गुरुवार, 24 नवंबर 2011

मुशायरे ज़माने से अलग नहीं: अनवर जलालपुरी


छह जुलाई 1947 को जन्मे अनवार अहमद उर्फ अनवर जलालपुरी उर्दू अदब की दुनिया में किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। मुशायरों की दुनिया में एक प्रख़्यात संचालक के रूप में तो ये मशहूर हैं ही, इसके अलावा भी इन्होंने कई बड़े काम किए हैं। सन 1988 से 1992 तक उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी के सदस्य रहे, 1994 से 2000 तक उत्तर प्रदेश राज्य हज कमेटी के सदस्य ने रूप में अपनी संवाएं दी है।वर्तमान में ये उत्तर प्रदेश उर्दू-अरबी फारसी बोर्ड चेयरमैन हैं। मेगा सीरियल ‘अकबर दी ग्रेट’ का संवाद और गीत लेखन भी आप ही ने किया है। अब तक आपकी प्रकाशित पुस्तकों में ‘रोशनाई के सफ़ीर’,‘खारे पानियों का सिलसिला’,‘खुश्बू की रिश्तेदारी’,‘जागती आंखें’,‘जर्बे लाईलाह’, ‘जमाल-ए-मोहम्मद’, ‘बादअज खुदा’,‘हर्फ अब्जद’ और ‘अपनी धरती अपने लोग’ आदि हैं।एन डी कालेज जलालपुर में अंग्रेजी के लेक्चरर रहे चुके अनवर जलालपुर से गुफ्तगू के उप-संपादक डॉ0 शैलेष गुप्त ‘वीर’ ने उसने बात की-



सवालः एक मंच संचालक और एक शायर की भूमिका में क्या फर्क़ है?


जवाबः देखिए,यदि मंच संचालक शायर भी है तो वह मौजूद शायरों के साथ ज़्यादा इंसाफ कर सकेगा और यदि वह शायर नहीं है तो वह उतना इंसाफ़ नहीं कर सकेगा क्योंकि वह शायरी की आत्मा से पूर्णतः परिचित नहीं होता है। दूसरी बात, जो शायर, संचालक भी है, उसका व्यक्तित्व दोहरा हो जाता है।दो गुणों का मालिक होने के कारण उसकी स्थिति बेहतर और महत्वपूर्ण हो जाती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि शायर की हैसियत से भी वह अन्य के मुकाबले श्रेष्ठ ही है।


सवालः मुशायरों और मंचों का स्तर लगातार गिरता जा रहा है, क्यों?


जवाबः आज ज़िन्दगी के हर क्षेत्र में हर चीज़ का स्तर गिरता जा रहा है, यह प्रकृति का नियम है। किसी ज़माने में इसी गेहूं-चावल का स्वाद दूसरा था। आज समाज के हर क्षेत्र में नकलीपन बनावट और भ्रष्टाचार शामिल है। झूठ ज्यादा कामयाब होता दिखाई पड़ रहा है। जब हर क्षेत्र में यह कमज़ोरियां हैं और मुशायरों के क्षेत्र में भी कोई कमज़ोरी आयी है तो इसका मतलब मुशायरे भी ज़माने के साथ चल रहे हैं, ज़माने से अलग नहीं।


सवालः अधिकांश शायरात-कवयित्रियों पर अक्सर यह आरोप लगता रहा है कि मंचों पर द्वारा पड़ी जाने वाली रचनाएं खुद न होकर किसी और की होती है, यह कहां तक सही है?


सवालः यह भी यह सच्चाई है। राजनीति में भी बहुत ही योग्य व्यक्ति ईमानदारी कार्य करने के बावजूद चुनाव हार जाते हैं और उसके मुकाबले में एक जाहिल व्यक्ति चुनाव जीत जाता है। संसद और विधानसभा भी उसी को शपथ दिलाती है क्योंकि जनता ने उसे किसी वजह से स्वीकार कर लिया है। यही सूरत मुशायरों-मंचों की भी है। यह बात बिल्कुल सही है कि ऐसे लोग जो उधार की रचनाएं पढ़ते हैं मगर मंच पर उन्हें सम्मान इसलिए मिलता है कि जनता उन्हें स्वीकार कर रही है और आयोजक भी उन्हें बुलाने के लिए मज़बूर हैं।... तो ज़िन्दगी के हर क्षेत्र का नक़लीपन मुशायरों के मंच पर भी काबिज़ हैं।


सवालः क्या आपने किसी कार्यक्रम के दौरान ऐसा महसूस किया है?


जवाबः यह अनुभव करने की बात नहीं है,यह तो हम जानते हैं। जो मुख्यमंत्री है या जो चुनाव में टिकट बांटते हैं, क्या वे यह नहीं जानते कि चुनकर आए हुए लोगों में कौन जाहिल और अंगूठाछाप है और कौन सच्चा है। नक़ली लोगों के बारे में सब कुछ जानने के बावजूद हम मंच पर टिप्पणी करने वाले कौन होते हैं, जब उनकी नक़ली लोगों की मंच पर स्वीकार्यता है और आयोजक उन्हें बुला रहे हैं।


सवालः यदि लिपि का अंतर छोड़ दिया जाए तो हिन्दी और उर्दू में ज़बान के स्तर पर भी क्या कोई अंतर है?


जवाबः साहित्यिक स्तर पर ये दोनों अलग-अलग ज़बानें हैं, लेकिन बोलचाल में बगैर सोचे हुए जो बातचीत होती है, वही उर्दू है, वही हिन्दी है,वही हिन्दूस्तानी है। और उसी के अंदर हिन्दुस्तानियत की आत्मा छिपी होती है। यह बिल्कुल उसी तरह से है जैसे शेक्सपीयर के प्ले भी अंग्रेज़ी में है, शॉ के प्ले भी अंग्रेज़ी में और गांधी, नेहरु या राधाकृष्णन की भी लिखी हुई भी अंग्रेज़ी है। लेकिन शेक्सपीयर या शॉ की अंग्रेज़ी,गांधी, नेहरु या राधाकृष्णन की अंग्रेज़ी बिल्कुल भिन्न है। हिन्दी-उर्दू का बंटवारा साहित्यिक स्तर पर ही है, बोलचाल के स्तर ज़बान का नाम हिन्दुस्तानी ही होनी चाहिए। आप दुष्यंत कुमार के दस शेर ले लीजिए और दस शेर मुनव्वर राना के, और किसी को यह न बताइए कि ये किसके शेर हैं और पूछिए कि यह हिन्दी है या उर्दू? दुष्यंत कुमार का शेर है-
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दोहरा गया होगा
मैं सज़द में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा।

और मुनव्वर राना का शेर यह है-
सो जाते हैं फुटपाथ पर अख़बार बिछाकर,
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।

बताइए इसमें हिन्दी में कौन है और उर्दू में कौन है? अगर हम कहें दोनों हिन्दुस्तानी हैं, जो लोग हिन्दुस्तान में रहते हैं और जो लोग हिन्दुस्तान के माहौल में रचे-बसे हैं,यह उन्हीं की भाषा है। यह न राना की भाषा है, न ही दुष्यंत कुमार की भाषा है, अलबत्ता शेर उनके हैं.....।

सवालः आप युवा पीढ़ी के किन शायरों से बेहद प्रभावित हैं?


जवाबः कई लोग हैं, जो उर्दू में बहुत अच्छा कहते हैं, ग़ज़लों में लखनउ के तारिक़ क़मर और बिजनौर के शकील जमाली आदि हैं। हिन्दी कवियों में आलोक श्रीवास्तव और अतुल अजनबी से काफ़ी उम्मीदे हैं। मुशायरों में आजकल अलताफ़ ज़िया की काफी धूम है। इन सबसे मैं बेहद प्रभावित हूं। इनके अतिरिक्त और भी कई लोग हैं जो अच्छा लिख रहे हैं, अच्छा कह रहे
सवालः उर्दू में जो लोकप्रियता ग़ज़लों को मिली, वह लोकप्रियता नज़्म हासिल नहीं कर सकी, आखि़र क्यों?

जवाबः जिस प्रकार दोहों की दो पंक्तियों में पूरी बात कह दी जाती है, ठीक उसी प्रकार ग़ज़ल में दो मिस्रों में एक मुकम्मल बात कह दी जाती है। उसी बात को नज़्म में 25-30 पंक्तियों में कही जाती है। असल में मानव स्वभाव हमेशा संक्षिप्त में ही सुनना चाहता है। गीता और कु़रआन में भी अच्छी और बड़ी बातें संक्षिप्त में की गई हैं, विस्तार में नहीं। वहां एक-एक श्लोक या आयत में कम शब्दों में बहुत अधिक शिक्षाएं दी गईं हैं। ग़ज़ल का यह गुण है कि वो बेइंतिहा मुख़्तसर दो पंक्तियों में बहुत बड़ी बात कह देती है। जैसे कि-


हमसे मोहब्बत करने वाले रोते ही रह जाएंगे,

हम जो किसी दिन सोए तो फिर सोत ही रह जाएंगे

रात ख़्वाब में मैंने अपनी मौत को देखा,
उतने रोने वालों में तुम नज़र नहीं आए।


नज़्म व्याख्या है,विस्तार है और ग़ज़ल संक्षिप्त है, गागर में सागर है। यही कारण है कि ग़ज़लें नज़्म की तुलना में अधिक लोकप्रिय हुईं।


सवालः साहित्यिक पुरस्कारों के चयन में होने वाली राजनीति और गुणा-भाग के बारे में आपकी क्या राय है?


जवाबः साहित्यिक पुरस्कारों के चयन का गुणा-भाग या राजनीति में किसको किस कुर्सी पर बैठाया जाए, के चयन के गुणा-भाग में कुछ विशेष फ़र्क नहीं है। दोनों के चयन में लोगों के अपने-अपने स्वार्थ, अपनी-अपनी रुचि,अपनी-अपनी दिलचस्पियां छिपी हुई हैं। हमने कभी आपको खुश किया, कभी आप हमें खुश कर दें। यह दुनिया लेने-देने की दुनिया है, इस बात का विस्तार बहुत है, लेकिन इसको यहीं पर रहने दिया जाए।


सवालः आजकल मंचीय कवि और प्रकाशित होने वाले कवि एक-दुसरे से दूर भागते क्यों जा रहे हैं?

जवाबः ऐसी बात नहीं है, कोई अलग नहीं हो रहा है। असल में यह स्वीकार्यता के जुड़ी हुई बात है।जिन लोगों को मंच कुबूल कर रहा है,वह मंच पर जा रहे हैं।जिन्हें मंच कुबूल नहीं कर रहा है और उन में प्रतिभा तो है, उस प्रतिभा को कहीं न कहीं उजागर होना चाहिए न .... उसके लिए प्रिंट मीडिया है। काम दोनों अपने-अपने ढंग से कर रहे हैं, दोनों को इज़्ज़त मिलनी चाहिए।

सवालःसूचना प्रोद्योगिकी के इस दौर में साहित्य का क्रेज लगातार कम होता जा रहा है, क्यों?

जवाबः अंग्रेज़ी मे एक बात कही गई है ‘पोएटरी डिकलाइन ऐज सिविलाइजेशन एडवांस’ अर्थात सभ्यता के आधुनिकीकरण के साथ काव्य का पतन होता जाता है। यह प्रकृति का नियम है। जैसे आज हम शायरी करते हैं और इसे इतना वक़्त देते हैं लेकिन कल हमें मिनिस्टर बना दिया जाए तो क्या यह मुमकिन है कि जितनी दिलचस्पी हम आज ले रहे हैं, वह कल भी रहेगी। कल हमारी परिस्थितियां बदल जाएंगीं। अधिकाधिक पैसा कमाने की होड़ ने मानव को मशीन बना दिया है... गुलामी के दौर में ज़्यादा बड़ी प्रतिभाएं पैदा हुईं, गरीबी के दौर में आदमी जितना संघर्षशील होता है, खुशहाली के दौर में उतना नहीं।यही कारण है कि साहित्य का क्रेज लगातार कम होता जा रहा है।


गुफ्तगू के अक्तूबर-दिसंबर 2010 अंक में प्रकाशित

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