शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

पुण्यतिथि ०९ दिसम्बर पर : बड़े भइया कैलाश गौतम के नाम चिट्ठी


----- यश मालवीय --------


अभी तो सरसों पियरायी नहीं थी, मीलों-मील आकर्षण नहीं बिछा था,गंधमाती बसंत की हवा झुरकी नहीं थी, पुरखों के खेत परती पड़े थे, टृैैैक्टर की किस्त पूरी नहीं हुई थी, मटर की मुट्ठी नहीं कसी थी, रामदुलारे की गाय बिवाई नहीं थी, श्याम के उबले दूध में मलाई नहीं पड़ी थी, पिछवाड़े के तालाब में रोहू ने आंखें नहीं खोली थीं, पटवारी से पिछले हिसाब निपटाने थे, छुटकी का गौना भेजना था, अभी तो सूखे ताल में झुनिया कंडे ही बीन रही थ, रामनगीना म्यूनिसपिलटी के स्कूल में अपने पोते के दाखिले के लिए छटपटा रहे थे, प्रयागराज में तंबुओं का शहर भी नहीं बसा था, गंगा की उदासी कटी नहीं थी, करछना से सोरांव तक पसरा सन्नाटा टूटा नहीं था, धान के खेत कटने के बाद कितना कुछ कट-बंट गया था मन में, ट्येबवेल के पानी का विवाद सुलझा नहीं था, कुएं की जगत पक्की नहीं हुई थी, पुआल का बिस्तरा नहीं बिछा था, रामचरना के घर कर्ज लेकर भागवत की कथा सुनने की योजना नहीं बनी थी, अखंड पाठ के लिए शहर के लउडस्पीकर बनकर नहीं आए थे, ग्राम पंचायत के चुनाव नहीं हुए थे, सूदखोर महाजन की ऐसी-तैसी नहीं हुई थी, ठाकुर के कुएं से रामसुभग ने पानी नहीं भरा था, अभी तो बहुत कुछ होना था। अभी तो तुम्हें कितनी-कितनी चिट्ठियां लिखनी थीं हमें, कितनी नसीहतें देनी थी समय और समाज को। यह क्या हुआ? बिना कुछ सोचे समझे आखिरी चिट्ठी लिख मारी। हमें तो तुम्हारी चिट्ठियों की आदत हो गयी थी बड़के भइया। तुम्हारी चिट्ठी, चिट्ठी नहीं सौ-सौ वाट के बल्ब होते थे हमारे लिए, सारा अंधेरा बिला जाता था। तुम कहते भी तो थे-


देखो जहां अन्हारे के
मारा पहेट के सारे के

अंधेरे को पहेट के मारने के लिए हमें तुमसे ही रोशनी की छड़ी चाहिए। तुम्हारी अलसी के फूलों जैसी लिखावट वाली चिट्ठी ‘थोड़ा कहा ज्यादा समझना’ वाला तकिया कलाम और वह मुंहफाड़-छतफाड़ छहाका जिसके चलते तुम सारा दुख और अवसाद पानी कर देते थे, तभी तो कह पाते थे-


गांव गया था, गांव से भागा,
बिना टिकट बारात देखकर।
टाट देखकर भात देखकर,
वही ढाक के पात देखकर
पोखर में नौजात देखकर।
पड़ी पेट पर लात देखकर
मैं अपनी औकात देखकर गांव गया था, गांव से भागा।

इस कविता पर श्रीलाल शुक्ल अपना ‘राग दरबारी’ निछावर करते थे। तुम तो गांव से भागने की बात करते थे, दुनिया से ही भाग निकले। तुम्हारा दिल बहुत बड़ा था, तुम ज़िन्दगी भर वहां दौरा करते रहे,‘दिल का दौरा’ तो तुम्हें पड़ना ही था। हमीं चूक गए, समझ नहीं पाए। तुम्हारी डिक्शनरी में ‘न’ कहीं नहीं था। मौत ने भी बुलाया तो कवि सम्मेलनी भाव से चल निकले। तुम कवि भी हो यह तो जानता था बड़के भइया! पर बड़का भारी कवि हो यह तुम्हारे जाने के बाद जाना। सारे अख़बारों में तुम्हारी हंसती हुई, मंुह चिढ़ाती हुई सी फोटुएं छपीं, कुछ ऐसा भाव लिए ‘देखा कैसा छकाया’। तुम हमेशा हड़बड़ी और जल्दी में रहते थे, दुनिया से जाने में भी तुमने जल्दी की। शब्दबेधी वाण से तुम चले गए, देखो धनुष की डोर सा अब भी थरथरा रहा है गांव-शहर। ‘तीन चौथाई आंन्हर’ वाले कठिन काल में आंखों मेें ‘जोड़ा ताल’ और ‘सिर पर आग’ लिए तुम युग की आंखों में पड़ा मोतियाबिंद काटने लगे थे। तुम किसी को सेटते नहीं थे, आने आपको को भी नहीं।सारे संसार को प्यार करने को आकुल रहते थे। तुम्हारा सिलेटी स्कूटर उदास खड़ा है। उसके पहिए का चक्कर तुम्हीं थे। लाल हेलमेट पहनकर शहर की सड़कों पर जब तुम निकलते थे तो जैसे शहर की छाती चौड़ी हो जाती थी। कितनी बार कहा, ‘यह हेलमेट बदल दो’ मगर तुम हमेशा यही कहते, प्यारे!दमकल तुड़वाकर यह हेलमेट बनावाया है, बहुत सारी आगें हमें भी बुझानी होती हैं।
तुम आग ही तो बुझा रहे थे। जैसे तालाब का पानी साफ़ करने के लिए पानी में उतरना पड़ता है, उसी तरह आग बुझाने के लिए तुम लपटों के जंगल में कूद पड़े थे और लिख रहे थे-

संतों में,हम प्रयाग खोजते रहे,

धुआं-धुआं वही आग खोजते रहे।

तुम्हें धुएं से सख्त नफरत थी, इसीलिए तुम धुआं नहीं हुए, धधकती आग जैसा जीवन तुमने जिया। तुम कभी अस्त नहीं हो सकते, इसलिए दुनिया से जाने के लिए तुमने सूर्वोदय के बिल्कुल निकट वाला समय चुना, जब सूर्य माध्याह्न आकाश की ओर बढ़ रहा था, तुमने हाथ बढ़ाकर अपनी ज़िन्दगी का सूरज तोड़ लिया। तुम डूबे तो और भी अधिक उभर आए। यह शहर इलाहाबाद तुम्हें बहुत प्यार करता है, तुम भी इस शहर को बहुत चाहते थे, तभी तो बनारस से ‘जय श्रीराम’ कहकर इलाहाबाद चले आए थे। तुमने उन सुदूर अंचलों में जाकर भी कविता का दिया जलाया, जहां आज तक सड़क भी नहीं बिछी है, बिजली तो बहुत दूर की बात है। भारती जी कहते थे, ‘जानते हो मुझे कैलाश गौतम की कविताएं क्यों अच्छी लगती हैं, इसलिए अच्छी लगती हैं, क्योंकि उसकी कविताओं में गांव-जवार सांसें लेती हैं, गंवईं मन बोलता है और सबसे बड़ी बात उसमें इलाहाबाद दिल की तरह धड़कता है।’
बनारस का ठेठपन और इलाहाबाद का ठाठ दोनों तुममें साकार हो गए थे बड़के भइया। तुम कविता के किसान थे, भावनाओं के बीज बिखेरते तुमने ज़िन्दगी के 62 साल पलक झपकते काट दिए, यह कविता के आढ़तिए कभी नहीं समझेंगे। तुम जनवादी थे, तुमने कवि सम्मेलनों के माध्यम से अपना जनवाद जन तक पहुंचाया। तुम कागज़ पर भी जब आते या छपते थे तो कागज़ भी सांसों की तरह स्पंदित हो उठता था। सच कहंें तो तुम कागज़ और मंच के बीच जीवनभर नैनीपुल की तरह कसे रहे। तुम्हें बंबई जाकर भी चैन नहीं मिला, छटपटा उठे थे-

जब से आया बम्बई, तब से नींद हराम,

चौपाटी तुमसे भली, लोकनाथ की शाम।


तुम गंगा के देवव्रत थे, तुम यमुना के बंधु जैसे थे, तुमसे संस्कृतियों का संगम लहराता था। तुम झूंसी से अरैल, अरैल से किले तक शरद की धूप ओर चांदनी आत्मा में उतरने देते थे-


याद तुम्हारी मेरे संग वैसे ही रहती है,

जैसे कोई नदी किले से सट के बहती है।

अभी तो पुरइन के पात की चिकनाई पूरी तरह मन में उतरी नहीं थी, अभी तो ‘अमवसा का मेला’ लगा नहीं था, अभी तो गुलब्बो की दुलहिन भरी नाव जैसे नदी तीरे-तीरे दिखाई नहीं दी थी। अभी तो बचपन की दोनों सहेलियां चंपा-चमेली को इसी भीड़ भड़क्के मेले ठेले में मिलना था। पर यह सब क्या हो गया, कैसे हो गया? लगने से पहले कोई आग लग गई, जुड़ने से पहले ही कोई बिखर गया। हाथ से गिरा शीशा पुआल पर गिरा तो बच जाता, वह तो चट्टान पर गिरा और चूर-चूर हो गया, वैसे ही जैसे कोई सपना चूर-चूर होता है। बड़के भइया तुम बहुत याद आ रहे हो। इस साल नए साल पर तुम्हारी शुभकामनाएं नहीं मिलीं। लगा ही नहीं कि नया साल आया है। अब तो तुमने मोबाइल भी खरीद लिया था, कान में उंगली डालकर जोर-जोर बोला करते थे,कहते थे कि अक्सर ‘बिना कान के आदमी’ से बतियाना पड़ता है। हम तुम्हारी पंक्तियां सहेजते ही तुम्हें बिसूर रहे हैं-


कैसे-कैसे दिन होते थे
छांव-छांव होता था कोई
हम पुरईन-पुरईन होते थे
एक-एक हिलकोर याद है
आंख मिचोली चोर याद है
बातों में तुलसी होते थे,
बातों में लेनिन होते थे


गुफ्तगू
के मार्च 2007 अंक में प्रकाशित

2 टिप्पणियाँ:

Krishna Kumar Naaz ने कहा…

यश मालवीय जी ने ठीक ही कहा है, कैलाश गौतम जी कविता के किसान थे। बहुत श्रद्धा के साथ बहुत सुंदर और सुगंधित शब्द-सुमन अर्पित किये हैं मालवीय जी ने। नाज़िया ग़ाज़ी साहिबा ने यह ’चिट्ठी’ इंटरनेट पर देकर गौतम जी के चाहने वालों पर उपकार किया है। ’गुफ़्तगू’ को साधुवाद।
- कृष्णकुमार ’नाज़’

Saurabh ने कहा…

नीब वाली कलम अब उस तरह से जीवन का हिस्सा नहीं रहीं. लेकिन एक समय दवात की रोशनाई में नीब डुबो कर लिखना होता था. कुछ और पहले, अपने छुटपन की यादों से उधार लूँ, तो नन्हीं छिद्रों वाली टिनही डिब्बी हुआ करती थी महीन बालु छिड़क कर पोंछ देने के लिये.

यशजी का ’बड़े भइया’ कैलाशजी पर संस्मरणात्मक लेख मानों अँटके आँसुओं में नीब को डुबो कर लिखा हुआ है. ठहराव लिये शब्दों से स्थावर भाव बँधे हैं. पंक्ति-पंक्ति विह्वल हुई, उस आत्मीय को जोह रही है.

हृदय जब आकाश हो जाय न, तो सबकुछ समोने लगता है, दर्द भी. अपना-पराया के भेद से ऊपर ’हम’ को जीना यही तो है. कैलाशजी इसी ’हम’ भाव को जीते थे.

कैलाश गौतम जी की कोई रचना हमने तब धर्मयुग में पढ़ी थी. तब मैं राँची में था और पत्रिका का वो ’नया’ अंक आया था. दृष्टि तो बस चिपक रह गयी थी उस पन्ने पर -
गुलमुहर, काली घटा, आधी जुलाई क्या करें
फिर लिसी फूँक कर मारी है राई क्या करें..


बड़ी देर तक जीता रहा था शब्द-शब्द.

सधन्यवाद

--सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)

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