1929 से निकली ‘माया’ पत्रिका देशभर में छा गई
‘मनोहर कहानियां’, ‘सत्यकथा’ और ‘गंगा-जमुना’ भी यहीं से निकलीं
इसकी सफलता को देखकर ही हिन्दी में शुरू हुई ‘इंडिया टुडे’
- डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
इलाहाबाद जो अब प्रयागराज है। यहां से पत्रिकाओं और अख़बारों का प्रकाशन नेशनल लेवल पर होता रहा है। पब्लिकेशन का हब तो यह शहर रहा ही है, इसके साथ ही पत्रिकाओं और अख़बारों का भी प्रमुख केंद्र रहा है। मित्र प्रकाशन, पत्रिका हाउस और इंडियन प्रेस प्रमुख रूप से अपनी ख़ास पहचान रखते थे। ख़ासतौर पर मित्र प्रकाशन से निकलने वाली पत्रिका ‘माया’ ने अपनी अलग पहचान और हनक बनाई थी, जिसके किस्से आज भी वरिष्ठजन बड़ी शान से सुनाते हैं। मित्र प्रकाशन से ‘माया’ के अलावा भी कई पत्रिकाएं और अख़बार निकलते थे, लेकिन माया ने राजनैतिक ख़बरों की दुनिया में जो छाप छोड़ी है, उसे क्रास करना आज भी लगभग नामुमकिन ही लगता है। उन दिनों पूरे देश में ‘माया’ की लगभग चार लाख प्रतियां बिकती थीं।
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लगभग खंडहर में तब्दील हो चुके मित्र प्रकाशन के ऑफिस को देखते डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी। प्रयागराज के मुट्ठीगंज स्थित इसी ऑफिस से निकलती थी माया पत्रिका। |
वर्ष 1929 में 151, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद से मित्र प्रकाशन के अंतर्गत अन्य पत्रिकाओं के साथ मासिक पत्रिका ‘माया’ की भी शुरूआत हुई। कुछ ही दिनों बाद 151, मुद्ठीगंज की जगह इसके सामने वाली बिल्डिंग 281, मुद्ठीगंज में यह ऑफिस स्थानांतरित हो गया। क्षितिद्र मोहन मित्र ‘मुस्तफ़ी’ ने अपनी देख-रेख और संपादन में कई पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारभ किया था। इनमें ‘माया’ का नाम प्रमुख रूप से आता है, क्योंकि राजनैतिक स्तर पर माया ने जो छाप छोड़ी है। उसकी कहानी और इतिहास सबसे अलग है।
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माया पत्रिका के शुरूआती अंक का कवर पेज |
इस पत्रिका की हनक इतनी अधिक थी कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह, नारायण दत्त तिवारी, मुलायम सिंह यादव, तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा और केंद्रीय मंत्री सलीम इक़बाल शेरवानी तक इसके आफिस आते रहे। जब पत्रिका शुरू हुई तब देश अंग्रेज़ों की गुलामी में जकड़ा हुआ था और किसी चीज़ का प्रकाशन करके आम जनता तक पहुंचाना आसान काम नहीं था। मगर, इस माहौल में भी माया ने अपनी अलग छाप छोड़ी। वर्ष 1929 में जब इस पत्रिका की शुरूआत हुई तो इसमें सिर्फ़ कहानियां ही प्रकाशित होती थीं। इन कहानियों में मुख्यतः देश और समाज को रेखांकित करने वाली घटनाओं और यथार्थ को दर्शाया हुआ होता था। तब तकनीक के नाम पर कुछ भी नहीं था। हाथ से एक-एक अक्षर जोड़कर कम्पोजिंग होती थी। उस दौर में कई अंक ऐसे भी प्रकाशित हुए जिनमें एक भी चित्र या रेखांकन नहीं था। फोटो प्रकाशित करने की तकनीक इतनी विकसित नहीं थी। किसी-किसी अंक में बड़ी मुश्किल से किसी कहानी में रेखांकन प्रकाशित हो पाता था।
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मनोहर कहानियां’ शुरूआती अंक का पत्रिका का कवर पेज। |
डॉ. मुश्ताक़ अली बताते हैं कि आर्थिक तंगी के कारण शुरू के कई अंकों के छपने के बाद इसका प्रकाशन रोक दिया गया। फिर दो अंकों के विराम के बाद किसी तरह आर्थिक व्यवस्था जुटाकर प्रकाशन शुरू हुआ। विराम के बाद जब प्रकाशन शुरू हुआ तो क्षितिंद्र मोहन मित्र ‘मुस्तफ़ी’ ने अपने संपादकीय में लिखा-‘बहुत समय बाद मैं आज ‘माया’ को पुनः आप लोगों के सम्मुख उपस्थित कर सका हूं। इस बीच आप लोगों के अनेक पत्र मेरे पास आये, पर उनमें से केवल कुछ का ही उत्तर दे सका। अब मैं आरंभ से ‘माया’ की कहानी आपको सुनाता हूं। इसके अवलोकन से आप लोगों को उसके कुछ समय तक बंद रहने और प्रारंभ से ही विलंब से निकलने का कारण ज्ञात हो जाएगा। बीस वर्ष की आयु में मैंने भविष्य की चिंता किये बिना अपने हिन्दी-प्रेम एवं उत्साह की प्रेरणा से ‘माया’ निकाली। मेरी वन्दनीया पुत्रहीना बुआजी, जिन्होंने तीन साल की अवस्था से ही निज संतानवत मेरा लालन-पालन किया था, इस अवसर पर किंचिन्त् धन द्वारा मेरा उत्साहवर्धन किया। मुझे भविष्य में उनसे धन प्राप्ति का पूर्ण निश्चय था। किन्तु दो ही अंक निकल पाये थे कि उनका निधन हो गया। मृत्यु के पहले दानपत्र नहीं लिख सकीं। इस कारण उनका अवशिष्ट धन पौष्यपुत्र को मिला। अब मेरे लिये धनप्राप्ति का कोई द्वार नहीं रह गया। कई दिक्कतों के बाद आज ’माया’ फिर आप के सामने प्रस्तुत हो सकी है। अब हर महीने से पहले सप्ताह में ही माया आप लोगों के पास पहुंचा करेगी।’
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चित्र में बाएं से: नन्दा रानी मित्र, अशोक मित्र, आलोक मित्र, दीपक मित्र, क्षितेंद्र मोहन मित्र और बीच में बैठे हुए मनमोहन मित्र। |
प्रकाशन जारी रहा और 1986 में यह पत्रिका पाक्षिक हो गई। इससे पहले मासिक ही छपती रही। क्षितिंद्र मोहन मित्र ‘मुस्तफ़ी’ के पौत्र संदीप मित्र बताते हैं-‘माया’ तब अधिक हाईलाइट हुई जब इमरजेंसी में जेपी के निधन और संघर्ष पर एक्सक्ल्यूसिव स्टोरी छपी। यह स्टोरी रवींद्र किशोर ने किया था। इस स्टोरी के बाद पूरे देश में यह पत्रिका चर्चा में आ गई। इससे पहले ‘माया’ कहानियों की पत्रिका थी। रवीन्द्र किशोर के सलाह पर ही इसे राजनैतिक पत्रिका बना दी गई। जब ‘माया’ राजनैतिक पत्रिका बनी, तब आलोक मित्र प्रधान संपादक और संपादक बाबू लाल शर्मा थे।
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वर्तमान समय में मित्र प्रकाशन के अंदर का दृश्य। |
निशीथ जोशी बताते हैं-’राजनैतिक पत्रिका बनाने के बाद माया में एक ख़ास स्टोरी ‘मीसा ने किसको पीसा’ छपी। उस दौरान हाजी मस्तान, युसूफ पटेल, करीम लाला समेत कई लोगों पर ‘मीसा’ लगाया गया था। यह स्टोरी बहुत ही पापुलर हुई।’ श्री जोशी का कहना है कि ‘माया’ की पापुलेरेटी को देखकर ही हिन्दी की ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका निकली। मेरे एक मित्र इंडिया टुडे में काम करते थे, वे बुलंदशहर में किसी रिपोर्टिंग के लिए गये तो लोगों ने कहा - अच्छा वह पत्रिका जो ‘माया’ की तरह निकली है। विभिन्न कारणों से वर्ष 2000 में ‘माया’ पत्रिका बंद हो गई।
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हिन्दी साहित्य सम्मेलन की लाइब्रेरी में ‘माया’ पत्रिका की फाइल खंगालते लाइब्रेरियन दुर्गानंद शर्मा, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ और डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी। |
सूरज नंदा का कहना है- मित्र प्रकाशन से ही बच्चों की पत्रिका ‘मनमोहन’ का भी प्रकाशन शुरू हुआ था। इसके संपादक सत्यव्रत रॉय थे। लेकिन यह पत्रिका चल नहीं पाई। वर्ष 1975 में बंद हो गई। इस पत्रिका के चित्रकार राजा हुस्न थे। ये अपने समय के बहुत ही माने हुए चित्रकार थे।
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पूर्व केंद्रीय मंत्री सलीम इक़बाल शेरवानी, पूर्व राज्यपाल मोतीलाल बोरा, मैनेजिंग डायरेक्टर आलोक मित्र और मार्केटिेग डायरेक्टर दीपक मित्र। |
‘माया’ और ‘मनमोहन’ के साथ-साथ इसी प्रकाशन से ‘मनोहर कहानियां’ ‘सत्यकथा’ और साप्ताहिक पत्रिका ‘गंगा-जमुना’ निकलीं। गंगा-जमुना के संपादक रवीन्द्र कालिया थे। ‘गुफ़्तगू’ को दिए गए एक इंटरव्यू में रवीन्द्र कालिया ने बताया था-‘पिछली सदी के अंतिम दशक में मित्र प्रकाशन का आमंत्रण मिला। मित्र बंधुओं का आग्रह था कि ‘माया’ और ‘मनोहर कहानियां’ आदि के साथ-साथ एक साप्ताहिक पत्र भी प्रकाशित किया जाये। तब मित्र प्रकाशन, माया प्रेस अत्याधुनिक उपकरणों से लैस एक ऐसा प्रेस था, जो पूरे भारत को टक्कर दे सकता था। उनके यहां विश्व की नवीनतम मशीनें, स्कैनर आदि थे। उनका विश्लेषण था कि पत्रिकाओं की बिक्री के मामले में इलाहाबाद सबसे कठिन शहर है। वे इलाहाबाद को पूरे देश का एक पैमाना मानते थे। मुझसे उन्होंने कहा कि स्थानीय स्तर पर एक साप्ताहिक पत्र निकाला जाए जो इलाहाबाद के जनजीवन, राजनीति का चित्र हो, जिससे इलाहाबाद का पूरा चरित्र सामने आ सके। साहित्य, राजनीति और सांस्कृतिक स्तर पर पहले अंक से ही धमाका हो गया। कुल 5000 प्रतियां छापी गईं, जबकि 30,000 प्रतियों के आर्डर आ गए। उसका उसी रात द्वितीय संस्करण छपा। 25,000 प्रतियां और छापी गईं। स्थानीय समाचारों के अलावा एक मुख्य पृष्ठ राष्टीय समाचारों पर आधारित था। एक फीचर लोकनाथ पर था। मुट्ठीगंज का पूरा इतिहास बताया गया था। पत्र ठेठ इलाहाबादी भाषा में था। जिसका मूल्य केवल दो रुपये रखा गया था, जबकि पत्र की लागत 8-10 रुपये थी। ज़ाहिर है जितना अधिक बिकता उतना अधिक नुकसान होता। मुझसे कहा गया धीरे चलो। लोकप्रियता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि सुबह दूध के पैकेट के साथ-साथ सप्ताह में एक बार ‘गंगा-जमुना’ भी बिकने लगा। दूसरे शहरों से भी मांग आ रही थी, जबकि सामग्री केवल इलाहाबाद पर होती थी। ‘गंगा-जमुना’ इलाहाबाद के साथ-साथ देश के साहित्य, सांस्कृतिक और कला का आइना बन गया था। वैसे भी इलाहाबाद का समय भारत का मानक समय माना जाता है। इलाहाबाद की नब्ज़ देखकर आप बता सकते थे कि देश में अब क्या होने वाला है। इससे पहले कि माया प्रेस एक राष्टीय साप्ताहिक के रूप में इसे पेश करता, माया प्रेस के मालिकों के बीच उनकी मां के मरते ही मतभेद उभरने लगे। संकट यहां तक बढ़ गया कि माया प्रेस की तमाम पत्रिकाएं अंतर्विरोधों और पारिवारिक मतभेदों के कारण पटरी से उतरती गईं और प्रेस पर ताला लग गया। मैं भी इलाहाबाद छोड़कर भारतीय भाषा पर रिसर्च करने कोलकाता चला गया।’
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रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के साथ संदीप मित्र। |
पत्रकार शिवाशंकर पांडेय ने बताया कि इसी प्रकाशन से अंग्रेज़ी में ‘प्रोब इंडिया’ और बंग्ला में ‘आलोक पाथ’ नामक पत्रिकाएं भी निकली थीं। संदीप मित्र ने अप्रैल 2004 में दिल्ली से फिर से इसका प्रकाशन शुरू किया। फरवरी 2007 तक इसका प्रकाशन सफलतापूर्वक जारी रहा। संदीप मित्र के मुताबिक कोर्ट के आदेश पर इसको बंद कर देना पड़ा।
(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2024 अंक में प्रकाशित)