मुनव्वर राना के आंसुओं से तामीर हुआ एक जलमहल
- यश मालवीय
जनाब मुनव्वर राना को कई रूपों, कई रंगों, कई शक्लों और कई खुशबुओं में देखने-सुनने, गुनने और महसूस करने के मौके मिलते रहे हैं। ‘मुहाजिरनामा’ उनमें सबसे अलहदा, सबसे जुदा एक ऐसा शाहकार है, जिसे खुश्क आंखों से पढ़ा ही नहीं जा सकता। आंखें नम होती हैं तो होती चली जाती हैं, हालांकि की नींद की नदी सूख जाती है। रात और काली लगने लगती है। बेचैनी की करवटें, सूखता हलक, लबों की तरह कांपता थरथराता दिल, तकलीफ़ का उमड़ता समुंदर, टूटी कश्ती सा समय, दिशाओं में उड़ती रेत, धूल के बगूले, चितकबरा आसमान, धुंध में डूबे मंदिर और मस्जिद के गुंबद, कुहरों में खोती सच्चाई, असवाद में डूबी घाटियां, फूलों के उतरे चेहरे, कहीं नहीं पहुंचाती सड़कें, अंतहीन गलियां, मज़हब की कटी-बंटी तहरीरें, धुंधली तस्वीरें, चटख होते ज़ख़्मों का ज़खीरा, गुलाम होकर भी आज़ाद होने का वहम, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान यानी दोनों देशों का बेपनाह दर्द, हिस्सों में तक्सीम ज़िन्दगी, जे़ह्न से धड़धड़ाती हुई ट्रेन का गुजरना, घायल परिन्दे, चश्मे की टूटी कमानी, खाली रखा पानी का घड़ा, कम वाट के बल्ब के इर्द-गिर्द जाला पूरती मकड़ी, खिलौनों के लिए मचलता बचपन, मुफ़लिसी के दुपट्टे ओढ़े जवानी, बूढ़ी आंखों का मोतियाबिंद, रास्तों पर दौड़ता 440 वोल्ट का करंट, टुकड़े-टुकड़े पहाड़, खून में डूबी हरियाली, फूट-फूटकर रोती ऋतुएं, झरनों के पपड़ाए-सूखे होंठ, सियासत के कैबरे अथवा आइटम सांग, खिड़कियों दरवाजों के टूटे पल्ले, बुझे चूल्हे, रसोई से बाहर खेलती आग, झुलसते बादल, क्या-क्या नहीं कौंध जाता है मन में। बहुत पहले बचपन में पढ़ा ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित डाक्टर राही मासूम रज़ा का लेख। जी हां ! मैं भारतीय मुसलमान बोल रहा हूं। नए सिरे से जैसे जिन्दा हो जा रहा है। यह बात गर्व से अपने आप को हिन्दू मानने वाली समूची कौम के लिए बेहद शर्मनाक है। अपने ही मुल्क में शरणार्थी होने की पीड़ा से बढ़कर दूसरी कोई पीड़ा और क्या हो सकती है। मुनव्वर राना ने वास्तव में एक जेनुइन मुसलमान की आवाज़ अपनी संपूर्ण छटपटाहट और बेकली के साथ ‘मुहाजिरनामा’ मे पेश की है। यह उनके आंसुओं से तामीर हुआ एक ऐसा जलमहल कि दिल और दिमाग उसी में डूबते-उतराने लगते हैं।
मैं उनके गद्य का भी गहरा शैदाई हूं। भूमिका के तौर पर लिखे अपने मास्टर पीस ‘हम खुद उधड़ने लगते हैं तुरपाई की तरह’ में वह लिखते हैं।
इबादत का रिश्ता मज़हब से नहीं रूह से होता है। इसीलिए तो चिड़ियां लाउडस्पीकर का इस्तेमाल नहीं करतीं। सब की आवाज़ें एक लय और एक सुर में ढ़ल जाती हैं। वह दरख़्तों को अपना मुल्क समझती हैं, और मुल्क को इबादतगाह।
या फिर तारीख वह सूदखोर साहूकार है जो सूद-ब्याज के साथ अपना कर्ज़ वसूल कर लेती है। या फिर गुर्बत चोंचलों से पनाह मांगती है। वह भी पत्थर में भगवान ढूंढ़ लेती है, वह किसी भी अंगोछे को जानमाज बना लेती है।
खुद मुनव्वर के लिए, उनकी शायरी के लिए उनका अपना लिख गद्य बहुत बड़ी चुनौती है। उनके इन वाक्यांशों पर स्वनामधन्य बड़े-बड़े शायरों के दीवान निछावर किये जा सकते हैं। आज तक हम हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए यह मुश्किल पेश आती रही है कि महादेवी वर्मा जी पद्यकार बड़ी हैं या गद्यकार। मुनव्वर को पढ़ते हुए भी मुझे बारहा यह लगता है कि गद्य में वह अपने आपको समूचा उड़ेल देते हैं, शायरी में जैसे कुछ थोड़ा सा उनके अपने पास बचा रह जाता है, हालांकि अपने दिल को भीगे अंगरखे की तरह निचोड़ कर देने में वह यहां भी कोई कोताही नहीं बरतते, मसलन-
जहां पर बैठकर बरसों किसी की राह देखी थी
हम स्टेशन के रस्ते पे वो पुलिया छोड़ आए हैं।
बसी थी जिसमें खुशबू मेरी अम्मी की जवानी की,
वो चादर छोड़ आए हैं वो तकिया छोड़ आए हैं।
मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं।
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं।
सुना है अब फ़क़त उन्वान है वो इक कहानी का,
हवेली में जो हम पीतल का घंटा छोड़ आए हैं।
कई शहतूत के पत्तों पे ये तारीख़ लिक्खी है,
कि हम रेशम उठा लाए हैं कीड़ा छोड़ आए हैं।
वो ख़त जिस पर तेरे होठों ने अपना नाम लिक्खा था,
तेरे काढ़े हुए तकिये पर रक्खा छोड़ आए हैं।
आंसुओं की स्याही से लिखी यह इबारतें कभी मिट नहीं सकतीं। इनमें अपने समय की सांसें हैं, एक सहता सहता सा अनसहता सा दर्द है और एक ऐसी कराह है, जिसमें करूणा का संगीत बहता है। कहीं-कहीं प्रार्थना के स्वर सुनाई देते हैं, सबेरे की अजान जैसे भटके हुए मुसाफ़िर को रास्ता दिखाती है।
(गुफ़्तगू के अप्रैल-जून 2023 अंक में प्रकाशित )
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