बुधवार, 11 नवंबर 2015

कांग्रेस कल्चर पर उपन्यास लिखने की तैयारी कर रहा हूं-रवींद्र कालिया



रवींद्र कालिया से इंटरव्यू लेते प्रभाशंकर शर्मा
भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक रहे प्रख्यात कथाकार और स्मरण लेखक रवींद्र कालिया साहित्य जगत में पाठकों की नब्ज़ और बाज़ार का खेल दोनों का पता रखने के साथ एक बेहतरीन संपादक भी रहे हैं। आपने ‘धर्मयुग’, ‘गंगा-जमुना’, ‘वागर्थ’ और ‘ज्ञानोदय’ का सफल संपादन करके साहित्य जगत में एक अलग ही छाप छोड़ी है। आपका जन्म 11 नवंबर 1939 को जालंधर में हुआ था। आपकी ‘नौ साल छोटी पत्नी’,‘गरीबी हटाओ’,‘चकैया नीम’,‘रवीन्द्र कालिया की कहानियां’, ‘खुदा सही सलामत है’, ‘एबीसीडी’, ‘कॉमरेड मोनालिसा’, ‘ग़ालिब छूटी शराब’, ‘नींद क्यों रातभर नहीं आती’ सहित दर्जनभर से अधिक किताबें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। 08 फरवरी 2015 को ‘गुफ्तगू’ द्वारा आयोजित ‘शान-ए-इलाहाबाद’ सम्मान समारोह में बतौर मुख्य अतिथि शामिल होने आए श्री रवींद्र कालिया से गुफ्तगू के उप संपादक प्रभाशंकर शर्मा और शिवपूजन सिंह ने उनसे बात की। प्रस्तुत उसका संपादित अंश ।
सवाल: अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि और अपने बारे में बताइए ?
जवाब: मेरे पिता जालंधर में अध्यापक थे। मेरे भाई कनाडा में अध्यापक हैं और मेरी बहन भी अध्यापक हैं इंग्लैंड में। मैंने भी अध्यापकी की थी। मैंने गर्वमेंट कॉलेज और डीएवी कालेज कपूरथला और हिसार में पढ़ाया है। मेरे गुरुदेव मदान साहब चाहते थे कि मैं चंडीगढ़ यूनिवर्सिटी में आ जाउं, लेकिन टीचिंग का पेशा ही पसंद नहीं आया। हर साल वही चीज़ पढ़ाओ। मैं फिर वहां से दिल्ली चला गया। दिल्ली में मिनिस्टी ऑफ एजुकेशन में ‘रिसर्च असिस्टेंट’ के पद पर एक पत्रिका में मैं अटैच हो गया, जिसका नाम ‘भाषा’ था, जो त्रैमासिक पत्रिका थी और वह आज भी छपती है। यह बात 1962 की है तब नौकरी मिलना आसान था और मैं दो बार सरकारी नौकरी छोड़ चुका हूं। मुझे अपने उपर विश्वास था कि मैं जहां भी जाउंगा सफल होकर रहूंगा। मैं जब मुंबई से इलाहाबाद आया तब मेरी जेब में सिर्फ़ 20 रुपये थे। यह मेरा श्रम ही था कि मैंने इलाहाबाद रानीमंडी में एक बड़ा प्रेस खड़ा किया और 25 वर्षों तक यहां रहा। शहर के बड़े प्रेसों में उसका नाम था। प्रेस से उब गया तो फिर से पत्रकारिता में आया। ‘वागर्थ’ ‘नया ज्ञानोदय’ और ‘भाषा’ के साथ-साथ मैं अन्य पत्रिकाओं से जुड़कर अपना लेखन करता रहा।
सवाल: क्या आपकी अभिरुचि बचपन से ही लेखन में थी ?
जवाब: पठन में ज्यादा थी। कम उम्र में ही चंद्रकांता, चंद्रकांता संस्तुति, वृंदावन लाल वर्मा और प्रेमचंद जैसे तमाम लेखकों को पढ़ लिया था। कुछ समझ में आता था, कुछ समझ में नहीं आता था। बचपन में मैं दैनिक अख़बारों में बच्चों के कालम में लिखने लगा था।
सवाल: क्या आपके बच्चे भी सााहित्य में रुचि रखते हैं ?
जवाब: नहीं (मुस्कुराते हुए), उन्हें मेरी पुस्तकों का नाम भी पता नहीं है।
सवाल: आप अपने छात्र जीवन के बारे में बताइए ?
जवाब: छात्र जीवन में भी मैं अपने घर वालों पर आश्रित नहीं रहा। मैं रेडियो के लिए नाटक और कहानी लिखता था। उस समय 60 के दशक में मुझे रेडिया प्रोग्राम के बदले 25 रुपये मिलते थे जो बहुत थे। जब मैं एम.ए. कर रहा था तब साइकिल तक नहीं थी। मेरे कॉलेज में को-एजुकेशन थी। लड़कियां न देख लें इसिलए खेतों से होकर पैदल जाता था और मेरे लिए कॉलेज की दूरी दुगनी हो जाती थी। मैं तो खेतों से तरबूजे तोड़ते हुए चला जाता था। फिर भी, जो भी किया खूब इंजॉय किया, हर पल को खुशी से बिताया।
सवाल: माता-पिता से जुड़ा कोई संस्मरण बताइए जो आपके जीवन में शिक्षाप्रद हो ?
जवाब: मेरे पिता मेहनती आदमी थे। अध्यापक थे, उनके बड़े सपने थे। उन दिनों हम किराए के घर में रहते थे। वे जाड़े के दिनों में भी सुबह पांच बजे ट्यूशन पढ़ाने जाते थे। अक्सर तो ये होता था कि जब वे जाते थे तब मैं सो रहा होता था और वे आते थे तब भी मैं सो रहा होता था। अपने इसी श्रम के कारण उन्होंने मकान बनाया। बाद में प्रिंसिपल भी हुए। उनके जीवन का एक ही लक्ष्य था ‘नाउ या नेवर’। काम उसी समय होना चाहिए। इसका प्रभाव मेरे जीवन पर भी पड़ा।
सवाल: इलाहाबाद में आपके द्वारा निकाला अख़बार ‘गंगा जमुना’ उन दिनों खूब बिकता था। उसके बारे में बताइए ?
जवाब: पिछली सदी के अंतिम दशक में मित्र प्रकाशन का आमंत्रण मिला। मित्र बंधुओं का आग्रह था कि ‘माया’ और ‘मनोहर कहानियां’ आदि के साथ-साथ एक साप्ताहिक पत्र भी प्रकाशित किया जाए। मित्र प्रकाशन, माया प्रेस अत्याधुनिक उपकरणों से लैस एक ऐसा प्रेस था जो पूरे भारत को टक्कर दे सकता था। उनके यहां विश्व की नवीनतम मशीनें, स्कैनर आदि थे। साधनों की कोई कमी नहीं थी। उनका विश्लेषण था कि पत्रिकाओं की बिक्री के मामले में इलाहाबाद सबसे कठिन शहर है। इलाहाबाद को पूरे देश का एक पैमाना मानते थे। मुझसे उन्होंने कहा कि स्थानीय स्तर पर एक साप्ताहिक पत्र निकाला जाए जो इलाहाबाद के जनजीवन, राजनीति का चित्र हो, जिससे इलाहाबाद का पूरा चरित्र सामने आ सके। साहित्य, राजनीति और सांस्कृतिक स्तर पर पहले अंक से ही धमाका हो गया। कुल 5000 प्रतियां छापी गईं,  जबकि 30,000 प्रतियों के आर्डर आ गए। उसकी उसी रात द्वितीय संस्करण छपा। 25,000 प्रतियां और छापी गईं। स्थानीय समाचारों के अलावा एक मुख्य पृष्ठ राष्टीय समाचारों पर आधारित था। एक फीचर लोकनाथ पर था। मुट्ठीगंज का पूरा इतिहास बताया गया था। पत्र ठेट इलाहाबाद भाषा में था, जिसका मूल्य केवल दो रुपये रखा गया था, जबकि पत्र की लागत 8-10 रुपये थी। ज़ाहिर है जितना अधिक बिकता उतना अधिक नुकसान होता। मुझसे कहा गया धीरे चलो। लोकप्रियता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि सुबह दूध के पैकेट के साथ-साथ सप्ताह में एक बार ‘गंगा-जमुना’ भी बिकने लगा। दूसरे शहरों से भी मांग आ रही थी, जबकि सामग्री केवल इलाहाबाद पर होती थी। वास्तव में राष्ट के अनेक वरिष्ठ नेताओं का तअल्लुक किसी न किसी रूप में इलाहाबाद से रहा था। पंत, निराला, महादेवी वर्मा, फ़िराक़ गोरखपुरी आदि की मौजूदगी में उन दिनों इलाहाबाद की छवि किसी महानगर से कम न थी। हम इलाहाबाद से बाहर निकलना नहीं चाहते थे। लेकिन बाहर का दबाव बढ़ता ही जा रहा था। ‘गंगा-जमुना’ इलाहाबाद के साथ-साथ देश की साहित्यिक, सांस्कृतिक और कला का आइना बन गया था। वैसे भी इलाहाबाद का समय भारत का मानक समय माना जाता है। इलाहाबाद की नब्ज़ देखकर आप बता सकते थे कि देश में अब क्या होने वाला है। इससे पहले माया प्रेस एक राष्टीय साप्ताहिक के रूप में इसे पेश करते कि माया प्रेस के मालिकों के बीच उनकी मां के मरते ही मतभेद उभरने लगे। संकट यहां तक बढ़ गया कि माया प्रेस की तमाम पत्रिकाएं अंतर्विरोधों और पारिवारिक मतभेदों के कारण पटरी से उतरती गईं और प्रेस पर ताला लग गया। सब योजनाएं धरी की धरी रह गईं। मैं भी इलाहाबाद छोड़कर भारतीय भाषा पर रिसर्च करने कोलकाता चला गया।
सवाल:  क्या आज के दौर में साप्ताहिक अख़बारों का कोई भविष्य है ?
जवाब: साप्ताहिक अख़बारों का भविष्य तो है मगर एक नए नज़रिए के साथ उतरना पड़ेगा। मैंने साप्ताहिक धर्मयुग में भी काम किया था। उस उसम उसकी तीन लाख प्रतियां सप्ताह में बिकती थीं। वर्षों यह सफलतापूर्वक चला, लेकिन समय के साथ-साथ उसका ‘कन्टेंट’ नहीं बदला। हर समय हर चीज़ नहीं बिक सकती। उसमें वक्त के अनुसार परिवर्तन होते रहना चाहिए। धर्मयुग में राजनीति का तनिक भी प्रवेश नहीं था और आज सार्वजनिक जीवन में राजनीति रच-बस चुकी है। तो ऐसी पत्रिका की कल्पना कैसे हो सकती है जिसमें आज के जीवन का समग्रता से विश्लेषण न हो।
सवाल: इलाहाबाद में पिछले दिनों एक वक्तव्य को लेकर काफी गहमा-गहमी रही कि ‘हिन्दी और उर्दू’ का आपस में कोई मेल नहीं है। इस विषय पर आपके क्या विचार हैं ?
जवाब: हिन्दी और उर्दू दोनों बहनें हैं। दोनों की अपनी-अपनी अलग विशेषाताएं हैं। मुझे लगता है कि हिन्दी को रवानी देने में उर्दू का बहुत योगदान है, और उर्दू को बहुत सी शब्दावली देने में हिन्दी का योगदान है। मैं देखता हूं कि पाकिस्तान के अख़बार में भी हिन्दी के शब्द आने लगे हैं। ये गंगा-जमुनी संस्कृति है, इसे कायम रखना चाहिए और भाषा-धर्म के स्तर पर जो लोग इसे अलग करते हैं, वे देश और इलाहाबाद का अहित कर रहे हैं।
सवाल: ज्ञानपीठ के आप सेवानिवृत्त हो चुके हैं। अब आपकी क्या योजना है? निकट भविष्य में आपकी कौन सी पुस्तकें पढ़ने को मिलेगी?
जवाब: मैं एक बहुत ‘स्लो राइटर’ हूं और ज्ञानपीठ से मैं 75 की उम्र में सेवानिवृत्त हुआ हूं। फिलहाल मैं कांग्रेस कल्चर पर एक उपन्यास लिखने की तैयारी कर रहा हूं।
सवाल: एक संदेश इलाहाबाद के लिए ?
जवाब: इलाहाबाद की गरिमा अगर कुछ कम हुई तो उसे बरकरार रखना चाहिए। नई पीढ़ी से बहुत आशाएं हैं। मैं सोचता हूं कि इलाहाबाद की छवि फिर से वैसी ही बने जैसी हमारी जेह्न में मौजूद है। इलाहाबाद के वायुमंडल में ही कुछ है जो कि रचनात्मकता की तरफ आपको ले जाता है। इलाहाबाद की बहुत उपलब्धियां हैं, इन उपलब्धियों को खंडित न होने दें।

इंटरव्यू लेने के दौरान शिवपूजन सिंह, प्रभाशंकर शर्मा और रवींद्र कालिया


(गुफ्तगू के जून 2015 अंक में प्रकाशित)

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