कवयित्री डाॅ. शैलकुमारी तिवारी द्वारा रचित ‘मुनिसुतायन‘ तीन भागों में विभक्त 704 पद्यों की प्रबंध कविता है। प्रबंध काव्य में कोई प्रमुख कथा काव्य के आदि से अंत तक क्रमबद्ध रूप में चलती है। समीक्ष्य कृति में कवयित्री ने शकुन्तला के जीवन की सम्पूर्ण कथा कही है। महाकवि कालिदास के संस्कृत नाटक ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्‘ से कथानक ग्रहण करके ‘मुनिसुतायन‘ कृति का प्रणयन किया गया है, जो खड़ी बोली हिन्दी में पद्य रूपांतरण के स्वरूप में है। इस रचना में 30 मात्राओं वाले ‘पद-पादाकुलक‘ छन्द का प्रयोग किया गया है। इसके साथ ही इससे मिलते-जुलते ‘वीर‘ या ‘आल्हा‘ छन्द का भी प्रयोग किया गया है। कथा के प्रथम भाग में ऋषि विश्वामित्र एवं अप्सरा मेनका के गर्भ से उत्पन्न अद्भुत सौन्दर्य-पुंज कन्या के जन्म का वृत्तान्त वर्णित है, जिसे उसकी जन्मदात्री ने प्रसव के तत्काल बाद ही त्याग दिया। कण्व ऋषि के आश्रम में उनकी धर्मभगिनी गौतमी द्वारा उस कन्या पालन-पोषण किया गया। कुछ समय व्यतीत होने के पश्चात् राजा दुष्यन्त द्वारा शकुन्तला के प्रति आकृष्ट होकर गान्धर्व विवाह किये जाने एवं शकुन्तला-दुष्यन्त का प्रणय-प्रसंग है। द्वितीय भाग में दुष्यन्त की स्मृतियों में खोयी हुई शकुंतला को दुर्वासा ऋषि द्वारा शाप दिया जाना, महर्षि कण्व द्वारा शकुन्तला की विदाई करके नृप दुष्यन्त के पास भेजना तथा दुष्यंत द्वारा उसे अस्वीकार किये जाने के पश्चात् उसकी जननी मेनका द्वारा उसे मारीचाश्रम में ले जाना वर्णित है। तृतीय भाग में नृप दुष्यन्त की स्मृति का जागृत होना, मारीचाश्रम में पहुंचने पर शकुन्तला एवं उसके गर्भ से उत्पन्न अपने पुत्र की प्राप्ति के साथ ही कथा सम्पन्न होती है। कवयित्री के अनुसार वर्तमान समाज में व्याप्त विषमता को दूर करने एवं समरसता का अभिवर्द्धन, निरन्तर घटित हो रही आत्महत्याएँ, कन्याओं की भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, अशिक्षा आदि कुरीतियों के प्रति सहज संवेदना जगाने के साथ ही स्वावलम्बन की शिक्षा भी कथा के बीच-बीच में प्रदान की गयी है। अपनी सन्तान के प्रति कर्तव्यहीन मेनका की भी कवयित्री ने निन्दा की है। काव्य की भाषा परिमार्जित, परिष्कृत एवं संस्कृतनिष्ठ हिन्दी है तथा कहीं-कहीं सामान्य बोलचाल के शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। कायल, मुश्किल, दिल जैसे अन्य भाषाओं के शब्द भी कहीं-कहीं हैं। शैली अत्यन्त रोचक एवं प्रवाहमय है, यद्यपि प्रवाह किन्हीं-किन्हीं छन्दों में बाधित-सा भी प्रतीत होता है। पुस्तक के कुछ उल्लेखनीय अंश प्रस्तुत हैं। शकुन्तला का परिचय ‘मुनिसुतायन‘ में कुछ इस प्रकार प्रदान किया गया है-’यह वात्सल्य-भाव की भूखी पिता विश्वसख तप आसक्त/देवराज प्रेषित मेनका ही माता इसकी भगिनी हंत।।030!!’ शकुन्तला की प्रेम-व्यंजना दृष्टव्य है-‘कण्व सुता का कोमल अन्तस नृप-नयनों से था घायल/ बसे हुए थे नृप नेत्रों में चित्त उन्हीं का था कायल।।122।।’ राजा का कर्तव्य-‘प्रजा सदा राजा की संतति होती नृप की दृष्टि अभेद/ भारतीय संस्कृति में प्राणी सम होते हैं नहीं विभेद।।067।।’ वर्तमान समाज में व्याप्त विषमता के प्रति कवयित्री का दृष्टिकोण कुछ इस प्रकार परिलक्षित होता है-‘जीवन का अधिकार सभी का और स्वास्थ्यप्रद भोजन का/ सबको मिले समान ही शिक्षा कोई पात्र न शोषण का।।014।।’ काव्य-रचना के पद्यों में तुकांतता सम्बन्धी अशुद्धियां किन्हीं स्थानों पर परिलक्षित होती हैं, यथा-आसक्त-हंत, जल-कण, अक्षय-धन्य, अब से-वश में। कहीं-कहीं ‘‘होए नहीं उदास” जैसी भाषा भी प्रयोग की गयी है। पुस्तक के विषय में कहा जा सकता है, कि प्राचीन कथा में आधुनिक सन्दर्भों का समावेश करते हुए अच्छी प्रबन्ध कविता का सृजन किया गया है। मुख्य रूप से शकुन्तला-दुष्यन्त की प्रणय-कथा का यह पद्य रूपान्तरण इस अभिरूचि के पाठकों को रोचक एवं पठनीय प्रतीत होगा। कवयित्री डाॅ. शैलकुमारी तिवारी इस पुस्तक के प्रणयन हेतु बधाई की पात्र हैं। देववाणी परिषद, दिल्ली द्वारा प्रकाशित 96 पृष्ठीय इस पुस्तक का मूल्य 200 रुपये मात्र है।
(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2020 अंक में प्रकाशित)