रविवार, 23 अक्टूबर 2011

इंसानियत के पैरोकार थे कैफी आज़मी


---- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ----

कैफी आज़मी का शुमार उन शायरों में होता है, जिन्होंने जिन्दगी के अंतिम पल तक इंसानियत का धर्म निभाया और और अस्पताल में लंबे समय तक बीमार पड़े रहने के बावजूद उसी अवस्था में शायरी में करते रहे। अंतिम समय में भी लोगों की जी खोलकर मदद करने वाले शख्स थे।उन्होंने न सिर्फ़ शायरी की बल्कि अपने शायर और अदीब होने का बखूबी फर्ज निभाया। उनकी पत्नी शौकत कैफी बताती हैं, ‘कैफी ने मौत से कभी हार नहीं मानी,निरंतर लड़ते रहे।अस्पताल की एक घटना याद आती है। घर से सवा चार बजेे अस्पताल पहुंची, कैफी बेहोष पड़े थे। उनके कमरे के दरवाजे पर डू ना डिस्टर्ब की तख्ती लगी हुई थी। पत्नी भी चार बजे से पहले उनके कमरे में प्रवेश नहीं कर सकती थी।क्या देख रही हूं कि एक छात्र कैफी के सिरहाने बैठा अपना दुखड़ा सुना रहा है और कैफी अर्धमूर्छित अवस्था में अपने सिर दर्द के बावजूद बड़े ध्यान से सुन रहे हैं। मैं देखते ही झल्ला गई। ‘ हद हो गई, डाक्टर ने आपको बात करने से भी मना किया है और आप उनसे बातें कर रहे हैं।’ फिर मैंने उस लड़के से कहा-मियां तुम ज़रा बाहर जाओ। इस पर वह कसमसाने लगा और बोला, मैं कैफी साहब को अपने हालात सुनाना चाहता हूं। मैंने प्यार से कहा-जरा आप बाहर जाइए मुझे आपसे कुछ कहना है। लड़का उठकर बाहर आने लगा तो कैफी ने अपनी क्षीण लड़खड़ाती आवाज में कहा, ‘ शौकत यह स्टूडेंट है,इसे कुछ मत कहना। हो सके तो इसकी जो ज़रूरत हो उसे पूरा कर देना।’ अच्छा-अच्छा कहकर बाहर निकल गई। पूछने पर पता चला कि वह अहमदाबाद का रहने वाला है। सौतेली मां के अत्याचार से घबराकर भाग आया है और कैफी से काम मांगने आया है।’ एक अन्य घटना का जिक्र करते हुए शौकत कैफी बताती हैं,‘ एक बार वह लान में बैठे लिख रहे थे।फूल,पौधों से उन्हें बड़ा प्रेम था। इसके लिए बहुत परिश्रम करते। दूर-दूर से फूलों के बीज मंगवाते। उस समय फूलों का मौसम आने वाला था। फूलों के बाग में मुहल्ले की एक मुर्गी अपने दस-बारह छोटे बच्चों सहित आ गयी और पंजों से गमलों के बीज कुरेद-कुरेद कर खाने लगी।बच्चे भी मां का साथ देने लगे। बस कैफी का एकदम गुस्सा आ गया और उन्हें भगाने के लिए एक छोटा सा पत्थर उनकी ओर फेंका। वह पत्थर मुर्गी के एक बच्चे का लग गया और उसने वहीं तड़प-तड़प दम तोड़ दिया। बस फिर कैफी से रहा न गया, जल्दी से अपनी जगह से उठ खड़े हुए। मुर्गी के बच्चे को पानी पिलाने और किसी प्रकार से उसे जीवित करने की कोशिश करने लगे, मगर जब वह बच न सका तो एक दम कलमबंद करके रख दिया और दो दिन तक काम ही न कर सके। मुझसे कहने लगे, ‘मैंने बहुत ज़्यादती की। उन्हें आवाज़ से भी भगा सकता था। पत्थर फेंकने की क्या ज़रूरत थी। अब मुझसे काम नहीं हो पा रहा है। जब बैठता हूं, वह मुर्गी का बच्चा नज़रों के सामने घूमने लग जाता है।’ मैंने हंसकर बिल्कुल बच्चों की भांति समझाया, ‘भई यह तो अकस्मात ऐसा हो गया फिर तुम मुर्गी खाते भी तो हो। अगर अब नहीं मरता तो बड़ा होकर काट दिया जाता। तुम इसके बारे में मत सोचा।’ शौकत कैफी एक और घटना को याद करती हैं, ‘ एक दिन हमारे घर में चोरी हो गयी। तमाम बेड़ कवर, चादरें, कंबल चोरी हो गए। मुझे मालूम था कि चोर कौन है। एक चोर माली हमारे घर किसी प्रकार आ गया था। जब हमारे घर में निरंतर चोरियां होने लगीं और मुझे पता चला कि यह सारा काम उसी माली का है तो मैंने उसे निकाल दिया और एक दिन जब हम घर से बाहर गए हुए थे और घर खुला हुआ था तो मौका पाकर वह माली फिर आया और घर के तमाम कंबल और चादरें उठा ले गया। जब मैंने कैफी से कहा कि तुम पुलिस में सूचना दो, तो कहने लगे, ‘देखो शौकत बारिश होने वाली है-उस गरीब को भी तो चादरें और कंबल की ज़रूरत होगी। उसके बच्चे कहां जाएंगे। तुम तो और खरीद सकती हो लेकिन वह नहीं।’ मैंने अपना सिर पीट लिया और कोेई जवाब नहीं दे सकी।’ अतहर हुसैनी रिजवी उर्फ कैफी आजमी का जन्म 17 जनवरी 1919 का आजमगढ़ जिले के मिजवां गांव में हुआ था। घर में ही शेरी-शायरी का अच्छा-खासा माहौल था, उनके बड़े भाई और पिता भी शायरी के काफी लगाव रखते थे। खुद उनके घर में भी शेरी-नशिस्त का दौर चलाा करता था। कैफी ने मात्र ग्यारह साल की उम्र में ही शेर कहना शुरू कर दिया था। बहुत मशहूर वाकया है, जब वे मात्र ग्यारह वर्ष के थे,उनके गांव में ही तरही मुशायरा का आयोजन किया गया था। उस मुशायरे का तरह था ‘ इतना हंसों कि आंख से आंसू निकल पड़े’। उन्होंने कहा-
इतना तो ज़िदगी में किसी की खलल पड़े,
हंसने से हो सुकून, न रोने से कल पड़े।

इस मुशायरे में उन्हें काफी वाहवाही मिली। उनके पिता दंग रह गए। उन्होंने तुरंत एक पारकर पेन, एक शेरवानी के साथ उनका उपनाम ’कैफी’। तब से वे कैफी आजमी हो गए। उनकी तीन प्रमुख कृतियां प्रकाशित हुई हैं। आखिरी शब, झंकार और आजाद सज्दे। उन्होंने तमाम फिल्मों में गीत लिखे। जिसके लिए उन्हें नेशनल पुरस्कार के के अलावा फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला। इस कलम के सिपाही ने 10 मई 2002 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

(हिन्दी दैनिक जनवाणी में 09 अक्तूबर 2011 को प्रकाशित )

2 टिप्पणियाँ:

Darshan Darvesh ने कहा…

कैफ़ी आज़मी के बारे पढकर बहुत ही अच्छा लगा, अब तो और भी सारी मुलाकातें पढ़कर ही चैन आएगा | आपका उद्दम और लिखने का शिल्प मज़ेदार है | - सुखदर्शन सेखों, चंडीगढ़ |

Darshan Darvesh ने कहा…

कैफ़ी आज़मी के बारे पढकर बहुत ही अच्छा लगा, अब तो और भी सारी मुलाकातें पढ़कर ही चैन आएगा | आपका उद्दम और लिखने का शिल्प मज़ेदार है | - सुखदर्शन सेखों, चंडीगढ़ |

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