्यक्ष, अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन की उत्तर प्रदेश महिला समिति की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन के प्रांतीय अलंकरण समिति की अध्यक्ष रही हैं।
 डाॅ. कृष्णा मुखर्जी की अब तक एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें स्वास्थ्य ही जीवन, कैंसर से कैसे बचें, सुरक्षित मातृत्व की तैयारी, कुछ परिचर्चा स्वास्थ्य संबंधी, मातृत्व एक सुखद अहसास, भारतीय संस्कृति एवं एड्स, गर्भकाल एवं प्रसव संबंधित आवश्यक जानकारियां, एड्स सिनरियो इन इंडिया एंव भारतीय संस्कृति, एवरनेस आॅफ कैंसर, रिव्यू आॅफ गाइनोकोलाॅजी, ए हैंडबुक आॅफ गाइनोकोलाॅजी, भारतीय संस्कति-मधुमेह तथा अन्य पद्धतियों से इसका इलाज और आपातकालीन विपत्तियों का समाधान एवं बचाव आदि शामिल हैं। पत्रिकाओं और अख़बारों में स्वास्थ्य संबंधी लेख प्रायः प्रकाशित होते रहते हैं।
 सन् 2000 से ‘आसरा’ केयर प्रोजक्ट से जुड़कर मलिन बस्तियों में समय-समय पर मुफ्त मेडिकल कैम्प में मरीजों को स्वास्थ्य सेवा, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता की जानकारी, परिवार नियोजन, टीकाकरण करवाती हैं। साथ ही ‘आशा तथा बेसिक हेल्थ वर्कर’ द्वारा बस्तियों को साफ़ सुथरा रखना, हरी सब्जियां उगवाना, स्वच्छ पीने के पानी की उपलब्ध करवाना, महिलाओं को विभिन्न प्रकार की ट्रेनिंग जैसे सिलाई, लाख का सामान बनवाना, बेत-बांस का सामान बनवाने का प्रशिक्षण करवाकर रोजगार के लिए सक्षम करवाती है।
 अब तक आपको ‘डाॅ. बीसी राय नेशनल एवार्ड फाॅर ऐनीमेन्ट’, 1995 में परिवार कल्याण मंत्रालय दिल्ली से ‘कुछ परिचर्चा स्वास्थ्य संबंधी’ पुस्तक पर 25000 रुपये का नगद पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से ‘सौहार्द सम्मान’, ‘कैंसर से कैसे बचें’ और ‘सुरक्षित मातृत्व की तैयारी’ नामक पुस्तकों पर स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा नगद पुरस्कार, ‘साहित्य महोपाध्याय’, ‘मदर मेटेसा एवार्ड’, ‘सुमन चतुर्वेदी पुरस्कार’, ‘भारत भूषण सम्मान’ समेत अनके पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। आज भी आप समाज सेवा से तत्परता से जुड़ी हुई हैं।  
 
(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून: 2019 अंक में प्रकाशित )

शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

राष्ट्रवाद के प्रेरणास्रोत डॉ. मुख़्तार अंसारी

डॉ. मुख़्तार अंसारी
                                                          - मुहम्मद शहाबुद्दीन ख़ान
                                  
  डॉ. मुख़्तार अहमद अंसारी महान देशभक्त और चिकित्सक थे, उनके कार्य आज भी हमारे के लिए प्रेरणास्रोत हैं। वे भारत की आज़ादी के आंदोलन के प्रति जागरूक थे। इंग्लैंड में पढ़ाई और चिकित्सा सेवा के बाद दिल्ली आते ही वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के सदस्य बन गए। उनके अच्छे दोस्तों में सुप्रसिद्ध शायर डॉ. अल्लामा इक़बाल भी थे। सन 1933 में गांधी जी ने पूना में एक आमरण अनशन किया, जिसमें 21 दिन उपवास पर रहे, गांधी जी की जब हालात बिगड़ने लगे तो उन्होंने एक तार डॉ. अंसारी को भेजा। मेरी ख्वाइश है, मैं अपनी आखिरी सांस डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी के गोद लूं। डाॅ. अंसारी गांधी जी के पास चले गए, और उनका उपवास तुड़वाकर इलाज किया। गांधी जी डॉ. अंसारी के घनिष्ठ मित्रों हो गए थे, गांधी जी जब उनके दिल्ली स्थित दारुल सलाम घर में ठहरा करते। उन पर मौलाना मुहम्मद अली का भी बहुत प्रभाव था। यही कारण है डॉ. अंसारी 1912-13 में हुए जंग-ए-बालकन में खलिाफत उस्मानिया के समर्थन में रेड क्रिसेंट के बैनर तले मेडिकल टीम की नुमाईंदगी की। जिसमें उनके साथ मौलाना मोहम्मद अली जौहर, चैधरी खलिकुजमा, अब्दुर्रहमान बिजनौरी आदि शामिल थे। चूंकि मिलिट्री मदद करने पर अंग्रेजों ने पाबंदी लगा दी थी, इसलिए डॉ. अंसारी ने 25 डॉक्टरों की टीम बनाई। यह टीम जब लखनऊ की चारबाग स्टेशन से गुजरी तो प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान मौलाना शिबली नोमानी ने अंसारी की शान में एक नज़्म पढ़ी। डाक्टरों की टीम का यह मिशन 7 माह तक चला, इसके मिशन से वापसी के समय 10 जुलाई 1913 की शाम को दिल्ली स्टेशन पर 30 हजार से अधिक लोगों की भीड़ डॉ. अंसारी और उनके साथियों के स्वागत के लिए खड़ी थी। इस काम के लिए डॉ. मुख़्तार अहमद अंसारी को ‘तमगा-ए-उस्मानिया’ से नवाजा गया था। ये अवार्ड फौजी कारनामों के लिए उस्मानी सल्तनत द्वारा दिया जाता था। उसके बाद हिन्दुसतान में रेड क्रॉस सोसाईटी 1920 में वजूद में आई। 
 डॉ. अंसारी ने उस्मानिया सल्तनत के समर्थन में 1912 में ही रेड क्रिसेंट सोसाईटी को अपनी सेवाएं देनी शुरू कर दी थी। उनके इस मिशन को मुस्लिम नेताओं ने संगठित किया था, इसने भारत के नेताओं के लिये रास्ता खोल दिया कि वे अतंरराष्ट्रीय स्तर पर अपना पक्ष रख सकें, जिससे दुनिया के नक्शे में भारत को स्थापित किया जा सके। जिसका पहला असर दिसम्बर 1915 में काबुल में बनी आरजी हुकूमत के तौर पर देखा गया, जिसमें राजा महेंद्र प्रताप राष्ट्रपति बने और मौलवी बरकतुल्लाह भोपाली प्रधानमंत्री और इस आरजी हुकूमत को तुर्की सरकार ने मान्यता दी।
 सन 1918 में दिल्ली में होने वाले मुस्लिम लीग के सालाना अधिवेशन में उन्होंने अध्यक्ष पद संभाला। उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में खिलाफत का पक्ष लिया और पूर्ण स्वतंत्रता की मांग पर बिना शर्त सहयोग का वायदा किया, सरकार ने इसे गैर-क़ानूनी माना। सन 1920 में एक बार फिर से वह ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के नागपुर अधिवेश के अध्यक्ष बने और वहां पर उसी समय मद्रास के विजय राघवा चरियार की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा ऑल इंडिया खिलाफत कमेटी के लोगों से मिले, जिसके अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद थे। तीन संगठनों का संयुक्त अधिवेशन हुआ। सन 1927 ई. में महात्मा गांधी ने अपने एक भाषण में डॉ. अंसारी को हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक बताया। उन्होंने असहयोग आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। उन्होंने बनारस में राष्ट्रवादी विश्वविद्यालय काशी विद्यापीठ और दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया स्थापित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। 10 फरवरी सन 1920 को काशी विद्यापीठ की स्थापना हुई एवं 29 अक्टूबर 1920 को अलीगढ में जामिया मिल्लिया इस्लामिया की स्थापना हुई। डॉ. अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया की फाउंडेशन समिति के सदस्य और संस्थापकों में से एक थे। वे आजीवन उसके संरक्षक रहे। सन 1925 में जामिया को अलीगढ़ से दिल्ली लाया गया, यहां तिब्बिया कॉलेज के पास बीडनपुरा, करोलबाग में बसाया गया। हकीम अजमल खां की मृत्यु के बाद वह जामिया मिल्लिया के आजीवन कुलपति रहे। डॉ. अंसारी जीवनभर कांग्रेस कार्य-समिति के सदस्य रहे। सन 1920, 1922, 1926, 1929, 1931 तथा 1932 में वह इसके महासचिव थे तथा सन 1927 ई. में 42वें कांग्रेस अधिवेशन के सभापति हुए। 1928 ई. में लखनऊ में होने वाले सर्वदलीय सम्मेलन का इन्होंने सभापतित्व किया था और नेहरू रिपोर्ट का समर्थन किया। 
 डॉक्टर अंसारी के प्रयास से ही 1934 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद और जिन्ना में बातचीत हुई, लेकिन वो प्रयास विफल रहा। इससे डॉक्टर अंसारी को धक्का लगा। वो जिन्ना से नाराज थे। उनकी सेहत गिर रही थी। इस कारण भी उन्होंने कांग्रेस के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया। उन्हें फुरसत के कुछ पल मिले तो एक अंग्रेजी किताब ‘रीजंनरेशन ऑफ मैन’ लिखी। दूसरी तरफ जामिया मिल्लिया इस्लामिया पर वे ध्यान देने लगे। उन्हीं का फैसला था कि ओखला में जामिया को बसाया जाए। वर्तमान जामिया की परिकल्पना उन्होंने ही की थी। जमीनें भी उन्होंने ही खरीदीं। इस वजह से साठ हजार का कर्ज हो गया। हकीम अजमल खां, अब्दुल मजीद ख़्वाजा और डॉ. अंसारी ने पूरे भारत का दौरा कर चंदा इकठ्ठा किया और एक मार्च 1935 को ओखला में जामिया की बुनियाद रखी गई। बुनियाद का पत्थर सबसे कम उम्र के विद्यार्थी अब्दुल अजीज से रखवाया गया। इससे पहले जामिया मिल्लिया (1920-25) तक अलीगढ़ में कायम था। डॉ. अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया के अमीर-ए-जामिया (कुलाधिपति) रहे और डॉक्टर जाकिर हुसैन को कुलपति बनाया। वर्तमान जामिया मिल्लिया इस्लामिया फाउंडेशन कमेटी के 18 सदस्यों में दो लोग गाजीपुर से है। जिनका नाम डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी एवं डॉ. सईद महमूद जो सैदपुर भीतरी गांव के रहने वाले थे। 
 डाॅ. अंसारी का जन्म 25 दिसम्बर 1880 को उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के युसूफपुर में एक अंसारी परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम हाजी अब्दुर्रहमान बलिया स्थित रसड़ा तहसील में सदर अमीन थे। मां शमसुन निसा बेगम गृहणी थीं। सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक (1325-1351) के दौर में डॉ. अंसारी के पूर्वज भारत आएं, कस्बा मोहम्मदाबाद में काजी बनाए गए, तभी से यह घराना काजी घराना कहलाता है। इनके पूर्वज ने अपने भतीजे/दामाद यूसुफ अंसारी के नाम पर यूसुफपुर गांव बसाया था। सन 1896 में उन्होंने विक्टोरिया हाईस्कूल, गाजीपुर से मैट्रिक एवं इलाहाबाद से इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद डॉ. अंसारी ने मद्रास मेडिकल कालेज में शिक्षा ग्रहण की और निजाम स्टेट द्वारा मिले छात्रवृत्ति पर आगे की पढाई के लिए इंग्लैंड चले गए। सन 1905 में अंसारी ने वहां एमडी और एमएस की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद लंदन के लाक अस्पताल में कुलसचिव बने। इस चयन पर कुछ नस्लवादी अंग्रेजों ने बहुत हो-हल्ला मचाया। तब मेडिकल काउंसिल ने स्पष्टीकरण दिया कि उनका चयन योग्यता के आधार पर किया गया है। फिर लंदन के चारिंग क्रॉस अस्पताल में हाउस सर्जन के रूप में नियुक्त हुए। उनकी उल्लेखनीय सेवा के कारण चरिंग क्रॉस हास्पिटल के एक वार्ड का नाम अंसारी रोगी कक्ष रखा गया, जो आज भी कायम है। लंदन में ही वे मोतीलाल नेहरु, हकीम अजमल खान और जवाहरलाल नेहरू से मिले और इन सबसे घनिष्ठ मित्रता हो गई। डॉ. मुख्तार अंसारी 1910 में हिंदुस्तान लौट आएं। हैदराबाद तथा अपने गृहनगर यूसुफपुर में थोड़े समय तक रहने के बाद उन्होंने दिल्ली में फतेहपुरी मस्जिद के पास दवाखाना खोला और मोरीगेट के निकट अपना निवास बनाया। 
 रामपुर के नवाब के निमंत्रण पर एक मरीज को देखने दिल्ली से मसूरी गये हुए थे। लौटते समय लक्सर स्टेशन के समीप 10 मई 1936 की रात डॉ. अंसारी को दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया, जामिया नगर के जामिया मिल्लिया कब्रिस्तान में दफनाया गया। उनके निधन पर महात्मा गांधी ने कहा कि शायद ही किसी मृत्यु ने इतना विचलित और उदास किया हो जितना डॉ. मुख़्तार की मौत ने किया है। डॉक्टर अंसारी के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष में भारत सरकार ने राष्ट्र के प्रति इनकी महत्वपूर्ण सेवाओं को देखते हुए डाक विभाग द्वारा 35 पैसे का एक डाक टिकट, प्रथम दिवस आवरण एवं सूचना पत्र जारी किया गया। डॉ. अंसारी के नाम पर गाजीपुर जिला चिकित्सालय एवं दिल्ली में डॉ. अंसारी रोड है। 
                                             ( गुफ़्तगू के अप्रैल- जून 2019 अंक में प्रकाशित )

गुरुवार, 18 जुलाई 2019

आमजन का चित्रण करता है आज का दोहा


हरेराम समीप से बातचीत करते डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव

 13 अगस्त 1951 में मध्य प्रदेश के ग्राम मेख जिला नरसिंहपुर में जन्मे हरेराम नेमा ’समीप’ जाने माने साहित्यकार हैं। इन्हें  हरियाणा साहित्य अकादमी से राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त विशिष्ट पुरस्कार मिल चुका है। वाणिज्य एवं विधि से स्नातक हरेराम समीप ने दोहा और ग़ज़ल साहित्य पर शोध कार्य भी किया है। उनके प्रकाशित मुख्य दोहा संग्रहों में ‘साथ चलेगा कौन’, ‘जैसे’, ‘चलो एक चिट्ठी लिखें’, ‘आंखें खोलो पार्थ’ हैं तो गजल संग्रह में ‘हवा से भीगते हुए’, ‘आंधियों के दौर में’, ‘कुछ तो बोलो’, ‘किसे नहीं मालूम’, ‘इस समय हम’ आदि सम्मिलित हैं। उनका एक बहुत ही चर्चित कविता संग्रह ’मैं अयोध्या’ एवं कहानी संग्रह ‘समय से पहले’ भी प्रकाशित हैं। समकालीन हिन्दी ग़ज़लकारों पर आलोचना भी तीन खंडों में प्रकाशित है। उन्होंने समकालीन दोहा कोश, समकालीन महिला ग़ज़लकार, कथाभाषा त्रैमासिक पत्रिका आदि का संपादन तथा निष्पक्ष भारती, मसिकागद पत्रिकाओं में अतिथि-संपादन भी किया। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग के लिए उन्होंने नोबल पुरस्कार विजेता लेखकों के अनेक लेखों का अनुवाद कार्य और चर्चित दूरदर्शन धारावाहिक ’नक्षत्रस्वामी’ के लिए पटकथा व गीत लेखन भी किया। पिछले दिनों नई दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव ने उनका साक्षात्कार लिया। फोटोग्राफी प्रियंका प्रिया ने की।           


प्रश्न: अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में हमारे पाठकों को बताइए ?
उत्तर: मैं मध्यप्रदेश के एक बेहद पिछड़े गांव मेख में 13 अगस्त 1951 को एक सामान्य किसान परिवार में पैदा हुआ। मेरे पिता आज़ादी की लड़ाई के सिपाही और विद्रोही वक्ता थे। बचपन से ही उन्होंने मेरी रचनात्मक दृष्टि और विवेक को प्रखरता प्रदान की और मुझे जीवन को समझने की वह प्रविधि दी जो बाद में लेखन के माध्यम से मुझमें अभिव्यक्ति पाने लगी। दरअसल, बचपन में मैंने अपने घर, गांव और अपने इर्द-गिर्द इतना दुःख, गरीबी, अभाव और सत्ता की ऐसी-ऐसी क्रूरताएं देखी हैं कि मैं विद्रोही स्वभाव का हो गया हूं। छात्र आंदोलन किए और लेख, कविताएं, गीत, ग़जलें और दोहे लिखे फिर औद्योगिक नगर फरीदाबाद आकर श्रमिक-आंदोलनों में भाग लिया, जिसका शतांश भी अभी तक नहीं लिख पाया हूं।

प्रश्न 2 अपनी रचना यात्रा के बारे में संक्षेप में हमारे पाठकों को बताएं ?
उत्तर: सन् 1971 से कविता लेखन और पत्रकारिता के दौरान ग़ज़लें, दोहे, कविताएं और कहानियां तथा आलोचना की, मेरी 16 किताबें अब तक प्रकाशित हो गई हैं।

प्रश्न 3. वर्तमान में दोहा अपनी भाव भंगिमा और प्रस्तुतीकरण में प्राचीन काल से किस तरह भिन्न है?
उत्तर: हिन्दी काव्य में दोहा छन्द अपनी भाव-भंगिमा और प्रस्तुतीकरण में प्राचीनकाल से आज तक निरंतर अपने समय का साक्षी बनकर विद्यमान रहा है। ये दोहे हमारे साहित्य और लोकजीवन के अक्षुण्ण अंग बनकर, हमारी संस्कृति में रच बस गए हैं। परम्परागत दोहों से आधुनिक दोहा का सौन्दर्यबोध बदला है। अध्यात्म, भक्ति और नीतिपरक दोहों के स्थान पर अब वह उस आमजन का चित्रण करता है, जो उपेक्षित है, शोषित है, बेबस है। इस समूह के दोहे अपने नए अंदाज में तीव्र व आक्रामक तेवर लिए हुए हैं। अतः जो भिन्नता है वह समय सापेक्ष है। इसमें आस्वाद का अंतर प्रमुखता से उभरा है। इन दोहों में आज का युगसत्य और युगबोध पूरी तरह प्रतिबिम्बित हो रहा है।

प्रश्न 4. क्या कारण है कि एक प्राचीन छन्द होते हुए भी दोहा वर्तमान में बहुत अधिक लोकप्रिय है?
उत्तर: पिछले डेढ़ हजार साल से दोहा कभी अलोकप्रिय नहीं हुआ है। आज इसकी बढ़ती लोकप्रियता का मुख्य कारण एक तो सूचनातंत्र का विस्तार है और दूसरा महत्वपूर्ण कारण इसकी सहज ग्राह्यता है। वर्तमान जीवन की उथल-पुथल व जद्दोजहद को दोहा अधिक जीवंतता से प्रस्तुत कर रहा है। यह दोहा, जीवन की गहरी अनुभूति, संवेदना और यथार्थबोध की ताजा फसल के रूप में आ रहा है। इसमें आधुनिक भावबोध की प्रस्तुति बेहद प्रभावी अंदाज़ में हो रही है। इन दोहों में व्यक्त संवेदनाएं हमें यथार्थ से जोड़ती हैं। आज का दोहा जब हमारे आसपास उपस्थित अंधेरे को और अपने समय में उपस्थित गलत समय को शिद्दत से उजागर करेगा तो लोकप्रिय तो होगा ही।

प्रश्न 5. जन सरोकारों की दृष्टि से दोहों की उपयोगिता कितनी महत्वपूर्ण है?
उत्तर: अमानवीय शोषण पर टिकी सत्ता की इन शातिर पैंतरेबाजी से सचेत करते, असहमति जताते इन दोहों को जब आप देखेंगे तो पूरा समकालीन परिदृश्य आपके सामने स्पष्ट होता जाएगा। यही है जनता की ओर दोहों की यात्रा। मुझे लगता है कि आज दोहा व्यवस्था-परिवर्तन के लिए संघर्ष का उद्घोष कर रहा है और वह जनता की बात अगर जनता की भाषा में कर रहा है, तो इससे अधिक इसकी उपयोगिता और क्या होगी।

प्रश्न 6. सामाजिक विद्रूपताओं की अभिव्यक्ति के लिए दोहा व्यंग्य का सहारा लेकर चल रहा है क्या आप इससे सहमत हैं?
उत्तर: मैं बिल्कुल सहमत हूं। इस संवेदनहीन, आत्मरत और निष्ठुर वक्त में व्यंग्य ही लेखन की सबसे प्रभावशाली प्रविधि है। आजकल लगभग सभी विधाओं में व्यंग्य एक स्थायी माध्यम की तरह प्रयोग किया जा रहा है। फिर कबीर की परम्परा से जुड़ा हुआ दोहा ऐसे समय में व्यंग्यतत्व का प्रयोग करने में पीछे क्यों रहता। 

प्रश्न 7. दोहा लिखते समय क्या सावधानी बरतनी चाहिए?
उत्तर:दोहा एक मात्रिक छन्द है। इसका अपना एक अनुशासन है, जिसका पालन अवश्य होना चाहिए।

प्रश्न 8. दोहा-सृजन में देशज शब्दों का प्रयोग कितना उचित है?
उत्तर: भाषाई संकीर्णता के लिए दोहे में कभी कोई जगह नहीं होती। दोहों में प्रयुक्त देशज या अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्द दोहे की अर्थव्यंजना में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि कर देते हैं। लेकिन अक्सर देखा गया है कि देशज शब्दों का फैशन की तरह अतिशय प्रयोग दोहे की सम्पे्रषणीयता को बाधित करने लगता है। अतः इनका प्रयोग कुशलता से किया जाना चाहिए। 

प्रश्न 9. क्या वजह है कि हिन्दी की विधा होते हुए भी पाकिस्तान में भी दोहे खूब लिखे जा रहे हैं?
उत्तर: दरअसल दोहा एक सामथ्र्यवान मुक्तक छन्द है, जो हर कवि को आकर्षित करता है। फिर यह उर्दू ग़ज़ल की इकाई अर्थात ‘शेर’ से भी बहुत मिलता-जुलता है। अतः प्रत्येक शायर ने ग़ज़लों के साथ जब दोहे लिखे तो ये खूब प्रचलित हुए। आज दोहा अनेक भारतीय भाषाओं में ही नहीं पाकिस्तान, नेपाल और मौरीशस आदि अनेक एशियन देशों में लोकप्रिय हो रहा है।

प्रश्न 10: हिन्दी दोहों पर हाल ही में जो काम हुए हैं क्या उनकी कुछ जानकारी दे पाएंगे?
उत्तर: इस समय वरिष्ठ, युवा और तरुण दोहाकारों की तीन पीढ़ियां एक साथ दोहा लेखन में संलग्न हैं, जिसमें लगभग एक हजार दोहाकारों की सूची तो मेरे ही पास है। पिछले दिनों ‘समकालीन दोहाकोश’ का संपादन करते हुए मेरे सामने चयन की समस्या खड़ी हो गई थी, तब यही सोचा गया कि शीघ्र ही इसका दूसरा खण्ड तैयार किया जाए। अनेक पत्रिकाओं के दोहा विशेषांकों तथा समवेत संकलनों और उनमें लिखी संपादकीय भूमिकाओं ने आधुनिक दोहे को परिभाषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उम्मीद है कि ‘गुफ्तग’ू के इस दोहा विशेषांक से भी दोहा लेखन और समृद्ध होगा।

प्रश्न 11. काव्य विधा में गेयता का कितना महत्व है ?
उत्तर: गेयता कविता की पूर्णता मानी जाती है। प्राचीनकाल से अब तक वही कविताएं लोकजीवन का अंग बन पाई हैं जिनमें गेय तत्व विद्यमान रहा। यद्यपि आज की गद्य कविता की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ने काव्यपाठकों को दुविधा में डाल दिया है किन्तु लोकप्रिय काव्य गेय ही है। अतः कविता में गेयता का महत्व कभी कम नहीं होगा। 

प्रश्न 12. क्या ऐसा नहीं लगता कि छंदमुक्त कविता ने हर तीसरे आदमी को कवि तो बना दिया है, लेकिन पाठकों की संख्या लगातार कम हो रही है ?
उत्तर: नहीं भाई मुझे ऐसा नहीं लगता कि कवि बढ़ रहे हैं, लेकिन कविता के पाठक कम हो रहे हैं। इस पर बहस हो सकती है। सच यह है कि कविता के ग्राहक को किताब के अतिरिक्त अनेक साधन उपलब्ध हो रहे हैं-ई बुक्स, सोशल मीडिया, यूट्ब, इंटरनेट आदि के जरिए कहीं न कहीं वह कविता से जुड़ ही रहा है। दोहे का प्रसार भी इससे अछूता नहीं है। 

प्रश्न 13. काव्य की अन्य विधाओं के मुकाबले दोहे की कितनी प्रासंगिकता है ?
उत्तर: किसी भी विधा का भविष्य या उसकी प्रासंगिकता उसकी जीवन के प्रति दृष्टि और समय के साथ उसकी गतिमयता ही निर्धारित करती है। दोहा ने लगभग डेढ़ हजार सालों से बार-बार यह साबित किया है कि उसे अपने समय के साथ चलना आता है। रासो, अध्यात्म, भक्ति,प्रेम, श्रंगार, नीति, राष्ट्रीय चेतना, साम्प्रदायिक सामंजस्य और अब यथार्थ की मुखर अभिव्यक्ति-यात्रा करते हुए उसने  अपने सामथ्र्य की असीम संभावना के प्रति हमें आश्वस्त कर दिया है। आज जो दोहे की लोकप्रियता के नए क्षितिज खुल रहे हैं, ये उसकी अंतर्शक्ति का प्रमाण हैं। अतः दोहे की प्रसंगिकता निर्विवाद है। काव्य की अन्य विधाओं से दोहे का कोई मुकाबला नहीं है इसीलिये मुक्त गगन में आज दोहा छन्द साहित्य के नए क्षितिज तलाशने हेतु नई उड़ान पर निकला है। 

प्रश्न 14ः दोहा और ग़ज़ल, कदाचित ये दोनों साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधाएं हैं। इनके आपसी संबंधों को आप किस प्रकार देखते हैं? क्या उर्दू और हिन्दी भाषा की दृष्टि से इनमें कोई उल्लेखनीय अंतर है?
उत्तर: शेर और दोहा दो मुक्तक छंद हैं और स्वतंत्र रूप से उद्धृत किए जाते हैं। शेर और दोहा दो-दो पंक्तियों में आबद्ध होते हैं, जिनमें दोनों ही पंक्तियों की लय एक समान होती है। गेयता दोनों का ही गुण है। विशेष बात यह भी है कि दोनों की भावसंप्रेषण क्षमता अतुलनीय है। अंतर केवल यह है कि शेर अनेक बहरों में कहा जाकर ग़ज़ल में निबद्ध हो सकता है, जबकि दोहा सदैव मुक्त रहता है। यही तत्व हैं जो शायर को दोहे की तरफ और कवि को शेर की ओर आकर्षित करते हैं। 
  
प्रश्न 15 आप नए रचनाकारों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
उत्तर : वास्तव में नए रचनाकार नए साहित्य के निर्माता होते हैं, अपने समय के प्रतिनिधि होते हैं। उन्हें अपने समय की सार्थकता तलाशनी है, अपने अतीत की समीक्षा करनी है, अपने वर्तमान की व्याख्या करनी है और अपने बेहतर भविष्य को प्रस्तावित करना है। इसके लिए उनमें स्पष्ट जीवन-दृष्टि होनी जरूरी है। उन्हें सोचना चाहिए कि आज वे ढेर सारा लिखने के बाद भी क्यों कोई विजन नहीं बना पा रहे हैं। कहीं शायद वे बाजार के दबाव में सतही उपलब्धियों में अपनी उर्जा तो नष्ट नहीं कर रहे हैं या फिर पुरस्कारों व प्रशस्तियों के जुगाड़ में लगे हैं। उन्हें जानना होगा कि क्यों उनका अधिकांश लेखन अप्रासंगिक और व्यर्थ हो रहा है। उन्हें समझना होगा कि यदि समय की संवेदनात्मक अनुभूति उसके पास नहीं है तो वह कैसे कुछ सार्थक व प्रभावी लिख पाऐंगे?

( गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च: 2019 अंक में प्रकाशित )

सोमवार, 24 जून 2019

नंदल के परिवार की आर्थिक मदद की जाए


गुफ़्तगू की ओर से ‘नंदल हितैषी को श्रद्धांजलि’ का आयोजन
इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी


मनमोहन सिंह ‘तन्हा’

प्रयागराज। नंदल हितैषी के निधन से इलाहाबाद के साहित्य को बड़ी क्षति हुई है। नगर की कई संस्थाएं उनकी याद में कार्यक्रम करके उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर रही हैं, यह अच्छी बात है, लेकिन इससे उनके परिवार को क्या लाभ ? इसलिए हम सभी रचनाकारों को चाहिए कि किसी भी साहित्यकार केे निधन हो जाने पर सभी लोग मिलकर उनके परिवार को आर्थिक मदद पहुंचाएं तो ज्यादा बेहतर होगा। यह बात गुफ़्तगू संस्था के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने 16 जून की शाम करैली स्थित अदब घर ‘नंदल हितैषी को श्रद्धांजलि’ कार्यक्रम के अंतर्गत कही। श्री ग़ाज़ी ने कहा हम रचनाकारों को चाहिए कि विकास प्राधिकरण जैसी संस्थाओं से मिलकर ‘साहित्यपुरम’ या ‘कविपुरम’ जैसी काॅलोनी बनाने की मांग करें। यह काॅलोनी साहित्यकारों को कम कीमत पर उपलब्ध कराई और रचनाकार के निधन होने पर उनके परिवार इस काॅलोनी में फ्री में आवास प्रदान की जाए।
नायाब बलियावी ने कहा नंदल जी हर रचनाकार की हौसला अफज़ाई करते थे और सभी लोगों ने मित्रतापूर्वक मिलते थे, उनके लेखनी और काम को भुलाया नहीं जा सकता।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे बुद्धिसेन शर्मा ने कहा कि नंदल हितैषी एक सक्रिय साहित्यकार थे,  उन्होंने अपनी लेखनी और व्यवहार से लोगों को एक साथ जोड़ेन का काम किया है, उनकी लेखनी और काम को कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस मौके पर अजीत शर्मा आकाश, शिवजी यादव, केशव सक्सेना, फ़रमूद इलाहाबादी, एसपी श्रीवास्तव, तलब जौनपुरी, राम लखन चैरसिया, प्रीता वाजपेयी, ललिता नारायणी पाठक, कविता उपाध्याय, नंदिता श्रीवास्तव, उवर्शी उपाध्याय, असद ग़ाज़ीपुरी, सुनील दानिश, खुर्शीद हसन, सेलाल इलाहाबादी, इजलाल अहमद आदि मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह ‘तन्हा’ ने किया।