गुरुवार, 26 अगस्त 2010

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

अब तो बेटियों के मन को समझिए


बेटियों द्वारा बारात लौटाए जाने का सिलसिला जारी है। सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही औसतन रोज चार बारातें लौट जा रही हैं। पंचायत, पुलिस और वर-वधु पक्ष के लाख प्रयास के बावजूद सुलह नहीं हो पा रही है। इनमें ज्यादातर मामलों में लड़की का जिद ही बाधक बन रहा है। नतीजा यह हो रहा है कि दोनों पक्षों को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है, धन से लेकर समय तक। गौर करने लायक बात यह है कि ऐसी घटनाएं मध्यम वर्गीय परिवारों में ही हो रही हैं और ऐसे ही परिवार भारत सबसे अधिक हैं। इसके बावजूद अपने को सभ्य और सुसंस्कृत करने वाला यह समाज इसकी मुख्य वजह पर गौर करता नहीं दिख रहा है।



दरअसल, हम अपनी संस्कृति का ढोल तो पीटते हैं लेकिन इसकी विसंगतियों पर कभी भी गंभीरता से विचार नहीं करते। नतीजा यह होता है कि जो गलत चीजें प्रचलन में चल पड़ी हैं वो निरंतर जारी हैं। ऐसे में गलत चीजों के खिलाफ एक न एक दिन तो ज्वाला फूटेगा ही। बेटियों की शादी को लेकर यह बात बिल्कुल फिट बैठती है। हम अपने बेटे की शादी करते हैं तो उससे दस बार पूछते हैं। तरह-तरह से इत्मीनान कर लेते हैं कि बेटा खुशी से शादी कर रहा है या नहीं। जिन घरों ऐसा नहीं होता वहां लड़के शादी से साफ इंकार कर देते हैं। यह डर घरवालों को सताता रहता है, इसलिए उससे बार पूछा जाता है। मगर दुर्भाग्य से बेटी की शादी करते समय यह रास्ता अखितयार नहीं किया जाता। बल्कि हमारे यहां यह कहावत गढ दी गई है कि 'बेटी और गाय एक समान' यानी बेटी को जिस भी खूंटे में चाहो बांध दो। जब हम अपने बेटे की शादी उसकी मर्जी से करते हैं तो फिर बेटी की शादी करने से पहले उसकी मर्जी और सहमति क्यों जरूरी नहीं है। तमाम ऐसी घटनाएं भी सामने आई हैं कि कर्ज उतारने या कोई काम करवाने के लिए लोग अपनी बेटी की शादी बूढ़े, नशेड़ी, शारीरिक रूप से अक्षम और अयोग्य व्यक्ति से कर देते हैं। बेटियां न चाहते हुए भी गाय की तरह खूंटे से बंध जाती हैं। घरवाले उसकी मर्जी जानना तक जरूरी नहीं समझते। ऐसे मर्दों के साथ शादी करके बेटियां अपने पैदा होने तक पर अफसोस करती हैं, उनके मन की बात, उनकी पीड़ा सुनने वाला कोई नहीं होता। आखिर हम किस समाज और संस्कृति में रहते हैं और किस सभ्यता पर इतराते फिरते हैं, जिसमें लड़की की शादी करते समय उसकी मर्जी तक का जानना जरूरी नहीं है।



लगातार लौट रही बारातें हमें इस बात की सीख दे रही हैं कि बेटियों को भी अपनी मर्जी से जीने का पूरा हक है। उनकी मनोकामना को बहुत दिनों तक दबाकर नहीं रखा जा सकता है। अब उनके अंदर का मनुष्य जागने लगा है। हाल की तमाम घटनाएं हमें आगाह कर रहीं हैं हम अपनी बेटी की शादी में उसकी मर्जी और खुशी को भी शामिल करें। बारात लौटाने का जो सिलसिला जारी है वो हमें साफ संकेत दे रहा कि कोई न कोई बहाना बनाकर लड़कियां बारात वापस लौटा रही हैं। क्योंकि शादी तय करते समय लड़कियों की मर्जी नहीं पूछी जा रही। उस समय तो वो कुछ बोल नहीं पाती खासतौर पर पिता और भाई के सामने। पुरूष प्रधान समाज में औरतें परिवार के फैसलों में कुछ नहीं बोल पाती तो फिर बेटियां अपने पिता और भाई के सामने कैसे विरोध कर पाएंगीं। ऐसे में जब उनकी मर्जी के बिना शादी तय हो जाती है और बारात चौखट पर है, तब उन्हें मौका होता है अपने मन की बात को व्यक्त करने का। क्योंकि शादी के अवसर पर सारे रिश्तेदार मौजूद होते हैं उनकी मौजूदगी में पिता, भाई या अन्य कोई अभिभावक लड़की पर ज्यादा जोर नहीं डाल पाता या उसे मजबूर नहीं कर पाता। नतीजा यह होता है कि बारातियों द्वारा हंगामा करने, बाराती पक्ष या दूल्हे के दोस्तों के शराब पीने, बारात के देर से आने, जेवर कम ले आने यहां तक की बारात में नौटंकी न ले आने का बहाना बनाकर लड़की शादी से इंकार कर देती है। नतीजतन बारातें वापस हो जाती हैं।बारातें लौटने की घटनाओं को देखा जाए तो लगभग हर मामले में लड़किया ने ही आगे आकर शादी करने से इंकार कर दिया है। फिर पंचायत, पुलिस, रिश्तेदार आदि लाख चाहकर भी लड़कियों को तैयार नहीं कर पा रहे हैं। इस तरह के मामलों में ज्यादातर तो यही होता है कि लड़की को उसकी जीवनसाथी पसंद नहीं होता जिसकी वजह से वह शादी न करने का बहाना खोजती रहती है। बाप के सामने बोल नहीं पाती मगर सारे रिश्तेदारों के सामने खुलकर बोल पाती है। कुछ मामलों में लड़की का प्रेम-प्रसंग कहीं और चलता रहता है, घरवाले सबकुछ जानते हुए भी दूसरी जगह शादी करना चाहते हैं, प्रेमी संग उसकी शादी करने पर विचार तक नहीं किया जाता। यहां गौर करने वाली बात यह है कि इस तरह की घटनाएं मध्यम वर्गीय और निम्न वर्गीय परिवारों में ही रही हैं। क्योंकि संपन्न परिवारों की लड़कियों की शादी उसकी मर्जी के बगैर नहीं की जा रही हैं। इन परिवारों में अब बेटियां अपने पिता से रूबरू बात करतीं हैं, लिहाजा यहां ऐसी स्थिति नहीं बन पाती। आज जरूरत है कि हम अपनी बेटियों की मर्जी का खयाल रखें और ऐसी घटना सामने न आने दें।



अमर उजाला कॉम्पैक्ट में 25 जुलाई 2010 को प्रकाशित



इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

चित्र http://www.indianmarriage.info/assets/ArticleImages/Bridal_Shoots_27.jpg से साभार

बुधवार, 4 अगस्त 2010

इम्तियाज अहमद ग़ाज़ी की 3 ग़ज़ले

ग़ज़ल-1


खुद को खुद ही निकाल के देखो।
ग़म का दरिया खंगाल के देखो।
तुमको सोना लगेगी ये मिट्‌टी,
इसको पैकर में ढाल के देखो।
दोस्ती दुश्मनी से भारी है,
मन से कांटा निकाल के देखो।
तुम भी तंहाइयों में तड़पोगे,
बात तुम मेरी टाल के देखो।
कौन कहता है इश्क काफ़िर है,
रोग ये खुद में पाल के देखो।




ग़ज़ल-2


मैं प्यार करूं तुमसे अगर कैसा लगेगा।
और दे दूं तुम्हें जानो-जिगर कैसा लगेगा।
फुर्कत के तसव्वुर का कुछ अंजाम बताओ,
बिन तेरे मुझे शामो-सहर कैसा लगेगा।
जो रूठ गई मुझसे अगर जाने तमन्ना,
रख दूंगा मैं कदमों में ये सर कैसा लगेगा।
पलकों ये जो रौशन हैं दिए या कि हैं आंसू,
बन जाएं छलक कर जो गोहर कैसा लगेगा।
दिल कहता है उस चांद को तू देख मोसलसल,
नज़रों का जो हो खत्म सफर कैसा लगेगा।
जिस दिन मेरे घर आवोगी दुल्हन की तरह तुम,
आने से तेरे ये मेरा घर कैसा लगेगा।
आंखों में तेरे हुस्न की तस्वीर है ग़ाज़ी,
हो जाए अगर तेरा बसर कैसा लगेगा।


ग़ज़ल-3


मैं हर कौम की रोशनी चाहता हूं।
खुदा की कसम दोस्ती चाहता हूं।
रहें जिसमें मां की दुआएं भी शामिल,
यकीनन मैं ऐसी खुशी चाहता हूं।
पुरानी रिवायत के रास्ते पे चलके,
ग़ज़ल में नई रोशनी चाहता हूं।
मुकद्‌दर बदलने का नुस्खा बताए,
मैं ऐसा कोई ज्यातिशि चाहता हूं।
मुझे लूटना गर उन्हें है गंवारा,
यूं लुटती हुई जिन्दगी चाहता हूं।
मोहब्बत में सबकुछ लुटा के भी ग़ाज़ी,
तेरे प्यार की रोशनी चाहता हूं।