शनिवार, 20 अप्रैल 2019

अंजुमन इस्लाह के संस्थापक खान बहादुर

 खान बहादुर मंसूर अली

                                                               - मुहम्मद शहाबुद्दीन खान
                                             
 खान बहादुर मंसूर अली का जन्म गाजीपुर जिले के गोड़सरा गांव के ‘हाता’ नामक स्थान पर 18 सितंबर 1873 ई. को एक जमींदारी परिवार में सूबेदार मौलवी नबी बख्श खांन के घर हुआ था। इनकी माता मरीयम बीबी एक घरेलू खातून थी। शिक्षा ग्रहण करने के बाद सन 1890 ई. मंे लखनऊ ब्रिटिश नॉर्थरन रेलवे जोन में गुड क्लर्क रूप में उनकी नियुक्ति हुई। इनकी शादी उसिया गांव में मुस्समत बसीरन खातून से हुई, जिनसे तीन लड़की और एक लड़का हुआ। बीबी की देहांत के बाद इनकी दूसरी शादी अखिनी के मशहूर जमींदार सिकंदर खां की बहन बशीरन बीबी से हुई, जिनसे छः लड़के और एक लड़की थी। इंडो-पाक बटवारे में मंसूर अली की दूसरी पत्नी अपने तीन छोटे बच्चे और परिवार के कुछ सदस्यों के साथ पाकिस्तान को चली र्गइं। जहां पर उनके छोटे बच्चे इम्तियाज अली ने अपने पिता की याद मे पाकिस्तान की नार्थ अजीमाबाद में एक और मंसूर मंज़िल कोठी बनवाई। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी लंदन के पी.एच.डी.स्कॉलर और पत्रकार दानिश खान के मुताबिक पब्लिक सर्विस से जुड़े तमाम रेलवे ब्रिटिश आला अधिकारीयो के अच्छे कार्य करने पर खान बहादुर मंसूर अली को खान बहादुर की उपाधी दी गई थी। सन् 1913 ई. में ए.टी.एस. से 1921 में डी.टी.एस. यानी डिवीजन ट्रैफिक सुप्रिटेंडेंट के पद पर पद्दोनित हुए। उम्र से पहले नौकरी मिल जाने की वजह से ज्यदा समय शहरों मंे रहे, उनका गांव आना-जाना बहुत कम होता था। 
 खान बहादुर मंसूर अली किसी काम से अम्बाला कैन्ट गए थे, उसी समय दवैथा गांव के सुलेमान उसने मिले और कमसार में एक हाईस्कूल कायम करने की अपनी ख़्वाहिश जाहिर की। मंसूर अली ने उसने पूछा- छोटे मियां यह बातं तुम्हारे दिमाग में क्यों आई.? मौलवी सुलेमान साहब ने बताया कि जब मैं राजपूत रेजीमेंट में भर्ती हुआ मेरी पहली तनख़्वाह मिली, मैं जब डाकखाने को पैसा घर भेजने को गया। मुझे मनीऑर्डर फॉर्म भरने नहीं आ रहा था, मैंने पोस्टमास्टर से निवेदन किया उसने मुझे खूब डांटा, कहा कि इतने खूबसूरत नौजवान हो तुम्हारे बाप ने तुम्हे नहीं पढ़ाया क्या.? मैं उस पोस्टमास्टर की बात पर रो पड़ा। पोस्ट मास्टर मुसलमान और नेक दिल इंसान था जो मुझे पढ़ाने का वादा किया और मुझे खामोशी से आगे की पढ़ाई पूरा कराया। सन 1908 ई० में सुलेमान साहब से लखनऊ स्थित मंसूर मंजिल में एक खास गुफ्तगू के साथ खान बहादुर मंसूर अली ने पठान बिरादरी के लिए कदम आगे बढ़ाया। वह कमसारोबार एवंम गंगापार के राजपूत-पठानों की तमाम करीबी गांव का दौरा किए। चैधरियों और मुखियाओं को इकट्ठा किया। घर घर के झगड़े खत्म कराए, शादी विवाह में जहेज बारात पर हो रहे तमाम फिजूल गैर रश्मी रवाजों को बंद कराने का प्रयास किया। इस दौरान कभी बात बन-बन के बिगड़ जाती, सदियों पुराना गैर सामाजिक ढांचा रश्मोंरिवाज टूटता नज़र आया तो पुराने लोग मुख़ालपत पर उतर आये। इन सबके बावजूद आखिरकार, 10 अप्रैल 1910 ई. को इस्लाह की मीटिंग पूरी बिरादरी की मौजूदगी में गोड़सरा स्थित ‘हाता’ नामक स्थान पर हुई, और ‘अंजुमन इस्लाह-ए-मुआसरा’ का बुनियाद पड़ी।
  19 अप्रैल सन 1934 ई. को इस्लाह-ए-मुआसरा की पांचवीं मीटिंग बारा में मुनकिद की गई। मंसूर अली को मीटिंग में पहुंचने में लेट हुई, फिर भी गाजीपुर सिटी स्टेशन उतर, गंगा में नाव द्वारा बारा पहुंचे और वहां लेट पहुंचने की अफसोस जाहिर किए। इसी मीटिंग में बिरादरी के लोगों ने कमेटी गठन करने के लिए आठ नाम दिए, फिर उन नामों में से एक नाम अंजुमन इस्लाह मुस्लिम राजपूत कमसार-ओ-बार एवं गंगापार रखा, जिसे बाद सन 1940 में अंजुमन इस्लाह कमेटी के सदर डिप्टी सईद द्वारा कमेटी ने रजिस्टर्ड कर मुस्लिम राजपूत कॉलेज यानी एसकेबीएमकॉलेज की बुनियाद डाली गई।
 मंसूर अली खां का सपना था कि बिरादरी के लिए एक स्कूल खुले और सन 1933-34 के बीच दिलदारनगर में मुस्लिम प्राइमरी के नाम से स्कूल खोला भी लेकिन उसिया गांव से किसी आपसी इख़्तेलाक के कारण बंद हो गई। सन 1935-36 में मंसूर अली के बड़े भाई महियार खां के बड़े लड़के ईशा खां ने मंसूर अली के सपने को साकार करने के लिए दिलदारनगर में कमसारोबार क्षेत्र की शिक्षा के लिए मिर्चा मे छह बीघा जमीन कैप्टन अब्दुल गनी से खरीदी और वहां पर गांधी मेंमोरियाल इंटर कॉलेज की नींव रखी। इंडो-पाक बटवारे में ईशा खां के अलावा मंसूर अली के परिवार से तकरीबन 65 प्रतिशत लोग पाकिस्तान चले गए। इसलिए गांधी मेमोरियल कॉलेज टूटने के कगार पर पहुंच गया, इसलिए बिरादरी की  सहमति से एसकेबीएम इंटर कॉलेज में सम्मलित कर लिया गया था। 
उनके सबसे बड़े लड़के मंजूर अली खान की परपोती इर्रिगेशन चीफ इंजीनियर समीना खातून बताती हैं कि दादा मियां मंसूर अली खान की निशानियों में हमारे पास उनकी ड्राइंग रूम मे टंगी फोटो, सीनरी, दाढ़ी बनाने वाली किट, विजिटिंग कार्ड, इस्लाही दस्तावेज और फोटो तथा उनकी हाथों की लिखी एक अहम डायरी और पासबुक आदि मौजूद है। इसके अलावा उनका सम्मानित मैडल भी था जो अब अपर्याप्त है। खान बहादुर मंसूर अली के दूसरे बेटे मसूद अली के परपोते आईटी स्पेशलिस्ट दानिश खां बताते है, जल्द ही खान बहादुर मंसूरी अली फाउंडेशन, लखनऊ का गठन कर लखनऊ में सामाजिक दृष्टिकोण से समाज सेवा का काम किया जाएगा। 29 नवम्बर 1928 को मंसूर अली रेलवे से सेवानिवृत्त हुए और 1934 आखिर तक लखनऊ नगर निगम के चेयरमैन रहे। आखिरकार 61 वर्ष की उम्र में 19 अक्टूबर 1934 ई. को यह अजीम शख़्सियत इस फानी दुनिया को अलविदा कह गया। उनकी कब्रे मुबारक लखनऊ स्थित उनके अबाहीं कब्रिस्तान में गाजीपुर के महान हॉकी खिलाड़ी शहीद बदरूद्दीन खान के बड़े भाई पहलवान कमरुद्दीन खान के कब्र की दाहीने यानी पश्चिम जानिब मौजूद है। 
(गुफ्तगू के जनवरी-मार्चः 2019 अंक मेें प्रकाशित)

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

हमारे समय के ख़ास साहित्यकार हैं नीलकांत

                                 
neelkant
                                                                                   - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
    22 मार्च 1942 को जौनपुर के बराई गांव में जन्मे नीलकांत जी आज भी लेखन के प्रति बेहद सक्रिय हैं। लेखन के साथ ही विभिन्न साहित्यिक आयोजनो में अपनी सहभागिता से कार्यक्रम को नया आयाम देने का काम करते हैं। इनके पिता स्व. तालुकेदार सिंह किसान थे, आय का्र प्रमुख साधन कृषि ही था, मां स्व. मोहर देवी साधारण गृहणी थीं। आप चार भाई और एक बहन थीं। बड़े भाई स्व. मार्कंडेय जी जाने-माने साहित्यकार थे। इनके अलावा दो अन्य भाइयों के नाम रवींद्र प्रताप सिंह और महेंद्र प्रताप सिंह हैं, बहन का नाम बीना है। नीलकांत जी की प्रांरभिक शिक्षा के गांव के पाठशाला में हुई। कक्षा पांच पास करने के बाद रतनुपुर स्थित चंदवक, जौनपुर के इंटर काॅलेज से हाईस्कूल की परीक्षा पास की। इसके बाद इलाहाबाद आ गए। इलाहाबाद में जीआईसी से इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक और परास्नातक किया। परास्नातक इन्होंने दर्शनशास्त्र विषय से किया। बचपन से ही पढ़ने और लिखने का शौक़ रहा है। स्वतंत्र लेखन करते हुए इन्होंने कथा और उपन्यास लेखन में एक अलग ही पहचान बनाई है। आपके के दो बेटे हैं, मुंबई में अपना कामकाज करते हैं। प्रदेश में सपा शासन के दौरान स्टेट विश्वविद्यालय की स्थापना इलाहाबाद में किया गया, इस दौरान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस विश्वविद्यालय के लिए झूंसी में 76 हेक्टेयर भूमि उपलब्ध कराई है, उसी विश्वविद्यालय में आपने कुछ दिनों तक अध्यापन का काम किया है। 
 अब तक आपकी एक दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें एक बीघा ज़मीन (उपन्यास), बंधुआ राम दास (उपन्यास), बाढ़ पुराण (उपन्यास), महापात्र (कहानी संग्रह), अजगर बूढ़ा और बढ़ई (कहानी संग्रह), हे राम (कहानी संग्रह) और मत खनना (कहानी संग्रह) आदि प्रमुख हैं। सन् 1982 में आपने ‘हिन्दी कलम’ नाम से पत्रिका का संपादन शुरू किया, यह पत्रिका चार अंक तक छपी। कोलकाता से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका ‘लहक’ ने मार्च: 2016 में आप पर एक विशेषांक प्रकाशित किया था, यह अंक काफी चर्चा में रहा। साहित्य भंडार समेत कई संस्थाओं ने आपको सम्मानित किया है। वर्तमान लेखन के बारे में आपका कहना है-‘आजकल नई कविता के नाम पर छोटी-बड़ी लाइनें लिखी जा रही है, एक भी कविता जनहित में नहीं लिखी जा रही है। टनों कागज़ नष्ट हो रहा है। मैं तो कह रहा हूं ये सब फर्नेस में ले जाकर झोंक देना चाहिए। कोई एक उपन्यास या कहानी मौलिक नहीं आ रही है बल्कि इलेक्ट्रानिक मीडिया में देखे हुए दृश्य, परिवेश और पोषक को उधार लेकर कहानी उपन्यास लिखे जा रहे हैं। जो आपको मीडिया द्वारा दिया जा रहा है, उसी में से चुनना है इससे मौलिकता के साथ कलाएं भी खत्म हो रही हैं।’

गुफ्तगू के जनवरी-मार्च: 2019 अंक में प्रकाशित