शनिवार, 30 अप्रैल 2022

साहित्य हमेशा मानवीय मूल्यों की वकालत करता है: डॉ. हरिओम

  उत्तर प्रदेश के अमेठी जिले के कटारी गांव में जन्मे आईएएस डॉ. हरिओम वर्तमान समय में सचिव सामान्य प्रशासन के रूप में कार्यरत हैं, इससे पहले कानपुर, गोरखपुर, मुरादाबाद, सहारनपुर और इलाहाबाद समेत 11 जिलों के जिलाधिकारी रहे हैं। इन्होंने आठवीं तक की शिक्षा गांव में हासिल करने के बाद वहां से 8-9 किलोमीटर दूर गवर्नमेंट इंटर कॉलेज में 12वीं तक की पढ़ाई की। ये ह्यूमनटीज के छात्र थे, इनके दो बड़े भाई साइंस के स्टूडेंट थे। पिताजी का यह मानना था, कि साइंस के स्टूडेंट डॉक्टर इंजीनियर बनते हैं और जो आर्ट्स पढ़ते हैं, वो अफसर या प्रोफ़ेसर बना करते हैं। बारहवीं के बाद इलाहाबाद यूनिवर्सिटी आए। यहां से पॉलिटिकल साइंस, हिस्ट्री और हिंदी विषय के साथ ग्रेजुएशन किया। इसके बाद इन्होंने जे. एन. यू. दिल्ली से हिन्दी विषय से एम.ए. और एम. फिल. की पढ़ाई की। इनको लिटरेचर बचपन से बेहद पसंद था। तहसील के एक लाइब्रेरी में मेंबरशिप लिया था, यहीं से प्रेमचंद, फणीश्वर नाथ रेणु,भगवती चरण वर्मा आदि की कई उपन्यासें लाकर अक्सर पढ़ते रहे। लिखने का काम बारहवीं से ही शुरु हो गया था। अब तक आपकी सात किताबें प्रकाशित हो चुकी है, जिनमें तीन ग़ज़ल संग्रह ‘धूप का परचम’, ‘ख़्वाबों की हंसी’, ‘मैं कोई एक रास्ता जैसे’ दो कहानी संग्रह ‘अमरीका मेरी जान’ और ‘तितलियों का शोर’, एक कविता संग्रह ‘कपास के अगले मौसम में’ और एक किताब ‘कैलाश मानसरोवर यात्रा’ है। आप एक मशहूर ग़ज़ल गायक भी हैं, अब तक इनके पांच एलबम मंज़रेआम पर आ चुके हैं, जिनमें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को समर्पित एलबम ‘रंग पैरहन’ और ‘इंतिसाब’ है। इसके तीन एलबम ‘रोशनी के पंख’, ‘रंग का दरिया’ और ‘ख़नकते ख़्वाब’ हैं। गायकी के लिए अब तक कनाडा, लंदन और दुबई का भ्रमण कर चुके हैं। 13 दिसंबर 2021 को इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, डॉ. राकेश तूफ़ान और अनिल मानव से इनकी मुलाकात लखनऊ स्थित उनके कार्यालय में हुई। अनिल मानव ने इनसे विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत है उस बातचीत के प्रमुख अंश।

 डॉ. हरओम से वार्तालाप करते अनिल मानव

सवाल: प्रशासनिक सेवा में रहते हुए अदब के लिए आप समय कैसे निकाल लेते हैं?

जवाब: ऐसा नहीं होता, कि हम कागज और कलम लेकर बैठ जाएं और अच्छा लिख ही लें। अदब हमसे समय निकलवा ही लेता है। जो अमूमन घटना घटती है, उसमें आम आदमी को तो कुछ नहीं दिखता, लेकिन उसमें आर्टिस्ट बहुत कुछ देख लेता। ग़ज़ल को कहा जाता है कि यह महबूबा से गुफ़्तगू है, लेकिन एक समय के बाद यह आवाम से गुफ़्तगू करती है। यदि मोहब्बत केवल एक आदमी तक महदूद है, तो ये मोहब्बत कोई बड़ा मुकाम हासिल नहीं कर पाती। मोहब्बत का जब दायरा बढ़ता, तो उसमें पूरा समाज आ जाता है। त्रिलोचन जी ने अपनी ‘धरती’ नामक काव्य संग्रह में कहा है-‘मुझे जगत जीवन का प्रेमी बना रहा है प्रेम तुम्हारा...’  हमारा जो लिखना-पढ़ना है, वो आवाम से गुफ्तगू है, आप ऐसी जबान में गुफ़्तगू करिए, जो आवाम न समझे, तो आपकी गुफ़्तगू करना बेकार है। आप बहुत कुछ लिखते हैं, लेकिन वह पाठक, श्रोता तक न पहुंचे, तो आपका लिखना बेकार है। ग़ालिब के बारे में भी यह कहा जाता है कि जो उनकी मशहूर और मक़बूल शायरी है वह उनके साठ साल उम्र के बाद की है। पहले वो अरबी-फारसी में शायरी करते रहे, लेकिन लोगों ने उसको अप्रीशिएट नहीं किया। तो उनके दोस्तों ने उनसे कहा कि जो आम-फ़हम जो जुबान है,  हिंदुस्तानी जबान है, उसमें आप लिखिए, तो उन्होंने रेख़्ता जो मिली-जुली भाषा है। उसमें उन्होंने लिखा और इतने मशहूर हो गए।

सवाल: साहित्य प्रशासन के लिए किस प्रकार से मददग़ार का साबित हो सकता है ?

जवाब: प्रशासन ही क्यों, साहित्य एक बेहतर इंसान बनाती है। साहित्य का जो मकसद है, वो एक बेहतर समाज बनाना है। सबसे पहले साहित्य जो लिखता पढ़ता है, उसको बेहतर इंसान बनाता है। उसके बाद जो सुनता-पढ़ता है, उसको बेहतर इंसान बनाता है। और बाद में वो विचार और संवेदनाएं फैलती है। साहित्य कभी अन्याय,  शोषण, अत्याचार, गैर बराबरी और भेदभाव की वकालत नहीं करता है। साहित्य हमेशा मानवीय मूल्यों की वकालत करता है। साहित्य हमारे अंदर पेशेंस और समझने का नजरिया देता है। हमारे वैचारिक और संवेदना के स्तर को बहुत समृद्ध करता है।

बाएं से- डॉ. राकेश तूफ़ान, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, डॉ. हरिओम और अनिल मानव


सवाल: ग़ज़ल-गायन की तरफ आपका पदार्पण शुरू से ही रहा या बाद में हुआ ?

जवाब: मुझे गाने और गुनगुनाने का शौक़ तो बचपन से ही रहा है। मैं एक अच्छे सुरीले गायक बच्चे के तौर पर जाना जाता था। जब मैं स्टूडेंट था तो टीचर्स मुझे 15 अगस्त, 26 जनवरी पर गाने के लिए कहते थे। प्रार्थना मैं ही करता था। जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, मुझे यार-दोस्त घेरकर कहते थे, यार! ये सुनाओ, वो सुनाओ। वो सब करते-करते मैं भी खुश रहता था, कि लोग मेरे पास गाना सुनने के लिए बैठे रहते हैं। स्टूडेंट लाइफ में जब भी मुझे मौका मिलता था, स्टेज पर मैं गाता था। हॉस्टल की महफ़िल में गाता था। लेकिन वो शौक़िया ही था। पढ़ाई लिखाई में हम अच्छे थे। मन ज्यादा उधर भी लगा रहता था और ये भी था कि पढ़-लिखकर कुछ करना है। संगीत हमेशा एक स्ट्रेस बस्टर के तौर पर था। जब भी तनाव हो या पढ़कर बोरियत होने लगे, तो ये भी हो जाता था। लेकिन एक खास बात है, कि हरमोनियम बारहवीं के बाद हमेशा मेरे साथ में थी। हारमोनियम बजाना मैंने बारहवीं में स्टार्ट किया था। कुछ गाने मैं बजाने लग गया था। हारमोनियम मैंने कहीं सीखी नहीं, बल्कि ख़ुद से ही सीख लिया था। ये मेरी दोस्त हो गई थी। ग्रेजुएशन के बाद जब तक मैं स्टूडेंट था, तब तक मेरे कमरे में हमेशा मेरे साथ थी। एक तरह संगीत ही मेरा साथी था। एफएम रेडियो और टेप रिकॉर्डर में मैं हमेशा गाना सुना करता था। ग़ज़ल सुनने का भी इसी दौरान मुझे बहुत चस्का लगा। मेहंदी हसन, अहमद हुसैन, मोहम्मद हुसैन और जगजीत सिंह, गुलाम अली, पंकज उदास को खूब सुनता था। एक दौर था, जब नॉनफिल्मी संगीत हिंदुस्तानी समाज में छा गया था, खूब बजता था। अभी तक तो मेरे गाने का सब काम शौक़िया चल रहा था, लेकिन  असल में गाने की शुरुआत 2015 के बाद हुई। जब मैंने कहा कि मुझे पब्लिक में एज ए सिंगर गाना है। मैंने सोच लिया था, कि मुझे अब किसी की कापी नहीं करनी है, मुझे ओरिजिनल अपना लिखा गाना है। चूंकि मैं लिखता था, तो मैंने कुछ अपने और कुछ फ़ैज़ साहब के कलाम गाये। ‘इंतिसाब’ नाम से मेरा पहला एल्बम 2011 में रिलीज हुआ। यह मेरा पहला ओरिजिनल काम था। 2015 में मैं पब्लिक में गाना शुरु किया। जिसमे मैने ‘रोशनी के पंख’ जो अपना एलबम है। जिसमें मैंने ‘मैं तेरे प्यार का मारा हुआ हूं, सिकंदर हूं मगर हारा हुआ हूं।’ और ‘मुस्कुराती हुई सुबह हो तुम’ नज़्म काफ़ी चर्चित हुई। उसमें फ़ैज़ की भी 2-4 गजलें शामिल थी। उसके बाद मैं पब्लिक में आया और खूब रियाज करने लगा।


सवाल: वर्तमान समय में सबसे महत्वपूर्ण शायर आप किन्हें मानते हैं?

जवाब: ये बहुत ही कठिन सवाल है। सारे शायर ही महत्वपूर्ण हैं। हर शायर हमेशा अच्छी शायरी नहीं करता है। संगीत में एक कहावत है, कि ‘खाना, गाना, पागड़ी कभी-कभी बन जाए’ शायरी और कविता में भी ये चीज है। ऐसा नहीं है, हर बार ही अच्छा ही हो जाए। कोई न कोई नुक्स हमेशा रह जाता है। कभी-कभी ही अच्छा हो पाता है। हमउम्र जो शायर हैं, अभी उस पर टिपण्णी करना बहुत जल्दी होगी। सब अच्छा ही लिख रहे हैं। अगर हमारे एज में देखें, तो पवन कुमार, मनीष शुक्ला, अभिषेक शुक्ला, आलोक यादव आदि अच्छा लिख रहे हैं। जो शायरी के यंगर लॉट हैं। बाकी पहले के लोग तो लीजेंड है ही हैं। मीर, ग़़ालिब, निदा फ़ाज़ली आदि तो अच्छे ही हैं।


सवाल: नई पीढ़ी तो कविता या शे’र को सोशल मीडिया पर पब्लिश करके वाह-वाही पा लेने को ही कामयाबी मानती है, आप इसे किस रूप में देखते हैं?

जवाब: सोशल मीडिया ने डेमोक्रेटाइजेशन के प्रोसेस को बहुत तेज किया है। हमने पहले एक रचना की, तो ये सोचते थे, कि इसे कहां छपाएं ? या तो हम अख़बार का चक्कर काटें या किसी मैगजीन के चक्कर काटें। संपादक की कृपादृष्टि होगी, तो छपेगा, नहीं तो नहीं छपेगा। अब सोसल मीडिया ने कहा है, कि आप ख़ुद ही अपने प्रकाशक हैं और खुद ही राइटर हैं और इंस्टेंट राय भी आ जाती है। सबसे बड़ी बात है, कि पाठक की चिट्ठियों की भी प्रतीक्षा नहीं करनी होती है। वहीं नीचे कमेंट आ गया, लाइक आ गया। वहां आपकी शायरी तुरंत पब्लिक में पहुंचती है। लेकिन ज्यादा लाइक या कमेंट का मतलब यह नहीं है, कि कविता अच्छी है, बल्कि यह देखना जरूरी है, कि वह किन्होंने लाइक किया है। उनको शायरी की समझ है, कि नहीं हैं। किन लोगों की राय है? कौन लोग आपके फॉलोवर हैं ? जैसे मान लीजिए, कि आप संगीतकार है और आपके तमाम लोग ऐसे फालोवर हैं, जिनका संगीत से कोई लेना-देना ही नहीं है। और वो लोग आपको इसलिए लाइक करते हैं, क्योंकि वो आपको किसी और वजह से पसंद करते हैं और फॉलो करते हैं। लेकिन एक बात यह है, कि वहीं पर अच्छे लोग भी हैं। जैसे सोसल मीडिया पर तो आज हर कोई है और इस परिवर्तन को समाज में उल्टा भी नहीं जा सकता। और उलटने की ज़रूरत भी नहीं है। पहले छापा खाना था, तो खाली प्रिंट ही था। फिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आया, सोसल मीडिया आया, फिर डिजिटल मीडिया आ गया। इसमें तामम अच्छी चीजे़ भी हैं। तमाम अच्छे शायरों को हम एक क्लिक में पढ़ लेते हैं। भले ही किताब हो या न हो, गूगल पर सब मिलता है। जो प्रतिभाशाली राइटर्स, कवि, शायर हैं या फनकार हैं, उनके लिए एक अच्छा प्लेटफॉर्म है। उनको सीखने का भी मौका है, बशर्ते कि वो अपना जहन और आँख खुला रखें। देखें कि और बेहतर कौन लिख रहा है। कोई कमियां हैं तो उसको दुरुस्त करने के भी तमाम तरीके हैं। बड़े-बड़े लोगों के कलाम हैं, उनसे सीख सकते हैं। सोसल मीडिया मदद करता है, मगर उसे अपने अच्छे होने का पैमाना न मानें। आप सीखते चलें, अपने आपको माँजते चलें।


सवाल: आपके नजरिए से शायरी के लिए उस्ताद का होना कितना ज़रूरी है ?

जवाब: उस्ताद होना ज़रूरी है। अब ये उस्ताद कोई इंसान हो सकता है, कोई किताब हो सकती है, सोशल मीडिया हो सकता है। उस्ताद का काम है सिखाना। और आदमी तमाम तरह से सीखता है। अगर आपकी सीखने की इच्छा है, तो सीखना जिं़दगी भर चलता रहेगा। उस्ताद का दौर वह था, जब आदमी एक जगह रहता था। उस्ताद भी आसानी से उपलब्ध था। उस्ताद में भी बड़प्पन था, उदारता थी, कि वह सिर्फ प्यार-मोहब्बत में सिखाता था। अब तो उस्ताद ढूंढना मुश्किल है। हमारे जैसे लोग एक जगह टिक कर रहते ही नहीं हैं। हमेशा ट्रांसफर होता रहता है। तो आप किताब से सीखिए। बड़े-बड़े लोगों ने इतना लिखा है, उससे सीखिए। जानकार लोगों से पूछते रहना चाहिए। हमारे साथ यह है, कि चाहे संगीत हो या शायरी हो कोई एक बंदा नहीं है, जिससे हम सीखते हैं। हम तो बहुतों से सीखते हैं। किसी ने कुछ बता दिया, तो उस पर रिसर्च कर लिया। गूगल पर सर्च कर लिया। बड़े-बड़े लोगों का कलाम पढ़ लिया। क्लासिकल सुन लिया। देखा कि कुछ कमी है, तो उसे दुरुस्त कर लिया। इस तरह से सीखने की प्रोसेस चलती है। जैसे एकलव्य थे। उनका कौन उस्ताद था? द्रोणाचार्य ने सीखाने से मना कर दिया, लेकिन उनको रोक तो नहीं पाए। क्योंकि प्रतिभा उनके अंदर थी। आस्था थी। सीखने की लगन थी, तो उन्होंने अपने आप सीख लिया। हमारे जैसे लोग भी उसी विश्वास के साथ शायरी कर रहे हैं। उसी विश्वास के साथ संगीत भी कर रहे हैं। और यह मानकर चल रहे हैं, कि इसमें बहुत सुधार की गुंजाइश है।

सवाल: वर्तमान समय में आपका कौन सा सृजन कार्य और अध्ययन चल रहा है

जवाब: देखिए! मैं हमेशा पढ़ता रहता हूं। तमाम मैगजीन्स और किताबें मेरे पास आती रहती हैं। उन्हें मैं पढ़ता रहता हूं। लगातार ही कुछ न कुछ मैं अवश्य पढ़ता रहता हूं। अब आज की तारीख में क्या कर रहा हूं, कि यह कहना मुश्किल है। नोबेल पढ़ता हूं। ‘सोफीज वर्ल्ड’ वेस्टर्न फिलासफी की एक किताब है, उसे पढ़ा हूं। एक ‘गन फैक्ट्री’ अमिताभ घोष का नोबेल मिली, उसे पढ़ रहा हूं। मुझे जो भी हाथ में मिल जाती है, उसे मैं पढ़ जाता हूं। अंबेडकर की ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ मिली है, उसे पढ़ रहा हूं। अभी भगवत गीता पढ़ा, रामचरितमानस दो बार पढ़ी। पवन जी ने एक नॉवेल लिखी है ‘मैं हनुमान’ उसे पढ़ रहा हूं। जो भी किताब मुझे अच्छी लगती है, उसे पूरा पढ़ जाता हूं। इसके अलावा मैं म्यूजिक की कोई धुन अक्सर बनाता रहता हूं और उसे कंपोज करता हूं। इसमें भी मेरा बहुत समय जाता है।

इंटरव्यू के दौरान डॉ हरिओम के ऑफिस में माजूद बाएं से- अनिल मानव, डॉ. हरिओम, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी और डॉ. राकेश तूफ़ान


सवाल: साहित्य में शिक्षकों का क्या योगदान है?

जवाब: जो साहित्यकार है, उससे बड़ा शिक्षक कौन हो सकता है ? पहले क्या था, कि जितने भी विद्वान या ज्ञानी लोग होते थे, वो सब समाज को शिक्षित करने का कार्य करते थे। शिक्षक का मतलब किसी कॉलेज या यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाला व्यक्ति ही नहीं, बल्कि शिक्षक का मतलब यह है, कि जो समाज को अच्छी दिशा में ले जाने का कार्य करें। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ यही साहित्यकार का काम था। प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष के तौर पर 1936 में मुंशी प्रेमचंद ने कहा है, कि साहित्य समाज के आगे-आगे चलने वाली मशाल है। इसका मतलब है, कि वह समाज को रास्ता दिखा रही है। आज शिक्षक को हम अध्यापक मास्टर या प्रोफेसर मानते हैं, जबकि जो भी हमें अच्छी शिक्षा दें वही शिक्षक है। आप देखिए, कि हिंदी साहित्य में तमाम लोग रहे हैं, जो बड़े साहित्यकार रहे हैं और शिक्षक भी रहे हैं। आलोचना में नामवर सिंह, रामविलास शर्मा जी, वीर भारत तलवार, पुरुषोत्तम अग्रवाल आदि सारे लोग शिक्षक भी हैं और विद्वान भी हैं। अज्ञेय, फ़िराक़ साहब लेखक और शिक्षक दोनों रहे हैं।


( गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2021 अंक में प्रकाशित )


शनिवार, 23 अप्रैल 2022

अशोक स्नेही की कविताएं अतुलनीय हैं: यश मालवीय

 अशोक स्नेही की पुस्तक ’मैं भी सूरज होता’ का हुआ विमोचन

डॉ. खेतान, राजेश समेत सात को मिला ‘शान-ए-इलाहाबाद सम्मान’


प्रयागराज। अशोक कुमार स्नेही की कविताएं अतुलनीय हैं, उन्होंने अपनी एक कविता में जिस प्रकार से राम और तुलसी की तुलना करते थे, वह बेहद ख़ास और बेहद मार्मिक है, इस तरह की तुलना करना हर किसी के बस की बात नहीं है। स्नेही जी बेहद मार्मिक और संवेदनशील कवि थे, आज उनके परिवार और गुफ़्तगू की तरफ से जिस तरह उन्हें याद किया जा रहा है, वह आज के समय के लिए बहुत ही ख़ास है। यह बात मशहूर गीतकार यश मालवीय ने 18 अप्रैल को हिन्दुस्तानी एकेडेमी में गुफ्तगू की तरफ से आयोजित कार्यक्रम में कही। कार्यक्रम के दौरान अशोक कुुमार स्नेही की पुस्तक ‘मैं भी सूरज होता’ और गुफ्तगू के नए अंक का विमोचन किया गया, साथ ही सात लोगों को ‘शान-ए-इलाहाबाद सम्मान’ प्रदान किया गया।



 मुख्य अतिथि जौनपुर के एसपी सिटी जितेंद्र कुमार दुबे ने कहा कि आज प्रयागराज में आकर गुफ़्तगू के कार्यक्रम में शामिल होकर एहसास हुआ कि वाकई यह शहर साहित्य का है। आज के मौके पर पुस्तक विमोचन और सम्मान समारोह का आयोजन किया गया, जो बहुत ही तार्किक और प्रभावशाली है। सरस्वती पत्रिका के संपादक रविनंदन सिह ने कहा कि स्नेही जी ने जिस तरह की कविताओं का सृजन किया है, आज के लोगों के मिसाल कहैं, ऐसे काव्य की ही आज समय में जरूरत हैं। गुफ़्तगू के अध्यक्ष इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि स्नेही जी की कविताएं इतनी मार्मिक होती हैं कि जब से खुद पढ़ते थेे तो रोने लगते थे। अशोक कुमार स्नेही की पुत्री अलका श्रीवास्तव ने कहा कि मेरे पिता ने हमेशा सच और साहित्य को जिया था, उनके जाने के बाद उनकी रचनाओं को सहेजना और प्रकाशित करवाना हमारी जिम्मेदारी है। अध्यक्षता कर रहे श्रीराम मिश्र उर्फ तलब जौनपुरी ने कहा कि स्नेही जी ख़ासकर नए लोगों के लिए प्रेरणादायक थे, वे नए लोगों को खूब प्रोत्साहित करते थे। कार्यक्रम का संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया।

दूसरे सत्र में कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। अनिल मानव, प्रभाशंकर शर्मा, नीना मोहन श्रीवास्तव, संजय सक्सेना, डॉ. नीलिमा मिश्रा, नायाब बलियावी, ललिता पाठक नारायणी, विजय लक्ष्मी विभा, डॉ. अमरजीत, गीता सिंह, रचना सक्सेना, राकेश मालवीय, प्रेमा राय, जया मोहन, बिहारी लाल अम्बर, विक्टर इलाहाबादी, जगदीश कौर, अपर्णा सिंह, अजय प्रकाश, शाहीन खुश्बू, सम्पदा मिश्रा आदि ने काव्य पाठ किया। मनीष कुमार श्रीवास्तव, राहुल कुमार श्रीवास्तव, मोनिका श्रीवास्तव, गौरव श्रीवास्तव, सोनिका श्रीवास्तव, पंकज श्रीवास्तव, दीपा श्रीवास्तव और अमल श्रीवास्तव आदि मौजूद रहे।

इन्हें मिला ‘शान-ए-इलाहाबाद सम्मान’


अशोक कुमार स्नेही (मरणोपरांत), आईपीएस राजेश पांडेय, डॉ. प्रकाश खेतान, राजेंद्र सिंह बेदी, अनिता गोपेश, डॉ. तारिक़ महमूद, हकीम रेशादुल इस्लाम

सोमवार, 11 अप्रैल 2022

सलीक़े से ज़िन्दगी गुजारने का हुनर

                                                                  - डॉ. वारिस अंसारी 

                                          


 अल्लाह का बेशुमार एहसान है कि हमें उसने रसूल की उम्मत ने पैदा किया। दीन से वाबस्ता किया, दीन समझने और उस पर अमल करने का शऊर अता किया। यक़ीनन वह लोग बहुत खुशनसीब हैं जो दिन की बातों पर अमल करने के साथ-साथ दूसरों को भी दीन सिखा रहे हैं, ऐसे अज़ीम लोगों की फेहरिस्त में एक अहम नाम मौलाना शर्फ़उद्दीन ख़ान कादरी का भी है, जिन्होंने ‘खुतबात-ए-क़ादरी’ जैसी आसान किताब लिखकर उम्मते मुसलमान की जिं़दगी को ताबनाक बनाने का काम अंजाम दिया है। इस किताब में आपने अच्छी तकरीरों को बहुत ही आसान जबान में समझाने की कोशिश की है। जिसमें वालिदैन के एहसान और उनके हुकूक के साथ-साथ मौत पर भी रोशनी डाली है। जुमा के फ़ज़ाइल, रमजान की अहमियत और मीलादे मुबारक का भी पुरअसर अंदाज़ में जिक्र किया है। मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूं कि इस किताब को पढ़ने से ईमान में ताज़गी व सलीके से जिं़दगी गुजारने का हुनर ज़रूर मिलेगा। 86 पेज की इस किताब की कीमत 40 रुपये है, जिसे कादरी बुक डिपो इलाहाबाद ने प्रकाशित किया है। 


   इस्लामी मालूमात के लिए सवाल-जवाब


  आज की इस भागमभाग ज़िंदगी में किसे फुर्सत है कि वह ज़ख़ीम किताबों का मुतआला करे। शायद इसी लिहाज़ से मौलाना शरफुद्दीन खान ने बेहद आसान ज़़बान में सवाल-जवाब की शक्ल में एक खूबसूरत इस्लामी किताब ‘इस्लामी मालूमात’ अवाम को अता किया है, जोकि मदारिस के लिए भी एक कारामद किताब है। इस किताब को पढ़ कर आप इस्लामी मालूमात के साथ-साथ अपनी जिं़दगी को और भी खूबसूरत बना सकते हैं। जे़रे नज़र किताब में  कुरआन करीम, हदीसे-मुस्तफ़ा, तफ़सीर, फकह और तारीख़ के पांच सौ नब्बे (590) सवाल और जवाब मौजूद हैं। जिनको पढ़ कर मसरूफ लोग भी बहुत कम वक़्त में ज़्यादा मालूमात हासिल कर सकते हैं। किताब की बड़ी खूबी ये है कि मुसन्निफ़ ने इसे बहुत ही सादा और आसान ज़बान में तखलीक की है। 110 पेज की इस किताब को कादरी बुक डिपो इलाहाबाद ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत सिर्फ 50 रूपये है। यक़ीनन इस किताब को हर मोमिन के घर की ज़ीनत होनी चाहिए, जिससे इस्लामी मालूमात में मज़ीद इज़ाफा हो सकेगा।


’शरफ-ए-खिताबत’ मोमिन के लिए एक तोहफ़ा



 मौलाना शरफुद्दीन ख़ान की किताब ‘शरफ़-ए-खि़ताबत’ का पूरा मोतआला किया। बेहद पसंद आई, ईमान ताज़ा हो गया। दिल इस क़दर खुश हुआ कि बयान मुमकिन नहीं। दुआ है अल्लाह हज़रत मौलाना शरफुद्दीन खान की उम्र व सेहत में बरकतें अता फरमाए-आमीन। ज़ेरे नज़र किताब में मौसूफ ने शरफ़-ए-खि़ताबत में सीरत-ए-नबी, औलिया अल्लाह की जिं़दगी, वसीला, एहकाम-ए-वालिदैन, मोहर्रम शरीफ और रिज्क हलाल के मौजू पर जिस खूबसूरत अंदाज़ में बयान फरमाया है वह काबिलेकद्र है। यही अंदाजे़ बयां लोगों को इस किताब को पढ़ने के लिए अपनी तरफ माइल करता है। इस किताब की तखलीक में मौसूफ़ ने बेहद सादा ज़बानी से काम लिया है, जिससे ये किताब अवामुन्नास व तलबा को पढ़ने और समझने में काफी सहूलत होती है। 96 पेज की ये किताब कादरी बुक डिपो इलाहाबाद से प्रकाशित हुई है, जिसकी कीमत सिर्फ़ तीस रूपये है।


  इंसानी नफ़सियात की अक्कासी करते अफसांचे



 आइये सबसे पहले जान लेते हैं कि अफसांचा है क्या ? दर असल ये फारसी के लफ्ज़ अफसाना से बना है जिसका मतलब होता है किस्सा कहानी। अफसांचे को हिंदी में लघु कथा कहते हैं। जब भी अफसांचों की बात होती है तो डॉ. नज़ीर मुश्ताक का नाम सरे-फेहरिस्त आता है। इससे पहले मैंने भी आपके तमाम अफसांचे अलग-अलग रिसालों में पढ़े। ये मेरी खुशनसीबी है कि आज आपके अफसांचों की किताब ‘तिनका’ मेरे हाथ में है। अब तक मैने इस किताब के चालीस अफसांचो को बागौर पढ़ा-पढ़ कर लुत्फअंदोज हुआ। ज़ह्न सोचने पर मजबूर हुआ कि आखिर इतने कम सेंटेंस (वाक्यों) में इतनी संजीदा बातें लिखना मामूली काम नहीं, ये हुनर मंदाना काम एक बाकमाल इंसान ही कर सकता है, जो कि डॉ. नज़ीर साहब के यहां बखूबी मिलता है। मैं आपके कुछ अफसंचो के नाम लूं जैसे तावीज़, इश्क़, मजदूर, गुर्दा, बाप, दासी, भिकारी, गुनाह, करामात, क़ातिल, बदला वगैरह पढ़ने के बाद ज़ेह्न व दिल जिस तरह मुतासिर होते हैं बयान कर पाना मुमकिन नहीं। पूरी किताब में एक से बढ़ कर एक अफसांचे दिल को झकझोर देने वाला है। डॉ. नज़ीर के अफसांचों की बहुत बड़ी खूबी ये है कि वह इंसानी नफ़सियात की अक्कासी सलीके से करते हैं और अफसाने के मेयार को बरकरार रखने की सलाहियत रखते हैं। उनके यहां इंसानी फितरत का तजरुबा भी है और मुशाहेदात का शऊर भी। आपके अफसानों में बेवजह की तूल न होने के बाद भी बलंद ख़्याली है, संजीदगी है, अदब है, एहतेजाज है, समाज की जिम्मेदारियों का एहसास और जिं़दगी के उतार चढ़ाव के रंग भी। किताब में कुल 100 अफसांचे हैं। 188 पेज की इस किताब को जीएनके पब्लिकेशन (चरार शरीफ) ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 300 रुपये है। 


   फिक्र और एहसास की खूबसूरत तर्जुमानी 



राजा रानी देव परी लकड़हारा वगैरा की कहानियां हम बचपन में सुना करते थे, धीरे-धीरे लोग बदले, वक़्त बदला हमारा वातावरण बदला और इसी बदलाव ने हमारी कहानियों का भी रुख मोड़ दिया। आज हम जिस जगह हैं, वहां इंसान की फिक्र और पल-पल बदलते  एहसास से गिरे हुए हैं, और इन्हीं एसासात को डॉ. ज़ाकिर फ़ैज़ी ने खूबसूरत अंदाज़ में टालकर अफसानो की शक्ल में आवाम को दिया। ‘नया हमाम’ में 25 अफसाने और पांच अफसांचे हैं। ‘मेरा कमरा’, ‘नया हमाम’, ’स्टोरी में दम नहीं’ और किताब में मौजूद पांचो अफसांचे दिलचस्प हैं। इन कहानियों को पढ़ने के बाद अंदाजा हो गया कि डॉ. फ़ैज़ी का नाम कहानीकारों की सफ में अहम मुकाम रखता है आज रोजमर्रा के होने वाले मसाइलों को कहानी में ढालने का हुनर जानते हैं। ‘नया हमाम’ इसकी खूबसूरत मिसाल है आपने अपनी कहानी में मीडिया को भी जबरदस्त तरीके से नंगा किया है, उन्होंने बताया कि मीडिया को जिस एहतराम की नजर से देखा जाता था, आज मीडिया ने सिर्फ़ टीआरपी के चक्कर में अपना वक़ार खो दिया और दौलत कमाने की मशीन बन गई। इसी किताब में मौजूद अफसांचा ‘झटके का गोश्त’ भी इंसान को सोचने पर मजबूर कर रहा है। 204 पेज की सजिल्द पुस्तक की कीमत 250 रुपए है, इसे एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस से प्रकाशित किया है।


( गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2021 अंक में प्रकाशित )