बुधवार, 30 जून 2021

रचनाओं में जीवन-जगत का अद्यतन स्वरूप



                                                
 अमर नाथ श्रीवास्तव

 कवि जमादार धीरज के गीत का समय है वह 40 वर्ष से उपर का है, इसलिए इनकी भाषा और काव्य दृष्टि को इसी संदर्भ में देखना और समझना ज़रूरी है। इनकी रचनाओं में जीवन-जगत का अद्यतन स्वरूप, जिसका एक सामाजिक सरोकार है, जगह-जगह देखने को मिलता है। लेकिन प्रकृति का वैभव और मनुष्य की गरिमा भी इनकी रचना केंद्र में हैं। जहां जीवन का  नाकारात्मक चित्रण है वहां भी ‘सबसे उपर मानुष....’ का भाव ही उभरकर सामने आता है। गीत एक मनः स्थिति विशेष और भावना विशेष के बिंदु का विस्तार है। इनके गीत चाहे रूपासिक्त को, निराश मन के उद्वेलन का है, चाहे देश प्रेम का, सबमें भावों के उद्मग का सफल विस्तार है। इस विस्तार का संप्रेषित करने में इनकी काव्य भाषा जो पिछले चालीस-बयालिस साल से अपना स्वरूप् निर्धारित कर रही है बहुत सहायक है। कभी-कभी तो आश्चर्य होता है कि ऐसी जन संप्रेष्य और जन संवेद्य भाषा का लोप क्यों होता जा रहा है ? क्या आधुनिकता के नाम पर जिस तरह हम बनावटी चमक-दमक में खुद की पहचान भूूलते जा रहे हैं, कभी भाषा के साथ भी तो ऐसा ही नहीं हो रहा है। समकालीनता और आधुनिकता के संदर्भ में निस्संदेह एक नई भाषा चाहिए जो अपनी जड़ से जुड़ी है। कवि जमादार धीरज की पहचान इनकी लोक भाषा की जड़ में है। इसको पहचानने के लिए इनकी अवधी की रचनाओं में भाव और भाषा की समृद्धि को पहचानना ज़रूरी है। मुझे याद है विद्वान समीक्षक डाॅ. राम विलास शर्मा ने अवधी अप्रतिम कवि पं. बलभद्र दीक्षित पढ़ीस को निराला को निराला के साथ ही उदकृत किया है। इन संदर्भ में उनका एक लेख भी महत्वपूर्ण है। 
  मैं जमादार धीरज की भाषा की जड़ इनकी अवधी ज़मीन में देख रहा हूं। इनकी एक कविता है ’सूखा’। कविता शुरू होती है-
                    हम कहा तेवार काउ करी
                    सूखा नहरा, बालू चमकड़
                    कीरा का केंचुल अस लपकड़
                    देखत-देखत अंखिया सूनी
                    ना बादर से टपकड़ बूनी
                    सूखी बेहनि, जरि गई बजरी
                    हम कहा तेरी काउ करी।
नहर का सूखना, सांप के केंचुल जैसा बालू का चमकना जैसा अप्रस्तुत विधान के साथ ही हम कहा तेवारी काउ करी, जैसा संबोधन जमादार की काव्य प्रतिमा को उद्भासित करता है। देस-जवार की चिन्ता, वहां की मिट्टी की खुश्बू और कीचड़-कांदो में सने रहकर भी इस मिट्टी की चमक से गौरवान्वित होने की अनुभूति और इस गौरव पर आये संकट की पहचान कवि धीरज की हिन्दी कविता में, इसी अवधी भाषा के शिल्प से आती है। इसलिए इनकी भाषा में शिल्प का प्रयोग कम है, लेकिन परंपरा के निर्वाह में नयेपन की एक चमक है, जो आजकल कम देखने को मिलती है।
  रचनाकार के गांव की मिट्टी देश की पवित्र मिट्टी बनती है और अपनी मातृभूमि की चिंता इनके गीतों में उजागर होती है। कवि काश्मीर की सुषमा और उस पर आये संकट को चित्रित करता है -
                           खुश नहीं क्यों आज बादल
                           वादियों को चूम कर
                           सेब की बगिया बुलाती
                           है नहीं क्यों झूमकर
                           क्यों कली कश्मीर की
                           सहमी हुई, सूखे अधर
                           झील की रंगीनियों को
                           लग गई किसी नज़र
जैसा मैंने पहले ही कहा कि इनकी भाषा को समझे बग़ैर इनकी कविताओं को समझना एक बंधे-बंधाये फार्मूले को अनुकरण जैसा ही होगा। जमादार धीरज के गांव की भारतीय नारी अब भी वही है जहां सालों पहले थी। उसकी मर्यादा इस आधुनिकता की दौड़ में भंग हुई है। गांव में शहरों के प्रवेश ने जीवन-मूल्य पर अर्थ को वरियता दी है। जिसकी शिकार सबसे पहले औरत है। इस चिन्ता को, जो उनके गांव की बहू बेटी की चिंता है और प्रकारान्तर से पूरे भारतीय समाज की चिंता है, रचनाकार ने अनेक रचनाओं में व्यक्त किया है। उनकी नारी शीर्षक की कविता में उस स्त्री की व्यथा-कथा है जो राजा की पत्नी होकर भी बेंच दी गई, दुर्दिन के बहाने। उस औरत की कहानी है जो वन में पति का साथ देती है, लेकिन वहां अपहृत हो जाती है। विरह की आग में झुलसती रही लेकिन जब दिन बहुरे तो उसे अग्नि-परीक्षा देनी पड़ी। कवि पूछता है कि इससे किस मर्यादा की रक्षा हुई। कवि उस साध्वी स्त्री का भी जिक्र करता है, जहां भ्रष्ट और कामान्ध देवराज यथावत है किन्तु अबोध स्त्री को शिला होने का शाप झेलना पड़ता है। ये सभी मिथक निरर्थक हो जाते हैं अगर रचनाकार इन्हें तन्दूर में भून डाली गई सुनयना के पति की क्रूरता के साथ चित्रित नहीं करता। यह संदर्भ पाकर प्रस्तुत कविता अत्याधुनिक हो जाती है और निसंदेह रचनाकार की सामाजिक चेतना और उसकी मूलदृष्टि स्पष्ट होती है। यद्यपि यह रचना छंद की है लेकिन इसमें जो लयात्मकता है, इसे गीत की कोटि में लाती है। 
  जमादार धीरज के गीतों के मूल में एक पीड़ा है जो प्रत्यक्ष उनकी निजी है लेकिन उसका दायरा बड़ा है। सम्प्रेषणीयता के स्तर पर मुक्ति बोध का कथन समीचीन है कि ‘जो वस्तु देखने में निजी होती है, कविता में उसके बहुत बड़े हिस्से पर देश और समाज होता है’। इस प्रकार इनकी रचना अपनी क्षमता के चलते बहुतों की हो जाती और पूरे समाज की चिन्ता से  
उद्वेलित है। कवि अपनी ‘आंसू’ कविता मे कहता है -
                        नये गीत सब गई उमंगे
                        एक साथ मिट गयी तरंगे
                        सूखे अधर कंठ रूठे हैं
                        अब स्वर में संगीत नहीं है
                        आंसू है, यह गीत नहीं है।
इन आंसुओं के कारक के तत्व रचनाकार की स्मृतियां हैं-
                        मन के सागर में उठती है
                        यादों की अविराम तरंगे
                        रह-रह कर उभरी आती है
                        बीते क्षण की छिपी उमंगे
                        छोटे से जीवन में साथी
                        तेरे मन की थाह न पाया
संभवतः यह गीत किशोरावस्था का है और इसमें बाद की ‘जीवन सांझ’ ढलती वय का गीत है। दोनों रचनाओं में रचनाकार की उम्र बोलती है। उम्र की इन सीढ़ियों का अनुभव कविता में रचनकार बहुत की कुशलता से व्यक्त करता है। इन गीतों को ‘वियोगी होगा पहला कवि’ जैसी प्रसिद्धिा भले न मिले लेकिन इनकी भाव-सघनता रसात्मक है जो नहीं भूलती। यह समझना आनंदायक है कि रचनाकार के जीवन की निराशा में प्यार का रूप है या असफलता उसे जीवन की असफलताओं के रूपक से जोड़ती है। रचनाकार कहता है-‘ गीत रूठे हुए कंठ सूखे हुए, शब्द अधरों पे आने से डरने लगे’ लेकिन इसी पीड़ा के आसपास न घूम कर वह कहता है ‘ जल रहे हैं दिये पर हटा तम नहीं, हम सजाते हुए थाल चलते रहे’। प्यार की निराशा से उपजे अंधेरे का विस्तार तो रचनाकार की काव्य चेतना में है, लेकिन वह जगह-जगह रोशनी तलाशता है। इस तलाश में उसके अंदर आशा और उत्साह की तरंगें भी  उपतजी हैं। वह जीवन के प्रति सकारात्मक हो उठता है। लेकिन इससे पहले वह दर्द को गीत में बदलता है। इन गीतों में अपसंस्कृति का दर्द तो है ही। एक जगह रचनाकार कहता है-
                       कामना मन में यही, सरिता बहा दूं प्यार की
                       पर सदा मिलती रही सौग़ात मुझको हार की
                       लोग मेरी हार के उपहार पर हंसते रहे
                       हर कदम की हार को मैं जीत ही लिखता रहा
                       मैं नयन में नीर भरकर गीत ही लिखता रहा।
कवि अपने पराजय के क्षणों में भी उम्मीद की डोर नहीं छोड़ता। उसका सौंदर्य बोध एक समानांतर भाव भूमि का स्जन करता है। प्रकृति के विस्तृत प्रांगण में बसे हुए गांव अपनी गरीबी और अभाव के बावजूद वसंतागमन के उल्लास से प्रफुल्लित हो जाते हैं। इस उल्लास में कृषक और श्रमिक नारियां कहां पीछे रहने वाली हैं -
                        प्रातगात पुलकित हिय हर्षित
                        हंसिया हाथ लगाये
                        चलीं खेत को कृषक नारियां
                        नयनों में मुस्कायें
                        हाथ मिलाये चले मगन मन
                        गाते नूतन गीत रे।


जमादार धीरज


 रचनाकार की काव्यदृष्टि विस्तार पाती है। कविताओं में लोकमंगल की कामना जगह-जगह देखते बनती है। इन्हीं भावनाओं से प्रेरित और अपनी विरासत पर गर्व करने वाले रचनाकार जमादार धीरज की दृष्टि कभी अरुणाचल की सुषमा को समेटने का प्रयास करती है, मदर टेरेसा को अंतिम प्रणाम देेती है और देश के वीर जवानों को याद करती है। रचनाकार का निजत्व देश और समाज से जुड़ता है। लोक जीवन और लोक संस्कृति इनकी रचनाओं का आधार है। जिसमें शिल्प का अंधानुकरण नहीं करतीं। ये उन कवियों में भी नहेीं आते जो निरंकुश हुआ करते हैं। फिर भी इनकी हिन्दी का ग्राम्यत्व जो छंद और भाषा के स्तर पर है, एक चुनौती है। यह संस्कृतनिष्ठ हिन्दी प्रेमियों को चैंकाता ज़रूर है। लेकिन हिन्दी प्रेमियों को रुचिकर है। भरत मत के पुष्ट करते हुए भोज के ‘ग्रात्यत्व’ को विद्वदजनों की  उक्ति में गुण माना है, जो प्रत्यक्षत: उनकी दृष्टि में एक दोष है। किन्तु हिन्दी के वैयाकरण आचार्य भिखारी दास तो भाषा और भाव की समृद्धि की दृष्ट से इसे स्वीकार नहीं करते। उनका कहना है-

                     ‘कहूं भदेषों होत कहुं, दोष होत गुन खान’

हिन्दी जैसी जीवित भाषा अपनी खुराक लोकभाषा से लेती है। यहां प्राय: ग्राम्यदोष एक सकारात्मक पक्ष है। भरत मुनि के शब्दों में भी दोष का विपर्यय गुण है। ‘न्यून पदत्व’ एक दोष है। इसके विपर्यय के लिए जमादार धीरज देशज और तद्भव शब्दों का प्रश्रय लेते हैं। रचानाकार ने एक ऐसी भाषा स्वीकार की है जो सरल, सर्वमान्य और सर्वग्राहा्र है। इनके शब्दों में पारंपरिक शब्द जैसे गीत, दर्द, दीपक, अंधेरा, जीत, हार, सौगात आदि का व्यवहार है क्योंकि ये शब्द लोकभाषा में यथावत है और इन्हें समझ लेने से कविता की चमक बढ़ जाती है। इनकी रचनाओं में बिम्ब-विधान संक्षिप्त और धारदार छंद कम हैं, क्योंकि कवि आवश्यकतानुसार वर्णनात्मक कविताओं में ही संवेदना और सप्रेषणीयता के गवाक्ष खोलता है, और अन्य आलम्बन तलाश करता है। कुछ ऐसी रचनाएं भी हैं जो कवि की काव्य दृष्टि की ओर संकेत करती हैं। ‘वक़्त आया सरकता गया पास से, हम खड़े बस बगल झांकते रहे गये साथ में जो बहे वे किनारे लगे, हम खड़े धूल को फांकते रह गये’। रचनाकार 26 जनवरी के गीत में भी कहता है -

                        आज देश पर ताक लगाये

                        तत्व स्वार्थी भ्रष्ट निगाहें

                        उनसे हमें सजग रहना है

                        चलो रोक दें उनकी राहें

                        हम प्रहरी है सजग राष्ट्र के

                        आओ स्वयं दीप बन जायें।

इस उद्बोधन गीत की मूल दृष्टि भगवान की ‘अत्त दीपो भव’ है। कवि अपनी एक कविता में कहता है।

                  मन को छलकर जीते-जीते जीवन भार हुआ

                  मीठे विष को पीते-पीते तन बेज़ार हुआ।

कविता में जो नकारात्मक है वह प्रकारान्तर में एक सकारात्मक भाव का सृजन करती है। विचारों में कहीं न कहीं एक दार्शनिकता है। जमादार धीरज की कविताएं पुराने शिल्प में  नवता की संकल्पना ज़रूरी हुआ तो उद्बोधन का भी आश्रय लेती है। इनकी रचनाओं में देश, समाज, गांव-घर और स्वयं की पीड़ा है, सुख-दुःख है और तद्जनित एक मूलदृष्टि है।

(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2020 अंक में प्रकाशित)



गुरुवार, 17 जून 2021

’सौम्य, सुशील जमादार धीरज’


  
                    
     श्रीराम मिश्र ‘तलब जौनपुरी’

                                       

 जमदार धीरज से मेरी मुलाकात का सिलसिला कवि गोष्ठी, कवि सम्मेलन एवं मुशायरों के माध्यम से सन, 1990 के आसपास शुरू हुआ। निरंतरता के साथ नज़दीकी और अंततः दोस्ती में तब्दील हो गया और उनके जीवन पर्यंत बदस्तूर प्रगाढ़ता के साथ निभाता चला गया। जिससे मुझे धीरज जी के बारे मे जानने-समझने का अवसर मिला। उनके संबंध में आगे  कुछ कहने से पहले मैं उनके साहित्यिक गुरु स्व. डाॅ. श्रीपाल सिंह ‘क्षेम’ के गीत का एक चर्चित मुखड़ा उद्धृत करना चाहता हूं-
           एक पल ही जियो फूल बन कर जियो ,
           शूल बन कर ठहरना नहीं ज़िन्दगी।
जमादार धीरज के जीवन का यदि हम समग्रता के साथ सिंहावलोकन करें तो हमें उपरोक्त पंक्तिया पूर्ण रूप से चरितार्थ होती दिखती हैं। फूलों की तरह सुकोमल व्यक्तित्व, हमेशा मुस्कुराता हुआ चेहरा, शांत सौम्य स्वभाव, हरदिल अज़ीज़, अजातशत्रु जमादार धीरज एक मोहक व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे। कोई भी मिलने-जुलने वाला व्यक्ति उनके आकर्षण से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। सांसारिक जीवन में संतुलन बनाकर जीवन यापन करना भी एक तरह की बहुत बड़ी साधना  होती है जो धीरज जी के जीवन में स्पष्टतः दृष्टिगोचर है। एयरफोर्स जैसे संवेदनशील विभाग में एक राजपत्रित अधिकारी के उत्तरदायित्व को बखूबी निभाते हुए एक कुशल गृहस्थ एवं उच्चकोटि के स्थापित साहित्य कार के जीवन में जो समन्वय बना कर धीरज जी ने  सफल जीवन जिया है वह क़ाबिल-ए-तारीफ है। अक्सर साहित्यकारों में देखा जाता है कि वह घर-गृहस्थी के प्रति कुछ उदासीन जरा फक्कड़पन लिए हुए होते हैं लेकिन धीरज जी इसके अपवाद रहे हैं। उनका साहित्यिक और गृहस्थ जीवन दोनों सजे संवरे रहे हैं।
 



 धीरज जी के सभी बच्चे सभ्य, सुशील एवं मिलनसार हैं। अपने-अपने कार्य में लगे हुए, उनकी एक बेटी श्रीमती मधुबाला गौतम स्थापित कवयित्री हैं, जो धीरज जी की विरासत को बखूबी आगे बढ़ा रही है। धीरज जी के घर पर सजने वाली अदबी महफ़िलों में उनके बच्चे  अपनी-अपनी सामथ्र्य के अनुसार बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। ख़ासकर सम्मिलित होने वाले कवियों और शायरों के आवभगत एवं खान पान की व्यवस्था बच्चों के हाथ में होती थी जिसको वह लोग बखूबी निभाते रहे हैं।

             कबिरा खड़ा बजार में दोनों दल की ख़ैर,

             ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।

कबीर का यह दोहा इस पड़ाव पर मुझे अनायास ही नहीं याद आ गया इसके पीछे धीरज जी की और मेरी शुरूआती मुलाक़ात के ज़माने की साहित्यिक संस्था ‘राष्ट्रीय साहित्य संगम’ है जो आज भी सक्रिय है, का बड़ा रोल है। राष्ट्रीय साहित्य संगम का सृजन अभी  नया-नया ही हुआ था कुछ प्रतिष्ठित साहित्यकार धीरज जी सहित इसकी कार्यकारिणी में पदाधिकारी थे संस्था बहुत जोश ओ ख़रोश के साथ आगे बढ़ रही थी। इसकी साहित्यिक गतिविधि चरम पर थी, इसी दरम्यान कुछ अप्रिय घटना घट गई संस्था के मुख्य पदाधिकारियों के बीच उत्पन्न विवाद स्वरूप संस्था टूट कर दो भागों में विभक्त हो गई एक मूल संस्था राष्ट्रीय साहित्य संगम और दूसरी अक्षयवट राष्ट्रीय साहित्यिक एवम् सांस्कृतिक संस्था। जाहिर सी बात है  संस्था के पदाधिकारीगण भी अपनी-अपनी पसंद के मुताबिक बंट कर अलग-अलग संस्थाओं से जुड़ गए। मेरे आश्चर्य का ठिकाना तब नहीं रहा जब मैंने देखा जमादार धीरज दोनों संस्थाओं से शिद्दत के साथ जुड़कर पदाधिकारी के रूप में कार्यरत हो गए। धीरज जी का द्रष्टा भाव तो यह था, दुनिया में रहकर दुनिया से निर्लिप्त रहना। ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर ऐसे लोग विरले ही मिलते हैं। वे जितने अच्छे साहित्यकार थे उससे अच्छे व्यक्ति थे। जितना अच्छा लिखते थे उससे अच्छा पढ़ते थे।

 उनकी रचनाएं कवि सम्मेलनों, गोष्ठियों में खूब वाह-वाही लूटती थी। आप छान्दस गीत के मर्मज्ञ थे। आपने अपनी कविताओं में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राजनीतिक, आध्यात्मिक, समाजिक आदि विभिन्न पहलुओं पर सम्यक प्रकाश डाला है। युग प्रवर्तक डाॅ. भीमराव अम्बेडकर जी पर तो आपका एक पूरा प्रबन्धकाव्य ही है। धीरज जी की दर्द हमारी जीत हो, युग प्रवर्तक डा.भीमराव  अम्बेडकर, आंखिन की पुतरी बिटिया, दलित दर्पण एवं भावांजलि आदि कृतियां मंजर ए आम पर हैं जो बराबर पढ़ी व सराही जा रही हैं। आपकी कविताओं को प्रकाशन विभिन्न प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्रों एवम् पत्रिकाओं में होता रहा है। आपकी कविताओं का प्रसारण आकाशवाणी एवम् दूरदर्शन पर भी होता रहा है। देश की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं से धीरज जी सम्मानित हुए हैं, जो उनकी साहित्यिक स्तरीयता का परिचायक है।

 यह जानकर प्रसन्नता हो रही है कि देश की प्रतिष्ठित पत्रिका ’गुफ़्तगू’ धीरज जी पर एक विशेषांक प्रकाशित करने जा रही है। जिसके लिए मैं संस्था के बानी इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी को बहुत बहुत मुबारकबाद पेश कर रहा हूं। यह बहुत ही सराहनीय कार्य है। धीरज जी जैसे लोग विरले ही मिलते हैं। अतः मैं अल्लामा इक़बाल का एक शेर

                हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पर रोती है,

                बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।

उद्धृत करते हुए जमादार धीरज जी को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा हूं। भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे।

( गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2020 अंक में प्रकाशित )

बुधवार, 2 जून 2021

बतख़ मियां अंसारी और अक़ील रिज़वी

                                                                  - डाॅ. हसीन जीलानी

                                          


 एम. डब्ल्यू. अंसारी की मुरत्तिब की हुई किताब ‘बतख मियां अंसारी की अनोखी कहानी’ एक ऐसे मुजाहिद-ए-आज़ादी की कहानी है, जिन्होंने बिहार के चम्पारन में अंग्रेज़ अफसर के घर में गांधी जी की जान बचाने में अहम किरदार अदा किया था। आज जबकि गांधी जी के क़ातिल नाथूराम गोड़से के चाहने वाले और मानने वालों का एक गिरोह मुल्क की गंगा-जमुनी तहज़ीब को तबाह व बर्बाद करने और फ़िरक़ापरस्ती को हवा देने में सरगर्म-ए-अमल हैं। ऐसे में इस किताब की अहमियत बढ़ जाती है। यह किताब मुजाहिदीन-ए-आज़ादी की हयात व खिदमात और उनके कारनामों से नयी नस्ल को मुतआर्रिफ़ कराने और उनकी ज़ेहनी तर्बियत में यक़ीनन मददगार साबित होगी।

 बतख मियां अंसारी हमारी क़ौमी हम-आहंगी और मुश्तरका तहज़ीब की अलामत हैं। लेकिन आज़ादी के बाद बिहार में कांग्रेस, जनता दल और राजद जैसी सियासी पार्टियों के हुकूमत में रहने के बावजूद किसी ने भी बतख मियां अंसारी की जानिब ख़ातिर ख़्वाह तवज्जुह नहीं की। ऐसे में एम. डब्ल्यू. अंसारी का बतख मियां अंसारी के तअल्लुक से ज़्यादा से ज़्यादा मज़ामीन इकट्ठा करके किताबी शक्ल में शाया कर देना क़ाबिल-ए-तारीफ़ व मुबारकबाद अमल है। किताब में बखत मियां अंसारी के अहद के लिए क़ाबिल-ए-ज़िक्र क़लमकार, अदीब व शायरों की निगारिशात के साथ-साथ उन पर कही गयी बाज़ नज़्में भी शामिल हैं। आज जबकि हमारे भाई चारा और खुलूस व मुहब्बत में रोज़ ब रोज़ कमी आती जा रही है, बतख़ मियां की क़ुर्बानियों को याद किया जाना बेहद ज़रूरी है। 175 सफ़हात पर मुश्तमिल इस किताब की कीमत 250 रुपये है। पेपर बैक पर शाया इस किताब का कवर दिलकश है, जिसे अहमर हुसैन की जानिब से शाया किया गया है।



 प्रोफ़ेसर अली अहमद फ़ातमी की ताज़ा-तरीन किताब ‘प्रोफ़ेसर सय्यद मोहम्मद अक़ील उस्ताद और नक़्क़ाद’ हाल ही मेें शाया हुई है। तरक्की पसंद तन्क़ीद निगारों में प्रो. अक़ील का नाम बड़े अदब से लिया जाता है। उनका शुमार इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अहम असातज़ा में होता है। उन्होंने तक़रीबन चालीस बरस तक शोब-ए-उर्दू के तद्रीसी खिदमात अंजाम दी। 32 तलबा ने उनकी निगरानी में डी.फिल की डिग्री हासिल की। दो दर्जन से ज़्यादा किताबें लिखीं। मुतअद्दि एज़ाज़ व इकराम से भी उन्हें नवाज़ा गया। उनके इन्तिक़ाल के कुछ माह गुजरने के बाद उनके शार्गिद प्रो. अली अहमद फ़ातमी की जानिब से नज़रान-ए-अक़ीदत के तौर पर इस किताब का शाया होना एक मस्तहसन अमल है। आज जबकि उस्ताद और शार्गिद के रिश्ते रोज़ ब रोज़ टूटते जा रहे हैं, ऐसे में किसी शार्गिद का अपने उस्ताद के लिए इससे बेहतर नज़रान-ए-अक़ीदत और क्या हो सकता है। किताब के शुरू में प्रो. फ़ातमी लिखते हैं-‘उस्ताद-ए-मोहतरम सय्यद अक़ील पर लिखे गए चंद मज़ामीन, तब्सरे, इंटरव्यू जो अब बाद-ए-वफ़ात किताबी शक्ल में मज़र-ए-आम पर आ रहे हैं। ये सिर्फ़ और सिर्फ़ नज़रान-ए-अक़ीदत हैं, इसके अलावा कुछ भी नहीं।’ 

 इस किताब में कुल आठ मज़ामीन और दो इंटरव्यू शामिल हैं। जिनमें प्रोफेसर अक़ील की शख़्सियत और उनके अदबी कारनामों पर सरे हासिल गुफ़्तगू की गयी है। साथ ही उनकी कुछ अहम किताबों पर तब्सरे भी किये गए हैं। किताब के आखि़र में कुछ यादगार तस्वीर इस किताब को मज़ीद दीदा-ज़ेब बनाती है। प्रो. फ़ातमी की यह किताब इन मानों में अहम है कि उन्हें अक़ील साहब के ऐसे ख़ास शार्गिद होने का शरफ़ हासिल रहा है जो सफ़र व हज़र में अक्सर उनके साथ-साथ रहे हैं। अक़ील साहब की शख़्सियत को जितने करीब से फ़ातमी साहब ने देखा और समझा है शायद वो मौका अक़ील साहब के दूसरे शार्गिदों को कम ही मयस्सर हुआ हो। लिहाजा यह किताब अक़ील साहब के फिक्री और फ़न्नी कारनामों को समझने में नयी नस्ल के तालिबइल्मों के लिए यक़ीनन बेहद मुफ़ीद और कारआमद साबित होगी। 200 पेज की इस किताब का कवर निहायत दिलकश है। किताब की क़ीमत 250 रुपये है। प्रकाशक खुद प्रो. अली अहमद फ़ातमी हैं।

( गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2021 अंक में प्रकाशित )