साहित्य की दुनिया में प्रोफेसर शहरयार का नाम किसी परिचय का मोहताज़ नहीं है,बल्कि उनका नाम बड़ी इज्ज़त से लिया जाता है.उन्होंने अबतक जो इबारत लिखा है उसे इस युग का ख़ास हासिल है.उमराव जान जैसी फिल्म में लिखे उनके गीत मील की पत्थर की तरह हैं.अबतक इस्मे आज़म,सातवां दर,हिज्र के मौसम,ख्वाब का दर बंद है,नींद की किरचें और मेरे हिस्से की ज़मीन नामक काव्य संग्रह उर्दू में प्रकाशित हो चुके हैं. इसके अलावा धूप की दीवार,मेरे हिस्से की ज़मीन,ख्वाब का दर बंद है और कहीं कुछ कम है नामक किताबे हिंदी में भी छपी हैं.18 सितंबर 2011 को हिंदी फिल्मों के महानायक कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन के हाथों उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया. उर्दू साहित्यकारों में यह पुरस्कार पाने वाले वे चौथे साहित्यकार हैं, उनसे पहले कुर्तुलएन हैदर,फ़िराक गोरखपुरी और सरदार अली जाफरी को यह एवार्ड मिला है.शहरयार को ज्ञानपीठ से पहले बहादुर शाह ज़फर,उर्दू अकादमी पुरस्कार,ग़ालिब एवार्ड और राजभाषा पुरस्कार मिल चूका है.ज्ञानपीठ पुरस्कार अमिताभ बच्चन के हाथों से दिए जाने को लेकर काफी चर्चा रही, तमाम साहित्यकारों ने इसकी आलोचना भी की.इम्तियाज़ अहमद गाज़ी ने उनसे बातचीत की-
सवाल:एक साहित्यकार के लिए एवार्ड की क्या अहमियत है?
जवाब:वैसे तो कोई ख़ास अहमियत नहीं है,लेकिन पुरस्कार मिलने के बाद जिम्मेदारी और बढ़ जाती है.आदमी जब पूरा जीवन लेखन कार्य में व्यतीत कर देता है और उसके बदले कोई पुरस्कार मिलता है तो अच्छा ही लगता है. लेकिन एवार्ड पाने के लिए ही लेखन नहीं किया जाता, न ही यह लेखन का मकसद होना चाहिए.
सवाल:ज्ञानपीठ पुरस्कार अमिताभ बच्चन के हाथों दिए जाने को लेकर काफी आलोचना हो रही है.अधिकतर साहित्यकारों का कहना है कि यह पुरस्कार किसी साहित्यकार के हाथों से मिलना चाहिए था?
जवाब:अमिताभ बच्चन के हाथों पुरस्कार दिए जाने को मैं गलत नहीं मानता. फिल्म इंडस्ट्री के महानायक कहे जाते हैं अमिताभ बच्चन,उनके हाथों पुरस्कार लेने में मुझे कोई असहजता महसूस नहीं हुई. लोगों का क्या है, लोग हर काम में कोई न कोई कमी निकाल ही लेते हैं.और पुरस्कार देने का फैसला पुरस्कार देने वाली संस्था को करना होता है, इसमें किसी को एतराज़ नहीं होना चाहिए.
सवाल: मौजूदा दौर की फिल्मों को देख कर कैसा लगता है ?
जवाब: फ़िल्में बहुत खतरनाक दौर से गुजर रहीं हैं। ऐसी चीज़ें दिखाई जा रही हैं, जिनका असलियत से कोई वास्ता नहीं होता, लेकिन देखने में अच्छा लगता है। आदमी तीन घंटे के लिए असल जिंदगी भूल जाता. फिल्म खत्म हो जाने के बाद पता चलता है कि असल जिंदगी में क्या होता है। आज कि फिल्मों में आम आदमी गायब हो गया है। हर तरफ दिखावटी चमक-धमक ही प्रदर्शित कि जा रही है
सवाल: उर्दू कि मौजूदा सूरतेहाल से आप कितने संतुष्ट हैं?
जवाब: बिलकुल। पूरी तरह तरह संतुष्ट हूँ। उर्दू का भविष्य अच्छा है। यह ज़बान हिन्दुस्तान की ज़बान है।सवाल: उर्दू की तरक्की के लिए कुछ लोग इसकी लिपि को देवनागरी लिपि बदलने की बात करते हैं?
सवाल: लेकिन उर्दू स्क्रिप्त बहुत मुश्किल है?
जवाब: मुश्किल होने का मतलब बदल देना नहीं है। वैसे भी यह गलत धारणा है कि उर्दू स्क्रिप्त मुश्किल स्क्रिप्त है। आप अंग्रेजी सीख सकते हैं, लोग जापानी सीख रहे हैं.... दरअसल गैर उद्रू भाषियों को उर्दू सीखने में लाभ नज़र नहीं आ रहा है.....इसके भी कई वजह हैं।उर्दू स्क्रिप्त या कहें उर्दू ज़बान अभी भारत में रोज़गार कि भाषा नहीं बन पा रही है। दूसरे, जहाँ तक उर्दू अदब खासकर शायरी पढ़ने की समस्या है तो वो देवनागरी में उपलब्ध होने लगी है।
सवाल: न्यूज़ चैनलों के बढते प्रभाव को किस रूप में परिभाषित करना चाहेगें?
सवाल: उर्दू लिटरेचर की तमाम चीज़ें अब हिंदी में अनूदित और प्रकाशित होने लगीं हैं, कैसा लगता है?
जवाब: इसका उर्दू पर अच्छा ही असर पड़ रहा है। उर्दू फ़ैल रही है।हिंदी पढ़ने वालों की तादाद अधिक है, वे उर्दू लिटरेचर की चीज़ें पढ़ना पसंद कर रहे हैं, इसलिए ऐसा है। यह उर्दू लिटरेचर के लिए पाजिटिव संकेत है।
सवाल: फ़िल्मी गीतकारों की शिकायत है कि उन्हें साहित्यकार नहीं माना जाता?
जवाब: जो साहित्यिक रचनाएं करते हैं उन्हें माना भी गया है। साहित्य कि अपनी सीमाएं हैं। जिन फ़िल्मी गीतों की लोग वकालत कर रहे हैंवास्तव में वे गीत हैं ही नहीं। इन गीतों से मयूजिक हटा दीजिए तो कुछ नहीं बचेगा। साहित्य वही है जो कागज़ पर आ सके।
सवाल: कुछ लोगों का कहना है कि हिंदी संस्थान और उर्दू एकेडमी अलग-अलग नहीं होना चाहिए। दोनों का काम एक जगह एक साथ किया जाना चाहिए?
जवाब: दोनों ज़बानों कि अलग-अलग संस्थाएं होनी ही चाहिए। एकता अलग चीज़ है, एक बनाना अलग चीज़ है। सब चीज़ें एक जैसी नहीं हो सकतीं। ये न कभी हुआ है न कभी होगा। हाँ, इन संस्थाओं में इमानदारी से काम किये जाने की ज़रूरत महसूस होती है।
सवाल : शेर किस तरह कहा जाता है?
जवाब: शेर कहने के लिए कोई न कोई टारगेट होता है।कोई न कोई मकसद होता है कि मैं यहाँ अपनी चीज़ पहुंचाना चाहता हूँ। जब बिना मकसद के सिर्फ शेर कहने के लिए शेर कहा जाता है तो उसमें वज़न नहीं होता, साथी शेर होकर रह जाता है। टारगेट का होना बेहद ज़रुरी है।
सवाल:समाज में बुराई भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। इसकी क्या वजह मानते हैं?
जवाब: अच्छाई को बहुत लोगों की ज़रूरत होती है।अकेला आदमी कुछ नहीं कर सकता। आदमी अपना आकलन करता रहे कि दिनभर में क्या अच्छा किया, तो बात बन सकती है।पहले लोग वाच करते थे कि मेरा बच्चा कहाँ से कितना कमा रहा है। मगर अब यह नहीं देखा जाता कि पैसा कहाँ से आ रहा है। बस चाहता है कि मेरा बच्चा पैसा कमा कर लाये। यही बुराई कि जड़ है।
जवाब:यह बात गलत है। नए लोग भी अच्छा लिख रहे हैं। पहले भी अच्छा-खराब दोनों तरह के लिखने वाले थे, आज वही हालात हैं। बहुत से नए लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं। हाँ, खराब लिखने वालो की तादाद भी कम नहीं है। एक चीज़ ज़रूर खलती है कि नए लोग पढ़ते नहीं हैं। चार गज़ल लिख लिया और हो गए देश के सबसे बड़े शायर। नए लोग पहले खूब मेहनत करें, फल कि इच्छा न करें। दूसरे शायरों लेखकों को खूब पढ़ें तभी पुख्ता शेर होगा।
सवाल:किसी नई फिल्म के लिए गीत लिख रहे हैं?
जवाब:हाँ, मुज़फ्फर एक फिल्म बना रहे हैं,जिसका नाम जहांगीर-नूरजहाँ है, इस फिल्म के लिए गीत लिख रहा हूँ।(02 अक्टूबर 2011 को हिंदी दैनिक जनवाणी में प्रकाशित)
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