रविवार, 1 दिसंबर 2024

कार्य क्षेत्र को ही जीवन मान लेना व्यक्ति की सबसे बड़ी नादानी: डॉ. अखिलेश निगम ‘अखिल’ 


अखिलेश निगम ‘अखिल’


शिव मंगल सिंह सम्मान (पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर जी द्वारा वर्ष-1996 में प्रदत्त), राष्ट्रपति का पुलिस पदक (पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा वर्ष-2015 में प्रदत्त),  पुलिस महानिदेशक उत्तर प्रदेश द्वारा प्रशंसा चिह्न (वर्ष-2023), साहित्य शिरोमणि सारस्वत सम्मान, साहित्य गौरवसम्मान, सुमित्रानन्दन पन्त सम्मान, डॉ. विद्या निवास मिश्र सम्मान और विभिन्न साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा 150 से अधिक सम्मानों से विभूषित, लोकप्रिय कवि, शायर एवं कहानीकार डॉ. अखिलेश निगम ‘अखिल’ का जन्म  05 अगस्त, 1966 ग्राम हसनपुर खेवली, लखनऊ में हुआ है। एम. काम., एल.एल.बी. एवं आई.सी.डब्लू.ए. की परीक्षा पास करने के बाद आपका चयन पुलिस सेवा (आइ पी एस) के पद पर हुआ। वर्तमान में आप डी.आई.जी. (आर्थिक अपराध शाखा) के पद लखनऊ में कार्यरत हैं। हिन्दी के प्रति अत्यधिक प्रेम की वजह से आपने, नौकरी करते हुए, हिंदी में स्नातकोत्तर उपाधि तथा अंततः हिंदी में डाक्टरेट (पीएचडी) की उपाधि प्राप्त की है। ‘अभिलाषा’, ‘उत्तर देगा कौन?’, ‘गजलें अखिल की’, ‘अखिल दोहा सतसई’, ‘गिरगिट’,‘ललित निबंध और डॉ. रघुवीर सिंह’ और ‘भाव कलश’ आदि नाम से आपकी पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं। लखनऊ स्थित कार्यालय में पहुंचकर अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने इनसे विस्तृत बात की है। प्रस्तुत उस बातचीत के प्रमुख अंश -

सवाल: वर्तमान समय में ग़ज़ल का क्या भविष्य है,  और ग़ज़लों की विषय वस्तु पर आपका क्या दृष्टिकोण है?

जवाब: पहले ग़ज़ल का कथ्य बहुत सीमित था, ग़ज़ल में सिर्फ़ श्रंृगार की ही बात होती थी। मगर, वर्तमान समय में जीवन के सभी पहलुओं पर ग़ज़ल में बात होती है। आज की ग़ज़लें, व्यक्तिगत, सामाजिक समस्याओं, कुरीतियों तथा पर्यावरण संबंधित समस्याओं को उजागर करती हुई उनका समाधान भी प्रस्तुत कर रही हैं। ग़ज़लें अब एक पक्षीय न होकर बहुपक्षीय हो गई हैं। ग़ज़लें अब व्यक्ति और समाज दोनों से जुड़ रही हैं। हालांकि उर्दू ग़ज़लों में सामाजिक विषयों पर कम काम हुआ है। हिन्दी की तरह ही, उर्दू ग़ज़लों में भी, धीरे-धीरे विभिन्न सामाजिक विषयों का समावेश हो रहा है। मेरी ग़ज़ल कृति ‘ग़ज़लें अखिल की’ में कुल 101 ग़ज़लों में से केवल 8-10 ग़ज़लें ही रोमांटिक हैं, बाकी सभी, सामाजिक विषयों से संबंधित हैं। जहां शरीर, मन और आत्मा का एकाकार होता है, वहीं से साहित्य की शुरूआत होती है। बात न्याय की ही होनी चाहिए। दिनों-दिन ग़ज़लों का भविष्य मुझे निरंतर निखरता हुआ ही दिखता है।


सवाल: साहित्य में आपका रुझान कब, क्यों और कैसे हुआ ?

जवाब: मुझे बचपन से ही साहित्य अध्ययन एवं सृजन का शौक रहा है। उम्र के साथ-साथ यह शौक भी बढ़ता गया। विद्यार्थी काल में राजकीय इंटर कालेज की वार्षिक पत्रिका में मेरी  कविता छपी, जिससे साहित्य के प्रति मेरे इस आकर्षण को और बल मिला। पढाई के दौरान, कविताओं में रुचि होने के कारण बहुत सी कविताएं मुझे कंठस्थ थी। अतः मेरा चयन, कालेज की अंत्याक्षरी टीम के कैप्टन के पद पर भी हुआ। शुरूआती दौर में कविताएं लिखने के दौरान ही मेरी लेखनी मुझे गजलों की तरफ मोड़ने लगी। वर्ष-2003 में मेरी मुलाकात प्रसिद्ध शायर डॉ. मिर्जा हसन ‘नासिर’ जी से हुई। उनसे कई बार की मुलाकातों ने मेरे अंदर के ग़ज़लकार को परिष्कृत कर बाहर निकाला और मेरी ग़ज़ल लेखन यात्रा वर्ष-2004 से प्रारंभ हो गई जो कविता, कहानी लेखन  के साथ-साथ फलती फूलती रही। मेरी पहली पुस्तक ‘अभिलाषा’ है, जो कि छंदबद्ध गीत, कविता और ग़ज़ल पर आधारित है तथा ‘उत्तर देगा कौन ?’ जो नई कविताओं पर आधारित है, वर्ष-2006 में प्रकाशित हुई। तत्पश्चात वर्ष-2015 में ‘अखिल दोहा सतसई’ दिल्ली से प्रकाशित हुआ। इसी वर्ष मेरा कहानी-संग्रह ‘गिरगिट’ भी प्रकाशित हुआ। ग़ज़ल लेखन यात्रा वर्ष-2004 से प्रारंभ तो हुई पर मेरे ग़ज़लों का संग्रह ‘ग़ज़लें अखिल की’ वर्ष-2022 में ही प्रकाशित हो पाया। 

सवाल: पुलिस सेवा में रहते हुए, आप अदब के लिए समय कैसे निकालते हैं?

जवाब: कार्य क्षेत्र को ही जीवन मान लेना व्यक्ति की सबसे बड़ी नादानी है और यही अहंकार का कारण है। मैं जीवन से जुड़े हर दायित्व एवं कर्तव्य के लिए आवश्यक समय निकालकर उनमें संतुलन बनाए रखता हूं। यह जीवन रंगमंच है, मैं यहां कार्यालय में डी आई जी का रोल, घर परिवार में परिवार के सदस्य/मुखिया  के रूप में, मित्रों के साथ मित्र के रूप में, तथा रिक्त समय एवं साहित्यिक गोष्ठियों के समय में साहित्यकार का रोल निभाते हुए, सबको उपयुक्त समय देते हुए आवश्यक संतुलन बरकरार रखता हूं। आजकल व्यक्ति का मोटो ‘वसुधैव कुटुंबकम’ से परिवर्तित होकर ‘कुटुम्ब कैव वसुधा’ में हो गया है। अपनी असीमित आकंक्षाओं एवं लालसा में फँसा हुआ मनुष्य, पूरा जीवन इन्हीं को हासिल करने में बिता देता है और यही उसके तनाव का कारण है।


अखिलेश निगम ‘अखिल’(बीच में) से बात करते अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’(दाएं) साथ में इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी (बाएं) 

सवाल: ऐसा माना जाता है कि पुलिस बहुत ही कठोर होती है, साहित्य सृजन कोमल हृदय वालों लोगों का काम है। इस बारे में आपका क्या मानना है?

जवाब: जितनी भी नदियां हैं सभी पहाड़ों से निकलती है। तरल की उत्पत्ति कठोरता से हुई है। सरसों का तेल कठोर सरसों से, बेल का जूस कठोर बेल से ही तरल रूप में प्राप्त होता है। तरल से तरल की उत्पत्ति नहीं दिखाई देती। साहित्य की संरचना, कल्पना, भाव और यथार्थ के मिश्रण से होती है। हां, इनके अनुपात, समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं। जब व्यक्ति अन्य कार्यक्षेत्र में है तो उसको कविता या कहानी के लिए प्लाट ढूंढना पड़ता है। लेकिन पुलिस अधिकारी के पास कविता, कहानी का प्लाट स्वयं आता है। पुलिस के पास लोग अपनी अपनी समस्याएं लेकर आते हैं। हर समस्या, कहानी, कविता या ग़ज़ल का, प्लाट हो सकती है। जिस समय व्यक्ति आता है उस समय उसके दिल में दर्द, मस्तिष्क में झंझावात और वाणी मूक होती है। चाह कर भी वह कुछ बोल नहीं पाता है। सामने बैठा व्यक्ति यदि संवेदनशील है तो यही उसके सृजन के लिए एक प्लाट होता है। मेरी अपनी बहुत सी कहानी कविता के प्लाट इसी तरह से तैयार हुए हैं।

सवाल: साहित्य पुलिस के लिए किस-प्रकार मददगार साबित हो सकता है?

जवाब: उत्तम साहित्य पुलिस विभाग के किसी भी कर्मचारी या अधिकारी को अच्छा इंसान बनने की प्रेरणा देता है। जिससे वह आम आदमी की समस्याओं को अच्छी तरह से समझ कर उनके निवारण का सम्यक प्रयास कर सकता है।

सवाल: वर्तमान समय के सबसे महत्वपूर्ण शायर आप किन्हें मानते हैं?

जवाब: मेरी दृष्टि में बशीर बद्र की रचनाएं वर्तमान समय की रचनाओं में सबसे ऊपर आती हैं। राहत इंदौरी और दुष्यंत कुमार जी की रचनाओं का भी मैं बहुत बड़ा प्रशंसक हूं। हालांकि मंचीय कविताएं कुछ अलग तरह की होती हैं।

सवाल: गुफ़्तगू पत्रिका को तकरीबन आप शुरू से देख रहे हैं, क्या कहना चाहेंगे इसके बारे में ?

जवाब: ग़ज़लों के संबंध में ‘गुफ्तगु’ भारत की उत्कृष्ट पत्रिकाओं में से एक है जो व्यक्ति समाज और राष्ट्र की विभिन्न प्रकार की समस्याओं तथा उनके सम्यक समाधान को साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत करती है। यह पत्रिका मानवीय दृष्टिकोण, सर्वधर्म समभाव को आगे बढ़ाती हुए साहित्य को एक नई ऊंचाई पर ले जाती है। मनमोहक पठन सामग्री के लगातार प्रकाशन हेतु ‘गुफ्तुगु’ पत्रिका के संपादक मंडल बधाई के पात्र हैं। जहां तक पत्रिका के कलेवर की बात है तो काव्य जगत की अन्य विधाओं को भी अगर सम्मिलित किया जाए तो यह बहुत उपयोगी सिद्ध होगी।

सवाल: नई पीढ़ी तो कविता या शेर को सोशल मीडिया पर पब्लिश करके वाह-वाही पा लेने को ही कामयाबी मानती है, आप इसे किस रूप में देखते हैं?

जवाब: सोशल मीडिया की अपनी सीमा है एवं प्रयोग का भी एक दायरा है। हर चीज को केवल सोशल मीडिया पर प्रकाशित करना उचित नहीं हो सकता है। सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया का स्थान नहीं ले सकता है। प्रिंट मीडिया का कोई विकल्प नहीं है। नई पीढ़ी में पठनीयता की कमी उनको अधूरा ज्ञान देती है तथा ज्ञान की संपूर्णता में बाधक सिद्ध होती है। सोशल मीडिया की अपनी लक्ष्मण रेखा है उससे आगे वह नहीं जा सकती है।

सवाल: आजकल आपका कौन-सा सृजन-कार्य और अध्ययन चल रहा है?

जवाब: आजकल मेरे कहानी-संग्रह गिरगिट का चार भाषाओं (बांग्ला, असमिया, उड़िया एवं कन्नड़) में अनुवाद चल रहा है। कन्नड़ और बांग्ला भाषा में अनुवाद प्रकाशित भी हो चुके हैं।

सवाल: शायरी के लिए उस्ताद का होना, कितना जरूरी मानते हैं आप?

जवाब: जीवन का कोई भी क्षेत्र हो यदि उस क्षेत्र में पारंगत और सही पथप्रदर्शक/उस्ताद मिल जाय तो ज्ञानार्जन करना और उसमें पारंगत होना आसान हो जाता है। मार्ग सरल और सुगम हो जाता है। स्वाध्याय से भी मंजिल प्राप्त हो सकती है परंतु रास्ता कठिन, श्रमसाध्य और मंजिल अक्सर अस्पष्ट होती है। उस्ताद के मामले में मैं बड़ा भाग्यशाली रहा हूं। ग़ज़ल लेखन में, लखनऊ के डॉ. मिर्जा हसन ‘नासिर’ साहब मेरे उस्ताद रहे है। ग़ज़ल का व्याकरण सीखने के लिए मैं उनके घर अनेक बार गया। उनके सानिध्य में मैने ग़ज़ल की बारीकियां सीखी। उनके निरंतर मार्ग दर्शन ने मेरी ग़ज़लों के स्तर को निखारा।

सवाल: साहित्य के क्षेत्र में आने वाले नये लोगों के लिए आप क्या संदेश देना चाहेंगे? 

जवाब: नई पीढ़ी से मैं यह कहना चाहूंगा कि वर्तमान समय में व्यक्ति और सामाजिक समस्याओं एवं विसंगतियों को केन्द्र में रखते हुए, यथार्थ की भूमि पर साहित्य सृजन करना, साहित्य तथा समाज को नई दिशा देगा। ख्याली पुलाव के आधार पर किए गए सृजन की उपादेयता संदेहशील है।

(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2023 अंक में प्रकाशित )

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें