बुधवार, 23 दिसंबर 2015

महिला विशेषांक होगा ‘गुफ्तगू’ का अगला अंक


अंक में शामिल 21 महिला रचनाकार महिला दिवस पर होंगी सम्मानित 

इलाहाबाद। 12 वर्षों से प्रकाशित हो रही हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका ‘गुफ्तगू’ का जनवरी-मार्च 2016 अंक ‘महिला विशेषांक’ के रूप में प्रकाशित होने जा रहा है। इस अंक का विमोचन आगामी 08 मार्च को महिला दिवस के अवसर पर किया जाएगा, इसी अवसर पर अंक में प्रकाशित में 21 महिला रचनाकारों को सम्मानित किया जाएगा, सम्मानित होने वाली रचनाकारों का चयन ‘गुफ्तगू’ द्वारा बनाई गई वरिष्ठ साहित्यकारों की टीम करेगी। इस अंक के लिए रचनाएं आमंत्रित की जा रही हैं। सभी इच्छुक महिला रचनाकार अपनी ग़ज़ल, गीत, छंदमुक्त कविता, कहानी, समीक्षा के लिए पुस्तक की दो प्रतियां आदि 25 जनवरी 2016 तक ई-मेल, पंजीकृत डाक या कोरियर से भेज सकती हैं।
पत्रिका में रचना प्रकाशन के लिए कोई शुल्क नहीं देना है, लेकिन पत्रिका किसी को फ्री में नहीं दी जाती। इसलिए पत्रिका हासिल करने के लिए सदस्यता लेना आवश्यक है। इस महंगाई के दौर में हम व्यक्तिगत प्रयास से पत्रिका का संचालन कर पाते हैं। आप सभी से सहयोग की अपेक्षा है। ढाई वर्ष की सदस्यता शुल्क मात्र 200 रुपये, आजीवन 2100 रुपये, संरक्षक शुल्क 15000 रुपये है। आजीवन सदस्यों को ‘गुफ्तगू पब्लिकेशन’ की सभी पुस्तकें और विशेषांक मुफ्त प्रदान किए जाते हैं। संरक्षक सदस्यों का एक अंक में पूरा परिचय फोटो सहित प्रकाशित किया जाता है, उसके बाद हर अंक में उनका नाम प्रकाशित होता है, ‘गुफ्तगू पब्लिकेशन’ की सभी पुस्तकें और विशेषांक मुफ्त प्रदान किए जाते हैं। सदस्यता शुल्क सीधे ‘गुफ्तगू’ के एकाउंट में जमा करके, ‘गुफ्तगू’ के नाम से चेक के द्वारा या फिर मनीआर्डर द्वारा भेजा जा सकता है। अन्य किसी जानकारी के लिए मोबाइल नंबर 9335162091 पर दिन में 10 बजे से शाम पांच बजे तक बात की जा सकती है।
गुफ्तगू का एकाउंट डिटेल इस प्रकार है। 

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रविवार, 20 दिसंबर 2015

गुलशन-ए-इलाहाबाद ; प्रो. सैयद अक़ील रिज़वी

         
     
                                                           -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
प्रो. सैयद अक़ील रिज़वी का जन्म अक्तूबर 1928 को मंझनपुर तहसील के करारी नामक गांव में हुआ, तब मंझनपुर इलाहाबाद जिले का ही हिस्सा था, अब कौशांबी जिले की तहसील है। वर्तमान समय में प्रो. अक़ील इलाहाबाद के दरियाबाद मुहल्ले में रहते हैं। बेहद बुजुर्ग हो चुके हैं, लेकिन अब भी पढ़ने-लिखने से वास्ता समाप्त नहीं हुआ है। इनके आवास पर जाने या इनसे मिलने पर बात एजुकेशन और देश, समाज की ही करते हैं। साहित्य और समाज की विसंगतियों पर बहुत फिक्रमंद हैं। आपके पिता का नाम सैयद अकबर हुसैन और मां का नाम शफ़ा अतुन्निशां है। वादिल साहब की जमींदारी थी, चाचा डिप्टी कलेक्टर थे। तीन बहनों में दो पाकिस्तान में हैं। दूसरी मां से एक बड़े भाई भी थे। प्रो. अक़ील साहब के बेटे लंदन में रहते हैं। देश के बंटवारे के समय इनके कई रिश्तेदार और आपसपास के लोग पाकिस्तान जाने लगे, पूरे देश में एक तरह से हंगामा मचा था। इनको भी बहुत से लोग पाकिस्तान चलने की सलाह दे रहे थे, लेकिन तब इन्होंने कहा था कि मैं उस मुल्क में कभी नहीं जाउंगा जहां का आदमी जानवर बन गया है। इनका मतलब दंगों और मारपीट से था।
1946 में इलाहाबाद माडर्न स्कूल से हाईस्कूल की परीक्षा पास की, तब पूरे प्रदेश के मेरिट लिस्ट में आप दसवें स्थान पर थे। इविंग क्रिश्चियन कालेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की, तब प्रदेश के मेरिट लिस्ट में आप 14वें स्थान पर थे। 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा और 1952 में यहीं से स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की। इलाहाबाद विश्वविद्यालय की तीन फैकल्टी में टाॅप करने पर क्वीन इंप्रेस विक्टोरिया गोल्ड मेडल से आपको नवाज़ा गया। 1953 से ही इलाहाबाद विश्वविद्याल में आपने अध्यापन कार्य किया, जहां आप उर्दू के विभागाध्यक्ष भी रहे। जब आप अध्यापन कार्य कर रहे थे, उन दिनों इसी विश्वविद्लाय में फि़राक़ गोरखपुरी, प्रो. एहतेशाम हुसैन और हरिवंश राय बच्चन जैसे नामी-गिरामी लोग भी थे। आप छह माह के लिए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में बतौर विजिटिंग प्रोफेसर रहे। 1992 में इलाहाबाद विश्वविद्याल से सेवानिवृत्त हुए। 1985 में लंदन में हुए एक सेमिनार में शिकरत करने गए थे, जहां दुनियाभर के लोगों बीच इन्होंने बताय कि भारत में अवधी भाषा उर्दू के साथ-साथ चलती है। इसको लेकर कई लोगों से बातचीत हुई। आपकी मशहूर किताब में ‘गोधूल’ है। ‘गोधूल’ आत्मकथा है, जिसमें इलाहाबाद का इतिहास भी विस्तारपूर्वक बताया गया है। शाम के वक़्त जब मवेशी अपने घरों को लौटते हैं, तो उस वक़्त गाय के लिए पांव से उड़ने वाले धूल का नज़ारा क्या है, क्या-क्या चीज़ें इससे महसूस होती हैं और दिखाई देती हैं, यह सब चित्रण भी इस किताब में किया गया है। इसके अलावा इनकी ‘इलाहाबाद की संस्कृति और इतिहास’ नामक एक पुस्तक है, जिसे इलाहाबाद संग्रहालय ने प्रकाशित किया है। इस किताब में इलाहाबाद का नाम पड़ने से लेकर आज़ादी आंदोलन, देश के बंटवारे के समय लोगों के पाकिस्तान जाने का सिलसिला, उस दौरान पूरे इलाहाबाद शहर के हालात और रेलवे स्टेशन हो रहे हंगामे आदि का सजीव वर्णन किया गया है।
(गुफ्तगू के सितंबर 2015 अंक में प्रकाशित)

रविवार, 22 नवंबर 2015

गुफ्तगू के सितंबर 2015 अंक में


3. ख़ास ग़ज़लें: सरदार जाफ़री, मजरूह सुल्तानपुरी, फ़िराक़ गोरखपुरी, शकेब जलाली
4.संपादकीय: अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए
5-6.आपके ख़त
ग़ज़लें
7. डॉ. बशीर बद्र, प्रो. वसीम बरेलवी, इब्राहीम अश्क, ज़फ़र मिर्ज़ापुरी
8.बुद्धिसेन शर्मा, आरडीएन श्रीवास्तव, गौतम राजरिषी, बहर बनारसी
9.देवी नागरानी, अशोक अंजुम, सतीश शुक्ल रक़ीब, अनुपिंद्र सिंह ‘अनूप’
10. विनय सागर जायसवाल, साक्षी भारती ‘तन्हा’, डॉ. वारिस अंसारी, शिबली सना
11.विजय लक्ष्मी विभा, भानु कुमार मुंतज़िर, भारत भूषण जोशी, अखिलेश निगम ‘अखिल’
12. प्रमोद कुमार सुमन, रैना कबीर, अनिल पठानकोटी, डॉ. शगुफ्ता ग़ज़ल
कविताएं
13.परवीन शाकिर, कैलाश गौतम,
14.माहेश्वर तिवारी, डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदिक
15. अमर राग
16.तलत परवीन
17.अरुण अर्णव खरे, धर्मंद्र श्रीवास्तव
18.रुचि श्रीवास्तव, डॉ. विनय श्रीवास्तव
19-20. तआरुफ़: केदार नाथ सविता
21. प्रसंगवश: अभूतपूर्व है लेखकों का यह विरोध: नवीन जोशी
22-24. चौपाल: साहित्यकारों का पुरस्कार लौटाना कितना उचित
25-29. अकबर के यहां मुकम्मल नज़रिया: प्रो. शम्सुरर्हमान फ़ारूक़ी
30-32. बह्र विज्ञान: इब्राहीम अश्क
33-36. इंटरव्यू: दूधनाथ सिंह
37-41. तब्सेरा: रात अभी स्याह नहीं, सिर्फ़ तेरे लिए, रुक्काबाई का कोठा, मौसमों के दरम्यान, अब कुछ कर दिखाना होगा
42-46. अदबी ख़बरें
47-50. हस्ती मल हस्ती के सौ शेर
51. गुलशन-ए-इलाहाबाद: प्रो. सय्यद अक़ील रिज़वी
परिशिष्ट
52. कमलेश भट्ट कमल का परिचय
53. लक़ीरों पर नहीं चलते कमलेश: डॉ. सरिता शर्मा,
54-55. वक़्त के अख़बार में सच्ची ख़बर: डॉ. वेद प्रकाश अमिताभ
56-57. तुम्हारा जुल्म भी जारी, हमारी जंग भी जारी- यश मालवीय
58-62.कमलेश भट्ट कलम की शायरी - डॉ. वशिष्ट अनूप
63-65.कमलेश भट्ट कमल की रचनाधर्मिता - डॉ. अनिल गहलौत
66-80. कमलेश भट्ट कमल की ग़ज़लें

बुधवार, 11 नवंबर 2015

कांग्रेस कल्चर पर उपन्यास लिखने की तैयारी कर रहा हूं-रवींद्र कालिया



रवींद्र कालिया से इंटरव्यू लेते प्रभाशंकर शर्मा
भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक रहे प्रख्यात कथाकार और स्मरण लेखक रवींद्र कालिया साहित्य जगत में पाठकों की नब्ज़ और बाज़ार का खेल दोनों का पता रखने के साथ एक बेहतरीन संपादक भी रहे हैं। आपने ‘धर्मयुग’, ‘गंगा-जमुना’, ‘वागर्थ’ और ‘ज्ञानोदय’ का सफल संपादन करके साहित्य जगत में एक अलग ही छाप छोड़ी है। आपका जन्म 11 नवंबर 1939 को जालंधर में हुआ था। आपकी ‘नौ साल छोटी पत्नी’,‘गरीबी हटाओ’,‘चकैया नीम’,‘रवीन्द्र कालिया की कहानियां’, ‘खुदा सही सलामत है’, ‘एबीसीडी’, ‘कॉमरेड मोनालिसा’, ‘ग़ालिब छूटी शराब’, ‘नींद क्यों रातभर नहीं आती’ सहित दर्जनभर से अधिक किताबें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। 08 फरवरी 2015 को ‘गुफ्तगू’ द्वारा आयोजित ‘शान-ए-इलाहाबाद’ सम्मान समारोह में बतौर मुख्य अतिथि शामिल होने आए श्री रवींद्र कालिया से गुफ्तगू के उप संपादक प्रभाशंकर शर्मा और शिवपूजन सिंह ने उनसे बात की। प्रस्तुत उसका संपादित अंश ।
सवाल: अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि और अपने बारे में बताइए ?
जवाब: मेरे पिता जालंधर में अध्यापक थे। मेरे भाई कनाडा में अध्यापक हैं और मेरी बहन भी अध्यापक हैं इंग्लैंड में। मैंने भी अध्यापकी की थी। मैंने गर्वमेंट कॉलेज और डीएवी कालेज कपूरथला और हिसार में पढ़ाया है। मेरे गुरुदेव मदान साहब चाहते थे कि मैं चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी में आ जाउं, लेकिन टीचिंग का पेशा ही पसंद नहीं आया। हर साल वही चीज़ पढ़ाओ। मैं फिर वहां से दिल्ली चला गया। दिल्ली में मिनिस्टी ऑफ एजुकेशन में ‘रिसर्च असिस्टेंट’ के पद पर एक पत्रिका में मैं अटैच हो गया, जिसका नाम ‘भाषा’ था, जो त्रैमासिक पत्रिका थी और वह आज भी छपती है। यह बात 1962 की है तब नौकरी मिलना आसान था और मैं दो बार सरकारी नौकरी छोड़ चुका हूं। मुझे अपने उपर विश्वास था कि मैं जहां भी जाउंगा सफल होकर रहूंगा। मैं जब मुंबई से इलाहाबाद आया तब मेरी जेब में सिर्फ़ 20 रुपये थे। यह मेरा श्रम ही था कि मैंने इलाहाबाद रानीमंडी में एक बड़ा प्रेस खड़ा किया और 25 वर्षों तक यहां रहा। शहर के बड़े प्रेसों में उसका नाम था। प्रेस से उब गया तो फिर से पत्रकारिता में आया। ‘वागर्थ’ ‘नया ज्ञानोदय’ और ‘भाषा’ के साथ-साथ मैं अन्य पत्रिकाओं से जुड़कर अपना लेखन करता रहा।
सवाल: क्या आपकी अभिरुचि बचपन से ही लेखन में थी ?
जवाब: पठन में ज्यादा थी। कम उम्र में ही चंद्रकांता, चंद्रकांता संस्तुति, वृंदावन लाल वर्मा और प्रेमचंद जैसे तमाम लेखकों को पढ़ लिया था। कुछ समझ में आता था, कुछ समझ में नहीं आता था। बचपन में मैं दैनिक अख़बारों में बच्चों के कालम में लिखने लगा था।
सवाल: क्या आपके बच्चे भी सााहित्य में रुचि रखते हैं ?
जवाब: नहीं (मुस्कुराते हुए), उन्हें मेरी पुस्तकों का नाम भी पता नहीं है।
सवाल: आप अपने छात्र जीवन के बारे में बताइए ?
जवाब: छात्र जीवन में भी मैं अपने घर वालों पर आश्रित नहीं रहा। मैं रेडियो के लिए नाटक और कहानी लिखता था। उस समय 60 के दशक में मुझे रेडिया प्रोग्राम के बदले 25 रुपये मिलते थे जो बहुत थे। जब मैं एम.ए. कर रहा था तब साइकिल तक नहीं थी। मेरे कॉलेज में को-एजुकेशन थी। लड़कियां न देख लें इसिलए खेतों से होकर पैदल जाता था और मेरे लिए कॉलेज की दूरी दुगनी हो जाती थी। मैं तो खेतों से तरबूजे तोड़ते हुए चला जाता था। फिर भी, जो भी किया खूब इंजॉय किया, हर पल को खुशी से बिताया।
सवाल: माता-पिता से जुड़ा कोई संस्मरण बताइए जो आपके जीवन में शिक्षाप्रद हो ?
जवाब: मेरे पिता मेहनती आदमी थे। अध्यापक थे, उनके बड़े सपने थे। उन दिनों हम किराए के घर में रहते थे। वे जाड़े के दिनों में भी सुबह पांच बजे ट्यूशन पढ़ाने जाते थे। अक्सर तो ये होता था कि जब वे जाते थे तब मैं सो रहा होता था और वे आते थे तब भी मैं सो रहा होता था। अपने इसी श्रम के कारण उन्होंने मकान बनाया। बाद में प्रिंसिपल भी हुए। उनके जीवन का एक ही लक्ष्य था ‘नाउ या नेवर’। काम उसी समय होना चाहिए। इसका प्रभाव मेरे जीवन पर भी पड़ा।
सवाल: इलाहाबाद में आपके द्वारा निकाला अख़बार ‘गंगा जमुना’ उन दिनों खूब बिकता था। उसके बारे में बताइए ?
जवाब: पिछली सदी के अंतिम दशक में मित्र प्रकाशन का आमंत्रण मिला। मित्र बंधुओं का आग्रह था कि ‘माया’ और ‘मनोहर कहानियां’ आदि के साथ-साथ एक साप्ताहिक पत्र भी प्रकाशित किया जाए। मित्र प्रकाशन, माया प्रेस अत्याधुनिक उपकरणों से लैस एक ऐसा प्रेस था जो पूरे भारत को टक्कर दे सकता था। उनके यहां विश्व की नवीनतम मशीनें, स्कैनर आदि थे। साधनों की कोई कमी नहीं थी। उनका विश्लेषण था कि पत्रिकाओं की बिक्री के मामले में इलाहाबाद सबसे कठिन शहर है। इलाहाबाद को पूरे देश का एक पैमाना मानते थे। मुझसे उन्होंने कहा कि स्थानीय स्तर पर एक साप्ताहिक पत्र निकाला जाए जो इलाहाबाद के जनजीवन, राजनीति का चित्र हो, जिससे इलाहाबाद का पूरा चरित्र सामने आ सके। साहित्य, राजनीति और सांस्कृतिक स्तर पर पहले अंक से ही धमाका हो गया। कुल 5000 प्रतियां छापी गईं,  जबकि 30,000 प्रतियों के आर्डर आ गए। उसकी उसी रात द्वितीय संस्करण छपा। 25,000 प्रतियां और छापी गईं। स्थानीय समाचारों के अलावा एक मुख्य पृष्ठ राष्टीय समाचारों पर आधारित था। एक फीचर लोकनाथ पर था। मुट्ठीगंज का पूरा इतिहास बताया गया था। पत्र ठेट इलाहाबाद भाषा में था, जिसका मूल्य केवल दो रुपये रखा गया था, जबकि पत्र की लागत 8-10 रुपये थी। ज़ाहिर है जितना अधिक बिकता उतना अधिक नुकसान होता। मुझसे कहा गया धीरे चलो। लोकप्रियता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि सुबह दूध के पैकेट के साथ-साथ सप्ताह में एक बार ‘गंगा-जमुना’ भी बिकने लगा। दूसरे शहरों से भी मांग आ रही थी, जबकि सामग्री केवल इलाहाबाद पर होती थी। वास्तव में राष्ट के अनेक वरिष्ठ नेताओं का तअल्लुक किसी न किसी रूप में इलाहाबाद से रहा था। पंत, निराला, महादेवी वर्मा, फ़िराक़ गोरखपुरी आदि की मौजूदगी में उन दिनों इलाहाबाद की छवि किसी महानगर से कम न थी। हम इलाहाबाद से बाहर निकलना नहीं चाहते थे। लेकिन बाहर का दबाव बढ़ता ही जा रहा था। ‘गंगा-जमुना’ इलाहाबाद के साथ-साथ देश की साहित्यिक, सांस्कृतिक और कला का आइना बन गया था। वैसे भी इलाहाबाद का समय भारत का मानक समय माना जाता है। इलाहाबाद की नब्ज़ देखकर आप बता सकते थे कि देश में अब क्या होने वाला है। इससे पहले माया प्रेस एक राष्टीय साप्ताहिक के रूप में इसे पेश करते कि माया प्रेस के मालिकों के बीच उनकी मां के मरते ही मतभेद उभरने लगे। संकट यहां तक बढ़ गया कि माया प्रेस की तमाम पत्रिकाएं अंतर्विरोधों और पारिवारिक मतभेदों के कारण पटरी से उतरती गईं और प्रेस पर ताला लग गया। सब योजनाएं धरी की धरी रह गईं। मैं भी इलाहाबाद छोड़कर भारतीय भाषा पर रिसर्च करने कोलकाता चला गया।
सवाल:  क्या आज के दौर में साप्ताहिक अख़बारों का कोई भविष्य है ?
जवाब: साप्ताहिक अख़बारों का भविष्य तो है मगर एक नए नज़रिए के साथ उतरना पड़ेगा। मैंने साप्ताहिक धर्मयुग में भी काम किया था। उस उसम उसकी तीन लाख प्रतियां सप्ताह में बिकती थीं। वर्षों यह सफलतापूर्वक चला, लेकिन समय के साथ-साथ उसका ‘कन्टेंट’ नहीं बदला। हर समय हर चीज़ नहीं बिक सकती। उसमें वक्त के अनुसार परिवर्तन होते रहना चाहिए। धर्मयुग में राजनीति का तनिक भी प्रवेश नहीं था और आज सार्वजनिक जीवन में राजनीति रच-बस चुकी है। तो ऐसी पत्रिका की कल्पना कैसे हो सकती है जिसमें आज के जीवन का समग्रता से विश्लेषण न हो।
सवाल: इलाहाबाद में पिछले दिनों एक वक्तव्य को लेकर काफी गहमा-गहमी रही कि ‘हिन्दी और उर्दू’ का आपस में कोई मेल नहीं है। इस विषय पर आपके क्या विचार हैं ?
जवाब: हिन्दी और उर्दू दोनों बहनें हैं। दोनों की अपनी-अपनी अलग विशेषाताएं हैं। मुझे लगता है कि हिन्दी को रवानी देने में उर्दू का बहुत योगदान है, और उर्दू को बहुत सी शब्दावली देने में हिन्दी का योगदान है। मैं देखता हूं कि पाकिस्तान के अख़बार में भी हिन्दी के शब्द आने लगे हैं। ये गंगा-जमुनी संस्कृति है, इसे कायम रखना चाहिए और भाषा-धर्म के स्तर पर जो लोग इसे अलग करते हैं, वे देश और इलाहाबाद का अहित कर रहे हैं।
सवाल: ज्ञानपीठ के आप सेवानिवृत्त हो चुके हैं। अब आपकी क्या योजना है? निकट भविष्य में आपकी कौन सी पुस्तकें पढ़ने को मिलेगी?
जवाब: मैं एक बहुत ‘स्लो राइटर’ हूं और ज्ञानपीठ से मैं 75 की उम्र में सेवानिवृत्त हुआ हूं। फिलहाल मैं कांग्रेस कल्चर पर एक उपन्यास लिखने की तैयारी कर रहा हूं।
सवाल: एक संदेश इलाहाबाद के लिए ?
जवाब: इलाहाबाद की गरिमा अगर कुछ कम हुई तो उसे बरकरार रखना चाहिए। नई पीढ़ी से बहुत आशाएं हैं। मैं सोचता हूं कि इलाहाबाद की छवि फिर से वैसी ही बने जैसी हमारी जेह्न में मौजूद है। इलाहाबाद के वायुमंडल में ही कुछ है जो कि रचनात्मकता की तरफ आपको ले जाता है। इलाहाबाद की बहुत उपलब्धियां हैं, इन उपलब्धियों को खंडित न होने दें।

इंटरव्यू लेने के दौरान शिवपूजन सिंह, प्रभाशंकर शर्मा और रवींद्र कालिया


(गुफ्तगू के जून 2015 अंक में प्रकाशित)

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

गुफ्तगू के ग़ाज़ीपुर विशेषांक की रूपरेखा तैयार


ग़ाजीपुर के एमएएच इंटर कालेज में हुई बैठक में बना ख़ाक़ा
गाजीपुर । इलाहाबाद से पिछले 12 वर्षों से प्रकाशित हो रही साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका गुफ्तगू के ‘ग़ाज़ीपुर विशेषांक’ निकालने की तैयारी कर ली गई है। इसकी रूपरेखा तैयार करने के लिए 22 अक्तूबर को ग़ाज़ीपुर सिटी के एमएएच इंटर कालेज में बैठक हुई। जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ कवि हरि नारायण ‘हरीश’ने और संचालन गुफ्तगू के संस्थापक इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया। तय किया गया कि इस विशेषांक के लिए स्वतंत्रता संग्राम में गाजीपुर की भूमिका, लोक साहित्य में गाजीपुर, गाजीपुर में गौतमबुद्ध और अशोक, गाजीपुर के समाजसेवी, शिक्षा के क्षेत्र में गाजीपुर, गाजीपुर की सूफी परंपरा, गाजीपुर पर महत्वपूर्ण पुस्तकें,  गाजीपुर के हिन्दी-उर्दू के साहित्यकार और उनकी लेखनी, गाजीपुर के घाट, गाजीपुर के राजनीतिज्ञ, गाजीपुर के पत्रकार, गाजीपुर की लोक अर्थ व्यवस्था, गाजीपुर के वर्तमान साहित्यकार और गाजीपुर की भोजपुरी साहित्य आदि विषयों सामग्री तैयार की जाएगी। इसके लिए बैठक में मौजूद रहे एमएएच इंटर कालेज के प्रधानाचार्य खालिद अमीर, सुहैल खान, डॉ. राम नारायण तिवारी, संजीव गुप्त, खालिद ग़ाज़ीपुरी, तौसीफ सत्यमित्रम, शिवेंद्र कुमार पाठक, ज़ख्मी ताजपुरी, शिवेंद्र कुमार पाठक, अमरनाथ तिवारी, गोपाल गौरव और शम्स तबरेज़ आदि को जिम्मेदारी सौंपी गई।
from left: khalid ameer, imtiyaz ahmad ghazi, zakhmi tajpuri and sohail khan

रविवार, 4 अक्तूबर 2015

‘रात अभी स्याह नहीं’का आगमन बेहद सुखद

 पुस्तक विमोचन के मौके पर बोले फिल्म गीतकार इब्राहीम अश्क 
इलाहाबाद। जब भी किसी शायर या कवि की किताब छपकर मंजरेआम पर आती है जो बेहद खुशी का एहसास होता है, और लगता है कि साहित्य का एक और इजाफा होता है। अरुण अर्णण खरे की किताब भी यही एहसास दिलाती है। इन्होंने अपनी रचनाओं में देश और समाज की भावना को बहुत ही शानदार तरीके से व्यक्त किया है। यह उनकी दूसरी किताब है, उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे भी उनकी किताबें आती रहेंगी। यह बात मशहूर फिल्म गीतकार इब्राहीम अश्क ने 06 सितंबर को साहित्यिक संस्था गुफ्तगू के तत्वाधान में अरुण अर्णव खरे के काव्य  संग्रह ‘रात अभी स्याह नहीं’ के अवसर पर कही। कार्यक्रम का आयोजन हिन्दुस्तानी एकेडेमी में किया गया, जिसकी अध्यक्षता बुद्धिेसन शर्मा ने की, विशिष्ट अतिथि रविनंदन सिंह थे। संचालन इम्तियाज अहमद गाजी ने किया।
रविनंदन सिंह ने अपने संबोधन में कहा कि पुस्तक का शीर्षक ही बता रहा है कि कवि ने अपनी रचनाओं के माध्यमों इन्होंने उम्मीद बनाए रखने की बात है। इन्होंने बताया है कि मनुष्य को कभी निराश नहीं होना चाहिए।  बुद्धिसेन शर्मा ने कहा कि गजल बहुत ही नाजुक विधा है, इसका पालन करना आसान नहीं है और पालन के बिना ग़ज़ल विधा का पालन करना संभव नहीं है। अरुण अर्णव ने इस ओर अच्छा प्रयास किया है, इसे जा रखने की जरूरत है।
दूसरे दौर में कवि सम्मेलन का आयेाजन किया गया। जिसमें नरेश कुमार महरानी, अनुराग अनुभव, इश्क सुल्तानपुरी, संजय सागर, प्रभाशंकर शर्मा, लोकेश श्रीवास्तव, अख्तर अजीज, माला  खरे, अनिमेष खरे, अनुभा खरे, तलब जौनपुरी, स्नेहा पांडेय, मखदमू फूलपुरी कविता उपाध्याय, अजीत शर्मा आकाश और डॉ. विनय श्रीवास्तव आदि ने रचनाएं प्रस्तुत की।


हिन्दुस्तान एकेडेमी सभागार में बैठे हुए बायें से: मखदमू फूलपुरी, नरेश कुमार महरानी, इब्राहीम अश्क और अरुण अर्णव खरे
इब्राहीम अश्क को अपनी पुस्तक ‘सिर्फ़ तेरे लिए’ पेश करती स्नेहा पांडेय

बुदिधसेन शर्मा-
अभी सच बोलता है ये अभी कुछ भी नहीं बिगड़ा,
अगर डांटोगे तो बच्चा बहाना सीख जाएगा।

अरुण अर्णव  खरे-
जब हर संकट से बखूबी लड़ती है ज़िन्दगी
फिर बडे  शान से आगे बढ़ती है ज़िन्दगी

इम्तियाज़ अहमद ग़ाजी-
मैं प्यार करूं तुमसे अगर कैसा लगेगा
तुम भी गर हो जाए असर कैसा लगेगा।
जिस दिन मेरे घर आवोगी दुल्हन की तरह तुम,
आने से तेरे ये मेरा घर कैसा लगेगा।

तलब जौनपुरी-
जो छींटे न पड़ती मेरे ख़ूं के उन पर,
तो चेहरे भी उनके गुलाबी न होते।

अख़्तर अज़ीज़-
वो जिसने एक चिंगारी मेरे आंगन में रक्खी थी,
धुवां अक्सर उसी के आशियाने से निकलता है।

इश्क़ सुल्तानपुरी-
जागती आंखों को ख़्वाबों का सफ़र देता है,
‘इश्क़’ इन सबको क्या-क्या हुनर देता है।

प्रभाशंकर शर्मा-
आप इन पत्थरों को छू लेते
शायद ये बुत भी खुदा हो जाते
वर्ना क्या बात थी तेरी ख़ातिर
दर्द की खुद ही दवा हो जाते।

स्नेहा पांडेय-
तुम अपनी जिम्मेदारी उठाओ
मैं अपनी जिम्मेदारी निभाउं
हमारा प्रेम एक है मगर,
जिम्मेदारियां अलग-अलग

अमित वागर्थ-
हमारे पास इक गैरत बची थी
उसी पर अब निशाना हो रहा है
मुहब्बत हम भी कर लेते मगर अब
सनम भी शातिराना हो रहा है।


लोकेश श्रीवास्तव-
एक आंगन में दो दीवारें
ये किस्सा है भारत का


पीयूष मिश्र-
फूलों की बस्तियों में
कांटे निकल रहे हैं
सबकुछ गंवा चुके हम
फिर भी मचल रहे हैं।


कविता उपाध्याय-
लोग कहते हैं अंधेरों को उजाला कर दो
शबनमी रात के पहलू में कई सपने हैं
छेड़ो न छेड़ो न रहने दो अभी सजने दो

अनुराग अनुभव-
हर एक दौर के सांचे में ढल गई दुनिया
पलक झपकते ही कितनी बदल गई दुनिया।

रविवार, 20 सितंबर 2015

गुफ़्तगू की निरंतरता से कायम किया मिसाल

  सम्मान समारोह और मुशायरे में बोले फिल्म गीतकार इब्राहीम अश्क
  गुफ़्तगू की ओर से 12 लोगों को दिया गया शान-ए-गुफ़्तगू सम्मान
इलाहाबाद। आज से 12 साल पहले शुरू हुई गुफ़्तगू पत्रिका और संस्था ने निरंतरता जारी रखकर आज के दौर में मिसाल कायम किया है। एक-एक करके बड़ी-बड़ी साहित्यिक पत्रिकाएं बंद होती गईं और संस्थाएं चलाने वाले अधिकतर लोग किसी न किसी की चाटुकारिता में लगे हैं, सरकारी संस्थाओं की हालत और खराब है। ऐसे में ‘गुफ़्तगू’ ने ईमानदारी के साथ निरंतर बेहतर काम किया है, इस दौर में यह काम इम्तियाज अहमद गाजी ने अपने नेतृत्व में करके नजीर पेश किया है। यह बात शनिवार की देर शाम धूमनगंज स्थित सुधा वाटिका में साहित्यिक संस्था ‘गुफ़्तगू’ की ओर से आयोजित सम्मान समारोह और मुशायरे में फिल्म गीतकार इब्राहीम अश्क ने बतौर मुख्य अतिथि कही। इस मौके पर देशभर के 12 लोगों को शान-ए-गुफ्तगू सम्मान प्रदान किया गया। अपने संबोधन में इब्राहीम अश्क ने आगे कहा कि वर्तमान समय में अदब का बहुत बुरा हाल है, आम जनता साहित्य से दूर हो रही है और दूसरी ओर मठाधीश टाइप के साहित्यकार सबकुछ चौपट करने में जुटे हुए हैं। मामूली-मामूली फायदे के लिए अपना ज़मीर बेचने को तैयार बैठे हैं। फिल्म इंडस्टी का भी बुरा हाल है, नकली और बनावटी टाइप के लोगों का ही बोलबाला है, गीत के नाम पर अनाप-शनाप की चीजें प्रस्तुत की जा रही हैं। नकली शायरों का भरमार है, जो वास्तविक शायरों का शोषण करने में जुटे हुए हैं। 
साहित्यकार शैलेंद्र कपिल ने कहा कि यह समारोह अदब की दुनिया के लिए बेहद शानदार और उल्लेखनीय है। ऐसे ही कार्यों के लिए इलाहाबाद जाना जाता रहा है। अच्छी बात है कि ‘गुफ़्तगू’ साहित्य के लिए निरंतरता से कार्य कर रही है। इसके संस्थापक इम्तियाज अहमद गाजी ने बिना किसी संसाधन के ही कार्य करके दिखा दिया है जो अन्य लोगों के लिए मिसाल है। डॉ. पीयूष दीक्षित, डॉ. डीआर सिंह, मुकेश चंद्र केसरवानी ने अपने विचार व्यक्त किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता पं. बुद्धिसेन शर्मा और संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया। दूसरे  दौर में मुशायरे का आयोजन किय गया। जिसमें नरेश कुमार महारानी, प्रभाशंकर शर्मा, धर्मेंद्र श्रीवास्तव, शिवपूजन सिंह, अनुराग अनुभव, रोहित त्रिपाठी रागेश्वर, लोकेश श्रीवास्तव, शैलेंद्र जय, आदि ने कलाम पेश किया।
इन लोगों को मिला शान-ए-गुफ़्तगू सम्मान
अरुण अर्वण खरे (भोपाल), ओम प्रकाश यती (नोएडा), नवाब शाहाबादी, (लखनउ), डॉ. वारिस पट्टवी (फतेहपुर), सुहैल खान (गा़ज़ीपुर), स्नेहा पांडेय (बस्ती), इश्क़ सुल्तानपुरी (सुल्तानपुर), राधेश्याम  भारती (इलाहाबाद), डॉ. विक्रम (गोरखपुर), फ़रमूद इलाहाबादी (इलाहाबाद), नरेश कुमार महरानी (इलाहाबाद) और  रमेश नाचीज़ (इलाहाबाद) 

कार्यक्रम को संबोधित करते डॉ. पीयूष दीक्षित
कार्यक्रम का संचालन करते इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
कर्यक्रम को संबोधित करते इब्राहीम अश्क
कार्यक्रम को संबोधित करते बुद्धिसेन शर्मा
कार्यक्रम को संबोधित करते शैलेंद्र कपिल
डॉ नवाब शाहाबादी को सम्मानित करते इब्राहीम अश्क
अरुण अर्णव खरे को सम्मानित करते इब्राहीम अश्क
ओम प्रकाश यती को सम्मानित करते इब्राहीम अश्क
इश्क़ सुल्तानपुरी को सम्मानित करते इब्राहीम अश्क
फ़रमूद इलाहाबादी को सम्मानित करते इब्राहीम अश्क
सोहेल ख़ान को सम्मानित करते इब्राहीम अश्क
राधे श्याम भारती को सम्मानित करते इब्राहीम अश्क
डॉ वारिस अंसारी को सम्मानित करते इब्राहीम अश्क
स्नेहा पांडेय को सम्मानित करते इब्राहीम अश्क
डॉ विक्रम को सम्मानित करते इब्राहीम अश्क

रविवार, 13 सितंबर 2015

परवीन शाकिर की तरह प्रेम का बेबाक उल्लेख

                              स्नेहा पांडेय की पुस्तक ‘सिर्फ़ तेरे लिए’ का विमोचन और मुशायरा

इलाहाबाद । काव्य संग्रह ‘सिर्फ़ तेरे लिए’ के शुरू में ही शामिल कविता ‘प्रेमांकुर’ को पढ़ने के बाद ही इस पूरी किताब को पढ़े जाने की इच्छा जागृति होती है, यही वजह है कि मैं यह पूरी किताब पढ़ गया हूं। स्नेहा पांडेय ने अपनी कविताओं के माध्यम से प्रेम का बहुत सटीक तरीके से उल्लेख किया है। आज जब प्रेम मात्र दिखावे और टीवी शो का विषय बन गया है, ऐसे में प्रेम का सही रूप में उल्लेख करके स्नेहा ने बहुत बड़ा काम किया है। यह बात मुरादाबाद के जाने-माने गीतकार माहेश्वर तिवारी ने 16 अगस्त की शाम साहित्यिक संस्था ‘गुफ्तगू’ के तत्वावधान में स्नेहा पांडेय की पुस्तक ‘सिर्फ तेरे लिए’ के विमोचन अवसर पर कही। हिन्दुस्तानी एकेडेमी के सभागार में आयोजित कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ शायर एम.ए. क़दीर ने की, मुख्य अतिथि माहेश्वर तिवारी थे। संचालन इम्तियाज अहमद गाजी ने किया।
माहेश्वर तिवारी ने आगे कहा कि स्नेहा पांडेय ने अपनी कविताओं में विरासत को नहीं नकारा है, यह एक और पहलू है जो उनको एक सफल कवयित्री बना रहा है। यश मालवीय ने कहा कि स्नेहा ने अपनी कविता में बहुत सही ढंग से बखान किया है कि वाकई प्रेम निडर होता है। उन्होंने कहा यह बेहद सुखद पल है कि पुस्तक विमोचन के अवसर स्नेहा पांडेय की माता निर्मला देवी  पांडेय जी भी मौजूद हैं, यह सुखद अवसर बहुत कम लोगों को नसीब होता है। टीवी चैनल आलमी सहारा के डिप्टी एडीटर लईक़ रिज़वी ने स्नेहा पांडेय की कविताओं को पाकिस्तान की शायरा परवीन शाकिर की शायरी से जोड़ते हुए कहा कि स्नेहा की कविता में भी प्रेम का बहुत शानदार ढंग से प्रस्तुतिकरण किया है। यही वास्तविक कविता की ओर ले जाता है। स्नेहा एक कामयाब कवयित्री नजर आती हैं। हिन्दुस्तानी एकेडेमी के कोषाध्यक्ष रविनंदन सिंह ने कहा कि स्नेहा की कविताओं में अमृता प्रीतम की कविताओं की तरह का चित्रण दिखाई देता है। शैलेंद्र कपिल, अखिलेश सिंह, धर्मेंद्र श्रीवास्तव और एम.ए.क़दीर ने स्नेहा पांडेय की कविताओं की प्रशंसा की।
दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया, जिसका संचालन  शैलेंद्र जय ने किया। शिवपूजन सिंह, प्रभाशंकर शर्मा, नरेश कुमार ‘महरानी’, रुचि श्रीवास्तव, संजय सागर, अनुराग अनुभव, रोहित त्रिपाठी रागेश्वर, लोकेश श्रीवास्तव, ललिता मिश्रा, पिंकी पांडेय, गौरव मिश्र, सुभाष चंद्र, फरमूद इलाहाबादी, अजीत शर्मा आकाश, डॉ. वीरेंद्र तिवारी, वाकिफ़ अंसारी, नईम साहिल, सागर होशियारपुरी, जमादार धीरज, शाहीन खुश्बू, पीयूष मिश्र, अशोक कुमार स्नेही, कविता उपाध्याय, अजामिल  व्यास, तलब जौनपुरी, विनय श्रीवास्तव, मनमोहन सिंह तन्हा, भारत भूषण जोशी, डॉ. इश्तियाक़ अहमद, कविता उपाध्याय, पूर्णिमा मालवीय आदि ने कलाम पेश किया ।  

                     माहेश्वर तिवारी
                      एम.. क़दीर
                         यश मालवीय
                       रविनंदन सिंह
                       शैलेंद्र कपिल
                     लईक़ रिज़वी
                      इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
                    अखिलेश सिंह
  
                         स्नेहा पांडेय
                       रुचि श्रीवास्तव
          शिवपूजन सिंह
                        प्रभाशंकर शर्मा