मंगलवार, 28 दिसंबर 2021

कुशल राजनीतिज्ञ और साहित्यकार हैं पं. केशरीनाथ

                               

पं. केशरीनाथ त्रिपाठी 


                                                                      -इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

                                       

पं. केशरीनाथ त्रिपाठी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। वे भारत की राजनीति और देश के संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में विख़्यात अधिवक्ता, वरिष्ठ राजनीतिज्ञ, संवेदनशील कवि, पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल, बिहार, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा प्रदेश के पूर्व अतिरिक्त प्रभारी राज्यपाल, उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री, विधान सभा के तीन बार निर्विरोध निर्वाचित अध्यक्ष और कुल मिलाकर छह बार विधान सभा के सदस्य रहे साथ ही उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं। आपका जन्म 10 नवंबर 1934 को मोहत्सिमगंज नामक मुहल्ले में हुआ था। इनके पिता स्वर्गीय हरिशचंद्र त्रिपाठी हाईकोर्ट में कार्यरत थे। तीन भाई और चार बहनों में आप सबसे छोटे हैं। श्री त्रिपाठी का विवाह 1958 में वाराणसी के प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पं. सत्य नारायण मिश्र की पुत्री सुधा से हुआ, पत्नी का एक फरवरी 2016 को निधन हो गया। आपकी दो पुत्रियां और एक पुत्र नीरज त्रिपाठी हैं। पुत्र नीरज इलाहाबाद हाईकोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। पुत्री निधि ओझा नई दिल्ली में आर्म्ड फोसर्स हेडक्वार्टर्स सर्विस में उच्च अधिकारी हैं। दूसरी पुत्री नमिता त्रिपाठी प्रयागराज में ही रहती हैं।

 पं. केशरीनाथ त्रिपाठी की कक्षा एक तक प्रारंभिक शिक्षा सम्मेलन मार्ग स्थित दो कमरों में संचालित सेन्टल हिन्दू स्कूल में हुई। कक्षा दो से आठ तक की पढ़ाई जीरो रोड स्थित सरयूपारीण स्कूल से हुई। 1949 में अग्रवाल अग्रवाल इंटर कॉलेज से हाईस्कूल और 1951 में इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की। 1953 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक और 1955 में एल.एल.बी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। 31 जुलाई 1956 को इलाहाबाद हाईकोर्ट में पंजीकरण के बाद वकालत शुरू किया। वर्ष 1987-88 और 1988-89 में इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। 1989 में इन्हें वरिष्ठ अधिवक्ता की मान्यता प्रदान की गई।

 आपकी विद्यार्थी जीवन से ही राजनीति में रुचि रही है। छात्र जीवन में आप ‘डेमोक्रेटिक स्टूडेंट यूनियन’ के अध्यक्ष रहे। 1946-47 में आरएसएस के स्वयंसेवक बने, जनसंध की विभिन्न गतिविधियों में सक्रिय रहे। 18 जुलाई 2004 से 2007 तक भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष रहे। आप 24 जुलाई 2014 से 29 जुलाई 2019 तक पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे। इसके अतिरिक्त इन्होंने 27 नवंबर 2014 से 15 अगस्त 2015 तक और 22 जून 2017 से 03 अक्तूबर 2017 तक बिहार, 06 जनवरी 2015 से 19 मई 2015 तक मेघालय, 04 अप्रैल 2015 से 25 मई 2015 तक मिजोरम और 30 सितंबर 2015 से 31 अक्तूबर 2015 तक तथा 15 जून 2018 से 16 जुलाई 2018 तक त्रिपुरा के अतिरिक्त प्रभार के राज्यपाल रहे।

 केशरी नाथ त्रिपाठी उत्तर प्रदेष विधान सभा के सदस्य के रूप में कुल मिलाकर छह बार निर्वाचित हुए। जनता पार्टी में भारतीय जनसंध के विलय के बाद 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर आप प्रथम बार इलाहाबाद के झूंसी विधानसभा क्षेत्र से विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए और राम नरेश यादव मंत्रिमंडल में संस्थागत वित्त एवं बिक्रीकर मंत्री के रूप में 04 जुलाई 1977 से 11 फरवरी 1979 तक प्रदेश की सेवा की। 1977 में झूंसी विधानसभा क्षेत्र और उसके बाद 1989, 1991, 1993, 1996 और 2002 में भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर इलाहाबाद शहर दक्षिणी विधान सभा क्षेत्र से आप लगातार विधान सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। आप 30 जुलाई 1991 को उत्तर प्रदेश की 11वीं विधानसभा के सभाध्यक्ष चुने गए थे और इस पद पर 15 दिसंबर 1993 तक रहे। 23 मार्च 1997 को दूसरी बार और 14 मई 2002 को तीसरी बार प्रदेश की 14वीं विधानसभा के भी अध्यक्ष निर्विरोध रूप से निर्वाचित हुए। 19 मई 2004 को इस पद से त्यागपत्र दे दिया। जुलाई 1991 से दिसंबर 1993 तक आप कामनवेल्थ पार्लियामेंटरी एसोसिएशन की उत्तर प्रदेश शाखा क अध्यक्ष रहे तथा मार्च 1997 से 19 मई 2004 तक इस पद पर रहे। श्री त्रिपाठी के प्रयास से ही इस एसोसिएशन की उत्तर प्रदेश शाखा द्वारा प्रतिवर्ष विदेश में विधायकों के भ्रमण का कार्यक्रम 1998 से शुरू हुआ जो कुछ वर्ष पूर्व तक नियमित रूप से चला।

 केशरी नाथ त्रिपाठी हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में हिन्दी के प्रबल समर्थक और एक संवेदनशील कवि के रूप में विख्यात हैं। इनके हिन्दी में प्रकाशित काव्य संग्रह ‘मनोनुकृति’, ‘आयुपंख’, ‘चिरन्तन’, ‘उन्मुक्त’, ‘मौन और शून्य’ और ‘निर्मल दोहे’ हैं। उर्दू में ‘ख़्यालों का सफ़र’, ‘ज़ख़्मों पर शबाब’ और अंग्रेज़ी में ‘आई एम द लव’ और ‘फ्राम नोव्हेयर’ नामक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इनकी रचनाओं का अनुवाद बांग्ला, कश्मीरी, राजस्थानी, उडिया, संस्कृत, जापानी आदि भाषाओं में हुआ है। साहिल्य सृजन के लिए इन्हें विभिन्न सम्मानों से विभूषित किया जा चुका है। 

(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2021 अंक में प्रकाशित )



मंगलवार, 21 दिसंबर 2021

गहमरी जी ने संसद में पेश किया गरीबी का चित्रण

                                                       

विश्वनाथ सिंह गहमरी

                                

                                                                         शहाब खान गोड़सरावी

     स्वतंत्रता आंदोलन में 1939-42 तक जेल अंग्रेज़ों में रहने वाले विश्नाथ सिंह ने तीसरी लोकसभा (1962-1967) में गाजीपुर संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। 1962 में लोकसभा में गहमरी ने संसद को बताया कि ग़ाज़ीपुर में गरीबी यह हाल है कि वहां के लोग जानवरों के गोबर से निकलने वाले अनाज  से रोटी बनाते हैं और उसी से अपना पेट मिटाते है। इस अभिभाषण के बाद प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरु के आदेश पर बी.पी. पटेल की अध्यक्षता में फौरन पटेल आयोग का गठन किया गया। पटेल आयोग के जिम्मे चार जनपदों गाजीपुर, जौनपुर, आजमगढ़ और देवरिया थे। आयोग की रिपोर्ट के बाद गाजीपुर को व्यावसायिक केंद्र बनाने के लिहाज से गाजीपुर मुख्यालय के पास गंगा नदी पर रेल तथा सड़क पुल का निर्माण, फल संरक्षण, कैनिंग इंडस्ट्रीज, चर्म उद्योग, हैंडलूम उद्योग, प्लास्टिक खिलौना उद्योग की स्थापना तथा कृषि के लिए सिंचाई संसाधन बढ़ाने की संस्तुति की गई। संस्तुति के आधार पर सड़क पुल का निर्माण तो हो गया लेकिन रेल पुल (जो दिलदारनगर-ताड़ीघाट से गाजीपुर को जोड़ता) व अन्य संस्तुतियां थी जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी 1962 में पूर्वांचल के लोगों द्वारा बार-बार भेजे गए पत्र के बावजूद शीर्ष नेतृत्व की अनदेखी की शिकार है। 

  विश्वनाथ सिंह का जन्म 6 सितंबर 1901 को गाजीपुर जिले के गहमर गांव के परमा रॉय पट्टी में महाराज सिंह के घर हुआ था। गहमरी का प्राम्भिक पढ़ाई पैतृक गांव के मिडिल स्कूल से कक्षा आठ तक हुई। मैट्रिक की पढ़ाई गाजीपुर के विसेसरगंज में किया। उसके बाद इंटरमीडिएट की पढ़ाई बिहार के डुमरांव स्थित डुमरांव महाराज के कॉलेज से अपने चचेरे बड़े भाई  केदारनाथ सिंह (तहसीलदार) के यहां पूरी की। 1920 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में वकालत करने के लिए दाखिला लिया। सन 1930 में असहयोग आंदोलन के नेतृत्व तत्पश्चात विश्वनाथ सिंह गहमरी का पहला विवाह बिहार के हाजीपुर स्थित महानार गांव में हुआ। पहली धर्मपत्नी से केवल एक संतान स्व. गणेश सिंह जो उत्तर प्रदेश पुलिस में सब-इंस्पेक्टर थे। पहली धर्मपत्नी के मृत्यु तत्पश्चात सन.1945 में उनका दूसरा विवाह बिहार के मोकामा में बद्दूपुर में गृहणी  अभिराज देवी से हुआ। उनसे तीन लड़के और दो बेटियां थी। उनके तीन बेटों अजय सिंह (साहित्यिक समाजसेवी), विजय कुमार सिंह (अधिकारी मर्चेंट नेवी, मुम्बई), अरुण कुमार सिंह (किसान, गहमर) है। उनकी दो बेटियों मुनेस्वरी व भुनेस्वरी देवी है। बनारस से वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद वो छात्र जीवन में रहते महामना राजनेता काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्रणेता पंडित मदन मोहन मालवीय के सानिध्य में स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े रहे। सन.1967 में लोकसभा चुनाव के दौरान विश्वनाथ गहमरी तीन हजार वोटों से कॉमरेड सरजू पांडेय से हार गये थे। सन.1964 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मौत बाद कांग्रेस पार्टी की कमजोरी गहमरी जी के हार का कारण बना। सांसदीय चुनाव हारने के बाद वो फिर चुनावी मैदान में नहीं उतरे। उनका आखिरी वक्त बीमारी में गुजरा और आखिरकार 4 जुलाई 1976 ई. को काशी में उनका निधन हो गया। 

 गहमरी जी का राजनैतिक सफ़र आचार्या नरेंद्र देव से प्रभावित होकर मुख्य रूप से समाजवादी विचारधारा से शुरू हुआ था। 1942 में स्वतंत्रता संग्राम के दरम्यान कांग्रेस पार्टी के गरम दल के नेताओं से खासकर प्रभावित होकर ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक के संस्थापक सुभाष चंद्र बोश नेताजी के युवा संगठना ऑल इंडिया यूथ लिंग में शामिल हो गए। सन.1943-44 के दरम्यान नेताजी सुभाष चंद्र बोश के साथ विश्वनाथ सिंह गहमरी जी की करीबी इस कदर थी कि उनके बेटे संजय सिंह के मुताबिक सुभाष जी अपने आखिर वक़्त में एक बार रात्री विश्वनाथ जी के घर गाजीपुर में आये और तकरीबन चार घंटे मेरे घर रुके रहे। प्रधानमंत्री पंडित लाल बहादुर शास्त्री जी से गहमरी जी का काफी घनिष्ट मित्रता थी। अक्सर लाल जी उनके घर गाजीपुर को आया करते और जब गहमरी दिल्ली जाते अक्सर उनके आवास में ठहरा करते थे। दिलदारनगर के रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार एवं हिंदी कवि धीरेंद्र नाथ श्रीवास्तव बताते हैं कि गहमरी जी का लगाव दलित और मुस्लिमों से रहा। यही मुख्य वजह थी जो गाजीपुर के पहला जमीनी राजनेता व लोकप्रिय हिन्दू सांसद रहे। गहमरी जी के स्मृति में गाजीपुर स्थित विसेसरगंज से पहाड़पुर का पोखरा वाली रोड़ का नामकरण और पैतृक गांव गहमर में उनके नाम पर पार्क और प्रतिमा है। स्टेडियम और गाजीपुर से बिहार को जोड़ने वाली टीबी रोड़ का नामकरण करने हेतु वर्तमान जमानिया विधायिका सुनीता सिंह ने उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्री को ज्ञापन देकर पहल की है।

(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2021 अंक में प्रकाशित )

 


गुरुवार, 2 दिसंबर 2021

भाषाएं आपसी सौहार्द लाने में अपना रोल अदा करती आयी हैं : जावेद

17 जनवरी 1945 को ग्वालियर में जन्मे जावेद अख़्तर का असली नाम जादू है। उनके पिता जांनिसार अख़्तर की कविता में ‘जादू’ शब्द आने के बाद उनका पड़ा। पिता प्रगतिशील शायर और लेखक थे, जबकि मां सफिया अख़्तर उर्दू की लेखिका और शिक्षिका थीं। जावेद के दादा मुज्तर खै़राबादी भी अपने समय के मशहूर शायर थे, और उनके मामा असरार-उल-हक़ मज़ाज भी मशहूर प्रगतिशील शायर थे। मां के इंतिकाल के बाद ये अपने नाना-नानी के यहां लखनऊ आ गए। प्रारंभिक शिक्षा के बाद यहां से उन्हें उनके खाला के घर अलीगढ़ भेज दिया गया। यहीं से इनके आगे की पढ़ाई हुई। 04 अक्तूबर 1964 को जावेद अख़्तर मुंबई आए थे। उस वक़्त उनके पास खाने तक के पैसे नहीं थे। उन्होंने कई रातें सड़कों पर खुले आसमान के नीचे बिताई। बाद में कमाल अमरोही के स्टूडियो में उन्हेंन ठिकाना मिला। इनके फिल्मी कैरियर की शुरूआत ‘सहरदी लुटेरा’ से हुई थी, इस फिल्म में जावेद ने क्लैपर ब्वॉय के रूप में काम किया। इसी फिल्म के सेट पर उनकी मुलाकात सलीम से हुई। दोनों की दोस्ती हो गई। सलीम-जावेद की जोड़ी ने हिन्दी फिल्मों की दुनिया में तहलका मचा दिया। ‘शोले’, ‘शक्ति’, ‘शान’, ‘सागर’ समेत 24 फिल्मों के लिए इस जोड़ी ने संवाद लिखे, जिनमें से 20 फिल्में बॉक्स-आफिस पर ब्लाक-बस्टर हिट साबित हुईं। 1987 में बनी फिल्म मिस्टर इंडिया के बाद सलीम और जावेद अलग हो गए। इसके बाद भी जावेद अख़्तर ने फिल्मों के लिए गीत और संवाद लिखना जारी रखा है, आज वे एक बेहद कामयाब गीतकार और सवांद लेखक हैं। उन्हें 14 बार फिल्म फेयर एवार्ड मिला, इनमें सात बार उन्हें बेस्ट स्क्रिप्ट के लिए और सात बार लिरिक्स के लिए एवार्ड से नवाजा गया। पांच बार इन्हें नेशनल एवार्ड भी मिल चुके हैं। 1999 में पद्मश्री और 2007 में उन्हें पद्मविभूषण से नवाज़ा जा चुका है। इनकी दो पुस्तकें ‘तरकश’ और ‘लावा’ छप चुकी हैं। जावेद अख़्तर के दो बच्चे हैं, फरहान अख़्तर और ज़ोया अख़्तर, दोनों ही हिन्दी सिनेमा के जाने-माने अभिनेता, निर्देशक-निर्माता हैं। रिंकल शर्मा ने उनसे विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत है उस बातचीत के महत्वपूर्ण भाग। 

सवाल: आपकी शिक्षा की शुरूआत लखनऊ से हुई है, इस ज़माने के एजुकेशन के बारे में बताइए ?
जवाब: मेरा दाखिला लखनऊ के मशहूर स्कूल कॉल्विन तअल्लुकेदार कॉलेज में छठी क्लास में करा दिया गया। पहले वहां सिर्फ़ तअल्लुकेदार के बेटे पढ़ सकते थे, बाद में मेरे जैसे कमजोर परिवार के लोगों को भी दाखिला मिल गया। उस समय वह बहुत महंगा स्कूल था। मेरी फीस 17 रुपये महीना थी। मेरी क्लास में कई बच्चे घड़ी बांधते थे। वो सब बहुत अमीर घरों से थे। तो मैंने भी फैसला लिया था कि बड़ा होकर अमीर बनूंगा।

सवाल: आपने फिल्मों में पटकथा लिखने से शुरूआत की थी। गीत लिखने का सिलसिला कैसे शुरू हुआ ?
जवाब: लता मंगेशकर की सलाह पर यश चोपड़ा ने मुझे सिलसिला फिल्म के लिए गीत लिखने को कहा, इसके लिए मेरी बहुत ही अनुचित शर्तों को भी स्वीकार कर लिया। मैंने उनसे कहा कि अगर सबसे अधिक भुगतान गीतकार को ‘एक्स’ राशि मिलती है, तो मुझे ‘एक्स$वाई’ चाहिए। मैंने उनसे कहा कि मैं गाने की रिकॉर्डिंग खत्म होने तक राशि का इंतज़ार नहीं करूंगा और वह मुझे पहले ही राशि भेज दें। ऐसा करके मैं इस समझौते को तोड़ना चाहता था। हालांकि जब मैं उनके घर जा रहा था, तो मैंने सोचा कि मैंने इस तरह का व्यवहार किया है, ज़रूर अब वो गीत नहीं लिखवाएंगे। लेकिन उन्होंने मेरे द्वारा बताई गई फीस को स्वीकार कर लिया और राशि सौंप दी। मैं करीब 10ः30 बजे उनके घर पहुंचा। शाम तक मैंने एक गीत लिखा था। संगीत संगीतकार शिव-हरि ने धुन बनाई और मैंने लिखा था-‘देखा एक ख़्वाब तो ये सिलसिले हुए।’ यह मेरे जीवन का पहला गाना था। 

सवाल: आपको शायरी एक तरह से विरासत में मिली है। अपने बच्चों में यह हुनर देखते हैं, या उन्हें इसके लिए प्रेरित करते हैं ?
जवाब: मैं अपने विचारों को अपनाने के लिए अपने बच्चों पर दबाव नहीं डाल सकता। हां मुझे आश्चर्य है कि अगर वे उस विरासत को स्वीकार करेंगे। अख़्तरों में प्रत्येक अख़्तर अत्यधिक स्वतंत्र दिमाग़ वाला है। परिवार में जो कुछ भी चलता है वह व्यक्तिवाद नहीं बल्कि मौलिकता है। हम में एकमात्र प्रभाव यह है कि हम प्रभावित नहीं होते हैं। हालांकि मेरे बच्चे मेरी फिल्म देखते हुए बड़े हुए हैं, जब वे अपनी फिल्म बनाते हैं, तो उन्हें मेरी फिल्मों से कोई लेना-देना नहीं होता। इसी तरह, मैं अपने पिता और चाचा की कविता से प्यार और सम्मान करता हूं, लेकिन जब मैं लिखता हूं, तो यह उनके जैसा नहीं होता। हम में से हर एक अलग है। मैं कहूंगा कि हम अपने पूर्वजों की प्रतिध्वनियां नहीं हैं, लेकिन मूल आवाज़ें हैं। हमारे बीच जो आम बात है वह है एक न्यायपूर्ण और निष्पक्ष समाज, चुनाव की स्वतंत्रता, अंधविश्वास की कुल अस्वीकृति और किसी भी प्रकार की संकीर्ण, क्षेत्रीय या भाषाई पूर्वाग्रह, कोई लैंगिक पक्षपात नहीं, और देश के लिए प्यार-जिगिस्टिक तरीके से नहीं, बल्कि लोगों के लिए वास्तविक चिंता और सम्मान, न केवल शक्तिशाली के लिए बल्कि सभी केे लिए। यह हमारी सामूहिक पहचान है। मेरे पिता ने फिल्मों के लिए बहुत मुश्किल से लिखा, इसलिए नहीं कि उन्हें पता था कि खुद को फिल्म उद्योग को कैसे बेचना है ? मेरे पिता पुराने स्कूल के थे। उन्होंने अपनी कविता को निर्माताओं के सामने रखने में विश्वास नहीं किया। शायद अगर वह आज जीवित होते तो हम उन्हें एक व्यवसाय प्रबंधक रखने के लिए राजी कर लेते। हालांकि शुरूआत में मेरे पिता के साथ मेरा रिश्ता बहुत परेशान समय से गुजरा। वह कम्युनिस्ट विचारधारा के थे। उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया था और मेरे पिता मुंबई में भूमिगत हो गए थे, जबकि मेरी मां दो बहुत छोटे बच्चों की देखभाल करने के लिए पीछे रह गई थीं। लेकिन जब मैं 18 साल का था, तब उन्होंने मुझमें शायर को पहचान लिया और मुझे लिखने के लिए प्रोत्साहित किया।

जावेद अख़्तर से बात करतीं रिंकल शर्मा


सवाल: वर्तमान समय में उर्दू भाषा में बदलाव आ रहा है। इस बदलाव को किस तरह आप देखते हैं ?
जवाब: देखिए बिल्कुल बदलावा आया है। समाज में बदलाव आया है और भाषा में भी बदलाव है। और मैं समझता हूं कि आना भी चाहिए। हम भाषा के महत्व को कम आंकते हैं। मुझे लगता कि भाषा धर्म से ज़्यादा मज़बूत है। हमारी परंपरा, संस्कृति और कला सभी भाषा से संबंधित है। जिस क्षण आप इसे खो देते है, आप अपनी जड़ें खो देते हैं। और देखिए मैं समझता हूं कि उर्दू ज़बान तो बनी ही ऐसी है वो नए अल्फ़ाज़ को, नए अंदाज़ को, नए परिवर्तन को बहुत जल्द अपनाती है। अभी मान लीजिए कि आप किसी ऐसे से, जो उस जगह का न हो, जहां उर्दू बोली जाती है तो आप अपनी ज़बान में परिवर्तन लाएंगे ताकि वो आपकी बात समझ सके। तो वक़्त के साथ ज़बानों में परिवर्तन होते हैं और उर्दू भाषा में भी हुए हैं। उर्दू के शिल्प में भी जो परिवर्तन हो रहे हैं वो होने चाहिए। ये अच्छी बात है कि भाषा में नए-नए शब्द आ रहे हैं। भाषा का दरवाज़ा कभी बंद नहीं होना चाहिए, नए शब्द के लिए। अब देखिए कि ऑक्सफोर्ड की डिक्शनरी में आप पढ़ेंगे कि 50 नए शब्द आए हैं तो कभी 100 या 200 नए शब्द आए हैं, तो वो उनको स्वीकार करते हैं। जबकि हमारे यहां उल्टा है। हमारे यहां कहते हैं कि ये शब्द निकाल दो, वो शब्द निकाल दो, ठीक नहीं है। ये सही नहीं है। नए शब्दों से भाषा का विकास होता है और मैं समझता हूं कि उर्दू भाषा या नज़्म में शब्द आ रहे हैं जो कि बहुत खूबसूरत है। और मैं बस इतना कहूंगा कि उर्दू कविता न केवल उन लोगों के बीच लोकप्रिय है जो उर्दू पढ़ते हैं और लिखते है, बल्कि वे भी सौंदर्यशास्त्र रखते हैं और जिनकी रुचि है सीखना। यह लोगों की भाषा है। यह तब तक है जब तक लोग भाषा को नहीं समझते, यह उनके लिए हिन्दी है, जब वे इसे पसंद करेंगे तो यह उर्दू होगी।
सवाल: भारतीय भाषाएं रोजगार की भाषा नहीं बन पाई हैं, ऐसा क्यों ?
जवाब: आप बिल्कुल सही कह रही हैं। ये वाकई एक बड़ी समस्या है। अब ज़बाने सिर्फ़ साहित्य पर जिन्दा नहीं रह सकती हैं। आर्थिक तौर पर भी उनको विकसित करना होगा। अब इस बारे में क्या किया जा सकता है, ये तो मैं नहीं जानता। लेकिन हां, एक बात है कि इसको कम्प्यूटर की भाषा बनाया जाए। और हम सभी ये चाहते हैं कि हमारे बच्चे अंग्रेज़ी सीखें लेकिन हमें आने वाले बच्चों को साथ ही साथ अपनी भाषा भी सिखानी चाहिए। अगर हमारे बच्चे को अंग्रेज़ी आती है तो अपनी मातृभाषा भी आनी चाहिए। हम अपने स्कूलों, कॉलेजों और समाजों में और यहां तक कि घर पर भी भाषाओं को उचित महत्व नहीं देते हैं। बच्चे साहित्य या कविता के संपर्क में नहीं हैं। जाहिर है, यह पिछले 30-40 वर्षों से हो रहा है और आप गवाह हैं। परिणाम, अपने आप है, तो जाहिर है कि शब्दावली सभी संचार में टीवी, गीत, भाषण और संवादों में भी सिकुड़ जाएगी।

जावेद अख़्तर के साथ रिंकल शर्मा


सवाल: भाषा की गिरावट के लिए आप फिल्मों को जिम्मेदार मानते हैं?
जवाब: सिनेमा में ऐसा नहीं है कि उर्दू को निकालकर, हिन्दी को डाल दिया हो। लेकिन अब भाषा ही कमजोर हो गई है। और आज सिनेमा की मजबूरी है कि वह वही दिखा रहा है जो लोग देखना चाहते हैं। अब फिल्में कमाई का जरिया बन गई हैं। एक व्यावसायिक सिनेमा के लिए ‘चाहिए’ जैसा कुछ नहीं है। वे अधिक से अधिक से लोगों तक पहुंचना चाहते हैं, अधिक से अधिक दिल जीतना चाहते और सिर्फ़ नेत्र गेंदों को पकड़ते हैं, जो भी उन्हें यह मिलेगा, वे ऐसा करेंगे। लेकिन हां, यह एक सच्चाई कि भाषा हमारे समाज में सिकुड़ती जा रही है और मांग बड़ी होती जा रही है। आप इस समस्या को समाज के एक हिस्से से ठीक नहीं कर सकते हैं।
सवाल: भारतीय भाषाओं में आपस में भी बहुत विवाद है?
जवाब: बिल्कुल है। आप हमारे हिन्दी के कवियों को देखिए या उर्दू के बड़े-बड़े शायरों को देखिए। वो बड़े ही प्यार से दोनों ही भाषाओं को ंमंच पर इस्तेमाल करते हैं। लेकिन ये जो सियासी दीवारे हैं ये बहुत मोटी हैं। ये वोट के लिए परस्पर सौहार्द पनपने दे ही नहीं रही हैं। जबकि भाषाएं आपसी सौहार्द लाने में अपना रोल अदा करती आयी हैं और कर रही हैं।

जावेद अख़्तर के साथ इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी 


 सवाल: समाज में महिलाओं के खिलाफ बहुत अपराध हो रहे हैं, इसे आप किस रूप में देखते हैं ?

जवाब: ये हालात सचमुच दुखदायी हैं। महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध वाकई सोचने पर मजबूर करते हैं। मैं समझता हूं कि सबसे पहले तो जो आरोपी हैं, अगर वो कहीं कार्यरत हैं तो आरोप लगते ही उसको तुरंत सस्पेंड करना चाहिए। ऐसा नहीं कि एक महीने गया और फिर वापस आ गया। दूसरा, मामले की तुरंत जांच और फैसले के लिए फास्ट ट़ैक कोर्ट होनी चाहिए। मतलब ज़्यादा से ज़्यादा एक महीना या डेढ़ महीना या दो महीना। जल्द से जल्द सजा देनी चाहिए। और सबसे अहम बात कि लड़कों को घर और स्कूल में सीखना चाहिए कि औरतों की इज़्ज़त करो। अब जो लड़का घर में अपनी मां की बेइज़्ज़ती करे वो बाहर भला दूसरी औरतों की क्या इज़्ज़त करेगा। तो सबसे पहले घर से ही उसको औरतों की इज़्ज़त करने का पाठ पढ़ाना चाहिए।

सवाल: नए लोगों को क्या सलाह देंगे ?

जवाब: नए लोगों को भला मैं क्या संदेश दूंगा। आज जो नए लोग हैं वो बहुत ही अच्छा काम कर रहे हैं। नई पीढ़ी बहुत ही हुनरमंद है। नए उत्साह, अंदाज़ और हुनर के साथ काम काम कर रही है। मैं सिर्फ तो बस इतना कह सकता हूं कि यदि आप लिखना चाहते हो तो पहले खूब पढ़ना सीखो। लिखने से पहले पढ़ना बहुत ज़रूरी है, बहुत पढ़ो, पढ़ते रहो। लिखना शुरू करने से पहले तुम्हें अच्छी तरह से पढ़ना आना चाहिए। अगर आप शायर बनना चाहते हैं तो जितना हो सक दिल से शायरी सीखिए।

( गुफ़्तगू के जून-अप्रैल 2021 अंक में प्रकाशित )