बुधवार, 26 नवंबर 2014

काजमी साहब की भरपाई मुमकिन नहीं


    
गुफ्तगू’ के संरक्षक एसएमए काज़मी के निधन पर शोक सभा 
 इलाहाबाद। एसएमए काजमी के निधन से जहां ‘गुफ्तगू परिवार’ ने अपना संरक्षक खो दिया है, वहीं इलाहाबाद सहित पूरे प्रदेश से एक ऐसा व्यक्तित्व चला गया, जिसकी भरपाई मुमकिन नहीं है। उनके निधन से अधिवक्ता, साहित्यकार और अन्य सामाजिक संगठनों को गहरा आघात लगा है। इससे उबरने में काफी वक्त लगेगा। यह बात साहित्यिक संस्था ‘गुफ्तगू’ के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद गाजी ने बुधवार की शाम हरवारा, धूमनगंज के गुफ्तगू स्थित कार्यालय में हुई शोकसभा के दौरान कही। श्री गाजी ने कहा कि काजमी साहब इलाहाबाद सहित पूरे प्रदेश और देश की अदबी महफिलों की शान थे। बेहद व्यस्त अधिवक्ता होने के बावजूद साहित्य के लिए काफी वक़्त देते थे। उर्दू दैनिक ‘इंक़लाब’ में प्रत्येक मंगलवार को प्रकाशित हो रहा उनका आलेख भी काफी पठनीय होता था, लोग मंगलवार का इंतजार करते थे। उनके लेखों के संग्रह की पुस्तक हिन्दी में प्रकाशित करने के लिए कुछ दिन पहले ही उनसे बात हुई थी, यह कार्य गुफ्तगू परिवार अवश्य करेगा। गौरतलब है कि 27 नवंबर की दोपहर कार से लखनउ जाते समय पूर्व महाधिवक्ता एसएमए काज़मी का निधन हो गया था। सभा की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र ने कहा कि काजमी साहब हर अदबी महफिल की शान थे, साहित्य और समाज के लिए हर वक़्त तत्पर रहते थे, उनके चले जाने से पूरा इलाहाबाद बेहद दुखी है। शिवपूजन सिंह ने कहा कि काजमी ने समय-समय पर हमलोगों की रहनुमाई की है, हम उन्हें किसी भी कीमत पर भूूल नहीं सकते, वे आज भी हमारे दिलों में जीवित हैं, हमेशा जीवित रहेंगे। उनका संस्मरण हमेशा ताज़ा रहेगा। खास तौर पर गुफ्तगू परिवार उनकी कमी की भरपाई कभी नहीं कर पाएगा। गुफ्तगू के सचिव नरेश कुमार ‘महरानी’ ने कहा अभी दो नवंबर को ‘गंाधी दर्शन की प्रासंगिकता’ विषय पर गुफ्तगू की ओर से संगोष्ठी का आयोजन किया गया था, जिसके मुख्य वक्ता एसएमए काजमी ही थे। उनकी बातें आज भी कान में गंूज रही हैं। बैठक में नरेश कुमार ‘महरानी’, हसनैन मुस्तफ़ाबादी, अनुराग अनुभव, संजय सागर, डॉ. पीयूष दीक्षित, प्रभाशंकर शर्मा, शैलेंद्र जय, शाहनवाज़ आलम, मुकेश चंद्र केसरवानी, संजू शब्दिता, अमित वागर्थ, संतोष तिवारी आदि मौजूद रहे।

सोमवार, 17 नवंबर 2014

गुफ्तगू के संयुक्तांक (सितंबर-दिसंबर- 2014 अंक में )

 3.ख़ास ग़ज़लें (मज़रूह सुल्तानपुरी, शकेब जलाली, मेराज फ़ैज़ाबादी, दुष्यंत कुमार)
4-5.संपादकीय (समाज में कहां खड़ा है साहित्यकार )
6. आपकी बात
ग़ज़लें
7.बशीर बद्र, प्रो.वसीम बरेलवी, मुनव्वर राना, एम.ए. क़दीर
8.असद अली असद, हसनैन मुस्तफ़ाबादी, आशीष त्रिवेदी, श्याम सख़ा श्याम
9.अजीत शर्मा ‘अकाश’,अख़्तर अज़ीज़,सागर होशियरपुरी, किशन स्वरूप
10.ज़फ़र मिर्ज़ापुरी, वारिस अंसारी पट्टवी, किशन स्वरूप, भारत भूषण जोशी
11.जयकृष्ण राय तुषार, दीपक दानिश, आर्य हरीश कोशलपुरी, माया सिंह माया
12.मोहम्मद बिलाल खा, मोहम्मद एजाज़ फ़ारूक़ी, विनीत कुमार मिश्र, इरशाद अहमद बिजनौरी
13.श्यामी श्यामानंद सरस्वती, गौतम राजरिशी, खुर्शीद खैराडी, इश्क़ सुल्तानपुरी
कविताएं
14.सरदार ज़ाफ़री, कैलाश गौतम
15.शैलेंद्र जय, भोलानाथ कुशवाहा
16.रोहित त्रिपाठी ‘रागेश्वर’,विवेक अंजन श्रीवास्तव
17.शुभम श्रीवास्तव ‘ओम’,फिरदौस ख़ान
18-19. तआरुफ़: पीयूष मिश्र ‘पीयूष’
20-21. चौपाल: क्या प्रलेस अपने मूल उद्देश्यों से भटक गया है
23-24. विशेष लेख: सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज-सरदार भगत सिंह
25-26. इंटरव्यू: गुलजार
27-28. गुलशन-ए-इलाहाबाद: प्रो. अमर सिंह
29-33. तब्सेरा (दुल्हन फिर शरमाई क्यों, ग़ज़ल धुन, सदी को सुन रहा हूं मैं, अर्चना के फूल, मीडिया हूं मैं )
34-40.अदबी ख़बरें
40-45.ओम प्रकाश यती के सौ शेर
45-47. अंबेडकर नगर के प्रमुख साहित्यकार
48-49.इल्मे क़ाफ़िया (उर्दू) भाग-5
50-52. कहानी- बहरूपिए- इश्तियाक़ सईद
53-80. परिशिष्ट- असरार नसीमी
53. असरार नसीमी का परिचय
54-55. मगर इस फ़न में दुश्वारी बहुत है- रविनंदन सिंह
56.अस्रे जदीद का असर अंदाज़ शायर-रणधीर प्रसाद गौड
57-58. असरार नसीमी अपने शायरी के आइने में-सरदार ज़िया
59. असरार नसीमी मेरी नज़र में- एम. हसीन हाशमी
60-64. अल्फ़ाज़ की रोशनी का शायर-डा. शाहनवाज़ आलम
65.वक़्त के साथ चल रही शायरी- नाज़िया ग़ाज़ी
66-80. असरार नसीमी के कलाम


शनिवार, 8 नवंबर 2014

‘गुफ्तगू पब्लिकेशन’ की दो नई पुस्तकें


दोस्तो,
‘गुफ्तगू पब्लिकेशन’ की दो नई पुस्तकें (1) करुणा जिस दिन क्रांति बनेगी (काव्य संग्रह, कवि- राधेश्याम भारती), (2) लख्ते हाय दिल (ग़ज़ल संग्रह, उर्दू में- शायरा- रज़िया काज़मी, इंग्लैंड) प्रकाशित होकर आ गई हैं। करुणा जिस दिन क्रांति बनेगी की कीमत 150 रुपये और लख्ते हाय दिल की कीमत 100 रुपये है। इनके अलावा (1) सिर्फ़ तेरे लिए (काव्य संग्रह, कवयित्री- स्नेहा पांडेय, बस्ती, उत्तर प्रदेश), (2) रात अभी स्याह नहीं है (ग़ज़ल संग्रह, शायर- अरुण अभिनव खरे, भोपाल ), (3) जीवन पथ (काव्य संग्रह, कवयित्री- डा. नंदा शुक्ला)   और (4) अनाम (गद्य संककल, लेखिका- डा. अज़रा नूर- लखनउ) की किताबों के प्रकाशन का काम जारी है। गुफ्तगू पत्रिका का संयुक्तांक भी छपने के लिए प्रेस मेें जा रहा है। गुफ्तगू के आजीवन और संरक्षक सदस्ययों को ‘गुफ्तगू पब्लिकेशन’ की सभी पुस्तकें मुफ्त दी जाती हैं। गुफ्तगू की ढाई वर्ष की सदस्यता शुल्क- 200 रुपये, आजीवन- 2100 रुपये और संरक्षक शुल्क 11,000 रुपये है।
सदस्यता शुल्क आप मनीआर्डर से या सीधे ‘गुफ्तगू’ के एकाउंट में धन जमाकर सदस्यता ले सकते हैं। एकाउंट में पैसा जमा करने के बाद फोन पर इसकी सुचना ज़रूर दें. 'गुफ्तगू' के नाम से चेक भेजकर भी सदस्यता ले सकते हैं.
गुफ्तगू का एकाउंट डिटेल इस प्रकार है- एकाउंट नेम- गुफ्तगू
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मंगलवार, 30 सितंबर 2014

मुनव्वर राना से मिली ‘गुफ्तगू’ की टीम


गुफ्तगू के मुनव्वर राना विशेषांक प्रकाशित करने की तैयारियों को अंतिम रूप देने के लिए 27 सितंबर 2014 को टीम गुफ्तगू मुनव्वर राना से उनके लखनउ स्थित निवास पर मिली। ढेर सारी बातें और चचाएं हुईं।
मुनव्वर राना के घर पर बातचीत करते हुए- बायें से: शिवपूजन सिंह, अनुराग अनुभव, इम्तियाज अहमद गाजी और मुनव्वर राना
मुनव्वर राना के घर में- बायें से:शिवपूजन सिंह, इम्तियाज अहमद गाजी, अनुराग अनुभव, मुनव्वर राना और अजय कुमार
होटल में खाना खाने के लिए बाहर मुनव्व राना के घर से बाहर निकलते हुए बायें से-शिवपूजन सिंह, इम्तियाज अहमद गाजी, अजय कुमार, मुनव्वर राना और नरेश कुमार ‘महरानी’
मुनव्वर राना के साथ खाना खाते हुए- बायें से: इम्तियाज अहमद गाजी, अजय कुमार, अनुराग अनुभव, नरेश कुमार ‘महरानी’ और मुनव्वर राना
इलाहाबाद से लखनउ जाते समय रास्ते में रायबरेली के एक होटल में नाश्ता करते हुए- बायें से अनुराग अनुभव, नरेश कुमार ‘महरानी’, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी और शिवपूजन सिंह

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

इलाहाबाद विशेषांक के लिए बोर्ड का गठन

बायें से: अनुराग अनुभव, असलम इलाहाबादी, अजामिल व्यास, प्रो. अली अहमद फ़ातमी, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, डा. सालेहा जर्रीन और डा. शाहनवाज़ आलम

इलाहाबाद। ग्यारह वर्ष से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्रिका ’गुफ्तग’ का ‘इलाहाबाद विशेषांक’ प्रकाशित किया जाएगा। यह निणर्य 24 अगस्त को प्रो. अली अहमद फ़ातमी के लूकरगंज स्थित आवास पर हुई बैठक में लिया गया। इस अंक के लिए अलग से बोर्ड का गठन किया गया है। जिसके अनुसार अतिथि संपादक प्रो. अली अहमद फ़ातमी और डा. असलम इलाहाबादी होंगे। प्रो.सय्यद अक़ील रिज़वी, प्रो. राजेंद्र कुमार और एसएमए काज़मी संरक्षक और इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी अध्यक्ष होंगे। जबकि अजामिल व्यास, मुनेश्वर मिश्र, डॉ. सालेहा जर्रीन, डा. शाहनवाज़ आलम, शिवपूजन सिंह और नरेश कुमार ‘महरानी’ सलाहकार होंगे। बैठक में निर्णय लिया गया कि ‘इलाहाबाद का साहित्यिक एवं सांस्कृति इतिहास’, ‘इलाहाबाद की सूफी परंपरा’, ‘इलाहाबाद और उर्दू शायरी’, ‘इलाहाबाद और हिन्दी कविता’, ‘इलाहाबाद और रंगमंच की परंपरा’, ‘इलाहाबाद की हिन्दी व उर्दू की पत्रकारिता’,‘प्रगतिशील लेखक संघ और इलाहाबाद’,‘ इलाहाबाद की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाएं’, इलाहाबाद में हिन्दी कहानी की परंपरा, निराला और इलाहाबाद, फ़िराक़ और इलाहाबाद, प्रेमचंद और इलाहाबाद, स्वतंत्रता आंदोलन और इलाहाबाद विषय पर आलेख के साथ अकबर इलाहाबादी, हैरत इलाहाबादी, नूह नारवी,वहीद इलाहाबादी आदि पर सामग्री प्रकाशित की जाएगी। इस अंक के लेखक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी, प्रो. सैयद अक़ील रिज़वी, एसएमए काज़मी, एन.आए. फारूक़ी, ललित जोशी, डॉ.असलम इलाहाबादी, प्रो.अली अहमद फ़ातमी, अजित पुष्कल, अजामिल व्यास, मुनेश्वर मिश्र, लईक रिज़वी, अनिता गोपेश, हरिशचंद्र पांडेय, डॉ. सालेहा जर्रीन, डॉ.ताहिरा परवीन, फखरुल करीम और डॉ. शाहनवाज़ आलम आदि होंगे।


सोमवार, 25 अगस्त 2014

पद्मश्री शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ; ( गुलशन-ए-इलाहाबाद )



   
   
                                                                               -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
उर्दू अदब में शम्सुरर्हमान फ़ारूक़ी का नाम एक चमकते सितारे की तरह से है। आज की तारीख़ में उन्होंने अपनी मेहनत और क़ाबलियत से जो मुकाम हासिल कर लिया है, वह किसी मील के पत्थर से कम नहीं है। पद्मश्री से लेकर पाकिस्तान सरकार के ‘निशान-ए-इम्तियाज़’ तक के एवार्ड इनके हिस्से में अब तक आ चुके हैं। 30 सितंबर 1935 को प्रतापगढ़ में पैदा होने वाले श्री फ़ारूक़ी छह बहन और सात भाइयों में पांचवें नंबर पर है, आप से बड़ी चार बहने हैं, भाइयों में आप सबसे बड़े हैं। पिता मोहम्मद खलीकुर्रहमान फ़ारूक़ी डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल थे। प्रतापगढ़ में प्रारंभिक शिक्षा हासिल करने के बाद आप पढ़ाई के लिए इलाहाबाद आ गये। 1955 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से अंग्रेज़ी में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की। अपने बैच में प्रथम स्थान हासिल किया, लेकिन लेक्चरशिप नहीं मिला। हताश नहीं हुए और सतीश चंद्र डिग्री कालेज बलिया में और इसके बाद शिब्ली नेशनल कालेज आजमगढ़ में अंग्रेजी के प्रवक्ता के रूप में अध्यापन कार्य करने लगे। 1958 में भारतीय प्रशासनिक सेवा (एलाइड) के लिए आप चयनित हो गए। भारतीय डाक सेवा में कार्य करते हुए आपने विभिन्न राज्यों में अपनी सेवाएं दीं, 1994 में रिटायर हुए। रिटायर होने के बाद आपके साहित्य लेखन में और तेजी आई। अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी ने 2002 में और मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी हैदराबाद ने 2007 में आपको डी.लिट की मानद उपाधियों से विभूषित किया।
1991 से 2004 तक यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसलवानिया, फ़िलाडेल्फ़िया (यूएसए) में मानद प्रोफेसर रहे, 1997 से 1999 तक ‘खान अब्दुल गफ्फार खां प्रोफेसर’ के पद पर कार्यरत रहे। नेशनल कौंसिल फ़ार प्रमोशन ऑफ़ उर्दू (नई दिल्ली) के वाइस चेयरमैन के रूप में उर्दू की तरक्की के लिए किया गया काम आपकी महत्वपूर्ण सेवाओं में से है। उर्दू की सेवा के लिए अब तक अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, रूस, हालैंड, न्यूजीलैंड, थाईलैंड, बेल्जियम, कनाडा, तुर्की, पश्चिमी यूरोप,सउदी अरब और कतर आदि देशों का दौरा कर चुके हैं। अमेरिका, कनाडा और इंग्लैंड के कई विश्वविद्यालयों में कई बार लेक्चर दे चुके हैं। उर्दू अदब के स्तंभ शायरों में से एक मीर तक़ी मीर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर श्री फ़ारूक़ी ने चार खंडों में ‘शेर-शोर अंगेज़’ नामक किताब लिखकर तहलका मचा दिया। इस किताब पर 1996 में ‘सस्वती सम्मान’ प्रदान किया, सम्मान के रूप में मिला पांच लाख रुपये उस समय का सबसे बड़ी इनामी राशि वाला सम्मान था। 1996 में ही आपने ‘शबखून‘ नामक मासिक पत्रिका निकाली, जो दुनिया-ए-उर्दू अदब में चर्चा का विषय हुआ करती थी, दुनिया के जिस भी देश में उर्दू साहित्य में रुचि रखने वाले लोग हैं, वहां यह पत्रिका जाती थी, लोग बड़े चाव से पढ़ते थे। किसी लेखक-शायर का इस पत्रिका में प्रकाशित होना अपने आप में बड़ी बात थी। मगर सेहत ख़राब होने की वजह से सितंबर 2005 में इसका प्रकाशन बंद कर दिया। दिल का आपरेशन होने के कारण सेहत गिरती जा रही है, अल्लाह इन्हें सेहतयाब करे। इनकी किताब ‘उर्दू का इब्तिदाई ज़माना’ उर्दू और हिन्दी के अलावा अंग्रेज़ी में भी प्रकाशित हुआ है। अंग्रेज़ी में इसे आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने प्रकाशित किया है। शायरी में चार किताबें छप चुकी हैं, जिनके नाम ‘गंजे-सोख्ता’, सब्ज अंदर सब्ज’,‘चार सिम्त का दरिया’ और ‘आसमां मेहराब’ हैं। गद्य की किताबों में ‘लफ्जी मआनी’,‘फ़ारूक़़ी के तब्सेरे’,‘शेर ग़ैर शेर और नस्र’,‘अफ़साने की हिमायत में’,‘तफ़हीमे-ग़ालिब’,‘दास्ताने अमीर हमज़ा का अध्ययन’ और ‘तन्क़ीदे अफ़कार’ आदि हैं। अंग्रेज़ी किताबों में ‘द सीक्रेट मिरर’,‘अर्ली उर्दू लिटेरेरी कल्चर एंड हिस्टी’,‘हाउ टु रीड इक़बाल‘ हिन्दी में ‘अकबर इलाहाबादी पर एक और नज़र’ वगैरह विशेष उल्लेखनीय हैं। हाल ही में अंग्रेजी में प्रकाशित उनका नाविल ‘कई चांद थे सरे आसमां’ का हिन्दी अनुदित संस्करण काफी चर्चा में है। ‘उर्दू की नई किताब’ और ‘इंतिख़ाबे-नस्रे’ समेत कई किताबों का संपादन भी किया है। श्री फ़ारूक़ी ने कुछ किताबों का अंग्रेज़ी से उर्दू अनुवाद भी किया है, जिनमें अरस्तू की पुस्तक ‘पाएटिक्स’ का उर्दू अनुवाद ‘शेरियत’ है। ‘शेर शोर अंग़ेज नामक पुस्तक चार खंडों वाली किताब में मीर तक़ी मीर के एक-एक शेर की व्याख्या और उसके विशलेषण में उसी विषय के कवियों के अश्आर की मिसालें दे-देकर ऐसा लिखा है की उर्दू अदब में तहलका सा मच गया, बड़े-बड़े आलिम चौंक पड़े। आपकी आगामी पुस्तकों में ‘एसेज़ इन उर्दू क्रिटिसिज्म एंड थ्योरी’ के अलावा ग़ालिब और मुसहफ़ी की ज़िदगी पर आधारित कहानियां हैं। उर्दू में ऐसे शब्दों और मुहावरों को शामिल करते हुए एक शब्दकोश की पुस्तक प्रकाशित करवाने जा रहे हैं, जो आम शब्दकोश में मिलना लगभग असंभव है। श्री फ़ारूक़ी का पता-29सी, हेस्टिंग रोड, इलाहाबाद, मोबाइल नंबरः9415340662 है।
गुफ्तगू के मार्च-14 अंक में प्रकाशित

रविवार, 3 अगस्त 2014

!!! समाज में कहां खड़ा है साहित्यकार !!!


- नाजिया गाजी
सज्जाद ज़हीर ने जब प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद डाली और लोगों को अपने उद्देश्य से रुबरु कराया, तब पूरे में देश एक लहर सी उत्पन्न हो गई। साहित्यकारों के अलावा आमलोगों को भी लगने लगा कि देश के साहित्यकार अब वास्तविक रूप में समाज की भलाई के लिए काम करेंगे, और ऐसा हुआ भी। साहित्यकारों ने समाज की बेहतरी के लिए अनेकानेक काम किए, सिर्फ़ लेखन से ही नहीं बल्कि ज़मीनी स्तर पर समाज के बीच आकर बात रखी गईं, लोगों का काफी सहयोग मिला। तब ये आम धारण थी कि साहित्यकार हमेशा देश-समाज हित में कार्य करते हैं, इसी के लिए जीते-मरते हैं। अपने लेखन के माध्यम से साहित्यकार जिन बुराइयों को रेखांकित करता, खुद भी कोसों उनसे दूर रहता है, शायद यही उसकी असली पहचान भी है। मगर आज इसके ठीक वितरीत हो रहा है। यही वजह है कि प्रायः समाज में साहित्यकार और उसकी लेखनी को पूण रूप से स्वीकार नहीं किया जाता। लगभग यह धारणा बन चुकी है कि अधिकतर साहित्यकार लोगों को बेवकूफ़ बनाने का कार्य करते हैं, जिन बुराइयों को अपनी लेखनी में उजागर करते हैं, वास्तवित रूप में उनके अंदर वहीं बुराई दिखती हैं। ऐसे में लोगों के बीच लेखन किस तरह प्रभावी होगा, लोग क्यों साहित्यकार और उनकी लेखन का खुले दिल से सम्मान करेंगे।
हालत यह है कि तमाम बड़े साहित्यकार अपनी रचनाओं-पुस्तकों के प्रकाशन, संस्थाओं से पुरस्कार और विरोधियों को खारिज करने में लगे रहते हैं। इसके लिए अच्छे लेखन और अच्छे कार्य करने की रणनीति नहीं बनाई जाती। बल्कि किसी भी माध्यम से, कोई भी जरिया अपनाकर अपने को हाईलाइट करने की साजिश रची जाती है। अधिकतर लोग अपने और बेगाने ग्रुप के साहित्यकार हो चुके हैं। दिल्ली में तो कई बड़े साहित्यकार ऐसे भी हैं, जो साहित्य सेवा के नाम सारी सुविधाएं पा रहे हैं, मगर हिन्दी या उर्दू की विकास के लिए काम करने के बजाए, खुद अपनी स्थिति को और मजबूत बनाने का कार्य करते हैं। इसकी जानकारी अधिकतर लोगों को है, लेकिन कोई बोलने को तैयार नहीं है। जब बात साहित्यकार और उसके हित रक्षा की आती है तो ढोंग दिखाना शुरू कर देते हैं। डंका बजाकर यह बताने की कोशिश करते हैं कि हम समाज की बेहतरी के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं, इसलिए उनके हित का काम होना चाहिए। कुल मिलाकर अधिकतर साहित्यकारों का दोहरा चरित्र लोगों के सामने आ चुका है, यही वजह है कि आज आम आदमी साहित्य से दूर जा रहा है, कुछ लोग साहित्य अगर पढ़ते भी हैं तो मनोरंजन की दृष्टि से। गंभीर मामला या गंभीर समस्या को लेकर कोई साहित्य और साहित्यकार के मार्गदर्शन या लेखन को सुनने-पढ़ने को तैयार नहीं है। धीरे-धीरे अधिकतर साहित्यकारों ने समाज में अपनी ऐसी इमेज बना ली है कि लोग या तो मजाक उड़ाते हैं या सिरे से खारिज कर देते हैं। पिछले लोकसभा का चुनाव इस परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण उदाहरण भी है। वामपंथी संगठन की साहित्यिक संगठनों ने ऐडी-चोटी का जोर दिया, लेकिन न तो पश्चिम बंगाल में कम्युनिष्ट पार्टियों को जीत दिला सके और न ही भाजपा की जीत को रोक सके। जबकि ये संगठन भाजपा के खिलाफ पूरे जोश-ओ-खरोश के साथ मैदान में आए थे। परिणाम से पहले तो कई बड़े साहित्यकारों ने यह दावा कर दिया था कि नरेंद्र मोदी की जीत हुई तो वे डूब मरेंगे, किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। परिणाम के बाद उनका सुर बदल गया। क्या यही है साहित्य और साहित्यकारों का प्रभाव? समाज के लोगों ने इनकी बातों को तवज्जो नहीं दी। आज की यह स्थिति साहित्य और साहित्यकारों के लिए बेहद महत्वपूर्ण हो गई है। अधिकतर साहित्यकार दूसरों की बुराई गिनाने में जुटा है, और जब उसकी बुराई कोई गिना देता है तो अपने में सुधार लाने के बजाए उखड़ जाता है। बुराई गिनाने वालों के खिलाफ कार्य करने में जुट जाता है। जो लोग खुद अपना आंकलन इमानदारी से नहीं कर पाते, वे कैसे साहित्यकार हैं और क्यों समाज उनकी बातों को सुनना-पढ़ना चाहेगा। इस संदर्भ में प्रगतिशील लेखक मंच की कार्यशैली भी बेहद उल्लेखनीय है, इसके तमाम बड़े पदाधिकारी अप्रगतिशील कार्यों में जुटे हैं, इनके उपर कोई टिप्पणी कर देता है तो उसमें सुधार की बजाए उन लोगों का विरोध शुरू कर दिया जाता है। पिछले दिनों शुक्रवार के एक अंक में छपे लेख का प्रलेस के लोगों ने खूब विरोध किया। इसमें छपी बातों पर गौर करके दुरुस्त करने की बजाए यह मांग की गई कि ये बातें बाहर क्यों उठाई जा रही हैं, कार्यकारिणी में क्यों नहीं। जैसे ये लोग किसी राजनैतिक दल के हैं, बाहर आवाज जाने पर वोट बैंक कम हो जाएगा। इस बात पर विचार नहीं किया गया कि जो चीज़े ग़लत हो रही हैं उसको कैसे ठीक किया जाए। इससे सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि साहित्यिक संगठनों की स्थिति क्या है ? सिर्फ़ कुएं की मेढ़क की तरह अपने को सबसे अधिक ज्ञाता और चालाक समझते हैं। मगर सच्चाई यह है कि इसी मानसिकता के कारण आज साहित्य आम लोगों से दूर हो गया है। यह गंभीर विषय है, इस पर ग़ौर किए जाने की आवश्यकता है।

गुफ्तगू का संपादकीय

मंगलवार, 17 जून 2014

इम्तियाज़ ग़ाज़ी ने प्रलेस से दिया इस्तीफा


इलाहाबाद। प्रगतिशील लेखक संघ के सिद्धांतों से खिलवाड़ करने का आरोप प्रलेस के अध्यक्ष और कार्यकारी सचिव पर लगाते हुए इम्तियाज़ अहमद गाजी ने प्राथमिक सदस्यता और सचिव मंडल सदस्य के पद से इस्तीफा दे दिय है। श्री गाजी ने आरोप लगाया है कि पिछले छह-सात महीन से अध्यक्ष और कार्यकारी सचिव प्रलेस की मौलिका सिद्धांतों के साथ खिलवाड़ कर रही हैं।
उन्होंने अपने इस्तीफे में अध्यक्ष को संबोधित करते हुए लिखा है कि पिछले पांच-छह महीनों में इलाहाबाद के प्रगतिशील लेखक इकाई में जो गतिविधियां चल रही हैं, वो बेहद अफ़सोसनाक हैं। सभी मामलों को देखने के बाद स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि इस संगठन की कार्य प्रणाली संघ की तरह तो दिखाई दे रही हैं, लेकिन प्रगतिशीलता कहीं भी नहीं दिख रही। इसे निजी खुन्नस और खुशामद का संगठन बना दिया गया है, जो किसी भी कीमत पर प्रगतिशीलता नहीं हो सकती। इसमें गैर लेखक और राजनैतिक पृष्टभूमि के लोग घुस आए हैं। आप अपने दफ्तर के चैंबर में ऐसे लोगों के साथ बैठकर लोगों का मजाक उड़ाते हैं। आपने एक बैठक में यह बात कही है इम्तियाज अहमद गाजी को प्रलेस में प्रो. अली अहमद फ़ातमी के कहने पर शामिल किया गया, महोदय मैं आज से पांच वर्ष पहले भी प्रलेस में संयुक्त सचिव रहा चुका हूं। नौकरी के लिए कानपुर चला गया था, इसलिए प्रलेस छोड़ दिया था। ऐसी टिप्पणी करने से पहले आपको अपने बारे में भी सोच लेना चाहिए। आप अध्यक्ष भी प्रो. फ़ातमी के कहने व सुझाव पर ही बने हैं। और जो कार्यकारिणी सचिव बनाई गई हैं, वो भी प्रो. फातमी के सुझाव पर बनी हैं। सचिव पद के लिए तो कोई तैयार ही नहीं हो रहा था। श्री सुरेंद्र राही, प्रो. अनिता गोपेश और मुझसे भी सचिव बनने के लिए पूछा गया था। हम तीनों ने जब मना कर दिया तो सुश्री संध्या निवोदिता को कार्यकारणी सचिव बनाया गया। आप आधा सच क्यों बताते हैं, पूरा सच बताइए। ऐसे में इस संगठन से जुड़े रहने का औचित्य नहीं रहा। मैं अपना त्याग पत्र आपको सौंप रहा हूं, लेकिन कुछ चीजें स्पष्ट कर देना जरूरी है।
उपाध्यक्ष मंडल में शामिल श्री असरार गांधी साहब ने तमाम ऐसी कहानियां लिखी हैं जो प्रगतिशीलता के विपरीत तो हैं ही, साथ ही प्रलेस में शामिल लोगों की निजी जिन्दगी पर आधारहीन तरीके से कुठराघात भी है। लेकिन आपने इन कहानियों का खूब लुत्फ उठाया है, लोगों के बीच चर्चा का विषय आप बनाते रहे हैं। इनमें आपको संगठन के प्रति कोई गलत चीज़ नज़र नहीं आती। मगर मेरी पत्नी (श्रीमती नाज़िया ग़ाज़ी, संपादक-गुफ्तगू) जब प्रगतिशीलता की विडंबनाओं पर लिखती हैं तो आपकी परेशानी बढ़ जाती हैं, तब आपको अचानक लगते लगता है कि इस विषय पर नहीं लिखा जाना चाहिए। मेरी पत्नी द्वारा लिखे गए जिस आलेख पर आपको परेशानी है, उसे पढ़कर तो ऐसा लगता है कि प्रलेस में बहुत कुछ गड़बड़ चल रहा है, इसमें सुधार लाने की जरूरत है। हैरानी की बात यह है कि इसके लिए आपने मेरे खिलाफ अभियान चलाना शुरू कर दिया, क्या यही है मौजूदा दौर की प्रगतिशीलता। महोदय, हम लोकतांत्रिक देश में रहते हैं और हमें असहमति को खुशी से स्वीकार कर उस पर चर्चा करनी चाहिए, लेकिन आप किसी भी गलती को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं, क्या कोई संगठन ऐसे चलता है? आप यह चाहते हैं कि आप और कार्यकारी सचिव महोदया जो आदेश जारी कर दें या जो निर्णय ले लें, उसका प्रलेस से जुड़े सारे लोग पालन करें। क्या सांस्कृतिक व साहित्यिक संगठन का संचालन ऐसे ही होता है?
भारत में प्रलेस के गठन से पहले का एक वाक्या आपको याद दिला दूं। संभवतः 1934-35 की बात है। पेरिस में वर्ल्ड राइटर एसोसिएशन का कांफ्रेंस में हुआ। इसमें भारत से सज्जाद ज़हीर और मुल्क राज आनंद सहित कई अन्य लोगों ने शिरकत की थी। इसे देखकर सज्जाद जहीर को लगा कि इसी तरह का एक  संगठन भारत में बनना चाहिए। श्री जहीर ने एलिया एडनवर्ग से इस संबंध में बात की, एलिया ने इस पर खुशी जाहिर करते हुए, दो महत्वपूर्ण बात कही। पहली- लिटरेरी सोसाइटी में किसी लोकत्रांतिक देश के संविधान से ज्यादा लोकत्रांतिक माहौल होता है, हर किसी की सहमति-असहमति पर गौर किया जाना चाहिए। दूसरी-साहित्यकारों को एक जगह इकट्ठा करना मेढक तौलने के बराबर है। इसके बाद सज्जाद जहीर ने लंदन के एक रेस्त्रां में प्रलेस का संविधान बनाया और भारत में प्रेमचंद सहित कई लोगों से बातकर प्र्रलेस की नींव डाली।
इलाहाबाद की मौजूदा कार्यकारिणी सचिव महोदया ने एक पत्र मेरी पत्नी के नाम लिखा है, जिसमें उन्होंने बताने की कोशिश की है कि तीस्ता के कार्यक्रम के बहिष्कार का निर्णय एक बैठक करके लिया गया है। इस पत्र के संबंध में दो बातें कहनी है। पहली- सचिव महोदया ने प्रलेस की कार्यकारिणी से पास कराए बिना ही पत्र लिख दिया। क्या यह सही है, क्या प्रलेस उनकी व्यक्तिगत प्रापर्टी है? दूसरी- सचिव महोदया ने पत्र के साथ कुछ अखबारों में छपी खबर की कटिंग लगाई है, जिनमें छपा है कि प्रलेस की बैठक में यह निर्णय लिया गया कि तीस्ता के कार्यक्रम में शामिल नहीं हुआ जाएगा। मगर सच्चाई यह है इस बैठक में शामिल हुए अधिकतर लोग तीस्ता के कार्यक्रम में शामिल हुए थे। आखिर यह कैसी बैठक है और ये कैसा निर्णय है ?
श्रीमती नाज़िया गा़ज़ी के जिस लेख को लेकर आपत्ति है, उसके कुछ ंिबंदुओं पर आपका ध्यान दिलाना जरूरी है। तीस्ता सीतलवाड़ के कार्यक्रम को लेकर प्रलेस द्वारा लिए निर्णय के संबंध में जो उस लेख में लिखा गया है, वो बिल्कुल सही है। आपने पहले से ही निर्णय लेकर प्रलेस की बैठक बुलाई और तय किया कि कोई भी इस कार्यक्रम में भाग नहीं लेगा, क्योंकि इसमें कांग्रेस की नेता डॉ. रीता बहुगुणा जोशी शामिल हो रही हैं। इसके बावजूद दो-तीन लोगों केा छोड़कर पूरा प्रलेस शामिल हुआ। अब आपके निर्णय और बैठक के औचित्य को क्या कहा जाए, कितना सफल रहा? इससे कई चीज़ें निकलकर सामने आ रही हैं। आपका यह तर्क कि प्रलेस के जितने लोग तीस्ता के कार्यक्रम में शामिल हुए हैं, वो सभी व्यक्तिगत तौर पर शामिल हुए थे। अब यह समझ से परे है कि व्यक्तिगत और संगठनात्मक क्या होता है। क्या ये संभव हैं कि जब कोई इंसान चार-पांच या आठ-दस कांग्रेसियों के साथ कहीं बैठ जाए तो वह कांग्रेसी और अकेले कहीं जाए तो भाजपा, सपा या बसपा की मानसिकता का होगा। आपके मुताबिक इंसान व्यक्तिगत पर किसी संगठन का होता है और संगठनात्मक तौर पर ठीक उसके विपरीत। आपका यह तर्क किसी भी हिसाब से उचित है क्या? एक दूसरी बात इसी मामले में सामने आ रही है कि आपने बैठक करके इसमें शामिल नहीं होने का निर्णय लिया क्योंकि कांगेसी नेत्री इसमें शामिल हो रही थीं। इसी आयोजन के तकरीबन दस दिन बाद जब आपने सांप्रदायिकता विरोधी रैली निकाली तो इसमें आपने एक ऐसे कांग्रेसी नेता को भी शामिल किया और उसका कार्ड पर नाम छापा, जिसने कुछ दिन पूर्व अपने यहां श्री राहुल गांधी की बैठक बुलाई, ग्रामीणों केा बुलवाकर कांग्रेस के हक में वोट देने की बात कहलवाई। ये आपका कौन सा स्टैंड है? प्रलेस के ही संरक्षक मंडल में कई ऐसे लोग भी शामिल हैं जो कांग्रेस और सपा के संगठन तक में अंदर तक जुड़े हैं, महत्वपूर्ण कार्य अपनी पार्टियों के लिए करते हैं, क्या इन्हें प्रलेस का संरक्षक रहना चाहिए। इसी आयोजन में बीएसयू के अवकाश प्राप्त अध्यापक श्री चौथी राम जी शामिल हुए थे। उन्होंने अपने वक्तव्य में मुजफ्फनगर दंगे के लिए गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और भाजपा नेताओं केा जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने प्रदेश की सपा सरकार के खिलाफ एक शब्द नहीं बोला। प्रदेश की सत्ता की बागडोर संभाल रही सरकार क्या इसके लिए बिल्कुल भी जिम्मेदार नहीं है? उच्चतम न्यायालय भी इस मामले में प्रदेश सरकार को लापरवाह बता चुकी है। लेकिन श्री चौथी राम जी को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से पुरस्कार मिला है, इसलिए प्रदेश सरकार के खिलाफ नहीं बोलेंगे। श्री चौथी राम जी का यह स्टैंड आपकी नजर में बिल्कुल ठीक है।
इसी प्रकार प्रलेस के राष्टीय अध्यक्ष महोदय दिल्ली में भाजपा और आरएसएस के तमाम नेताओं के साथ मंच साझा करते रहे हैं, तब किसी को कोई आपत्ति नहीं, वे सही हैं। उनके तमाम फोटोग्राफ देखे जा सकते हैं।
                                                    इम्तियाज़ अहमद गा़ज़ी
                                                    सदस्य सचिव मंडल-  प्रलेस
                                            

गुरुवार, 15 मई 2014

समाज लड़कियों को इंजॉय करने की इज़ाज़त नहीं देताः फहमीदा रियाज़


फहमीदा रियाज़ अंतरराष्ट्रीय ख़्याति प्राप्त तरक्की पसंद अदीबा व शायरा हैं. पाकिस्तान के सिंध राज्य में रहती हैं. यूं तो पाकिस्तान  में एक से बढ़कर एक शायरा पैदा र्हुइं, लेकिन परवीन शाकिर, जह़रा निगाह, किश्वर नाहिद और फहमीदा रियाज़ की तरह किसी और शायरा को इतनी शोहरत व मक़बूलीयत नसीब नहीं हुई. फहमीदा रियाज़ इलाहाबाद में दूसरी बार नवंबर 2013 में आयी. इसी दौरान गुफ़्तगू के उपसंपादक डॉ. शाहनवाज़ आलम ने बात की. प्रस्तुत है उसके कुछ प्रमुख भाग.
सवालः आपने लिखना कब शुरू किया?
जवाबः जब मैं 15(पंद्रह) साल की थी, तभी कालेज के दिनों में एक नज़्म लिखी थी. जिसको मेरे दोस्तों ने बहुत सराहा. दोस्तों की ही जिद़ पर मैंने यह नज़म पाकिस्तान के उस ज़माने के मशहूर रिसाला ‘फूनून’ में छपने के लिए भेजा. जिसके संपादक मशहूर अफ़साना निगार व शायर अहमद नदीम क़ासमी थे.
सवालः आपका पहला काव्य संग्रह कब प्रकाशित हुआ?
जवाबः ‘पत्थर की ज़बान’ 1968 ईं. में छपा तब मैं 22 साल की थी. मेरे शादी को सिर्फ दो महीने हुए थे.
सवालः अपनी शुरूआती ज़िन्दगी के बारे में कुछ बताइए?
जवाबः मैं 28 जुलाई 1946 को उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में पैदा हुई. मेरे वालिद रियाजुद्दीन अहमद जदीद दौर के माहिरे तालीम थे. उन्होंने सिंध पाकिस्तान में इस सिलसिले में ज़बरदस्त काम किया. वह वहां जदीद तालीम के बानी माने जाते हैं. जब मैं चार साल की हुई तो वालिद साहब का इंतेक़ाल हो गया. वालिदा ने परवरिश की. मेरी वालिदा हुस्ना बेगम ने बड़ी ही जद्दोजहद से हम लोगों को पढ़ाया. सिंधी और उर्दू मीडियम से मैंने पढ़ायी की और इन दोनों ज़बानों में शायरी भी. बाद में मैंने फारसी और अंग्रेजी भी सीखी. कालेज के दिनों में ही मैं पाकिस्तान रेडियो मंे न्यूज कास्टर की हैसियत से काम करने लगी.
सवालः अपने इब्तेदाई दिनों की कोई नज़्म सुनाइए?
जवाबः मेरी चमेली की नर्म खुश्बू/हवा के धारे पर बह रही है
हवा के हाथों में खेलती है/तेरा बदन ढूंढने चली है
मेरी चमेली की नर्म खुश्बू/ मुझे तो ज़ंज़ीर कर चुकी है
उलझ गयी कलाईयों में/मेरे गले से लिपट गयी है
वह याद की कुहर में छुपी है/सियाह खुन्की में रच गयी है
घनेरे पत्तों में सरसराते/तेरा बदन ढूंढने चली है।
 सवालः अपने परिवार के बारे में कुछ बताइए?
जवाबः ग्रेजुएशन के बाद मेरी शादी हुई. एक बेटी हुई, कुछ सालों बाद तलाक़ हो गया. उस वक्त मैं बीबीसी उर्दू प्रोग्र्राम से मुंसलिक हो गयी थी. इसी दौरान मैंने फिल्म मेंकिग में डिग्री हासिल की. कराची में एक एडवरटाइजिंग एजेंसी खोली और एक उर्दू प्रकाशन ‘आवाज़’ नाम से शुरू किया. उन्हीं दिनों जफ़र अली उज़ान से मुलाक़ात हुई. वह एक लेफिस्ट पॉलिटीकल कार्यकर्ता थे. हम लोगों ने एक दूसरे को पसंद किया और शादी कर लिया. इनसे दो बच्चे हुए वीरला अली उज़ान, कबीर अली उज़ान (मरहूम). हमारे पब्लिकेशन ‘आवाज़’ में लिबरल और राजनैतिक किताबों की खबर लोगों तक पहुंची. लोगों ने खूब बवाल मचाया और कई तरह के मुकदमे हम पर डाल दिए गए थे. मुक़दमे जफ़र पर भी थे. ब्रिटिश ऐक्ट 124ए के तहत मुकदमें चले. मैं आवाज़ की एडिटर और पब्लिशर थी. ज़फर जेल चले गये. हमें हमारे चाहने वालों ने जेल जाने से पहले ही जमानत पर रिहा करवाया और मैं अपने दो छोटे बच्चों और बहन के साथ हिन्दोस्तान आ गयी. बाद में जेल से छूटकर ज़फ़र भी हिन्दोस्तान आ गये. मैंने यहां सात साल गुज़ारे. इस दौरान जामियां मिल्लिया इस्लामिया और जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर की हैसियत से काम किया. फिर बेनज़ीर भुट्टों के शादी के मौके से हम लोग पाकिस्तान गए. जब बेनज़ीर भुट्टों पहली बार प्रधानमंत्री बनीं तो हमें नेशनल बुक फाउंडेशन का मैनेजिंग डायरेक्टर बनाया गया. नवाज़ शरीफ सरकार ने हमें हिन्दोस्तानी एजेंट और बहुत सारे इल्जाम से नवाज़ा. जब बेनजीर भुट्टों दूसरी बार वज़ीरे आज़म बनी तो मुझे क़ायदे आज़म एकेडमी का चार्ज दिया गया. इसी दौरान मेरा बेटा कबीर अक्टूबर 2007 ई. में अपने दोस्तों के साथ पिकनिक मनाने गया और स्विमिंग के दौरान हादसे का शिकार हुआ. 2008 में मैंने मौलाना रोमी की पचास नज़्मों का तर्जुमा फारसी से उर्दू में किया. यह मसनवी मौलाना जलालुद्दीन रोमी ने अपने शेख शम्स तबरेज़ को डेडीकेट किया है. मैं 2000 से 2011ई. तक उर्दू शब्दकोश बोर्ड की मैनेजिंग डायरेक्टर भी रही. मैंने सामाजिक और राजनैतिक कार्यकर्ता के रूप में भी काम किया. मैंने सिंध यूनिवर्सिटी में एम.ए के दौरान छात्र राजनीति में हिस्सा लिया. मैंने यूनिवर्सिटी संविधान के खिलाफ खूब लिखा. जनरल अयूब खां के जमाने में छात्र राजनीति पर पाबंदी लगा दी गई. जनरल ज़िया उल हक़ के ज़माने में हमें बहुत ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ा.
सवालः आप अपनी रचनाओं के बारे में कुछ बताइये. अब तक आपकी काव्य और गद्य की कितनी किताबें छप चुकी हैं?
जवाबः- जो मन में आता है लिख देती हूं. बाद में कई बार लोग बुरा-भला भी कहते हैं जिससे तकलीफ़ होती है. एक लड़की होना हमारे समाज में एक ऐसी चीज़ है जो समझ से परे है. लड़कियों को इंजॉय करने की समाज इजाज़त नहीं देता. मैं तो कुछ लिख भी देती हूं, लेकिन समाज अभी भी दकियानूसी दौर में जी रहा है. वैसे मैंने 15 साल की उम्र में लिखना शुरू किया. मेरी पहली नज़्म उस जमाने के मशहूर रिसाला फूनून में शाया हुआ. कई मुजमुए, नावेल और तर्जुमें प्रकाशित हुए. ‘बदन दरीदा’, पत्थर की जब़ान, ख़ते मरमूज़, गोदावरी नावेल, क्या तुम पूरा चांद न देखोगे, कराची, गुलाबी कबूतर, धूप, आदमी की ज़िन्दगी, खुले दरीचे से, हलक़ा मेरी जंजीरों का, अधूरा आदमी, पाकिस्तानी लिट्रेचर और सोसायटी, क़ाफिला परिंदो का, ये खाना-ए-आबो-गिल, दरीचा-ए-निगारिश, हम रिकाब आदि. इसमें शेरी मजमुए, नाविल, सफरनामे और तर्जुमें वग़ैरा शामिल है.
सवालः जब आप हिन्दोस्तान तशरीफ लाईं तो यहां किसी तरह की परेशानियों का सामना तो नहीं करना पड़ा?
जवाबः परेशानी ही परेशानी थी, लेकिन यहां मेरे दोस्तों ने संभाला. खासतौर से जनवादियों ने डी.पी.त्रिपाठी साहब ने उस वक्त मेरी बहुत मदद की. पहले वह कम्यूनिस्ट पार्टी में थे. अब शायद पार्टी बदल ली है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक दंगों का बाज़ार गर्म था. आडवानी साहब रथ यात्रा निकाल रहे थे. गुलाम ख्बानी ताबां, डी.पी.त्रिपाठी और मैं पश्चिम उ.प्र. के दौरे पर गए. जिस तरह के खून खराबे से हम सिंधी मजबूर थे. उसी तरह के हालात पैदा हो गये थे.
सवालः सबसे मुश्किल दौर आपके ज़िन्दगी का कौन सा था?
जवाबः  मैं हिन्दोस्तान इसलिए आयी थी कि यह एक सेक्युलर मुल्क है, लेकिन यह सब ख्वाब था. मैंने यहां के सांप्रदायिक माहौल पर एक नज़्म ‘नया भारत’  लिखा. इस पर इतना बड़ा हंगामा हुआ कि पूछिये मत. दो दिन बाद मेरी फ्लाइट थी. मैं सोच नहीं पा रही थी कि क्या करूं. फिर मैं पाकिस्तान वापस चली गयी. वह नज़्म हमें कुछ कुछ याद आ रहा है.
नया भारत
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले/अब तक कहां छुपे थे भाई।
वह मुरखता वह घामड़पन,/जिसमें हमने सदियां गंवायी।
आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे,/अरे बधाई, बहुत बधाई।
प्रेत धर्म का नाच रहा है, कायम हिन्दू राज करोगे।
सारे उलटे काज करोगे, अपना चमन ताराज़ करोगे।
तुम भी बैठे राज करोगे,/सोचा कौन है हिन्दू कौन नहीं है।
तुम भी करोगे फतवा जारी,/अरे बधाई बहुत बधाई।
एक जाप सा करते जाओ,/बारम-बार यही दुहराओ।
कितना वीर महान था भारत/कैसा आलीशान था भारत।
प्रेत धर्म का नाच रहा है/अरे बधाई बहुत बधाई
इस नज़्म को मेरे दोस्त खुशवंत सिंह जो एक सीनियर सहाफ़ी भी हैं ने अंग्रेजी में तर्जुमा करके अंग्रेजी अख़बारात में प्रकाशित कराया.
सवालः पाकिस्तान में साहित्य पर क्या काम हो रहा है?
जवाबः पाकिस्तान में अदब में बहुत कुछ लिखा जा रहा है. मैं समझती हूं कि हिन्दोस्तान से ज़्यादा, क्योंकि वहां की ज़रूरत है. हिन्दोस्तान में जितनी आज़ादी औरतों को हासिल है, पाकिस्तान में नहीं है. मैंने समाजी, सियासी नाइंसाफी के खिलाफ़ खुलकर आवाज़ उठायी और बहुत कुछ लिखा.
सवालः पाकिस्तान में मजहबी ग्रुप बहुत ज़्यादा हावी है. हम लोग यहां के अख़बारों में पढ़ते रहते हैं कि कभी वह मस्जिद में धमाके कर रहे हैं तो कभी मदरसे में गोली चला रहे हैं. बार-बार फौज़ी हूकूमतें आ रही हैं, मार्शल ला लग रहा है, जम़हूरियत की धज्जियां बिखेरी जा रही है? ऐसे में वहां की जनता किस तरह रहती है?
जवाबः हां! यह बात कुछ हद तक सही हो सकती है. कुछ लोग है जिन्हें असल मज़हब के मायने नहीं पता है. इन लोगों को कौन बताये कि मज़हब लोगों को अलम करने के लिए नहीं है, बल्कि लोगों को जोड़ने के लिए आया है. यही सोच मार्क्स का भी है सांप्रदायिक सदभाव और मार्क्सवाद असल में एक ही चीज़ है. दोनों इन्सान को इन्सान बनाना सिखाता है और समाजी बराबरी की सीख देता है.
सवालः आपने मौलाना जलालुद्दीन रोमी के मसनवी का उर्दू तर्जुमा (शायद यह उर्दू का पहला मन्जूम तर्जुमा भी है) किया है? आप का नाम साउथ, इस्ट एशिया के मशहूर तरक्की पसन्द अदीबों में होता है. फिर आपने एक मज़हबी शायर के किताब का तर्जुमा किया बात समझ में नहीं आती?
जवाबः मार्कसी होने का मतलब नाज़ी के सारे फ़साने का ठुकराना हो ऐसा नहीं होना चाहिये. सज्जाद ज़हीर जब जेल में रखे गये तो उन्होंने ‘हाफ़िज़’ पर किताब लिखी, सरदार ने इक़बाल पर मैंने मौलाना रूमी पर लिखी तो कौन सी बुरी बात हुयी.
सवालः आपके पड़ोसी मुल्क अफगानिस्तान मेें अभी तक जंग-जारी है. क्या पाकिस्तान ने और वहां के अदीबों ने उस दिशा में अमनो, अमान के लिए कोशिशें की?
जवाबः वहां के हालात दूसरे हैं, अभी तो पाकिस्तान की ही हालत ठीक नहीं है. मजहबी ग्रुप हावी है. अफगानिस्तान में तालिबान की ज़ालिमाना हरक़त को पूरी दुनिया जानती है. उन्होंने वहां के तारीख को मिटाना चाहा. ‘बुद्ध’ जो शान्ति की अलामह है, उनकी मूर्ति को खाक में मिला दिया. इस पर मैंने एक नज़्म लिखी थी. मोजस्सेमा गिरा  मगर ये दास्तां अभी तमाम तो नहीं हुयी दिया कई बरस तैय हुये. लिखेगा दिन को आदमी/बरंगे आबो जुस्तजू/ वह हुस्न की तलाश में/वह मुन्सफ़ी की आस में/खुली है सड़क खुल गयी दुकां में कितना माल है/दुकां में दिलबरी नहीं/मकां में मुन्सिफ़ी नहीं/ अभी तो हर बला नयी/अभी है काफ़ले रवां/गुलों मेें नस्ब है निशा।/मुजस्सेमा गिरा मगर/जमीं पे ज़िन्दगी दुकां के नाम पर नहीं हुयी/हमारी दास्तान अभी तमाम पर नहीं हुयी.
सवालः हिन्दोस्तान और पाकिस्तान को आपसी रिश्ते की बहाली के लिए आपकी नज़र में क्या कदम उठाना चाहिये?
जवाबः दोनों तरफ की अवाम अमन चाहती है. दोनों मुल्कों को चाहिये कि ाजां में आसानी पैदा करें. कश्मीर तनाज़े का शांतिपूर्ण हल निकाला जाये. दोनों मुल्क अपने सैन्य वजह में कमी करके आम जनजीवन के लिए काम करें. दोनों मुल्कों को एक दूसरे की टेक्नोलाजी से फायदा उठाना चाहिये. अंतरराष्टीय अमन और एलाक़ाई अमन के लिए सार्क मुल्कों की आपसी मशविरे और गुफ़्तगू करके एक बड़़ा मजबूत ‘नो वार पैकेट एग्रीमेंट’ करें. तक़सीने हिन्द के बाद इलाके में रहने वाले लोगों के रिश्ते सरहद के उस पर बंट गये, उसकी बहाली की कोशिश करनी चाहिये. ब्तवेे व िस्ण्व्ण्ब्ण् ज्तंकम को फ़रोग देने के लिए दोनों तरफ के ब्ींउइमते व िबवउउमतबम पदकनेजतपमे को ऐतेनाद में लेकर मसबत कदम उठायाा जाये.  दोनों तरफ सैकिंग सिस्टम को बहाल करके हिजारत को फरोग़ दिया जाये।

रविवार, 4 मई 2014

कैम्पस काव्य प्रतियोगिता में फर्रूखाबाद के जयप्रकाश प्रथम

प्रथम पुरस्कार विजेता जयप्रकाश मिश्र को पुरस्कृत करते एसएमए काज़मी, वज़ीर अंसारी और नरेश कुमार ‘महरानी’
 गुफ्तगू का यह प्रयास बेहद सराहनीय-अंसारी
इलाहाबाद। साहित्यिक संस्था ‘गुफ्तग’ के तत्वावधान में 27 अप्रैल 2014 को आयोजित हुए कैम्पस काव्य प्रतियोगिता-3 में फर्रूखाबाद के जयप्रकाश मिश्र ने प्रथम स्थान हासिल किया, दूसरे स्थान पर लखीमपुर खीरी के धनंजय मिश्र और तीसरे स्थान पर इंदौर के अशीष तिवारी ‘जुग्नू’ रहे। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि अजामिल व्यास ने की, मुख्य अतिथि मौलाना आजाद एजुकेशन फाउंडेशन नई दिल्ली के सचिव मोहम्मद वज़ीर अंसारी थे। निर्णायक मंडल में अमर उजाला के संपादक अरुण आदित्य, वरिष्ठ पत्रकार रणविजय सिंह सत्यकेतु, पूर्व महाधिवक्ता एसएमए काज़मी, हसनैन मुस्तफ़बादी, रितंधरा मिश्रा, गोपीकृष्ण श्रीवास्तव, डॉ.पीयूष दीक्षित, अखिलेश सिंह, रविनंदन सिंह और अख़्तर अज़ीज़ शामिल थे। संचालन इम्तियाज अहमद गाजी ने किया। प्रतियोगिता तीन स्टेप में पूरा किया गया। कुल 114 लोगों ने आवेदन किया था, इनमें स्तरीय रचना के अधार पर 42 लोगों का चयन करके उन्हें बुलाया गया। 42 में 38 लोग पहुंचे थे, इन प्रतिभागियों का टेस्ट अजामिल व्यास और अख्तर अज़ीज़ ने लिया। 38 में से 15 लोगों का चयन करके उनका काव्य पाठ मुख्य चयन समिति के सामने कराया गया।
कार्यक्रम के दौरान अपने संबोधन में मुख्य अतिथि वज़ीर अंसारी ने कहा कि इलाहाबाद की संस्था गुफ्तगू ने छात्र-छात्राओं की प्रतियोगिता आयोजित करके बेहद सराहनीय कार्य शुरू किया है, इससे नये प्रतिभाओं का उत्साहन मिल रहा है। अरुण आदित्य ने कहा जब यह महसूस हो कि कविता लिखे बिना जिन्दा नहीं रह सकता तभी  कविता लिखना चाहिए, अन्यथा कविता लेखन का कोई मतलब नहीं है। पूर्व महाधिवक्ता एसएसमए काज़मी ने कहा कि जिस प्रकार गांधी जी लोगों को संगठित करने के लिए कार्य करते थे, ठीक उसी प्रकार गुफ्तगू संस्था लोगों को एक मंच पर लाकर संगठित होने का कार्य कर रही है, खासतौर पर नये लोग जुड़ते जा रहे हैं। इलाहाबाद शहर में इस संस्था का आंकलन अच्छे ढंग से किया जाने लगा है। प्रतियोगिता में प्रथम स्थान वाले का 2100 रुपये नगद, 500 रुपये की किताब और प्रशस्तिपत्र, दूसरे स्थान वाले को 1500 रुपये नगद, 500 रुपये की किताब और प्रशस्तिपत्र, तीसरे स्थान वाले को 1000 रुपये नगद, 500 रुपये की किताब और प्रशस्तिपत्र दिया गया। इनके अलावा दस प्रतिभागियों को विशिष्ट सम्मान के रूप में 500-500 रुपये की किताबें और प्रशस्ति पत्र दिया गया, यह सम्मान पाने वालों में सुधा शुक्ला, धीरेंद्र प्रताप सिंह, शुभम श्रीवास्तव, अराधना मिश्रा, नीलू मिश्रा, ऋषिकेश सारस्वत, विजय यादव, नेहा मिश्रा, पूजा कुमारी और प्रभात राय हैं। कार्यक्रम में मुख्य रूप से नरेश कुमार ‘महरानी’, शिवपूजन सिंह, नायाब बलियावी, अजय कुमार, अनुराग अनुभव, हुमा अक्सीर,रोहित त्रिपाठी रागेश्वर, प्रभाशंकर शर्मा, रमेश नाचीज़, डॉ. वीरेंद्र तिवारी, शुभ्रांशु पांडेय, सौरभ पांडेय,शादमा ज़ैदी शाद, एखलाक सिद्दीकी, अजीत शर्मा ‘आकाश’सागर होशियारपुरी,कविता उपाध्याय, सलाह गाजीपुरी आदि मौजूद रहे।
कार्यक्रम के दौरान मौजूद लोग
द्वितीय पुरस्कार विजेता धनंजय मिश्र को पुरस्कृत करते अजामिल व्यास, एसएमए काज़मी और वज़ीर अंसारी
तृतीय पुरस्कार विजेता आशीष तिवारी को पुरस्कृत करते अजामिल व्यास, एसएमए काज़मी और वज़ीर अंसारी
पूजा कुमारी को पुरस्कृत करते रणविजय सिंह, अजामिल व्यास, एसएमए काज़मी और वज़ीर अंसारी
विजय यादव को पुरस्कृत करते वज़ीर अंसारी, हसनैन मुस्तफ़ाबादी और ऋतंधरा मिश्रा
सुधा शुक्ला को पुरस्कृत करते नरेश कुमार ‘महरानी’,पीयूष दीक्षित, रणविजय सिंह और अजामिल व्यास

मोहम्मद वज़ीर अंसारी
 अजामिल व्यास
एसएमए काज़मी
अरुण आदित्य
हसनैन मुस्तफ़ाबादी
गोपी कृष्ण श्रीवास्तव
अख़्तर अज़ीज,   
ऋतंधरा मिश्रा
पीयूष दीक्षित
रणविजय सिंह
संचालन करते इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
पहले दौर का टेस्ट लेते अजामिल व्यास और अख़्तर अज़ीज़
काव्य पाठ करते जय प्रकाश मिश्र
काव्य पाठ करते आशीष तिवारी
काव्य पाठ करती अराधना मिश्रा
काव्य पाठ करतीं सुधा शुक्ला
काव्य पाठ करते धनंजय मिश्र
काव्य पाठ करते विजय यादव,
काव्य पाठ करते अतुल जायसवाल
काव्य पाठ करते धीरेंद्र प्रताप सिंह
काव्य पाठ करते मानस भल्ला
काव्य पाठ करती नीलू मिश्रा
काव्य पाठ करती नेहा मिश्रा
काव्य करते प्रभात राय
काव्य पाठ करती पूजा कुमारी
काव्य पाठ करते ऋषिकेष सारस्वत
काव्य पाठ करते शुभम श्रीवास्तव

सोमवार, 14 अप्रैल 2014

गुफ्तगू का अदबी सफ़र शानदार-क़दीर

नवाब शाहाबादी अंक का विमोचन और मुशायरा
इलाहाबाद। साहित्यिक पत्रिका ‘गुफ्तगू’ अपने प्रकाशन के 11वें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है, इलाहाबाद शह्र से इस तरह की पत्रिका का प्रकाशन होना अपने आप में बेहद सराहनीय है। गुफ्तगू टीम ने इस दौर में साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन सफलतापूर्वक करके एक मिसाल कायम किया है। ये बातंे वरिष्ठ शायर एम.ए.क़दीर ने छह अप्रैल 2014 को महात्मा गांधी अंतरराष्टीय हिन्दी विश्वविद्यालय के परिसर में नवाब शाहाबादी अंक के विमोचन अवसर पर कही। वे कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि मौजूद रहे। कार्यक्रम की अध्यक्षता पं. बुद्धिसेन शर्मा ने की, विशिष्ट अतिथि के तौर पर कानुपर के प्रो. खान फारूक, प्रो. अली अहमद फ़ातमी और गोपीकृष्ण श्रीवास्तव मौजूद रहे। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया। गोपीकृष्ण श्रीवास्तव ने अपने संबोधन में कहा कि यह पत्रिका अब धीरे-धीरे इलाहाबाद की पहचान बन गई है। हमें ऐसे प्रयासों की प्रसंशा करनी चाहिए।
दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया।
इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी-
                                                      अब इलेक्शन का ये फलसफ़ा हो गया।
वो जो क़ातिल रहा रहनुमा हो गया।



 नरेश कुमार महरानी-
                                                    निगाहों में बसी थी तू कभी मेरे इस तहर के,
भुलाने तुझे कसमें कभी खाई नहीं होती

 अजय कुमार-
                                                                मर्यादा के भाव न जाने,
                                                                 बनते रधुनंदन,
                                                                    कट्टा पिस्टल हाथों में है
माथे पर चंदन

 शिवपूजन सिंह-
                                                          कुछ यादें कुछ वादें, कुछ दिल की फरियादें
                                                           कुछ इरादे कुछ मुरादें,
कुछ कुछ यही तो है ज़िन्दगी

 कविता उपाध्याय-
                                                 ज़िन्दगी ख्वाब की मानिन्द हुई जाती है,
जब तलक होश में आए हैं फिसल जाती है।

 अख़्तर अज़ीज़-
                                                 हमसे अलग-थलग वो कहीं डर के हो गए,
हम एहतियातन आज से पत्थर के हो गए।

 रमेश नाचीज़-
दो पैरों दो हाथों वाले जितने भी हैं दुनिया में,
मैं सबको इंसान समझ लूं ये कैसे हो सकता है।
 संजू शब्दिता-
                                                         बेकली मेरे दिल की मिटा दीजिए।
ऐ मेरे चारागर कुछ दवा दीजिए।

 शैलेंद्र जय-
                                                   ज्ीने की कला मैंने फूलों से उधार ली है,
यू ही नहीं ज़िन्दगी कांटों में गुजार ली है।

 मनमोहन सिंह तन्हा-
                                                काम जो तन्हा करो तुम काम वो दिल से करो,
ज़िन्दगी का क्या भरोसा आज है कल हो न हो।

 रज़िया शबनम-
                                                     मैं किससे गुफ्तगू करूं किससे मिलूं गले,
मुझको अभी खुलूस का इंसां नहीं मिला

 रोहित त्रिपाठी ‘रागेश्वर’-
मेरे हंसने से चिढ़ते हो अगर तो पहले कह देते,
मेरे कारण तेरा जलता है घर तो पहले कह देते।
-
 नुसरत इलाहाबादी-
                                                          उनकी आंखों में तश्नगी के सिवा,
हमने अब तक नमी नहीं देखी।

 अरविन्द कुमार वर्मा-
                                                    कई बार होठों पर याचना के थरथराए हैं वचन,
भूली सी राह पर बढ़ गए हैं अंजाने कदम।

 अशरफ अली बेग-
तड़प हर आन पीछे जाएगी फ़िर,
बला टल करके भी सर आएगी फिर.
डा. विक्रम-
                                                   खता क्या थी कि लोगों ने पागल बना दिया,
बाजार गया तो लोगों ने अवारा बना दिया।

 केशव सक्सेना-
                                                         सार्वजनिक होती अश्लीलता से
                                                          अपने देश को बचाओ
नई पीढ़ी को संस्कार सिखाओ।

 अमित कुमार दुबे-
                                                       नये ये नजारे बहुत दिलनशीं हैं,
मगर मुझको भाती है चीजें पुरानी।
 
 रितंधरा मिश्रा-
                                                    निगाहों से शरारत सामने ही कर रहा कोई,
अपनी ही अदायगी से मोहब्बत कर रहा कोई

 अजय पांडेय-
ढल रही शाम यह दिन गगन में ढल गया,
लो ज़िन्दगी का एक दिन हाथ से फिसल गया।
 एम.ए.क़दीर-
                                             खेल और जंग के वह खुद ही बनाता है उसूल,
                                               और जब हारने लगता है, बदल देता है।
                                                रोज़ पत्थर की इमारत पर कहां पड़ती है जान,
                                                  इश्क़ सदियों में कोई ताजमहल देता है।