रविवार, 18 जनवरी 2015

क्या प्रलेस अपने मौलिक सिद्धांतों से भटक गया हैं ?

 ‘गुफ्तगू’ के दिसंबर में चौपाल कालम के अंतर्गत ‘क्या प्रलेस अपने मौलिक सिद्धांतों से भटक गया हैं ?’ विषय पर प्रो. राजेंद्र कुमार, मुनव्वर राना, प्रो. अली अहमद फ़ातमी, बुद्धिनाथ मिश्र और यश मालवीय के विचार प्रकाशित हुए हैं। इन लोगों ने सच्चाई बयान किया है, प्रगतिशीलता के नाम पर लोगों को बेवकूफ़ बनाने पर जबरदस्त प्रहार है। इसे लेकर छद्म प्रगतिशील लोग काफी भड़के हुए हैं। लोगों को गुफ्तगू के प्रति भड़काने की कोशिश की जा रही है, अफवाहें फैलाई जा रही हैं। इस विषय पर हम अगले अंक में भी आप सबका विचार  प्रकाशित करने जा रहे हैं। नीचे दिए विद्वानों के विचार पढ़ने के बाद आप अपनी राय अधिकतम 200 शब्दों में पासपोर्ट साइज फोटो, संपूर्ण पता मोबाइल नंबर सहित guftgu007@gmail.com   पर मेल कर दें।
 प्रो. राजेन्द्र कुमार-यदि किसी को दिशा नहीं मिल पा रही है तो उसमें आरोप-प्रत्यारोप क्या लगाया जाये। जितने साथी हैं जो चिन्तन करते हैं, उनका सोचना तो चलता है लेकिन व्यवहार में क्रियान्वयन नहीं हो पाता है। परेशानी तब होती है जब व्यवहार और विचार साथ नहीं चलते हैं। इसलिए इसे भटकाव कह लीजिए या कमज़ोरी कह लीजिए। यह कमज़ोरी तो सभी की है जो समाज को लेकर परेशान रहते हैं। प्रलेस एक आन्दोलन था और उसने अपना आन्दोलनात्मक रूप गँवा दिया है। प्रगतिशील लेखक संघ अब केवल बौद्धिक स्तर पर ही चल रहा है। इसलिए इसे कोई सही गति या सही परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं। आजकल क्या है कि जो नयी चीज़ें आ गयी हैं, जैसे- भूमण्डलीकरण, बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद आदि। इन सब ने ऐसा सब कुछ छेंक लिया है कि आप कहीं से भी बचकर नहीं निकल सकते। अब ग़ैरज़रूरी चीजों को ज़रूरी बनाया जा रहा है। पुराने जमाने में प्रलेस ने पुरानी रूढ़ियों को तोड़ने की बात की थी और उन्हें तोड़ा भी। लेकिन इस बाज़ारवाद ने जो नयी रूढ़ियाँ बनायी हैं, अब उन नयी रूढ़ियों को तोड़ने की हिम्मत की जाये, तब कुछ बात बने। अब तो बौद्धिकता भी फैशन बन गयी है। उसका भी बाज़ार तैयार हो गया है। बौद्धिकता व विचारों को भी बाज़ार ने हथिया लिया है। इसको समझने की ज़रूरत है। वर्तमान में हमारे समय के जो नये दबाव आ गये हैं, उनको पहचाने बिना प्रगतिशील आन्दोलन की कोई गति सम्भव नहीं है।
 मुनव्वर राना-असल में प्रलेस उसी वक़्त तक था, जब सरदार, कैफ़ी, मजरूह आदि मौजूद थे। उनके बाद जो नयी विचारधारा आयी, एक तरह से सत्ता की बागडोर उनके हाथ में आ गयी। तो सब इधर-उधर तख़्ती तो लगाये रहे प्रगतिशील की और जिसको जहाँ मौका मिला, अपना भेष बदलकर चला गया। और उसी तरह ज़िन्दा भी है और ये दोनों जगह रहना भी चाहते हैं। जो प्रलेस के ख़िलाफ़ हैं वहाँ से भी उन्हें फ़ायदा मिलता रहे और प्रलेस से भी फ़ायदा मिलता रहे। और ऐसा कोई आदमी है भी नहीं, जिसकी सरदारी पर यह लेखक संघ चल सके। तो ज़ाहिर सी बात है कि उद्देश्य से भटकना चाहिए था, और भटक गये। बेसिक बात यह है कि प्रलेस ने उर्दू साहित्य हो या हिन्दी साहित्य हो, दोनों को बहुत कुछ दिया था और उनकी जो इकाई थी- एकता, एक-दूसरे पर भरोसा करना तथा एक-दूसरे की मदद करना, उससे साहित्य को फ़ायदा मिला था। लेकिन यह साहित्य की बदनसीबी होती है कि कोई भी संघ जिससे साहित्य को फ़ायदा होने वाला होता है, वो बहुत दिनों तक चलता नहीं है। यही प्रलेस के साथ भी हुआ। जिन्होंने ज़मीन में बैठकर, टाट-पट्टी में बैठकर इसकी ख़िदमत की थी; उनमें से तो बहुत ऐसे थे, जिन्हें बहुत कुछ हासिल ही नहीं हुआ, कुछ ख़ुशनसीब थे, जिन्हें बहुत कुछ मिला भी। उनके बाद जो ये प्रगतिशील वाले बिल्ले लगाये घूम रहे हैं; इनके पास बिल्ला ही है, प्रगति नहीं। बगै़र बोले और बग़ैर बताये कि मैं प्रगतिशील हूँ, हमें अपना काम करते रहना चाहिए। इसका फ़ैसला तो पचास बरस बाद होना है। इसमें चीखने-चिल्लाने से कुछ नहीं हो सकता है। 
प्रो. अली अहमद फ़ातमी-ऐसा तो नहीं है; कुछ ऊँच-नीच हो जाती है, लेकिन प्रलेस मूल उद्देश्यों सेे भटक गया है, यह कहना जरा भी मुनासिब नहीं है। देखिये कुछ गरम-गरम बातें हो जाती हैं, उन्हें डिस्कस भी किया जाता है। हाँ, यह ज़रूर है कि कभी-कभी कुछ मुद्दे ऐसे आ जाते हैं, जिन पर विरोध हो जाता है। यह तो साहित्यकारों व विचारकों में हो जाता है और किसी भी संगठन के विकास के लिये यह ज़रूरी भी है। हर आदमी को अपनी बात कहने का हक़ होता है। तो यह कहना कि प्रगतिशील लेखक संघ अपने उद्देश्यों से भटक गया है, मैं इससे सहमत नहीं हूँ।
डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र-सही बात है। दरअसल प्रलेस की स्थापना के बाद यह ध्यान नहीं दिया गया कि हमारे लिए साहित्य महत्वपूर्ण है, राजनीति नहीं। इस पर राजनीतिक परिस्थितियाँ हावी रहीं। वर्तमान में नब्बे प्रतिशत राजनीति है, दस प्रतिशत साहित्य है। हम लोग उसमें कभी शामिल नहीं रहे। जो रचनाकार है, वो भीड़ में शामिल नहीं हो सकता। वो ज़्यादातर व्यक्तिगत होता है। इसका मतलब है कि जो कमतर प्रतिभा के लोग थे, वही प्रलेस से जुड़े।.....यह राजनीति वर्तमान की राजनीति नहीं है, इस राजनीति का हमारी ज़मीन से कोई लेना-देना नहीं है।

 यश मालवीय-वो बहुत दिनों से भटका हुआ है। वो अब ऐसे लेखकों की संस्था हो गयी है, जो अपनी स्थापना के लिए व अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वहाँ अब स्वस्थ प्रतिस्पर्धा जैसी कोई चीज़ नहीं रह गयी है। प्रलेस का स्वर्णिम इतिहास रहा है, उसमें अमरकांत व अजित पुष्कल जैसे लोग रहे हैं। मौजूदा समय में इसमें अलेखक घुस आये हैं, जो लेखक हैं ही नहीं। वे या तो धनकुबेर हैं या ऐसे लोग हैं, जिनकी कोई विशेष पहचान नहीं है। यह केवल प्रलेस की ही बात नहीं, अधिकांश लेखक संगठनों की यही स्थिति है। जो इनके प्रति प्रतिबद्धता न दिखाये यानी जो लेखक संघ में सम्मिलित नहीं है, उसको सामान्य निमन्त्रण भी नहीं दिया जाता। जबकि पुराना इतिहास यह रहा है कि प्रलेस के सम्मेलनों में अन्य लोगों को भी सम्मान से बुलाया जाता रहा है। अब यह है कि आपने सदस्यता ली है तो बुलाये जायेंगे, नहीं तो नहीं। मेरा मानना है कि लेखक प्रकृति से ही वामपन्थी होता है। जहाँ भी असमानता है, विषमता है व ऊँच-नीच है; वो वहाँ चोट करता है, लिखता है। तो ऐसी स्थिति में यह आवश्यक नहीं है कि हम किसी से शिष्यत्व लें या किसी संघ में सम्मिलित हों। यदि व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो लेखक संघों ने साहित्य का नुक़सान ही किया है। जन और वाम की बात करने वाले ये लोग ज़्यादातर जनविरोधी हैं। ऐसे में यह आन्दोलन भटक ही नहीं गया है, बल्कि लम्बे समय से भटका हुआ है। प्रलेस भी हमारे वर्तमान समाज का आईना बनता जा रहा है। अब आवश्यकता इस बात की है कि नये लोग सामने आयंे, जिनके लिए साहित्य ही प्रतिबद्धता हो, साथ ही जिनके लिए मूल्य एवं मर्यादायें भी प्रतिबद्धता हों, तभी बात बनेगी।
(डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ से बातचीत पर आधारित)

बुधवार, 7 जनवरी 2015

                                                    
 प्रो. अमर सिंह                                               
                                                इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
                         
प्रो. अमर सिंह के पिता बाबू अचल सिंह रायबरेली जिले के तालुकेतार थे,  माता रानी चंद्र कुमारी देवी कुशल गृहणी थीं। 30 दिसंबर 1932 को जन्मे प्रो. अमर सिंह ने प्राइमरी की शिक्षा रायबरेली में ही हासिल की,
प्रतापगढ़ से 1949 में हाईस्कूल और वाराणसी के उदय प्रताप कालेज से  इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद इन्होंने स्नातक और स्नातकोत्तर की शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हासिल की। इसके बाद प्रो. देव साहब ने उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ही अध्यापन कार्य के लिए नियुक्ति करा दी। इसी विश्वविद्यालय से 1992 में सेवानिवृत्त हुए। इस दौरान इनके मशहूर शायर फ़िराक़ गोरखपुरी से अभिन्न संबंध हो गए। अध्यापन कार्य के दौरान प्रो. सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय टीचर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष भी रहे। सेवानिवृत्ति के बाद 1992 से 1994 उच्चतर माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड के सदस्य रहे। प्रो. सिंह की कोई संतान नहीं है, अपने छोटे भाई के परिवार के साथ इलाहाबाद में 24, जवाहर लाल नेहरु पर ही रहते हैं। छोटे भाई की तीन पुत्रियां हैं, बड़ी पुत्री दिल्ली में रहतीे है, मझली  सीएमपी डिग्री कालेज में अध्यापक हैं और तीसरी बंगाल में रहती हैं। प्रो. सिंह ने साहित्य, संस्कृति और इतिहास का गहरा अध्ययन किया है। इनके साथ बैठकर किसी भी विषय की गहरी जानकारी हासिल की जा सकती है। लेकिन इनकी कमी यह है कि इन्होंने कभी लेखन नहीं किया, खुद इनका कहना है कि लिखना बहुत मेहनत वाला काम लगता है, इसलिए कभी लिखने का प्रयास ही नहीं किया। 1984 का वाक्या याद करते हुए प्रो. सिंह बताते हैं कि अमिताभ बच्चन इलाहाबाद से लोकसभा का चुनाव लड़ने आए थे। तभी उनके पिता और मशहूर साहित्यकार हरिवंश राय बच्चन भी इलाहाबाद आए। हरिवंश राय ने इलाहाबाद विश्वदविद्यालय प्रो. सिंह को आधुनिक कविता पढ़ाई थी, उन्होंने प्रो. सिंह को मिलने के लिए गंगा नाथ हास्टल में बुलाया और संदेश दिलवाया कि यह मुलाकात बिल्कुल भी राजनैतिक नहीं होगी। उनके बुलावे प्रो. मिलने गए तो बच्चन जी ने गेट पर ही उनका हाथ पकड़ लिया। बड़ी आत्मीयता से इलाहाबाद और देश-समाज की समस्याओं पर चर्चा की। फ़िराक़ गोरखपुरी से उनके बड़े आत्मीय संबंध रहे हैं। फ़िराक़ साहब और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ गहरे दोस्त थे । प्रो. सिंह बताते हैं कि अक्सर निराला जी गोश्त लेकर फ़िराक़ साहब के घर आते थे वही बनता था, तीन लोगमिलकर सेवन करते, लेखन और देश-समाज के हालात पर चर्चा करते। इसके बाद  प्रायः रात दो बजे निराला जी अपने घर दारागंज के लिए निकलते, तब रिक्शा किया जाता और अक्सर ही रिक्शे का किराया 25 पैसा फ़िराक़ साहब अदा करते थे। फ़िराक़ साहब की दो पुत्रियों बारे में प्रो. सिंह बताते हैं कि उनकी दो पुत्रियां बिहार में ब्याही थीं, लेकिन अब उनके बारे में कुछ पता नहीं है। अक्सर यह बात चर्चा में आती है कि फ़िराक़ साहब हिन्दी कविताओं और साहित्य का माखौल उड़ाते थे, लेकिन प्रो. सिंह इसको ग़लत बताते हैं, उनका कहना है कि फ़िराक़ हिन्दी प्रेमी थे, लेकिन वे हिन्दी के नाम पर घालमेल और नकली हिन्दी का विरोध करते थे। फ़िराक़ साहब सौंदर्य प्रेमी थे, सुंदरता कविता की परंपरा रही है, वे बदसूरती पसंद नहीं करते थे। निराला जी उर्दू शायरी के बहुत बड़े प्रेमी थे, उनके आइडियल शायर ग़ालिब थे। प्रो. सिंह का कहना है कि मीर बहुत बड़े शायर हैं, लेकिन उन्होंने परिस्कृत उर्दू का ही प्रयोग अधिक किया, जबकि ग़ालिब ने उस उर्दू भाषा को संवारने का काम किया। हिन्दी की नई कविता के बारे में प्रो. सिंह का कहना है कि वर्तमान नई कविता तो कविता ही नहीं है, अब हिन्दी कविता का मुख्य विषय ही खो गया है। एक तरह से भटक सी गई है हिन्दी कविता। हिन्दी दिल्ली पहुंचकर विलुप्त सी हो गई, वास्तविक हिन्दी साहित्य एक तरह से भटकता हुआ दिख रहा है। उर्दू शायरी के बार में उनका कहना है कि अब यह उर्दू प्रोग्रेसिव प्रधान हो गई है ग़ालिब और मीर के बाद फ़ैज़ का युग आया, इसके बाद उर्दू शायरी में कोई उल्लेखनीय शायर सामने नहीं आया। प्रो. सिंह का कहना है कि हिन्दी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में वर्तमान में बड़े कवियों का टोटा सा है। हिन्दी और उर्दू साहित्य लिखे जा रहे आलोचना की बात पर प्रो. सिंह कहते हैं कि स्वच्छ मानिकता से आलोचना लेखन का काम नहीं किया जा रहा है। अलग-अलग ग्रुप बने हुए है, एक दूसरे ग्रुप के लोगों को नीचा दिखाने का कामा किया जा रहा है। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू दोेनों की आलोचना की है।
 
  ( गुफ्तगू के दिसंबर-2014 में प्रकाशित )
नोट- इस कालम में अब तक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी और कॉमरेड ज़ियाउल हक के बारे में प्रकाशित किया जा चुका है।


बाएं से- प्रो अमर सिंह, रविनंदन सिंह और इम्तियाज़ अहमद गाज़ी