रविवार, 26 जून 2016

गुलशन-ए-इलाहाबाद : प्रो. नईमुर्रहमान फ़ारूक़ी

                                                           
                                         
                                                                                        - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
प्रो. नईमुर्रहमान फ़ारूक़ी वर्तमान समय में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आधुनिक और मध्य कालीन इतिहास विभाग में प्रोफे़सर हैं। इसके साथ ही 12 अक्तूबर 2010 से 24 जनवरी 2011 और फिर 27 जुलाई 2014 से 13 अगस्त 2015 तक इलाहाबाद विश्वविद्याल के कुलपति रहे हैं। अंग्रेज़ी, हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी और तुर्की भाषाओं के अच्छे जानकार प्रो. फ़ारूक़ी उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अलावा अमेरिका से शिक्षा ग्रहण किया है। वर्तमान समय में विश्व स्तर के जाने-माने इतिहासकार हैं। 14 अगस्त 1950 को जन्मे प्रो. फ़ारूक़ी ने 1969 में इलाहाबाद विश्वविद्याल से अंग्रेज़ी साहित्य, उर्दू साहित्य और इतिहास विषय से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की, इसी वर्ष इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने वेस्ट मुस्लिम छात्र होने के नाते ‘इक़बाल गोल्ड मेडल’ एवार्ड से नवाजा। 1971 में इलाहाबाद विश्वविद्याल से ही इतिहास विषय में प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की। 1986 में अमेरिका के विकोनिज़्म विश्वविद्यालय से पीएचडी पूरी की। 1969 से 71 तक भारत सरकार से नेशनल मेरिट स्कालरशिप आपको मिला। 1981-82 में अमेरिका के शिकागो में अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज़ के जूनियर फेलो रहे। 1983-84 में विकोनिज्म विश्वविद्याल अमेरिका से फेलोशिप एवार्ड मिला। 1984-45 में विकोनिज्म विश्वविद्यालय अमेरिका के इतिहास विभाग में प्रोजेक्ट असिस्टेंट रहे। 1988 से 1991 तक आपने लाल बहादुर शास्त्री एकेडमी आफ एडमिनिस्टेशन मसूरी में बतौर प्रोफेसर अध्यापन कार्य किया। फिर 1994-95 में आक्सफोर्ड विश्वविद्याल में आक्सफोर्ड आफ सेंट्रल इस्लामिक स्टडीज़ के सीनियर लीविरहल्म फेलो रहे हैं।
वर्ष 2010 में इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के 70वें अधिवेशन में आपने मध्यकालीन इंडियन सेक्शन की अध्यक्षता की। 2002 में यूपी हिस्ट्री कांग्रेस के जनरल प्रेसिडेंट रहे। वर्ष 2007 से 2010 तक इलाहाबाद विश्वविद्याल में आर्ट के डीन रहे हैं। 2001 से 2008 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष रहे हैं। अब तक आपकी देखरेख में 11 छात्र पीएचडी कर चुके हैं। वर्तमान समय में एक छात्र आपकी देखरेख में शोध कार्य कर रहा  है। आप तमाम नेशनल और इंटरनेशनल कांफ्रेंस में हिस्सा लेते रहे हैं। 1978, 79, 80, 83, 84 और 85 में अमेरिका के विभिन्न विश्वविद्यालयों में हुए सेमिनार में आपने हिस्सा लिया है। इसके अलावा विभिन्न वर्षों में तुर्की, पेरिस, उजबेकिस्तान, नई दिल्ली, अलीगढ़, बीकानेर, पटना और आज़मगढ़ आदि में हुए सेमिनार में हिस्सा लिया और मुख्य वक्ता के रूप में भी लोगों को संबोधित किया है। मुसद्दस ऑफ अल्ताफ़ हुसैन हाली, मध्यकालीन दक्षिण भारत, इंडियन मुस्लिम, सैयद अहमद ऑफ रायबरेली, मुगल इंडियन एंड दी आटोनम अंपायर, द अर्ली चिश्ती संत ऑफ इंडिया, असपेक्ट्स आफ क्लासिकल सुफीज़्म, ए लेटर आफ उजबेक खान अबुल तलीफ खान टू दी आटोनम सुल्तान, सिक्स आटोनम डाक्युमेंट्स ऑन मुगल आटोनम रिलैशन ड्यूरिंग रिजन ऑफ अकबर आदि विषयों पर विस्तृत शोधपत्र विभिन्न स्थानों पर प्रस्तुत कर चुके हैं।
मोमेंट ऑफ 1857, ऐज आफ अकबर, सोशल एंड इंटलेक्चुयल हिस्ट्री आफ मेडुअल इंडिया, एज आफ अबकर और कम्युनिज्म इन इंडिया विषय पर आप अपनी देखदेख में सेमिनार का आयोजन विभिन्न स्थानों पर करा चुके हैं। ‘एटलस ऑफ दी सोशल एंड इंटरलेक्चुएल रूट्स ऑफ मुस्लिम सिविलाइजेशन इन साउथ एशिया’ विषय पर 1994 में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में चार हिस्सों में शोध पत्र प्रस्तुत किया है। हिस्ट्री ऑफ एग्रीकल्चर इन इंडिया विषय पर 1997 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में शोध पत्र प्रस्तुत किया है। इतिहास के विभिन्न विषयों पर तमाम नेशनल और इंटरनेशनल पत्रिकाओं में आपके शोध-पत्र समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं। इतिहास के विभिन्न विषयों पर इनकी आधा दर्जन से अधिक किताबें छप चुकी हैं, कई किताबों के लेखन-प्रकाशन का काम जारी है।
(गुफ्तगू के जून-2016 अंक में प्रकाशित)

बुधवार, 15 जून 2016

ग़ज़ल रदीफ़-काफ़िया..., दीवाए-ए-कैलाश निगम, दुनिया-भर के ग़म थे और मेरे हमदम


       
  -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
मेरठ के डॉ. कृष्ण कुमार ‘बेदिल’ की हाल ही में ‘ग़ज़ल रदीफ़-काफ़िया और व्याकरण’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई है। हिन्दी में ग़ज़ल लिखने का प्रचलन बढ़ने के साथ ही इसके व्याकरण पर चर्चा शुरू हुई। अधिकतर लोगों ने बिना छंद की जानकारी हासिल किए ही ग़ज़ल लिखना शुरू कर दिया। इस पर उंगलियां उठनी शुरू हुईं तो ग़ज़ल की जानकारी हासिल करने की चिंता बढ़ी। देवनागरी लिपि में ऐसी किताबों की प्रायः कमी रही जिसमें ग़़ज़ल के व्याकरण की जानकारी मिल सके। ऐसे माहौल में बहुत लोगों ने ग़ज़ल के व्याकरण की जानकारी हासिल करने के बाद इस पर किताबें लिखना शुरू किया। अब तक तमाम किताबें इस पर प्रकाशित होकर सामने आ चुकी हैं। हालांकि पूरी-पूरी सटीक जानकारी और समझाकर लिखी गई किताबों का अब तक अभाव सा है। किसी किताब में कोई बिंदु अधूरा है तो किसी किताब में कोई अन्य बिंदु। इन सबके बावजूद इतना ज़रूर है कि इस दिशा में काम जारी है, जो ग़ज़ल की शायरी के लिए बेहद अहम और पॉजीटिव है। डॉ. कृष्ण कुमार बेदिल ने इस दिशा में एक सार्थक प्रयास किया है, जिसका हिन्दी ग़ज़ल की दुनिया में तहेदिल से स्वागत किया जाना चाहिए। किताब में पेश की गई सामग्री को आठ भागों में बांटा गया है। उर्दू की काव्य विधाएं, ग़ज़ल का सफ़र, रदीफ़, काफ़िया और शायरी के दोष, अरूज़, बह्रों की किस्में, मुफ़रद बह्रें, मुरक़्क़ब बह्रें और ग़ज़ल में मात्रा गिराने के नियम। इन विषयों को बहुत से सरलता से समझाया गया है, जिसे पढ़कर ग़ज़लकारी के बहुत से पहलुओं से वाक़िफ़ हुआ जा सकता है। बह्र की जानकारी देने के साथ ही रदीफ़, क़ाफ़िया और शायरी के दोष तथा ग़ज़ल के मात्रा गिराने के नियम को जिस सरलता के साथ समझाया गया है, उसे इस किताब का ख़ास पहलू कहा जा सकता है, वर्ना अधिकतर किताबों में बह्र की जानकारी तो दी जाती है, लेकिन इन पहलुओं पर प्रायः बात नहीं की जाती है। कुल मिलाकर इस शानदार प्रस्तुति के लिए डॉ. कृष्ण कुमार बेदिल मुबारकबाद के हक़दार हैं। 96 पेज वाली इस सजिल्द पुस्तक को निरुपमा प्रकाशन, मेरठ ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 195 रुपये है।
 लखनउ के कैलाश नाथ निगम की पुस्तक ‘दीवान-ए-कैलाश निगम’ प्रकाशित हुआ है। कैलाश निगम बहुत दिनों से अदब से जुड़े हुए हैं। अब तक नौ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें गीत संग्रह, छंद संग्रह, काव्य संग्रह, बाल कतिवा संग्रह आदि शामिल है। इनकी इस सक्रियता से ही साहित्य के प्रति इनके समर्पण का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। मौजूदा पुस्तक ‘दीवान-ए-कैलाश निगम’ बेहद ख़ास है, क्योंकि यह पुस्तक हिन्दी, उर्दू और अग्रेंज़ी की वर्णमालाओं पर आधारित है। बहुत खूबसूरती के साथ तीनों भाषाओं के वर्ण मालाओं का प्रयोग किया गया है। ग़ज़ल के पेचो-ख़म को निभाते हुए यह कलाकारी करना अपने आप में बहुत ही अनूठा और सराहनीय है। क्योंकि वर्णमाला के क्रम में ग़ज़ल लिखना भले ही बहुत कठिन न हो लेकिन पायदार और स्तरीय ग़ज़लें लिखना बहुत कठिन काम है। इस पुस्तक में शामिल ग़ज़लों में ग़ज़लियात, रूमानियत और शिल्पगत ख़ासियत बता रही है कि रचनाकार ने ग़ज़ल की परंपरा को समझा, पढ़ा और जिया है। ग़ज़ल की शायरी की दुनिया में इस ख़ासियत का होना बहुत ही ज़रूरी और ख़ास है। इनकी ग़ज़लों के कथ्य में सजासज्जा के साथ नयापन दिखाई देता है, जिसे बार-बार पढ़ने का मन करता है, एक शेर यूं है- ’प्यार करता हूं उसे आज भी पागल की तरह/भो भुला बैठा मुझे गुज़रे हुए कल की तरह’। वर्तमान समय को रेखांकित करते हुए इनके ये अशआर बेहद उल्लेखनीय हैं -‘न अब सोना, न अब चांदी बिकाऊ/धरा पर हो गई मिट्टी बिकाऊ। नदी, तालाब ढेरों देश में हैं/मगर हो ही गया पानी बिकाऊ। इस तरह 312 पेज वाले इस पुस्तक में जगह-जगह शानदार और संग्रहीय अशआर शामिल हैं। पेपर बैक संस्करण का मूल्य 300 रुपये है, जिसे प्रिंटआउट आफ़सेट, लखनउ से इसे प्रकाशित किया है।

 हरियाणा के डॉ. श्याम सख़ा श्याम का ग़ज़ल संग्रह ‘दुनिया-भर के ग़म थे’ प्रकाशित हुआ है। डॉ. एक अर्से से ग़ज़ल कहते आए हैं, छंद के भी अच्छे जानकार हैं। ‘मसि कागद’ नामक त्रैमासिक पत्रिका का संपादन करते हैं, हरियाणा साहित्य अकादमी के अध्यक्ष भी रहे हैं। इसके पहले भी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें में काव्य संग्रह, कहानी संग्रह, उपन्यास आदि शामिल हैं। मौजूदा ग़ज़ल संग्रह में 73 ग़ज़लें प्रकाशित हुई हैं। जहां छंद में प्रायः कोई गड़बड़ी नहीं दिखती वहीं कथ्य में विभिन्न आयाम जगह-जगह पर देखने को मिलते हैं। ग़ज़ल का पारंपरिक कथ्य प्रेम रहा है, इसलिए प्रायः हर ग़ज़ल कहने वाला अपने कथ्य में प्रेम का उल्लेख करता है। डॉ. श्याम सखा श्याम सखा भी इस मामले में अपवाद नहीं हैं। अपनी ग़ज़लों में प्रेम का उल्लेख अपने अनुभवों और विचार के साथ किया है। किताब की पहली ही ग़ज़ल के दो अशआर यूं हैं - ‘वो तो जब भी ख़त लिखता है/उल्फ़त ही उल्फ़त लिखता है। अख़बारों से है डर लगता/ हर पन्ना दहशत लिखता है।’ मौजूदा हालात में मानव के अंदर धैर्य नहीं रहा, वह हर चीज़ किसी भी कीमत पर फौरन ही पाना चाहता है। इसी परिदृश्य में वर्तमान समाज के भीतर की दुनियादारी को डॉ. श्याम ने अपनी ग़ज़ल का विषय बनाया है और प्रायोगिक तौर पर जो घटनाएं देखने को मिलती हैं, उसका उल्लेख किया है - ‘घर से बेघर था, क्या करता/दुनिया का डर था, क्या करता। सच कहकर भी मैं पछताया/खोया आदर था, क्या करता।’ फिर एक ग़ज़ल में मोहब्बत का वर्णन करते हुए कहते हैं -‘जीवन का उपहार मोहब्बत/खुशियों का आधार मोहब्बत। शक का अंकुर फूट पड़े तो/हो जाती लाचार मोहब्बत।  खूब भली लगती है तब तो/ करती जब तकरार मोहब्बत।  इस पुस्तक की एक ख़ास बात यह भी है कि सारी ग़ज़लें छोटी बह्रों में कही गई हैं। छोटी बह्र में अच्छी ग़ज़ल कहना वैसे भी कठिन होता है, लेकिन इसे डॉ. श्याम ने शानदार ढंग से निभाया है। 104 पेज वाले इस पेपर बैक संग्रह का मूल्य 50 रुपये है, जिसे प्रयास टृस्ट, रोहतक ने प्रकाशित किया है।

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(गुफ्तगू के june-2016 अंक में प्रकाशित) 

सोमवार, 6 जून 2016

खुलेआम सेक्स करने से आज़ादी नहीं आती: मैत्रेयी पुष्पा


मैत्रेयी पुष्पा वर्तमान समय में देश की अग्रणी महिला साहित्यकारों में प्रमुख स्थान रखती हैं। जितनी बेबाकी उनकी कलम में दिखती है उतनी ही बेबाकी व्यक्तित्व में भी है। इनका जन्म 30 नवंबर 1944 को अलीगढ़ के सिकुरी गांव में हुआ। बाद में झांसी के खिल्ली गांव में इनका बचपन बीता और एमए तक की पढ़ाई वहीं संपन्न हुई। मैत्रेयी पुष्पा देश में अकेली ऐसी महिला साहित्यकार हैं जो ‘रूरल इंडिया’ पर लिखती हैं। वर्तमान समय में वे दिल्ली हिन्दी एकेडेमी के उपाध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाल रही हैं। रोहित त्रिपाठी ‘रागेश्वर’ ने उनके नोएडा स्थित आवास पर उनसे बात की, जिसे ‘गुफ्तगू’ के महिला विशेषांक में प्रकाशित हुआ है।
सवाल: आपके बारे में कहा जाता है कि आप अकेली ऐसी महिला साहित्यकार हैं जो ‘रूलर इंडिया’ पर लिखती हैं। क्या इसकी कोई ख़ास वजह है?
जवाब: हां, लोग ऐसा कहते हैं। जिसके जैसे अनुभव होंगे वो वही लिखेगा। कई लोग कहीं जाते हैं वहां से थॉट लाते हैं और फिर लिख देते हैं। लेकिन उसमें कितनी गहराई आ पाती है ये एक शोध का विषय है। हमारे जो अनुभव होते हैं हमें दो-चार दिन में नहीं आते, बल्कि समय के साथ हमारी उम्र में घुस जाते हैं। वो ही हम अच्छे से लिख सकते हैं, बोल सकते है, कह सकते हैं। क्योंकि ये महसूस करने की बात होती है। मैं गांव में रही हूं और मैं कॉलेज भी गांव से ही जाती थी, तो मेरे पास ऐसे ही अनुभव हैं।
सवाल:  आपने गांव में रहकर पढ़ाई की और गांव में ही रहती थीं, तो ऐसे माहौल में लेखन की शुरूआत कैसे हुई ?
जवाब: लेखन की शुरूआत तो बड़े खतरनाक तरीके से हुई। बात तब की है जब मैं ग्यारहवीं की छात्रा थी। ग्यारहवीं की परीक्षा चल रही थी और मुझे एक पत्र मिला। जिसको आप प्रेमपत्र कह सकते हैं, क्योंकि वो एक लड़के ने लिखा था। वो मेरी क्लास का नहीं था, वो 12वीं में था। उसने कोई पत्र नहीं लिखा था बल्कि वो एक कविता थी। संबोधन मेरे लिए थौ मेरी उससे कभी कोई बात नहीं हुई थी, लेकिन ऐसा ज़रूर लगता था कि उसका ध्यान मेरी तरफ है, और वो कोई सीरियस टाइप का लड़का नहीं था। वो एकदम हंसता,  जैसे होते हैं न खिलन्दड़ टाइप के, वैसा। जब वो पत्र मिला तो मैंने उसे खड़े-खड़े कई बार पढ़ा और एक किशोरी की तरह कई चीज़ें एक साथ मेरे अंदर आयीं। मैं थोड़ा सहमी थी, थोड़ा घबराई  भी थी। थोड़ा-थोड़ा अच्छा भी लग रहा था। मैं एक घंटे के लिए विचलित सी हो गई। फिर जब में घर आयी तो मेरे मन में एक बात आयी कि अगर ये लड़का कविता लिख सकता है, तो मैं क्यों नहीं?  इसी को चाहे आप लेखन समझ लो। और मैंने शुरू किया। मैंने एक रजिस्टर बनाया, तुकबंदियां शुरू की और फिर उस समय जो लोग लिख रहे थे उनको पढ़ना शुरू किया और मुझे पता नहीं चला कि मैं कब लेखन की तरफ बढ़ गई।
सवाल: आजकल महिला साहित्यकार क्या लिख रही हैं, और क्या नहीं लिख रही हैं?
जवाब: महिला साहित्यकारों पर स्वतंत्रता बहुत ज्यादा हावी हो गई है। देखो, जब हम समाज में रहते हैं तो केवल उन्हीं चीजों को तोड़ते हैं, जो हमारे तरक्की के रास्ते में आती हैं। उनको थोड़ी तोड़ते हैं, जो हमारे विकास में सहायक होती हैं। मैंने फेसबुक पर लिखा था कि आप भी तो खुले कपड़े पहनकर आ़ज़ादी के नारे लगा रही हैं। क्या कपड़ों से आजादी आती है?  या खुलकर सेक्स कर लिया, इससे आज़ादी आती है? आज़ादी तो बहुत बड़ी चीज़ है जो बड़ी सोच के साथ आती है। ये तो कोई भी कर लेगा। इसमें कौन-सी बहादुरी है? ये कोई कठिन काम है क्या? तो आजकल इन्हीं चीज़ों पर ज़्यादा लिखा जा रहा है। ठीक है, मैं मानती हूं इसमें कुछ चिंताएं भी होंगी। मैं ज्यादा पढ़ नहीं पाती आजकल। लेकिन जो एक परिदृश्य दिखाई पड़ रहा है, तो कुछ ऐसा नहीं दिखाई पड़ रहा है कि लेखिकाओं ने कोई नई ज़मीन तोड़कर कोई नया मुहावरा गढ़ा है, नये समाज की संरचना की है, या कुछ पॉजीटिव किया है, कुछ सकारात्मक पहलू इज़ाद किए हैं, ऐसा तो नहीं लगता।
सवाल: महिला साहित्यकारों के लेखों में पुरूषों को लेकर एक अजीब तरह का आक्रोश दिखता है। इसकी क्या वजह है?
जवाब: आक्रोश दिखता है तो हो सकता है कि वे भुक्तभोगी हों। मैं मानती हूं इस बात को, उनके लिए रूकावटें भी होती हैं। आज हम दिल्ली को देखकर सारे फैसले ले लेते हैं। दिल्ली को देखकर फैसले नहीं लेने चाहिए। हिन्दुस्तान तो दिल्ली के अलावा भी है। तो रूकावटें तो होती हैं, और दूसरी बात ये कि उनके हक़ों का भी हनन होता है, जैसा कि अभी पंचायती चुनाव में हुआ। हरियाणा में लोगों ने इसलिए दूसरी शादियां की क्योंकि वो पंचायत के पदों पर बने रहना चाहते थे और उनकी पत्नियां आठवीं पास थीं। तो आक्रामकता बेवजह नहीं है। लेकिन उसका भी कोई तर्क होना चाहिए।
सवाल: प्रायः कवयित्रियों के बारे में कहा जाता है कि वो स्वयं नहीं लिखीती और मंचों पर दूसरों से लिखवाकर कविताएं पढ़ती हैं। इस पर आपकी क्या राय है ?
जवाब:  अरे हां, मैंने भी सुना है और हो भी सकता है। जब आपने ये बात चलाई तो मुझे एक घटना याद आती है। हमारे यहां एक कवयित्री थी, उसकी शादी तो नहीं हुई थी लेकिन वो प्रेग्नेंट थी। एक कवि सम्मेलन में जब मैंने उससे पूछा तो ये कवि सम्मलेनों की ही देन थी। यहां तक बात आती है। जब बात यहां तक आती है तो जाहिर है उसे कविता तो कोई आदमी लिख के दे ही देगा न। ये मैं सबके लिए नहीं कह रही हूं। लेकिन होता है, ऐसा भी, ये असंभव नहीं है।
सवाल: साहित्यकारों को राजनीति करनी चाहिए या नहीं ?
जवाब: मैं कहती हूं कि राजनीति में हस्तक्षेप करो लिख के। आपकी किताबों में हस्तक्षेप होना चाहिए न कि आप भी पहुंचा जाओ वहां। दूसरी बात, राजनीति में जाना है तो राजनीति में जाओ, साहित्य में फिर आपका क्या काम?  और मेरी जो अपनी मुहिम है, मैं राजनीतिज्ञों को साहित्यकार बनाने पे तुली हुई हूं ताकि उनको भी कुछ संवदेना आये।
सवाल: महिलाओं की रचनाएं अक्सर महिलाओं पर ही केंद्रित होती हैं, ऐसा क्यों? 
जवाब: ये इसलिए कि वो खुद एक महिला होती हैं। वो महिलाओं की समस्याओं को जल्दी से पकड़ती हैं, तो वे अपने अनुभव से लिखती हैं। जब महिलाएं नहीं लिखती थी तो पुरूष लिखते थे। लेकि उन्होंने अनुमान से लिखा है और वो अनुभव से लिखती हैं, ये फ़र्क़ है।
सवाल: आत्मकथा में आत्ममोह की झलक क्यों दिखती है?
जवाब: नहीं दिखनी चाहिए। यही करना है तो मत लिखो। आप कितनी महान हैं, कौन जानना चाहता है। अक्सर आत्मकथा में दूसरे पक्ष को दोषी ठहराया जाता है। दूसरा पक्ष प्रायः पति होता है। हमेशा दूसरा पक्ष ही दोषी नहीं होता, कुछ कमियां आप में भी हो सकती हैं, क्योंकि आप भी मनुष्य हैं। दोनों पक्ष बैलेंस्ड होने चाहिए। दूसरी बात स्त्रियों की आत्मकथाओं में अक्सर ये होता है कि हमने तलाक ले लिया, छोड़ दिया, बड़ी वीरता की। इसमें वीरता नहीं होती। छोड़ने में तो कोई दिक्कत नहीं है, दिक्कत तो साथ रहने में है। ऐसे लोग जो स्वयं पर केंद्रित आत्मकथा लिखते हैं, उन्हें नहीं लिखना चाहिए।
सवाल: असहिष्णुता के मुद्दे पर लोगों ने पुरस्कार वापस किया और फिर वापस भी ले लिया। ये साहित्यकारों की छवि को किस तरह प्रभावित करता है?
जवाब: पुरस्कार वापस करने से समस्यायें हल नहीं होती हैं। पुरस्कार तो हमारे पास एक-दो होते हैं। पद्मश्री और साहित्य अकादमी के पुरस्कार वापस किए जा रहे थे। कोई ये बता दे कि कितनों के पास है ये पुरस्कार? मैंने पहले भी कहा है कि लिखो कड़े से कड़ा, क्योंकि लिखोगे तो वो देर तक चलेगा। पुरस्कार तो बस एक दिन वापस कर आये, फिर क्या करोगे? आप सरकार से नाराज़ हैं और पुरस्कार एकेडेमी को वापस कर रहे हैं। जब हम अपनी एकेडेमी को इतना कमज़ोर बना देंगे तो उस पर उन्हीं का वर्चस्व हो जाएगा जिन ताक़तों से हम लड़ रहे हैं। आपने तो खुद ही हथियार डाल दिए। अब लड़ेंगे कैसे? और फिर लखनउ कथाक्रम में मैंने नाम लेकर कहा कि ये लोग मुझे बताएंगे कि इन्होंने कितनी ईमानदारी से पुरस्कार पाया है ? काशीनाथ जी नाराज हो गए लेकिन मुझे किसी की नाराज़गी से क्या लेना? जब मैंने सुना कि अब वापस भी लिये जो रहे हैं तो मैंने फेसबुक पर पोस्ट डाली तो नयनतारा सहगल ने मना किया कि नहीं मैंने वापस नहीं लिया। लेकिन जो सिलसिला है वो तो शुरू ही हो गया न, आम आदमी की नज़रों में साहित्यकारों की छवि तो खत्म हो गई न।
सवाल: साहित्य में लघु पत्रिकाओं का कितना योगदान है?
जवाब: हां, बहुत योगदान है। क्योंकि अख़बारों में जगह कम हो गई है। साप्ताहिक हिन्दुस्तान या धर्मयुग जैस पत्र बंद हो गए, तो जगह नहीं बची। वो स्पेस अब लघु-पत्रिकाओं ने ंभरी है, जिनको लोग अपने संसाधनों से चला रहे हैं। जब कारपोरेट घरानों ने ये काम बंद कर दिया तो अब ये लोग ही कर रहे हैं। ये अच्छा चल रहा है।
(गुफ्तगू के मार्च-2016 अंक में प्रकाशित)