मंगलवार, 30 जुलाई 2019

समाज के लिए समर्पित हैं डाॅ. कृष्णा मुखर्जी

डाॅ. कृष्णा मुखर्जी


                                                         - इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
 20 सितंबर 1941 को कोलकाता में जन्मी डाॅ. कृष्णा मुखर्जी चिकित्सा और समाज सेवा में किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं, वे प्रयागराज के सोहबतिया बाग मुहल्ले में रहती हैं। उन्होंने अपनी चिकित्सीय सेवा से एक अलग मुकाम बनाया है। आपने आगरा से एमबीबीएस, लंदन से एम.एस., यूएसए से एफएसीएस. और वियना से एमएसएच किया। लंदन में एसोसिएट मेम्बर आॅफ रायल कालेज रही हैं। सन 2000 से वर्तमान समय तक कमला नेहरु मेमोरियल अस्पताल में चिकित्सा अधीक्षक और चीफ कन्सल्टेंट हैं। 1968 से 2000 तक मोती लाल नेहरु मेडिकल काॅलेज, इलाहाबाद में स्त्री रोग एवं प्रसूति विभाग की विभागाध्यक्ष और प्रधानाचार्य रही हैं। आज भी आपको पढ़ाने की विशेष रुचि है, इसीलिए एमबीबीएस, एमएस और डीएनबी के छात्र-छात्राओं को पढ़ाती हैं। बांझ औरतों के इलाज के तहत इन विट्रोर्फार्टलाइजेशन/आईवीएफ और लोप्रोस्कोपिक सर्जरी एवं कैंसर सर्जरी के लिए आप एक दक्ष शल्यक हैं और कई शोध कार्य किया है। इनके काम को देश-विदेश की गोष्ठियों में और अंतरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय जर्नलों में प्रस्तुत किया गया है। 
 आप 1991 से 1993 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय और फ़ैज़ाबाद विश्वविद्यालय में सदस्य एकेडमिक काउंसिल, 1991 से 1994 तक आनरेरी कन्सटेंट फैमिली प्लानिंग एसी आॅफ इंडिया और डिविजनल अस्पताल उत्तर भारत रेलवे इलाहाबाद मंडल रही हैं। इंडियन काॅलेज आॅफ आब्सेट्रेटिक व गाइनकोलाॅजी, नेशनल एसोसिएशन आॅफ वालेंट्री स्टरिलाइजेशन एवं फैमिली वेलफेयर गवर्निंग काउंसिल सदस्य रही हैं। 1996 से 1997 तक एसोसिएशन आॅफ आॅन्कोलोजिकल आॅफ इंडिया की उपाघ्यक्ष रहीं हैं। फेडरेशन आॅफ आब्सट्रेटिक व गाइनोकोजिकल सोसाइटी की अध्यक्ष, अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन की उत्तर प्रदेश महिला समिति की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन के प्रांतीय अलंकरण समिति की अध्यक्ष रही हैं।
 डाॅ. कृष्णा मुखर्जी की अब तक एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें स्वास्थ्य ही जीवन, कैंसर से कैसे बचें, सुरक्षित मातृत्व की तैयारी, कुछ परिचर्चा स्वास्थ्य संबंधी, मातृत्व एक सुखद अहसास, भारतीय संस्कृति एवं एड्स, गर्भकाल एवं प्रसव संबंधित आवश्यक जानकारियां, एड्स सिनरियो इन इंडिया एंव भारतीय संस्कृति, एवरनेस आॅफ कैंसर, रिव्यू आॅफ गाइनोकोलाॅजी, ए हैंडबुक आॅफ गाइनोकोलाॅजी, भारतीय संस्कति-मधुमेह तथा अन्य पद्धतियों से इसका इलाज और आपातकालीन विपत्तियों का समाधान एवं बचाव आदि शामिल हैं। पत्रिकाओं और अख़बारों में स्वास्थ्य संबंधी लेख प्रायः प्रकाशित होते रहते हैं।
 सन् 2000 से ‘आसरा’ केयर प्रोजक्ट से जुड़कर मलिन बस्तियों में समय-समय पर मुफ्त मेडिकल कैम्प में मरीजों को स्वास्थ्य सेवा, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता की जानकारी, परिवार नियोजन, टीकाकरण करवाती हैं। साथ ही ‘आशा तथा बेसिक हेल्थ वर्कर’ द्वारा बस्तियों को साफ़ सुथरा रखना, हरी सब्जियां उगवाना, स्वच्छ पीने के पानी की उपलब्ध करवाना, महिलाओं को विभिन्न प्रकार की ट्रेनिंग जैसे सिलाई, लाख का सामान बनवाना, बेत-बांस का सामान बनवाने का प्रशिक्षण करवाकर रोजगार के लिए सक्षम करवाती है।
 अब तक आपको ‘डाॅ. बीसी राय नेशनल एवार्ड फाॅर ऐनीमेन्ट’, 1995 में परिवार कल्याण मंत्रालय दिल्ली से ‘कुछ परिचर्चा स्वास्थ्य संबंधी’ पुस्तक पर 25000 रुपये का नगद पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से ‘सौहार्द सम्मान’, ‘कैंसर से कैसे बचें’ और ‘सुरक्षित मातृत्व की तैयारी’ नामक पुस्तकों पर स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा नगद पुरस्कार, ‘साहित्य महोपाध्याय’, ‘मदर मेटेसा एवार्ड’, ‘सुमन चतुर्वेदी पुरस्कार’, ‘भारत भूषण सम्मान’ समेत अनके पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। आज भी आप समाज सेवा से तत्परता से जुड़ी हुई हैं।  
 
(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून: 2019 अंक में प्रकाशित )

शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

राष्ट्रवाद के प्रेरणास्रोत डॉ. मुख़्तार अंसारी

डॉ. मुख़्तार अंसारी
                                                          - मुहम्मद शहाबुद्दीन ख़ान
                                  
  डॉ. मुख़्तार अहमद अंसारी महान देशभक्त और चिकित्सक थे, उनके कार्य आज भी हमारे के लिए प्रेरणास्रोत हैं। वे भारत की आज़ादी के आंदोलन के प्रति जागरूक थे। इंग्लैंड में पढ़ाई और चिकित्सा सेवा के बाद दिल्ली आते ही वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के सदस्य बन गए। उनके अच्छे दोस्तों में सुप्रसिद्ध शायर डॉ. अल्लामा इक़बाल भी थे। सन 1933 में गांधी जी ने पूना में एक आमरण अनशन किया, जिसमें 21 दिन उपवास पर रहे, गांधी जी की जब हालात बिगड़ने लगे तो उन्होंने एक तार डॉ. अंसारी को भेजा। मेरी ख्वाइश है, मैं अपनी आखिरी सांस डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी के गोद लूं। डाॅ. अंसारी गांधी जी के पास चले गए, और उनका उपवास तुड़वाकर इलाज किया। गांधी जी डॉ. अंसारी के घनिष्ठ मित्रों हो गए थे, गांधी जी जब उनके दिल्ली स्थित दारुल सलाम घर में ठहरा करते। उन पर मौलाना मुहम्मद अली का भी बहुत प्रभाव था। यही कारण है डॉ. अंसारी 1912-13 में हुए जंग-ए-बालकन में खलिाफत उस्मानिया के समर्थन में रेड क्रिसेंट के बैनर तले मेडिकल टीम की नुमाईंदगी की। जिसमें उनके साथ मौलाना मोहम्मद अली जौहर, चैधरी खलिकुजमा, अब्दुर्रहमान बिजनौरी आदि शामिल थे। चूंकि मिलिट्री मदद करने पर अंग्रेजों ने पाबंदी लगा दी थी, इसलिए डॉ. अंसारी ने 25 डॉक्टरों की टीम बनाई। यह टीम जब लखनऊ की चारबाग स्टेशन से गुजरी तो प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान मौलाना शिबली नोमानी ने अंसारी की शान में एक नज़्म पढ़ी। डाक्टरों की टीम का यह मिशन 7 माह तक चला, इसके मिशन से वापसी के समय 10 जुलाई 1913 की शाम को दिल्ली स्टेशन पर 30 हजार से अधिक लोगों की भीड़ डॉ. अंसारी और उनके साथियों के स्वागत के लिए खड़ी थी। इस काम के लिए डॉ. मुख़्तार अहमद अंसारी को ‘तमगा-ए-उस्मानिया’ से नवाजा गया था। ये अवार्ड फौजी कारनामों के लिए उस्मानी सल्तनत द्वारा दिया जाता था। उसके बाद हिन्दुसतान में रेड क्रॉस सोसाईटी 1920 में वजूद में आई। 
 डॉ. अंसारी ने उस्मानिया सल्तनत के समर्थन में 1912 में ही रेड क्रिसेंट सोसाईटी को अपनी सेवाएं देनी शुरू कर दी थी। उनके इस मिशन को मुस्लिम नेताओं ने संगठित किया था, इसने भारत के नेताओं के लिये रास्ता खोल दिया कि वे अतंरराष्ट्रीय स्तर पर अपना पक्ष रख सकें, जिससे दुनिया के नक्शे में भारत को स्थापित किया जा सके। जिसका पहला असर दिसम्बर 1915 में काबुल में बनी आरजी हुकूमत के तौर पर देखा गया, जिसमें राजा महेंद्र प्रताप राष्ट्रपति बने और मौलवी बरकतुल्लाह भोपाली प्रधानमंत्री और इस आरजी हुकूमत को तुर्की सरकार ने मान्यता दी।
 सन 1918 में दिल्ली में होने वाले मुस्लिम लीग के सालाना अधिवेशन में उन्होंने अध्यक्ष पद संभाला। उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में खिलाफत का पक्ष लिया और पूर्ण स्वतंत्रता की मांग पर बिना शर्त सहयोग का वायदा किया, सरकार ने इसे गैर-क़ानूनी माना। सन 1920 में एक बार फिर से वह ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के नागपुर अधिवेश के अध्यक्ष बने और वहां पर उसी समय मद्रास के विजय राघवा चरियार की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा ऑल इंडिया खिलाफत कमेटी के लोगों से मिले, जिसके अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद थे। तीन संगठनों का संयुक्त अधिवेशन हुआ। सन 1927 ई. में महात्मा गांधी ने अपने एक भाषण में डॉ. अंसारी को हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक बताया। उन्होंने असहयोग आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। उन्होंने बनारस में राष्ट्रवादी विश्वविद्यालय काशी विद्यापीठ और दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया स्थापित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। 10 फरवरी सन 1920 को काशी विद्यापीठ की स्थापना हुई एवं 29 अक्टूबर 1920 को अलीगढ में जामिया मिल्लिया इस्लामिया की स्थापना हुई। डॉ. अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया की फाउंडेशन समिति के सदस्य और संस्थापकों में से एक थे। वे आजीवन उसके संरक्षक रहे। सन 1925 में जामिया को अलीगढ़ से दिल्ली लाया गया, यहां तिब्बिया कॉलेज के पास बीडनपुरा, करोलबाग में बसाया गया। हकीम अजमल खां की मृत्यु के बाद वह जामिया मिल्लिया के आजीवन कुलपति रहे। डॉ. अंसारी जीवनभर कांग्रेस कार्य-समिति के सदस्य रहे। सन 1920, 1922, 1926, 1929, 1931 तथा 1932 में वह इसके महासचिव थे तथा सन 1927 ई. में 42वें कांग्रेस अधिवेशन के सभापति हुए। 1928 ई. में लखनऊ में होने वाले सर्वदलीय सम्मेलन का इन्होंने सभापतित्व किया था और नेहरू रिपोर्ट का समर्थन किया। 
 डॉक्टर अंसारी के प्रयास से ही 1934 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद और जिन्ना में बातचीत हुई, लेकिन वो प्रयास विफल रहा। इससे डॉक्टर अंसारी को धक्का लगा। वो जिन्ना से नाराज थे। उनकी सेहत गिर रही थी। इस कारण भी उन्होंने कांग्रेस के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया। उन्हें फुरसत के कुछ पल मिले तो एक अंग्रेजी किताब ‘रीजंनरेशन ऑफ मैन’ लिखी। दूसरी तरफ जामिया मिल्लिया इस्लामिया पर वे ध्यान देने लगे। उन्हीं का फैसला था कि ओखला में जामिया को बसाया जाए। वर्तमान जामिया की परिकल्पना उन्होंने ही की थी। जमीनें भी उन्होंने ही खरीदीं। इस वजह से साठ हजार का कर्ज हो गया। हकीम अजमल खां, अब्दुल मजीद ख़्वाजा और डॉ. अंसारी ने पूरे भारत का दौरा कर चंदा इकठ्ठा किया और एक मार्च 1935 को ओखला में जामिया की बुनियाद रखी गई। बुनियाद का पत्थर सबसे कम उम्र के विद्यार्थी अब्दुल अजीज से रखवाया गया। इससे पहले जामिया मिल्लिया (1920-25) तक अलीगढ़ में कायम था। डॉ. अंसारी जामिया मिल्लिया इस्लामिया के अमीर-ए-जामिया (कुलाधिपति) रहे और डॉक्टर जाकिर हुसैन को कुलपति बनाया। वर्तमान जामिया मिल्लिया इस्लामिया फाउंडेशन कमेटी के 18 सदस्यों में दो लोग गाजीपुर से है। जिनका नाम डॉ. मुख्तार अहमद अंसारी एवं डॉ. सईद महमूद जो सैदपुर भीतरी गांव के रहने वाले थे। 
 डाॅ. अंसारी का जन्म 25 दिसम्बर 1880 को उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के युसूफपुर में एक अंसारी परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम हाजी अब्दुर्रहमान बलिया स्थित रसड़ा तहसील में सदर अमीन थे। मां शमसुन निसा बेगम गृहणी थीं। सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक (1325-1351) के दौर में डॉ. अंसारी के पूर्वज भारत आएं, कस्बा मोहम्मदाबाद में काजी बनाए गए, तभी से यह घराना काजी घराना कहलाता है। इनके पूर्वज ने अपने भतीजे/दामाद यूसुफ अंसारी के नाम पर यूसुफपुर गांव बसाया था। सन 1896 में उन्होंने विक्टोरिया हाईस्कूल, गाजीपुर से मैट्रिक एवं इलाहाबाद से इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद डॉ. अंसारी ने मद्रास मेडिकल कालेज में शिक्षा ग्रहण की और निजाम स्टेट द्वारा मिले छात्रवृत्ति पर आगे की पढाई के लिए इंग्लैंड चले गए। सन 1905 में अंसारी ने वहां एमडी और एमएस की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद लंदन के लाक अस्पताल में कुलसचिव बने। इस चयन पर कुछ नस्लवादी अंग्रेजों ने बहुत हो-हल्ला मचाया। तब मेडिकल काउंसिल ने स्पष्टीकरण दिया कि उनका चयन योग्यता के आधार पर किया गया है। फिर लंदन के चारिंग क्रॉस अस्पताल में हाउस सर्जन के रूप में नियुक्त हुए। उनकी उल्लेखनीय सेवा के कारण चरिंग क्रॉस हास्पिटल के एक वार्ड का नाम अंसारी रोगी कक्ष रखा गया, जो आज भी कायम है। लंदन में ही वे मोतीलाल नेहरु, हकीम अजमल खान और जवाहरलाल नेहरू से मिले और इन सबसे घनिष्ठ मित्रता हो गई। डॉ. मुख्तार अंसारी 1910 में हिंदुस्तान लौट आएं। हैदराबाद तथा अपने गृहनगर यूसुफपुर में थोड़े समय तक रहने के बाद उन्होंने दिल्ली में फतेहपुरी मस्जिद के पास दवाखाना खोला और मोरीगेट के निकट अपना निवास बनाया। 
 रामपुर के नवाब के निमंत्रण पर एक मरीज को देखने दिल्ली से मसूरी गये हुए थे। लौटते समय लक्सर स्टेशन के समीप 10 मई 1936 की रात डॉ. अंसारी को दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया, जामिया नगर के जामिया मिल्लिया कब्रिस्तान में दफनाया गया। उनके निधन पर महात्मा गांधी ने कहा कि शायद ही किसी मृत्यु ने इतना विचलित और उदास किया हो जितना डॉ. मुख़्तार की मौत ने किया है। डॉक्टर अंसारी के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष में भारत सरकार ने राष्ट्र के प्रति इनकी महत्वपूर्ण सेवाओं को देखते हुए डाक विभाग द्वारा 35 पैसे का एक डाक टिकट, प्रथम दिवस आवरण एवं सूचना पत्र जारी किया गया। डॉ. अंसारी के नाम पर गाजीपुर जिला चिकित्सालय एवं दिल्ली में डॉ. अंसारी रोड है। 
                                             ( गुफ़्तगू के अप्रैल- जून 2019 अंक में प्रकाशित )

गुरुवार, 18 जुलाई 2019

आमजन का चित्रण करता है आज का दोहा


हरेराम समीप से बातचीत करते डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव

 13 अगस्त 1951 में मध्य प्रदेश के ग्राम मेख जिला नरसिंहपुर में जन्मे हरेराम नेमा ’समीप’ जाने माने साहित्यकार हैं। इन्हें  हरियाणा साहित्य अकादमी से राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त विशिष्ट पुरस्कार मिल चुका है। वाणिज्य एवं विधि से स्नातक हरेराम समीप ने दोहा और ग़ज़ल साहित्य पर शोध कार्य भी किया है। उनके प्रकाशित मुख्य दोहा संग्रहों में ‘साथ चलेगा कौन’, ‘जैसे’, ‘चलो एक चिट्ठी लिखें’, ‘आंखें खोलो पार्थ’ हैं तो गजल संग्रह में ‘हवा से भीगते हुए’, ‘आंधियों के दौर में’, ‘कुछ तो बोलो’, ‘किसे नहीं मालूम’, ‘इस समय हम’ आदि सम्मिलित हैं। उनका एक बहुत ही चर्चित कविता संग्रह ’मैं अयोध्या’ एवं कहानी संग्रह ‘समय से पहले’ भी प्रकाशित हैं। समकालीन हिन्दी ग़ज़लकारों पर आलोचना भी तीन खंडों में प्रकाशित है। उन्होंने समकालीन दोहा कोश, समकालीन महिला ग़ज़लकार, कथाभाषा त्रैमासिक पत्रिका आदि का संपादन तथा निष्पक्ष भारती, मसिकागद पत्रिकाओं में अतिथि-संपादन भी किया। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग के लिए उन्होंने नोबल पुरस्कार विजेता लेखकों के अनेक लेखों का अनुवाद कार्य और चर्चित दूरदर्शन धारावाहिक ’नक्षत्रस्वामी’ के लिए पटकथा व गीत लेखन भी किया। पिछले दिनों नई दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में डाॅ. गणेश शंकर श्रीवास्तव ने उनका साक्षात्कार लिया। फोटोग्राफी प्रियंका प्रिया ने की।           


प्रश्न: अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में हमारे पाठकों को बताइए ?
उत्तर: मैं मध्यप्रदेश के एक बेहद पिछड़े गांव मेख में 13 अगस्त 1951 को एक सामान्य किसान परिवार में पैदा हुआ। मेरे पिता आज़ादी की लड़ाई के सिपाही और विद्रोही वक्ता थे। बचपन से ही उन्होंने मेरी रचनात्मक दृष्टि और विवेक को प्रखरता प्रदान की और मुझे जीवन को समझने की वह प्रविधि दी जो बाद में लेखन के माध्यम से मुझमें अभिव्यक्ति पाने लगी। दरअसल, बचपन में मैंने अपने घर, गांव और अपने इर्द-गिर्द इतना दुःख, गरीबी, अभाव और सत्ता की ऐसी-ऐसी क्रूरताएं देखी हैं कि मैं विद्रोही स्वभाव का हो गया हूं। छात्र आंदोलन किए और लेख, कविताएं, गीत, ग़जलें और दोहे लिखे फिर औद्योगिक नगर फरीदाबाद आकर श्रमिक-आंदोलनों में भाग लिया, जिसका शतांश भी अभी तक नहीं लिख पाया हूं।

प्रश्न 2 अपनी रचना यात्रा के बारे में संक्षेप में हमारे पाठकों को बताएं ?
उत्तर: सन् 1971 से कविता लेखन और पत्रकारिता के दौरान ग़ज़लें, दोहे, कविताएं और कहानियां तथा आलोचना की, मेरी 16 किताबें अब तक प्रकाशित हो गई हैं।

प्रश्न 3. वर्तमान में दोहा अपनी भाव भंगिमा और प्रस्तुतीकरण में प्राचीन काल से किस तरह भिन्न है?
उत्तर: हिन्दी काव्य में दोहा छन्द अपनी भाव-भंगिमा और प्रस्तुतीकरण में प्राचीनकाल से आज तक निरंतर अपने समय का साक्षी बनकर विद्यमान रहा है। ये दोहे हमारे साहित्य और लोकजीवन के अक्षुण्ण अंग बनकर, हमारी संस्कृति में रच बस गए हैं। परम्परागत दोहों से आधुनिक दोहा का सौन्दर्यबोध बदला है। अध्यात्म, भक्ति और नीतिपरक दोहों के स्थान पर अब वह उस आमजन का चित्रण करता है, जो उपेक्षित है, शोषित है, बेबस है। इस समूह के दोहे अपने नए अंदाज में तीव्र व आक्रामक तेवर लिए हुए हैं। अतः जो भिन्नता है वह समय सापेक्ष है। इसमें आस्वाद का अंतर प्रमुखता से उभरा है। इन दोहों में आज का युगसत्य और युगबोध पूरी तरह प्रतिबिम्बित हो रहा है।

प्रश्न 4. क्या कारण है कि एक प्राचीन छन्द होते हुए भी दोहा वर्तमान में बहुत अधिक लोकप्रिय है?
उत्तर: पिछले डेढ़ हजार साल से दोहा कभी अलोकप्रिय नहीं हुआ है। आज इसकी बढ़ती लोकप्रियता का मुख्य कारण एक तो सूचनातंत्र का विस्तार है और दूसरा महत्वपूर्ण कारण इसकी सहज ग्राह्यता है। वर्तमान जीवन की उथल-पुथल व जद्दोजहद को दोहा अधिक जीवंतता से प्रस्तुत कर रहा है। यह दोहा, जीवन की गहरी अनुभूति, संवेदना और यथार्थबोध की ताजा फसल के रूप में आ रहा है। इसमें आधुनिक भावबोध की प्रस्तुति बेहद प्रभावी अंदाज़ में हो रही है। इन दोहों में व्यक्त संवेदनाएं हमें यथार्थ से जोड़ती हैं। आज का दोहा जब हमारे आसपास उपस्थित अंधेरे को और अपने समय में उपस्थित गलत समय को शिद्दत से उजागर करेगा तो लोकप्रिय तो होगा ही।

प्रश्न 5. जन सरोकारों की दृष्टि से दोहों की उपयोगिता कितनी महत्वपूर्ण है?
उत्तर: अमानवीय शोषण पर टिकी सत्ता की इन शातिर पैंतरेबाजी से सचेत करते, असहमति जताते इन दोहों को जब आप देखेंगे तो पूरा समकालीन परिदृश्य आपके सामने स्पष्ट होता जाएगा। यही है जनता की ओर दोहों की यात्रा। मुझे लगता है कि आज दोहा व्यवस्था-परिवर्तन के लिए संघर्ष का उद्घोष कर रहा है और वह जनता की बात अगर जनता की भाषा में कर रहा है, तो इससे अधिक इसकी उपयोगिता और क्या होगी।

प्रश्न 6. सामाजिक विद्रूपताओं की अभिव्यक्ति के लिए दोहा व्यंग्य का सहारा लेकर चल रहा है क्या आप इससे सहमत हैं?
उत्तर: मैं बिल्कुल सहमत हूं। इस संवेदनहीन, आत्मरत और निष्ठुर वक्त में व्यंग्य ही लेखन की सबसे प्रभावशाली प्रविधि है। आजकल लगभग सभी विधाओं में व्यंग्य एक स्थायी माध्यम की तरह प्रयोग किया जा रहा है। फिर कबीर की परम्परा से जुड़ा हुआ दोहा ऐसे समय में व्यंग्यतत्व का प्रयोग करने में पीछे क्यों रहता। 

प्रश्न 7. दोहा लिखते समय क्या सावधानी बरतनी चाहिए?
उत्तर:दोहा एक मात्रिक छन्द है। इसका अपना एक अनुशासन है, जिसका पालन अवश्य होना चाहिए।

प्रश्न 8. दोहा-सृजन में देशज शब्दों का प्रयोग कितना उचित है?
उत्तर: भाषाई संकीर्णता के लिए दोहे में कभी कोई जगह नहीं होती। दोहों में प्रयुक्त देशज या अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्द दोहे की अर्थव्यंजना में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि कर देते हैं। लेकिन अक्सर देखा गया है कि देशज शब्दों का फैशन की तरह अतिशय प्रयोग दोहे की सम्पे्रषणीयता को बाधित करने लगता है। अतः इनका प्रयोग कुशलता से किया जाना चाहिए। 

प्रश्न 9. क्या वजह है कि हिन्दी की विधा होते हुए भी पाकिस्तान में भी दोहे खूब लिखे जा रहे हैं?
उत्तर: दरअसल दोहा एक सामथ्र्यवान मुक्तक छन्द है, जो हर कवि को आकर्षित करता है। फिर यह उर्दू ग़ज़ल की इकाई अर्थात ‘शेर’ से भी बहुत मिलता-जुलता है। अतः प्रत्येक शायर ने ग़ज़लों के साथ जब दोहे लिखे तो ये खूब प्रचलित हुए। आज दोहा अनेक भारतीय भाषाओं में ही नहीं पाकिस्तान, नेपाल और मौरीशस आदि अनेक एशियन देशों में लोकप्रिय हो रहा है।

प्रश्न 10: हिन्दी दोहों पर हाल ही में जो काम हुए हैं क्या उनकी कुछ जानकारी दे पाएंगे?
उत्तर: इस समय वरिष्ठ, युवा और तरुण दोहाकारों की तीन पीढ़ियां एक साथ दोहा लेखन में संलग्न हैं, जिसमें लगभग एक हजार दोहाकारों की सूची तो मेरे ही पास है। पिछले दिनों ‘समकालीन दोहाकोश’ का संपादन करते हुए मेरे सामने चयन की समस्या खड़ी हो गई थी, तब यही सोचा गया कि शीघ्र ही इसका दूसरा खण्ड तैयार किया जाए। अनेक पत्रिकाओं के दोहा विशेषांकों तथा समवेत संकलनों और उनमें लिखी संपादकीय भूमिकाओं ने आधुनिक दोहे को परिभाषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उम्मीद है कि ‘गुफ्तग’ू के इस दोहा विशेषांक से भी दोहा लेखन और समृद्ध होगा।

प्रश्न 11. काव्य विधा में गेयता का कितना महत्व है ?
उत्तर: गेयता कविता की पूर्णता मानी जाती है। प्राचीनकाल से अब तक वही कविताएं लोकजीवन का अंग बन पाई हैं जिनमें गेय तत्व विद्यमान रहा। यद्यपि आज की गद्य कविता की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ने काव्यपाठकों को दुविधा में डाल दिया है किन्तु लोकप्रिय काव्य गेय ही है। अतः कविता में गेयता का महत्व कभी कम नहीं होगा। 

प्रश्न 12. क्या ऐसा नहीं लगता कि छंदमुक्त कविता ने हर तीसरे आदमी को कवि तो बना दिया है, लेकिन पाठकों की संख्या लगातार कम हो रही है ?
उत्तर: नहीं भाई मुझे ऐसा नहीं लगता कि कवि बढ़ रहे हैं, लेकिन कविता के पाठक कम हो रहे हैं। इस पर बहस हो सकती है। सच यह है कि कविता के ग्राहक को किताब के अतिरिक्त अनेक साधन उपलब्ध हो रहे हैं-ई बुक्स, सोशल मीडिया, यूट्ब, इंटरनेट आदि के जरिए कहीं न कहीं वह कविता से जुड़ ही रहा है। दोहे का प्रसार भी इससे अछूता नहीं है। 

प्रश्न 13. काव्य की अन्य विधाओं के मुकाबले दोहे की कितनी प्रासंगिकता है ?
उत्तर: किसी भी विधा का भविष्य या उसकी प्रासंगिकता उसकी जीवन के प्रति दृष्टि और समय के साथ उसकी गतिमयता ही निर्धारित करती है। दोहा ने लगभग डेढ़ हजार सालों से बार-बार यह साबित किया है कि उसे अपने समय के साथ चलना आता है। रासो, अध्यात्म, भक्ति,प्रेम, श्रंगार, नीति, राष्ट्रीय चेतना, साम्प्रदायिक सामंजस्य और अब यथार्थ की मुखर अभिव्यक्ति-यात्रा करते हुए उसने  अपने सामथ्र्य की असीम संभावना के प्रति हमें आश्वस्त कर दिया है। आज जो दोहे की लोकप्रियता के नए क्षितिज खुल रहे हैं, ये उसकी अंतर्शक्ति का प्रमाण हैं। अतः दोहे की प्रसंगिकता निर्विवाद है। काव्य की अन्य विधाओं से दोहे का कोई मुकाबला नहीं है इसीलिये मुक्त गगन में आज दोहा छन्द साहित्य के नए क्षितिज तलाशने हेतु नई उड़ान पर निकला है। 

प्रश्न 14ः दोहा और ग़ज़ल, कदाचित ये दोनों साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधाएं हैं। इनके आपसी संबंधों को आप किस प्रकार देखते हैं? क्या उर्दू और हिन्दी भाषा की दृष्टि से इनमें कोई उल्लेखनीय अंतर है?
उत्तर: शेर और दोहा दो मुक्तक छंद हैं और स्वतंत्र रूप से उद्धृत किए जाते हैं। शेर और दोहा दो-दो पंक्तियों में आबद्ध होते हैं, जिनमें दोनों ही पंक्तियों की लय एक समान होती है। गेयता दोनों का ही गुण है। विशेष बात यह भी है कि दोनों की भावसंप्रेषण क्षमता अतुलनीय है। अंतर केवल यह है कि शेर अनेक बहरों में कहा जाकर ग़ज़ल में निबद्ध हो सकता है, जबकि दोहा सदैव मुक्त रहता है। यही तत्व हैं जो शायर को दोहे की तरफ और कवि को शेर की ओर आकर्षित करते हैं। 
  
प्रश्न 15 आप नए रचनाकारों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
उत्तर : वास्तव में नए रचनाकार नए साहित्य के निर्माता होते हैं, अपने समय के प्रतिनिधि होते हैं। उन्हें अपने समय की सार्थकता तलाशनी है, अपने अतीत की समीक्षा करनी है, अपने वर्तमान की व्याख्या करनी है और अपने बेहतर भविष्य को प्रस्तावित करना है। इसके लिए उनमें स्पष्ट जीवन-दृष्टि होनी जरूरी है। उन्हें सोचना चाहिए कि आज वे ढेर सारा लिखने के बाद भी क्यों कोई विजन नहीं बना पा रहे हैं। कहीं शायद वे बाजार के दबाव में सतही उपलब्धियों में अपनी उर्जा तो नष्ट नहीं कर रहे हैं या फिर पुरस्कारों व प्रशस्तियों के जुगाड़ में लगे हैं। उन्हें जानना होगा कि क्यों उनका अधिकांश लेखन अप्रासंगिक और व्यर्थ हो रहा है। उन्हें समझना होगा कि यदि समय की संवेदनात्मक अनुभूति उसके पास नहीं है तो वह कैसे कुछ सार्थक व प्रभावी लिख पाऐंगे?

( गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च: 2019 अंक में प्रकाशित )