रविवार, 15 दिसंबर 2024

चराग़-ए-अश्क़-ए-अज़ा कर्बला का नज़राना

                                                           - डॉ. वारिस अंसारी 


  

 शायरी की बहुत सी सिंफे हैं, लेकिन इन सिंफों में सबसे कठिन सिन्फ़ ही मर्सिया/नौहा है। मर्सिया कहने में ज़रा भी चूक हुई तो आप कुफ्र की हद में जा सकते हैं और शान-ए-अहले बैअत का भी ख़याल रखना है। डॉ. सय्यद ज़फर हसनैन ज़फर अहिरौलवी ने अपनी किताब ‘चराग़-ए-अश्क-ए-अज़ा’ में इस बात का पूरा ख़्याल रखा है। ज़फर अहिरौलवी में अपना क़लम चलाया तो चलाते ही चले गए। उन्होंने क़सीदा सलाम और नौहा ख़्वानी के वह जौहर दिखाए हैं, जो दूर-दूर तक देखने को नही मिलते। उन्होंने अशआर में सिर्फ काफ़िया पैमाई नहीं कि बल्कि हक़ीक़त को समोया है। उनके अशआर में दर्द है सोज़ है। उनके अशआर पढ़ने पर ऐसा लगता है कि कर्बला का वह दर्दनाक मंज़र नज़र के सामने है और दिल एक कर्ब में डूब जाता है। आंखों से आंसू जारी हो जाते हैं। ज़फर अहिरौलवी की शायरी में वह सारी खूबियां मौजूद हैं, जो एक शायर में होनी चाहिए। उनके यहां नफ़्स भी शराफ़त दर्दमंदाना दिल और खुश अखलाकी ख़ूब-ख़ूब देखने को मिलती है और ये सब इसलिए भी देखने को मिलेंगा क्योकि वह अहले-बैअत की मोहब्बत में गुरवीदह हैं। उनकी फिक्र में बड़ी बलन्दी है जो उन्हें दूसरे शायरों से मुनफ़रिद बनाती हैं। आइये उनकी इस किताब से कुछ अशआर भी मुलाहिजा करते चलें-

                  सज़दे के इंतेसाब में पर्दे के बाब में,

                  भाई का सर बहन की रेदा यादगार है।


                  ये पूछिए रसूल से सज़्दे के तूल से,

                  कितनी अज़ीम सिब्ते पयंबर की ज़ात है।


                  फर्श ए अज़ा पे होते हैं वह अंजुमन के लोग, 

                  देते है फात्मा को जो पुरसा खड़े खड़े।

                  

                  पानी को मुंह लगाते नही ज़िन्दगी में वह, 

                  जो खून से बनाते है काबा खड़े खड़े।


                  कर चुका काम जब अपना रगे गर्दन का लहू, 

                  मुस्कुराते हुए मैदान से असग़र निकलें।

पूरी किताब ‘चराग़-ए-अश्क़-ए-अज़ा’ में ऐसे एक बढ़कर एक बालातर अशआर मौजूद हैं जिनको पढ़कर दिल मोहब्बत ए अहले बैअत में ग़र्काब हो जाता है। इस हसीन तोहफे के लिए शायर काबिल-ए-मुबारकबाद हैं। खूबसूरत हार्ड कवर के साथ किताब में 306 पेज हैं जिसकी कीमत रुपये में नहीं बल्कि मरहूमा असग़री बेगम बिन्त ए सज्जाद हुसैन के ईसाल ए सवाब के लिए एक सूरह फातेहा है। किताब को मजहबी दुनिया इलाहाबाद से प्रकाशित किया गया है।


बच्चों की ज़हनी सलाहतों के अदीब शुजाउद्दीन 

  



अदीब होना ही अपने आप में एक कमाल है। खुदा की अनगिनत नेमतों में से ये भी एक अज़ीम नेमत है, लेकिन बच्चों का अदीब होना और भी बड़ा कमाल है। आज बच्चों के अदीब या शाइर इतने हैं कि उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। उर्दू अदब के इन चंद अज़ीम लोगों में शुजाउद्दीन शाहिद का नाम सबसे ऊपर है। शाहिद आज किसी परिचय (तअरुफ) के मोहताज नहीं हैं। बच्चों के अदब के साथ-साथ ग़ज़लगोई में भी उनका नुमाया नाम है। वह बच्चों के ज़हनी सलाहियतों को बखूबी समझते हैं और अपनी शायरी से हर उम्र के बच्चों को मुतास्सिर (प्रभावित) करने की सलाहियत रखते हैं। जिससे उनकी शायरी बच्चों के ज़हनो में हिफ्ज (कंठस्थ) हो जाती है। ‘आओ छू लें चांद सितारे’ नामक इनकी किताब बच्चों की नज़्मों का मजमूआ (संग्रह) है। जिसमें वह बच्चों की ज़ह्नी सलाहियतों को उजागर करते नजर आते हैं। वह अपनी नजरों में दुनियावी चीज़ों, साइंस, टेक्नोलोजी और दीनी तखलीक (रचना) से बच्चों के जेहन को तरो ताज़ा करते हैं।  आसान ज़बानी उनके नज़्मों की खास खूबी है। जिससे बच्चों को पढ़ने और समझने में आसानी होती है और बच्चे अपने आप को बोझिल भी नहीं महसूस करते। आइए उनकी नज़्मों से कुछ अशआर भी पढ़ते चलें- ‘बच्चों राकेट नाम है मेरा/उड़ना ख़ला में काम है मेरा/जब भी ख़ला में जाता हूं मैं/राज़ नए दिखलाता हूं मैं।’, ‘ये जो नद्दी नाले हैं/ जीवन के रखवाले हैं/ मेरी अम्मी कहती है/ये अमृत के प्याले हैं।’, ‘जहां अब्बू अम्मी को हम देखते हैं/ खुदा का करम ही करम देखते हैं।’ 

 शाहिद ये बात जानते हैं कि हमारे बच्चों को साइंस और टेक्नोलॉजी की बहुत ज़रूरत है इसी लिए वह ऐसी मौजूआती नज़्मों की तखलीक करते हैं। जिससे बच्चों की ज़हनी सलाहियत में इजाफा (बढ़ोत्तरी) होता रहता है और बच्चों का मनोरंजन भी। यही वजह है कि शुजाउद्दीन शाहिद की किताब ष्आओ छू लें चांद सितारेष् बच्चों के लिए अदबी दुनिया की नायाब किताब है। खूबसूरत बाइंडिंग के साथ इस किताब ने 104 पेज हैं। जो कि 2022 में जागृति आफसेट बाय कल्ला मुंबई से कंपोज हो कर न्यूज टाउन पब्लिशर्स मुंबई से शाया ( प्रकाशित) हुई है। किताब की कीमत सिर्फ 100 रुपए है।


आईना-ए-हयात है ‘हर्फ हर्फ आईना’




                  ज़िंदगी क्या है इस हकीकत का, 

                  होते -होते  शऊर    होता   है। 

  ये एक शे’र ही सरफराज़ हुसैन फ़राज़ की अदबी सलाहियातों को समझने के लिए काफी है कि उन्होंने समाज और रोज़ मर्रा की ज़िंदगी में आने वाले मसाइल को करीब से देखा और समझा है। ‘हर्फ-हर्फ आईना’ फ़राज़ का दीवान है। जिसको सुलैमान फ़राज़ हसनपुरी ने काफिया की हुरूफ ए तहज्जी से बड़े सलीके के साथ तरतीब दिया है। सरफराज़ हुसैन से मेरा कोई ज़ाती तअल्लुक नहीं और न ही मेरी उनसे कोई गुफ्तगू हुई। लेकिन उनका दीवान पढ़ कर दिल बाग-बाग हो गया। दीवान पढ़ कर ऐसा महसूस हुआ कि सचमुच फ़राज़ जैसे लोग ही उर्दू के सच्चे अलम्बरदार हैं, क्योंकि उर्दू के नाकेदीन से तो कोई उम्मीद वाबस्ता नहीं रही, वह जिसे चाहें आसमान की बुलंदी पर पहुंचा दें और जिसे चाहें ज़मीन के तह में दफ्न कर दें खैर.... जो सच है जिसके यहां अदबी सलीका है वह कहीं भी रहेगा अपनी चमक से दुनिया ए अदब को रौशन करता रहेगा। सरफराज़ हुसैन फ़राज़ ऐसे ही अदीब हैं जिनकी शायरी में मीर का दर्द, ग़ालिब की हुस्न सुलूकी और इकबाल की फिक्र भी मौजूद है। उनकी शायरी का लब ओ लहजा मुंफरिद है। उन्होंने अपनी ग़ज़लों में नए मौजूआत को भी बड़े सलीके से बरता है। उनकी शायरी में बनावट बिल्कुल नहीं है। वह इतनी सफगोई से शे’र कहते हैं कि उनका हर शे’र आईना नज़र आता है। आइए उनके कुछ अशआर भी मुलाहिज़ा करते चलें-

              आंखों का उनकी ख्वाब ये सच्चा नही हुआ। 

              बीमार उनका आज भी अच्छा नहीं हुआ। 


               रहते थे साथ मेरे रकीबों के जो कभी, 

               मुझ पर लूटा रहे हैं दिलो जान देखो आज। 


                सवालों में गड़बड़ जवाबों में गड़बड़।

               वो अब कर रहे हैं किताबों में गड़बड।़ 


                 सब हैं हमदर्द बस तुम्हारे ही, 

                 कोई भी अपना गमगुसार नही।ं 


                 इक नजूमी ने बताया है फ़राज़,

                 ख़्वाब में ज़र देखना अच्छा नहीं। 

 कुल मिलाकर इनका पूरा मजमूआ पढ़ने लायक है और ये दीवान यकीनन उर्दू अदब में एक इज़ाफ़ा है जो रहती दुनिया तक कायम रहेगा। 320 पेज के इस दीवान को खूबसूरत हार्ड जिल्द में बांधा गया है। रोशन प्रिंटर्स देहली से किताबत हुई और एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस दरिया गंज देहली से शाया (प्रकाशित ) किया गया है। दीवान में उम्दा किस्म के काग़ज़ का इस्तेमाल हुआ है जिसकी कीमत सिर्फ 400 रुपए है।


(गुफ़्तगू के जुलाई-सितंबर 2023 अंक में प्रकाशित )


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