बुधवार, 30 जनवरी 2013

ग़ज़ल की हक़ीक़त


            -फिराक़ गोरखपुरी 


ग़ज़ल के मुतअतिलक इज़हारे ख्याल करते हुये एक मौ़के पर मैंने कहा था ग़ज़ल इन्तेहाओं का एक सिलसिला है. यानि हयात व क़ायनात के वो मरकज़ी हक़ायक जो इन्सानी जि़न्दगी केा ज्यादाह से ज्यादह मुतास्सिर करते हैं. तास्तुसरात की उन ही इन्तेहाओं में या मुन्तहाओ का मतरन्नुम ख्यालात में जाना और मुनासिब तरीन मौज़ू तरीन अल्फाज़ व अन्दाज़ बयान में उन का सूरत बिगाड़ लेना उसी का नाम ग़ज़ल है. इस तरह उन इन्तेहाओं को दवाम नसीब हो जाता है और ग़ज़ल का नग़मा, नग़मा-ए-सरमदी बन जाता है. शायरी के दूसरे इस्नाफ के कामयाब से कामयाब नमूने अपने मौज़ूआत की खारजी तफ़सीलों और जरमेयात निगारी से मोजय्यन होते हैं. ग़ज़ल के कामयाब तरीन नमूने कैफीयात महज की ख़बर देते हैं. ग़ज़ल में शऊर व वजदान का ऐसा एक इरतकाज़ होना चाहिए. मज़मून या मौज़ू अपनी माअनवियत में मुकम्मल तौर पर तहलील हो जाये. इस तरह के ग़ज़ल के नग़मों में एक वक्त हम अपनी इर्तेका-ए-हयात व तहज़ीब से हासिल शुदा कैफीयतों लताफतों और सलाहियतों की झनकार सुन सकें. हमारे शऊर और लाशऊर की यही तह-दर-तह झन्कारें नवा में ग़ज़ल में सुनायी देती हैं.
ख़्याल मौजू या मज़मून का अपनी मानवियत में तहलील हो जाना इस फि़करे में मानवियत का मफहूम क्या है? कुछ जुमलों का अमली मफहूम होता है. कुछ का ज़हनी मफहूम होता है. कुछ जुमलों का जहनी या मन्तक़ी मफहूम एक जमालियाती या विजदानी कैफियत या असर में तहलील हो जाता है. शोपंहार हिन्द कदीम के कुछ मुफक्किरों और वर्डस वर्थ ने उस अमल को वर्क महज़ या ऐन इटम या इल्म कामिल बताया है, लिहाजा किसी चीज़ को किसी वाकेया, किसी ख़्वाहिश ख़्याल या इरादे, किसी मुशाहिदे या किसी फिक्री शऊर या अमल का ऐसा एहसास जो उसके असबाब व अलल या उसकी अमली व कारबारी अफादियत, उसके सूद व ज़याँ, उसके महज़ मन्तक़ी पहलुओं की तनसीख व तरदीद किये बगैर उनसे मतसादुम व तरदीद किये बगैर उनसे मतसादुम हुए बगैर हमें वजद में लाये उसी का नाम मानवियत है. उसी का नाम हुस्न व जमाल है. यही खुसूसियत हर शै की मानवियत है. जिसके बिना पर हर चीज़ अपना वजूद हमसे मनवा लेती है तो मानवियत का मायने हुये वजद आफरीनी बकौल नतशे तखय्युली तौर पर एहसास जमाल हमें लामहदूद से दस्त व गरीबां कर देता है. जाॅन स्टुअर्ट ने अपनी खुद नविश्त सवानेह उमरी में लिखा है कि उसने ये फ़जऱ् कर लिया कि समाज की जि़न्दगी के अलावा वो आला से आला मकासिद अगर पूरे हो जाये जिनके पीछे वो जी जान से कोशा था तो क्या जि़न्दगी उसके लिये कबूल पज़ीर या जीने के क़ाबिल हो जायेगी. इस सवाल पर उसके शऊर की तहों से आवाज आयी कि ‘नहीं’ तब उसने खुदकुशी की ठान ली. ऐन उसी मौका पर वर्डस वर्थ की नज़मों का एक मुख्तसर मजमुआ उसके हाथ लगा जिसे पढ़ कर उसकी तमाम नाआसूदगी दूर हो गयी और हयात व कायनात की कबूलियत का बराहे रास्त एहसास हो गया. जि़न्दगी पर उसका ईमान फिर से जिन्दा हो गया. हर शै की असली कदरें उसी शै के वजूद या तसव्वुर में है. हयात व कायनात की वजदानी कबूलियत की तौफीक के हासिल ना होने की हालत को कारलायल ने एक अज़ीम ‘नहीं’ या ‘नाय’ अज़ीम कहा है.
एक था राजा जिसकी तीन रानियां थी. छोटी रानियां से उसने वादा किया था कि उसकी कोई बात नहीं टालेगा.’ राजा ने बड़े लड़को को जो पहली रानी से था राज देना चाहा. छोटी रानी ने कहा बड़े लड़के को घर से निकाल दो. राज वो लड़का पायेगा जो मुझसे है. बड़ा लड़का, उसकी बीबी और उसका छोटा भाई जंगलों में निकल गये. राजा सदमा से मर गया. जंगल में एक जाबर राजा ने उसकी बीबी को अगवा कर लिया. उसका जाबर राजा से जंग करके जिलावतन राजा अपनी बीबी को वापस लाया और छोटी रानी के लड़के ने बड़े भाई को राज वापस कर दिया. यह भी कोई अफसाने में अफसाना हुआ. उनसे मिलते-जुलते वाकेयात आये दिन अदालतों में पेश हेाते रहते हैं लेकिन यही मामूली वाकेया वाल्मिकी और तुलसी उसके जादू भरे कलम से आफाकी अदब की तखलीकों की शान नजूल बन जाता है. यही हाल यूनान के मशहूर नाटको या शेक्सपियर के मशहूर नाटकों का है जिनके प्लाट सूखी ठेठरियों से ज्यादा अहमियत नहीं रखते लेकिन जो फन के मस से इन्तेहाई माअनवियत के हामिल बन जाते है. जो कुछ पिछले दो पारों में कहा गया है वो नफ़्से शायरी या नफ़्से फन या अदब व दीगर फनून लतीफा की माहियत पर रोशनी डालने के लिये कहा गया है सिर्फ ग़ज़ल की माहियत पर नहीं ग़ज़ल अदब से इस लिहाज से मुतमायाज़ है कि उस के हर शेर का मौज़ू या खारजी माद्दा कम से कम होता है. इस ‘कम से कम’ को वजदानी-ए जमालियाती, तखय्युली का माअनवी लिहाज़ से ‘ज्यादा से ज्यादा’ बल्कि लामहदूद बना देना और इस तरह दर्द या राहत, ग़म या निशात मानूसियत या हैरत दरके महज़ या इस्तेजाब ग़रज़कि तमाम नफसियाती कैफियात व तजुर्बात का शऊर खालिस पैदा करके हमें एक नाकाबिल फरामोश इन्बेसात व तमानियत की दौलत अता करना ग़ज़ल का असल मकसद व मनसब है. इंग्लिस्तान के शायर कीट्स ने कहा है कि शायरी लतीफ इन्तेहाओं से हमें मोताहय्यरो मोतअज्जिब करती है. ग़ज़ल को उन लतीफ तरीन इन्तेहाओं को हासिल करने और दूसरों तक पहुंचाने के लिये कम से कम खारजी असलियत या ख़ारजी सरमाया या दर की मवाद की ज़रूरत होती है. अगर तमाम फनून लतीफ़ा इहसासे हयात व कायनात का अतर है तो ग़ज़ल इस अतर का अतर है. ग़ज़ल की माहियत तहज़ीक व इन्सानियत के मरकज़ी जमालियाती व वजदानी तजुर्बात़ की इस माहियत व असलियत में पोशीदा है. जहां अक्ली एख़लाकी और जमालियाती हक़ीक़तों का एक मावराई आलम में या ला महदूद के मरकज़ पर संगम होता है. ग़ज़ल का हर शेर एक रूहानी दौरे कामिल एक मुकम्मल रूहानी अमल या रद्दे अमल होता है. ग़ज़ल में ‘कम से कम’ का ज़्यादा से ज़्यादा बन जाता. इस फिकरे पर गौर करने से ये नुक्ता समझ में आने लगता है कि जिसे हम रूहे ग़ज़ल कहते हैं वह छोटी से छोटी बहरों में कामयाब तरीन ग़ज़लों में हमें नज़र आती है. जहां एहसास की तनहाई शिद्दत नर्म से नर्म हो जाती है और एक इरतआशे खफी बनकर रह जाती है. जहां अब्दी बेकरां सकूत और कम से कम आवाज़ मिलकर नवाये सरमदी बन जाते हैं.
जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले।

            (मीर)
चारा-ए-ग़म सिवाये सब्र नहीं
सो तुम्हारे सिवा अब नहीं होता

            (मोमिन)
इन अशआर में रूह ग़ज़ल जिस तरह हलूल किये हुये है. इस तरह मुन्दराजा जेल अशआर में रूह ग़ज़ल कारफरमां नहीं है.
कत्ल किये पर गुस्सा किया है लाश मेरी उठवाने दो।
हम भी जान से जाते रहे हैं आओ तुम भी जाने दो।।

                    (मीर)
तू कहां जायेगी कुछ अपना ठिकाना कर ले।
हम तो कल ख्वाबे अदम में शबे हिजरां होगे।

                    (मोमिन)
सूफी सदी शरीअत में किसी क़द्र कमी हो जाना लाज़मी व नागुरेज़ है. जब उसे अल्फाज़ का जामा पहनाया जायेगा. यहां सूरत व माअनी में समझौता कराना पड़ता है. मुख़्तसर से मुख़्तसर अल्फाज़ में वसी से वसी और गहरे से गहरा मानी समोया जा सकता है. यही है दरया को कूज़े में भरना यही है हर क़तरा से बहर बेकरा का झांकना यही है महदूद लामहदूद की दायमी आंख मिचैली. यही वो खुसूसियत है जो ग़ज़ल को दूसरे इसनाफ़ सुखन से मुतमायज करती है. एक बार मजनू से दोैरान गुफ़्तगू में मैंने ग़ज़ल की शायरी को बताया था. यानि दरके खालिस या दरके महज़ हिस्से पिनहा हिस्स दरों की शायरी वजदान की इन्तहाई सादगी व पुरकारी से ग़ज़ल के उन अशआर की तखलीक  होती है, जिन्हें हम रूहे ग़ज़ल कहते हैं. ग़ज़ल कहने के लिये बहुत सयानी और बहुत मासूम तबीयत चाहिये. हक़ीक़ी ग़ज़ल, हकीकी ग़ज़ल के अशआर उन वक्फहाये शऊर का पता देते हैं जब बकौल जिगर ग़ज़ल गो येे महसूस करता है.
शायर फितरत हूं जिस दम फिक्र फरमाता हूं मैं
रूह बनकर ज़र्रा-ज़र्रा में समा जाता हूं मैं।।

इसी दाखिली तजुर्बा या हिस्स दरूं की बिना पर शीले ने कहा था शायरी बयक वक्त तमाम उलूम का मरकज़ व मुहीत है. दूसरे इसनाफे सुखन दूसरे फनून लतीफ में भी ये खुसूसियत लाजमन होती है. ग़ज़ल में ये खुसूसियत बदर्जा-ए-अतम पायी जाती है. हर कामयाब ग़ज़ल नतायज का सिलसिला होती है. हम ये हैसियत इन्सान के न कि बहैसियत आलिम. फलसफी, सूफी, मसलह मुदब्बिर या सियासत दां ऐहसासात की जिन इन्तेहाओं तक पहुंचते हैं उन्हें मुकामात की खबरें ग़ज़ल के बेहतरीन अशआर हमें देने हैं. ग़ज़ल को प्रोफेसर कलीमउद्दीन अहमद ने नीम बहशी सिन्फे सुखन बताया है. दौरे वहशत की जेबिल्लतें अगर यकलख्त तर्क कर दी जायें तो मजहबों व फनून लतीफ की मौत हो जाये. इमर्सन ने दीवान हाफिज़ का अंग्रेजी तर्जुमा पढ़कर फारसी शायरी के उनवान से जो मक़ाला लिखा है या गेटे ने फारसी ग़ज़ल गो शायर को खेराजे तहसीन दिया है. वह उस अम्र का सबूत है कि दौरे वहशत या दौरे बर्बरियत की जेबिल्लतें शऊर इन्सानी या इन्सानी हिस्से दरूं को कहां से कहां ले जाती है. बकौल असगर गोन्डवी
मुकामें जहल़ को पाया ना इल्म इरफां ने
मैं बेखबर हूं बअन्दाज़-ए-फरेब व शहूद
जि़न्दगी के मर्कज़ी और अहम हकायक व मसायल ग़ज़ल के मौजू होते हैं. उन हक़ायक़ में वारदाते इश्क़ को अव्वलियत हासिल है. क्योंकि इन्सानी तहज़ीब के इरतेक़ा में जिन्सियत और उससे पैदा होने वाली कैफियतों का बहुत बड़ा हाथ रहा है. जिनसियत ने अन्धे तूफान को तवाज़न बख्शा यानि तहज़ीब जिनसियत तारीख़ का बहुत बड़ा कारनामा रहा है. हम महबूब से मुहब्बत करके और मुहब्बत को रचा संवार के अपनी जि़न्दगी को रचाते और संवारते है. हयात व कायनात से मुहब्बत करना सीखते हैं और जि़न्दगी की धार को कुन्द करने से बचाते हैं. ग़ज़ल हमें जिनसियत की अहमियत का एहसास कराती है और जिनसियत जब दाखिली व गै़बी तहरीकों से इश्क बन जाती है. तो इश्क़ के लामहदूद इमकानात की तरफ और उस इश्क़ के ज़रीये से तामीरे इन्सानियत की तरफ ग़ज़ल इशारा करती है. इश्क़ का पहला महर्रिक महबूब की शख्सियत है फिर यही इश्क़ हयात व कायनात से एक ऐसा वालेहाना लगाव पैदा कर देता है कि जिनासियत के हदूद से निकलकर इश्क़ एक हमागीर हकीकत बन जाता है.
इश्क़ मजनूं निस्बते ईं कारे मन अस्त
हुस्न लैला अक्स रूखसारे मन अस्त
तो मुसलसल इश्कि़या नज़्मों और ग़ज़ल के इश्कि़या अशआर बहिसाबें खुद एक कायनात एक मुकम्मल इकाई होते हैं जिनकी कैफियत ख़्याल, मज़मून या खारजी मवाद का कम से कम सहारा लेकर कम से कम अल्फाज़ लेकर खालिस जज़्बात या जज़्बात महज़ से दो चार कर देती है. हर शेर की कैफियत अपनी बेकरानी का एहसास कराती है. ऐसी महवियत नज़्मों के इश्कि़या अशआर से पैदा नहीं होती. उनमें इतनी दाखलियत इतनी इशारियत, ऐसी ख्वावबनाकी, ऐसी बेदारिये-क़ल्ब, इतनी मानवियत, ऐसी अकमलियत, ऐसा इरतकाज़, ऐसी सादगी व पुरकारी, बेखुदी व शयारी हम नहीं पाते जो ग़ज़ल के इश्किया अशआर में हम पाते हैं. वो शोरियत व नशरियत व रज़ायियत जो ग़ज़ल के इश्किया अशआर में हमें मिलती है. इश्कि़यां नज़्मों में नहीं मिलती है. बुलन्द पाया इश्कि़यां नज़्मों में ये तहदारी न होते हुये भी और बहुत सी क़दरे अव्वल की खूबियां होती हैं जो तहज़ीबे इन्सानियत में मदद देती है. तफसीलात व जुज़यात की सहर कारियां बुलन्द पाया इश्कियां नज़्मों में हमें मिलती है. शायराना इस्तदलाल के कारनामे इश्किया नज़्मों में नज़र आते हैं. हुस्न बयान की रंगा रंगी एक तख्लीक़ी निज़ाम या एक कायनाते हुस्न व इश्क़ की बू कलमूनी मुख़्तलिफ बाहम मुताल्लिक ख्यालात के रिश्ताहाये पिनहा उन सब का नज़ारा या एहसास बुलन्द पाया मुसलसल इश्कि़या नज़्मों में होता है. इसके बरअक्स ग़ज़ल में एक नुकीली यकसुई होती है जो खारजी अजज़ा की हदूद शिकनी करती हुयी हमंे एक नाकाबिल बयान मावराई आलम में ले जाती है. दरमियानी मनाजिल पर अशआर ग़ज़ल का कयाम नहीं होता. ग़ज़ल के कुछ अशआर की याद ताज़ा कीजिये-
असर गरीब में जब तक कि जान बाकी है।
तेरी वही रविश इम्तेहान बाकी है।

            (असर देहलवी)
वली इस गौहर काने हया का वाह क्या कहना
मेरे घर इस तरह आवे है जूं सीने में राज़ आवे।

            (वली दकनी)
खोली थी आंख ख्वाबे अदम से तेरे लिये
आखिर को जाग-जाग के नाचार सो गये।

            (दर्द)
जमाने के हाथों से चारा नहीं है।
ज़माना हमारा तुम्हारा नहीं है।

        (वालिद मरहूम इबरत गोरखपुरी)
तुम्हें सच-सच बताओ कौन था शीरी के पैकर में
कि मुश्ते ख़ाक़ की हसरत में कोई कोह कन क्यों हो।

            (आसी ग़ाज़ीपुरी)
चश्म हो तो आईना खाना है दहर
मुंह नज़र आये तो दीवारों की बीच।

        (मीर)
तू और आराइश खम का कुल
मैं और अन्देशा-हा-ऐ दूर दराज़

        (गालिब)
मैंने फानी डूबते देखी हैं नब्जे़ कायनात
जब मिज़ाज यार कुछ बरहम नज़र आया मुझे।

            (फानी)
हमारी तरफ अब वो कम देखते हैं
वह नज़रे नहीं जिनको हम देखते हैं।

            (दाग़)
मान लेता हूं तेरे वादे को
भूल जाता हूं मैं कि तू है वही

        (जलील मानिकपुरी)
नसीमे सुबह से मुरझाया जाता हूं वह गुन्चा हूं
वो गुल हूं मैं जिसे शबनम बलाऐे आसमानी है।

            (आतिश)
ज़ख्म की तरह जमाने में तू काट अपनी उमर
हंस ले या रो ले पर इतना हो कि टुक दर्द के साथ।

            (नसीम नखनवी)
वस्ल में रंग उड़ गया मेरा
क्या जुदाई को मुंह दिखाऊंगा

            (मीर)
गर यही है बागे आलम़ की हवा
शाखे गुल एक रोज़ झांेका खाएगी।

            (नसीम नखनवी)
मेरे निदाये दर्द पै कोई सदा नहीं
बिखरा दिये हैं कुछ मह व अन्जुम जवाब में

            (असगर गोन्डवी)
ज़माने की हवा बदली निगाह आशना बदली
उठे महफिल से सब बेगाना ए-शम्मो सहर हो कर

            (यगाना)
सुबह तक वो भी न छोड़ी तू ने ऐ वादे सबा
यादगारे रौनकेमहफिल थी परवाने की खाक

            (आसी गाज़ीपुरी)
मेरे तगय्यरे हाल पर मत जा
इत्तेफाकात है ज़माने के।

            (मीर)
तजस्सुस हो तो मिल जाता है सब कुछ दारे इम्कां मंे
कोई लम्हा खुशी का आओ ढूंढे उमरे इन्सान में

            (मानी जायसी)
वस्ल होता है जिनको दुनिया मेंया रब ऐसे भी लोग होते है।
            (मीर हसन)
यूं जि़न्दगी गुज़ार रहा हूं तेरे बगैर
जैसे कोई गुनाह किये जा रहा हूं।

            (जिगर मुरादाबादी)
आ मेरी आरजू-ए-दिल मेरी बहारे जि़न्दगी
आ कि मैं ये न कह सकूं मुझकों खुदा न मिल सका।

            (बहज़ाद लखनवी)
चल ऐ हमदम ज़रा साज़ तर्ब की छेड़ भी सुन लें।
अगर दिल बैठ जायेगा तो उठ आएगें महफिल से।।

            (साकिब लखनवी)
कहिये कि अब मैं अपनी हकीकत को क्या कहूं
जो सांस ली वो आपकी तसवीर हो गयी।

            (अज़ीज़ लखनवी)
इन अशआर से बा जौक़ आदमी को पूरा पूरा अन्दाज़ा हो जायेगा कि जितनी तासीर और जिस उन्वान का ऊपर जिक्र हुआ है। इन अशार में वह तमाम खुसूसियतें मौजूद हैं
तारा टूटते सबने देखा ये नहीं देखा एक ने भी
किस की आंख से आंसू टपका किसका सहारा टूट गया।
            (आरज़ू)
दिखाना पड़ेगा उसे ज़ख्मे दिल
अगर तीर उसका खता हो गया।

            (हाली)
ऐ इश्क़ की गुस्ताख़ी क्या तूने कहा उन से
जिस पर उन्हें गुस्सा है इन्कार भी हैरत भी।

            (हसरत मुहानी)
बहारें हमको भूलें याद इतना है कि गुलशन में
गरीबां चाक करने का भी एक हन्गाम आया था।

            (साकिब लखनवी)
मार डालेगा ये ज़माल मुझे
आईना फेंककर संभाल मुझे।।

            (बेखुद देहलवी)
दाग फिराक़ सोहबत शब की जली हुयी
एक शमा रह गयी थी सो वो भी खामोश है।

            (ग़ालिब)
चार झोंके जब चले सहने चमन याद आ गया
सर्द आहें जब किसी ने लीं वतन याद आ गया

            (अमीर मिनाई)
गयी थी कह के कि लाती हूं जुल्फे यार की बू
फिरी तो बादे सबा का दिमाग भी ना मिला।

            (जलाल)
जो भी शै है हमा तन राज़ हुयी जाती है
जिन्दगी दूर की आवाज़ हुयी जाती है।।

        (जोश मलीहाबादी)
खुदा जाने ये कैसी रहगुज़र है किसकी तुरबत है
वो जब गुज़रे उधर से गिर पड़े कुछ फूल दामन से।

            (नामालूम)
कैफियत चश्म उसकी मुझे याद है सौदा
साग़र को मेरे हाथ से लेना कि चला मैं।

            (सौदा)
जि़न्दगी यूं भी गुज़र ही जाती
क्यों तेरा राह गुज़र याद आया।।

            (गालिब)
मेरा पयाम सबा कहियो मेरे युसुफ से
निकल चली है बहुत पैरहन से बू तेरी

            (आतिश)
हम तौरे इश्क़ से वाकिफ तो नहीं है लेकिन
सीने में कोई जैसे दिल को मला करे है।

            (मीर)
दूसरे होेते हैं वो जिऩ्दगी भर के बोस व किनार व मुबाशरत के लिये काफी हैं लेकिन जज़्बा-ए-इश्क व तसव्वुर यहीं नहीं कि जिन्दगी भर के मामले हैं बल्कि रूह इरातिका और तारीख तहजीब के ज़मीर का हुक्म रखते हैं ये जज़्बा और तसव्वुर मौत पर फतह पाने की जमानत और खिलाफत कायनात का मनसब नामा अपने हाथों में लिये हुए हैं. ग़ज़ल के उन अशआर के अलावा जो महबूब के जिस्मानी हुस्न या अदाओं की मुसव्वरी करते हैं वो अशआर जो आशिक व माशूक के बाहमी ताल्लुकात की मुसव्वरी या तरजुमानी करते हैं. महबूबा की शख्सियत तो उन ताल्लुकात का महज़ नुक्त-ए-आग़ाज होता है. यही वजह है कि आशिक व माशूक के बाहमी ताल्लुकात की तरजुमानी जिन अशआर में होती है वो हर ऐसे मौका महल पर आयद हो जाते हैं. जहां तरफैन के दरम्यान वही सूरते हाल पैदा हो गयी है. जो इस शेर की शाने नजू़ल रही है. यही राज़ है अशआरे ग़ज़ल की हमागीरी और आफाकियत का तसव्वुर जमाल जज्बा इश्के जमाल, इन्सानियत और इन्सान दोस्ती के तसव्वुर और जज़्बे में मुन्तकिल हो जाते है. और फिर जमाले कायनात और इश्के कायनात का तसव्वुर व ज़ज़्वा बन जाते हैं. फिर अशआरे ग़ज़ल हयात व कायनात के तमाम मौजूआत पर तमाम पहलुओं पर मुहीत हो जाते हैं. बराहेरास्त या बिलावास्ता एखलाक फलसफा यानि जिन्दगी से मुताल्लिक तमाम मरकजी व हमागीर उसूल व खयालात ग़ज़ल के दायरे में आ जाते हैं. बशर्ते कि शायर उनमें सोज व गुदाज़ तासीर बराहे रास्त दाखिली हिस, वजद आफरीनी, कैफ अन्गेजी, महावियत, मानवियत एहसासे जमाल और ठेठ इन्सानियत का लहजा. ऐसा रद्दे अमल ला सके जो वयक वक्त इरतकाए तहज़ीब व इन्सानी जबाहल जबल्लियत की देन हो. ग़ज़ल के लिये कोई मौज़ू या मज़मून समर ममनून नहीं है. अल्बत्ता हर समर खाम ग़ज़ल के लिये समर ममनून है. जिन्सी मुहब्बत के अलावा दूसरे मौजूआत भी ग़ज़ल के अशआर में लाये जा सकते हैं. बशर्ते कि शायर के सोज़े दरुं की आंच उन्हें पुख्ता कर चुकी है और हयात व कायनात के अजमाली एहसास व तसव्वुर का लब व लहजा हम ऐसे अशआर को अता कर सके, जिन अशआर में हंगामियत, तसव्वुर की असबियत, अकीदहज़दगी, सतहियत, खुश्की, दानिस्ता, दलायल का गोरखधंधा कोई ‘अज्म़’ कट्टर फिक्रयात मौजूं नस्ररियात किसी मखसूस या महदूद व वक्ती प्रोग्राम या मन्सूबे की तकमील के लिये ‘पैगामें अमल’ मिल्ली तसादुमात, नाराबाजी, नीम पुख्ता या नीम बरश्ता जज़्बात, पार्टी बाज़ी, शोर व शग़फ़ नुमा खिताबत या सहाफत, एहसास बरती या तकवा फरोशी की तासीर जैसा सोज़ व गुदाज़ जो दूररसी पारसाई जैसी कैफीयत महवियत उन अशआर में है व बुलन्द इश्क्यिा नज़्मों के अशआर में हमें नहीं मिलेगी. गो अच्छी नज़्मों के अशआर भी फ़न व जि़न्दगी की बहुत कीमती कदरें मिलती है जिनसे हमारे वजदान है और हमारी तहज़ीब को जला मिलती है. ग़ज़ल का वाकई अच्छा शेर होता है. ऐसे शेर में शेरिअत की इन्तेहा या आखिरी तहें हमें मिलती है. हमारे वजदान और एहसास जम़ाल के सबसे कीमती वक्फ़े ऐसे अशआर में दवाम हासिल कर लेते है. इन्सानियत ऐसे अशआर में अपने आपको पाती है कि नज़र आती है. तहज़ीब उन अशआर के आईना में अपनी सही तस्वीर देख लेती है. हम उन अशआर में अपने आप को छू लेते हैं जो उस ख़मसा अपनी रूह से ऐसे अशआर में दो चार हेाते है. मिजाज़ अपनी उलूहियत का एहसास करता है और जहां गुजरां अपनी अहदियत का ख्वाब और ताबीरे ख्वाब देख लेता है. जिन्दगी पर जिन्दगी की नयी चोटें पड़ने लगती है, नक्श व निगार आलिम खुतूत तक़दीस मालूम होने लगते हैं, जन्नत का ब्याह करहे अजऱ् से हम होते हुये देखते हैं. जिन्दगी की देवी अपने सोज़दरों के गिर्द काटती है. कायनात अपने दाखिली तरीन महवर पर रक़्स करती हुयी नज़र आती है जो जमाल मअ़ने वजूद बन जाता है. जमाल अपनी वाजिब अलवजूदी को हम से मनवा लेता है हम मौजूदात आलम के उन आंसुओं में नहा उठते हैं जिनकी तहारत मौजे कौसर को नसीब नहीं और जिनकी हयात आवरी आब हैवां में भी नहीं पायी जाती.
जिन्सियत और जिन्सी जेबिल्लते खैर व शर की आमाजगाह है. इस तख़लीक़ी कूवत के लिये अहरमन यजदां की मुसलसल जंग जारी रहती है. जिन्सियत की माद्दी बुनियाद व लमसियात में पिनहा फिर लम्सियात से उभर कर जिन्सियत तसव्वुर व जमाल और जज़्ब-ए-इश्क बनता है. फिर ये तसव्वुर और ये जज़्बा आशिक की शख्यित में जारी व सारी हो जाता है. इश्क व माशूक के बाहमी इरतबाह व इखतेलाल के बेशुमार रिश्ताहाये पिनहा, किरदारे हुस्न व इश्क हज़ारहा पहलु, तसव्वुर जमाल व जज़्बा-ए-इश्क से पैदा शुदह, हज़ारहा कवायफ व निकात बहुत सी नफसानी हालतें खनुमा होती है और उनके जमाल का एहसास होता है.
बाग़वा बुलबुले कुश्ता को कफ़न क्या देता
पैरहन गुल का ना बदला कभी मैला होकर

                (सबा)
सारी दुनिया ये समझती है सौदाई है
अब मेरा होश में आना तेरी रूसवाई है।

                (मो. अली जौहर)
ये शबाब में फसाने जो मैं दिल से सुन रहा हूं
अगर और कोई कहता तो ना ऐतबार होता।

                (साकिब लखनवी)
जुनू पसन्द भी क्या छांव है बबूलों की
अजब बहार है उन ज़र्द व ज़र्द फूलों की

                (नासिख)
रंगे गुल व बुए गुल होते हैं हवा दोनों
क्या काफिला जाता है तू भी जो चला चाहे।

                (मीर)
जि़क्र जब छिड़ गया कयामत का
बात पहुंची तेरी जवानी तक।

                (फ़ानी)
जुल्फ़ में फंस के फंसू अब है ये वहशत कैसी
सांप जब काट चुका सीखने जन्तर बैठे।

            (फंसू)
उफतादह रहने दी थी ज़मी दिल की इसलिये
उम्मीद थीं कि आप यहां घर बनाएगें।

            (ताअश्शुक़)
बड़ी एहतियात तलब है ये जो शराब साग़रे दिल में है
जो छलक गयी तो छलक गयी जो भरी रही तो भरी रही

 वो तेरी गली की कयामतें कि लहद से मुर्दे निकल गये
वो तेरी जबीने नियाज़ थी कि वहीं धरी की धरी रही।।

                (शाह नैरंग)
ऐ दिल मुद्दआ तलब वक्ते सवाल भी तो हो
मुझको भी नाम याद है अपने गदा नवाज़ का।

            (शाद अज़ीम आबादी)
खराब मिट्टी न हो किसी की कोई ना मरदूद दोस्ता हो
जुदा हुआ शाख़ से जो पत्ता गुबार ख़ातिर हुआ चमन का।

                    (आतिश)
सौदा जो तेरा हाल है इतना तो नहीं वो।
क्या जानियेे तूने उसे किस हाल में देखा।।

            (सौदा)
 

गुफ्तगू के दिसंबर-2012 अंक में प्रकाशित

शनिवार, 26 जनवरी 2013

गुफ्तगू के मार्च-2013 अंक में



3.ख़ास ग़ज़लें- अकबर इलाहाबादी, अदम, परवीन शाकिर,दुष्यंत कुमार
4-5.संपादकीय- घटना की ताक में शायर
ग़ज़लें
6.प्रो. वसीम बरेलवी, मुनव्वर राना,हस्ती मल हस्ती, हसन मुरैनवी
7.के.के. सिंह मयंक, असरार नसीमी, खुर्शीद नवाब
8.महेश अग्रवाल, असद अली असद,दिनेश त्रिपाठी शम्स
9.ए.एफ.नज़र,उषा यादव उषा, सेवाराम गुप्ता प्रत्यूष
10.जयकृष्ण राय तुषार, सूर्य नारायण शूर, अफ़साना हयात
11.वारिस अंसारी पट्टवी, यशवंत दीक्षित,लक्ष्मी निवास, माया सिंह माया
12.वीनस केसरी, वसीम महशर, रूबीना नाज़ अंसारी, अजय कुमार
79.सलीम अंसारी
कविताएं
13.माहेश्वर तिवारी, नंदल हितैषी, रेखा गुप्ता, लोकेश श्रीवास्तव
14.गिरीश त्यागी, नाजि़रा नूर
48.सुरजीत मान जलइया सिंह
15-16. तआरुफ़: स्नेहा पांडेय
17-19.अकबर इलाहाबादी: समय की चुनौतिया-रविनंदन सिंह
20-22.इंटरव्यू:प्रो. सोम ठाकुर
23-25.चैपालः मंच से चुटकुलेबाजी कैसे ख़त्म हो?
26-29.चिट्ठा  सालभर का-शाहनवाज़ आलम
30-34.धर्मेन्द्र सिंह सज्जन के  सौ शेर
35.इल्मे क़ाफि़या भाग-12
36-38. तब्सेरा: ख़्वाब पत्थर हो गये,सच कहूं तो, दस्तूर, नेह निर्झर, निशीथ
39-42.अदबी ख़बरें
43-48.महाकुंभ 2013 का समर्पित कविताएं: कैलाश गौतम, सागर होशियारपुरी, जयकृष्ण राय तुषार,संजय अलंग, तलब जौनपुरी, सुरेश अवस्थी,कमलेश द्विवेदी, नरेश कुमार महरानी, हुमा अक्सीर, वंदना गुप्ता, पीयूष मिश्र, विजय शंकर पांडेय, सौरभ पांडेय, शैलेंद्र जय
परिशिष्ट: सीमा गुप्ता
49-51. सीमा गुप्ता का परिचय
52-54. नज़्म निगारी का नुमाया नाम सीमा गुप्ता
54-77. सीमा गुप्ता की कविताएं             
    

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

‘गुफ्तगू’ के उर्दू ग़ज़ल विशेषांक का विमोचन और मुशायरा

सुरेंद्र राही, शिवपूजन सिंह, फरमूद इलाहाबादी, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, रविनंदन सिंह, प्रो. अली अहमद फ़ातमी, एसएमए काज़मी, एहतराम इस्लाम, मुनेश्वर मिश्र, अखिलेश सिंह, कृष्ण बहादुर सिंह और हसीन जिलानी
इलाहाबाद। ‘गुफ्तगू’ का उर्दू ग़ज़ल विशेषांक कई मायनों में बहुत महत्वपूर्ण है, इस अंक में भारत के उर्दू ग़ज़ल इतिहास का पूरा विवरण संक्षिप्त रूप में दिख रहा है। यह एक दस्तावेजी अंक है। यह बात पूर्व महाधिवक्ता एसएमए काज़मी ने 19 जनवरी को लूकरगंज में आयोजित परिचर्चा एवं विमोचन समारोह में कही। कार्यक्रम की अध्यक्षता श्री काज़मी ने की, मुख्य अतिथि वरिष्ठ अधिवक्ता एवं शायर एम.ए. क़दीर थे, संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया। सबसे पहले इस अंक का विमोचन किया गया। मुख्य अतिथि एम ए कदीर ने कहा कि गुफ्तगू के इस प्रयास की हमें प्रशंसा करनी चाहिए और उम्मीद की जानी चाहिए आने वाले दिनों में इनका और अच्छा अंक सामने आएगा। प्रो. अली अहमद फातमी ने कहा कि इस अंक का प्रकाशन करके गुफ्तगू ने ख़ासतौर हिन्दी पाठकों के लिए बहुत अच्छी सामग्री उपलब्ध करा दी है, उर्दू में तो इस तरह के बहुत से अंक प्रकाशित हुए हैं, लेकिन हिन्दी में यह पहला प्रयास है, हमें ऐसे प्रयासों की सराहना करनी चाहिए। रविनंदन सिंह ने अपने वक्तव्य में हिन्दी-उदू ग़ज़ल के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए कहा कि ग़ज़ल आज के समय की सबसे लोकप्रिय विधा बन गई है, हर भाषा ने इसे अपना लिया है। वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र का कहना था कि टीम गुफ्तगू हमेशा कोई न कोई नया कार्य करती रही है, इलाहाबाद में इस तरह के साहित्यिक कार्य का किया जाना हमारे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। कृष्ण बहादुर सिंह ने कहाकि इस अंक को पढ़कर हमें उर्दू ग़ज़ल के संपूर्ण इतिहास की जानकारी हो जाती है, जोकि अधिकतर हिन्दीभाषी लोगों को नहीं है। कार्यक्रम के दौरान शिवपूजन सिंह, नरेश कुमार ‘महरानी’,वीनस केसरी, अजय कुमार, नायाब बलियावी,सबा खान, संजय सागर, शाह महमूद रम्ज, एहतराम इस्लाम, असरार गांधी आदि मौजूद रहे। दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया। जिसमें अजय कुमार, नरेश कुमार ‘महरानी’, शैलेंद्र जय, शाहिद अली शाहिद, सबा ख़ान, हसनी जिलानी, जयकृष्ण राय तुषार,वीनस केसरी,रमेश नाचीज़, फरमूद इलाहाबादी, ख़्वाजा जावेद अख़्तर, नायाब बलियावी, एहतराम इस्लाम और एम.ए.क़दीर ने कलाम पेश किया।
विचार व्यक्त करते एसएमए काज़मी
विचार व्यक्त करते मुनेश्वर मिश्र
विचार व्यक्त करते अखिलेश सिंह
विचार व्यक्त करते रविनंदन सिंह
विचार व्यक्त करते कृष्ण बहादुर सिंह
 एम.ए. क़दीर-
आंख वह नीली-पीली होती रहती है।
मौसम में तब्दीली होती रहती है।

 एहतराम इस्लाम-
अक्स को धूल-धूल मत करना।
आइने को मलूल मत करना


ख्वाज़ा जावेद अख़्तर-
बहुत कुछ दिया है ज़माने को हमने,
ज़माने ने हमको दिया कुछ नहीं है।

 फरमूद इलाहाबादी-
आप उल्लू कहें या उल्लू-ए-सानी मुझको।
मुस्तनद कर दें कोई दे के निशानी मुझको।
अकबरो,आदिलो, सागर या दिलावर क्या हैं,
डिक्लेयर कीजे हज़लगोई का बानी मुझको।

शाहिद अली ‘शाहिद’-
मुंह छिपा के रो रहा था एक तारा रातभर।
पारा-पारा हो रही थी माहोपारा रातभर।


जयकृष्ण राय तुषार-
नये साल में
नई सुबह में
ओ मेरे दिनमान निकलना
अगर राह में
मिले  बनारस
खाकर मघई पान निकलना


इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी-
इश्क़ की राह पर आप चलिए मगर,
शह्र है हादसों का ज़रा देखकर।
नाज़ करते थे कल अपनी अंगड़ाई पर,
आज रोने लगे आईना देखकर।

 हसीन जिलानी-
निगाह में जो मोहब्बत का इक शरारा हो,
तो क़ायनात का दिलकश हर इक नज़ारा हो।

 रमेश नाचीज़-
हदों को पार करने का नतीज़ा देख लेना तुम।
किसी पर वार करने का नतीज़ा देख लेना तुम।
हमारे धैर्य की सीमा जहां पर खत्म होती है,
वहां तकरार करने का नतीजा देख लेना तुम

 सबा ख़ान-
जाओ आज़ाद हो तुम मेरे गमगुसार,
रूह ने कर लिया अब सुकूत अखि़्तयार।

शैलेंद्र जय-
ऋतुओं की ऋतु और शान है बसंत।
प्रकृति की खूबसूरत मुस्कान है बसंत।


नरेश कुमार ‘महरानी’-
गाड़ी दौलत जल दिखत, सड़कें दौड़े नाव।
अन्नाजी अनशन करें, साथी फेंकत दांव।
 वीनस केसरी-
खूब भटका है दर-ब-दर कोई।
ले के लौटा है तब हुनर कोई।
धंुध ने ऐसी साजिशें रच दी,
फिर न खिल पाई दोपहर कोई।

 अजय कुमार-
मीर ग़ालिब मैं खुद को समझता तो हूं,
शेर खुद का कभी एक कह ना सका।


धन्यवाद ज्ञापित करते शिवपूजन सिंह

गुरुवार, 17 जनवरी 2013

अमवसा क मेला: कैलाश गौतम


ई भक्ति के रंग में रंगल गांव देखा
धरम में करम में सनल गांव देखा
अगल में बगल में सगल गांव देखा
अमवसा नहाये चलल गावं देखा।
एहू हाथे झोरा, ओहू हाथे झोरा
अ कान्ही पर बोरी, कपारे पर बोरा
अ कमरी में केहू, रचाई मं केहू
अ कथरी में केहू, दुलाई में केहू
अ आजी रंगावत हई गोड़ देखा
घुंघटवैसे पूछै पतोहिया कि अइया
गठरिया में अबका रखाई बतइहा
एहर हउवै लुग्गा ओहर हउर्व पूड़ी
रमायन के लग्गे हौ मड़ुवा क ढ़ूढी
ऊ चाउर अ चिउरा किनारे के ओरी
अ नयका चपलवा अंचारे के ओरी
अमवसा के मेला अमवसा क मेला
इहै हउवै भइया अमवसा क मेला
मचल हउवै हल्ला चढ़वा उतारा
खचाखच भरल रेलगाड़ी निहारा
एहर गुर्री गुर्रा, ओहर लोली लोला
अ बिच्चे में हउवै शराफ़त से बोला
चपायल हो केहू, दबायल हो केहू
अ घंटन से उप्पर टंगायल हौ केहू
केहू हक्का बक्का, केहू लाल पीयर
केहू फनाफनात हउवै कीरा के नीयर
अ बप्पारे बप्पा, अ दइया रे दइया
तनी हमैं आगे बढ़ै देत्या  भइया
मगर केहू दर से टसकले न टसके
टसकले न टसकै, मसकले न मसकै
छिड़ल हो तिहाई नताई के चरचा
पढ़ाई लिखाई कमाई क चरचा
दरोगा क बदली करावत हौ केहू
अ लग्गी से पानी पियावत हो केहू
अमवसा के मेला अमवसा के मेला
इहै हउवै भइया अमवसा के मेला
जेहर देखा ओहर बढ़त हउवै मेला
अ सरगे क सीढ़ी चढ़त हउवै मेला
बड़ी हउर्व सांसत न कहले कहाला
मूड़ैमूड़ सगरो न गिनले गिनाला
एडी भीड़ में संत गिरहसत देखा
सबै अपने अपने में हौस व्यक्त देखा
अ टाई में केहू, त टोपी में केहू
अ झूंसी में केहू, अलोपी में केहू
अखाड़न क संगत, अ रंगत ई देखा
बिछल हौ हजारन क पंगत ई देखा।
कहीं रासलीला कहीं परबचन हौ
कहीं गोष्ठी हौ कहीं पर भजन हौ
केहू बुढि़या माई के कोरा उठावै
अ तिरबेनी मइया में गोता लगावै
कलपबास में घर क चिन्ता लगल हो
कटल धान खरिहाने वइसै परल हो
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहै हउवै भइया अमवसा क मेला
गुलब्बन क दुलहिलन चलैं धीरे-धीरे
भरल नाव जइसे नदी तीरे-तीरे
सजल देह जइसे हो गौने क डोली
हंसी हो बताशा शहद हउवै बोली
अ देखैलीं ठोकर बचावैलीं धक्का
मनै मन छोहरा मनै मन मुनक्का
फुटेहरा नियर मुसकिया मुसकिया के
निहारैलीं मेला सिहा के चिहा के
सबै देवी देवता मनावत चलैलीं
अ नरियर पर नरियर चढ़ावत चलैलीं
किनारे से देखैं इशारे से बौलें
कहीं गांठ जोड़ैं कहीं गांठ खोलैं
बड़े मन से मंदिर में दरसन करैलीं
अ दूधे से शिवजी क अरघा भरैलीं
चढ़ावैं चढ़ावा अ गोंठैं  शिवाला
छुवल चाहैं पिण्डी लटक नाहीं जाला।
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहै हउवै भइया अमवसा क मेला
बहुत दिन पर चम्पा चमेली भेंटइली
अ बचपन क दूनो सहेली भेंटइली
ई आपन सूनावैं ऊ आपन सुनावैं
दूनों आपन गहना गदेला गिनावैं
असों का बनवलू असों क गढ़वलू
तू जीजा क फोटो न अब तक पठवलू
न ई उन्हैं रोकैं न ऊ इन्हैं टोकैं
दूनो अपने दुलहा के तारीफ झोकैं
हमैं अपने सासू क पुतरी तू जान्या
अ हम्मैं ससुर जी क पगरी तू जान्या
शहरियों में पक्की देहतियों पक्की
चलत हउवै टेम्पो चलत हउवै चक्की
मनैमन जरै और गड़ै लगती दूनों
भयल तू-तू मैं-मैं लड़ै लगलीं दूनो
अ साधू छोड़ावै सिपाही छोड़वै
अ हलुवाई जइसे कराही छोड़ावै
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहै हउवै भइया अमवसा के मेला
कलौता के माई क झोरा हेरायल
अ बुद्धू के बड़का कटोरा हेरायल
टिकुलिया के माई टिकुलिया के जोहै
बिजुलिया क भाई बिजुलिया के जोहै
मचल हउवै मेला में सगरों में ढुढ़ाई
चमेला क बाबू चमेला क माई
गुलबिया सभत्तर निहारत चलैले
मुरहुवा मुरहुवा पुकारत चलैले
अ छोटकी बिटिउवै के मारत चलैले
बिटिउवै पर गुस्सा उतारत चलैले
गोबरधन के सरहज किनाने भेंटइलीं
गोबरधन के संगे पउंउ़ के नहइलीं
घरे चलता पाहुल दही गुड़ खियाइत
भतीजा भयल हौ भतीजा देखाइत
उहैं  फेंक गठरी परइलैं गोबरधन
न फिर फिर देखइलैं धरइलै गोबरधन।
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहै हउवै भइया अमवसा क मेला
केहू शाल सुइटर दुशाला मोलावै
केहू बस अटैची क ताला मोलावै
केहू चायदानी पियाला मोलावै
सोठउरा के केहू मसाला मोलावै
नुमाइस में जाते बदल गइलीं भउजी
अ भइया से आगे निकल गइलीं भउजी
हिंडोला जब आयल मचल गइलीं भउजी
अ देखतै डरामा उछल गइलीं भउजी
अ भइया बेचारू जोड़त
हउवै खरचा
भुलइले न भूलै पकउड़ी के मरचा
बिहाने कचहरी कचहरी क चिनता
बहिनिया क गौना मसहरी क चिन्ता
फटल हउवै कुरता टुटल हउवै जूता
खलित्ता में खाली केरया क बूता
तबौ पीछे-पीछे चलत जात हउवन
गदोरी में सुरती में मलत जात हउवन।।
अमवसा क मेला अमवसा क मेला
इहै हउवै भइया अमवसा क मेला


बुधवार, 16 जनवरी 2013

विवेकानंद ने दरिद्र को नारायण बनाने का ज्ञान दिया-रवि

‘गुफ्तगू’ ने विवेकानंद जयंती पर किया मुशायरे का आयोजन
इलाहाबाद। विवेकानंद हालांकि कम उम्र में ही दुनिया को छोड़ गये लेकिन उन्होंने जो काम जनता के लिए किया वह चिरस्थायी है। उन्होंने अपने गुरु द्वारा दी गई शिक्षा (कल्याणकारी ज्ञान से जीव सेवा) को जीवन में रूपांतरित करके दरिद्र को नारायण बना देने का ज्ञान दिया। यह बात हिन्दुस्तानी एकेडेमी के कोषाध्यक्ष रविनदंन सिंह ने ‘गुफ्तगू’ द्वारा आयोजित कार्यक्रम में कही। 12 january 2013 को महात्मा गांधी अंतरराष्टृीय हिन्दी विश्वविद्यालय में साहित्यिक पत्रिका ‘गुफ्तगू’ द्वारा मुशायरे का आयोजन किया गया, मुशायरे की शुरूआत रविनदंन सिंह के व्यक्तव्य से हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता तलब जौनपुरी ने की, मुख्य अतिथि रविनंदन सिहं थे, जबकि संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया। दूसरे दौर में मुशायरे का आयोजन किया गया।

अजय कुमार -
क्या तुम्हें अस्तित्व अपना मुझ बिना उज्ज्वल है दिखता
पर न भूलो है मनुज की बीज बिन पा पौध उगता
गर तुम्हारी दृष्टि में पुरुषत्वता उन्माद ही है
तो न भूखी शक्ति यह भी मां का आशीर्वाद ही है।
 विमल वर्मा ने -
सद्विचार रंगीन अक्षरों के लिबास में बंधे,
किताबों की जेल में बंद पड़े, घुट रहे हैं।
उन्हें तो चाहिए बस, एक निष्ठ आचारण का जामा।
 चांद जाफरपुरी-
यादों से तेरी दिल मेरा मअमूर हो गया।
दिवाना तेरे नाम से मशहूर हो गया।

 विपिन ‘दिलकश’-
किसी के दिल में जुस्तजू मेरे लिए क्यों नहीं है
इन बहारों में रंगो बू मेरे लिए क्यों नहीं है।
 दिनेश अस्थाना-
बहुत सहा है अब न सहेगी
बेख़ौफ़ आज़ाद रहेगी
देखेगी अब दुनिया सारी
कितनी बलशाली कविता।
 
 मखदूम फूलपुरी-
मुसाफि़र अब कोई घर चाहता है,
ये दरिया है समुन्दर चाहता है।
हटा दो पत्थरों को शीशा लाओ,
कहीं पत्थर को पत्थर चाहता है।
 
 फरमूद इलाहाबादी -
मेरी आस्तीं में पले कुछ जि़यादा,
कई सांप उनमें खले कुछ जि़यादा।
किया रास बेगम ने ढ़ीली ज़रा सी,
तो हम हो गए मनचले कुछ जि़यादा।


इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी -
सच को सच से मिला के छोड़ेंगे।
इस ज़मी को सजा के छोड़ेंगे।
कोई जुम्मन न कोई होरी है,
फिर भी मुंशी बना के छोड़ेंगे।
 
 जयकृष्ण राय तुषार -
फ़क़ीरों की तरह धूनी रमाकर देखिये साहब।
तबीयत से यहां गंगा नहाकर देखिये साहब।
यहां पर जो सुकूं है वो कहां है भव्य महलों में,
ये संगम है यहां
तंबू लगाकर देखिये साहब।
 वीनस केसरी-
अब हो रहे हैं देश में बदलाव व्यापक देखिए।
शीशे के घर में लग रहे लोहे के फाटक देखिए।
 पीयूष मिश्र-
सुन्दरता कहीं मन को अभिलाषा है
तो कहीं क्रौंच पक्षी के दर्द की परिभाषा है।

शैलेंद्र जय -
भाईचारे की दुनिया आधी-अधूरी है, सहिष्णुता लग रही मज़बूरी है
अपनी हरकतों से बाज आता नहीं, पाकिस्तान को अब देना जवाब ज़रूरी है।

सौरभ पांडेय-
यह सत्य निज अंतःकरण का सत्वभासित ज्ञान है
मन का कसा जाना कसौटी पर मनस-उत्थान है।
जो कुछ मिला है आजतक, क्या है सुलभ बस होड़ से,
इस जि़न्दगी की राह अद्भुद, प्रश्न हैं हर मोड़ पर से।

 शाहनवाज़ आलम-
मेरे खुदाया तुझे पता है तू जानता है
तू जानता है तुझे पता है मगर खुदाया
जब तूने वादा लिया है मुझसे, जो काम करते हैं
उसका बदला हमें अज़ाबो-शवाब देगा मगर,
खुदाया मैं जब से जन्मी हूं, ऐसा क्यों है
जो जुल्म करते हैं बढ़ रहे हैं जो जुल्म सहते हैं
मर रहे हैं, मेरे खुदाया अगर पता है तो
फिर देर कैसी 

मंजूर बाकराबादी
रिश्वत चाहे जितना ले लो, बाबू हमको नौकरी दे दो।
चाय के बदले पव्वा पी लो, बाबू हमको नौकरी दे दो।


कु. गीतिका श्रीवास्वत-
आसमां छुना अगर पांव को रखना ज़मीन पर
ये ना हो महलों को पाकर, भूल जाओ माटी का घर।

स्नेहा पांडेय-
अभी भी यक़ीन नहीं
छली गयी तुमसे
प्रेम तो सच था ही तुम्हारा
या मैं संभाल न सकी
या तुम बांटते रहे


रविनंदन सिंह-
वो दिल के पास है इतना कि अक्सर छूट जाता है
बहुत मासूम है हर बात पर ही रूट जाता है।
गहन संवेदना का व्याकरण होता ही ऐसा है,
चोट छेनी को लगती है तो पत्थर टूट जाता है।

 सबा ख़ान-
जि़न्दगी जब भी किसी मोड़ पे दुश्वार हुई।
ये मेरा अज्म है मैं और भी खुद्दार हुई।


तलब जौनपुरी-
मुहब्बत के गुलिस्तां में कहीं नफ़रत नहीं उगती
दयारे इश्क़ में कोई न हिन्दू है न मुस्लिम है।
जो बोये बाहमी नफ़रत उसे मज़हब नहीं कहते,
विवेकानंद का पैग़ाम दुनियाभर में सालिम है।


डा. ज़मीर अहसन-
लाश पर मेरी खड़े हो के क़द्दावर न हुए।
मेरा सर काट के तुम मेरे बराबर न हुए।

कार्यक्रम की ग्रुप फोटोः बायें से खड़े- विमल वर्मा, विपिन श्रीवास्तव, पीयूष मिश्र, चांद जाफरपुरी, रविनंदन सिंह, मखदूम फुलपुरी, शैलेंद्र जय, शाहनवाज़ आलम, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, शुभ्रांशु पांडेय
बायें से बैठे- मंजूर बाकराबादी,सौरभ पांडेय, तलब जौनपुरी, डा. ज़मीर अहसन, सुषमा सिंह,
पांडेय, सबा ख़ान और दिव्या सिंह


 

बुधवार, 9 जनवरी 2013

नए इक़दार और नई उर्दू ग़ज़ल


                                                                                 -प्रो0 अली अहमद फ़ातमी
उर्दू की नई ग़ज़ल के इमकानात को ग़ज़ल की सिन्फ़ी नज़ाकतों और जि़न्दगी की सफ़्फ़ाक सदाक़तों के दरमियान ही तलाश किया जा सकता है. उर्दू ग़ज़ल जहां अपनी लताफ़तों व नज़ाकतों की वजह से मक़बूल-ए-ख़ास-ओ-आम हुई, वहां उसकी महदूदियत और मशयतियत-से मुतल्लिक़ उस पर तंगदामनी और गर्दन ज़दनी के इलज़ामात भी लगाए गए, हालांकि उर्दू ग़ज़ल ने अपनी मन्जि़ल पर ही अपने आप को महज़ हुस्न-ओ-इश्क़ के दायरे से निकाल कर सूफि़याना व हकीमाना ख़यालात से मालामाल किया-मीर, सौदा, दर्द वगै़रह की शायरी इस तरह के ख़यालात से भरी पड़ी है. ग़ालिब ने आगे बढ़ा कर फ़लसफ़-ए-हयात और उसके मुख़तलिफ़ अफ़कार से उसका दामन लबरेज़ किया और ग़ज़ल में जि़न्दगी के वह रंग पेश किये कि ग़ज़ल के रवायती कारईन व शायक़ीन दंग रह गए-इतना सब कुछ कहने के बावजूद ग़ालिब को यह महसूस होता रहा-
बक़द्र-ए-शौक़ नहीं जर्फ़ तंगनाए-ग़ज़ल।
कुछ और चाहिये वुसअत मेरे बयाॅ के लिये।।

और फिर जब मुल्क और समाज पर एक ऐसा वक़्त आया जब गुलामी से बेज़ारी और जंग आज़ादी अपने उरूज पर पहुंची और पूरे समाज में क़ौमियत और सियासत को मर्कज़ीयत हासिल हो गई तो बातिनी एहसासात की बुनियाद पर परवरिश पाने वाली ग़ज़ल ख़ारजी दबाव, सियासी जब्र और समानी नशेबो-ओ-फ़राज़ की ताब न लाकर पसमंज़र में चली गई. इक़बाल-चकबस्त-अकबर-जोश वग़ैरह ने अगरचे ग़ज़ले भी कहीं लेकिन उनकी गरजती-चमकती नज़्मों के आगे ख़ुद उनकी ग़ज़लें ही नहीं बल्कि पूरी उर्दू ग़ज़ल लड़खड़ा गयी और ऐसा लगा कि ग़ज़ल का अहद ख़त्म हो गया और ग़ज़ल वाक़ई अपनी तंगदामनी का शिकार होकर रूपोश हो गयी. लेकिन तरक़्क़ी पसन्द शायरों का दौर आया और इस अहद के बाज़-शोअरा, बिलखुसूस फ़ैज़ और मजरूह ने ख़ारजी और सियासी मौज़ूआत को ग़ज़ल के नर्म-ओ-नाजु़क पैमाने में उतार कर बल्कि जज़्ब-ओ-पेवस्त किया और ग़ज़ल की ताज़ीम-ओ-तकरीम का पूरा ख़याल रखते हुए पहली बार बराह-ए-रास्त सियासत से उसका रिश्ता जोड़ दिया, तो ग़ज़ल की वुस्अत-ए-क़लबी, फ़राखदिली और वसीअदामनी को देख कर सभी दंग रह गए. जब मजरूह ने कहा.
सर पर हवा-ए-जु़ल्म चले सौ जतन के साथ।
अपनी कुलाह ख़म है उसी बांकपन के साथ।।

तो ग़ज़ल में यह सियासी कजकुलाही वाक़ई पूरे बांकपन के साथ समा गयी और आम फ़रसूदा रवायती इल्ज़ामात पर पानी फेर गयी. हरचन्द कि यह एक मुश्किल मरहला था और ग़ज़ल के लिये बड़ा नाजुक दौर, लेकिन फ़ैज़, मजरूह, जज़्बी, मजाज़, सरदार जाफ़री वगैरह की गेरां कद्र, ग़ज़लिया शायरी से यह मुश्किल मरहला बआसानी तय हुआ और ग़ज़ल का एक नया दौर शुरू हुआ, जहां से उर्दू ग़ज़ल के मुख़तलिफ़ रंग देखे जा सकते हैं.
अंग्रेज़ रूख़सत हुए, मुल्क आज़ाद हुआ तो हिन्दुस्तानी अवाम ने पैर फैला दिये. एक बेमक़सद और ग़ैर मुनज़्ज़म जि़न्दगी सामने आयी, मआशरा लड़खड़ाया तो ग़ज़ल भी बहक गयी, अलामती ग़ज़ल, आज़ाद ग़ज़ल और कुल मिलाकर जदीद ग़ज़ल और अब तो इबहाम से भरा यह दौर भी रूख़सत हुआ, लेकिन जो दौर आया वह अपने साबिक़ा दौर से ज़्यादा पेचीदा और सफ़्फ़ाक निकला, यह तो होना ही था. बेमक़सद और बेलगाम हिर्स-ओ-हवस की जि़न्दगी का जो अंजाम होना था वह हुआ. तरक़्क़ी व तबदीली के नाम पर हम इस दुनिया में पहुंच गए, जहां बेबाकाना जराएम, बेहेजाबाना सियासत के गुलाम है-बेरहम फि़रक़ावारियत, मज़हबी तक़द्दुस की बेडि़यों में कैद, दफ़्तरों में बदउनवानी और रिश्वत सतानी इल्म-ओ-इन्साफ़ के इदारों पर बेएअतेमादी, झूठ, धोखा, मक्र-ओ-फ़रेब और पूरे समाज में लाक़ानूनियत और उन सब पर हावी तशद्दुद और तशद्दुर के इस बारूदी माहौल में इन्सानियत रूपोश-इन्सानी कदरें पारा पारा हो गयी. शराफ़त, ऐख़लाक़, वफ़ादारी किस्स-ए-पारीना. उसूल, आदर्श दासतानवी ख़यालात और भी बहुत कुछ जिसकी तफ़सील में जाने की ज़रूरत नहीं कि हम आप सिर्फ़ वाकि़फ़ ही हीं बल्कि बराह-ए-रास्त झेल रहे हैं, भोग रहे हैं. इन सबके दरमियान जिन चीज़ों ने सबसे ज़्यादा अहमियत खोई है वह है इन्सान की इन्सानियत और उसका सबसे बड़ा हथियार क़लम और लफ़्ज़ की अज़मत-ओ-हुरमत. माज़ी में भी उथल पुथल हुई और इन्सानों की सफ़ की सफ़ साफ़ कर दी गयी, क़त्ल-ओ-ग़ारेतगरी के बाज़ार गर्म हुए-लेकिन उस बदली में सूरज चमका-इन्के़लाबी व इहतेजाजी-शायरी हुई, अल्फ़ाज की हुरमत और शायरी की अज़मत ने अपना असर दिखाया. आज़ादी, तक़सीम-ए-हिन्द, फि़रकावारियत के ऐन दरमियान आला अदब तखलीक़ हुआ और उसका जादू भी चला जिस पर आज भी लोग सर धुनते हैं और यह अजीब बात भी है कि अच्छा अदब आम तौर पर मुश्किलात में ही पैदा होता है. ऐसी मुश्किलात कि जिसको हल करने और जिससे टकराने का एक बड़ा मिशन नज़रों के सामने हो-फि़क्र  की सालमीयत और क़लम की ख़ल्लाकि़यत और मक़सद की इन्फ़ेरादीयत ग़मज़दा माहोल में जोश-ओ-जज़्बा भर देती है, जिस से बड़े अदब की तख़लीक़ हुआ करती है-लेकिन जहां ऐसा न हो, जि़न्दगी को कोई मकसद न हो, फिक्र साकित-ओ-जामिद हो, समाज में इन्तेशार हो और पूरा मूल्क एक मकरूह सियासत का नंगा खेल खेल रहा हो, आदर्शो पर ज़रगरी का क़ब्ज़ा, क़लम रक़म की गिरफ़्त में हो, तख़लीक़ अपनी नस्रो-ओ-इशाअत, इज़हार-ओ-इबलाग़ के लिये सरमायादारो का मुंह तक रही हो, लफ़्ज़ों का कारोबार हो रहा हो, धर्म के नाम पर इन्सानों का क़त्ल किया जा रहा हो, ज़बान-ओ-तहज़ीब के हवाले से नफ़रतों की दीवारें खड़ी की जा रही हों तो मिशन, विज़न, ज़ेहन, क़लम वगै़रह का गुमराह हो जाना या मुन्ताशिर हो जाना कोई गै़र फि़तरी या हैरत अंगेज़ नहीं. लेकिन शायरी तो फिर भी हो रही है और अदब फिर भी तख़लीक किया जा रहा है. आदतन या शायद ज़रूरतन भी. कुछ कहा नहीं जा सकता, कुछ जियाले तो हैं जो इस आंधी में चराग़ जलाए हुए हैं-आईये
इन चराग़ो की कपकपाहट और थरथराहट का सरसरी जायज़ा लें-शायद कोई उम्मीद की लौ हमारे हाथ आ जाए-लेकिन पहले मशहूर तरक़्क़ी पसन्द शायर अली सरदार जाफ़री की ताज़ा ग़ज़ल का एक शेर पेश करते हैं
जब से इन्सान की अज़मत पे ज़बाल आया है।
है हर इक बुत को ये दावा कि खुदा हो जैसे।।

और एक बिल्कुल नए शायर ने अपने अन्दाज़ में यू कहां.
घर से चलो तो चारों तरफ़ देखते हुए।
क्या जाने कौन पीठ में खंजर उतार दे।।
                (असलम इलाहाबादी)
ऐसी नाज़ुक पेचीदा और संगीन सूरत-ए-हाल में और ऐसी शिकस्ता और बिखरी हुई सूरतों में सबसे पहले इन्सान को अपने वजूद का एहसास और अपने तहफ़्फ़ुज का जज़्बा बेदार हुआ और यही वजह है कि उर्दू की नई ग़ज़ल में अक्सर-ओ-बेेश्तर अपनी ज़ात की फि़क्र, अपने बजूद और उसके बक़ा-ओ-फ़ना के सिलसिले कहीं फि़तरी, कहीं मनतिकी और कहीं फ़लसाफि़याना अन्दाज़ में बिखरे हुए हैं-कहीं कहीं यह ख़याल अपनी ज़ात के अन्दुरून में डूब जाने पर मजबूर कर देता है और कहीं कहीं अहबाब के धोखे-इन्सानियत के फ़रेब अपनों की बेगानगी, ग़रजकि इन्सानी रिश्तों की शिकस्ताहाली और उसके इर्दगिर्द शायर को पहुंचा देती है. चन्द अशआर देखिये.
वो मेरा होके भी शामिल है क़ातिलों में मेरे।
इस इन्केशाफ़ ने तक़सीम कर दिया है मुझे।
               
इश्रत ज़फ़र
न दोस्तों की तरह है न दुश्मनों की तरह।
ये कौन लोग सफ़-ए-दोस्तों में आने लगे।
               
अकबर हमीदी
ये किन अजीब ज़मानों में जी रहा हूं मैं।
कहां गई मेरी आंखों की रोशनी सारी।
               
असद बदायूंनी
ये तजरबा भी अजब है कि अपने आप से मैं।
कोई सवाल करूं और उदास हो जाऊं।
                रईस मंज़र
मैं आदमी हूं मुझे आदमी ने घाव दिये।
किसी चटान में कैसे शिगाफ़ होता है।।
वो कि़स्स-ए-ख़वाब हूं हासिल नहीं कोई मेरा
ऐसा मक़तूल कि क़ातिल नहीं कोई मेरा।।
            ऐन ताबिश
जीने को जी रहा हूं मगर सोचता हूं मैं।
क्यों जि़न्दगी के नाम से डरने लगा हूं मैं।
               
अहमद महफ़ूज
इन तमाम सूरतो और बदहालियों से समाज की जो ऊपर-ऊपर फ़ेज़ा बन रही है उसने समाजी माहौल, उसूल-ओ-ज़वाबित, नज़्म-ओ-ज़ब्त सब कुछ उलट पलट कर दिया है. ख़ैर पर शर, हक़ पर बातिल का क़ब्ज़ा होता चला जा रहा है-धोखा, फ़रेब आज की जि़न्दगी का अटूट हिस्सा बन चुका है-सच्चाई, सादगी, ईमानदारी, हक़ीक़त पसन्दी सब दम तोड़ रही हैं. इस पर इक़तेसादी बदहाली, एख़लाक़ी पामाली मुस्तक़ाबिल की फि़क्रमन्दी, क़त्ल-ओ-ग़ारतगरी, अलाहेदगी पसन्दी, और दीगर समाजी उथल पुथल मसलन सिनअती रेल पेल, नई तबक़ाती कशमकश या तबक़ो की नई तक़सीम उस पर पूरे समाज का काम सिलाईजेशन. इन सबने मिलकर नए समाज की जो तस्वीर उभारी है वह बड़ी ही अजीब-ओ-ग़रीब है-जिस में बस यह तो साफ़ है कि सेहत मन्द और स्वालेह क़द्रो का ज़वाल हो चुका है. इन्सानियत मर रही है इन्सानी क़द्रों की पामाली इस दौर का मुक़द्दर बन चुकी है, बाक़ी सब धुंधला है इस वाजे़ह और गै़र वाज़ेह समाज की मिली जुली तस्वीरों का अक्स उर्दू की नई ग़ज़ल में साफ़ झलकता दिखाई देगा चन्द अशआर इस कि़स्म के भी देखिये।
हमारे अह्द का हर शख़्स बे तदबीर है शायद।
नज़र में धुंध है पैरों में भी ज़न्जीर है शायद।
            शाहिद कलीम
जो तेरे शहर में मुझसे मिली है बे पर्दा।
वो दोस्ती है मगर कारोबार करती है।
            निज़ाम उद्दीन निज़ाम
अब तो इस शह्र में जीने का मज़ा ही न रहा।
अब तो क़ातिल भी किराए के हैं साजि़श ही नहीं।।
कौन निकले घर से बाहर कौन देखे क्या हुआ।
मेरा हमसाया है ख़ुद मेरी तरह सहमा हुआ।।
            रईस मंज़र
घेरे हुए हैं हमको मसाइल ज़मीन के।
हम से तो आसमां की दुआ ली न जाएगी।।
           
अताउर्रहमान तारिक़
ज़मी के और तक़ाजे़ फ़लक कुछ और कहें।
क़लम भी चुप है कि अब मोड़ ले कहानी क्या।।
                अज़रा परवीन
लहू की आग में जलती है हसरते क्या क्या
हमारे साथ लगी हैं ज़रूरते क्या क्या।।
               
शब्बीर आसिफ़
हर वफ़ा अतवार अबके बे वफ़ा होने को है।
शह्र में थे कैसा हंगामा बपा होने को है।।
           
ऐन ताबिश
शाकी, बदज़न आज़ुरदा है मुझसे मेरे भाई यार।
जाने किस जा भूल आया हूं, रख कर मैं गोयाई यार।।
            शमीम अब्बास
जे़हानतों को कहां वक़्त खूं बहाने का।
हमारे शह्र में किरदार क़त्ल होते हैं।।
           
अज़हर इनायती
रातों के गह्रे सन्नाटे अब शामों से छा जाते हैं।
हू का आलम है बस्ती में बातें करता कोई नहीं।।
           
असद बदायूनी
बे सर-ओ-सामां निकलना घर से अच्छा ही रहा।
राह में ग़ारतगरों का सामना होना ही था।
           
अहमद महफू़ज़
बेबिसाती, बेकसी, बेसाज़-ओ-सामानी भी है।
फिर भी जीते हैं कि हर मुश्किल को आसानी भी है।
           
नसीम सिद्दीक़ी
हाल की बदहाली, बेचैनी, अफ़रा तफ़री और मुस्तक़बिल का शदीद एहसास, तमाम इक़दार-ओ-रवायात की शिकस्तगी और मौजूदा दौर का बेहंगम शोर कुल मिलाकर हाल की बेचैनी का इस्तेआरा बन कर रह गयी, चुनांचे ऐसे में माज़ी की याद और उसकी बाज़याफ़्त अहम जुज़ बन कर उभरी और उर्दू की नई शायरी की रग-ओ-रेशे में सरायत कर गयी. माज़ी की यह याद कहीं ख़यालात का सरचश्मा बनती है तो अक्सर ग़ज़लों की नई तशकील की जि़म्मेदार भी ठहराई जा सकती है. कहीं ये वाक़या-ए-कर्बला की तरफ़ ले जाती है तो कहीं इसराफ़ील-सुलेमान-आदमज़ाद-सुराब और अन्धे कुएं ही तरफ़ ले जाती है. वाक़य-ए-कर्बला से मुताल्लिक़ प्रोफेसर सैय्यद मुहम्मद अक़ील अपनी किताब ग़ज़ल के नए जेहात में लिखते हैं-‘एक जे़हनी इन्तेशार-ओ-बे यकीनी और दरबदरी के एहसास के साथ मालूम नहीं कहां से वाकय-ए-कर्बला की इशारियत और मज़लूमियत भी तेज़ी से दाखि़ल हो रही है. मेरे लिये यह बताना मुश्किल है कि नई ग़ज़ल में यह कैफि़यत कहां से दबे पांव दाखि़ल हूई-बज़ाहिर तो कोई बैरूनी दबाव नहीं मालूम होता न इस कैफि़यत में तफ़ाटवर है न ऐलान न तरक्क़ी पसन्दों की ललकार. हालात में पिसते हुए इन लोगों में जो कर्बला की इशारित-फ़रात-नोक-ए-सेना पर सर और जूए खूं की बातें मिलती है, उनमें एक तरह की खुदकलामी है. बस अपने दिल से बातें करने या सलाह करने की सूरत है-मज़लूमियत उभरती है और न किसी मुख़ालिफ़ के जु़ल्म का एलान न इन्साफ़ न मिलने की शिकायत बस जो कुछ महशरसतां शायर के जे़हन में मौजूद है उसका इज़हार अपने अशआर में कर दिया है.
उर्दू की नई ग़ज़ल में वाकए-ए-कर्बला की इशारियत या बतौर-इस्तेआरा इसका इस्तेमाल इन दिनों कसरत से हो रहा है, ऐसा क्यों है? यह एक लम्बी बहस हो सकती है जिसकी तफ़सील की यहां गुंजाईश नहीं-मुख़तसरन इसे यूं समझते चलें कि वाकय-ए-कर्बला की इशारियत में अगर एक तरफ़ आज की लाचारी और मज़लूमियत से रिश्ता जोड़ने की कोशिश है तो दूसरी तरफ़ इन्सानी व इख़लाक़ी कद्रों के हवाले से शर पर ग़ालिब आने वाली एक मौहूम सी सूरत या फिर सीधी सी यह बात हो सकती है कि वह आज के रंज-ओ-ग़म को ग़म-ए-इमाम हुसैन से वाबस्ता करके क़द्रे राहत व तसल्ली की तलाश, या फिर कुछ नयापन बस इससे ज़्यादा बात बनती नज़र नहीं आती. लेकिन यह ज़रूर है कि नई ग़ज़ल में कहीं कहीं यह एक अच्छा और नया पहलू उभर कर आया है, जिसने कैफि़यत और मानवीयत की एक नई दुनिया तलाश की है.
तमाम वुसअत-ए-सहरा-ए-तिश्नगी मेरी।
तमाम सिलसिल-ए-दजला-ओ-फुरात मेरा।
          
  इशरत ज़फ़र
ये जो बिकने के लिये रक्खे हैं बाज़ारो में।
इन्हीं कासों में किसी दिन मेरा सर भी होगा।
         
   अख़्तर लखनवी
मुझको लाखों की नहीं चाह बहत्तर चाहिये।
जो ख़ुदा की राह में कट जाए वो सर चाहिये।।
           
अतीक इलाहाबादी
उर्दू की नई ग़ज़ल में माज़ी का ताल्लुक़ एक याद की शक्ल में भी ज़ाहिर होता है और बड़े कसक भरे अन्दाज़ में अच्छे और गुज़रे हुए लम्हात की याद-सेहतमन्द क़द्रों की याद-रिश्तों और वफ़ाओं की याद-ग़ज़ल में यह सब कुछ कहीं कहीं बड़े पुरकशिश अन्दाज़ में ज़ाहिर होता है.
रास्तो क्या हुए वह लोग जो आते जाते।
मेरे आदाब पे कहते थे कि जीते रहिये।।
            अज़हर इनायती
चराग़ रौशनी लेते थे जिनकी सूरत से।
वो लोग ख़ाक हुए दर्द की निहायत से।।
            तौसीफ़ तबस्सुम
रहते थे दास्तानों के माहोल में मगर
क्या लोग थे कि झूठ कभी बोलते न थे।
           
अज़हर इनायती
गुज़र गए हैं जो मौसम कभी न आएगें।
तमाम दरिया किसी रोज़ डूब जाएगें।।
            आशुफ़्ता चंगेज़ी
माज़ी की यह कसक शायरी का एक हिस्सा तो है लेकिन बड़ा हिस्सा बन कर नहीं उभरता, अगरचे इन नई ग़ज़लों में हालिया समाज की एक से एक दिलखराश तस्वीरें है. अगर एक तरफ़ ख़ौफ़ और धुंए का हब्स है तो दूसरी तरफ़ रिवायती तौर पर सही हुस्न-ओ-जमाल की शबनमी ठंडक है. हुस्न-ओ-जमाल के रवायती अज़कार, लेकिन मुख़तलिफ़ पैराय-ए-इज़हार के साथ, इसलिये, नए दौर की तमाम अशया के साथ साथ इश्क़ भी नया और उसके अन्दाज़ भी नए कि जमालयात का तसव्वुर बहरहाल इक़्तेसादयात और मआशियात से बराह-ए-रास्त वाबस्ता रहता है और साथ साथ तारीख़ और जुग़राफि़या से भी ऐसी हंगामियत में क़ल्ब और वारदात-ए-क़ल्ब का जि़क्र तरह तरह से किया गया है. लेकिन तमाम जि़क्र बस रूके रूके और डरे डरे से हैं. चन्द अशआर इस रंग के भी देखिये।
धूप इतनी है कि जलते हैं गुलाबों के बदन।
क़हर इतना है कि होटों पे लगे हैं कांटे।।
           
नियाज़ हुसैन
हवा के हाथ भी पैग़ाम वह अगर भेजे।
ख़याल बन के भी उसके नगर न जाऊंगा।।
            अनवर महमूद
हिज्र के सहरा में तेरी याद का कितना गु़बार।
इक मुसाफि़र बे सर-ओ-सामान-ओ-तन्हा मेरा दिल।।
           
शहबाज़ नक़वी
अक्सर तेरी यादें ही अपना सरमाया होती हैं।
अक्सर तेरी यादों से हम कतराया करते हैं।।
          
  शुऐब निज़ाम
अब किसी पांव की आहट भी नहीं आती है।
छुप गए मेरे ग़ज़ालान-ए-सुबुक गाम कहां।।
           
असग़र मेंहदी होश
वस्ल के मौसम हो या हों हिज्र की रातें।
अब हमें लगने लगे हैं सारे मन्ज़र एक से।।
           
महताब हैदर नक़वी
दो अलग लफ़्ज नहीं हिज्र-ओ-विसाल।
एक में एक की गोयाई है।।
           
फ़रहत एहसास
हुस्न-ओ-इश्क़, दर्द-ओ-कर्ब के दरमियान से निकतली हुई यह राह नई शायरी का कौन सा जमालयाती तसव्वुर व तग़ज़्जुल पेश करेगी, अभी से कुछ कहा नहीं जा सकता. प्रोफ़ेसर अक़ील साहब ने यहां तक कह दिया ‘शायद नई नस्ल के पास तग़ज़्जुल’ कुछ है ही नहीं वह सिर्फ़ माशूक के हवालों से अपनी बात और अपनी जि़न्दगी लोगों तक पहुंचाना चाहता है.’
मैंने अपने इस मुख़तसर से मज़मून को सिर्फ़ हिन्दुस्तान की शायरी तक महदूद रक्खा है. पाकिस्तान में होने वाली शायरी, इसके अलावा अमरीका, कनाडा, लन्दन वगै़रह की उर्दू ग़ज़ल का जि़क्र नहीं किया है. यही वजह है कि मैंने दरबदरी, बेघरी, हिजरत, जैसे मौज़ूआत को हाथ नहीं लगाया और न ही ग़ज़ल की ज़बान और डिक्शन के बारे में बहस उठायी है हालांकि जदीद दौर की नई नई इस्तेलाहातें, लफि़्ज़यात, मुहावरात, हिन्दी अंग्रेजीं के अलफ़ाज जिस तरह उर्दू ग़ज़ल में शामिल व दाखि़ल हो चुके हैं उसको देखते हुए नई ग़ज़ल का लिसानी व उसलूबियाती मुतालेआ एक अच्छा रुख़ तलाश किया जा सकता है. बहरहाल मुतजि़क्करा बाला सिम्तों में रवां दवां उर्दू की नई ग़ज़ल जैसाकि अजऱ् किया गया. किसी मख़सूस सिम्त का तअय्युन नहीं करती. ग़ज़ल में वैसे भी प्रोजेक्शन के इमकानात कम होते हैं, बस एक इशारिया ही तैयार किया जा सकता है और न ही उसके अन्देशों और इमकानात पर हतमी बातें की जा सकती हैं.
आखि़र में एक सवाल ज़रूर उठाना चाहता हूं वह यह कि आखिर क्या वजह है कि जदीद दौर में अपने कर्ब-ओ-अलम, दर्द-ओ-सितम, तन्हाई व वीरानी, लाचारी व वेबसी हब्स और घुटन के बावजूद नई ग़ज़ल में बेचैनी व बेकैफ़ी की लहर तो है लेकिन इहतेजाज की गूंज नहीं. इहतेजाज तो दर किनार मज़ाहेमत भी नहीं है और हद यह है कि माशूक़ के जौर-ओ-सितम की शिकायत, शैख़-ओ-नासेंह की शिकायत-आसमान की चश्म-ए-बद और फ़रेब-ए-तक़दीर की शिकायत, नई ग़ज़ल से रिवायती शिकायत का चलन क्या रूठा, मज़ाहेमत का लहजा ही रूठ गया, जबकि ऐसे हालात में नई ग़ज़ल का मज़ाहेमती लहजा उसका एक अहम लहजा होना चाहिये, जैसा कि पाकिस्तान की ग़ज़लिया शायरी का है. लेकिन शायद ऐसा न होने में वहां सरकारी निज़ाम और यहां की जमहूरियत काम करती दिखाई देती है.
गुफ्तगू के दिसंबर 2012 अंक में प्रकाशित 


-229ए,लूकरगंज, इलाहाबाद, मोबाइल नंबर: 9415306239

रविवार, 6 जनवरी 2013

अभिव्यक्ति की कार्यशाला हैं ‘निशीथ’ की कवितायें


                                                   इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
गुफ्तगू पब्लिकेशन ने हाल ही में डा. नन्दा शुक्ला का काव्य संग्रह ‘निशीथ’ का प्रकाशन किया है। डा. शुक्ला नई कवयित्री हैं, इसी संग्रह के जरिये उन्होंने साहित्य की दुनिया में पर्दापण किया है। इन्होंने अपनी पुस्तक इस भले ही अब प्रकाशित करवाई है लेकिन इसमें शामिल रचनायें उनके छात्र जीवन की हैं। पुलिस विभाग ज्वाइन करन के बाद इन्होंने कवितायें फिर लिखना शुरू कर दिया है। नौकरी में आने के बाद लिखी गई उनकी कविताओं का संग्रह भी शीध्र ही सामने आएगा है। जहां तक ‘निशीथ’ का सवाल है तो इसमें शामिल रचनाओं को एक स्कूली छात्रा की कविताओं के रूप में ही देखा जाना चाहिए। जाहिर है छात्र जीवन में कोई भी उतना संवेदनशील नहीं होता, जितना कि नौकरी और दांपत्य जीवन में आने और दुनियादारी से रूबरू होने के बाद होता है। कथ्य और शिल्प के स्तर पर बहुत परिपक्वता भले ही इनकी कविताओं में नहीं हैं, लेकिन इतना तो तय है कि इन्होंने अपनी संवेदना को व्यक्त करने में न तो कोई ढिलाई बरती है और न ही संकोच किया है। अपने आसपास की चीज़ों को जैसे जिस रूप देखा और महसूस किया है, उसे बिना किसी लाग-लपेट के व्यक्त कर दिया है, कहीं-कहीं अपनी कविताओं के जरिए उपदेश देते हुए दिख रही हैं, जो उनके बालमन की अभिव्यक्ति ही की जाएगी। अन्य महिला रचनाकारों की तरह इनकी कविताओं में भी महिलाओं की तकलीफें, एहसास और अपने महिला होने की बात बार-बार दिखाई पड़ रही हैं। कहती हैं-
जीवन में रहा नहीं अब कोई भाव विशेष/न रही जीवन आकांक्षा शेष
बचा नहीं जीवन का कोई अवशेष/तिमिर में सिमिट गया ये जीवन शेष

अगर इन कविताओं के नसीब में भूरी-भूरी प्रसंशा नहीं है तो इन्हें रद्दी की टोकरी में भी नहीं फेंका जा सकता है। क्योंकि नन्दा शुक्ला की रचनात्मकता ही आगे चलकर साहित्य के सरोकारों को उल्लेखित करेंगी और अपने अनुभवों-शिल्पों के ज़रिये साहित्य का अभिन्न अंग बन सकती हैं। इसलिए हमें इनकी शुरूआती दिनों में लिखी गई इन कविताओं को इसी रूप स्वीकार करते हुए इनके लिए आगे का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए, और उम्मीद की जानी चाहिए कि एक अच्छी कवयित्री बनकर नन्दा शुक्ला ज़रूर देश के पटल पर अवश्य उभरेंगी। इनके कहन का एक अन्य अंदाज देखें-
हर दर्द हर इंसा को सहना है/सह कर भी चुप रहना है
कितने तूफानों से घिरे रहे/हर तूफां को अंदर ही बंद रखना है।

मानव जीवन की व्याख्या अपनी दृष्टि इन्होंन इस तरह किया है-
ये वीरान सा प्रागंड़/ये खंडहर होते भाव
ये कुछ और नहीं/मानव मन का नीरव अहसास।

कुल मिलाकर यह ज़रूर कहा जाना चाहिए कि नयी प्रतिभाओं में उर्जा भरने के लिए उनका उत्साहवर्धन ज़रूर किया जाना चाहिए साथ ही उनकी रचनाधर्मिता की बेहतरी के लिए उचिता मार्गदर्श
भी किया जाना बेहद ज़रूरी है।
पुस्तक का नाम- निशीथ
कवयित्री: डा. नन्दा शुक्ला
मूल्य: पेपर बैक 40 रुपये, सजिल्दः 60 रुपए
पेज: 64
प्रकाशक: गुफ्तगू पब्लिकेशन, इलाहाबाद
ISBN- 987-81-925218-1-7

                                                        

शनिवार, 5 जनवरी 2013

‘अलविदा-2012’ पर हुआ मुशायरे का आयोजन

अमर उजाला के संपादक अरुण आदित्य को गुफ्तगू ने किया सम्मानित
इलाहाबाद।साहित्यिक पत्रिका गुफ्तगू के तत्वावधान में 30 दिसंबर को सम्मान समारोह और मुशायरे का आयोजन  इलाहाबाद स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्टीय हिन्दी विश्वविद्यालय के शाखा परिसर में किया गया। अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार अजामिल ने की जबकि मुख्य अतिथि सीनियर डीओएम जी के बंसल थे। संचालन इम्तियाज अहमद गाजी ने किया। इस अवसर पर कवि व संपादक अरुण आदित्य को सम्मानित किया गया। सबसे पहले शिवपूजन सिंह ने 2012 में हुए गुफ्तगू की गतिविधयों के सालभर का चिट्ठा सुनाया और बताया कि हमने इस वर्ष बारह साहित्यिक आयोजन किए हैं, नई प्रतिभाओं को आगे लाने के लिए विशेष कार्य किये गए हैं। दसवें वर्ष में प्रवेश करने के अवसर पर हम अप्रैल महीने में एक बड़ा आयोजन करने जा रहे हैं। अजमेर से आए विशिष्ट अतिथि नईम सिद्दीक़ी ने कहा कि गुफ्तगू उर्दू और हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर रही है, हमें ऐसे प्रयासों की सराहना करनी चाहिए। वरिष्ठ मुनेश्वर मिश्र ने कहा कि गुफ्तगू टीम लगातार साहित्यिक गतिविधियों में तत्लीनता से लगी हुई है, जिसके वजह से इलाहाबाद की साहित्यिक सरगर्मी बनी हुई है। रविनंदन सिंह ने कहा कि अरुण आदित्य ने साहित्य के साथ ही पत्रकारिता में भी खासी अच्छा योगदान किया है, इनके इलाहाबाद आने से साहित्यिक खबरों को अधिक स्थान मिल रहा है। अजामिल ने भी गुफ्तगू की प्रशंसा करते हुए कहा कि इस टीम कार्य ही असली साहित्य की सेवा है, हम ऐसे प्रयासों की प्रशंसा करनी चाहिए।दूसरे सत्र में मुशायरे का आयोजन किया गया !

                                                                                                               

अजामिल का स्वागत करते वीनस केसरी
गौरव कृष्ण बंसल का स्वागत करते नरेश कुमार ‘महरानी’

अरुण आदित्य का स्वागत करते वीनस केसरी
नईम सिद्दीक़ी का स्वागत करते सौरभ पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार मुनेश्वर मिश्र का स्वागत करते शिवपूजन सिंह
कार्यक्रम के दौरान मौजूद साहित्यप्रेमी
अमर उजाला के इलाहाबाद यूनिट के संपादक अरुण आदित्य को सम्मानित किया।
बायें से-इम्तियाज़ अहमद ग़ाजी़, नईम सिद्दीक़ी, नरेश कुमार महरानी, अरुण आदित्य, गौरव कृष्ण
बंसल और अजामिल
 
कार्यक्रम के दौरान विचार व्यक्त करते नईम सिद्दीक़ी

अजामिल-
इस सर्कस में
उस एक बित्ते के आदमी को
सौंपी गयी है जिम्मेदारी
दुनिया को हंसाने की
इस तरह पेश होगी
एक बार फिर
सबके हंसने की चीज़



गौरव  कृष्ण बंसल-
कोई बदलेगा नहीं ख़ुद को बदलना होगा,
आग बरसेगा मगर घर से निकलना होगा।
कल इसी राख पे फूलों की कतारें होंगी,
आज लकड़ी को मगर आग में जलना होगा।


अरुण आदित्य-
हर दिल में उतर जाएगी जज़्बात की तरह,
हो जाए अगर शायरी भी बात की तरह।
इस शहर के पत्थर भी होते हैं तर-बतर,
बरसो तो जरा टूट के बरसात की तरह।


अशोक कुमार स्नेही-
कहना महल दुमहले सूने सूनी जीवन तरी हो गई,
प्रिया तुम्हारे बिना मिलन की सूनी बारादरी हो गई।


यश मालवीय-
कैसी ये बारीकियां, कैसे तंज महीन,
हम बोले मर जाएंगे, वो बोले आमीन।


                                                       इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी-
इश्क़ की राह पर आप चलिए मगर,
शह्र
है हादसों का ज़रा देखकर।
नाज़ करते थे जो अपनी अंगड़ाई पर,
 
आज रोने लगे आईना देखकर।



सागर होशियापुरी-
अलविदा आप कहिये अब इस साल को
सुनिये दस्तक नए साल की ध्यान से
कह रहा है वो शायद कि ग़म भूलकर,
मांग ले हर खुशी अपने भगवान से।



तलब जौनपुरी-
ज़माना नेक राहों पर मुझे चलने नहीं देता,
ज़मीर अपना रहे ईमां से भी हटने नहीं देता।
      विजय लक्ष्मी विभा-
राख के ढेर में जलता हुआ अंगारा है
कोई धोखे में न रहना कि वो बेचारा है।


रविनंदन सिंह-
कांपते हाथों की खंडित धार लेकर क्या करूंगा
जि़न्दगी में रेत सा आधार लेकर क्या करूंगा।
संवेदना की सुक्ष्मतम अभिव्यक्ति काफी है,
मैं कोरे शब्द का आभार लेकर क्या करूंगा।

मंजूर बाकराबादी-
मां के ममता की कोई कीमत चुका सकता नहीं,
मां का रुतबा क्या है कोई बता सकता नहीं।
जिसने करली मां की सिदमत जन्नती वह हो गया,
उम्रभर तकलीफ़ वह दुनिया की पा सकता नहीं।

रमेश नाचीज़-
शिकवे-गिले भुला के मेरे प्यारे दोस्तो,
कुछ करिये बातचीत, नया साल आ गया।
दीवार ज़ात धर्म की ‘नाचीज़’ तोड़कर,
लीजे दिलों को जीत, नया साल आ गया।
 अजीत शर्मा ‘आकाश’-
चूल्हे चैके से जो पाये थोड़ी फुर्सत औरत
तब करें औरत के हक़ की भी हिमायत औरत।

 सौरभ पांडेय-
जो न मरती है, न जीती है, सुनो वो औरत
बेहया काठ सी बस उम्र गुज़र करती है
ज़र्द आंखों की जुबां और कहो क्या सुनता

शर्म वो चीज़ है, ऐसे में असर करती है।



वीनस केसरी-
मेरी मां आजकल खुश है इसी में,
अदब वालों में बेटा बोलता है।


विमल वर्मा-
चिरागे रूह काफ़ी है, रौशने राह की खातिर,
कहां तक साथ रे पायेंगी ये रंगीनियां आखिर।

नरेश कुमार ‘महरानी’-
गज-गज भर की रोशनी, गले अटकती जाये,

मैं दौड़ा में बांस को, सागर नाव चलाये।


अजय कुमार- 

नाज़ था मुझको अपनी प्रबल बुद्धि पर
वार संवाद के भी मैं सह ना सका।


धन्यवाद ज्ञापित करते शिवपूजन सिंह