रविवार, 25 अप्रैल 2021

हर घटना में व्यंग्य तलाश लेते थे फ़ज़्ले हसनैन

    

इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी 

   जाने-माने उर्दू अदीब, व्यंग्यकार और पत्रकार फ़़ज़्ले हसनैन का 24 अप्रैल को इंतिकाल हो गया, इसी के साथ एक ऐसे अध्याय का अंत हो गया, जिसकी पूर्ति कोई नहीं कर सकता। वे वे अकेले ऐसे व्यक्ति थे जो हर छोटी-बड़ी घटना को व्यंग्य का रूप देने एक्सपर्ट थे। मुझे याद है, तकरीबन 17-18 साल पहले की बात है, मालिकाना झगड़े में उन दिनों ‘अमृत प्रभात’ के कर्मचारियों को तनख़्वाह कई महीने से नहीं मिल रहा था। ‘अमृत प्रभात’ के दफ़्तर में मैं कार्यकारी संपादक मुनेश्वर मिश्र जी के केबिन बैठा हुआ। उसी दिन कर्मचारियों को 200-200 रुपये दिए गए थे। अचानक फ़ज्ले हसनैन केबिन में दाखिल हुए, मुनेश्वर जी से मुख़ातिब होकर बोले-‘मिश्रा जी आज 200 रुपये मिल गए हैं, सोच रहा हूं कि इतनी बड़ी रकम कैसे लेकर जाउंगा, कहीं रास्ते में कोई छीन न ले। आप संपादक हैं, पुलिस से बात करके सुरक्षा के इंतज़ाम करा दीजिए।’ इसके बाद केबिन में बैठे सभी लोग जोर-जोर से हंसने लगे। यह उनके व्यंग्य का नमूना भर है। ऐसी बहुत से वाक़यात हैं।

 फ़ज़्ले हसनैन का जन्म 07 दिसंबर 1946 को प्रयागराज के लालगोपालगंज स्थित रावां नामक गांव में हुआ था। इंटरमीडिएट तक की परीक्षा लालगोपालगंज में ही उत्तीर्ण करने के बाद 1973 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से उर्दू विषय में स्नातकोत्तर किया था। प्र्रयागराज से प्रकाशित नार्दन इंडिया पत्रिका से पत्रकारिता की शुरूआत की थी, फिर अमृत प्रभात और स्वतंत्र भारत में भी सेवाएं दीं। व्यक्तिगत लेखन की शुरूआत हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी भाषाओं में 1974 में किया था। ग़ालिब पर लिखी इनकी पुस्तक ‘ग़ालिब एक नज़र में’ को इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने अपने पाठ्यक्रम में शामिल किया था। आपकी कहानियां, नाटक और व्यंग्य देश-विदेश की पत्रिकाओं और अख़बारों छपते रहे हैं। 1982 में इनका पहला व्यंग्य संग्रह ‘रुसवा सरे बाज़ार’ प्रकाशित हुआ था, इस पुस्तक पर उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी ने उन्हें पुरस्कृत किया था। इनके तीन नाटक संग्रह ‘रोशनी और धूप’, ‘रेत के महल’, ‘रात ढलती रही’ छपे हैं। वर्ष 2001 में व्यंग्य रचना संग्रह ‘दू-ब-दू’ प्रकाशित हुआ। प्रयागराज के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों का परिचय कराती आपकी एक पुस्तक ‘हुआ जिनसे शहर का नाम रौशन’ वर्ष 2004 में छपी थी, इस पुस्तक के तीन संस्करण प्रकाशित हुए हैं। इन्होंने कौमी उर्दू कौसिंल बराय फरोग उर्दू नई दिल्ली के अनुरोध पर मशहूर उपन्यासकार चाल्र्स डिकेंस के उपन्यास ‘डेविड कापर फील्ड’ का उर्दू में अनुवाद किया था। 


फ़ज़्ले हसनैन


 वरिष्ठ पत्रकार एसएस खान उनके बारे में लिखते हैं- ‘ फ़ज़्ले हसनैन उर्दू अदब में महारथ के साथ अंग्रेजी और हिंदी में भी वह बराबर का दखल रखते थे। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी व्यंग रचनाएं आज भी लोगों के जेह्न पर नक्श हैं। उनके साथ अमृत प्रभात में काम करते हुए बहुत कुछ सीखने का मौका मिला। उनके लिखने और बोलने का अंदाज़ बिल्कुल जुदा था। रोजमर्रा की जिं़दगी में होने वाली बातों, छोटी बड़ी घटनाओं को जिस सहज तरीके से शब्दों में पीरोते वह अनायास ही एक श्रेष्ठ व्यंग्य रचना का शक्ल अख़्तियार कर लेता. आचार-व्यवहार सियासत-शिक्षा हो या फिर रीति रिवाज व धरम-करम. इन सब विषयों पर कटाक्ष करती उनकी कलम हर किसी को अपना मुरीद बना लेती। उनकी इसी काबिलियत व फनकारी को देखते हुए मैंने इलाहाबाद में अमर उजाला और दैनिक जागरण में कार्यकाल के दौरान उनकी सैकड़ों व्यंग्य रचना सिलसिलेवार तरीके से प्रकाशित की। उसी दौरान इलाहाबाद के 10 चोटी के साहित्यकारों के साहित्य लेखन और उनके जीवन के अनछुए पहलुओं पर भी उन्होंने कलम चलाई. उनका यह लेख न सिर्फ़ इलाहाबाद में बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय हुआ, यह लेख दैनिक जागरण के विशेष फीचर पेज पर प्रत्येक बुधवार को ‘हुआ जिससे शहर का नाम रोशन’ कालम के अंतर्गत प्रकाशित होता था। बाद में यही लेख किताब की शक्ल में इसी नाम से प्रकाशित हुआ।’



0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें