शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

अपनी बातों को बता देने के खुले बहाव में रमेश नाचीज़


रमेश नाचीज़ का ग़ज़ल-संग्रह अनुभव के हवाले से हाथों में है. पन्ने खुले हैं. प्रस्तुतियों के शब्दों का स्वर ऊँचा है. मेरे पाठक से संवाद बनाने को आतुर ! और, मेरे पाठक को सुनने सुनने की ऑप्शन है ही नहीं. उसे इन्हें सुनना ही है. बिना सुने रह नहीं सकता. पाठकीय स्वभाव नहीं मानवीय संवेदना का आग्रह है कि इन्हें सुना जाय. स्वभाव और आचरण से ये शब्द आग्रही हैं. सुनना वैधानिक या नैतिक नहीं बल्कि मानवीय अपराध होगा. इन शब्दों की आवाज़ में साहित्यिक या वैचारिक क्लिष्टता नहीं है, निवेदन है, बल्कि अपनी पृष्ठभूमि की गर्भिणी गंगा के कीचड़-कादो से सने ये शब्द असहज उच्चार करते हुए सीधे-सीधे मुँह पर चीख रहे हैं. इनके कहे में व्यक्तिवाची भाव कत्तई नहीं है. तभी तो इनमें ग़ज़लकार की अहमन्यता भी नहीं देखते हम ! शताब्दियों की पृष्ठभूमि से इनको मिला कीचड़-लेप इन्हें अनगढ़ ही सही किन्तु आवश्यक रूप से मुखर तो बना ही रहा है, खूब साहसी भी बना रहा है. इस ग़ज़ल-संग्रह के शब्द संवाद-संस्कार का वायव्य भाव नहीं बनाते, बल्कि अपनी बातों को बता देने के खुले बहाव में दीखते हैं. यही कारण है कि संग्रह की ग़ज़लों के शब्द मायनों का विशेष रूप अख़्तियार कर पा रहे हैं.
किन्तु यह भी जानना आवश्यक है कि अभिव्यक्ति के उत्साह में कितनी स्पष्टता है और कितना दायित्वबोध है ? इनपर अवश्य ही मीमांसा होनी चाहिये. क्योंकि साहित्य आम-जन के पक्ष को रखता हुआ भी संप्रेषण-संस्कार से ही सधता है. यहीं साहित्यकर्म आकर्षक या आवश्यक ही सही किसी नारा या चीख से अलग दीखता है. यहीं रचनाकर्म का परिणाम साहित्य की कसौटियों पर खुद ही जीने-पकने लगता है. अक्सर देखा गया है कि पक्ष प्रस्तुतीकरण का प्रारूप यदि चीख है, तो वह चीख के आर्त को साझा तो अवश्य करता है, परन्तु कई बार सटीक या विन्दुवत होने से रह जाता है. और, हक़ की बातें हाशिये पर चली जाती हैं. साहित्यकर्म नारों या चीखों को स्वर भले दे, स्वयं नारा या चीख होने लगे तो नुकसान उस पूरे समाज को होता है, जिसके तथाकथित हित के लिए चीख-चीत्कार हुआ करती है.
जो अतुकान्त परिस्थितियाँ और सामाजिक विसंगतियाँ नाचीज़ भाई के संग्रह की मूल विन्दु बनी हैं, वे अब किन्हीं विशेष संज्ञाओं के स्वरों की मुखापेक्षी नहीं रह गयी हैं. मेरा पाठक भाई रमेश नाचीज़ के ग़ज़ल-संग्रह को इन्हीं संदर्भों की टेक पर आगे समझना चाहता है.
लेकिन उससे पहले यह अवश्य समझ लिया जाय कि अनुभव आखिर है क्या, जिसकी तथाकथित कसौटी पर कसे तथ्यों का हवाला दिया जा सके ? और, अनुभव का दायरा यथार्थबोध से कितना संतुष्ट होता है ? किसी संप्रेषण में जाती अनुभव का विस्तार और उसकी गहराई कैसे समझी जाय ? क्या कागद लेखी’ किसी ’कानों सुनी’ या किसी आँखिन देखी’ के समक्ष टिक पाती है ? अव्वल, क्या किसी दमित समाज की दारुण स्थितियाँ या पीड़ित व्यक्तियों की दशा-अभिव्यक्तियाँ सापेक्षता की आग्रही हैं ? यदि हाँ, तो कविधर्म और उसका रचनाकर्म फिर क्या है ? साहित्य में संवेदनाओं के कैटेगराइजेशन और उसके क्लासिफ़िकेशन को कितनी मान्यता मिलनी चाहिये ? क्योंकि, मेरी स्पष्ट मान्यता है कि साहित्यकर्म कोई व्यक्तिगत विलासिता या गुण-प्रदर्शन का ज़रिया होकर एक दायित्वबोध है, जो व्यक्तिगत दुःखों और उसके संप्रेषण को सार्वभौमिक बनाता है. इस हिसाब से साहित्यकर्म उस श्राप का पर्याय है जिससे ग्रसित कोई रचनाकार अपने जाती दुःखों के साथ-साथ यदि संपूर्ण समाज नहीं, तो कम-से-कम एक विशिष्ट तबके के दुःखों और पीड़ाओं को ही जीने को विवश होता है. तभी तो किसी रचनाकार की अभिव्यक्ति समस्त तबके की अभिव्यक्ति हो पाती है.
समाज के मठों के असंगत निरुपणों और रूढियों का प्रतिकार ही नहीं, खुल्लमखुल्ला नकार भी आवश्यक है. तभी कोई साहसी दम सार्थक रूप से अपेक्षित दायित्व का निर्वहन कर सकता है. साहित्य अगर आम-आदमी ही नहीं शताब्दियो से पीड़ित जन की बात करता है तो उसे जन को क्लासिफ़ाई करने के दोष से बचना ही होगा. लेकिन, रचनाकार यदि स्वयं विसंगतियों और तदनुरूप दुर्दशाओं का भोगी हुआ तो शब्दों की तासीर कई गुना बढ़ जाती है. तभी कोई रचनाकार द्वारा ऐसा ऐलान हो सकता है -
पापी, गँवार, शूद्र बताये गये हैं हम
लाखों बरस से यों ही सताये गये हैं हम ॥
या,
दलितों की सहके पीड़ा लिक्खो तो हम भी मानें
जो दर्द है तुम्हारा, वो दर्द है हमारा
उपरोक्त पंक्तियों के तथ्य सीधा वही कहते हुए दीखते हैं जो कहना चाहते हैं, बग़ैर अनावश्यक इंगितों के.
यहाँ ग़ज़लकार अपने समाज, अपने वज़ूद को लेकर संवेदनशील ही नहीं, अपेक्षित रूप से मुखर भी है, तो कई मायनों में दुःखी भी है -
हरिजन, गँवार, शूद्र, दलित, नीच और अछूत,
इका आदमी की ज़ात को क्या-क्या कहा गया
हरगिज़ आने देंगे हम रामराज वर्ना,
जायेगा मारा लोगो ! शम्बूक् अफिर हमारा
सामाजिक रूप से बना दी गयी जातिगत और वर्णगत सीमाओं का प्रतिकार करते हुए किसी क्षुब्ध मन से जागरुक तारतम्यता की अपेक्षा करना कत्तई उचित नहीं. लेकिन ग़ज़लकार बहुत हद तक संयम बनाए रखता है -
रूढिवादी मान्यताएँ टूट जायेंगी ज़रूर,
जोश में ग़र होश भी हाँ सम्मिलित हो जायेगा
फिर,
हम एकता की बात तो करते हैं आज भी,
हालांकि जातिवाद की दीवार है तो क्या
एक और बानग़ी -
पीछे हटे देने से क़ुर्बानियाँ कभी,
मिटते रहे जो देश पे, हम वो अछूत हैं
लेकिन यही संयम अपनी क्षीण दशा नहीं मुखर आवेश के कारण अक्सर टूटता है -
हम लोग अपने आपको हिन्दू कहें तो क्यों,
नाचीज़ जब अछूत बताये गये हैं हम
या,
कौन है मनुवादियों के पोषकों में अग्रणी,
इसका उत्तर सिर्फ़ तुलसीदास लिखना है हमें
एक ये भी -
क्या पढ़ें इस मुल्क का इतिहास भ्रम हो जायेगा,
वाह-वाही, छल-कपट से युक्त है इतिहास भी
इस परिप्रेक्ष्य में यह साझा करना आवश्यक होगा कि हर संप्रेषण के विधान अलग हुआ करते हैं. उनके मायने अलहदे हुआ करते हैं. जो काम साहित्यकार को शोभता है, वह राजनैतिक-दायित्वों से असंभव है. इसीतरह, राजनैतिकबोध भी साहित्यिक समझ की मात्र परिधि पर ही टँगा रह जाता है. तभी तो उचित यही माना जाता है कि किसी साहित्यकर्मी को उन मुखौटाधारियों से सचेत रहना चाहिये जो सियासती-नेज़े को आस्तीन में छुपा कर साहित्य के अरण्य में शिकार करते फिरते हैं. राजनीति और साहित्य का घालमेल कितना सुफल अर्जित कर पाया है, आज उसे यथार्थ की कसौटी पर संयत रूप से समझना हर साहित्यकार का फ़र्ज़ होना चाहिये. कहते हैं, देश की विडंबनाओं के प्रतिकार का हर रास्ता दिल्ली ही पहुँचता है. लेकिन यह सोच वाकई कितनी तर्कसंगत है इसे समझना ही होगा. क्या ऐसे विचारों का पोषण खुद सियासत का ही षडयंत्र नहीं है, ताकि जन-जन की आवाज़ को दिल्ली का चारण बनाये रखा जासके ? ऐसा होता तो आज़ादी के इतने सालों के बाद भी हाशिये पर पड़े जन की अपेक्षाएँ अनुत्तरित होतीं. लेकिन इस षडयंत्र से बच पाना इतना सहज नहीं है. अन्यथा, इन पंक्तियों का कोई कारण बनता -
तुम्हें मानना ही होगा तुम बनजारे ठहरे,
वर्ना हमको मज़बूरन समझाना होगा
भारत की सियासत की अगर बात करूँगा,
गँठजोड़ की सरकार बनाने से करूँगा
साहित्य यदि सियासत की पीठ पर सवारी करता हुआ अपना हासिल चाहता है तो यह अवश्य है कि वह अपनी मुख्य राह से हट कर डाइवर्सन पर चला गया है और भटकाव को जी रहा है. सामाजिक चेतना एक बात है तो राजनीति करना ठीक दूसरी बात. साफ़ ! दोनों में घालमेल हुआ नहीं कि नई परिचयात्मकता और परिभाषाएँ विद्रुप उदाहरणों से भर जायेंगी. कई-कई मायनों में यही हो भी रहा है.
इस जगह यह जानना रोचक होगा कि इस संग्रह का ग़ज़लकार वस्तुतः चाहता क्या है ? क्योंकि, प्रतिक्रियावादिता कभी कोई हल नहीं है. बल्कि, यह एक सिम्पटम है. आज के ग़ज़लकार भाई रमेश नाचीज़ से एक प्रबुद्ध साहित्यकार के तौर पर सामाजिक विसंगतियों के बरअक्स सुगढ़ सोच और व्यवस्थित समाधान की अपेक्षा रहेगी.
   संग्रह की भूमिकाओं में भाई यश मालवीय का नज़रिया जहाँ संतुलित और सर्वसमाही होने के कारण श्लाघनीय है, तो वहीं वरिष्ठ-शाइर और इस संग्रह के ग़ज़लकार रमेश नाचीज़ के अदबी-उस्ताद आदरणीय एहतराम इस्लाम की सार्थक विवेचना उनके प्रति अपेक्षित कारुण्यभाव से पगी मातृवत है. आदरणीय एहतराम साहब ने पाठकों को ग़ज़लकार की साहित्यिक यात्रा का हमराही बना कर उनकी अपेक्षाओं और उनके प्राप्य को स्पष्ट कर दिया है. वहीं, प्रो. भूरेलाल संग्रह की भूमिका लिखने के क्रम में इसकी विभिन्न सीमाओं का कई बार अतिक्रमण करते हुए-से प्रतीत हुए हैं, जिससे बचा जाना उन जैसे एक वरिष्ठ साहित्यप्रेमी के लिए सर्वथा उचित होता.
ग़ुफ़्तग़ू प्रकाशन के बैनर तले प्रकाशित इस ग़ज़ल-संग्रह अनुभव के हवाले सेका हार्दिक स्वागत किया जाना चाहिये. सामाज में व्याप्त विभिन्न स्तरों को समरस कर एक धरातल पर लाने का कठिन कार्य साहित्य का ही है, भले ही डंका कोई माध्यम क्यों पीटता फिरे. साहित्य-संसार में ग़ुफ़्तग़ू प्रकाशन ने बतक कई वैचारिक मान्यताओं को स्वर दिया है. भाई रमेश नाचीज़ की वैचारिकता को मुखर कर गुफ़्तग़ू प्रकाशन ने अपने दायित्व का निर्वहन ही किया है. यह अवश्य है कि टंकण त्रुटियों के प्रति संवेदनशील होने के बाद भी कतिपय दोष यत्र-तत्र दिख जाते हैं. 96 पृष्ठों की सज़िल्द पस्तक का मूल्य रु. 125/ मात्र है.
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सौरभ पाण्डेय
एम-2/ -17, एडीए कॉलोनी, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)
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