साहित्य का मूल काम लोगों की सम्वेदना को उभारना है: डॉ. मुश्ताक़ अली
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डॉ. मुश्ताक़ अली से बात करते अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’। |
सवाल: हिंदी साहित्य की तरफ आपका रुझान कब, क्यों और कैसे हुआ?
जवाब: दरअसल हम बनारस के रहने वाले हैं। मेरा गांव बहुत छोटा सा गांव है। उसमें हमारे ही घर में पढ़ने लिखने का माहौल था। हमारे यहां पढ़ने लिखने का माहौल अदबी न होकर इस तरीके का था कि मस्जिद में कुरान पढ़ने के लिए जाना पड़ता था। मौलवी साहब या मोअज्जिन पढ़ाते थे। बाकी माहौल, सब हिन्दी-संस्कृत का ही था। रात में भी स्कूल में पढ़ाई होती थी और खाना खाने के बाद रात आठ बजे, हम लोग स्कूल में पढ़ने चले जाते थे और दस बजे तक पढ़ते थे। टीचर साथ में रहते थे, सुबह चार बजे वो उठाते थे। लड़के उस समय नींद में रहते थे तो वो संस्कृत के श्लोक और खासकर गीता का श्लोक, त्वमामि देवः पुरुषरू पुराणा वाला श्लोक और कई श्लोक सुनाने को कहते थे, क्योंकि श्लोक याद करने से और उच्चारण करने से नींद भाग जाती थी। हिन्दी के प्रति रूझान हम लोग का गांव से ही है। यही कारण है कि हमारे बैक ग्राऊंड में हिन्दी-संस्कृत ही है।
सवाल: साहित्य का पत्रकारिता से क्या संबंध है?
जवाब: पत्रकारिता दो तरह की है। एक समसामयिक पत्रकारिता है, जिसमें पत्रिकाएं वगैरह आती है और एक राजनीतिक पत्रकारिता होती है, जिसमें समाचार-पत्र मूलतः आते हैं। यद्यपि अख़बारों के रविवारीय परिशिष्ट में भी साहित्य के लिए जगह होती है, लेकिन उनका मूल उद्देश्य साहित्य का विकास नहीं होता। साहित्य में खासकर साहित्य के केंद्र में सम्वेदनाएं होती हैं। मीडिया में समसामयिक घटनाक्रम होता है। मूल बात यह है कि हर घटनाक्रम के पीछे भी कोई न कोई साहित्यिक मूल्य होता है, जैसे सम्वेदना वाला। जब हम बेरोजगारी पर या महंगाई पर बात करते हैं तो ये भी पोलिटकल विषय है, लेकिन जब हम उस बेरोजगारी और महंगाई से जो परिवार गुजर रहा है, जब हम उसकी दुर्दशा दिखाने लगते हैं और उसका चित्रण करते हैं तब वह साहित्य बन जाता है। पत्रकारिता बाहरी चीज़ों को कवर करती है, जिसका सम्वेदनाओं से बहुत मतलब नहीं होता। हालांकि अख़़बारों में भी कुछ फीचर होते हैं जैसे ‘जनसत्ता’ का शुरू से मैं पाठक था। मैं देखता था, उसके फीचर बहुत अच्छे होते थे। कई बार बहुत भावनात्मक भी होते थे। आमतौर पर किसी राष्ट्रनायक के देहावसान पर, या किसी एक्सीडेंट पर, कुछ इस तरह के फीचर वगैरह आते हैं जो बड़े भावनात्मक होते हैं लेकिन आमतौर पर सदा ऐसा नहीं होता। सम्वेदनाओं का जैसे-जैसे जीवन में स्थान कम होता जा रहा है वैसे-वैसे पत्रकारिता में भी कम होता जा रहा है। केवल चीजों का तकनीकी महत्व रह गया है। पैकेजिंग का महत्व बढ़ रहा है। भारतेंदु युग में जो भी उस समय की पत्रकारिता में था वो ही धीरे-धीरे साहित्य में आता था। उस समय की कविताएं व्यंग्य, बहुत सारे लेख, यात्रावृत्तांत हैं, वो सब साहित्य में धीरे-धीरे आये। द्विवेदी युग तक भी आता रहा। ‘सरस्वती’ का सम्पादन जो महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1903 से 1920 तक किया, उस दौर में भी जो साहित्यिक पत्रकारिता वो करते थे वो चीजें स्थायी मूल्य की हुई और वो पाठ्यक्रमों में भी आती रही। फिर धीरे-धीरे ये कम होता गया, लेकिन अब भी पाठ्य-पुस्तकों को बनाने का या पाठ्यक्रमों को तय करने का जो तरीका होता है उसमें पत्र-पत्रिकाओं की अपनी भूमिका रहती थी। हम कोई विषय पर कोई चीज लेना चाहें तो लोग मीटिंग्स में डिस्कस करते थे कि यह अच्छी चीज वहां छपी है इसको लेना चाहिए। उस दौर की जितनी भी कहानियां हैं प्रेमचंद, चंद्रधर शर्मा गुलेरी वगैरह की हैं। ‘उसने कहा था’, ‘मंत्र’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहकनियां, ये सब मैगजीनों से ही तो आई हैं और धीर-धीरे साहित्य का अटूट हिस्सा बन गई। अब या तो ऐसा कुछ नहीं छप रहा है, जिसको वो उसमे डायरेक्ट ले रहे हों। इसका जो प्रसार है वो दूसरी तरह का हो गया है। इसमे कुछ विचारधारा भी आ गई है। उस विचार धारा को जो जो चीज हो, चाहे जैसी भी हो, उसको ही लेंगे। मेरिट पर चयन नहीं हो रहा है।
सवाल: तेजी से बदलते वर्तमान दौर का विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम और शिक्षा स्तर पर क्या असर है?
जवाब: दिल्ली यूनिवर्सिटी में 70 से अधिक कालेज हैं। उसका मानक बहुत अच्छा था। पहले जो आनर्स का पाठ्यक्रम होता था वो बहुत अच्छा था। इंग्लिश का जो पाठ्यक्रम था उसमें देखिए अभिज्ञान शाकुंतलम, मृच्छकटिकम और महाभारत का शांति पर्व, इस तरीके की चीजें, इंग्लिश में भी पढ़ाई जाती थीं। लेकिन धीरे-धीरे सब तब्दील हो गया। मेरा बेटा डीयू में पढ़ता था तो उसका पाठ्यक्रम जो मैंने देखा था वैसा पाठ्यक्रम मैंने कहीं नहीं देखा। बहुत अच्छा था। पुराने लोग, पढ़े लिखे लोग थे जो इनके चयन का कार्य करते थे। आजकल बोर्ड ऑफ स्टडीज में ऐसे लोग हैं जिनका कोई संबंधित अनुभव नहीं है और मनचाहे तरीके से कार्य करते हैं। जो लोग पीसीएस वगैरह का पाठ्यक्रम बना रहे हैं, उन्होने इतने अधिक उपन्यास रख दिए हैं कि बच्चे उपन्यास पढ़-पढ़ कर परेशान हो गए हैं। पहले भी उपन्यास रखे जाते थे, लेकिन मशहूर उपन्यासकारों के चुनिन्दा उपन्यास को, प्रतिनिधित्व के लिए, एक एक रखते थे। अब कोई दृष्टि ही नहीं, सब घालमेल हो गया है। विश्वविद्यालय में सेमेस्टर सिस्टम जब से लागू हुआ है तब से पढ़ाई का माहौल बदल गया है। पहले पढ़ाई का जो वातावरण-माहौल था वो दूसरी तरह का था। परीक्षा एक होती थी और पढ़ाई साल भर होती थी लेकिन अब हर महीने, तीसरे महीने इम्तिहान है और उसका पाठ्यक्रम सब यूनिट में बंटा हुआ है। 16 जुलाई को अगर विश्वविद्यालय खुला तो 16 जुलाई से 16 अगस्त तक दो यूनिट खत्म हो जानी चाहिए और उसका इम्तिहान उसका टेस्ट हो जाना चाहिए। लेकिन होता यह है कि 16 जुलाई को विश्वविद्यालय खुल तो जाएगा लेकिन पढ़ाई नहीं होगी। एडमिशन सहित सारे कार्य होंगे लेकिन क्लास नहीं होगा। पाठ्यक्रम धीरे-धीरे पिछड़ता जाता है। पढ़ने का ही वक्त नहीं है। पहले वाला माहौल अब नहीं है। सब बदल गया है। अब लड़के नंबर बहुत पाते हैं। नब्बे फीसदी लिट्रेचर में भी पाते हैं लेकिन आता कुछ नहीं है। पहले 60 फीसदी पाने का, बहुत मतलब होता था।
सवाल: आपने विश्वविद्यालय के छात्रों को पत्रकारिता भी पढ़ाया भी पढ़ाया है। इस दायित्व के निर्वहन के समय छात्रों की क्या प्रतिक्रिया रही ?
जवाब: इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मीडिया वाला एक विभाग भी है, जो पहले पत्रकारिता और जनसंचार वाला विभाग था। हिंदी विभाग के अलावा तीन साल तक हमने वहां भी पढ़ाया है। हमको ‘माया’ में रहने की वजह से एडिटिंग वगैरह की जानकारी पहले से थी, उन लोगों ने हमको एडिटिंग सिखाने के लिए रखा था। बच्चों को सिखाते थे कि कॉपी कैसे हैंडिल करें और कैसे करेक्शन करें। दो तीन साल तक हमने वहां भी कार्य किया था। मेरा अनुभव उनके बारे में बहुत अच्छा नहीं रहा। उसकी वजह यह थी कि विश्वविद्यालय के अन्य विभागों के छात्र, अपने पाठ्यक्रम के प्रति बहुत जागरूक और गंभीर होते है,ं लेकिन पत्रकारिता वाले छात्र, कक्षा में भी ठीक से नहीं, बल्कि मनचाहे ढंग से बैठते थे। बहुत मतलब नहीं रखते थे। वो गंभीरतापूर्वक इस विषय को नहीं पढ़ते थे।
सवाल: आपके निर्देशन में होने वाले शोध किन विषयों से संबंधित रहे हैं। पर्याप्त संख्या में शोध होने के बावजूद, आजकल देश की महत्वपूर्ण लाइब्रेरियों में भी, शोधकर्ताओं की उपस्थिति नगण्य ही रहती है। आपकी नज़र में इसका क्या कारण है ?
जवाब: हम लोगों के समय, हिन्दी विभाग में रिसर्च का रुख बदल गया था। यह विमर्शों की तरफ उन्मुख हो गया। नब्बे के दशक में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, पिछड़ों का विमर्श आया। ये जो विमर्श आए उन विमर्शों ने शोध की दिशा ही बदल दी। नब्बे के बाद से ज्यादातर शोध, विमर्श पर ही हैं। जो पुरानी लाइब्रेरियां हैं उनमें विमर्श से संबंधित साहित्य नहीं है। इसका एक नुकसान यह हुआ कि ज्यादातर लाइब्रेरियां उजाड़ हो गई हैं। अब लड़कों का काम गूगल पर ज्यादा होता है। गूगल पर शोध संबंधित बहुत सी साईट है उस पर आप जाएंगे तो आपको पता चल जाएगा कि किस विश्वविद्यालय में किस विषय पर कितना शोध हो रहा है।
पहले क्या होता था कि जैसे हिन्दी अनुशीलन पत्रिका, भारतीय हिन्दी परिषद से निकलती थी। सन् 1935 में धीरेन्द्र वर्मा ने इसको शुरू किया था। इसका ऑफिस हिन्दी विभाग में था। हिन्दी अनुशीलन के बहुत सारे अंक, शोध पर निकलते थे। पूरे देश भर भें कितने शोध कहां-कहां, किस विषय पर हुए थे, सारी जानकारी होती थी। अतः पहले मदद इस सब से ली जाती थी। इस कम्प्यूटर युग में अब हर चीज कम्प्यूटर पर है। उस पर बहुत कुछ सामग्री मिलती है लेकिन टेक्स्ट कम मिलता है। शोध करना है तो पूरा टेक्स्ट चाहिए। कम्प्यूटर पर थोड़ा-बहुत ही मिलेगा। इसलिए वो तो आपको लेना पड़ेगा शोध आधार है। बाकी जो संदर्भ वगैरह के लिए नई किताब लेनी पड़ेगी लेकिन लाइब्रेरियों में इस तरह की सामग्री, अब कम मिलती है इसलिए नये शोधकर्ताओं के लिए, ये लाइब्रेरियां अब उतनी उपयोगी नहीं रह गई हैं। पहले शोधकर्ता को बताया जाता था कि सम्मेलन संग्रहालय जाओ। अगर आप आजकल सम्मेलन संग्रहालय जाएंगे तो शायद ही एक दो छात्र वहां आपको नज़़र आएं। हम लोग के ज़माने में, कोई भी अगर शोध करता था तो सबसे पहले कहा जाता था, सम्मेलन संग्रहालय जाओ, वहां हर विषय पर सामग्री मिलेगी। पर अब शोध की दिशा बदल गई है। शोध की दिशा बदलने से पुरानी लाइब्रेरियां उजाड़ पड़ी हैं।
सवाल: नई और निष्पक्ष विचारधारा को हिंदी साहित्य में निरंतर प्रवाहित करने के लिए आप अपने विद्यार्थियों को कैसे प्रेरित करते थे ?
जवाब: सन 2019 तक हम विश्वविद्यालय में कार्यरत थे। तब तक इतनी बंदिशे नहीं थे और हम लोग हर विषयों पर खुलकर बोलते थे। लड़कों को भी वैसे ही तैयार करते थे। लेकिन धीरे-धीरे ऊपर का दबाव बढ़ा है। अब लोग जागरूक भी हो गए हैं। हर विचारधारा के लोग क्लासों में बैठे हैं। जो बोलो, छात्र वो उसको रिकार्ड कर लेते हैं। अगर आप सत्ता के खिलाफ बोलते हैं तो वो तबका, उसे रिकॉर्ड करके आगे तक पहुंचा देता है फिर उसके खिलाफ एक्शन होता है। पहले ऐसा नहीं था। पहले हम लोग बेबाक होकर किसी भी विचार धारा पर बोलते थे। अगर आप दलित विमर्श की बात करिएगा, अल्पसंख्यक की बात करिएगा, ट्राइब की बात करिएगा तो दलित तबका बड़े ध्यान से सुनेगा। अगड़े भी चूंकि पढ़ना है तो वो भी जानना चाहते है कि हमारे बारे में दलित क्या कह रहा हैं। लेकिन पहले कोई बंदिश नहीं थी, अब हो गई है। हम लोग बहुत अच्छे समय में थे। कुछ भी बोल-बालकर निकल गए। अब कोई बोल नहीं सकता। अब तो आपने बोला नहीं कि ख़बर आगे तक पहुंच जाती है।
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बाएं से: डॉ. मुश्ताक़ अली, अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ और डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी। |
सवाल: जैसा आपने बताया कि आजकल साहित्य, विमर्श के इर्द-गिर्द घूम रहा है। इसको देखते हुए आप, नये साहित्यकारों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
जवाब: चूंकि हवा में यही है और राजनीतिक विचारधारा के साथ यह जुड़ा है इसलिए इससे उलट कोई नयी बात करना, संभव नहीं है। साहित्य का काम समाज में व्याप्त सम्वेदना को देखना है और सम्वेदना दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श या जनजातीय विमर्श में भी है। उसमें मूल चीज़ तो निश्चित तौर पर विद्यमान है। जब भी आप गरीब की बात करेंगे तो अमीर अपने आप आ जाएगा। शासक की बात करेंगे तो शोषित सामने आ जाएगा। रहेगा तो दोनों तरफ, ऊपर से नाम आप चाहे जो दे दें। साहित्य का मूल काम ही सम्वेदना को उभारना है। सम्वेदनाएं जहां भी हैं, वो साहित्य का ही विषय है। अत: मुझे इसमें कोई दुराव नहीं लगता।
(गुफ़्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2024 अंक में प्रकाशित)
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