गुरुवार, 2 दिसंबर 2021

भाषाएं आपसी सौहार्द लाने में अपना रोल अदा करती आयी हैं : जावेद

17 जनवरी 1945 को ग्वालियर में जन्मे जावेद अख़्तर का असली नाम जादू है। उनके पिता जांनिसार अख़्तर की कविता में ‘जादू’ शब्द आने के बाद उनका पड़ा। पिता प्रगतिशील शायर और लेखक थे, जबकि मां सफिया अख़्तर उर्दू की लेखिका और शिक्षिका थीं। जावेद के दादा मुज्तर खै़राबादी भी अपने समय के मशहूर शायर थे, और उनके मामा असरार-उल-हक़ मज़ाज भी मशहूर प्रगतिशील शायर थे। मां के इंतिकाल के बाद ये अपने नाना-नानी के यहां लखनऊ आ गए। प्रारंभिक शिक्षा के बाद यहां से उन्हें उनके खाला के घर अलीगढ़ भेज दिया गया। यहीं से इनके आगे की पढ़ाई हुई। 04 अक्तूबर 1964 को जावेद अख़्तर मुंबई आए थे। उस वक़्त उनके पास खाने तक के पैसे नहीं थे। उन्होंने कई रातें सड़कों पर खुले आसमान के नीचे बिताई। बाद में कमाल अमरोही के स्टूडियो में उन्हेंन ठिकाना मिला। इनके फिल्मी कैरियर की शुरूआत ‘सहरदी लुटेरा’ से हुई थी, इस फिल्म में जावेद ने क्लैपर ब्वॉय के रूप में काम किया। इसी फिल्म के सेट पर उनकी मुलाकात सलीम से हुई। दोनों की दोस्ती हो गई। सलीम-जावेद की जोड़ी ने हिन्दी फिल्मों की दुनिया में तहलका मचा दिया। ‘शोले’, ‘शक्ति’, ‘शान’, ‘सागर’ समेत 24 फिल्मों के लिए इस जोड़ी ने संवाद लिखे, जिनमें से 20 फिल्में बॉक्स-आफिस पर ब्लाक-बस्टर हिट साबित हुईं। 1987 में बनी फिल्म मिस्टर इंडिया के बाद सलीम और जावेद अलग हो गए। इसके बाद भी जावेद अख़्तर ने फिल्मों के लिए गीत और संवाद लिखना जारी रखा है, आज वे एक बेहद कामयाब गीतकार और सवांद लेखक हैं। उन्हें 14 बार फिल्म फेयर एवार्ड मिला, इनमें सात बार उन्हें बेस्ट स्क्रिप्ट के लिए और सात बार लिरिक्स के लिए एवार्ड से नवाजा गया। पांच बार इन्हें नेशनल एवार्ड भी मिल चुके हैं। 1999 में पद्मश्री और 2007 में उन्हें पद्मविभूषण से नवाज़ा जा चुका है। इनकी दो पुस्तकें ‘तरकश’ और ‘लावा’ छप चुकी हैं। जावेद अख़्तर के दो बच्चे हैं, फरहान अख़्तर और ज़ोया अख़्तर, दोनों ही हिन्दी सिनेमा के जाने-माने अभिनेता, निर्देशक-निर्माता हैं। रिंकल शर्मा ने उनसे विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत है उस बातचीत के महत्वपूर्ण भाग। 

सवाल: आपकी शिक्षा की शुरूआत लखनऊ से हुई है, इस ज़माने के एजुकेशन के बारे में बताइए ?
जवाब: मेरा दाखिला लखनऊ के मशहूर स्कूल कॉल्विन तअल्लुकेदार कॉलेज में छठी क्लास में करा दिया गया। पहले वहां सिर्फ़ तअल्लुकेदार के बेटे पढ़ सकते थे, बाद में मेरे जैसे कमजोर परिवार के लोगों को भी दाखिला मिल गया। उस समय वह बहुत महंगा स्कूल था। मेरी फीस 17 रुपये महीना थी। मेरी क्लास में कई बच्चे घड़ी बांधते थे। वो सब बहुत अमीर घरों से थे। तो मैंने भी फैसला लिया था कि बड़ा होकर अमीर बनूंगा।

सवाल: आपने फिल्मों में पटकथा लिखने से शुरूआत की थी। गीत लिखने का सिलसिला कैसे शुरू हुआ ?
जवाब: लता मंगेशकर की सलाह पर यश चोपड़ा ने मुझे सिलसिला फिल्म के लिए गीत लिखने को कहा, इसके लिए मेरी बहुत ही अनुचित शर्तों को भी स्वीकार कर लिया। मैंने उनसे कहा कि अगर सबसे अधिक भुगतान गीतकार को ‘एक्स’ राशि मिलती है, तो मुझे ‘एक्स$वाई’ चाहिए। मैंने उनसे कहा कि मैं गाने की रिकॉर्डिंग खत्म होने तक राशि का इंतज़ार नहीं करूंगा और वह मुझे पहले ही राशि भेज दें। ऐसा करके मैं इस समझौते को तोड़ना चाहता था। हालांकि जब मैं उनके घर जा रहा था, तो मैंने सोचा कि मैंने इस तरह का व्यवहार किया है, ज़रूर अब वो गीत नहीं लिखवाएंगे। लेकिन उन्होंने मेरे द्वारा बताई गई फीस को स्वीकार कर लिया और राशि सौंप दी। मैं करीब 10ः30 बजे उनके घर पहुंचा। शाम तक मैंने एक गीत लिखा था। संगीत संगीतकार शिव-हरि ने धुन बनाई और मैंने लिखा था-‘देखा एक ख़्वाब तो ये सिलसिले हुए।’ यह मेरे जीवन का पहला गाना था। 

सवाल: आपको शायरी एक तरह से विरासत में मिली है। अपने बच्चों में यह हुनर देखते हैं, या उन्हें इसके लिए प्रेरित करते हैं ?
जवाब: मैं अपने विचारों को अपनाने के लिए अपने बच्चों पर दबाव नहीं डाल सकता। हां मुझे आश्चर्य है कि अगर वे उस विरासत को स्वीकार करेंगे। अख़्तरों में प्रत्येक अख़्तर अत्यधिक स्वतंत्र दिमाग़ वाला है। परिवार में जो कुछ भी चलता है वह व्यक्तिवाद नहीं बल्कि मौलिकता है। हम में एकमात्र प्रभाव यह है कि हम प्रभावित नहीं होते हैं। हालांकि मेरे बच्चे मेरी फिल्म देखते हुए बड़े हुए हैं, जब वे अपनी फिल्म बनाते हैं, तो उन्हें मेरी फिल्मों से कोई लेना-देना नहीं होता। इसी तरह, मैं अपने पिता और चाचा की कविता से प्यार और सम्मान करता हूं, लेकिन जब मैं लिखता हूं, तो यह उनके जैसा नहीं होता। हम में से हर एक अलग है। मैं कहूंगा कि हम अपने पूर्वजों की प्रतिध्वनियां नहीं हैं, लेकिन मूल आवाज़ें हैं। हमारे बीच जो आम बात है वह है एक न्यायपूर्ण और निष्पक्ष समाज, चुनाव की स्वतंत्रता, अंधविश्वास की कुल अस्वीकृति और किसी भी प्रकार की संकीर्ण, क्षेत्रीय या भाषाई पूर्वाग्रह, कोई लैंगिक पक्षपात नहीं, और देश के लिए प्यार-जिगिस्टिक तरीके से नहीं, बल्कि लोगों के लिए वास्तविक चिंता और सम्मान, न केवल शक्तिशाली के लिए बल्कि सभी केे लिए। यह हमारी सामूहिक पहचान है। मेरे पिता ने फिल्मों के लिए बहुत मुश्किल से लिखा, इसलिए नहीं कि उन्हें पता था कि खुद को फिल्म उद्योग को कैसे बेचना है ? मेरे पिता पुराने स्कूल के थे। उन्होंने अपनी कविता को निर्माताओं के सामने रखने में विश्वास नहीं किया। शायद अगर वह आज जीवित होते तो हम उन्हें एक व्यवसाय प्रबंधक रखने के लिए राजी कर लेते। हालांकि शुरूआत में मेरे पिता के साथ मेरा रिश्ता बहुत परेशान समय से गुजरा। वह कम्युनिस्ट विचारधारा के थे। उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया था और मेरे पिता मुंबई में भूमिगत हो गए थे, जबकि मेरी मां दो बहुत छोटे बच्चों की देखभाल करने के लिए पीछे रह गई थीं। लेकिन जब मैं 18 साल का था, तब उन्होंने मुझमें शायर को पहचान लिया और मुझे लिखने के लिए प्रोत्साहित किया।

जावेद अख़्तर से बात करतीं रिंकल शर्मा


सवाल: वर्तमान समय में उर्दू भाषा में बदलाव आ रहा है। इस बदलाव को किस तरह आप देखते हैं ?
जवाब: देखिए बिल्कुल बदलावा आया है। समाज में बदलाव आया है और भाषा में भी बदलाव है। और मैं समझता हूं कि आना भी चाहिए। हम भाषा के महत्व को कम आंकते हैं। मुझे लगता कि भाषा धर्म से ज़्यादा मज़बूत है। हमारी परंपरा, संस्कृति और कला सभी भाषा से संबंधित है। जिस क्षण आप इसे खो देते है, आप अपनी जड़ें खो देते हैं। और देखिए मैं समझता हूं कि उर्दू ज़बान तो बनी ही ऐसी है वो नए अल्फ़ाज़ को, नए अंदाज़ को, नए परिवर्तन को बहुत जल्द अपनाती है। अभी मान लीजिए कि आप किसी ऐसे से, जो उस जगह का न हो, जहां उर्दू बोली जाती है तो आप अपनी ज़बान में परिवर्तन लाएंगे ताकि वो आपकी बात समझ सके। तो वक़्त के साथ ज़बानों में परिवर्तन होते हैं और उर्दू भाषा में भी हुए हैं। उर्दू के शिल्प में भी जो परिवर्तन हो रहे हैं वो होने चाहिए। ये अच्छी बात है कि भाषा में नए-नए शब्द आ रहे हैं। भाषा का दरवाज़ा कभी बंद नहीं होना चाहिए, नए शब्द के लिए। अब देखिए कि ऑक्सफोर्ड की डिक्शनरी में आप पढ़ेंगे कि 50 नए शब्द आए हैं तो कभी 100 या 200 नए शब्द आए हैं, तो वो उनको स्वीकार करते हैं। जबकि हमारे यहां उल्टा है। हमारे यहां कहते हैं कि ये शब्द निकाल दो, वो शब्द निकाल दो, ठीक नहीं है। ये सही नहीं है। नए शब्दों से भाषा का विकास होता है और मैं समझता हूं कि उर्दू भाषा या नज़्म में शब्द आ रहे हैं जो कि बहुत खूबसूरत है। और मैं बस इतना कहूंगा कि उर्दू कविता न केवल उन लोगों के बीच लोकप्रिय है जो उर्दू पढ़ते हैं और लिखते है, बल्कि वे भी सौंदर्यशास्त्र रखते हैं और जिनकी रुचि है सीखना। यह लोगों की भाषा है। यह तब तक है जब तक लोग भाषा को नहीं समझते, यह उनके लिए हिन्दी है, जब वे इसे पसंद करेंगे तो यह उर्दू होगी।
सवाल: भारतीय भाषाएं रोजगार की भाषा नहीं बन पाई हैं, ऐसा क्यों ?
जवाब: आप बिल्कुल सही कह रही हैं। ये वाकई एक बड़ी समस्या है। अब ज़बाने सिर्फ़ साहित्य पर जिन्दा नहीं रह सकती हैं। आर्थिक तौर पर भी उनको विकसित करना होगा। अब इस बारे में क्या किया जा सकता है, ये तो मैं नहीं जानता। लेकिन हां, एक बात है कि इसको कम्प्यूटर की भाषा बनाया जाए। और हम सभी ये चाहते हैं कि हमारे बच्चे अंग्रेज़ी सीखें लेकिन हमें आने वाले बच्चों को साथ ही साथ अपनी भाषा भी सिखानी चाहिए। अगर हमारे बच्चे को अंग्रेज़ी आती है तो अपनी मातृभाषा भी आनी चाहिए। हम अपने स्कूलों, कॉलेजों और समाजों में और यहां तक कि घर पर भी भाषाओं को उचित महत्व नहीं देते हैं। बच्चे साहित्य या कविता के संपर्क में नहीं हैं। जाहिर है, यह पिछले 30-40 वर्षों से हो रहा है और आप गवाह हैं। परिणाम, अपने आप है, तो जाहिर है कि शब्दावली सभी संचार में टीवी, गीत, भाषण और संवादों में भी सिकुड़ जाएगी।

जावेद अख़्तर के साथ रिंकल शर्मा


सवाल: भाषा की गिरावट के लिए आप फिल्मों को जिम्मेदार मानते हैं?
जवाब: सिनेमा में ऐसा नहीं है कि उर्दू को निकालकर, हिन्दी को डाल दिया हो। लेकिन अब भाषा ही कमजोर हो गई है। और आज सिनेमा की मजबूरी है कि वह वही दिखा रहा है जो लोग देखना चाहते हैं। अब फिल्में कमाई का जरिया बन गई हैं। एक व्यावसायिक सिनेमा के लिए ‘चाहिए’ जैसा कुछ नहीं है। वे अधिक से अधिक से लोगों तक पहुंचना चाहते हैं, अधिक से अधिक दिल जीतना चाहते और सिर्फ़ नेत्र गेंदों को पकड़ते हैं, जो भी उन्हें यह मिलेगा, वे ऐसा करेंगे। लेकिन हां, यह एक सच्चाई कि भाषा हमारे समाज में सिकुड़ती जा रही है और मांग बड़ी होती जा रही है। आप इस समस्या को समाज के एक हिस्से से ठीक नहीं कर सकते हैं।
सवाल: भारतीय भाषाओं में आपस में भी बहुत विवाद है?
जवाब: बिल्कुल है। आप हमारे हिन्दी के कवियों को देखिए या उर्दू के बड़े-बड़े शायरों को देखिए। वो बड़े ही प्यार से दोनों ही भाषाओं को ंमंच पर इस्तेमाल करते हैं। लेकिन ये जो सियासी दीवारे हैं ये बहुत मोटी हैं। ये वोट के लिए परस्पर सौहार्द पनपने दे ही नहीं रही हैं। जबकि भाषाएं आपसी सौहार्द लाने में अपना रोल अदा करती आयी हैं और कर रही हैं।

जावेद अख़्तर के साथ इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी 


 सवाल: समाज में महिलाओं के खिलाफ बहुत अपराध हो रहे हैं, इसे आप किस रूप में देखते हैं ?

जवाब: ये हालात सचमुच दुखदायी हैं। महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध वाकई सोचने पर मजबूर करते हैं। मैं समझता हूं कि सबसे पहले तो जो आरोपी हैं, अगर वो कहीं कार्यरत हैं तो आरोप लगते ही उसको तुरंत सस्पेंड करना चाहिए। ऐसा नहीं कि एक महीने गया और फिर वापस आ गया। दूसरा, मामले की तुरंत जांच और फैसले के लिए फास्ट ट़ैक कोर्ट होनी चाहिए। मतलब ज़्यादा से ज़्यादा एक महीना या डेढ़ महीना या दो महीना। जल्द से जल्द सजा देनी चाहिए। और सबसे अहम बात कि लड़कों को घर और स्कूल में सीखना चाहिए कि औरतों की इज़्ज़त करो। अब जो लड़का घर में अपनी मां की बेइज़्ज़ती करे वो बाहर भला दूसरी औरतों की क्या इज़्ज़त करेगा। तो सबसे पहले घर से ही उसको औरतों की इज़्ज़त करने का पाठ पढ़ाना चाहिए।

सवाल: नए लोगों को क्या सलाह देंगे ?

जवाब: नए लोगों को भला मैं क्या संदेश दूंगा। आज जो नए लोग हैं वो बहुत ही अच्छा काम कर रहे हैं। नई पीढ़ी बहुत ही हुनरमंद है। नए उत्साह, अंदाज़ और हुनर के साथ काम काम कर रही है। मैं सिर्फ तो बस इतना कह सकता हूं कि यदि आप लिखना चाहते हो तो पहले खूब पढ़ना सीखो। लिखने से पहले पढ़ना बहुत ज़रूरी है, बहुत पढ़ो, पढ़ते रहो। लिखना शुरू करने से पहले तुम्हें अच्छी तरह से पढ़ना आना चाहिए। अगर आप शायर बनना चाहते हैं तो जितना हो सक दिल से शायरी सीखिए।

( गुफ़्तगू के जून-अप्रैल 2021 अंक में प्रकाशित )


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