एहसास का ज़खीरा ‘खलिश’
- डॉ. वारिस अंसारी
कोई भी अदीब जब अदब (साहित्य) के सागर में गोता लगाता है तो वह कुछ न कुछ हासिल करके ही बाहर निकलता है। सबके अपने ख़्याल होते हैं। वक़्त की तरह अदीब का ज़ेहन भी नई तखलीक करने की कोशिश में रहता है और यही कोशिश उसे उसकी मंज़िल तक ले जाती है। दौरे हाज़िर में इसी तरह की कोशिश और मेहनत की बदौलत नई नस्ल की तखलीककार नाज़नीन अली नाज़ का नाम है, जो आज किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। नाज़नीन अली नाज़ का अदब से गहरा रिश्ता है। इन्होंने अपनी मेहनत से कई अदबी अवार्ड भी हासिल किए हैं। वह नस्री (गद्य) और शेरी (पद्य) दोनों विधा में महारत रखती हैं। इस वक़्त उनका नॉवेल ‘खलिश’ मेरे हाथ में है, जिसका मैंने पूरा मुताअला किया। निहायत ही सादा और आसान ज़बान में बहुत ही खूबसूरत नॉवेल है, जिसमें लफ्जों का बरताव बड़े सलीके से किया गया है। नावेल को इतने दिलचस्प अंदाज़ में लिखा गया है की पढ़ने वालों पर बोझ नहीं लगता और क़ारी (पाठक) एहसास के सागर में डूबता चला जाता है।
इस कहानी के अहम किरदार जीशान और रश्मि की पाक मोहब्बत को लव-जिहाद का नाम देकर उन्हें मौत की आगोश में सुला दिया जाता है और ज़ालिम इसे धर्म व समाज की हिफाज़त का नाम देते हैं। इस तरह कितनी मासूम मोहब्बतें मौत का शिकार हो रही हैं। नाज़नीन अली नाज़ ने यही दर्द ‘खलिश’ में लोगों के सामने उजागर किया है। पूरी नॉवेल को नाज़नीन ने चार हिस्सों में तकसीम किया है। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, इसके किरदार भी अपनी पहचान बदलते रहते हैं। इस तरह नाज़नीन ने समाजी मसाइल की तस्वीर पेश की है और उनका हल भी सवालिया अंदाज़ में किरदारों के तर्ज़े अमल को भी पेश किया। उनके सवाल सुनने में तो बड़े आम से लगते हैं, मगर सवालों की खूबी ये है क़ारी उन्हीं में अपने जवाब भी तलाश कर सकता है।
किताब की कम्पोजिंग अल्फ्रेड कंप्यूटर इलाहाबाद ने कम्पोज किया है, जिसकी स्कर्ट लाइन प्रिंटर्स प्रयागराज से छपाई हुई है। गुफ़्तगू पब्लिकेशन हरवारा, धूमनगंज प्रयागराज से प्रकाशित किया गया है। खूबसूरत सरे-वर्क और हार्ड जिल्द के साथ 152 पेज की किताब में अच्छे किस्म के काग़ज़ का इस्तेमाल किया गया है। जिसकी कीमत 200 रुपए है। उम्मीद करता हूं कि नाज़नीन अली नाज़ का ये नावेल खलिश समाज और अदब में नुमाया मुकाम हासिल करेगा।
अदब की नुमाया किताब ‘हर्फ हर्फ खुशबू’
सरफराज़ हुसैन फ़राज़ पीपल सानवी (मुरादाबाद) आज किसी तअरुफ़ (परिचय) के मोहताज नहीं हैं। यूं तो शायरी खुदादाद सलाहियत का नाम है, लेकिन खुदा उन्हीं को कामयाबी करता है जो अपने काम के लिए कोशा रहते हैं। फ़राज़ की शायरी पढ़ कर कहीं भी ऐसा महसूस नहीं होता कि उन्होंने कहीं कोताही की है। बल्कि हर शे’र उनके जिंदादिली की गवाही देता नज़र आ रहा है। वह खुदा की ज़ात पर यकीन रखने वाले एक कामिल शाइर की सफ में हैं। उनकी ग़ज़लों में उस्तादाना झलक है। उन्होंने अपनी शायरी में इश्क-मोहब्बत के साथ-साथ रोज़मर्रा के मसाइल भी बयान किए हैं। उनकी शायरी में शगुफ्तगी, शीरी-बयानी, आसान अल्फाज़ और पढ़ने में रवानी है, जिससे क़ारी (पाठक) का मज़ा दोबाला हो जाता है। उनकी शायरी में मोहब्बत की कशिश भी है और ज़़माने के लिए पैगाम भी। कुल मिलाकर वह उम्दा किस्म की शायरी करते हैं जो कि उर्दू अदब के लिए मील का पत्थर साबित हो सकती है। आइए उनके कुछ खूबसूरत अशआर मुलाहिज़ा करते चलें-‘खिलता गुल मुरझा गया है, क्या हुआ, कैसे हुआ/कुछ तो बोलो बात क्या है ,क्या हुआ, कैसे हुआ।’,‘खून से लाल हैं अखबार खुदा खैर करे/सब हैं कातिल के तरफदार खुदा खैर करे।’, मैं भूल जाऊंगा जामो शराब की बातें/तुम्हारी आंखों की थोड़ी अता ज़रूरी है।’, ‘अपनी हर बात बता देता है पागल उनको/दिल ही कुछ ऐसा है नादान खुदा खैर करे।’
मज़कूरा बाला अशआर उनकी शायराना हैसियत और अदबी दिलचस्पी की गम्माजी के लिए काफी हैं। बाकी पूरा दीवान ‘हर्फ हर्फ खुशबू’ पढ़ने लायक है। उनकी शायरी पढ़ कर नई नस्ल के शायर अदबी फायदा हासिल कर सकते हैं और अपने खयालात को भी वसीअ (बड़ा) कर सकते हैं। हार्ड जिल्द के साथ उनके दीवान में 320 पेज हैं। किताब को रोशन प्रिंटर्स देहली से किताबत करा कर एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस लाल कुआं देहली से शाया (प्रकाशित) किया गया है। किताब की कीमत सिर्फ 500 रुपए है।
समाज का आईना ‘मुकद्दस यादें’
यादें तो गुज़रे हुए दौर की होती हैं लेकिन जब ये यादें किसी शायर/ ाायरा से मंसूब (संबद्ध) हो जाएं तो तो उन यादों की पूरी कैफियत, पूरा रूप ही बदल जाता है। हिंदी का एक मशहूर मुहावरा है ‘जहां न जाए रवि वहां जाए कवि।’ इसी मुहावरा को अमली जामा पहनाया है मशहूर शायर व समाजी कारकुन डॉ. शबाना रफीक ने अपनी किताब ‘मुकद्दस यादें में। मुकद्दस यादें उनकी नज़्मों का मजमूआ(संग्रह) है। जिसमें कुछ नज़्में बाबहर (छंद युक्त) और कुछ आज़ाद (छंद मुक्त) हैं। उन्होंने इस किताब में गुज़रे हुए ज़माने को भी याद किया है और वक़्त के हालात को भी महसूस किया है और खूबसूरत मुस्तकबिल की ख्वाहिशमंद भी हैं। उनकी शायरी आसान और शीरीं ज़बान में है, जिसे आसानी के साथ पढ़ कर महसूस किया जा सकता है। ‘शीदाने वतन’, ‘ख्वाहिश’, ‘वक़्त की आवाज़’, ‘नया जहां’, ‘मां’ तमाम ऐसी नज्में हैं, जिनमें उन्होंने समाजी एकता को बढ़ाने की आरज़ू की है और साथ ही साथ वह खौफ, दहशत, मायूसी, बेइमानी के सख़्त खिलाफ भी हैं। वह मुल्क से मोहब्बत करने वाली वतन-परस्त शायरा हैं। आइए उनकी वतन से मोहब्बत की एक झलक देखते हैं-‘अपने तिरंगे की इज़्ज़त बचा लीजिए/ मुल्क फिर सोने की चिड़िया बना दीजिए/मिटा कर बेवजह नफरतों को दिलों से/इंसानियत से दुनिया सजा दीजिए/घर में पूजा करें या सजदा करें/घर के बाहर खुद को हिंदोस्तानी बना लीजिए।’
उनके अशआर किस बहर में हैं ये तो मुझे नहीं मालूम, लेकिन उनके ख़्यालात में किस कदर मुल्क की इज़्ज़त है, मुल्क के सर बुलंदी की तमन्ना है वह काबिले-तारीफ है। अल्लाह उनके जज़्बात सलामत रखे। इस किताब की एक बहुत बड़ी खूबी ये भी है कि ये हिंदी और उर्दू दोनों रसमुल खत में है, जिसे डॉ. शबाना ने अपनी मां को समर्पित किया है। हार्ड और खूब सूरत जिल्द व उम्दा किस्म के काग़ज़ पर सजाया गया है। किताब की कंपोजिंग छपाई घर ब्रह्म नगर कानपुर से हुई और रोशनी पब्लिकेशंस 110/138 बी, जवाहर नगर कानपुर से प्रकाशित हुई। 118 पेज के इस किताब की कीमत सिर्फ 200 रुपए हैं।
( गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2023 अंक में प्रकाशित )
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