रविवार, 21 अक्तूबर 2012

डा. नन्दा शुक्ला का काव्य संग्रह ‘निशीथ’ की समीक्षा


  
संवेदनाओं की सघन आहट देता स्त्री मन
                        - यश मालवीय
स्त्री मन की पारदर्शी तरल पर्तों में सतह दर सतह संवेदनाओं का संगुफन सजाती कवयित्री नन्दा शुक्ला की कविताओं की पांडुलिपी के पृष्ठ मेरे सामने पंख फड़फड़ा रहे हैं, इस फड़फड़ाहट में शामिल है हमारा कठिन समय और बदल रहा समाज। एक जूझती हुई, पराजय न स्वीकार करती मगर क्षोभ से भरी महिला का चित्र जे़हन में उभरता है। यह चित्र वास्तव में स्त्री विमर्श के दौर में आधी आबादी का प्रतिनिधि-विंब बनकर उभरता है, उभरती है कुछ बनी अधबनी तस्वीरें, कुछ अधूरी रंग-रेखाएं और बहुत कुछ टूटा बिखरा मन। मन के इसी ताल में उम्मीदों के कमल खिलते-मुरझाते जि़न्दगी के अस्तित्व का प्रमाण देते होते हैं। इस कमल की पंखुडि़यों पर ग़लाज़त भरे युग की कीचड़-काई भी लिपटी होती है। इस आक्रमक समय में आक्रोश की चिनगारियां फूटती होती हैं। फूटता है लावा हमारी टुकड़ा-टुकड़ा होती संस्कृति का। कवयित्री कहतीं हैं-
कैसी ये विडंबना हो गई अब
कवि भी हो गया मशीन सा जब
अभिव्यक्त करता है अपने का ऐसे अब
कुछ भी स्पष्ट नहीं कर पाता अपना सब।

क्रूर दुनिया और सह्दय दुनिया दोनों की समानांतर भाव से चलती रहती है, इस प्रक्रिया में बहुत कुछ टूटता-जुड़ता चलता है और बनता-बिगड़ता भी है। स्वयं की शिनाख़्त करनी होती है। चिन्तन करनी होती है अपनी भूमिका। गहरे तोष की बात है कि कवयित्री ने अपनी भूमिका को बाखूबी समझा है और उसका यथाशक्ति निर्वाह भी किया है। उसका कथ्य महत्वपूर्ण है इसलिए वह शिल्प से किंचित समझौता भी कर लेती है। यह ‘काव्यात्मक एडजेस्टमेंट’ अपने कथ्य को आंच न आने पाए महज़ इसलिए होता है। यह एक रचनात्मक सलीके के तहत अंजाम दिया जाता है जिसकेे अंतर्गत शिल्प लचीला तो होता है पर शिथिल नहीं होता इसलिए कहन भी अलग सी तासीर का सुख देती है। नन्दा शुक्ला कहती हैं-
एक अंजान सफ़र है इस जीवन पथ का
हर राही जिस पर है चलता
कोई बन जाता हमराही
कोई अकेले जीवन का पथ तय करता

अथवा

ये वीरान सा प्रांगण
ये खण्हर होते भाव
यह कुछ और नहीं
मानव मन का नीरव एहसास

‘जीवन पथ’ पर ही ‘मन की नीरवता’ का गहरा एहसास होता है। मन की नीरवता का एहसास ही जब सघन होता है तो महादेवी जी जैसी कवयित्री कह उठती हैं- ‘मैं मंदिर का दीप, इसे नीरव जलने दो’। इस प्रकार नन्दा शुक्ला सहज ही महादेवी जी की काव्य परम्परा और उसके सर्जनात्मक संस्कारों से जुड़ जाती है।
निश्चित ही कविताओं की इन संवेदनाओं का हिन्दी जगत में स्वागत होगा

--    ए-111,मेंहदौरी काॅलोनी, तेलियरगंज, इलाहाबाद, मोबाइल 98397922402

 पाठक से सीधा संवाद स्थापित करती कवितायें
               - डाॅ. शैलेष गुप्त ‘वीर’
कविता मनुष्य के सुख-दुःख की सहज अभिव्यक्ति है। काव्य हमें चेतना प्रदान करता है और कुछ करने की ही नहीं, कुछ कर गुज़रने की भी प्रेरणा देता है। निराश मानव ने कविता के आँचल में सदैव आश्रय प्राप्त किया है और पुनः अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हुआ है। कविता ब्रह्माण्ड की प्रत्येक हलचल को अपने आपमें सँजोती है। देश-दुनिया और समाज से मनुष्य को यत्र-तत्र-सर्वत्र जोड़ती है। यही कारण है कि कविता केवल साहित्य ही नहीं है, बल्कि वह इतिहास, भूगोल, राजनीति, दर्शन तथा और भी बहुत कुछ है। कविता हमें संवेदना के उस स्तर तक ले जाती है, जहाँ केवल शुभ की सत्ता होती है और अशुभ धूल-धूसरित हो जाता है। इस स्तर पर मनुष्य, मनुष्य हो जाता है और उसके होने की सार्थकता सिद्ध हो जाती है। किन्तु काव्य की सार्थकता का एक पहलू यह भी है कि वह समाज से सहज रूप से जुड़ सके। उसका लक्ष्य पाठक व श्रोता का मानसिक व्यायाम कराना मात्र न हो, उसमें अनावश्यक क्लिष्टता न हो, बल्कि सहज संप्रेषणीय हो और वे उसे हृदयांगम कर सकें। वर्तमान में कविता के नाम पर बहुत कुछ बकवास और कूडा़-करकट भी लिखा जा रहा है और छप भी रहा है; ऐसे में कवयित्री नन्दा शुक्ला की चिंता और सुझाव नाहक नहीं हैं-
      रसता हो, सरसता हो/अर्थ में भावगम्यता हो
      पढ़ते ही तादात्म्य कर लें आप
      समझते ही भाव अपना ले अपने आप।

‘कविता’ शीर्षक की इस कविता के माध्यम से उन्होंने रचनाकारों के लिये काफ़ी कुछ इशारा किया है। इसके पीछे मुख्य वजह प्रकाशन-अवसरों की बहुलता और नयी कविता के नाम पर कुछ भी लिख डालना है। एक बात यह भी है कि हिन्दी के अधिकांश कवि स्वयं के सिद्धहस्त होने का भ्रम पाले हुए हैं। ऐसे में प्रकाशकों-संपादकों की जिम्मेदारी बहुत अधिक बढ़ जाती है।
पेशे से पुलिस विभाग की मातहत सुश्री नन्दा शुक्ला की कवितायें पाठक से सीधा संवाद स्थापित करती हैं और अपनी बात बहुत साफ़गोई से कहती हैं-
इस मेले में/कितने हैं अंजान डगर
कितने हैं पथ के राही
हर राही की अपनी मंजि़ल
हम खोजें क्यों हमराही।

कवयित्री ने इन कविताओं के माध्यम से शब्दों का मकड़जाल नहीं बुना है, बल्कि विषय व भाव की बोधगम्यता को ध्यानगत रखते हुए अपनी बात बहुत सरल व स्पष्ट तरीक़े से कही है। यद्यपि कहीं-कहीं पर तत्सम शब्दों का प्रयोग बहुलता के साथ किया गया है तो भी काव्य की सोंधी ख़ुशबू और काव्य माधुर्य पाठक सरलता से महसूस कर सकता है-
वीथि में विहंग कलरव/बता रहा नव्य विहान
विलम्य विभावरी से ही/विकसित होता दिवस का रूप।

इन कविताओं के सहारे सुश्री नन्दा यद्यपि किसी सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे को प्रत्यक्ष तौर पर बहस का केन्द्र नहीं बनातीं तथापि उनकी मानसिक संवेदना मानव मन व जीवन की अनेक विसंगतियों यथा- निराशा, पीड़ा, क्षोभ, असफलता, रिश्तों का खोखलापन आदि को उद्घाटित करती साकार शब्द-रचना के रूप में जीवन्त हो उठती है। यही कारण है कि इन कविताओं में दर्शन के अणु-परमाणु भी मौज़ूद हैं-
ये वीरान-सा प्रांगण/ये खंडहर होते भाव
ये कुछ और नहीं/मानव मन का नीरव अहसास।

कवयित्री नन्दा मिश्रा की कविताओं के शिल्प को किसी कसौटी या मानक पर नहीं कसा जा सकता क्योंकि इनमें छंद विधान का न तो कोई तत्व मौजूद है और न ही इसकी कोई परिकल्पना। नयी कविता के शिल्प से भी इन कविताओं का साम्य स्थापित नहीं किया जा सकता तथापि अपने भाव और कथ्य को लेकर रचनाकार ने ईमानदार कोशिश की है और भविष्य के प्रति अपार संभावनाओं की खिड़की खुली है, यह महसूस कराया है।

              24/18, राधानगर, फतेहपुर (उ.प्र.) - 212601
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     हृदय के अंतः स्थल से निकली हैं कविताएं
                   - डाॅ. मोनिका मेहरोत्रा ‘नामदेव’

कहते हैं जब कवि हृदय में भावनाओं का सागर उमड़ता है, जब दूसरों की पीड़ा अपनी सी लगती है और जब सरसता और नीरसता के बीच शब्दों का झंझावत उठता है तो कविता का जन्म होता है। कविता रूपी माला में शब्द रूपी जितने मोती पिरोये जाते हैं कविता की सार्थकता और भी फलीभूत हो उठती है। अपने इसी सार्थक प्रयास में डाॅ. नन्दा शुक्ला पूर्णतः सफल हैं क्योंकि आपकी लेखनी से जीवन का जो पहलू सामने आया है वह कावगम्य है ही साथ ही वास्तविकता का परिचय भी देता है। कवयित्री ने अपनी कविता में ‘कविता के मूल’  से पाठकों को परिचित कराने का प्रयास किया है-
कविता का मूल है भावों का संसार
न कि ऐसा शब्दों का माया जाल
प्रभुता में खो जाये इसमें ऐसे आप
ढूढ न पाये जिसमें अपना से संसार।

ज्ञान क्या है ? इसकी थाह क्या है ? इसका प्रारंभ और अंत कहां है ? ये प्रश्न ऐसे हैं कि आप जिन्हें जितना खोजते जायेंगे उतना ही इसमें छिपे रहस्य खु    लते जायेंगे यानी ज्ञान एक विशाल सागर है, जिसमें गोते लगाते-लगाते शायद हम थक जायेंगे पर सागर की विशालता और गहराई कम नहीं होगी। अतः हमारे सामने मानवता की परिपाटी मे जो सद् है और जो श्रेष्ठ है वही ज्ञान है। कवयित्री डाॅ. नन्दा शुक्ला ने ज्ञान जैसे विशाल विषय को बड़ी ही सरलता से व्यक्त किया है-
कहे कुछ
समझे कुछ
नहीं है ये ज्ञान का आलोक
समझे वही जो समझायें आप
यही है ज्ञान का सच्चा प्रकाश।

डाॅ. नन्दा शुक्ला की कविताओं को देखने से ऐसा लगता है जैसा कि उन्होंने अपनी व्यक्तिगत सोच और सामाजिक विचारधाराओं को मेल खाती कविताओं की रचना की है जो कि लगभग प्रत्येक कवि हृदय करता है। बाहरी झूठ, दिखावा, भ्रष्टाचार, निम्न सोच जैसे तथ्य कवि हृदय को अपने लेखनी से वही लिखवाते हैं जो समाज का प्रत्यक्ष आईना होती है। हम जो बताना चाहते हैं और वास्तव में सत्य है इसका अंतर कवयित्री की कविताओं से स्पष्ट है-
कैसी विडम्बना है
सत्य की खोज में निकले थे आज
झूठ के आडम्बर में फंस गये अपने आप
क्योंकि चाहते नहीं थे सत्य का बताना सब
समझते हैं कुछ वैसे।

‘जहां चाह वहां राह’ यानी इंसान अपने श्रम और अपनी सकारात्मक इच्छा शक्ति जो चाहे वह प्राप्त कर सकता, परंतु वर्तमान समय में यश, लक्ष्मी और धन प्राप्त करने की चाहत में इंसान वह सारे करम करने लगता है जो मानवता के खिलाफ होते हैं। कवयित्री ने अपनी कविता ‘मानव की चाहत’ में इस बात को बड़ी ही खूबसूरत से उभारा है, वह कहती है-
अपने को इतना निस्तेज न कर
श्रम का आशय सिर्फ़ श्रेय न हो
ढहा दो इन प्रबंध बितानों को
साकार करो इन मानव भावों को

अपनी कविताओं जैसे नवालोक, मानव की चाहत, कविता, जीवन पथ और ये जीवन शेष में कवयित्री ने जीवन के अनुभवों केा काव्य के रूप में शुद्ध काया व्यंजना और अलंकार के साथ प्रस्तुत किया है। समाज में व्याप्त व्याधियों से हमारा और आपका कभी न कभी सामना होता है हमारे अंदर भी पीड़ा उत्पन्न होती है। अगर आप डाॅ. नन्दा की कविताओं को देखेंगे तो उनकी यह पीड़ा कविता के रूप में अवश्य दिखेगी। कवयित्री ने एक स्थान पर कहा भी है-
कोई न कोई भाव
हमेशा खटकता है
हर मानव के अंतस्थल में
आत्म-पीड़ा बन जाये जन-पीड़ा
ऐसे शुरूआत होती है आत्मस्थल से
जो जगह लेती है अपने आप ही काव्य स्थल में

मैं डाॅ. नन्दा शुक्ला को हृदय से बधाई देती हूं और आशा करती हूं कि वह अपने इस प्रयास को सदैव जारी रखते हुए साहित्य रूपी यज्ञ में अपनी कविता रूपी सम्विधा समर्पित करती रहेंगी।
                                            ए-306,जीटीबी नगर, करैली, इलाहाबाद
                                                     मोबाइल नंबर: 9451433526



पुस्तक का नाम- निशीथ,  ISBN- 978-81-925218-1-7
पेज: 64
मूल्य: 40 रुपए पेपर बैक, 60 रुपए सजिल्द प्रकाशकः गुफ्तगू पब्लिकेशन
, 123ए-1,हरवारा,धूमनगंज, इलाहाबाद

कविता

कविता वह नहीं,
जिसमें खो कर इंसान
डूब जाए ऐसे
कि गहराई का लगा न पाये अंदाज़
भूल जाये अपने को सोचे हर बार
लिख दिया है क्या इसने हे भगवान।

रसता हो सरसता हो
अर्थ में भागवगम्यता हो
पढ़ते ही तदात्म्य कर लें आप,
समझते ही भाव अपना ले अपने आप।

ऐसा न आडम्बर हो,
बुद्धि प्रखरता समझाने के खातिर
कुछ भी समझ न पाये आज
भ्रांति में न डाले उसे आप
स्पष्टीकरण देकर फिर समझाये न उसे आप
सब कुछ अपने में ऐसा हो स्पष्ट
ज़रूरत न पड़े इसकी फिर आज।

कविता का मूल है भावों का संसार
न कि ऐसा शब्दों का माया जाल
प्रभुता में खो जाये इसमें ऐसे आप
ढूढ न पाये जिसमें अपना ये संसार।

इतने भी विज्ञ न बने
समझ न पाये जिसे कोई दूजा
माना विस्तृत है ज्ञान का सागर आपका
फिर भी निरर्थक ही रह गया
यह माया जाल आपका।

कहे कुछ
समझे कोई कुछ
नहीं है ये ज्ञान का आलोक
समझे वहीं जो समझायें आप
यही है ज्ञान का सच्चा प्रकाश।

आत्म-भिज्ञता के डोर से बंधे हम सब
ऐसे करते हैं अपने को अभिव्यक्त अब
जैसे चोर ने चोरी की हो कोई ऐसी
जिसे समाज में दिखाने से डरता है वह
आडम्बर में घेरता है फिर अपने को ऐसे
श्वेत वस्त्र धारण किये नेता घूमता है जैसे।

आडम्बरविहीन नहीं है जब जीवन ही आपका
कैसे दे पायेंगे अपना सर्वस्व ही समाज को
भावों में कोमलता आती नहीं ऐसे
खोना उसमें ज़रूरी होता है सबसे पहले।

कैसी ये विडम्बना हो गई अब
कवि भी हो गया मशीन सा जब
अभिव्यक्त करता है अपने को ऐसे अब
कुछ स्पष्ट नहीं कर पाता अपना सब।

खोजते रहते हैं प्रकाश को हम सब
क्या कहना चाहता है ये राही अब
बुद्धि को देते हैं हम सब दाद
कोई बेवकूफ न समझे हमको आज
फिर भी कुछ समझ नहीं पाते अपने में आप।

कैसी विडम्बना है
सत्य की खोज में निकले थे आज
झूठ के आडम्बर में फंसे गये अपने आप
क्योंकि चाहते नहीं सत्य का बताना हमस ब
समझाते हैं कुछ बाहर वैसे।

भक्ति बताता अनुरक्ति का भाव
काम बताता सात्विकता
समाजवाद बताता धन का अभाव
कर्म योग बताता धर्म-अज्ञानी
जिसको खलता है जो अभाव
उसकी बातें करता वह महानुभाव।

भाव अभावों को साधन न हो
अपने को छुपाने का माध्यम न हो
कविता करुण भावों का वो साधन न हो
पढ़कर जिसको हर जन साध्य करें
विचार करें उसे पर खुद ही अपने से।

कोई न कोई भाव
हमेशा खटकता है
हर मानव के अन्तस्थल में
आत्म-पीड़ा बन जाये जन-पीड़ा
ऐसे शुरूआत होती है आत्म स्थल से
जो जगह लेती है अपने आप ही काव्य स्थल में।

अभिव्यक्त कर दे आप वो स्र्वस्व
हर मानव में होते हैं मानव के हर भाव
छुपाना नहीं है हमें अपना अभाव
मनव सुन्दरतम जग में डूब कर ही
जान  पायेंगे इस मानव जीवन को।

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