बुधवार, 14 मई 2025

1929 से निकली ‘माया’ पत्रिका देशभर में छा गई

मनोहर कहानियां’, ‘सत्यकथा’ और ‘गंगा-जमुना’ भी यहीं से निकलीं 

इसकी सफलता को देखकर ही हिन्दी में शुरू हुई ‘इंडिया टुडे’ 

                                                                               - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

 इलाहाबाद जो अब प्रयागराज है। यहां से पत्रिकाओं और अख़बारों का प्रकाशन नेशनल लेवल पर होता रहा है। पब्लिकेशन का हब तो यह शहर रहा ही है, इसके साथ ही पत्रिकाओं और अख़बारों का भी प्रमुख केंद्र रहा है। मित्र प्रकाशन, पत्रिका हाउस और इंडियन प्रेस प्रमुख रूप से अपनी ख़ास पहचान रखते थे। ख़ासतौर पर मित्र प्रकाशन से निकलने वाली पत्रिका ‘माया’ ने अपनी अलग पहचान और हनक बनाई थी, जिसके किस्से आज भी वरिष्ठजन बड़ी शान से सुनाते हैं। मित्र प्रकाशन से ‘माया’ के अलावा भी कई पत्रिकाएं और अख़बार निकलते थे, लेकिन माया ने राजनैतिक ख़बरों की दुनिया में जो छाप छोड़ी है, उसे क्रास करना आज भी लगभग नामुमकिन ही लगता है। उन दिनों पूरे देश में ‘माया’ की लगभग चार लाख प्रतियां बिकती थीं।

लगभग खंडहर में तब्दील हो चुके मित्र प्रकाशन के ऑफिस को देखते डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी। प्रयागराज के मुट्ठीगंज स्थित इसी ऑफिस से निकलती थी माया पत्रिका।

  वर्ष 1929 में 151, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद से मित्र प्रकाशन के अंतर्गत अन्य पत्रिकाओं के साथ मासिक पत्रिका ‘माया’ की भी शुरूआत हुई। कुछ ही दिनों बाद 151, मुद्ठीगंज की जगह इसके सामने वाली बिल्डिंग 281, मुद्ठीगंज में यह ऑफिस स्थानांतरित हो गया। क्षितिद्र मोहन मित्र ‘मुस्तफ़ी’ ने अपनी देख-रेख और संपादन में कई पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारभ किया था। इनमें ‘माया’ का नाम प्रमुख रूप से आता है, क्योंकि राजनैतिक स्तर पर माया ने जो छाप छोड़ी है। उसकी कहानी और इतिहास सबसे अलग है। 

माया पत्रिका के शुरूआती अंक का कवर पेज

इस पत्रिका की हनक इतनी अधिक थी कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह, नारायण दत्त तिवारी, मुलायम सिंह यादव, तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा और केंद्रीय मंत्री सलीम इक़बाल शेरवानी तक इसके आफिस आते रहे। जब पत्रिका शुरू हुई तब देश अंग्रेज़ों की गुलामी में जकड़ा हुआ था और किसी चीज़ का प्रकाशन करके आम जनता तक पहुंचाना आसान काम नहीं था। मगर, इस माहौल में भी माया ने अपनी अलग छाप छोड़ी। वर्ष 1929 में जब इस पत्रिका की शुरूआत हुई तो इसमें सिर्फ़ कहानियां ही प्रकाशित होती थीं। इन कहानियों में मुख्यतः देश और समाज को रेखांकित करने वाली घटनाओं और यथार्थ को दर्शाया हुआ होता था। तब तकनीक के नाम पर कुछ भी नहीं था। हाथ से एक-एक अक्षर जोड़कर कम्पोजिंग होती थी। उस दौर में कई अंक ऐसे भी प्रकाशित हुए जिनमें एक भी चित्र या रेखांकन नहीं था। फोटो प्रकाशित करने की तकनीक इतनी विकसित नहीं थी। किसी-किसी अंक में बड़ी मुश्किल से किसी कहानी में रेखांकन प्रकाशित हो पाता था।

मनोहर कहानियां’ शुरूआती अंक का पत्रिका का कवर पेज।

 डॉ. मुश्ताक़ अली बताते हैं कि आर्थिक तंगी के कारण शुरू के कई अंकों के छपने के बाद इसका प्रकाशन रोक दिया गया। फिर दो अंकों के विराम के बाद किसी तरह आर्थिक व्यवस्था जुटाकर प्रकाशन शुरू हुआ। विराम के बाद जब प्रकाशन शुरू हुआ तो क्षितिंद्र मोहन मित्र ‘मुस्तफ़ी’ ने अपने संपादकीय में लिखा-‘बहुत समय बाद मैं आज ‘माया’ को पुनः आप लोगों के सम्मुख उपस्थित कर सका हूं। इस बीच आप लोगों के अनेक पत्र मेरे पास आये, पर उनमें से केवल कुछ का ही उत्तर दे सका। अब मैं आरंभ से ‘माया’ की कहानी आपको सुनाता हूं। इसके अवलोकन से आप लोगों को उसके कुछ समय तक बंद रहने और प्रारंभ से ही विलंब से निकलने का कारण ज्ञात हो जाएगा। बीस वर्ष की आयु में मैंने भविष्य की चिंता किये बिना अपने हिन्दी-प्रेम एवं उत्साह की प्रेरणा से ‘माया’ निकाली। मेरी वन्दनीया पुत्रहीना बुआजी, जिन्होंने तीन साल की अवस्था से ही निज संतानवत मेरा लालन-पालन किया था, इस अवसर पर किंचिन्त् धन द्वारा मेरा उत्साहवर्धन किया। मुझे भविष्य में उनसे धन प्राप्ति का पूर्ण निश्चय था। किन्तु दो ही अंक निकल पाये थे कि उनका निधन हो गया। मृत्यु के पहले दानपत्र नहीं लिख सकीं। इस कारण उनका अवशिष्ट धन पौष्यपुत्र को मिला। अब मेरे लिये धनप्राप्ति का कोई द्वार नहीं रह गया। कई दिक्कतों के बाद आज ’माया’ फिर आप के सामने प्रस्तुत हो सकी है। अब हर महीने से पहले सप्ताह में ही माया आप लोगों के पास पहुंचा करेगी।’

चित्र में बाएं से: नन्दा रानी मित्र, अशोक मित्र, आलोक मित्र, दीपक मित्र, क्षितेंद्र मोहन मित्र और बीच में बैठे हुए मनमोहन मित्र।

 प्रकाशन जारी रहा और 1986 में यह पत्रिका पाक्षिक हो गई। इससे पहले मासिक ही छपती रही। क्षितिंद्र मोहन मित्र ‘मुस्तफ़ी’ के पौत्र संदीप मित्र बताते हैं-‘माया’ तब अधिक हाईलाइट हुई जब इमरजेंसी में जेपी के निधन और संघर्ष पर एक्सक्ल्यूसिव स्टोरी छपी। यह स्टोरी रवींद्र किशोर ने किया था। इस स्टोरी के बाद पूरे देश में यह पत्रिका चर्चा में आ गई। इससे पहले ‘माया’ कहानियों की पत्रिका थी। रवीन्द्र किशोर के सलाह पर ही इसे राजनैतिक पत्रिका बना दी गई। जब ‘माया’ राजनैतिक पत्रिका बनी, तब आलोक मित्र प्रधान संपादक और संपादक बाबू लाल शर्मा थे।

वर्तमान समय में मित्र प्रकाशन के अंदर का दृश्य।

  निशीथ जोशी बताते हैं-’राजनैतिक पत्रिका बनाने के बाद माया में एक ख़ास स्टोरी ‘मीसा ने किसको पीसा’ छपी। उस दौरान हाजी मस्तान, युसूफ पटेल, करीम लाला समेत कई लोगों पर ‘मीसा’ लगाया गया था। यह स्टोरी बहुत ही पापुलर हुई।’ श्री जोशी का कहना है कि ‘माया’ की पापुलेरेटी को देखकर ही हिन्दी की ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका निकली। मेरे एक मित्र इंडिया टुडे में काम करते थे, वे बुलंदशहर में किसी रिपोर्टिंग के लिए गये तो लोगों ने कहा - अच्छा वह पत्रिका जो ‘माया’ की तरह निकली है। विभिन्न कारणों से वर्ष 2000 में ‘माया’ पत्रिका बंद हो गई। 


हिन्दी साहित्य सम्मेलन की लाइब्रेरी में ‘माया’ पत्रिका की फाइल खंगालते लाइब्रेरियन दुर्गानंद शर्मा, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ और डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी।


 सूरज नंदा का कहना है- मित्र प्रकाशन से ही बच्चों की पत्रिका ‘मनमोहन’ का भी प्रकाशन शुरू हुआ था। इसके संपादक सत्यव्रत रॉय थे। लेकिन यह पत्रिका चल नहीं पाई। वर्ष 1975 में बंद हो गई। इस पत्रिका के चित्रकार राजा हुस्न थे। ये अपने समय के बहुत ही माने हुए चित्रकार थे। 

पूर्व केंद्रीय मंत्री सलीम इक़बाल शेरवानी, पूर्व राज्यपाल मोतीलाल बोरा, मैनेजिंग डायरेक्टर आलोक मित्र और मार्केटिेग डायरेक्टर दीपक मित्र।

‘माया’ और ‘मनमोहन’ के साथ-साथ इसी प्रकाशन से ‘मनोहर कहानियां’ ‘सत्यकथा’ और साप्ताहिक पत्रिका ‘गंगा-जमुना’ निकलीं। गंगा-जमुना के संपादक रवीन्द्र कालिया थे। ‘गुफ़्तगू’ को दिए गए एक इंटरव्यू में रवीन्द्र कालिया ने बताया था-‘पिछली सदी के अंतिम दशक में मित्र प्रकाशन का आमंत्रण मिला। मित्र बंधुओं का आग्रह था कि ‘माया’ और ‘मनोहर कहानियां’ आदि के साथ-साथ एक साप्ताहिक पत्र भी प्रकाशित किया जाये। तब मित्र प्रकाशन, माया प्रेस अत्याधुनिक उपकरणों से लैस एक ऐसा प्रेस था, जो पूरे भारत को टक्कर दे सकता था। उनके यहां विश्व की नवीनतम मशीनें, स्कैनर आदि थे। उनका विश्लेषण था कि पत्रिकाओं की बिक्री के मामले में इलाहाबाद सबसे कठिन शहर है। वे इलाहाबाद को पूरे देश का एक पैमाना मानते थे। मुझसे उन्होंने कहा कि स्थानीय स्तर पर एक साप्ताहिक पत्र निकाला जाए जो इलाहाबाद के जनजीवन, राजनीति का चित्र हो, जिससे इलाहाबाद का पूरा चरित्र सामने आ सके। साहित्य, राजनीति और सांस्कृतिक स्तर पर पहले अंक से ही धमाका हो गया। कुल 5000 प्रतियां छापी गईं, जबकि 30,000 प्रतियों के आर्डर आ गए। उसका उसी रात द्वितीय संस्करण छपा। 25,000 प्रतियां और छापी गईं। स्थानीय समाचारों के अलावा एक मुख्य पृष्ठ राष्टीय समाचारों पर आधारित था। एक फीचर लोकनाथ पर था। मुट्ठीगंज का पूरा इतिहास बताया गया था। पत्र ठेठ इलाहाबादी भाषा में था। जिसका मूल्य केवल दो रुपये रखा गया था, जबकि पत्र की लागत 8-10 रुपये थी। ज़ाहिर है जितना अधिक बिकता उतना अधिक नुकसान होता। मुझसे कहा गया धीरे चलो। लोकप्रियता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि सुबह दूध के पैकेट के साथ-साथ सप्ताह में एक बार ‘गंगा-जमुना’ भी बिकने लगा। दूसरे शहरों से भी मांग आ रही थी, जबकि सामग्री केवल इलाहाबाद पर होती थी। ‘गंगा-जमुना’ इलाहाबाद के साथ-साथ देश के साहित्य, सांस्कृतिक और कला का आइना बन गया था। वैसे भी इलाहाबाद का समय भारत का मानक समय माना जाता है। इलाहाबाद की नब्ज़ देखकर आप बता सकते थे कि देश में अब क्या होने वाला है। इससे पहले कि माया प्रेस एक राष्टीय साप्ताहिक के रूप में इसे पेश करता, माया प्रेस के मालिकों के बीच उनकी मां के मरते ही मतभेद उभरने लगे। संकट यहां तक बढ़ गया कि माया प्रेस की तमाम पत्रिकाएं अंतर्विरोधों और पारिवारिक मतभेदों के कारण पटरी से उतरती गईं और प्रेस पर ताला लग गया। मैं भी इलाहाबाद छोड़कर भारतीय भाषा पर रिसर्च करने कोलकाता चला गया।’

 रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के साथ संदीप मित्र।

पत्रकार शिवाशंकर पांडेय ने बताया कि इसी प्रकाशन से अंग्रेज़ी में ‘प्रोब इंडिया’ और बंग्ला में ‘आलोक पाथ’ नामक पत्रिकाएं भी निकली थीं। संदीप मित्र ने अप्रैल 2004 में दिल्ली से फिर से इसका प्रकाशन शुरू किया। फरवरी  2007 तक इसका प्रकाशन सफलतापूर्वक जारी रहा। संदीप मित्र के मुताबिक कोर्ट के आदेश पर इसको बंद कर देना पड़ा। 

(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2024 अंक में प्रकाशित)



 

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शनिवार, 10 मई 2025

 साहित्य  का  मूल काम लोगों की सम्वेदना को उभारना है: डॉ. मुश्ताक़ अली

डॉ. मुश्ताक़ अली से बात करते अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’।


इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे डॉ. मुश्ताक़ अली ‘माया’ पत्रिका में उप-संपादक रहे हैं। इनके कार्य के लिए भारतेन्दु हरिश्चंद्र सम्मान पुरस्कार, गोस्वामी तुलसीदास सम्मान, अकबर इलाहाबादी सम्मान, बाबू गुलाबराय सम्मान और भीमसेन अलंकरण नआदि से इन्हें नवाजा जा चुका है। इनकी पहचान हिन्दी साहित्य एवं पत्रकारिता के विद्वान शिक्षक, प्रखर विचारक तथा अपने विचारों को स्पष्ट रूप से रखने लाले गंभीर वक्ता के रूप में है। आपका जन्म 15 जुलाई  सन् 1953 को राजवारी गांव, वाराणसी में हुआ है। आपने प्रारंभिक शिक्षा, अपने गांव से प्राप्त करने के पश्चात,  बीए, एमए  तथा डीफिल की उपाधि, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त किया है। अब तक आपकी सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। कई पुस्तक देशभर की यूनिवर्सिटीज़ में पढ़़ाई जाती हैं। इनके पचास से अधिक लेख देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इलाहाबाद आकाशवाणी और दूरदर्शन से, साठ से अधिक आपकी वार्ताएं, परिचर्चाएं एवं साक्षात्कार प्रसारित हो चुके हैं। एक दर्जन विद्यार्थियों ने आपके कुशल निर्देशन में डीफिल की उपाधि अर्जित की है। अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने इनसे विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत है इस बातचीत पर आधारित प्रमुख अंश-


सवाल: हिंदी साहित्य की तरफ आपका रुझान कब, क्यों और कैसे हुआ?

जवाब: दरअसल हम बनारस के रहने वाले हैं। मेरा गांव बहुत छोटा सा गांव है। उसमें हमारे ही घर में पढ़ने लिखने का माहौल था। हमारे यहां पढ़ने लिखने का माहौल अदबी न होकर इस तरीके का था कि  मस्जिद में कुरान पढ़ने के लिए जाना पड़ता था। मौलवी साहब या मोअज्जिन पढ़ाते थे। बाकी माहौल, सब हिन्दी-संस्कृत का ही था। रात में भी स्कूल में पढ़ाई होती थी और खाना खाने के बाद रात आठ बजे, हम लोग स्कूल में पढ़ने चले जाते थे और दस बजे तक पढ़ते थे। टीचर साथ में रहते थे, सुबह चार बजे वो उठाते थे। लड़के उस समय नींद में रहते थे तो वो संस्कृत के श्लोक और खासकर गीता का श्लोक, त्वमामि देवः पुरुषरू पुराणा वाला श्लोक और कई श्लोक सुनाने को कहते थे, क्योंकि श्लोक याद करने से और उच्चारण करने से नींद भाग जाती थी। हिन्दी के प्रति रूझान हम लोग का गांव से ही है। यही कारण है कि हमारे बैक ग्राऊंड में हिन्दी-संस्कृत ही है।

सवाल: साहित्य का पत्रकारिता से क्या संबंध है?

जवाब: त्रकारिता दो तरह की है। एक समसामयिक पत्रकारिता है, जिसमें पत्रिकाएं वगैरह आती है और एक राजनीतिक पत्रकारिता होती है, जिसमें समाचार-पत्र मूलतः आते हैं। यद्यपि अख़बारों के रविवारीय परिशिष्ट में भी साहित्य के लिए जगह होती है, लेकिन उनका मूल उद्देश्य साहित्य का विकास नहीं होता। साहित्य में खासकर साहित्य के केंद्र में सम्वेदनाएं होती हैं। मीडिया में समसामयिक घटनाक्रम होता है। मूल बात यह है कि हर घटनाक्रम के पीछे भी कोई न कोई साहित्यिक मूल्य होता है, जैसे सम्वेदना वाला। जब हम बेरोजगारी पर या महंगाई पर बात करते हैं तो ये भी पोलिटकल विषय है, लेकिन जब हम उस बेरोजगारी और महंगाई से जो परिवार गुजर रहा है, जब हम उसकी दुर्दशा दिखाने लगते हैं और उसका चित्रण करते हैं तब वह साहित्य बन जाता है। पत्रकारिता बाहरी चीज़ों को कवर करती है, जिसका सम्वेदनाओं से बहुत मतलब नहीं होता। हालांकि अख़़बारों में भी कुछ फीचर होते हैं जैसे ‘जनसत्ता’ का शुरू से मैं पाठक था। मैं देखता था, उसके फीचर बहुत अच्छे होते थे। कई बार बहुत भावनात्मक भी होते थे। आमतौर पर किसी राष्ट्रनायक के देहावसान पर, या किसी एक्सीडेंट पर, कुछ इस तरह के फीचर वगैरह आते हैं जो बड़े भावनात्मक होते हैं लेकिन आमतौर पर सदा ऐसा नहीं होता। सम्वेदनाओं का जैसे-जैसे जीवन में स्थान कम होता जा रहा है वैसे-वैसे पत्रकारिता में भी कम होता जा रहा है। केवल चीजों का तकनीकी महत्व रह गया है। पैकेजिंग का महत्व बढ़ रहा है। भारतेंदु युग में जो भी उस समय की  पत्रकारिता में था वो ही धीरे-धीरे साहित्य में आता था। उस समय की कविताएं व्यंग्य, बहुत सारे लेख, यात्रावृत्तांत हैं, वो सब साहित्य में धीरे-धीरे आये। द्विवेदी युग तक भी आता रहा। ‘सरस्वती’ का सम्पादन जो महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1903 से 1920 तक किया, उस दौर में भी जो साहित्यिक पत्रकारिता वो करते थे वो चीजें स्थायी मूल्य की हुई और वो पाठ्यक्रमों में भी आती रही। फिर धीरे-धीरे ये कम होता गया, लेकिन अब भी पाठ्य-पुस्तकों को बनाने का या पाठ्यक्रमों को तय करने का जो तरीका होता है उसमें पत्र-पत्रिकाओं की अपनी भूमिका रहती थी। हम कोई विषय पर कोई चीज लेना चाहें तो लोग मीटिंग्स में डिस्कस करते थे कि यह अच्छी चीज वहां छपी है इसको लेना चाहिए। उस दौर की जितनी भी कहानियां हैं प्रेमचंद, चंद्रधर शर्मा गुलेरी वगैरह की हैं। ‘उसने कहा था’, ‘मंत्र’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहकनियां, ये सब मैगजीनों से ही तो आई हैं और धीर-धीरे साहित्य का अटूट हिस्सा बन गई। अब या तो ऐसा कुछ नहीं छप रहा है, जिसको वो उसमे डायरेक्ट ले रहे हों। इसका जो प्रसार है वो दूसरी तरह का हो गया है। इसमे कुछ विचारधारा भी आ गई है। उस विचार धारा को जो जो चीज हो, चाहे जैसी भी हो, उसको ही लेंगे। मेरिट पर चयन नहीं हो रहा है।


सवाल: तेजी से बदलते वर्तमान दौर का विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम और शिक्षा स्तर  पर क्या असर है?

जवाब: दिल्ली यूनिवर्सिटी में 70 से अधिक कालेज हैं। उसका मानक बहुत अच्छा था। पहले जो आनर्स का पाठ्यक्रम होता था वो बहुत अच्छा था। इंग्लिश का जो पाठ्यक्रम था उसमें देखिए अभिज्ञान शाकुंतलम,  मृच्छकटिकम और महाभारत का शांति पर्व, इस तरीके की चीजें, इंग्लिश में भी पढ़ाई जाती थीं। लेकिन धीरे-धीरे सब तब्दील हो गया। मेरा बेटा डीयू में पढ़ता था तो उसका पाठ्यक्रम जो मैंने देखा था वैसा पाठ्यक्रम मैंने कहीं नहीं देखा। बहुत अच्छा था। पुराने लोग, पढ़े लिखे लोग थे जो इनके चयन का कार्य करते थे। आजकल बोर्ड ऑफ स्टडीज में ऐसे लोग हैं जिनका कोई संबंधित अनुभव नहीं है और मनचाहे तरीके से कार्य करते हैं। जो लोग पीसीएस वगैरह का पाठ्यक्रम बना रहे हैं, उन्होने इतने अधिक उपन्यास रख दिए हैं कि बच्चे उपन्यास पढ़-पढ़ कर परेशान हो गए हैं। पहले भी उपन्यास रखे जाते थे, लेकिन मशहूर उपन्यासकारों के चुनिन्दा उपन्यास को, प्रतिनिधित्व के लिए, एक एक रखते थे। अब कोई  दृष्टि ही नहीं, सब घालमेल हो गया है। विश्वविद्यालय में सेमेस्टर सिस्टम जब से लागू हुआ है तब से पढ़ाई का माहौल बदल गया है। पहले पढ़ाई का जो वातावरण-माहौल था वो दूसरी तरह का था। परीक्षा एक होती थी और पढ़ाई साल भर होती थी लेकिन अब हर महीने, तीसरे महीने इम्तिहान है और उसका पाठ्यक्रम सब यूनिट में बंटा हुआ है। 16 जुलाई को अगर विश्वविद्यालय खुला तो 16 जुलाई से 16 अगस्त तक दो यूनिट खत्म हो जानी चाहिए और उसका इम्तिहान उसका टेस्ट हो जाना चाहिए। लेकिन होता यह है कि 16 जुलाई को विश्वविद्यालय खुल तो जाएगा लेकिन पढ़ाई नहीं होगी। एडमिशन सहित सारे कार्य होंगे लेकिन क्लास नहीं होगा। पाठ्यक्रम धीरे-धीरे पिछड़ता जाता है। पढ़ने का ही वक्त नहीं है। पहले वाला माहौल अब नहीं है। सब बदल गया है। अब लड़के नंबर बहुत पाते हैं। नब्बे फीसदी लिट्रेचर में भी पाते हैं लेकिन आता कुछ नहीं है। पहले 60 फीसदी पाने का, बहुत मतलब होता था। 

सवाल: आपने विश्वविद्यालय के छात्रों को पत्रकारिता भी पढ़ाया भी पढ़ाया है। इस दायित्व के निर्वहन के समय छात्रों की क्या प्रतिक्रिया रही ? 

जवाब:  इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मीडिया वाला एक विभाग भी है, जो पहले पत्रकारिता और जनसंचार वाला विभाग था। हिंदी विभाग के अलावा तीन साल तक हमने वहां भी पढ़ाया है। हमको ‘माया’ में रहने की वजह से एडिटिंग वगैरह की जानकारी पहले से थी, उन लोगों ने हमको एडिटिंग सिखाने के लिए रखा था। बच्चों को सिखाते थे कि कॉपी कैसे हैंडिल करें और कैसे करेक्शन करें। दो तीन साल तक हमने वहां भी कार्य किया था। मेरा अनुभव उनके बारे में बहुत अच्छा नहीं रहा। उसकी वजह यह थी कि विश्वविद्यालय के अन्य विभागों के छात्र, अपने पाठ्यक्रम के प्रति बहुत जागरूक और गंभीर होते है,ं लेकिन पत्रकारिता वाले छात्र, कक्षा में भी ठीक से नहीं, बल्कि मनचाहे ढंग से बैठते थे। बहुत मतलब नहीं रखते थे।  वो गंभीरतापूर्वक इस विषय को नहीं पढ़ते थे।


सवाल: आपके निर्देशन में होने वाले शोध किन विषयों से संबंधित रहे हैं। पर्याप्त संख्या में शोध होने के बावजूद, आजकल देश की महत्वपूर्ण लाइब्रेरियों में भी, शोधकर्ताओं की उपस्थिति नगण्य ही रहती है। आपकी नज़र में इसका क्या कारण है ?

जवाब: म लोगों के समय, हिन्दी विभाग में रिसर्च का रुख बदल गया था। यह विमर्शों की तरफ उन्मुख हो गया। नब्बे के दशक में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, पिछड़ों का विमर्श आया। ये जो विमर्श आए उन विमर्शों ने शोध की दिशा ही बदल दी। नब्बे के बाद से ज्यादातर शोध, विमर्श पर ही हैं। जो पुरानी लाइब्रेरियां हैं उनमें विमर्श से संबंधित साहित्य नहीं है। इसका एक नुकसान यह हुआ कि ज्यादातर लाइब्रेरियां उजाड़ हो गई हैं। अब लड़कों का काम गूगल पर ज्यादा होता है। गूगल पर शोध संबंधित बहुत सी साईट है उस पर आप जाएंगे तो आपको पता चल जाएगा कि किस विश्वविद्यालय में किस विषय पर कितना शोध हो रहा है।

पहले क्या होता था कि जैसे हिन्दी अनुशीलन पत्रिका, भारतीय हिन्दी परिषद से निकलती थी। सन् 1935 में धीरेन्द्र वर्मा ने इसको शुरू किया था। इसका ऑफिस हिन्दी विभाग में था। हिन्दी अनुशीलन के बहुत सारे अंक, शोध पर निकलते  थे। पूरे देश भर भें कितने शोध कहां-कहां, किस विषय पर हुए थे, सारी जानकारी होती थी। अतः पहले मदद इस सब से ली जाती थी। इस कम्प्यूटर युग में अब हर चीज कम्प्यूटर पर है। उस पर बहुत कुछ सामग्री मिलती है लेकिन टेक्स्ट कम मिलता है। शोध करना है तो पूरा टेक्स्ट चाहिए। कम्प्यूटर पर थोड़ा-बहुत ही मिलेगा। इसलिए वो तो आपको लेना पड़ेगा शोध आधार है। बाकी जो संदर्भ वगैरह के लिए नई किताब लेनी पड़ेगी लेकिन लाइब्रेरियों में इस तरह की सामग्री, अब कम मिलती है इसलिए नये शोधकर्ताओं के लिए, ये लाइब्रेरियां अब उतनी उपयोगी नहीं रह गई  हैं। पहले शोधकर्ता को बताया जाता था कि सम्मेलन संग्रहालय जाओ। अगर आप आजकल सम्मेलन संग्रहालय जाएंगे तो शायद ही एक दो छात्र वहां आपको नज़़र आएं। हम लोग के ज़माने में, कोई भी अगर  शोध करता था तो सबसे पहले कहा जाता था, सम्मेलन संग्रहालय जाओ, वहां हर विषय पर सामग्री मिलेगी। पर अब शोध की दिशा बदल गई  है। शोध की  दिशा बदलने से पुरानी लाइब्रेरियां उजाड़ पड़ी हैं। 

सवाल: नई और निष्पक्ष विचारधारा को हिंदी साहित्य में निरंतर प्रवाहित करने के लिए आप अपने विद्यार्थियों को कैसे प्रेरित करते थे ?

जवाब: सन 2019 तक हम विश्वविद्यालय में कार्यरत थे। तब तक इतनी बंदिशे नहीं थे और हम लोग हर विषयों पर खुलकर बोलते थे। लड़कों को भी वैसे ही तैयार करते थे। लेकिन धीरे-धीरे ऊपर का दबाव बढ़ा है। अब लोग जागरूक भी हो गए हैं। हर विचारधारा के लोग क्लासों में बैठे हैं। जो बोलो, छात्र वो उसको रिकार्ड कर लेते हैं। अगर आप सत्ता के खिलाफ बोलते हैं तो वो तबका, उसे रिकॉर्ड करके आगे तक पहुंचा देता है फिर उसके खिलाफ एक्शन होता है। पहले ऐसा नहीं था। पहले हम लोग बेबाक होकर किसी भी विचार धारा पर बोलते थे। अगर आप दलित विमर्श की बात करिएगा, अल्पसंख्यक की बात करिएगा, ट्राइब की बात करिएगा तो दलित तबका बड़े ध्यान से सुनेगा। अगड़े भी चूंकि पढ़ना है तो वो भी जानना चाहते है कि हमारे बारे में दलित क्या कह रहा हैं। लेकिन पहले कोई बंदिश नहीं थी, अब हो गई है। हम लोग बहुत अच्छे समय में थे। कुछ भी बोल-बालकर निकल गए। अब कोई बोल नहीं सकता। अब तो आपने बोला नहीं कि ख़बर आगे तक पहुंच जाती है। 

बाएं से: डॉ. मुश्ताक़ अली, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ और डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी।                       


सवाल: जैसा आपने बताया कि आजकल साहित्य, विमर्श के इर्द-गिर्द घूम रहा है। इसको देखते हुए आप, नये साहित्यकारों को क्या संदेश देना चाहेंगे? 

जवाब:  चूंकि हवा में यही है और राजनीतिक विचारधारा के साथ यह जुड़ा है इसलिए इससे उलट कोई नयी बात करना, संभव नहीं है। साहित्य का काम समाज में व्याप्त सम्वेदना को देखना है और सम्वेदना दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श या जनजातीय विमर्श में भी है। उसमें मूल चीज़ तो निश्चित तौर पर विद्यमान है। जब भी आप गरीब की बात करेंगे तो अमीर अपने आप आ जाएगा। शासक की बात करेंगे तो शोषित सामने आ जाएगा। रहेगा तो दोनों तरफ, ऊपर से नाम आप चाहे जो दे दें। साहित्य का मूल काम ही सम्वेदना को उभारना है। सम्वेदनाएं जहां भी हैं, वो साहित्य का ही विषय है। अत: मुझे इसमें कोई दुराव नहीं लगता।

(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2024 अंक में प्रकाशित)


शुक्रवार, 9 मई 2025

 गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर-2024 अंक मे



3..संपादकीय (अब बुद्धिजीवी वर्ग कवि सम्मेलन सुनने नहीं आता)

4-7. मीडिया हाउस-3 -1929 से निकली 'माया' पत्रिका देशभर में छा गई - डॉ. ग़ाज़ी

8-11. खास पेशकश - समाज का अक्स हैं प्रेमचंद के अफसाने - डॉ. अब्दुर्रहमान फ़ैसल

12-13. दास्तान-ए-अदीय-4- उमाकांत जी के घर में दलित महिला बनाती थी ....- डॉ. ग़ाज़ी

14-20. गज़लें (उदय प्रताप सिंह, यश मालवीय, पवन कुमार, अनुराग मिश्र गैरश्, ओम प्रकाश नदीम, मासूम रज़ा राशदी, अरविन्द श्असरश्, डॉ. के.के.मिश्र श्इश्कश् सुलतानपुरी, शमा ‘फिरोज़’, मनमोहन सिंह श्तन्हाश्, राज जौनपुरी, मधुकर वनमाली, सीमा सक्सेना ‘वर्णिका’)

21-27. कविताएं ( अमर राग, पुष्पिता अवस्थी, बृज राज किशोर श्राहगीरश्, डॉ. प्रमिला वर्मा,, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’, डॉ. पीयूष मिश्र श्पीयूषश्, सिरोज आलम, मंजुला शरण, सीमा शिरोमणि, केशव प्रकाश सक्सेना, धीरज पाल ‘प्रीतो’, ज्योत्सना)

28-31. इंटरव्यू: साहित्य का मूल काम संवेदना को उभारना है - डॉ. मुश्ताक़ अली

32. लघु कथा (लुका-छिपी_ खलील जिब्रान, मेरा प्रेम- डॉ. प्रमिला वर्मा)

33-37. चौपाल (पत्रकारिता के लिए साहित्य कितना महत्वपूर्ण है?)

38-45. तव्सेरा 

46-47. उर्दू अदब

48-49. गाजीपुर के वीर-28: हिन्दी नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर उमाशंकर तिवारी

50-53. अदबी खबरें 


54-85. परिशिष्ट-1ः शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’

54. परिचय -शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी

55-56. सहयोगी की कविताओं में विसंगतियों, विडम्बनाओं ....- डॉ. आदित्य कुमार गुप्ता

57-60. कविताओं में समाज का सही चित्रण - जगदीश कुमार धुर्वे

61-62. शिवानन्द सिंह श्सहयोगीश् के नवगीत

63-85. शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी की कविताएं


86-115. परिशिष्ट-2 

86.वसंत कुमार शर्मा (आई.आर.टी.एस.) - परिचय

87. बसंत शर्मा की ग़ज़लों में नये-नये क़ाफिये - डॉ. रामावतार सागर

88-89.. काव्य में लोकतंत्र की चिंता और चुनौतियां - डॉ. शहनाज जाफर बासमेह

90-91.  अलग तरह के शायर हैं बसंत कुमार शर्मा - सोमनाथ शुक्ल

92-115. बसंत कुमार शर्मा की ग़ज़लें


116-144. परिशिष्ट-3 

116. सुशील खरे ‘वैभव’ - परिचय

117-118.बसजग अनुभव की सरल अभिव्यक्ति - डॉं. पीयूष मिश्र ‘पीयूष’

119. महाकाव्य रचने वाले सुशील खरे वैभवश् - अरविन्द श्असरश्

120-121 सामाजिक चेतना के प्रश्न उठाती कविताएं -डॉ. शैलेष गुप्त श्वीरश्

122-144. सुशील खरे वैभवश् की कविताएं


गुरुवार, 8 मई 2025

                       ज़िंदगी की तर्जुमानी करती ‘खुशबू’

                                                                    - डॉ. वारिस अंसारी 

   

 अदब की तमाम सिंफ़ हैं, जिसमें से एक सिंफ है अफ़साना निगारी। दरअस्ल अफ़साना निगारी देखने में तो आसान है, लेकिन अफसाने का हक़ अदा करना उतना ही मुश्किल काम है। चंद ही ऐसे लोग मिलते हैं, जिनके अफसानों से अदबी दुनिया को नाज़ होता है। उन्हीं में एक नाम इरफान अहमद अंसारी का है, जो कि एक बकामाल अफ़साना निगार हैं। ‘खुशबू’ उनका पहला मजमूआ है। इरफान अहमद का तअल्लुक शाहजहांपुर से है। जो कि शहीदों की सरज़मीन रही है, लेकिन फरहत एजाज़, मुज़फ्फर अंसारी, मीम. ऐन. गम, डॉ. इज़हार सहबाई जैसे चोटी के अफसाना निगार भी इसी सर ज़मीन से हुए हैं। दौरे-हाज़िर में इरफान अहमद अंसारी शिद्दत के साथ अफसाना निगारी का हक़ अदा कर रहे हैं। वह एक साधी पसंद अफसाना निगार हैं, इसीलिए अदबी दुनिया में नुमाया मुकाम रखते हैं। उनकी ज़बान सादा और आसान है। जिससे क़ारी (पाठक) को पढ़ने और समझने में कोई परेशानी नहीं होती। उनके अफसानों में खुदा ने वह असर बख्शा है कि पढ़ने वाले के दिलो-दिमाग पर एक कैफियत सी छा जाती है।  इसी मजमुआ (संग्रह) का पहला अफसाना ‘नई जिं़दगी’ की चांद लाइन बतौर नमूना देखते चलें-‘एक दिन की बात है घर के सब लोग शादी की तकरीब में गए हुए थे और वह लड़की किसी वजह से उस तकरीब में न जा सकी थी। घर पर ही थी। दोपहर का वक़्त था, वह सो रही थी। उसके कानों में खट-खट की आवाज़ आई और वह हड़बड़ा कर उठी। चूंकि गहरी नींद में सो रही थी। आंखें मालती हुई दरवाज़़े पर पहुंची, दरवाज़ा खोला तो वह लड़का सामने खड़ा था।’ 

   इन चंद लाइनों से उनकी सादह ज़बानी का अंदाज़ा बखूबी लगाया जा सकता है। अफ़साना निगारी के मुश्किल फ़न को उन्होंने बड़ी आसानी के साथ समाज को सौंपा जो कि अदबी दुनिया में तादेर याद किया जायेगा। इरफान अहमद अंसारी का ये अफसानवी मजमूआ ‘खुशबू’ में 136 पेज हैं जिसकी कीमत केवल सौ रुपए है। इस संग्रह में अठारह अफसाने हैं जो कि बहुत ही दिलनशीं हैं। किताब की कंपोजिंग फहीम बिस्मिल ने की है, जबकि जिल्द को हिना शकील ने अपनी आर्ट से सजाया है और इस किताब को राही प्रिंटर्स शाहजहांपुर से सन 2014 में फखरुद्दीन अली अहमद मेमोरियल कमेटी लखनऊ के माली इमदाद से प्रकाशित किया गया है ।

   इब्ने सफी और उनके किरदार


 नावेल की दुनिया में इब्ने सफी वह नाम है जिसके बारे में हिंदोस्तान पाकिस्तान ही नहीं बल्कि जहां जहां उर्दू बोली जाती है वहां-वहां उनके बारे में खूब लिखा गया और ये लिखने का सिलसिला आज भी जारी है। तैयब फुरकानी ने भी इब्ने सफी पर लिखा, लेकिन फुरकानी के लिखने का अंदाज़ सबसे जुदागाना रहा। उन्होंने इब्ने सफी के अलावा उनके नावेल में जो किरदार रहे उन पर भी लिखा और उन्होंने बड़े मुनफरिद अंदाज़ में अपना कलम चलाया। उन्होंने अपने मखसूस (विशेष) अंदाज़ और मेहनत से तहरीरी काम करके अदबी दुनिया में अपनी शिनाख्त कायम की। तैयब फुरकानी का शुमार भले ही नई नस्ल के लिखने वालों में किया जाता हो लेकिन उनके तहरीर में जो पुख्तगी (परिपक्वता) है, वह काबिले तारीफ है।  ‘इब्ने सफी किरदार निगारी और नुमाइंदा किरदार’ किताबी शक्ल में उनकी पहली कामयाब कोशिश है। इस किताब को उन्होंने चार हिस्सों में तकसीम किया है। मुकदमा के बाद पहले हिस्से में इब्ने सफी की शख्सियत और उनकी हयात पर रोशनी डाली है। दूसरे हिस्से में उन्होंने उनकी किरदार निगारी का पुर लुत्फ जिक्र किया है। तीसरे हिस्से को उन्होंने इब्ने सफी की किरदार निगारी और नुमाइंदा किरदार को अपना मरकजे सुखन बनाया और चौथे हिस्से में उन्होंने इब्ने सफी के नावेल में जो किरदार हैं उनका बड़े सलीके़ से जिक्र किया है। यही नहीं उन्होंने मर्द ,औरतों के किरदार को अलग अलग पेश किया है। उनकी ज़बान में सलासत है और आसान अल्फाज़ के इस्तेमाल भी। जिससे कारी रवानगी के साथ बिना बोझिल हुए उनके मजमून पढ़ता चला जाता है। 

नमूने के तौर पर चंद लाइन-‘शौकत की मां हमारे खानदान की न थीं लेकिन वह किसी निचले तबके से भी ताल्लुक न रखती थीं। उनमें सिर्फ इतनी खराबी थी कि उनके वालदैन हमारी तरह दौलतमंद न थे।’ नावेल नसरी किस्से के जरिए इंसानी जिंदगी की तर्जुमानी करता हैं। वह बजाए एक शायराना व जज़्बाती नजरिया ए हयात एक फलसफाना साइंटिफिक या कम से कम एक ज़हनी तनकी़द-ए-हयात पेश करता है। यह किताब स्कॉलर्स तलबा के लिए भी बड़ी कारामद साबित होगी। किताब के मुसन्निफ (लेखक) तैयब फुरकानी ने इस किताब को पश्चिम बंगाल उर्दू अकादमी के माली मदद से अंजला ग्राफिक्स से कंपोज करा कर भारत आर्ट प्रेस कलकत्ता से सन 2022 में प्रकाशित किया है। खूबसूरत हार्ड जिल्द के साथ इस किताब में 496 पेज हैं जिसकी कीमत मात्र 500 रुपया है।

(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2024 अंक में प्रकाशित)


शनिवार, 3 मई 2025

  मुशायरों के शहंशाह थे मुनव्वर राना

 पिता के नाम के साथ लगा ‘ड्राइवर’ शब्द हटाना चाहते थे

जी-तोड़ मेहनत करके व्यापार और शायरी में हुए कामयाब

                                                                    - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

 मुनव्वर राना के पिता का नाम अनवर था। अनवर साहब ट्रक ड्राइवर थे। इस काम के जरिये ही वे अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। ड्राइवर के रूप में वे काफी मशहूर भी थे। यहां तक कि उस दौर में उनके घर जब चिट्ठी आती थी तो लिफ़ाफ़े पर उनका नाम ‘अनवर ड्राइवर’ लिखा होता था। जब मुनव्वर थोड़ा परिपक्व हुए तो उनको अपने पिता के साथ ड्राइवर का लगा लक़ब बहुत ही नागवार लगता था। मुनव्वर राना के बेटे तबरेज़ राना बताते हैं कि मेरे वालिद अपने पिता के साथ लगा ‘ड्राइवर’ का लक़ब हटाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने व्यापार में जी-तोड़ मेहनत की और इस लक़ब को हटवाने में कामयाब हुए। मुनव्वर राना का नाम जब शायरी की दुनिया में उभरा तो लोग उन्हेें अनवर ड्राइवर कहने की बजाय मुनव्वर राना के पिता कहने लगे, यही मुनव्चर चाहते थे। मुनव्वर राना अपने बच्चों को पढ़ाना तो चाहते थे, लेकिन उनकी पढ़ाई की वाचिंग खुद ही पूरे तौर पर नहीं करते थे, लेकिन पढ़ाई का पूरा इंतज़ाम करते थे। जब परीक्षा का रिजल्ट आना होता था तो पहले से ही सचेत हो जाते थे। अच्छा रिजल्ट आने पर बच्चों को खूब शाबाशी देते थे।

 मुनव्वर राना

 तबरेज़ बताते हैं-‘वर्ष 1996 में शाहरूख़ ख़ान की एक फिल्म आयी थी। उसी समय चुनार में मुशायरा था। पिताजी ने हमसे पूछा कि मुशायरा में चलोगे या फिल्म देखने जाओगे ? मैंने फिल्म देखने की इच्छा ज़ाहिर की। इस पर बोले-तुम बेकार लड़के हो।’ इस घटना से मेरे उपर काफी असर पड़ा, फिर मैंने उनकी किताबें और घर में रखी दूसरे शायरों की किताबें पढ़नी शुरू की। धीर-धीरे शायरी में दिलचस्पी बढ़ी।’ शायरी से संबंधित अपने ज़्यादातर काम मुनव्वर राना रात 10 बजे के बाद करते थे। तबरेज़ बताते हैं कि अक्सर रात 11 बजे के बाद मुझे बुलाकर कहते- ‘चाय पियोगे’, मेरे ‘हां’ कहने पर बोलते-तो फिर दो कप चाय बनाओ, दोनो लोग पीते हैं। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी किताब भेंट करते मुनव्वर राना। (फोटो गूगल से साभार)

 अपने इंतिक़ाल से ठीक पहले मुनव्वर राना बीमारी की हालत में अस्पताल में भर्ती थे। उनका मोबाइल तबरेज़ से खो गया। इसके बाद डर के मारे वे अपने पिता के सामने नहीं आ रहे थे। धीरे से अपनी मां को बता दिया था कि पापा का मोबाइल खो गया है। पूरा दिन बीत गया, तबरेज़ अपने पिता के सामने नहीं आये तो उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा की तबरेेज़ कहां है? उन्होंने बताया कि मोबाइल खो जाने के डर से आपके सामने नहीं आ रहा है। इस पर उन्होंने तबरेज़ को बुलाया और कहा-‘अगर मोबाइल नहीं खोता तो मैं समझता कि तुम एक नालायक बेटे हो। पिता की बीमारी की हालत में तुम्हारा सारा ध्यान मोबाइल पर होना तुम्हारे नालायक होने का सुबूत होता। लेकिन अपने पिता की देख-रेख और इलाज़ में तुम इतने मशरूफ़ रहे कि मोबाइल खो गया। तुम नालायक बेटे नहीं हो।’

 तबरेज़ बताते हैं कि पिताजी अपने पोता उमर से बहुत प्यार करते थे। इंतिक़ाल से ठीक पहले जब मुनव्वर राना साहब अस्पताल में थे, आखि़री वक़्त था। उसी वक़्त उन्होंने तबरेज़ की तरफ़ हाथ हिलाकर ‘टा-टा’ किया। उनका इशारा था कि अब मैं इस दुनिया से जा रहा हूं। इस इशारे पर तबरेज़ ने कहा कि कैसी बात करते हैं, ज़रा सोचिए उमर का क्या होगा आपके बिना। यह कहकर तबरेज़ ने उमर को फोन लगाकर मुनव्वर राना के कान के पास मोबाइल लगा दिया। मुनव्वर ने कहा- कैसे हो उमर, तुम्हारे दादू तो अब मर रहे हैं।’ उमर ने रोनी सी आवाज़ में उनसे बात की थी।

 मुनव्वर राना जितने बड़े शायर थे, उतने हीे दिलचस्प इंसान भी थे। कई बार ऐसा भी हुआ, जब मैं टीम गुफ़्तगू के लोगों को लेकर लखनऊ उनके ढींगरा अपार्टमेंट स्थित आवास पर गया और घंटों हमलोग उनकी बात सुनें। कई बार उनके साथ खाना भी खाये।

मुनव्वर राना के इंतिक़ाल के बाद उनकी मिट्टी में शामिल मशहूर गीतकार जावेद अख़्तर

कुल मिलाकर मुनव्वर राना हमारे दौर के ऐसे शायर रहे हैं, जिनकी मक़बूलियत सर चढ़कर बोलती थी। जबकि मुनव्वर राना के अलावा बशीर बद्र, राहत इंदौरी, निदा फ़ाज़ली, शह्रयार, वसीम बरेलवी और बेकल उत्साही जैसे बड़े शायर भी हमारे ही दौर के हुए हैं, जिन्होंने ख़ासकर मुशायरों के मंच पर ख़ास मक़बूलियत हासिल की है। लेकिन इन सबमें से मुनव्वर राना इसलिए अलग हो जाते हैं कि ये आम आदमी के शायर थे। एक आम आदमी जिसको शायरी में कोई दिलचस्पी नहीं है, वह भी मुनव्वर राना का नाम ज़रूर जानता है। अब तक के सभी शायरों की बात की जाए तो ग़ालिब के बाद मुनव्वर राना ही ऐसे अकेले शायर हैं, जिनका नाम आम आदमी भी जानता है। जिस प्रकार ग़ज़ल की शायरी के लिए मीर तक़ी मीर को ग़ालिब से भी बड़ा शायर माना जाता है, लेकिन आम जनता में ग़ालिब ज़्यादा मक़बूल हैं। 

 इसी तरह हमारे दौर में मुनव्वर राना से बड़ा शायर बशीर बद्र को माना जाता है, लेकिन आम जनता में मुनव्वर की मक़बूलियत बशीर बद्र से कहीं ज़्यादा है। इसलिए मुनव्वर की अलग पहचान बनती है। मुनव्वर की एक अलग पहचान यह भी है कि इनके यहां पारंपरिक उर्दू शायरी से हटकर अलग तरह के बिंब दिखाई देते हैं। मुनव्वर से पहले आमतौर पर उर्दू शायरों के यहां गुले-बुलबुल, माशूक़ा और राजा-महाराजाओं की जी-हुजूरी ही दिखाई देती है। भारत में वली दकनी से शुरू हुई उर्दू शायरी में ख़ासकर ग़ज़ल शायरी एक कमरे की शायरी की तरह रही है। उर्दू शायरों ने माशूक़ा की प्रसंशा और राजाओं की जी-हुजूरी के बाहर कुछ ख़ास शायरी नहीं की है। इनको पढ़ने से लगता है कि उर्दू शायरी की विषय-वस्तु बहुत ही सीमित रही है। इसके विपरीत मुनव्वर के यहां समाज के लगभग हर पहलू पर बात करती हुई शायरी नज़र आती है।

मुनव्वर राना के लखनउ स्थित अवास परं बाएं से सिद्धार्थ पांडेय, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, मुनव्वर के बेटे तबरेज़ राना, और आसिफ़ उस्मानी।


‘मां’ भी शायरी की विषय वस्तु हो सकती है, यह मुनव्वर ने ही सिख़ाया है। आज हिन्दी-उर्दू का लगभग हर शायर ‘मां’ की शान में शायरी करता हुआ नज़र आता है, यह रास्ता मुनव्वर राना का ही दिखाया हुआ है। ‘मां’ के साथ-साथ भी समाज के अन्य जितने भी विषय हो सकते हैं, लगभग सभी पर मुनव्वर ने शेर कहा है। सिर्फ़ शेर कहा ही नहीं है बल्कि नये-नये मायने भी पैदा कर दिये हैं। मुशायरों के मंच  पर भी उनकी एक अलग स्टाइल और पहचान थी। आमतौर पर दूसरे शायर मंच पर आकर तरह-तरह की अदायें दिखाते हैं, तरन्नुम से लोगों का ध्यान खींचना चाहते हैं, दाद पाने के लिए तरह-तरह की जी-हुजूरी भी करते हैं। लेकिन मुनव्वर राना ने यह काम कभी नहीं किया। वे माइक पर आकर सीधा-सीधा अपना कलाम पेश करते थे। अपने कलाम के ज़रिए ही श्रोताओं की वाहवाही बटोरते थे।

(गुफ़तगू के जुलाई-सितंबर 2024 अंक में प्रकाशित )


बुधवार, 30 अप्रैल 2025

‘ऊर्ध्व-रेता‘ में है भागवत गीता के भाव: लालजी शुक्ल

टीपी मिश्र की पुण्यतिथि पर डॉ. वीरेंद्र तिवारी की पुस्तक का विमोचन



प्रयागराज। डॉ. वीरेंद्र कुमार तिवारी हमारे शहर के बहुत ही उल्लेखनीय और प्रतिभावान गीतकार हैं। इन्होंने अपनी पुस्तक ‘ऊर्ध्व-रेता‘ में मानव जीवन के सही मूल्न्यों का वर्णन शानदार तरीके से किया है। इस पुस्तक के गीतों में श्रीमद्भागवत गीता के भाव स्पष्ट रूप से सामने आते दिखाई दे रहे हैं। पुस्तक का शीर्षक बहुत ही दिव्य है, इसमें संपूर्ण मानवता के कल्याण की चीज़े स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। यह बात 21 अप्रैल की देर शाम ‘गुफ़्तगू’ और ‘डाक मनोरंज क्लब’ की तरफ से सिविल लाइंस स्थित प्रधान में आयोजित विमोचन कार्यक्रम के दौरान पूर्व एसएसपी लालीजी शुक्ल ने कही।

ि गुफ़्तगू के अध्यक्ष डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने कहा कि डॉ. वीरेंद्र तिवारी एक शानदार और उल्लेखनीय गीतकार हैं, जो पूरे देश में आज प्रयागराज का प्रतिनिधित्व अपने शानदार गीतों के माध्यम से करते हैं। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में मीडिया स्टडी के कोआर्डिनेटर डॉ. धनंजय चोपड़ा ने कहा कि डॉ. वीरेंद्र तिवारी ने अपने गीतों के माध्यम से समाज को उल्लेखित करने का बहुत साहसिक कार्य किया है। ऐसी किताबों का हमारे समाज में हमेशा ही स्वागत किया जाएगा। सहायक डाक अधीक्षक मासूम रज़ा राशदी ने कहा कि डॉ. तिवारी की यह किताब सदियों तक याद रखी जाएगी। गुफ़्तगू के सचिव नरेश महरानी ने कहा कि यह किताब हमारे समय की ख़ास उपलब्घि है। कार्यक्रम की अघ्यक्षता कर रही डॉ. सरोज सिंह ने कहा कि यह पुस्तक योग दर्शन, अध्यात्म, प्रेम और समर्पण का बेहरतरीन उदाहरण हैं। पुस्तक की एक-एक रचना उल्लेखनीय है। राजेश वर्मा, प्रमोद राय, सुभाष पांडेय, नरोत्तम लाल त्रिपाठी, हरीश चंद्र ़िद्ववेदी, आशीष चटर्जी,, प्रमोद मिश्र, प्रभाशंकर शर्मा और शैलेंद्र जय ने भी विचार व्यक्त किए। संचालन मनमोहन सिंह तन्हा ने किया।

दूसरे दौर में कवि सम्मेलन-मुशायरा का आयोजन किया गया। शिवाजी यादव, मंजुलता नागेश, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’, अर्पणा सिंह, विभु कुमार, डॉ. संतोष कुमार मिश्र, डॉ. पूर्णिमा पांडेय, अजीत शर्मा ‘आकाश’ राकेश मालवीय और प्रदीप चित्रांशी आदि ने काव्य पाठ किया।


सोमवार, 28 अप्रैल 2025

अलौकिक कल्पना लोक की विलक्षण कहानी

                                                             - अजीत शर्मा ‘आकाश’


                               

  साहित्य अकादेमी पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, इक़बाल सम्मान और पद्मश्री से विभूषित शम्सुर्रहमान फ़़ारूक़ी हमारे समय के महान लेखकों में से एक हैं। जिन्हें प्रमुखतया उर्दू में तनक़़ीद (आलोचना लेखन) के लिए जाना जाता है। निस्सन्देह वह एक उच्च कोटि के आलोचक थे। अपने जीवन के कई दशकों तक वह उर्दू में तनक़ीद (आलोचना लेखन) के  क्षेत्र में लेखन-रत रहे। इस क्षेत्र में उच्चतम शिखर पर पहुंचने के उपरान्त उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम कुछ दशकों में कहानी-लेखन प्रारम्भ किया। इस क्रम में ‘सवार और दूसरी कहानियां’ ‘कई चांद थे सरे आसमां’, ‘क़ब्ज़-ए ज़मां’ के उपरान्त अभी लॉकडाउन के दौरान उन्होंने ‘फ़ानी बाक़ी’ नाम की लम्बी कहानी उन्होंने लिखी। इसके माध्यम से उन्होंने प्राचीन हिंदू, बौद्ध, जैन, यूनानी, और सीरियाई देवमाला तथा पौराणिक मिथकों का इस्तेमाल करते हुए एक ऐसी कहानी की संरचना की, जिसके अन्तर्गत जीवन और अस्तित्व के विषय में नवीन प्रश्न उठाये गये हैं।

 ‘फ़ानी बाक़ी’ कहानी फ़ारुक़ी साहब की अन्य कहानियों से अलग है। इसकी विषय वस्तु के अन्तर्गत लेखक ने एक विलक्षण कल्पनालोक की रचना की है। जिसके सौन्दर्य एवं उसकी गहराई की अनुभूतियों में पाठक खो-सा जाता है। पाठक के मन के तार कथानक के साथ स्वयमेव जुड़ते चले जाते हैं और वह एक विचित्र से भावनालोक में विचरण करने लगता है। कहानी का मुख्य उद्देश्य मनुष्य के अन्तस में निहित मुक्ति की आकांक्षा को स्वरूप प्रदान करना है। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने ब्रह्माण्ड-विज्ञान के रहस्य की पर्तों की काल्पनिक दुनिया का ताना-बाना बुनने का प्रयास किया है। इस कहानी के मूल में जाने पर प्रतीत होता है कि यह सातवीं शताब्दी के संस्कृत ग्रन्थ ‘योग वशिष्ठ’के सिद्धान्तों पर आधारित है। इसके अतिरिक्त इक़़बाल की शायरी से भी प्रभावित प्रतीत होती है। इसके साथ ही केरल के लगभग दो हज़ार साल पुराने रंगनृत्य कलारूप कूडियाट्टम की झलक भी इसमें समाहित है। इस प्रकार लेखक ने ऐसी विलक्षण कहानी का सृजन किया है, जो अत्यन्त रोचक एवं मानवीय विचारों को जाग्रत करती हुई प्रतीत होती है। कहानी के अन्तर्गत उठायी गयी बहुत-सी बातें आधुनिक मनुष्य की वैचारिक उलझनों और आन्तरिक ऊहापोह को इंगित करती हैं तथा सोचने के लिए प्रेरित करती हैं। लेखक के अनुसार हिमालयी बुद्ध मत में प्रचलित ‘ब्रह्माण्ड-विज्ञान’ की बात करने वाली एरिक हंटिंग्टन की पुस्तक ‘क्रिएटिंग दि यूनिवर्स, डिपिक्शन ऑफ़ दि कॉस्मॉस इन हिमालयन बुद्धिज़्म’इस कहानी की प्रेरणा स्रोत है। इस कहानी को गति देने में इक़बाल का बहुत-सा कलाम नुमायाँ हैसियत रखता है। पुस्तक में लेखक पाठकों से वार्तालाप करता हुआ कहता है कि-‘‘‘लेकिन मुझे तो लिखना वही था जिसकी आवश्यकता मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में थी। कई बैठकों में यह कहानी पूरी हुई। अब जैसी भी है, आपके सामने है।“ लेखक के अनुसार इस कहानी में बहुत कुछ उनका गढ़ा हुआ है। उनका कथन है कि जिस तरह से भी पढ़ें, यह कहानी ही है, कहानी के सिवा और कुछ नहीं।

 ब्रह्माण्ड-विज्ञान को आधार बनाकर अत्यन्त प्रवाहमयी भाषा एवं रोचक शैली में लिखी गयी यह कहानी निश्चित रूप से पठनीय, विचारणीय, सराहनीय एवं संग्रहणीय है। मूल रूप से उर्दू (अरबी) लिपि में लिखी हुई यह कहानी फ़ारूक़ी साहब की अन्तिम कृति है, जिसका देवनागरी में लिप्यन्तरण तथा कहीं-कहीं हिन्दी अनुवाद शुभम मिश्र ने किया है। उर्दू न जानने वाले हिन्दी पाठकों के लिए यह एक दुर्लभ संग्रह है। पुस्तक के अन्त में लेखक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी के अधूरे उपन्यास ‘गोमती की महागाथा’ के कुछ पन्ने दिये गये हैं। जिससे पाठकों को यह अहसास हो सके कि फ़ारूक़ी साहब जैसा महान् उपन्यासकार किस तरह अपने उपन्यास की शुरूआत करता है। इनका हिन्दी अनुवाद रिज़वानुल हक़ ने किया है। पुस्तक का मुद्रण एवं अन्य तकनीकी पक्ष श्रेष्ठ है। कवर पृष्ठ पर लेखक की फ़ोटो है। सेतु प्रकाशन की इस पुस्तक का पेपर बैक संस्करण 94 पृष्ठों का है, जिसका मूल्य 160 रूपये है।


दिलीप कुमार की अभिनय यात्रा का दस्तावेज़

 


‘ट्रेजडी किंग’ कहे जाने वाले अभिनय सम्राट दिलीप कुमार के सौंवें जन्मदिवस के अवसर पर विख्यात साहित्यकार प्रबोध कुमार गोविल की पुस्तक ‘साहेब सायराना’ का प्रकाशन किया गया। इस पुस्तक में दिलीप कुमार की जीवन संगिनी एवं प्रख्यात अभिनेत्री सायराबानो की दृष्टि से उनकी जीवन-गाथा को प्रस्तुत किया गया है, जिसके कारण पुस्तक का शीर्षक “साहेब सायराना” रखा गया है। सायरा जी अपने पति दिलीप साहेब को ‘साहेब’ कहकर सम्बोधित करती थीं। इस दृष्टि से भी पुस्तक का शीर्षक “साहेब सायराना“ अत्यन्त सटीक बैठता है। सन् 1944 में फ़िल्म ‘ज्वारभाटा’से अपनी अभिनय यात्रा प्रारम्भ कर सिनेप्रेमियों को अंदाज़, पैग़ाम, उड़न खटोला, अमर, मधुमती, मुग़ले आज़म, कोहिनूर और गंगा जमना जैसी अपने समय की एक से बढ़कर एक बेहतरीन फ़िल्में देने वाले अभिनय सम्राट दिलीप कुमार के जीवन-कथा पर आधारित एक जीवनी परक उपन्यास है। इससे पूर्व भी गोविल जी अपने समय की लोकप्रिय अभिनेत्री साधना और दीपिका पादुकोण की जीवनी पर आधारित पुस्तकें भी लिख चुके हैं।

      कथाक्रम के अनुसार पुस्तक को 40 छोटे-छोटे भागों में विभक्त कर अत्यन्त रोचक ढंग से कालजयी अभिनेता दिलीप कुमार की अभिनय-यात्रा का विवरण प्रस्तुत किया गया है। “साहेब सायराना“ पुस्तक दिलीप कुमार एवं स्वाभिमानी सायराबानो की कहानी है। लेखक के अनुसार यह कहानी है जिन्दगी की, मोहब्बत की, जिंदादिली की। यह कहानी एक ऐसे व्यक्ति के विषय में है जिसने अपनी पूरी जिन्दगी जवानी में ही गुजारी। दिलीप कुमार ने अपने समय की लगभग हर अभिनेत्री के साथ काम किया। सायराबानो जीवन भर अपने साहेब की फ्रेंड, फिलॉस्फर और गाइड बनी रहीं। भारतीय फिल्म जगत की ये एक अनूठी मिसाल है। दिलीप कुमार को ’ट्रेजडी किंग’ऐसे ही नहीं कहा गया। वे दुखद और गम्भीर फिल्मों के लिए ज़बरदस्त तैयारी करते थे। उन्हें ’अभिनय सम्राट’ कहा गया, वे मुम्बई के शेरिफ बने और कुछ समय के लिए देश के सर्वाेच्च सदन राज्यसभा के सदस्य भी रहे। दिलीप कुमार की हाजिर जवाबी के भी बहुत किस्से हैं। लेखक के अनुसार सिने कलाकारों के वास्तविक जीवन में भी कई ऐसी विलक्षण बातें होती हैं जो नई पीढ़ी को जाननी चाहिए। वस्तुतः फिल्मी दुनिया के चरित्रों पर लिखना सहज और सबके वश की बात नहीं है क्योंकि इस दुनिया में जो दिखता है,वह होता नहीं और जो होता है, वह दिखता नहीं।

      पुस्तक में प्रयुक्त की गयी भाषा सीधी-सरल बोलचाल की आम भाषा है। सम्पूर्ण उपन्यास अत्यन्त सधी हुई एवं प्रवाहमयी भाषा तथा रोचक शैली में लिखा गया है। इनकी लेखन-शैली रोचक एवं प्रवाहयुक्त होती है, जो कथानक के साथ पाठकों को पूरी तरह से जोड़े रहती हैं। पुस्तक का मुद्रण एवं अन्य तकनीकी पक्ष उच्चकोटि का है। स्तरीय लेखक एवं स्तरीय प्रकाशन की इस पुस्तक में त्रुटियां दृष्टिगत नहीं होती हैं। कवर पृष्ठ आकर्षक है। बोधि प्रकाशन, जयपुर द्वारा प्रकाशित 124 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 150/- रूपये है।



 
रचनाधर्मिता एवं सृजनात्मकता का सार्थक प्रयास

 


 ग़ज़ल एक विशेष प्रकार की काव्य-विधा है, जो फ़ारसी से होती हुई उर्दू एवं अब हिन्दी में आयी है। हिन्दी में ग़ज़ल लेखन दुष्यन्त कुमार के संग्रह ‘साये में धूप’ से लोकप्रिय हुआ है। इसी संग्रह के पश्चात् रचनाकारों ने ग़ज़ल लेखन प्रारम्भ किया और अब नित नये ग़ज़ल-संग्रह प्रकाश में आ रहे हैं, जिनमें से अधिकतर रचनाएं ग़ज़ल की श्रेणी में नहीं आती हैं। इसके बावजूद, ग़ज़ल-लेखन के प्रति ईमानदारी से सक्रिय रहने वाले रचनाकार अच्छी ग़ज़लें कह रहे हैं। इस दृष्टि से दीपाञ्जली दुबे ‘दीप’ ने अपने लेखन में सजगता एवं सतर्कता का परिचय प्रदान किया है। ‘आंख का पानी’  पुस्तक में इनकी 92 ग़ज़लें संग्रहीत हैं। ग़ज़ल का स्वरूप एवं उसके शिल्प के अनुसार लेखन का प्रयास किया गया है। इस प्रयास में काफ़ी हद तक वह सफल भी रही हैं। कथ्य की दृष्टि से संग्रह की ग़ज़लें प्रेम, श्रृंगार एवं विरह के भावों से युक्त हैं। इसके साथ ही वर्तमान समाज का चित्रण एवं जीवन के विविध पहलुओं पर भी रचनाकार की लेखनी चली है। कुछ ग़ज़लों के उल्लेखनीय अशआर इस प्रकार हैं - “अमीरी गरीबी में क्या फर्क है अब/परेशान दिखता मुझे हर बशर है।, ‘अरे नादान लोगो बेटियों के भ्रूण मत मारो/यही सीता यही राधा हुआ इनसे उजाला है।’, ‘जगा दे जो जन-जन को अपनी क़लम से/क़लमकार वो ही असरदार होगा।’

  शायरा ने ग़ज़ल के शिल्प को बचाये रखने का पूरा प्रयास किया है। फिर भी ग़ज़ल व्याकरण की दृष्टि से कुछ रचनाओं में ऐब (दोष) भी हैं। उदाहरणार्थ कई स्थानों पर ऐबे तनाफ़ुर, तक़ाबुले रदीफ़, ऐबे शुतुरग़ुर्बा जैसे दोष हैं। इसके अतिरिक्त अनेक मिसरों में यारो, कभी भी, सनम, अजी, प्यारे जैसे भर्ती के शब्दों का प्रयोग किया गया है, जो ग़ज़लों में नहीं होना चाहिए। भाषा व्याकरण की दृष्टि से अनेक शब्दों की वर्तनी अशुद्ध है, यथा- बज़ार, ज़िगर ,शिवा, सदाँ, मसहूर, सिरक़त, शुकून आदि। अनुस्वार के अशुद्ध प्रयोग की तो भरमार है। बावजूद इन सब के, शायरा की रचनाधर्मिता एवं सृजनात्मकता की दृष्टि से ग़ज़ल संग्रह सराहनीय है। अच्छी श्रेणी के लेखन के लिए भविष्य में शायरा को भाषा सम्बन्धी त्रुटियों एवं अशुद्धियों के प्रति सतर्क एवं सजग रहना होगा। 112 पृष्ठों की इस सजिल्द पुस्तक का मूल्य 320 रुपये है, जिसे भारतीय साहित्य संग्रह, कानपुर ने प्रकाशित किया है।

 

प्रेम, विरह और श्रृंगार की कविताएं



 डॉ. मधुबाला सिन्हा की पुस्तक ‘बंधन टूटे न’ में उनकी 51 कविताएं संग्रहीत हैं। इनमें से अधिकतर रचनाओं में  प्रेम, विरह और श्रृंगार को मुख्य विषय बनाया गया है, जिनके माध्यम से प्रणय, मिलन, बिछोह, शिकवा और शिकायतों को वर्णित किया गया है। इस कविता-संग्रह में मन की भावनाओं के कई रूप दर्शाये गये हैं, जिनकी पूर्ण अभिव्यक्ति करने का प्रयास किया गया है। कविताओं के माध्यम से प्रणय से उपजे संत्रास, घुटन, वेदनाओं एवं अनुभूतियों को शब्द प्रदान किये गये हैं। पुस्तक का शीर्षक ‘बंधन टूटे न’कवयित्री के मनोभावों को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। कविताओं में विषम परिस्थितियों में भी जीवन का सन्देश प्रदान करने का प्रयास किया गया है। पुस्तक में संग्रहीत कुछ कविताओं के उल्लेखनीय अंश प्रस्तुत हैं- ‘चलो चलें हम उस दुनिया में/जहां न होगा कोई भेद/प्रीत की राह बने मंज़िल अब/रह न पाएगा कोई खेद।’, ‘हमारे घर के दरवाजे तो/खुले ही ही रहते हैं/ऐसी क्या फिर बात हुई तूने/बन्द किए अपने दरवाजे ?’

  शिल्प की दृष्टि से पुस्तक में संग्रहीत कविताएँ छन्दहीनता, लयभंग एवं काव्यानुशासन के अभाव की शिकार हैं। कविताओं को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि रचनाकार को काव्य व्याकरण एवं छन्द शास्त्र की सम्यक् जानकारी नहीं है। उदाहरणार्थ, ‘बन्धन टूट न जाए साथी/कोई ऐसा जतन कर लो/एक बार जो बन गया रिश्ता/फिर वह टूट नहीं सकता।’(पृ. 37) जैसी पंक्तियों में लयात्मकता एवं गेयता का नितान्त अभाव है। ध्यातव्य है कि साहित्यिक सृजन हेतु रचनाकार को काव्य व्याकरण एवं भाषा व्याकरण का सम्यक् ज्ञान निश्चित रूप से होना चाहिए। इन सबके बावजूद महिला-लेखन के क्षेत्र में कवयित्री के प्रयास एवं रचनाशीलता को सराहनीय कहा जाएगा, जो रचनाकार की सृजनात्मकता का द्योतक है। कहा जा सकता है कि संकलन की रचनाएं मनोभावों को व्यक्त करने में काफ़ी हद तक सफल रही हैं। देवसाक्षी पब्लिकेशन, राजस्थान द्वारा प्रकाशित 116 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 170 रुपये है।

 चुनिन्दा अशआर की बानगी बेहद ख़ास



  हाल ही में पुस्तक ‘डॉ. मधुबाला सिन्हा के चुनिन्दा अशआर’ प्रकाशित हुई है। इसमें डॉ सिन्हा के चुनिन्दा अशआर संग्रहित हैं। आमतौर पर अधिकतर हिन्दी और उर्दू के रचनाकार ग़ज़ल का सृजन कर रहे हैं। मगर किसी भी बड़े से बड़े शायर या कवि की ग़ज़लों के सभी अशआर अच्छे नहीं होते। मीर, ग़ालिब, अकबर या सूर, रहीम, तुलसी आदि हमारे अहद के बड़े शायर और कवि हैं। जब भी बड़ी शायरी की बात हम करतें हैं, तो इनकी नज़ीर पेश करते हैं, मगर इनकी भी सारी रचनाएं बहुत अच्छी नहीं हैं। इन लोगों ने जो लेखन किया है, उनमें बहुत सी रचनाएं कालजयी हैं, मगर सारी रचनाएं कालयजी नहीं हैं। इसी तरह आज के शायर जो ग़ज़लें लिख रहे हैं, इनकी ग़़ज़लों के सभी अशआर अच्छे नहीं होते। कई बार तो ऐसा भी होता है कि एक-दो अच्छे अशआर हो जाने पर एक ग़ज़ल पूरी करने के लिए भर्ती के कई शेर कहने पड़ते हैं। ऐसे में पाठक के सामने जब ग़ज़ल आती तो वह एक-दो अच्छे अशआर के बाद बाक़ी के अशआर को पढ़कर बोरियत का एहसास करता है। कहने का आशय यह है कि आज के भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी में लोगों के पास इतना समय नहीं है कि वह आपके भर्ती के ऊबाउ शेर पढे।

 पाठक के इस पक्ष को ही ध्यान में रखकर अलग-अलग ग़ज़लों के चयनित अशआर को एक साथ एकत्र करके प्रकाशित करने की कोशिश की गई है। कोशिश यह रही है कि पाठकों के सामने चुनिंदा अशआर प्रस्तुत किए जाएं, जिन्हें पढ़कर आनंद का अनुभव करे और समाज की मौजूदा हालात से रूबरू हो। मौजदूा दौर की कवयित्री अपनी शायरी के ज़रिय समाज को सचेत करने का काम रही हैं, अपने अनुभवों से लोगों को सचेत करते हुए अच्छे काम करने की प्रेरणा दे रही हैं। इस किताब में तमाम उल्लेखनीय अशआर हैं। बानगी स्वरूप कुछ अशआर इस प्रकार हैं-उदासी, शाम, तन्हाई, कसक यादों की बेचैनी/मुझे सब सौंपकर सूरज उतर जाता है पानी में’, ‘हर चीज़ तो बदली हुई अच्छी लगती है/पर प्यार पुरानी ही सदा अच्छी लगती है।’ इस तरह डॉ. मधुबाला सिन्हा की इस पुस्तक में ढेर सारे अशआर हैं, जिसे शायरी में दिलचस्पी लेने वाले लोग एक बार ज़रूर पढ़ना चाहेंगे। मूलतः हिन्दी भाषी होने के बावजूद डॉ. सिन्हा ने ग़ज़ल की परंपरा को अपने तौर पर समझने और उसमे डूब जाने का भरसक प्रयास किया है। ऐसे प्रयासों को छूरी और चाकू दिखाने के बजाए प्रशंसा की नज़र से देखे जाने की आवश्यकता है। 32 पेज की इस किताब को गुफ़्तगू पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है, जिसकी कीमत 40 रुपये है।


(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2024 अंक में प्रकाशित )


रविवार, 20 अप्रैल 2025

पत्रकारिता के शलाका पुरूष विजय कुमार

                                                                                - अमरनाथ तिवारी अमर 

                                                  

  स्मृति शेष विजय कुमार जी का जन्म ग़ाज़ीपुर जनपद के नारी पचदेवरा गांव में एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम लक्ष्मण यादव और माता का नाम दुखंति देवी था। प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही प्राथमिक विद्यालय में हुई। मीडिल की परीक्षा बरहापुर से उत्तीर्ण की। वर्ष 1949 में हाईस्कूल विक्रोली स्कूल, ग़ाज़ीपुर से, इंटरमीडिएट 1952 में गर्वमेंट हायर सेकंडी स्कूल कानपुर से और 1966 में काशी विद्यापीट वाराणसी से शास्त्री किया।

विजय कुमार 


  विद्यार्थी जीवन से ही इनकी रुचि राजनीति और पत्रकारिता में थी। 1948 से 1962 तक इन्होंने क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में कार्य किया। विभिन्न जनपदों में प्रयास कर जिम्मेदारी उन्मूलन के विरू़द्ध चलने वाले आंदोलनों में हिस्सा लिया। किसानों और मजदूरों के हक़ के लिए मजदूर आंदोलन में भाग लिया, जेल गए। 1946-47 में जमींदारी उन्मूलन के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. गोविंद बल्लभ पंत के ग़ाज़ीपुर आगमन पर उनकी गाड़ी रोक दी थी। इसके लिए उनके खिलाफ़ निरूद्ध करने का वारंट जारी हुआ। इस मामले में कुछ दिन फरारी के बाद गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए। वष 1954-55 में बालरूप शर्मा के साथ कानपुर में सूती मिल, जूट मिल के मजदूरों की समस्याओं को लेकर चल रहे आंदोलनों में इन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई थी। उसी दौरान धरना देते समय इन्हें इनके सात साथियों के साथ गिरफ्तार करके कानपुर जेल भेज दिया गया। वहां के तत्कालीन जेलर से कुछ मुद्दों पर इनकी ठन गई। जेलर के इनके पैरों में बेड़ी डलवा दी, लेकिन ये झुके नहीं, अपनी मांगों पर अड़े रहे। कुछ दिनों बाद कानपुर जेल से बरेली केंद्रीय जेल भेज दिया गया। बाद में ये रिहा होकर ग़ाज़ीपुर आ गए।

 वर्ष 1956-57 में ग़ाज़ीपुर में भयंकर सूखा पड़ा। किसानों की समस्याओं को लेकर हुए प्रदर्शन के दौरान धारा 144 का उल्लंधन करने पर इन्हें 15 दिन की सजा और 16 रुपये अर्थदंड की सजा सुनाई गई। अर्थदंड न जमा करने पर चार दिन की सजा और भुगतनी थी। 15 दिन की सजा पूरी करने के उपरांत परिवार में किसी के निधन हो जाने के कारण यह पेरोल पर छूटे थे। बाद में 16 रुपये जुर्माना न देकर ये जेल जाने के लिए मजिस्टेट के समक्ष प्रस्तुत हुए। इनके शुभचिंतकों ने 16 रुपये जमा करने के लिए कहा, किंतु इन्होंने जेल जाना ही पसंद किया। कहा कि अर्थदंड जमा करने से समाज में संदेश ठीक नहीं जाएगा, आंदोलन कमजोर पड़ जाएगा।

 आरएसपी में सक्रिय रहते हुए विजय कुमार वर्ष 1955-56 से पत्रकारिता से भी जुड़ गए थे और 1962 में विधानसभा का चुनाव भी लड़े थे। पत्रकारिता से जुड़कर इन्होंने वृहद स्तर पर गांव में भ्रमण किया। गांव की पूरी समस्याओं को प्रमुखता से उजागर करने लगे। इनकी आंचलिक पत्रकारिता चर्चा में आई। वर्ष 1958 में ये ‘आज’ दैनिक समाचार-पत्र के ग़ाज़ीपुर के संवाददाता बने। बाद में ये दैनिका ‘जनवार्ता’ से भी जुड़े। इन्होंने समाचार रिपोर्टिंग के साथ फोटो फीचर भी प्रारंभ किया। ‘ज़िन्दगी की राहें’ और ‘तलाश अपनी-अपनी’ के फीचर को बहुत प्रशंसा मिली। ये दोनों फीचर काफी चर्चा में रहे। वर्ष 1968 में इन्होंने अपना साप्ताहिक समाचार ‘ग़ाज़ीपुर समाचार’ का प्रकाशन शुरू किया। तमाम उतार चढ़ाव के बाद भी यह समाचार-पत्र  आज भी प्रकाशित हो रहा है। इनके निधन के इनके सुपुत्र संजय कुमार अपनी सम्पादकत्व में इसकी निरंतरता बनाए हुए हैं।

  विजय कुमार को कई स्तंभों और पुरस्कारों से सम्मानित और पुरस्कृत किया गया है। इनमें वर्ष 1977 में चंदकुमार मीडिया फाउंडेशन वाराणसी द्वारा ‘आंचिलक पत्रकारिता पुरस्कार’ वर्ष 2006 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ‘यश भारती सम्मान’ वर्ष 2013 में अहिप चेतना समाज, ग़ाज़ीपुर द्वारा ‘ग़ाज़ीपुर गौरव सम्मान’ प्रमुख है। 11 सितंबर 2013 को इनका निधन हो गया। लेकिन इनकी स्मृतियां आज भी लोगो के मानस पटल पर अंकित हैं।


( गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2024 अंक में प्रकाशित )


सोमवार, 14 अप्रैल 2025

 18 अप्रैल 1948 से छपना शुरू हुआ  अमर उजाला

डोरीलाल अग्रवाल और मुरारी लाल माहेश्वरी हैं इसके संस्थापक

बरेली शहर के एक छोटे से दफ़्तर से शुरू किया गया इसका कार्य


                                                                               - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी


 

हिन्दी अख़बारों में अमर उजाला अपने अलग तेवर और अंदाज़ के लिए जाना जाता है। प्राय: माना जाता है कि इस अख़बार की ख़बरें तथ्यात्मक होने के साथ-साथ निष्पक्ष होती हैं। यही वजह है कि इसने पाठकों के बीच अपनी अलग पहचान बनाई हैै। इस अख़बार का प्रकाशन 18 अप्रैल 1948 को उत्तर प्रदेश के बरेली शहर से शुरू हुआ। अमर उजाला का जन्म राजनैतिक क्रांति और राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि से हुआ। जब प्रकाशन शुरू हुआ तो पहले दिन अमर उजाला की 1200 प्रतियां बिक गई थीं, अख़बार मात्र चार पेज का ही प्रकाशित हुआ था। डोरी लाल अग्रवाल और मुरारी लाल माहेश्वरी ने इसके प्रकाशन की शुरूआत की थी। अख़बार दूसरे के यहां प्रेस में छपना शुरू हुआ, तब अपनी प्रिटिंग मशीन नहीं थी। कुछ ही दिनों में अख़बार की तीन हजार प्रतियां छपने लगीं। इसका प्रसार संपूर्ण ब्रज क्षेत्र के अलावा राजस्थान के भरतपुर और मुरैना तक हो गया। तब देश को आज़ाद हुए एक वर्ष भी पूरा नहीं हुए था। उस समय अंग्रेज़ी और उर्दू अख़बारों का ही बोलबाला था। स्वतंत्रता हासिल होने के साथ ही लाखों शरणार्थियों के आगमन और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या से जनित क्रोध के वातावरण में देश के राजनैतिक कार्यकर्ताओं और नवोदित अख़बारों की परीक्षा शुरू के वर्षों में ही ले ली गई थी। उस दौर में संस्थापक द्वय ने निर्णय लिया था कि हम अपने पाठकों को ख़बर की सच्चाई और तथ्यात्मकता से अपनी ओर आकर्षित करेंगे। बरेली के एक दफ़्तर में इसकी शुरूआत हुई थी। तब न ऑफसेट मशीन थी, न टेलीप्रिन्टर थी और न ही कंप्यूटर। प्रिंटिंग प्रेस में टाइप से कंपोज करके हाथ से छापा जाता था। एक-एक शब्द जोड़ना पड़ता था। इन सबके बीच 1949 में अमर उजाला ने अपना राष्ट्रीय स्वरूप बना लिया। इसके पत्रकार पूरे देश में फैले हुए थे। ये आज़ादी की लड़ाई से तपे हुए पत्रकार थे। आज अमर उजाला के अधिकतर दफ़्तरों में अत्याधुनिक मशीनें लग गई हैं, जिनसे प्रति घंटे 35,000 प्रतियां प्रकाशित हो रही है। 



  वर्ष 1948 में अमर उजाला टाइप से कंपोज होकर छोटी सी मशीन से छपता था, जिसमें मशीनमैन कागज़ निकालता था और पेपरमैन कागज़ लगाता था। कभी-कभी पेपरमैन की अनुपस्थिति में डोरी लाल जी खुद ही पेपर निकालते थे। मुरारी लाल जी देर रात प्रेस में अख़बार छप जाने के बाद घर जाते थे और अगले दिन दोपहर तक फिर ऑफिस आ जाते थे। अमर उजाला की अपनी छपाई की पहली मशीन 1950 में आगरा कार्यालय में लगी थी। शुरूआती दौर में अमर उजाला में सिर्फ़ स्थानीय स्तर के ही विज्ञापन छपते थे, लेकिन चंद वर्षों के भीतर अख़बार को इतनी अधिक शोहरत मिली कि हिंदुस्तान लीवर, टी बोर्ड और हरक्यूलिस मोटर जैसी कंपनियों के विज्ञापन छपने लगे। विज्ञापन छपने के आधार पर ही अख़बार की साख़ और पहुंच का अंदाज़ा लगाया जाता है।ं



 06 सितंबर 1949 को प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरु ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में भाषण दिया-‘हिन्दू राष्ट्र और हिन्दू संस्कृति का नारा निरर्थक है।’ तब अमर उजाला में छपा-‘छात्रों की एक आम सभा में पं. नेहरु ने दो घंटे भाषण दिया। मूसलाघार बारिश में भी छात्र पं. नेहरु का भाषण सुनते रहे और छात्र जमीन पर बैठे रहे।’ इस घटना से एक दिन पहले ही वाराणसी पहुंचे आरएसएस प्रमुख गोलवरकर के खिलाफ़ छात्र नारे लगा रहे थे, काला झंडा दिखा रहे थे। छात्रों पर जमकर लाठी चार्ज हुआ। अमर उजाला में ख़बर छपी-‘काले झंडे देखते ही गुरुजी नेहरु सरकार के सहयोग की अपील कर गए।’ 1950 में अमर उजाला में बिजली से चलने वाली मोनोटाइप मशीन आई, जो एक घंटे में ढाई सौ प्रतियां छापती थी।



 वर्ष 1971 में पाकिस्तान को हराने के बाद इंदिरा गांधी ‘दुर्गा’ बन गई थीं। लेकिन इसके कुछ दिनों बाद देश में इमरजेंसी लागू करके एकदम से खलनायिका बन गईं। देश में गिरफ्तारियां शुरू हो र्गइं और प्रेस सेंसरशिप लागू कर दिया गया। अख़बारों के दफ्तरों में अधिकारी बैठा दिए गए थे। बिना अनुमति के राजनैतिक ख़बरें नहीं छापी जा सकती थीं। तब अमर उजाला ने इमरजेंसी का विरोध करते हुए संपादकीय पेज खाली छोड़ दिया था। अक्तूबर 1994 में जब उत्तराखंड आंदोलन शुरू हुआ। उसी समय दिल्ली कूच कर रहे उत्तराखंड के आंदोलनकारियों पर पुलिस ने फायरिंग कर दिया, जिसमें 15 आंदोलनकारी शहीद हो गए थे। 



प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी। सरकार चाहती थी कि इस ख़बर को इस प्रकार प्रकाशित किया जाए कि घटना दब जाए। लेकिन अमर उजाला नहीं झुका, पूरी ख़बर बिना किसी दबाव के प्रकाशित हुई। इससे नाराज होकर मुलायम सिंह यादव ने 12 अक्तूबर 1994 को हल्लाबोल आंदोलन शुरू करा  दिया। समाजवादी पार्टी के लोग अख़बार की प्रतियां जलाने लगे। सरकारी विज्ञापन बंद कर दिए गए और कार्यालयों पर छापे पड़ने लगे। कर्फ्यू के बहाने अमर उजाल के वितरण पर भी रोक लगा दी गई। उस कठिन दौर में भी अमर उजाला दबा नहीं। सुदूर पहाड़ों में भी वाहनों में छिपाकर अख़बार के बंडल पहुंचाए जाने लगे थे। देखते-देखते विश्वसनीयता अमर उजाला की ट्रेड मार्क बन गई। इस तरह विभिन्न मरहलों से गुजरते हुए देश की पत्रकारिता जगत में अमर उजाला ने अपनी अलग पहचान बनी ली है।



  18 अप्रैल 1948 को आगरा से इस अख़बार की शुरूआत हुई थी। 17 जनवरी 1969 से बरेली, 12 दिसंबर 1986 से मेरठ, 25 मार्च 1989 से मुरादाबाद, 01 मार्च 1992 से कानपुर, 25 फरवरी 1997 से देहरादून, 16 जून 1997 से इलाहाबाद, 30 जून 1997 से झांसी, 20 जुलाई 1999 से चंडीगढ़, 16 जनवरी 2000 से जालंधर, 05 मई 2001 से वाराणसी, 11 अप्रैल 2003 से दिल्ली, 28 जून 2004 से नैनीताल, 03 अक्तूबर 2005 से जम्मू, 08 दिसंबर 2005 से धर्मशाला, 23 जनवरी 2007 से अलीगढ़, 6 अप्रैल 2007 से गोरखपुर, 24 जून 2008 से लखनऊ, 06 मार्च 2014 से रोहतक, 14 जुलाई 2018 से हिसार, 12 जुलाई 2019 से करनाल और 26 अगस्त 2022 से शिमला से अमर उजाला का प्रकाशन शुरू हुआ है। आज 179 जिलों, छह राज्यों और दो केंद्र शासित राज्यों से प्रकाशित हो रहे इस अख़बार के पाठकों की संख्या लगभग पौने पांच करोड़ तक पहुंच चुकी है। ख़बरों के अलावा विभिन्न साप्ताहिक मैग़जीनों की सामग्री के कारण इस सुसज्जित अख़बार की गिनती देश के प्रमुख अग्रणी अख़बारों में की जाती है।

 

 (गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2024 अंके में प्रकाशित )


बुधवार, 9 अप्रैल 2025

 

कुमार विश्वास को पांच लाख परफार्मेन्स के मिलते हैं, कविता के नहीं : उदय प्रताप सिंह

  ब्रज गरिमा सम्मान, डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ सम्मान, पेरामारीवू विश्वविद्यालय, सूरीनाम द्वारा आचार्य की मानद उपाधि के साथ यश भारती सम्मान, डॉ.बृजेन्द्र अवस्थी सम्मान, गुरु चन्द्रिका प्रसाद सम्मान, शायरे-यक़ज़हती सम्मान, भोपाल, साहित्य शिरोमणि, उत्तर प्रदेश, विद्रोही स्मृति सम्मान आदि सम्मानों से विभूषित और ‘देखता कौन है’ नामक कालजयी काव्य-संग्रह के लिए प्रसिद्ध उदय प्रताप सिंह की पहचान साहित्य के सुरुचिपूर्ण अध्येता, कुशल शिक्षक, प्रखर विचारक, जनप्रिय सांसद तथा संवेदनशील बेबाक कवि के रूप में है। इनकर जन्म सन् 1932 में मैनपुरी में हुआ। मुलायम सिंह के गुरु एवं कॅलीग रहे उदय प्रताप सिंह जी ने लोकसभा सदस्य के रूप में (1989), सदस्य राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग, (1997-2000), सदस्य राज्यसभा (2002-2008),  उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के अध्यक्ष (2012-2017) आदि पदों को सुशोभित किया। इसके अतिरिक्त वो, मानव संसाधन विकास मन्त्रालय की स्थायी समिति, संयुक्त समिति, वेतन-भत्ता सलाहकार समिति रेलवे आदि विभिन्न समीतियों के सदस्य भी रहे। अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने इनसे, इनकी रचनाधर्मिता तथा इनके सामाजिक राजनीतिक जीवन और विचारधारा पर विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत है इस बातचीत के प्रमुख अंश-


लखनऊ में उदय प्रताप सिंह के आवास पर उनका इंटरव्यू मोबाइल में रिकार्ड करते अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’, साथ में सिद्धार्थ पांडेय और इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी।


सवाल: आपके लेखन की शुरुआत कैसे हुई ?

जवाब: मेरे घर का वातावरण बड़ा काव्यमय था। शिक्षित, संयुक्त परिवार था। मेरे बाबा, चौधरी गिरवर सिंह के चार पुत्र हुए। हमारे पिता जी सबसे छोटे थे और शिकोहाबाद में रहते थे। घर में सब काव्य प्रेमी थे। शाम को साथ-साथ खाना खाने के समय होने वाली बातों में  ज्यादातर कविता की ही बात होती थी। जब मैंने हाईस्कूल पास किया तब बड़े ताऊ ने मुझे बंगाल से छपी एक किताब कविता कौमदी लाकर दी। हिंदूस्तान के उस समय के लगभग सारे कवियों की कविताएं उसमें थी। इस माहौल में कविता के बीज वहीं से पड़े होंगे। फिर जब हम बड़े हुए तो हम कविता लिखना शुरू किए। ऐसा हुआ कि जब मैं इण्टरमीडिएट में पढ़ रहा था, प्रोफेसर सागर साहब जो हमारे रिश्तेदार भी थे, उन्होंने एक दिन कहा कि तुमसे हमने कहा था कविता का ट्रांसलेशन करके लाने को, तुम नहीं लाये। तब मैंने कीट्स की एक पोयम का हिंदी अनुवाद करके उनको दिखाया। उन्होंने कहा कि इसे क्या तुम लिखे हो? मैंने कहा, हां। उन्होंने कहा, इसे पूरा करो। उन्होंने उसमें, फिर कुछ सुधार भी किया। उन्होंने कहा कि तुम बहुत अच्छा लिखते हो। जब हम बीए में पहुंचे तो बकायदा कवि सम्मेलनों में जाने लगा था। सन् 56 में जब हमारा कन्वोकेशन हुआ, उसमें लाल बहादुर शास्त्री आए थे। हमारे कॉलेज के मैनेजर रघुवीर सिंह, एम पी थे। उन्होंने एक कवि सम्मेलन करवाया, उसमें एक पूरी कविता हमने भी सुना दी थी। इस कविता की बड़ी तारीफ हुई। सन् 55-56 में जगत प्रसाद चतुर्वेदी, सूचना अधिकारी थे, वो मैनपुरी के नुमाइश में हमको ले गये वहां मैंने एक कविता पढ़ी। वहां से हम कविसम्मेलनों में चलने लगे। 

सवाल: आपकी रचनाओं में तात्कालिक सामाजिक परिस्थितियों के बारे में, आपके द्वारा किए चित्रण पर आपका क्या विचार है। वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों/सौहार्द को सुधारने मे यह कैसे मददगार हो सकता है?

जवाब: राम पर जो कुछ अयोध्या में चल रहा था। उस पर मैंने लिखा  था कि राम को हम छोटा कर रहे हैं। राम रोम रोम में रमे हैं। पूरे संसार में व्याप्त, सर्वज्ञ, सर्वत्र, सर्वशक्तिमान हैं। जब राम का जन्म हुआ तो देवताओं ने धरती पर पुष्प वर्षा की। इस प्रतीक के क्या मतलब हैं कि सारी धरा धाम के राम हैं तभी तो देवताओं ने पुष्प वर्षा की। जो जरा भी ईश्वर के बारे में जाना वो समझ गया कि भगवान सबका है। भगवान दया, क्षमा, करूणा, ममता, प्रेम-परोपकार, भाईचारा इन सबका मिला जुला नाम है। धर्म घृणा नही सिखाता अगर सिखाता है तो अधर्म है कुधर्म है। जो दूसरे के धर्मों से घृणा करता है वो धर्म कुधर्म है। हिंदंुस्तान की हिंदी फिल्मों के पांच बड़े भजन निकालिए, लिखे साहिर ने, गाये रफी ने, संगीत नौशाद का है। मुसलमानों के गाये हुए भजन हैं। मैंने लिखा कि हमें मिली हुई, हिंदंुस्तान की महान संस्कृति की  विरासत, किसी एक की देन नहीं है। यहां आर्य, मुसलमान, सूफी संत आए, सब कुछ न कुछ दे गए। कुछ हमारे वेदों से भी आया कुछ दूसरे धर्मों से आया। गुरू नानक ने भी कुछ कहा। एक उपवन में कई तरह के रंग, फल, फूल और पेड़-पौधे होते हैं। एक विष बेल, अमर बेल किसी पेड़ पर निकल जाय तो सब सूखकर बरबाद हो जाते हैं। एक आदमी गड़बड़ करेगा तो सब गड़बड़ हो जाएगा। इसलिए हम सब का कर्तव्य भी है। अंत में जो मैंने निचोड़ लिखा है कि दुनिया में प्रेम की बहुत जरूरत है। प्रेम जो आकर्षण का प्रेम होता है वही प्रेम नहीं होता प्रेम से हम आपसे बात करें आप हमसे बात करें हम औरों से बात करें।


सवाल: कविता का स्वरूप, स्वहिताय या परहिताय या कुछ और होना चाहिए ?

जवाब: कविता केवल अपने लिए नहीं है। दुनिया के दुखों को सुनना और कविता में लिखना भी बहुत ज़रूरी होता है। कविता, हमने अपने बारे में, अपने प्रेम के बारे में बहुत कम लिखी। साहित्य समाज का दर्पण है लेकिन इसके साथ मैं यह भी मानता हूं कि एमएलए., एमएलसी, तो चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं लेकिन कवि समाज का जन्मजात प्रतिनिधि है। कबीर ने जनता के लिए लिखा। जनहिताय ही कविता में ज्यादातर लिखा गया। इसलिए कविता परहिताय होती है, स्वहिताय नहीं होती। यह मैं मानता हूं।


सवाल: वर्तमान दौर में जबकि छंद मुक्त कविताओं ने हिंदी साहित्य में अपनी मजबूत पकड़ बना ली है। तब कविता में छंदो की उपयोगिता पर आपका क्या विचार है ?

जवाब: अज्ञेय जी अंग्रेजी के विद्वान थे। इंगलैंड में एक आंदोलन चला, एक्सपेरिमेंटलपोएट्री। उसी के आधार पर उन्होंने यहां प्रयोगवादी कविता या नयी कविता, छंदमुक्त कविता का आंदोलन चलाया। उन्होंने कहा कि जब हम छंद के चक्कर में पड़ जाते हैं तो कविता में जो बात, जो भाव हम कहना चाहते हैं वो बात हम नहीं कह पाते। कविता का एक परिभाषा यह भी है कि सुनने के बाद जो आपका पीछा करे। सोचने पर आपको चिंतन पे, मजबूर करे, वो कविता है, वो विचार है। लेकिन ये जो प्रयोगवादी कविता, नयी कविता है बाद में ठोस कविता हुई फिर अकविता भी हुई फिर कविता के जितने भी बंधन हैं सब तोड़ दिये। उनकी कविता हुई वो विचारवान कविता थी। दो ग्रुप हो गये कवियों के, एक हो गये मंचीय कवि और एक हो गये पुस्तकीय कवि। नयी कविता की तार सप्तक की कविताएं है हालांकि मुझे बहुत पसंद हैं। गिरिजा शंकर माथुर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हैं, जिन्होंने कविताएं लिखी है । ऐसे बहुत लोग हैं जिनको मैं बहुत पसंद करता हूं। मैं कविता में भेद नहीं करता। छंदमुक्त भी अच्छी कविता है उसने हिंदी की अभिव्यक्ति की शक्ति बढ़ाई और अच्छे विचार पैदा किए। बुद्धिमान लोग तो जानते हैं कि दोनो कविताएं अच्छी हैं लेकिन कुछ पेशेवर लोग मानते हैं कि वो लोग तो भाट हैं,  चारण है, मंचो पर कविता पढ़ते हैं और कुछ दूसरे लोग मानते हैं कि वो लोग अहंकारी हैं हमको कवि ही नहीं मानते। यह विवाद तो चलता रहता है। मैं इस विवाद में मैं नहीं पड़ा।


सवाल: कविता के मुकाबले ग़़ज़ल की लोकप्रियता ज़्यादा है, ऐसा क्यों ? 

जवाब: एक जमाने में श्रोताओं को बड़ी फुरसत थी। कवि बड़ी कविता सुनाते थे और लोग सुनते थे। अब सुनने और सुनाने वाले, दोनों लोगों को ज्यादा फुर्सत नहीं है।कविताओं पर लोगों का कंसंट्रेशन भी ज्यादा नहीं है। दोहों का प्रचलन हुआ दो लाईन की छोटी कविता में अपनी बात पूरी हुई। ग़ज़ल के अंदर क्या फायदा है, गजल में हर शेर अपने आप में पूरा होता है। गीत और ग़ज़ल में मुख्य अंतर क्या है? गीत में विषय की निरंतरता रहती है। जिस विषय पर लिखेंगे उसी विषय पर लिखेंगे। ग़ज़ल में हर शेर एक दूसरे से मुक्त होता है। उनमें आपस में संबंध हो या नहीं, कोई ज़रूरी नहीं। दूसरा ग़ज़ल में प्रतीक के माध्यम से बहुत कुछ कहा जाता है। ग़़ज़ल के अंदर एक बड़ा आकर्षण ये भी हुआ कि एक-एक बात को अलग-अलग प्रतीकों के माध्यम से भी कहा गया। एक ग़ज़ल में पांच या ज्यादा शेर होते हैं। पांच शेर कहे और बात पूरी हो गई। दूसरा आकर्षण यह है कि ग़ज़ल गाकर पढ़ी जाती है। ग़ज़ल के अंदर स्कोप बहुत है। एक ही गजल मे श्रृंगार के साथ-साथ राजनीति की भी बात कही जाती है। सरकार के प्रति क्रांति की आवाहन भी किया जाता है। बात सीधे दिल पर चोट करती है। 


सवाल: नये ग़ज़लकार के लिए कौन-कौन बातों का ज्ञान ज़रूरी है ?

जवाब:  मेरा अनुभव यह है कि जब तक आपको हजार दो हजार शेर दूसरों के याद न हो तब तक आप अच्छे शायर नहीं हो सकते। इसके लिए दूसरे शायर को पढ़ना-सुनना बहुत ज़रूरी है। ग़ज़ल के लिए बह्र का ज्ञान होना बहुत ज़रूरी है। लोग यह तक नहीं जानते  कि मतला-मक़ता किसे कहते हैं?  शेर किसे कहते हैं? रदीफ़-क़ाफ़िया क्या है ? ठीक-ठीक जानते भी नहीं हैं बस लिखना शुरू कर दिये हैं। बहुत से लोग  20 मात्रा से लिखना शुरू करते हैं परंतु एक शेर 21 मात्रा का है दूसरा कम या ज़्यादा। उन्हें मालूम नहीं पड़ता लेकिन उस्ताद लोग पकड़ लेते हैं। हम उच्चारण भी ग़लत करते हैं। ग़़ज़ल को गजल कहते हैं।  उच्चारण सही होना चाहिए। मैंने भाषाओं पर बड़ा काम किया है। उच्चारण का बड़ा अंतर है। उर्दू ग़ज़ल में मान्यता है कि जिस भाषा का शब्द इस्तेमाल करें, उसका सही उच्चारण और सही अर्थ मालूम होना चाहिए।


सवाल: देश-विदेश में आयोजित अनेक कवि सम्मेलन या मुशायरों  में, आपने मंच से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया है। ऐसे किसी कविसम्मेलन या मुशायरे से संबंधित किसी खास संस्मरण के बारे में आप गुफ़्तगू के पाठकों को बताएँ।

जवाब:खिलेश मिश्र आईएएस हैं, कवि भी हैं। उन्होंने ग़ज़ल पर एक कार्यशाला चलायी। उसमें कई बड़े शायर आए। उन सबने बताया कि ग़़ज़़ल कैसे लिखी जाती है। मैं उसमें अध्यक्षता कर रहा था। सबसे बाद में मैंने कहा कि दूसरों को पढ़िए, उनको समझिए, याद रखिए। वहां बैठा हुए एक लड़के ने पूछ लिया कि आप बड़ा कवि किसको कहते हैं। मैंने कहा, यह तो अपनी-अपनी पसंद है। कोई दिनकर जी को बड़ा कवि मानता है, कोई किसी और को। फिर उस लड़के ने प्रश्न किया कि कुमार विश्वास जी 5 लाख रूपया लेते हैं तो क्या वो हिंदुस्तान में सबसे बड़े कवि हैं ? तब उस पर मैंने कहा कि कुमार विश्वास बहुत विद्वान हैं। उसकी याददाश्त बहुत अच्छी है। बहुत अच्छा विचारक है। लेकिन उनको जो पांच लाख रुपये जो मिलते है, वो उनकी कविता के नहीं मिलते। वो उसकी परफार्मेंस के मिलते हैं। दो चीजें हो गई; एक कविता, दूसरी परफार्मेंस। अब जैसे राखी सावंत को दस लाख रूपये मिलते है तो वो परफार्मेंस के मिलते हैं। उसमे कविता तो नहीं है। मैंने फिर कहा कि कुमार विश्वास को तो पांच लाख ही मिलते है राखी सावंत को दस लाख रुपये और कपिल शर्मा को और भी ज्यादा मिलते हैं। ये परफार्मेंस के हैं। राखी सावंत और कपिल शर्मा तो कवि नहीं है। एक अख़बार ने इस बातचीत की पूरी खबर को छाप दिया। वो कुमार विश्वास ने पढ़ा। कुमार विश्वास के पूछने पर मैंने कहा कि कार्यशाला में तुम्हारे जानने वाले बहुत लोग थे। मैंने उनके नाम लिए। मैंने कहा कि उनसे पूछिए कि मैंने आपकी कितनी तारीफ की, आप मेरे बहुत निकट एवं प्रिय हैं। बहुत पढ़े-लिखे विद्वान हैं। आपको वक्त पर बहुत अच्छी कविता याद आ जाती है। लेकिन पांच लाख रूपये जो मिलते हैं, वो परफार्मेंस के मिलते हैं। मैंने इसमें क्या झूठ कह दिया है। ये तुमसे भी कह रहा हूं, तुम अगर ठुमकी मारकर, गाकर न सुनाओ तो पांच लाख क्या पांच रुपया नहीं मिलेगा। तब उन्होंने कहा कि हां ये बात सही है।


सवाल: प्रारंभिक दिनों में आपका झुकाव मार्क्सवाद की तरफ रहा, परंतु फिर समाजवादी विचारधारा  से जुड़ गये। ऐसा क्यों ?

जवाब: यह बात सही है कि मैं मार्क्सवादी था। मैंने बीए में मार्क्सवाद का अध्ययन किया  था। उन दिनों आगरा में वामपथियों का बड़ा जोर था। जब लोहिया जी फर्रूखाबाद से चुनाव लड़े तो उस समय, उनकी चुनाव क्षेत्र में हमारा गांव आता था। मार्क्सवादी पार्टी ने हमसे कहा कि हमारा कोई आदमी नहीं लड़ रहा है, लोहिया जी चुनाव लड़ रहे हैं और समाजवादी पार्टी हमारे विचार के नजदीक है तो क्यों न हम समाजवादी को सपोर्ट करें। हम एक दिन लोहिया जी के पास गये। उनसे कहा कि वोट तो हम आपको दे ही रहे हैं लेकिन आप हमारे गांव चलें। वो वहां थोड़ी देर के लिए गये। फिर उनसे और मुलाकात हुई। एक बार हमने लोहिया जी से यही प्रश्न किया जो आपने हमसे प्रश्न किया। उस जवाब में ही आपको, आपके प्रश्न का सही उत्तर मिल जाएगा। मैंने कहा, आपने अपनी पीएचडी में मार्क्स का अध्ययन किया है और जो आपका एक लेख छपा था उसमें भी आपने मार्क्स की तरीफ की है फिर आपने अलग समाजवादी पार्टी क्यों बनाई। लोहिया जी ने कहा कि मार्क्स के समाज और हमारे समाज में एक बड़ा अंतर है। वहाँ वर्ग संघर्ष था। मार्क्स ने वर्ग संघर्ष की बात की थी। हमारे यहां वर्ण संघर्ष है। वर्ग और वर्ण संघर्ष में अंतर है। वर्ग बदल सकता है, तरल है, जैसे गरीब, अमीर हो सकता है, अमीर, गरीब हो सकता है, परंतु यहां ब्राम्हण कभी  नहीं बदल सकता। वह ब्राम्हण ही रहेगा। ठाकुर, ब्राम्हण नहीं हो सकता। छोटी जाति का तो हो ही नहीं सकता। लोहिया जी ने साफ कहा कि वहां वर्ग संघर्ष है। हमारे यहां वर्ण संघर्ष है। इसलिए वहां का सिद्धांत यहां नहीं चलेगा। मार्क्स की परिभाषा के अनुसार किसान कैपिटलिस्ट है। खेत, बैल उसका कैपिटल है परंतु हमारे यहां किसानों की स्थिति, उनके सर्वहारा से भी बुरी है। उनका सर्वहारा कभी फांसी नहीं लगाता। हमारा किसान फांसी लगाकर मर जाता है। हमारे देश की ऐसी परिस्थितियों में मार्क्सवाद नहीं चल सकता। यह हमारी समझ में आ गया इसलिए हम समाजवादी हो गए। 

सवाल: वर्ष 2024 तक आते-आते वामपंथ इतना कमजोर क्यों हो गया?

जवाब: वामपंथ कमजोर नहीं हुआ यह कुप्रचार हुआ। ओलिगार्की, डेमोक्रैसी का बिगड़ा हुआ रूप है, उसमें चंद हाथों में सत्ता आ जाती है। अरस्तु ,प्लेटो से लेकर अंबेडकर सहित सभी विद्वानों ने कहा कि पूंजी, धर्म और राजनीति, इन तीनों का घालमेल नहीं होना चाहिए। आज हिंदूस्तान में इन तीनों का घालमेल है। धर्म मनुष्य की कमजोरी है। धर्म एक अफीम है, जिसे चटा दो, उसकी बुद्धि मारी जाती है। धर्म तो यह कहता है कि जो कह दिया उसे मान लो। इस समय जो खास मुद्दे हैं, पढ़ाई कैसी हो, मंहगाई कम कैसे हो, रोजगार कैसे मिले? सब पर धर्म का पर्दा पड़ गया है। अब धर्म पूंजी राजनीति तीनों एक दूसरे की मदद करते हैं। एक सरकारी आंकड़ा यह भी है कि 73 परसेंट दौलत, एक परसेंट लोगों के पास है और बाकी दौलत 99 परसेंट लोगों के पास है। आप के प्रीएम्बल में यह लिखा है कि हम सबको आर्थिक न्याय देंगे। क्या यहां आर्थिक न्याय है? यह तो आप संविधान के खिलाफ चलरहे हो। इन बातों को लोग नहीं समझ पाते हैं। कहा गया कि यह तो वामपंथियों का प्रचार है और धर्म को आगे ले आए इसलिए वामपंथ कमजोर हो रहा है। लेकिन हमें यह कहने में कोई आपत्ति नहीं है कि वामपंथ को लोग समझते नहीं और धर्म को समझने की ज़रूरत नहीं। 


प्रश्न: क्या यह कहा जा सकता है कि वामपंथ अपने आपको समझाने में असफल हैं?

उत्तर: वामपंथी क्यों समझाए आपमें विवेक है कि नहीं। आप अपने बच्चे को विवेक देंगे और दूसरे को कहेंगे धर्म दो। आप अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाएंगे और आप हिंदी आगे बढ़ाओ का नारा भी लगाएंगे। आजकल दोहरी राजनीति चल रही है। यह धर्म के नाम पर चल रही है। यह राजनीति पहले बहुत कम थी। वामपंथ कमजोर नहीं हो रहा है। वामपंथ को समझने के लिए अकल चाहिए। आदमी अकल से बड़ा घबड़ाता है। वामपंथ में कोई कमी नहीं है। बामपंथ, बुद्धिमानों के लिए है। मूर्खों के लिए यह नहीं है। यहाँ मूर्खों की संख्या ज्यादा है और बुद्धिमानों की कमी है।

        (गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2024 अंक में प्रकाशित )